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________________ छक्खंडागमे जीवट्ठाण [१, २, १८. होदि, तदो संखेज्जगुणहीण-उवक्कमणकालत्तादो । सम्मामिच्छत्तं पडिवज्जमाणरासिस्स संखेजदिभागमेत्ता उवसमसम्माइट्ठिणो सासणगुणं पडिवज्जति तिवा। तमावलियाए असंखेजदिमागेण गुणिदे तिरिक्खअसंजदसम्माइटिअवहारकालो होदि । तमावलियाए असंखेअदिभागेण गुणिदे तिरिक्खसम्मामिच्छाइडिअवहारकालो होदि । तं संखेज्जरूवेहि गुणिदे तिरिक्खसासणसम्माइटिअवहारकालो होदि। तमावलियाए असंखेजदिभागेण गुणिदे तिरिक्खसंजदासंजदअवहारकालो होदि, अपच्चक्खाणावरणाणमुदयाभावस्स अइदुल्लहत्तादो। तमावलियाए असंखेजदिभागेण गुणिदे णेरइयअसंजदसम्माइटिअवहारकालो होदि । तमावलियाए असंखेजदिभागेण गुणिदे णेरइयसम्मामिच्छाइटिअवहारकालो होदि। तं संखेजस्वेहि गुणिदे णेरइयसासणसम्माइट्ठिअवहारकालो होदि। एदेहि अवहारकालेहि पलिदोवमे भागे हिदे अप्पप्पणो दव्यमागच्छदि । सम्यग्मिथ्याष्टिसंबन्धी अवहारकालको संख्यातसे गुणित करने पर देव सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिसंबन्धी भवहारकाल प्राप्त होता है, क्योंकि, सम्यग्मिथ्याष्टिके उपक्रमणकालसे सासादनसम्यग्दृष्टिका उपक्रमणकाल संख्यातगुणा हीन है। अथवा, सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानको प्राप्त होनेवाली जीवराशिके संख्यातवें भागमात्र उपशमसम्यग्दृष्टि जीव सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानको प्राप्त होते हैं, इसलिये भी देव सम्यग्मिथ्याष्टिके भवहारकालसे देव सासादनसम्यग्दृष्टिका अवहारकाल संख्यातगुणा है। देव सासादनसम्यग्दृ. टिसंबन्धी अवहारकालको आपलीके असंख्यातवें भागसे गणित करने पर तिथं सम्यग्दृष्टिसंबन्धी अवहारकाल होता है। तिर्यच असंयतसम्यग्दृष्टिसंबन्धी अवहारकालको आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर तिर्यच सम्यग्मिथ्याष्टिसंबन्धी अवहारकाल होता है। तिर्यंच सम्यग्मिथ्यादृष्टिसंबन्धी अवहारकालको संख्यातसे गुणित करने पर तिर्यच सासादनसम्यग्दृष्टिसंबन्धी अवहारकाल होता है । तिर्यंच सासादनसम्यग्दृष्टिसंबन्धी अवहारकालको आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर तिर्यंच संयतासंयतसंबन्धी अवहारकाल होता है, क्योंकि, अप्रत्याख्यानावरण कषायका उदयाभाव अत्यंत दुर्लभ है। तिर्यंच संयतासंयतसंबन्धी अवहारकालको आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर नारक असंयतसम्यग्दृष्टिसंबन्धी अवहारकाल होता है। नारक असंयतसम्यग्दृष्टिसंबन्धी भवहारकालको आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर नारक सम्यग्मिथ्याष्टिसंबन्धी अवहारकाल होता है। नारक सम्यग्मिथ्यादृष्टिसंबन्धी अवहारकालको संख्यातसे गुणित करने पर नारक सासादनसम्यग्दृष्टिसंबन्धी अवहारकाल होता है। इन उपर्युक्त अवहारकालोसे पत्योपमके भाजित करने पर अपना अपना द्रव्यका प्रमाण आता है। १ ओघासंजदमिस्सयसासणसम्माण भागहारा जे। रूवणावलियासं खेज्जेणिह भाजिय तत्थ णिक्खित्ते ॥ देवाणं अवहारा होति xxगो . जी. ६३४, ६३५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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