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________________ प्रमाणका स्वरूप सब यहां दी गई है। यह सब संख्यात (मध्यम) का ही प्रमाण है। इससे कई गुणे ऊपर जाकर उत्कृष्ट संख्यातका प्रमाण होता है जो ऊपर गणना-मापमें बता ही आये हैं। आगे क्षेत्रप्रमाणमें बतलाये जानेवाले एक प्रमाण योजन (अर्थात् दो हजार कोश) लम्बा चौड़ा और गहरा कुड बनाकर उसे उत्तम भोगभूमिके सात दिनके भीतर उत्पन्न हुए मेढेके रोमानों ( जिनके और खंड कैंचीसे न हो सकें) से भर दे, और उनमेंसे एक एक रोमखंडको सौ सौ वर्षमें निकाले । इसप्रकार उन समस्त रोमोंको निकालने में जितना काल व्यतीत होगा, उसे व्यवहारपल्य कहते हैं। उक्त रोमोंकी कुल संख्या गणितसे ४५ अंक प्रमाण आती है, और तदनुसार व्यवहारपल्यका प्रमाण ४५ अंक प्रमाण शताब्दियां अथवा ४७ अंक प्रमाण वर्ष हुआ। इस व्यवहारपल्यको असं.ख्यात कोटि वर्षोंके समयोंसे गुणित करनेपर उद्धारपल्यका प्रमाण आता है, जिससे द्वीप-समुद्रोंकी गणना की जाती है । इस उद्धारपल्यको असंख्यात कोटि वर्षोंके समयोसे गुणित करने पर अद्धापल्यका प्रमाण आता है । कर्म, भव, आयु और काय, इनकी स्थितिके प्रमाणमें इसी अद्धापत्यका उपयोग होता है । जीवद्रव्यकी प्रमाण-प्ररूपणामें भी यथावश्यक इसी पल्योपमका उपयोग किया गया है । एक करोडको एक करोडसे गुणा करने पर जो लब्ध आता है उसे कोड़ाकोड़ी कहते हैं । दस कोड़ाकोड़ी अद्धापल्योपमोंका एक अद्धासागरोपम और दस कोडाकोड़ी अद्धासागरोपमोंकी एक उत्सर्पिणी और इतने ही कालकी एक अवसर्पिणी होती है । इन दोनोंको मिलाकर एक कल्पकाल होता है । ३. क्षेत्रप्रमाण--पुद्गल द्रव्यके उस सूक्ष्मातिसूक्ष्म भागको परमाणु कहते हैं जिसका पुनः विभाग न हो सके, जो इन्द्रियों द्वारा ग्राह्य नहीं और जो अप्रदेशी तथा अंत, आदि व मध्य रहित है। एक अविभागी परमाणु जितने आकाशको रोकता है उतने आकाशको एक क्षेत्रप्रदेश कहते हैं। अनन्तानन्त परमाणुओंका एक अवसन्नासन्न स्कंध, आठ अवसन्नासन्न स्कंधोंका एक सनासन्न स्कंध, आठ सन्नार.न स्कंधोंका एक त्रुटरेणु (त्रुटिरेणु, तृटरेणु), आठ त्रुटरेणुओंका एक त्रसरेणु, आठ त्रसरेणुओंका एक रथरेणु, आठ रथरेणुओंका उत्तम भोगभूमिसंबंधी बालाग्र, आठ उत्तम भोगभूमिसंबंधी बालानोंका एक मध्यम भोगभूमिसंबंधी बालाग्र, आठ मध्यम भोगभूमिसंबंधी बालानोंका एक जघन्य भोगभूमिसंबंधी बालाय, आठ जघन्य भोगभूमिसंबंधी बालानोंका एक कर्मभूमिसंबंधी बालाग्र, आठ कर्मभूमिसंबंधी बालानोंकी एक लिक्षा (लीख), आठ लिक्षाओंका एक जूं, आठ जूवोंका एक यव ( यव-मध्य ), और आठ यवोंका एक अंगुल होता है । अंगुल तीन प्रकारका है, उत्सेधांगुल, प्रमाणांगुल और आत्मांगुल । ऊपर जिस अंगुलका प्रमाण बतलाया है बह उत्सेधांगुल ( सूचि ) है। पांचसौ उत्सेधांगुलोंका एक प्रमाणांगुल होता है, जो अपसर्पिणीकालके प्रथम चक्रवर्तीके पाया जाता है। भरत और ऐरावत क्षेत्रमें जिस कालमें सामान्य मनुष्यका जो अंगुल प्रमाण होता है वह उस उस कालमें उस उस क्षेत्रका आत्मांगुल कहलाता है । मनुष्य, तिथंच, देव और नारकियोंके शरीरकी अवगाहना तथा चतुर्निकाय देवोंके निवास और नगरके प्रमाणके लिये उत्सेधांगुल ही ग्रहण किया जाता है। द्वीप, समुद्र, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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