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१, २, ७४.] दव्वपमाणाणुगमे एइंदियपमाणपख्वणं
[३०५ वि अणंतगुणो भवसिद्धियजीवाणमणंताभागस्स अणंतिमभागो। को पडिभागो ? सिद्धपडिभागो । एवं चदुगदिअप्पाबहुगं समत्तं ।।
एवं गइमम्गणा समत्ता । इंदियाणुवादेण एइंदिया बादरा सुहुमा पज्जत्ता अपज्जत्ता दव्वपमाणेण केवडिया ? अणंता ॥ ७४ ॥
एत्थ एइंदियगहणेण सेसिंदियाणं पडिसेहो कदो भवदि । सुहुमपडिसेहढे बादरग्गहणं । बादरपडिसेहफलो सुहमणिदेसो । अपज्जत्तपडिसेहफलो पञ्जत्तणिदेसो । पज्जत्तपडिसेहफलो अपज्जत्तणिद्देसो । एइंदिया बादरेइंदिया सुहुमेइंदिया पज्जत्ता अपज्जचा च एदे णव वि रासीओ दव्वपमाणेण केवडिया इदि पुच्छिदं होदि किमहं सव्वत्थ पण्हपुव्वं परिमाणं वुच्चदे? ण एस दोसो, मंदबुद्धिसिस्साणुग्गहणद्वत्तादो। अर्णता इदि परिमाणणिदेसो संखज्ज असंखेजपरिमाणपडिसेहफलौ । सेसं जहा मूलोघसुत्ते वुत्तं तहा वत्तव्यं ।
बहुभागोंका अनन्तयां भाग गुणकार है । प्रतिभाग क्या है ? सिद्धराशि प्रतिभाग है। इसप्रकार चारों गतिसंबन्धी अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। .
इसप्रकार गतिमार्गणा समाप्त हुई। , इन्द्रिय मार्गणाके अनुवादसे एकेन्द्रिय, एकेन्द्रिय पर्याप्त, एकेन्द्रिय अपर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त और सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? अनन्त हैं ॥ ७४॥
इस सूत्रमें एकेन्द्रिय पदके ग्रहण करनेसे शेषेन्द्रिय जीवोंका निषेध किया है । सूक्ष्म जीवोंका प्रतिषेध करनेके लिये बादर पदका ग्रहण किया है। बादर जीवोंका निषेध करनेके लिये सूक्ष्म पदका ग्रहण किया है। अपर्याप्त जीवोंका निषेध करनेके लिये पर्याप्त पदका ग्रहण किया है। और पर्याप्त जीवोंका निषेध करनेके लिये अपर्याप्त पदका ग्रहण किया है। एकेन्द्रिय जीव, बादर एकेन्द्रिय जीव और सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव ये तीन राशियां तथा ये तीनों पर्याप्त और तीनों अपर्याप्त, इसप्रकार कुल नौ जीवराशियां द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितनी हैं, यहां ऐसा पूंछनेका अभिप्राय है।
शंका-सर्वत्र प्रश्नपूर्वक परिमाण (संख्या) किसलिये कहा जाता है ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, मन्दबुद्धि शिष्योंके अनुग्रहके लिये ऐसा कहा गया है।
संख्यात और असंख्यातका निषेध करनेके लिये सूत्रमें अनन्तरूप परिमाणका निर्देश
१ एकेन्द्रिया मिथ्यादृष्टयोऽनन्तानन्ताः । स. सि. १, ८. तसहीणो संसारी एयक्खा ताण संखगा भागा। पुण्णाणं परिमाणं संखेन्जदिमं अपुण्णाणं ॥ गो. जी. १७६.
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