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________________ १८४] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, २, १९१९ एदं पि सुत्तं सुगमं चेय । णवरि सगुणपडिवण्णअणाहाररासिं आहारमिच्छाइद्रिरासिभजिदतव्वग्गं च सव्वजीवरासिस्सुवरि पक्खित्ते आहारिमिच्छाइट्ठिधुवरासी होदि । अणाहारएसु कम्मइयकायजोगिभंगो ॥ १९१ ॥ एदं पि सुत्तं सुगमं चेय । एत्थ धुवरासी वुच्चदे । औषमिच्छाइट्ठिधुवरासिमंतोमुहुत्तेण गुणिदे अणाहारिमिच्छाइद्विधुवरासी होदि । ओघअसंजदसम्माइटिअवहारकालं आवलियाए असंखेज्जदिभाएण भागे हिदे लद्धं तम्हि चेव पक्खित्ते आहारिअसंजदसम्माइडिअवहारकालो होदि । तम्हि आवलियाए असंखेज्जदिभाएण गुणिदे सम्मामिच्छाइटिअवहारकालो होदि। तम्हि संखेजस्वेहि गुणिदे सासणसम्माइटिअवहारकालो होदि । तम्हि आवलियाए असंखेज्जदिभाएण गुणिदे संजदासजदअवहारकालो होदि । तम्हि आवलियाए असंखेज्जदिभाएण गुणिदे अणाहारिअसंजदसम्माइडिअवहारकालो होदि । केवली गुणस्थानतक प्रत्येक गुणस्थानमें जीव ओघप्ररूपणाके समान हैं ॥ १९० ॥ यह भी सूत्र सुगम है । इतना विशेष है कि गुणस्थानप्रतिपन्न राशि और अनाहारक जीवराशिको तथा माहारक मिथ्यादृष्टि जीवराशिसे भाजित उक्त राशियोंके वर्गको सर्व जीवराशिमें मिला देने पर आहारक मिथ्यादृष्टि जीवोंका प्रमाण लाने के लिये ध्रुवराशि होती है। । अनाहारकोंमें मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और सयोगिकेवली जीवोंका प्रमाण कार्मणकाययोगियोंके प्रमाणके समान है ॥ १९१ ।। यह भी सूत्र सुगम ही है। अब यहां ध्रुवराशिका प्रतिपादन करते हैं- ओघ मिथ्यादृष्टियोंकी ध्रुवराशिको अन्तमुहूर्तसे गुणित करने पर अनाहारक मिथ्यादृष्टियोंके प्रमाण लानेके लिये धुवराशि होती है । ओघअसंयतसम्यग्दृष्टियोंके अवहारकालको आवलीके असंख्यातवें भागसे भाजित करने पर जो लब्ध आवे उसे उसीमें मिला देने पर आहारक असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है। इसे आवलाके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल होता है। इसे संख्यातसे गुणित करने पर आहा. रक सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है। इसे आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर आहारक संयतासंयतोंका अवहारकाल होता है। इसे आपलीके असंख्यात भागसे गुणित करने पर अनाहारक असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है। इसे आवलीके तविवरीदसंसारी सव्वो आहारपरिमाणं ॥ गो. जी. ६७१. १ अनाहारकेषु मिथ्यादृष्टिसासादनसम्यग्दृष्टयसंयतसम्यग्दृष्टयः सामान्योक्तसंख्याः । सयोगिकेवलिमः संख्येयाः । स. सि. १, ८. कम्मइयकायजोगी होदि अणाहारयाण परिमाण ॥ गो. जी. ५७१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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