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________________ ३६ षट्खंडागमकी प्रस्तावना पर्वत, वेदी, नदी, कुंड, जगती (कोट), वर्ष (क्षेत्र ) का प्रमाण प्रमाणांगुलसे किया जाता है, तथा भुंगार, कलश, दर्पण, वेणु, पटह, युग, शयन, शकट, हल, मूसल, शक्ति, तोमर, सिंहासन, बाण, नाली, अक्ष, चामर, दुंदुभि, पीठ, छत्र तथा मनुष्योंके निवास व नगर, उद्यानादिका प्रमाण आत्मांगुलसे किया जाता है । छह अगुलोंका पाद, दो पादोंकी विहस्ति ( बलिस्त ), दो विहस्तियोंका हाथ, दो हाथोंका किष्कु, दो किष्कुओंका दंड, युग, धनु, मुसल व नाली, दो हजार दंडोंका एक कोश तथा चार कोशोंका एक योजन होता है । (ति. प. १, ९८-११६) द्रव्यका अविभागी अंश = परमाणु ८ जू = यव अनन्तानन्त परमाणु = अवसन्नासन्न स्कंध | ८ यव = उत्सेधांगुल ८ अवसन्नासनस्कंध = सन्नासनस्कंध | (५०० उत्सेधांगुल = प्रमाणांगुल) ८ सन्नासन्नस्कंध = त्रुटरेणु ६ अंगुल = पाद ८ त्रुटरेणु = त्रसरेणु २ पाद = रथरेणु ८ त्रसरेणु = विहस्ति २ विहस्ति ८ रथरेणु = उत्तम भो. भू.बालान == हाथ ८ उ. भो. भ. बा. = मध्यम , , , २ हाथ = किष्कु ८ म. भो. भू. बा. = जघन्य ,,, २ किकु. = दंड, युग, धनु, ८ ज. भो. भू. बा. = कर्मभूमि बालान मुसल या नाली ८ क. भू. बालान - लिक्षा २००० दंड = कोस ८ लिक्षा = जूं । ४ कोश = योजन अंगुलसे आगेके प्रमाण भी आत्म, उत्सेध व प्रमाण अंगुल के अनुसार तीन तीन प्रकारके होते हैं। एक प्रमाण योजन अर्थात् दो हजार कोश लम्बे, चौड़े और गहरे कुंडके आश्रयसे अद्धापल्य नामक प्रमाण निकालनेका प्रकार ऊपर कालप्रमाणमें बता आये हैं। उसी अद्धापल्यके अर्धच्छेद' प्रमाण अद्धापल्योंका परस्पर गुणा करनेपर सूच्यंगुलका प्रमाण आता है । सूच्यंगुलके वर्ग को प्रतरांगुल और घनको घनांगुल कहते हैं। अद्धापल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण, अथवा मतान्तरसे अद्धापल्यके जितने अर्धच्छेद हों उसके असंख्यातवें भागप्रमाण, घनांगुलोंके परस्पर गुणा करनेपर जगश्रेणीका प्रमाण आता है । जगश्रेणीके सातमें भाग प्रमाण रज्जु होता है, जो तिर्यक् लोकके मध्य विस्तार प्रमाण है । जगश्रेणीके वर्गको जगप्रतर तथा जगश्रेणीके घनको लोक कहते हैं । ये सब अर्थात् पल्य, सागर, सूच्यंगुल प्रतरांगुल, घनांगुल, जगश्रेणी, जगप्रतर और लोक उपमा मान हैं, जिनका उपयोग यथावसर द्रव्य, क्षेत्र और काल, इन तीनों अपेक्षाओंसे बतलाये गये प्रमाणोंमें किया गया है। उनका तात्पर्य द्रव्यप्रमाणमें उतनी संख्यासे, कालप्रमाणमें उतने समयोंसे तथा क्षेत्रप्रमाणमें उतने ही आकाशप्रदेशोंसे समझना चाहिये । १एक राशि जितनी बार उत्तरोतर आधी आधी की जा सके, उतने उस राशिके अर्धच्छेद कहे जाते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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