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१८२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, २, १८५. सण्णियाणुवादेण सण्णीसु मिच्छाइट्टी दव्वपमाणेण केवडिया, देवेहिं सादिरेयं ॥ १८५ ॥
एदस्स सुत्तस्स अत्थो वुच्चदे। सव्वे देवमिच्छाइट्ठिणो सणिणो चेय। तेसिं संखेज्जदिभागमेत्ता तिगदिसण्णिामिच्छाइट्ठिणो होति । तेण सण्णिमिच्छाइट्ठिणो देवेहि सादिरेया । एत्थ अवहारकालो वुच्चदे । तं जहा- देवअवहारकालादो पदरंगुलमेगं घेत्तूण संखेजखंडे करिय तत्थेगखंडमवणिय सेसबहुखंडं तम्हि चेव पक्खित्ते सणिमिच्छाइट्ठिअवहारकालो होदि । एदेण जगपदरे भागे हिदे सण्णिमिच्छाइट्ठिदव्वं होदि ।
सासणसम्माइट्टिप्पहुडि जाव खीणकसायवीदरागछदुमत्था त्ति ओघं ॥ १८६॥
सुगममेदं सुत्तं । असण्णी दव्वपमाणेण केवडिया, अणंता ॥ १८७ ॥
संज्ञीमार्गणाके अनुवादसे संज्ञियोंमें मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? देवोंसे कुछ अधिक हैं ॥ १८५ ॥
___ अब इस सूत्रका अर्थ कहते हैं। सर्व देव मिथ्यादृष्टि जीव संशी ही होते हैं। तथा उनके संख्यातवें भागप्रमाण तीन गतिसंबन्धी संज्ञी मिथ्यादृष्टि जीव होते हैं। इसलिये संक्षी मिथ्यादृष्टि जीव देवोंसे कुछ अधिक है, ऐसा सूत्र में कहा है।
अब यहां पर अवहारकालका कथन करते हैं। वह इसप्रकार है- देव अवहारकालमें एक प्रतरांगुलको ग्रहण करके और उसके संख्यात खंड करके उनमेंसे एक खंडको निकालकर शेष बह खंड उसी में मिला देने पर संज्ञी मिथ्याधियोंका अवहारकाल होता है। इस अव कालसे जगप्रतरके भाजित करने पर संक्षी मिथ्यादृष्टि द्रव्य होता है। - सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर क्षीणकषाय वीतरागछद्मस्थ गुणस्थानतक प्रत्येक गुणस्थानमें संज्ञी जीव ओघप्ररूपणाके समान हैं ॥ १८६ ।।
यह सूत्र सुगम है। असंज्ञी जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? अनन्त हैं ॥ १८७॥
१ संज्ञानुवादेन संक्षिषु मिथ्यादृष्टवादयः क्षीणकषायान्ताश्चक्षुर्दर्शनिवत् । स. सि. १, ८. देवेहिं सादिरेगो रासी सण्णीणं होदि परिमाणं॥ ॥ गो. जी. ६६३.
२ असंझिनो मिध्यादृष्टयोऽनन्तानन्ताः। तदुभयव्यपदेशरहिताः सामान्योक्तसंख्याः । स. सि. १,८. तेणूणो संसारी सव्वेसिमसण्णिजीवाणं ॥ गो. जी. ६६३.
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