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________________ छक्खंडागमे जीवाणं [१, २, ११५. आइरिओवएसेण' सजोगिकेवलिणो चत्तालीसं हवंति । तं जहा- कवाडे आरुहंता वीस २०, ओदरता वीसेत्ति २० । वेउव्वियकायजोगीसु मिच्छाइटी दव्वपमाणेण केवडिया, देवाणं संखेजदिभागूणों ॥ ११५॥ एदस्स सुत्तस्स अत्थो वुच्चदे । देवाणं जो रासी अप्पप्पणो संखेजदिभाएण परिहीणो वेउव्वियकायजोगिमिच्छाइट्ठीणं पमाणं होदि । कुदो ? देव-णेरइयरासिमेगटुं करिय मण-वचिकायजोगद्धासमासेण खंडिय लद्धं तिप्पडिरासिं काऊण अप्पप्पणो अद्धाहि गुणिदे सग-सगरासीओ हवंति । जेण मण-बचिजोगरासीओ देवाणं संखेजदिभागो हवंति, विशेषार्थ- असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में औदारिकमिश्रकाययोग तिर्यंच और मनुष्य दोनों में पाया जाता है। फिर भी जो सम्यग्दृष्टि जीव मरकर तिर्यंचों में उत्पन्न होते हैं वे मनुष्य ही होते हैं, अतएव ऐसे उत्पन्न होनेवाले जीवोंका प्रमाण स्वल्प ही रहेगा। तथा मनुष्यगतिसे जो जीव सम्यक्त्वके साथ मनुष्योंमें उत्पन्न होंगे उनका भी प्रमाण स्वल्प ही रहेगा। अब रह गई नरक और देवगतिकी बात, सो इन दोनों गतियोंसे सम्यग्दृष्टि मरकर मनुष्यों में ही उत्पन्न होते हैं। किन्तु पर्याप्त मनुष्योंका प्रमाण संख्यात ही है। अतएव नरक और देवगतिसे मरकर मनुष्यों में होनेवाले सम्यग्दृष्टि जीव संख्यात ही उत्पन्न होंगे, अधिक नहीं । इसलिये औदारिकमिश्रकाययोगी सम्यग्दृष्टियोंका प्रमाण संख्यात ही होगा, अधिक नहीं, यह सिद्ध हो जाता है। सूत्रके अविरुद्ध आचार्योंके उपदेशानुसार औदारिकमिश्रकाययोगमें सयोगिकेवली जीव चालीस होते हैं । इसका स्पष्टीकरण इसप्रकार है- कपाट समुद्धातमें आरोहण करनेवाले औदारिकमिश्रकाययोगी वीस और उतरते हुए वीस होते हैं। वैक्रियिककाययोगियोंमें मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? देवोंके संख्यातवें भाग कम हैं ॥ ११५ ॥ इस सूत्रका अर्थ कहते है-अपनी अपनी राशिके संख्यातवें भागसे न्यून देवोंकी जो राशि है उतना वैक्रियिककाययोगी मिथ्यादृष्टियोंका प्रमाण है, क्योंकि, देव और नारकियोंकी राशिको एकत्रित करके मनोयोग, वचनयोग और काययोगके कालके जोड़से खंडित करके जो लब्ध आवे उसकी तीन प्रतिराशियां करके अपने अपने कालसे गुणित करने पर अपनी अपनी राशियोंका प्रमाण होता है। चूंकि मनोयोगी जीवराशि और पचनयोगी जीव १ प्रतिषु -ओवएस ' इति पाठः । २ सुरणिस्यकायजोगा वेगुब्बियकायजोगा हु॥ गो. जी. २६९. ३ प्रतिषु । रासीओ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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