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छक्खंडागमे जीवाणं
[ १, २, १७१,
सम्मत्ताणुवादेण सम्माइट्टीसु असंजदसम्माइट्टि पहुडि जाव अजोगकेवलि त्ति ओघं ॥ १७४ ॥
४७४ ]
के कारण ? सम्मत्तसामण्णेण अहियारादो। ण हि सामण्णवदिरित्तो तव्विसेसे अस्थि । तम्हा ओघपरूवणा चेय णिरवयवा एत्थ वत्तव्या ।
खइयसम्म इट्टीसु असंजदसम्माहट्टी ओघं ॥ १७५ ॥
जद व एसो खइयसम्माइट्ठिरासी ओघअसंजदसम्म इहिरासिस्स असंखेज्जदिभागमेत्तो, तो वि ओघपरूवणं लभदेः पलिदोवमस्स असंखेञ्जदिभागमेत्तत्तं पडि विसेसा
भावा ।
संजदासंजद पहुडि जाव उवसंतकसायवीदरागछदुमत्था दव्व. पमाणेण केवडिया संखेना ॥ १७६ ॥
सम्यक्त्वमार्गणा के अनुवाद से सम्यग्दृष्टियों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगिकेवली गुणस्थानतक जीव ओघप्ररूपणा के समान हैं ॥ १७४ ॥
शंका- सम्यक्त्वी जीव असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक ओधप्ररूपणाके समान किस कारणसे हैं ?
समाधान — क्योंकि, यहां पर सम्यक्त्व सामान्यका अधिकार है । सामान्यको छोड़कर उसके विशेष नहीं पाये जाते हैं । इसलिये ओघप्ररूपणा ही निश्शेष यहां पर कहना चाहिये ।
क्षायिक सम्यग्दृष्टियों में असंयतसम्यग्दृष्टि जीव ओघप्ररूपणा के समान हैं ।। १७५ ।।
यद्यपि यह क्षायिक असंयतसम्यग्दृष्टिराशि ओघ असंयतसम्यग्दृष्टि राशिके असंख्यातवें भागमात्र है तो भी वह ओघप्ररूपणाको प्राप्त होती है, क्योंकि, पल्योपमके 'असंख्यातवें भागत्व के प्रति उक्त दोनों राशियों में कोई विशेषता नहीं है ।
संयतासंयत गुणस्थान से लेकर उपशान्तकषाय वीतराग छद्मस्थ गुणस्थानतक क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? संख्यात हैं ।। १७६ ॥
१ प्रतिषु ' - केवली ' इति पाठः ।
२ सम्यक्त्वानुवादेन क्षायिकसम्यग्दृष्टिषु असंयत सम्यग्दृष्टयः पल्योपमासंख्येयभाग प्रमिताः । स. सि. १, ८. वासपुधत्ते खइया संखेज्जा जह हवंति सोहम्मे । तो संखपल्लठिदिये केवदिया एवमणुपादे ॥ संखावलिहिदपल्ला खइया ॥ गो. नी. ६५७-६५८.
३ संयतासंयतदय उपशान्तकषायान्ताः संख्येयाः । स. सि. १,८०
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