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________________ १, २, १९.] दव्वपमाणाणुगमे णिरयगदिपमाणपरूवणं [१७७ ____ अहवा ताहि चेव सलागाहि समुदिदाहि पढमपुढविसामण्णविक्खंभसूचीहि अण्णोण्णभत्थाहि गुणिदसेढिविदियवग्गमूलमोवाट्टिय सेढिम्हि भागे हिदे पढमपुढविमिच्छाइटिअवहारकालो आगच्छदि । अहवा छहं पुढवीणं सत्तमपुढविपक्खेवअवहारकालपमाणेण कयसव्वसलागाहि सेढिविदियवग्गमूलमोवट्टिय अण्णोण्णब्भत्थपढमपुढविसामण्णणेरइयविक्खंभसूईहि गुणिय जगसेढिम्हि भागे हिदे सव्वत्थुप्पण्णपक्खेवअवहारकालो आगच्छदि । तेण सव्वत्थुप्पण्णअवहारकालेण सामण्णणेरइयअवहारकालम्हि भागे हिदे जं भागलद्धं तेण सामण्णणेरइयविक्खंभसूई गुणिदे पुणो तं रासिं तेणेव गुणगारेण, रूवाहिएणोवट्टिय जगसेढिम्हि भागे हिदे पढमपुढविअवहारकालो आगच्छदि । __ अथवा, प्रथम पृथिवीकी मिथ्यादृष्टि विष्कभसूची और सामान्य नारक मिथ्याडष्टि विष्कंभसूची इन दोनोंके परस्पर गुणा करनेसे जो लब्ध आवे उससे जगश्रेणीके द्वितीय वर्ग. मूलको गुणित करके जो लब्ध आवे उसे एकत्रित की हुई पूर्वोक्त शलाकाओंसे अपवर्तित करके जो लब्ध आवे उसका जगश्रेणीमें भाग देने पर पहली पृथिवीका मिथ्यादृष्टि जीव राशिसंबन्धी अवहारकाल आता है। उदाहरण-१९३४ २ १९३, १२८४ १९३ = ३८६॥ ३८६ : २५६ = १९३, ६५९३६. १९३ ८३८८६०८ प्र. प. मि. अ. ११२५ १२८- १९३ . अथवा, सातवीं पृथिवीके प्रक्षेप अवहारकालके प्रमाणकी अपेक्षा छह पृथिवियोंके आश्रयसे उत्पन्न हुए प्रक्षेप अवहारकालकी जो सर्व शलाकाएं की गई उनसे जगश्रेणीके द्वितीय वर्गमूलको अपवर्तित करके जो लब्ध आवे उसको प्रथम पृथिवी और सामान्य नारकियोंकी मिथ्यादृष्टि विष्कंभसूचियोंके परस्पर गुणा करनेसे उत्पन्न हुई राशिसे गुणित करके जो लब्ध आवे उसका जगश्रेणीमें भाग देने पर सर्वत्र उत्पन्न हुए प्रक्षेप अवहारकालका प्रमाण आता है। सर्वत्र उत्पन्न हुए उस प्रक्षेप अवहारसे सामान्य मिथ्यादृष्टि नारकियोंके अवहारकालके भाजित करने पर जो भाग लब्ध आवे उससे सामान्य मिथ्यादृष्टि नारकियोंकी विष्भसूचीके गणित करने पर अनन्तर उस गणित राशिको एक अधिक उसी पूर्वोक्त गुणकारसे अपवर्तित करके जो लब्ध आवे उसका जगश्रेणीमें भाग देने पर प्रथम पृथिवीका मिथ्याष्टिसंबन्धी अवहारकाल आता है। उदाहरण-१२८ १९३.३८६ ६३ = . ६५५३६ . ३८६ २०६४३८४ प्रक्षेप अवहारकाल । १ ६३ १९३ २८५ २८६ १२८ १२८ ६३ ६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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