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________________ २९.] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, २, ७३. सगसत्थाणभंगो (वाण-तरादि जाव उपरिमउवरिमगेवजो त्ति ।) उवरि परत्थाणं णस्थि, तत्थ सेसगुणहाणाणमभावादो। सव्वहे सत्थाणं पि णत्थि एगपदत्थादो। सव्वपरत्थाणे पयदं । सव्वत्थोवा सव्वट्ठसिद्धिविमाणवासियदेवा । सोहम्मीसाणअसंजदसम्माइडिअवहारकालो असंखेज्जगुणो । को गुणगारो ? आवलियाए असंखेजदिभागस्त संखेज्जदिभागो। को पडिभागो? सव्वट्ठसिद्धिदेवसम्मादिट्टि त्ति । तत्थेव सम्मामिच्छाइट्ठिअवहारकालो असंखेज्जगुणो। सासणसम्माइडिअवहारकालो संखेज्जगुणो । तदो सणकुमार-माहिंदअसंजदसम्माइट्ठिअवहारकालो असंखेज्जगुणो। एवं णेयव्वं जाव सदरसहस्सारेत्ति । तदो जोइसिय-वाणवेंतर-भवणवासियाणं पि कमेण णेयव्यं । भवणवासिय स्वस्थानके समान है । उपरिम उपरिम अवेयकके ऊपर परस्थान अल्पवहुत्व नहीं पाया जाता है, क्योंकि, वहां पर शेष गुणस्थान नहीं पाये जाते हैं। सर्वार्थसिद्धिमें एक पदार्थ होनेसे स्वस्थान अल्पबहुत्व भी नहीं है। विशेषार्थ-प्रतियों में देवोंके स्वस्थान और परस्थान अल्पबहुत्वके पाठ गड़बड़ और कुछ छूटे हुए प्रतीत होते हैं। बहुत कुछ विचारके पश्चात् दूसरे प्रकरणों के अल्पबहुत्वके विभागानुसार यहां भी उन्हें व्यवस्थित करनेका प्रयत्न किया गया है। प्रतियों में पहले सामान्य देवोंका स्वस्थान और परस्थान अल्पबहुत्व कहकर अनन्तर इसी प्रकार वाणव्यन्तर और ज्योतिषियोंका है, ऐसा कहा है। तदनन्तर भवनवासियोंका स्वस्थान और परस्थान अल्पबहुत्व कह कर सौधर्मादि उपरिम उपरिम ग्रैवेयकतक स्वस्थान अल्पबहुत्वको समझकर लगा लेनेकी सूचना की है। अनन्तर अनुदिशादिमें परस्थानके अभावका कारण और सर्वार्थसिद्धिमें दोनोके अभावका कारण बतलाया है। इन अल्पबहुत्वोंको व्यवस्थित कर देने पर भी सौधर्मादि उपरिम उपरिम अवेयकतक परस्थानकी कोई व्यवस्था नहीं पाई जाती है। अनुदिशादिमें परस्थानके अभावका कारण बतलाया है, पर स्वस्थान अल्पबहुत्व नहीं पाया जाता है। इसे देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि यहां कुछ पाठ भी छूट गया है। अब सर्व परस्थान अल्पबहुत्वमें प्रकृत विषयको बतलाते हैं- सर्वासिद्धि विमानवासी देव सबसे स्तोक हैं। उनसे सौधर्म और ऐशान कल्पके असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? आवलीके असंख्यातवें भागका संख्यातवां भाग गुणकार है। प्रतिभाग क्या है ? सर्वार्थसिद्धिके सम्यग्दृष्टि देवोंका प्रमाण प्रतिभाग है। वहीं पर सम्यग्मिथ्यादृष्ठियोंका अवहारकाल असंयतसम्यग्दृष्टियोंके अवहारकालसे असंख्यातगुणा है। सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंके अवहारकालसे सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल संख्यातगुणा है । सौधर्म और ऐशान कल्पके सासादनसम्यग्दृष्टियोंके अवहारकालसे सानत्कुमार और माहेन्द्र कल्पके असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल असंख्यातगुणा है। इसीप्रकार शतार और सहस्रार कल्पतक ले जाना चाहिये। शतार और सहस्रार कल्पके आगे ज्योतिषी, वाणव्यन्तर और भवनवासियोंका भी क्रमसे ले जाना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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