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________________ १, २, १९.] दव्वपमाणाणुगमे णिरयगदिपमाणपरूवणं [ १९१ विरलणम्हि किं लभामो त्ति रूवाहियहेटिमविरलणाए फलगुणिदिच्छाए भागे हिदाए सव्वपरिहीणरूवाणि आगच्छंति । ताणि उवरिमविरलणरूवेसु अवणिदे अवहारकालो होदि । एवं सव्वत्थ समकरणविहाणं जाणिऊण वत्तव्यं । ___ संपहि रासिपरिहाणिविहाणं वत्तइस्सामो। तं जहा- तत्थ ताव तिण्हं रूवाणं परिहाणि उच्चदे- उवरिमविरलणरूवधरिदसोलसरूवेसु हेटिमविरलणाए सगलेगरूवधरिदतिण्णि रूवाणि रूवं पडि अवणिय पुध हवेयव्वाणि । संपहि उवरिमविरलणमेत्ततिण्णि रूवाणि अवणिदसेसपमाणेण कस्सामो। तं जहा- उवरिमविरलणचउरूवधरिदतिणि तिण्णि रूवाणि एगटुं करिय पुणो पंचमरूबधरिदतिण्हं रूवाणं तिभागं घेतूण तत्थ पक्खिते अवणिदसेसपमाणं होदि । हेट्टिमविरलणाए अंते एगरूवं विरलिय अणंतरुप्पण्ण १९ कितनी हानि प्राप्त होगी, इसप्रकार राशिक करके फलराशि एकसे इच्छाराशि सोलहको गुणित करके जो लब्ध आवे उसमें एक अधिक अधस्तन विरलनमात्र इच्छाराशिका भाग देने पर संपूर्ण हानिरूप विरलनस्थान आ जाते हैं। इन्हें उपरिम विरलनकी संख्या से घटा देने पर अवहारकालका प्रमाण आता है। इसीप्रकार सर्वत्र समीकरण विधानको जानकर कथन करना चाहिये। उदाहरण-प्रमाणराशि ६३; फलराशि १; इच्छाराशि १६. १६४ १ = १६ १६:१९ - २१० हानिरूप अंक । १६ - २१० = १३,९ अवहारकाल । अब राशिके हानिरूपविधानको बतलाते हैं। वह इसप्रकार है-उस विषयमें तीन अंकोंकी हानिका कथन किया जाता है- उपरिम विरलनके प्रत्येक विरलनके प्रति प्राप्त सोलहमेंसे अधस्तन विरलनके सकल एक विरलनके प्रति प्राप्त तीन संख्याको घटा कर पृथक स्थापित कर देना चाहिये । अब उपरिम विरलनमात्र अर्थात् सोलहवार स्थापित तीन तीन अंकोंको, उपरिम विरलनके प्रत्येक एकके प्रति प्राप्त सोलहमेंसे तीन घटा देने पर जो शेष रहता है, उसके प्रमाणसे करते हैं । जैसे-उपरिम विरलनके चार विरलनोंके प्रति प्राप्त तीन तीन अंकोंको एकत्रित करके पुनः पांचवें विरलनके ऊपर रखे हुए तीनके त्रिभागको ग्रहण करके मिला देने पर सोलहमेंसे तीनको घटा कर जो शेष रहता है उसका प्रमाण होता है। इस अभी उत्पन्न हुए तीनको घटा कर शेष रहे हुए प्रमाणको अधस्तन विरलनके अन्तमें एकका विरलन करके उसके ऊपर दे देना चाहिये । पुनः उपरिम विरलनके चार विरलनोंके प्रति प्राप्त तीन तीन संख्याको १ प्रतिषु · अवणिदे सेसरूवाणं' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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