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________________ १८८ ] छक्खडागमे जीवद्वाणं [ १, २, १९. रूवं लब्भदित्ति । पुणो ताणि तिष्णि रुवाणि घेत्तूण उवरिमविरलणपंचरूवोवरि दिपंचसु सोलसेसु परिवाडीए पक्खित्ते रूवं पडि एक्कुणवीसरुवाणि हवंति । पुणो सत्तमरूवं तिणि भागे करिय तेसिं तिभागाणं सोलसरूवाणि समखंड करिय दिणे एक्स् तिभागस्स सतिभागपंचरूवाणि पावेंति । पुणो एगरूवतिभागधरिदसतिभागं पंचरूवं तत्थेव विय सेस-वे-तिभागे अप्पणो धरिदरासि सहिदं पुध हविय पुगो सट्टाहिदएगरूवतिभागेण धरिदसतिभागपंचरूवेसु हेट्टिमविरलणाए तिभागरूवोवरि हिद- एगरूवं पक्खिते तत्थ सतिभाग छ- रुवाणि हवंति, एत्थ एगरूवपरिहाणी लद्धा । पुणो तदनंतर रूवधरिद - सोलसरुवाणि हेट्टिमविरलणाए समखंड करिय दिष्णे पुब्वं व रूवं पडि तिण्णि तिणि रुवाणि पावेंति । पुणो तत्थ सकलपंचख्वोवरि द्विद-तिष्णि रुवाणि घेत्तूण सुण्णद्वाणं वंचिय उवरिमविरलण- पंचरूवोवरि द्विद-पंचसु सोलसेसु परिवाडीए पक्खितेसु रूवं पडि एगूणवीसरूवाणि हवंति । पुणो पुत्रमाणेऊण पुध विद-वे १ ३ १ ३ पुनः नीचेके विरलन के प्रति प्राप्त उन तीन ( द्वितीयादि) पांच विरलन अंकों पर स्थित पांच तीन अंकोंको लेकर उपरिम विरलनके सोलह अंकोंके ऊपर परिपाटी क्रमसे दे देने पर प्रत्येक एकके प्रति उन्नीस अंक प्राप्त होते हैं । पुनः सप्तम विरलनरूप एक अंकके तीन भाग करके उन तीन भागोंके ऊपर सोलहको समान खंड करके देयरूपसे दे देने पर प्रत्येक एक त्रिभाग के प्रति एक त्रिभागसहित पांच अंक प्राप्त होते हैं । अनन्तर एक त्रिभागके प्रति प्राप्त एक त्रिभागसहित पांच अंकों को वहीं पर रखकर और शेष दो त्रिभागों को अपने ऊपर रखी हुई राशि के साथ अलग स्थापित करके अनन्तर अपने स्थान पर स्थित एक त्रिभाग के प्रति प्राप्त एक त्रिभागसहित पांच अंकों में अधस्तन विरलन के एक विभाग के ऊपर स्थित एकको मिला देने पर वहां एक त्रिभागसहित छह अंक आ जाते हैं। इसप्रकार यहां एक विरलन अंककी हानि प्राप्त हुई । पुनः उसके अर्थात् सातवें विरलन के अनन्तर एक विरलन अंक पर स्थित सोलहको अधस्तन विरलन के प्रत्येक एक के प्रति समान खंड करके देयरूपसे दे देने पर पहले के समान अधस्तन विरलनके प्रत्येक एकके प्रति तीन तीन अंक प्राप्त होते हैं । अनन्तर वहां पूर्णांक पांच विरलनरूप अंकोंके ऊपर स्थित तीन संख्याको ग्रहण करके शून्यस्थानको ( जिस आठवें स्थानके १६ को अधस्तन विरलन में वांटा है उसे ) छोड़कर उपरिम विरलनके पांच विरलन अंकोंके ऊपर स्थित पांच सोलह अंकोंके ऊपर क्रमसे प्रक्षिप्त कर देने पर उपरिम विरलन के प्रत्येक एकके प्रति उन्नीस अंक प्राप्त होते हैं । अनन्तर पहले लाकर अलग स्थापित दो त्रिभागों में से एक विभागके ऊपर रक्खे हुए 1 प्रतिषु ' सरुवाणि ' इति पाठः । Jain Education International १६÷३=५ ३ ३ १ १ ३ ३ १ १ For Private & Personal Use Only ३ १ www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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