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________________ १९०] छक्खंडागमे जीवट्टाणं [१, २, १९. इज्जदे । तं जहा- एगूणवीसरूवाणं जदि एगं विरलणरूवं लब्भदे तो णवण्हं रूवाणं किं लभामो त्ति एगूणवीसेहि फलगुणिदिच्छाए भागे हिदे एगरूवं' एगूणवीस खंडाणि काऊण तत्थ णव खंडाणि आगच्छति । अवणिदसेसाणि रूवाणि एगहे कदे तेरहरूवाणि एगरूवं एगूणवसिखंडाणि कदे णव खंडाणि च हवंति । संपहि परिहाणिरूवाणि आणिज्जते । तं जहा- हेट्ठिमविरलणरूवाहियमेतद्धाणं गंतूण जदि एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो सतिभागतिण्हं रूवाणं किं लभामो त्ति फलगुणिदइच्छम्हि पमाणेण भागे हिदे एगरूवं एगूणवीसखंडाणि कदे तत्थ दस खंडाणि लब्भंति । पुबलद्ध-दो-रूवाणि तत्थ पक्खित्ते परिहाणिरूवाणि हवंति । अहवा सव्वहीणरूवाणि एगवारेणाणिज्जते । तं जहा- हेहिमविरलणरूवाहियमेतद्धाणं गंतूग जदि एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो उवरिम अब उन अवशिष्ट नौ अंकोंका विरलन कितना होगा यह उत्पन्न करके बतलाते हैं। वह इसप्रकार है- उन्नीस अंकोंके प्रति यदि एक विरलन प्राप्त होता है तो नौ अंकों के प्रति कितना प्राप्त होगा, इसप्रकार त्रैराशिक करके फलराशि एकसे इच्छाराशि नौको गणित करके जो लब्ध आवे उसमें प्रमाणराशि उन्नीसका भाग देने पर एकके उन्नीस खंड करके उनसे ९ खंड लब्ध आते हैं । इसप्रकार उपरिम विरनलमेंसे जितनी संख्या घट जाती है उससे शेष रहे हुए सभी अंकोंको एकत्रित करने पर पूर्णीक तेरह और एक अंकके उन्नीस खंड करके उनमेंसे नौ खंड होते हैं। उदाहरण-प्रमाणराशि १९, फलराशि १; इच्छाराशि ९ः ९x१ = ९,९ : १९ - १९ नौके प्रति विरलनरूपका प्रमाण । १६ - २१९ = १३१९ कुल विरलनरूप अंकोंका प्रमाण । अब हानिरूप अंक लाते हैं। जैसे- एक अधिक अधस्तन विरलनमात्र स्थान जाकर यदि एककी हानि प्राप्त होती है तो एक त्रिभागसहित तीन विरलनस्थानोंके प्रति क्या प्राप्त होगा, इसप्रकार त्रैराशिक करके फलराशि एकसे इच्छाराशि एक त्रिभागसहित तीन विरलनको गुणित करके जो लब्ध आवे उसमें प्रमाणराशि एक अधिक अधस्तन विरलनका भाग देने पर एकके उन्नीस खंड करने पर उनमें दश खंड लब्ध आते हैं। पुनः पहले लब्ध आये हुए दोको उसमें मिला देने पर संपूर्ण हानिरूप अंक हो जाते हैं। उदाहरण-प्रमाणराशि १९, फलराशि १, इच्छाराशि १५ ११- १ = १०, १० : १९ - १९, १०+२= २६० हानि अंक । अथवा, संपूर्ण हानिरूप विरलनस्थान एकवारमें लाते हैं। जैसे-एक आधिक अधस्तन विरलनमात्र स्थान जाकर यदि एककी हानि प्राप्त होती है तो उपरिम विरलनमें १ अ. प्रतौ । एवरूवं ', आ. का. प्रत्योः ‘णवरूवं ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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