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________________ १, २, १९. ] दव्यमाणागमे निरयगादिपमाणपरूवणं [ १८७ पढमढविदव्वेण भागे हिदे सव्वत्थुष्पष्णपक्खेव अवहारकालो आगच्छदि । तं सरिसच्छेदं काऊण सामण्णअवहारकालम्हि पक्खित्ते पढमपुढविमिच्छाइट्ठिअवहारकालो होदि । एत्थ परिहाणिपक्खेवाणं सुहावगमणडं संदिट्ठि वत्तइस्साम । तं जहा - सोलस वाणि विरलिय वेदछप्पण्णं रूवं पडि समखंड करिय दिण्णे एक्केक्स्स रूवस्स सोलस सोलस रूपाणि पावेंति । एत्थ तिन्हं रूवाणं वड्डिमिच्छामो त्ति वड्डरूवेहि एगरूवधरिदमोट्टिदे पंचरूवाणि सतिभागाणि आगच्छति । ताणि हेट्ठा विरलिय एगरूवधरिदसोलसरुवाणि समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि तिण्णि तिष्णि रुवाणि पावेंति । एगरूवतिभागस्स एगरूवं पावेदि । तं कथं ? सकलेगरूवस्स जदि तिष्णि रुवाणि लब्भंति तो एगरूवतिभागस्स किं लभामो ति फलेण इच्छं गुणिय पमाणेण भागे हिदे एगमेव मिथ्यादृष्टि द्रव्य के प्रमाणका भाग देने पर सब जगह उत्पन्न हुआ प्रक्षेप अवहारकाल आता है । उस प्रक्षेप अवहारकालको समान छेद करके सामान्य अवहारकालमें मिला देने पर पहली पृथिवीके मिथ्यादृष्टि द्रव्यका अवहारकाल होता है । उदाहरण प्र. अव. ३२७६८ x ३२२५६ २०६४३८४ ९८८१६ १९३ २०६४३८४ ८३८८६०८ ३२७६८ + १९३ १९३ अब यहां पर हानिरूप और प्रक्षेपरूप अंकोंके सरलतासे ज्ञान कराने के लिये संदृष्टि बतलाते हैं । वह इसप्रकार है प्र. पू. मि. अव. सोलह अंकोंका विरलन करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति दोसौ छप्पन अंकों को समान खंड करके देयरूपसे दे देने पर विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति सोलह सोलह संख्या प्राप्त होती है। यहां पर हम तीन संख्याकी वृद्धि करना चाहते हैं, इस लिये वृद्धिरूप संख्या तीनसे एक विरलनके प्रति प्राप्त सोलहको अपवर्तित करने पर एक तृतीय भाग सहित पांव पूर्णांक लब्ध आते हैं। इसे पूर्व विरलन के नीचे विरलित करके और उस विरलित राशि के प्रत्येक एकके प्रति एक विरलन के प्रति प्राप्त सोलहको समान खंड करके देयरूपसे दे देने पर विरलनराशि के प्रत्येक एकके प्रति तीन संख्या प्राप्त होती है । तथा एक तृतीयांश प्रति एक संख्या प्राप्त होती है, क्योंकि, पूर्णांकरूप एक विरलनके प्रति यदि तीन संख्या प्राप्त होती है तो एक तृतीयांशके प्रति क्या प्राप्त होगा, इसप्रकार त्रैराशिक करके फल राशि तीन से इच्छाराशि एक तृतीयांशको गुणित करके जो लब्ध आवे उसमें प्रमाणराशि एकका भाग देने पर एक संख्या ही प्राप्त होती है । उदाहरण-- विरलन १६, देय २५६, वृद्धिरूप अंक ३ Jain Education International 1=1 = १६ १६ १६ १६ १६ १६ १६ १६ १६ १६ १६ १६ १६ १६ १६ १६ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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