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________________ जीवराशिका गुणस्थानोंकी अपेक्षा प्रमाण-प्ररूपण ४. भावप्रमाण-पूर्वोक्त तीना प्रकारके प्रमाणोंके ज्ञानको ही भावप्रमाण कहा है। (देखो सूत्र ५)। इसका अभिप्राय यह है कि जहां जिस गुणस्थान व मार्गणास्थानका द्रव्य, काल व क्षेत्रकी अपेक्षासे प्रमाण बतलाया गया है वहां उस प्रमाणके ज्ञानको ही भावप्रमाण समझ लेना चाहिये। ३ जीवराशिका गुणस्थानोंकी अपेक्षा प्रमाण-प्ररूपण . सर्व जीवराशि अनन्तानन्त है। उसका बहुभाग मिथ्यादृष्टिगुणस्थानवी है, तथा शेष एक भाग अन्य तरह गुणस्थानों और सिद्धोंमें विभाजित है। इनमें भी मिथ्यादृष्टि और सिद्ध क्रमहानिरूपसे अनन्तानन्त हैं । सासादनादि चार गुणस्थानोंके जीव प्रत्येक राशिमें असंख्यात हैं, तथा शेष प्रमत्तादि नौ गुणस्थानोंके जीव संख्यात हैं जिनकी कुल संख्या तीन कम नौ करोड़ निश्चित है । यद्यपि अनन्तको संख्यामें उतारना भ्रामक हो सकता है, तथापि धवलाकारने उक्त राशियोंके क्रमिक प्रमाणका बोध कराने के लिये सर्व जीवराशिको १६ और इनमेसे मिथ्याष्टिराशिको १३, तथा सासादनादि तेरह गुणस्थानोंके जीवों और सिद्धोंका संयुक्त प्रमाण ३ अंकोंके द्वारा सूचित किया है । अब हम यदि इसी अकसंदृष्टिके आधारसे सभी गुण थानों व सिद्धोंका अलग अलग प्रमाण कल्पित करना चाहें, तो स्थूलतः इसप्रकार किया जा सकता है चौदह गुणस्थानोंमें जीवराशियोंके प्रमाणकी संदृष्टि गुणस्थान प्रमाण अंकसंदृष्टि १. मिथ्यादृष्टि अनन्त *२. सासादन असंख्य ३. मिश्र ४. अविरतसम्यग्दृष्टि ५. संयतासंयत ६. प्रमत्तविरत ५९३९८२०६ ७. अप्रमत्तविरत २९६९९१०३ ८. अपूर्वकरण ८९७ ९. अनिवृत्तिकरण ८९७ १०. सूक्ष्मसाम्पराय ८९७ ११. उपशान्तमोह २९९ १२. क्षीणमोह ५९८ १३. सयोगिकेवली १४. अयोगिकवली सिद्ध अनन्त सर्वजीवराशि अनन्त ८९९९९९९७ ८९८५०२. ५९८ ) १६ १ सासादनसे संयतासंयत तक चारों गुणस्थानोंके जीव समुच्चय व पृथक् पृथक् रूपसे भी पत्योपमके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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