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________________ १, २, ५६.] दव्यपमाणाणुगमे देवगदिपमाणपख्वणं [ २६९ सद्दो वेण्हं विसेसणं हवदि, ण छप्पण्णस्स । वेहि विसेसिदछप्पण्णसदस्स गहणं पसज्जदि त्ति ण च एवं, अणिद्वत्तादो । पडिभागो भागहारो । तदो वेसयछप्पण्णंगुलवग्गेण जगपदरे खंडिदे तत्थ एगखंडेण तुल्ला देवमिच्छाइट्ठी होति त्ति जं वुत्तं होदि । पण्णद्विसहस्सपंचसय-छत्तीसपदरंगुलाणि भागहार कट्ट जगपदरस्सुवरि खंडिदादओ पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीमिच्छाइट्ठीणं वत्तव्या। सासणसम्माइट्ठि-सम्मामिच्छाइटि-असंजदसम्माइट्ठीणं ओघं एदेसिं देवगुणपडिवण्णाणं परूवणा सामण्णेण ओघगुणपडिवण्णदव्वपमाणपरूवणमणुहरदि त्ति ओघेणेत्ति भणिदं । पज्जवट्टियणए अवलंबिज्जमाणे अस्थि विसेसो, अण्णहा सेसगइगुणपडिवण्णाणमभावप्पसंगा। तं विसेसं वत्तइस्सामो। तं जहाआवलियाए असंखेज्जदिभाएण ओघअसंजदसम्माइटिअवहारकालं खंडेऊण लद्धं तम्हि चेव पक्खित्ते देवअसंजदसम्माइडिअवहारकालो होदि । तमावलियाए असं कहने पर यहां उससे सूच्यंगुलका ग्रहण करना चाहिये। शत शब्द दोका विशेषण है, छप्पनका नहीं। यदि कोई कहे कि दो विशिष्ट छप्पनसौका ग्रहण हो जाना चाहिये सो बात नहीं है, क्योकि, ऐसा मानना इष्ट नहीं है। प्रतिभागका अर्थ भागहार है, अतः यह अभिप्राय हुआ कि दोसौ छप्पन सूच्यंगुलोंके वर्गसे जगप्रतरके खंडित करने पर उनमें से एक खंडके बराबर देव मिथ्यादृष्टि जीव होते हैं। पेंसठ हजार पांचसौ छत्तीस प्रतरांगुलोंको भागहार करके जगप्रतरके ऊपर खंडित आदिको पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती मिथ्यादृष्टियोंके खंडित आदिकके समान कहना चाहिये। सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यमिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि सामान्य देवोंका द्रव्यप्रमाण ओघ प्ररूपणाके समान पल्योपमके असंख्यातवें भाग है ॥ ५६ ॥ इन गुणस्थानप्रतिपन्न देवोंकी संख्या-प्ररूपणा सामान्यरूपसे गुणस्थानप्रतिपन्न सामान्य जीवोंकी संख्या प्ररूपणाका अनुकरण करती है, अतएव 'ओघसे ऐसा कहा है। पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन करने पर तो विशेषता है ही, अन्यथा शेष गतिसंबन्धी गुणस्थानप्रतिपन्न जीवोंके अभावका प्रसंग आ जाता है। आगे उसी विशेषताको बतलाते हैं। वह इसप्रकार है ___आपलीके असंख्यातवें भागसे सामान्य असंयतसम्यग्दृष्टि अवहारकालको खंडित करके जो लब्ध आवे उसे उसी सामान्य असंयतसम्यग्दृष्टि अवहारकालमें मिला देने पर देव भसंयतसम्यग्दृष्टियोंका अपहारकाल होता है। उस देव असंयतसम्यग्दृष्टिसंबन्धी अवहारकालको २ सासादनसम्यग्दृष्टि-सम्यग्मिध्यादृष्टयसंयतसम्यग्दृष्टयः पत्योपमासंख्येयभागप्रमिताः स. सि. १.८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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