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________________ १, २, १९०.] दव्वपमाणाणुगमे सण्णि-आहारभग्गणापरूवणं [४८३ अणंताणताहि ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहि ण अवहिरंति कालेण ॥ १८८॥ खेत्तेण अणंताणता लोगा ॥ १८९ ॥ एदाणि तिण्णि सुत्ताणि अवगदत्थाणि त्ति एदेसि ण वक्खाणं वुच्चदे । एत्थ धुवरासिं वत्तइस्सामो। सण्णिरासिं णेव-सण्णि-णेव-असण्णिरासिं च असण्णिभजिदतव्वग्गं च सधजीवरासिस्सुवरि पक्खित्ते असण्णिधुवरासी होदि । भागाभागं वत्तइस्सामो। सव्वजीवरासिमणंतखंडे कए बहुखंडा असण्णिणो होति । सेसमणंतखंडे कए बहुखंडा णेव सण्णी व असण्णी होति । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा सण्णिमिच्छाइट्ठिणो होति । सेसमोघभागाभागभंगो । तिविहमवि अप्पाबहुगं जाणिऊण माणिदव्वं । एवं सष्णिमग्गणा समत्ता । आहाराणुवादेण आहारएसु मिच्छाइटिप्पहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति ओघं ॥ १९०॥ कालकी अपेक्षा असंज्ञी मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तानन्त अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियोंके द्वारा अपहृत नहीं होते हैं। १८८ ।। क्षेत्रकी अपेक्षा असंज्ञी मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तानन्त लोकप्रमाण हैं ॥ १८९ ॥ इन तीनों सूत्रोंका अर्थ अवगत है, इसलिये इनका व्याख्यान नहीं किया है। अब यहां पर ध्रुवराशिका प्रतिपादन करते हैं- संशीराशि और संक्षी तथा असंही इन दोनों व्यपदेशोंसे रहित जीवराशिको तथा असंज्ञी राशिसे भाजित उक्त राशियोंके वर्गको सर्व जीवराशिमें मिला देने पर असंही जीवोंके प्रमाण लाने के लिये ध्रुवराशि होती है। अब भागाभागको बतलाते हैं- सर्व जीवराशिके अनन्त खंड करने पर उनमेंसे बहुभाग असंही जीव हैं। शेष एक भागके अनन्त खंड करने पर उनसे बहुभाग संझी और असंही इन दोनों व्यपदेशोंसे रहित जीव हैं। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर बहुभाग संशी मिथ्यादृष्टि जीव हैं। शेष भागाभागका ओघ भागाभागके समान कथन करना चाहिये। तीनों प्रकारके अल्पबहुत्वका भी जानकर कथन करना चाहिये । इसप्रकार संशीमार्गणा समाप्त हुई। आहारमार्गणाके अनुवादसे आहारकोंमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर सयोगि१ आहारानुवादेन आहारकेषु मिथ्यादृष्टयादयः सयोगकेवल्यन्ताः सामान्योक्तसंख्याः । स. सि. १, ८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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