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१, २, १९.] दख्वपमाणाणुगमे णिरयगदिपमाणपसवणं
[ १६१ एवं पढमाए पुढवीए णेरइया ॥ १९ ॥ ___णं पुव्वं सामण्णणेरइयमिच्छाइटिआदिरासिस्स पमाणपरूवणा परूविदा, पढमविदियपुढविआदिविसेसाभावादो। पुणो जदि पुवपरूविदसव्वरासी पढमाए पुढवीए भवदि तो विदियादिपुढासु जीवाभावो पसजदे । ण च एवं, 'विदियादि जाव सत्तमाए पुढवीए णेरइएसु मिच्छाइट्ठी दव्वपमाणेण केवडिया' इच्चादिसुत्तेहि सह विरोहादो, तम्हा सामण्णणेरइयमिच्छाइट्ठिविक्खंभसूई पढमपुढविमिच्छाइट्ठीणं विक्खंभसूई ण हवदि । तदो सामण्णपरूविदअवहारकालो वि पढमपुढविणेरइयाणं ण भवदि। एवं सेसगुणपडिवण्णाणं पि अवहारकालवड्डी वत्तव्वा । तम्हा एवं पढमाए पुढवीए णेयव्वमिदि णेदं घडदे ? ण एस दोसो, असंखेजसेढित्तणेण पदरस्स असंखेजदिभागत्तणेण विदियवग्गमूलगुणिदअंगुलवग्गमूलमेत्तविक्खंभसूचित्तणेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागत्तणेण च पढमपुढवि
सामान्य नारकियोंके द्रव्यप्रमाणके समान पहली पृथिवीमें नारक जीवराशि है ॥ १९॥
शंका-पहले सामान्य नारक मिथ्यादृष्टि आदि जीवराशिके प्रमाणका प्ररूपण किया, क्योंकि, सामान्य प्ररूपणमें पहली पृथिवी, दूसरी पृथिवी आदिके विशेषप्ररूपणका अभाव है। फिर यदि पहले प्ररूपण की हुई संपूर्ण जीवरांशि पहली पृथिवीमें ही होती है तो द्वितीयादि पृथिवियोंमें जीवोंका अभाव प्राप्त होता है। परंतु ऐसा है नहीं, क्योंकि, ऐसा मान लेने पर 'दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवीतक मिथ्याडष्टि नारकी द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ' इत्यादि सूत्रोंके साथ पूर्वोक्त कथनका विरोध प्राप्त होता है। इसलिये सामान्य नारक मिथ्यादृष्टियोंकी विष्कंभसूची प्रथम पृथिवीके नारक मिथ्यादृष्टियोंकी विष्कंभसूची नहीं हो सकती है। और इसीलिये सामान्यसे कहा गया अवहारकाल भी प्रथम पृथिवीके नारकियोंका अवहारकाल नहीं हो सकता है। इसीप्रकार प्रथम पृथिवीके शेष गुणस्थानप्रतिपन्न जीवोंको भी अवहारकालकी वृद्धिका कथन करना चाहिये । इसलिये इसीप्रकार पहली पृथिवीमें ले जाना चाहिये यह सूत्रार्थ घटित नहीं
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, असंख्यात जगश्रेणियोंकी अपेक्षा, जगप्रतरके असंख्यातवें भागकी अपेक्षा सूच्यंगुलके द्वितीय वर्गमूलसे गुणित प्रथम वर्गमूलप्रमाण विष्कंभसूचीकी अपेक्षा और पल्योपमके असंख्यातवें भागकी अपेक्षा प्रथम पृथिवीसंबन्धी
१ नरकगतौ प्रथमायां पृथिव्या नारका मिथ्यादृष्टयोऽसंख्येयाः श्रेणयः प्रतरासंख्येयभागप्रमिताः। स.सि. १, ८. हेट्ठिमछप्पुढवीण रासिविहीणो दु सव्वरासी दु । पढमावणिम्हि रासी र इयाणं तु णिहिट्ठो । गो. जी. १५४. सेदीएक्केक्कपएसाइयसू ईणमंगुलप्पमियं । धम्माए xx| पञ्चसं. २, १७. अहवंगुलप्पएसा समूलगुणिया उ नेरइयसूई । पञ्चसं. २, १९. भवणवासीणीओ देवीओ संखेज्जगुणाओ। इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए नेरहया असंखेज्जगणा। पञ्चसं. २, १६ स्वो. टी. (महादण्डक).
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