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________________ १९२ छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, २, १९. अवणिदसेसरूवपमाणं दादव्वं । पुणो उवरिमविरलणम्हि चउरूवधरिदतिण्णि तिण्णि रूवाणि एगई करिय पुवहविदवेतिभागम्हि' एग तिभागं घेत्तूण पक्खित्ते एदमवि अवणिदसेसपमाणं होदि । एदस्स कारणेण पुवविरलिदएगरूवस्स पासे अवरमेगरूवं विरलिय तस्सुवरि सो संपहि वुप्पण्णअवणिदसेसरासी दादव्यो । पुणो वि उवरिम. विरलणचउरूवधारदतिण्णि तिण्णि रूवाणि मेलाविय पुध दृविय तिभागं तत्थ पक्खित्त एदमवि अवणिदसेसपमाणं होदि। एदस्स कारणेण पुव्यविरलिददोण्हं रूवाणं पासे अण्णेगं रूवं विरलिय तस्सुवरि सो रासी ठवेयव्यो । पुणो अवसेसाणि तिरूवधरिदतिण्णि तिण्णि रूवाणि णव भवंति । एदाणं विरलणरूवाणं पमाणमुप्पाइज्जदे। रूखूणहेद्विमविरलणमेत्तद्धाणं गंतूण जदि एगअवहारपक्खेवरूवं लब्भदि तो तिण्हं रूवाणं किं लभामो त्ति रूवूण एकत्रित करके पहले अलग स्थापित हुए तीनके दो विभागों से एक त्रिभागको ग्रहण करके मिला देने पर यह भी तीनको घटाकर जो शेष रहे उसका प्रमाण होता है। इसलिये पहले विरलन किये हुए एक विरलनके पासमें दूसरे एकको विरलित करके उसके ऊपर यह अभी उत्पन्न हुए तीनको घटाकर शेष रही राशि दे देना चाहिये। फिर भी उपरिम विरलनके चार विरलनोंके प्रति प्राप्त तीन तीन संख्याको मिला कर अलग स्थापित करके तीनका त्रिभाग उसमें मिला देने पर यह भी तीन घटा कर शेष रही राशिका प्रमाण होता है। इसलिये पहले विरलन किये हुए दो विरलनोंके पास में और एकका विरलन करके उसके ऊपर यह राशि स्थापित कर देना चाहिये । पुनः उपरिम विरलनके अवशिष्ट तीन विरलमोंके प्रति प्राप्त अवशेष तीन तीन अंक मिल कर नौ होते हैं। . उदाहरण-उपरिम विरलनके प्रत्येक १६ मेंसे ३ निकाल देने पर १३ रहते हैं । यथा १३ १३ १३ १३१३ १३ १३ १३ १३ १३ १३ १३ १३ १३ १३ १३ अब १६ जगह जो ३ हैं उनको १३ रूप करनेके लिये इसप्रकार जोड़ो ३+३+३+३+१%१३,३+३+३+३+१=१३, ३+३+३+३+१= १३, ३+३+३=९ इसप्रकार उपरिम विरलनके १६ स्थानोंमें ये ३ और मिला देने पर कुल १९ स्थान होते हैं जिनमें प्रत्येक पर १३ प्राप्त हैं। बाकी ९ रहते हैं जिसके लिये १३ विरलन प्राप्त होगा। इसप्रकार १९६३ कुल विरलन अंक आते हैं । २५६ में भाग देकर १३ लब्ध लानेके लिये यही १९९३ भागहार है। अब इन तीन विरलनके प्रति प्राप्त नौ अंकोंका विरलन प्रमाण उत्पन्न करते हैं-एक कम अधस्तन विरलनमात्र स्थान जाकर यदि एक अपहारप्रक्षेपशलाका उत्पन्न होती है तो तीनके २ प्रतिषु ‘जेत्तियाभागम्हि ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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