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________________ १, २, १९.] दव्वपमाणाणुगमे णिरयगदिपमाणपरूवणं [ १८९ तिभागेसु एगतिभागधरिदसतिभागपंचरूवमाणेऊण तदणंतरखेत्तं दृविय' एगरूवतिभागधरिदएगरूवं तत्थ पक्खित्ते एत्थ वि सतिभाग-छ-रूवाणि हवंति, विदियरूवपरिहाणी च लब्भदि । पुणो तदणंतररूवोवरि द्विद-सोलसरूवाणि घेत्तूण हेट्टिमविरलणाए समखंड करिय दिण्णे रूवं पडि तिण्णि तिण्णि रूवाणि पावेंति । तत्थ वेरुवधरिदतिण्णि रूवाणि घेत्तूण तदणंतरवेरूवधरिदसोलसरूवेसु पक्खित्तेसु एगूणवीसरूवाणि हवंति । ताणं दोण्हं रूवाणमंते पुधमवणिदएगरूवतिभागधरिदसतिभागपंचरूवमाणेऊण द्वविय तत्थ हेटिमविरलणाए एगरूवतिभागोवरिट्टिदएगरूवं पक्खिते सतिभाग-छ-रूवाणि हवंति। सेसाणि तिण्णिरूवधरिदणवरूवाणि तहा चेव अवचिट्ठते। तेसिं विरलणरूवमुप्पा......... एक त्रिभागसहित पांच अंकोंको लाकर पहले रक्खे हुए एक त्रिभागसहित छह के अनन्तर स्थापित करके और उसमें अधस्तन विरलनके एक त्रिभागके प्रति प्राप्त एकको मिला देने पर यहां भी एक त्रिभागसहित छह अंक हो जाते हैं और दूसरे विरलन अंककी हानि प्राप्त होती है । पुनः उसके ( जहांतक उपरिम विरलनमें तीन अंक दिये गये हैं उसके) अनन्तरके विरलन अंकके ऊपर स्थित सोलह संख्याको ग्रहण करके और अधस्तन विरलनके प्रत्येक एकके प्रति समान खंड करके दे देने पर अधस्तन विरलनके प्रत्येक तीन तीन अंक प्राप्त होते हैं। उनमेंसे दो विरलनोंके प्रति प्राप्त तीन अंकोंको ग्रहण करके उन्हें उपरिम विरलनमें पहले जहांतक तीन अंक दिये जा चुके हैं उसके अनन्तरके दो उपरिम विरलनीके प्रति प्राप्त सोलह संख्यामें मिला देने पर प्रत्येक एकके प्रति उन्नीस संख्या प्राप्त होती है। तथा पहले निकाले हुए एक त्रिभागके प्रति प्राप्त एक त्रिभागसहित पांच संख्याको उन दो अंकोंके अन्तमें लाकर स्थापित करके उसमें अधस्तन विरलनके एक विभाग प्रति प्राप्त एक संख्याको मिला देने पर एक त्रिभागसहित छह होते हैं। अधस्तन विरलनके शेष तीन अंकोंके प्रति प्राप्त नौ अंक उसीप्रकार स्थित रहते हैं। उदाहरण- ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ ७३ + १ = ६३ ५३ + १ = ६३ ५३ + १ = ६५=१९ यहां सातवें विरलनके तीन भाग किये और उस पर १६ को वांटा तब ५१ प्राप्त हुआ। अनन्तर अधस्तन विरलनके ३ के प्रति प्राप्त एक जोड़ा तब ६३ हुआ। तीसरीवार अधस्तन विरलन १ १ १ १ १ १. . ३ ३ ३९ शेष रहे। (जिन अंकों पर x ऐसा चिन्ह है उनका द्रव्य अधस्तन विरलनमें बांटा गया है। तथा जिस पर * ऐसा चिन्ह है उसके तीन भाग करके उसका द्रव्य उन तीनों भागोंमें वांटा है।) १ अ-आ-प्रत्योः तदणंतरखेत्तविय' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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