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१, २, १४४.]
दव्वपमाणाणुगमे णाणमग्गणापमाणपरूवणं
[ ४३९
खेदिभाएण तिरिक्ख- मणुसदुणाणिपमाणेण हीणो, तो वि पलिदोवमस्स असंखेदिभागमेत्तत्तणेण दोन्हं पि रासीणं पच्चासत्ती अस्थि त्ति ओघमिदि वुच्चदे |
अभिणिबोहियणाणि-सुदणाणि ओहिणाणीसु असंजदसम्माइडि हुड जाव खीणकसायवीदरागछदुमत्था त्ति ओघ ॥ १४४ ॥
आभिणिबोहिय-सुदणाणीणं पमाणस्स ओघत्तं जुञ्जदे, तेहि विरहिद- असंजदसम्माइआिणमवलंभादो | ण पुण ओहिणाणीणं ओघत्तं जुजदे, ओहिणाणविरहिदतिरिक्खमणुस्ससम्माइट्ठीणमुवलंभा ? ण एस दोसो, बहुसो दत्तुतरादो ।
देसिमवहारकालुष्पत्ती बुच्चदे । तं जहा- आभिणिबोहियणाणि-सुदणाणिअसंजदसम्माइट्ठिअवहारकालो ओघअसंजद सम्माइट्ठिअवहारकालो चैव भवदि । तहि आवलियाए असंखेज्जदिभागेण भागे हिदे लद्धं तम्हि चेव पक्खिते ओहिणाणिअसंजद सम्माइट्ठिअवहार
अपने असंख्यातवें भागरूपं मत्यज्ञान और श्रुताज्ञान इन दो अज्ञानोंसे युक्त तिर्यंच और मनुष्यों के प्रमाणसे हीन है, तो भी पल्योपमके असंख्यातवें भागत्वकी अपेक्षा ओघसासादन सम्यग्दृष्टि राशि और विभंगज्ञानी सासादनसम्यग्दृष्टि राशि इन दोनोंकी प्रत्यासत्ति पाई जाती है, इसलिये सूत्रमें 'ओघ ' ऐसा कहा है ।
आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ गुणस्थानतक प्रत्येक गुणस्थानमें जीव ओघप्ररूपणा के समान हैं ॥ १४४ ॥
शंका – आभिनिबोधिक और श्रुतज्ञानी जीवोंके प्रमाणके ओघपना बन जाता है, क्योंकि, इन दोनों ज्ञानोंके विना असंयतसम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थान नहीं पाये जाते हैं । परंतु अवधिज्ञानियों के प्रमाणके ओघपना नहीं बन सकता है, क्योंकि, अवधिज्ञान से रहित तिर्यच और मनुष्य सम्यग्दृष्टि पाये जाते हैं ?
समाधान - यह कोई दोष नहीं हैं, क्योंकि, इस प्रकार के प्रश्नका अनेकवार उत्तर दे आये हैं ।
अब इनके अवहारकालों की उत्पत्तिको कहते हैं । वह इसप्रकार है- ओघ असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका अवहारकाल ही आभिनिबोधिकज्ञानी और श्रुतज्ञानी जीवोंका अवहारकाल होता है । इसे आवलीके असंख्यातवें भागसे भाजित करने पर जो लब्ध आवे उसे उसी अवहारकाल में मिला देने पर अवधिज्ञानी असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है ।
मति श्रुतिज्ञा निनोऽसंयत सम्यग्दृष्टयादयः क्षीणकषायान्ताः सामान्योक्तसंख्याः । अवधिज्ञानिनोऽसंयतसम्यग्दृष्टिसंयतासंयतान्ताः सामान्योक्तसंख्याः । स. सि. १, ८, चदुर्गादिमदिसुदबोहा पल्लासंखेज्जया ॥ गो. जी. ४६१. ओहिरहिदा तिरिक्खा मदिणाणि असंखभागगा मणुगा । संखेज्जा हु तदूणा मदिणाणी ओहिपरिमाणं ॥ गो. जी. ४६२.
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