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________________ १, २, ११६.] दव्वपमाणाणुगमे जोगमग्गणापमाणपख्वणं [ ३९९ तेण वेउब्वियकायजोगिमिच्छाइट्ठिरासिपमाणं संखेजदिभागपरिहीणदेवरासिणा समाण भवदि। एत्थ अवहारकालो उच्चदे। देव-णेरइयमिच्छाइद्विरासिसमासम्मि मण-वचि-वेउब्धियमिस्सकाय-कम्मइयकायजोगिदेव-णेरइयमिच्छाइट्ठिरासिसमासेण भागे हिदे संखेजरूवाणि लभंति । तेहि रूवूणेहि संखेज्जपदरंगुलमेत्तं देव-णेरइयसमासअवहारकालं खंडिय लद्धं तम्हि चेव पक्खित्ते वेउब्धियकायजोगिमिच्छाइडिअवहारकालो होदि । सासणसम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी असंजदसम्माइट्ठी दव्वपमाणेण केवडिया, ओघं ॥ ११६॥ देवगुणपडिवण्णाणं रासिपमाणं अप्पप्पणो संखेज्जदिभाएण ऊणं वेउब्धियकायजोगिगुणपडिवण्णरासिपमाणं होदि । तं जहा- देव-णेरइयगुणपडिवण्णरासिम्हि अप्पप्पणो मण-वचि-वेउब्धियमिस्स-कम्मइयरासीहि भागे हिदे तत्थ लद्धसंखेज्जरूवेहि रूवणेहि देव रइयसमासअवहारकालं खंडिय लद्धं तम्हि चेव पक्खित्ते वेउनियकायजोगिगुणपडिवण्णाणमवहारकाला भवंति । राशि देवोंके संख्यातवें भाग है, इसलिये चैक्रियिककाययोगी मिथ्यादृष्टि राशिका प्रमाण संख्यातवें भाग कम देवराशिके समान होता है। अब यहां पर अवहारकालका कथन करते हैं- देव मिथ्यादृष्टिराशि और नारक मिथ्यादृष्टिराशिका जितना योग हो उसे मनोयोगी, वचनयोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी और कार्मणकाययोगी देव और नारकी मिथ्यादृष्टि राशिके योगसे भाजित करने पर संख्यात लब्ध आते हैं। एक कम उस संख्यातसे संख्यात प्रतरांगुलमान देव और नारकियोंके जोड़रूप अवहारकालको खंडित करके जो लब्ध आवे उसे उन्हीं दोनोंके जोड़रूप अवहारकालमें मिला देने पर वैक्रियिककाययोगी मियादृष्टियोंका अवहारकाल होता है। सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि वैक्रियिककाययोगी जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? ओघप्ररूपणाके समान हैं ॥ ११६ ॥ गुणस्थानप्रतिपन्न देवोंकी राशिका जो प्रमाण है, अपनी अपनी उस राशिमेंसे संख्यात भाग न्यून करने पर वैक्रियिककाययोगी गुणस्थानप्रतिपन्न अपनी अपनी राशिका प्रमाण होता है। वह इसप्रकार है-गुणस्थानप्रतिपन्न देव और नारक राशिमें अपनी अपनी मनोयोगी, वचनयोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी और कार्मणकाययोगी जीवोंकी राशियोंका भाग देने पर वहां जो संख्यात लब्ध आवे उसमें एक कम करके शेषसे देव और नारकियोंके योगरूप अवहारकालको खंडित करके जो लब्ध आवे उसे उसी देव और नारकियोंके मिले हुए अवहारकालमें मिला देने पर बैक्रियिककाययोगी गुणस्थानप्रतिपन्न जीवोंके अवहारकाल होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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