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________________ ४००] छक्खंडागमे जीवाणं [१, २, ११७. वेउब्वियमिस्सकायजोगीसु मिच्छाइट्ठी दव्वपमाणेण केवडिया, देवाणं संखेज्जदिभागों ॥ ११७॥ एदस्स सुत्तस्स वक्खाणं वुच्चदे । संखेज्जवस्साउअभंतरआवलियाए असंखेजदिभागमेत्तउवक्कमणकालेण' जदि देवरासिसंचओ लब्भदि, तो एदम्हादो संखेज्जगुणहीणवेउब्धियामिस्सउवक्कमणकालम्हि केत्तियमेत्तरासिसंचयं लभामो त्ति इच्छारासिणा पमाणरासिम्हि भागे हिदे तत्थ लद्धसंखेज्जरूवेहि देवरा सिम्हि भागे हिदे तत्थेगभागो वेउब्धियमिस्सकायजोगिमिच्छाइडिपमाणं होदि । सेसं सुगमं । वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंमें मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? देवोंके संख्यातवें भाग हैं ।। ११७ ॥ - अब इस सूत्रका व्याख्यान करते हैं- संख्यात वर्षकी आयुके भीतर आवलीके असंख्यातवें भागमात्र उपक्रमण कालसे यदि देवराशिका संचय प्राप्त होता है, तो इससे संख्यातगुणे हीन वैक्रियिकमिश्र उपक्रमण कालके भीतर कितनामात्र राशिका संचय प्राप्त होगा, इसप्रकार त्रैराशिक करके इच्छाराशिसे प्रमाणराशिके भाजित करने पर वहां जो संख्यात लब्ध आवेंगे उससे देवराशिके भाजित करने पर वहां एक भागप्रमाण वैक्रियिकमिश्रकाययोगी मिथ्यादृष्टियोंका प्रमाण होता है। शेष कथन सुगम है। विशेषार्थ- उत्पत्तिको उपक्रमण कहते हैं, और इस सहित कालको सोपक्रमकाल कहते हैं । यह सोपक्रमकाल आवलीके असंख्यातवें भागमात्र है । अर्थात् देवोंमें यदि निरन्तर जीव उत्पन्न हों तो इतने काल तक उत्पन्न होंगे। इसके पश्चात् अन्तर पड़ जायगा । वह अन्तरकाल जघन्य एक समय है और उत्कृष्ट सोपक्रमकालसे संख्यातगुणा है । देवोंमें संख्यात वर्षकी आयु लेकर अधिक जीव उत्पन्न होते हैं, इसलिये यहां उन्हींकी विवक्षा है। इसप्रकार संख्यात वर्षके भीतर जितने उपक्रमकाल होते हैं उनमें यदि देवराशिका संचय प्राप्त होता है तो इससे संख्यातगुणे हीन मिश्रकालमें अपर्याप्त अवस्थाके सोपक्रमकालमें) कितने जीव होंगे। इसप्रकार त्रैराशिक करने पर सर्व देवराशिके संख्यातवें भागमात्र वैक्रियिकमिश्रकाययोगियों का प्रमाण होता है। यहां असंख्यात वर्षकी आयुवाले देवों और नारकियोंकी अपेक्षा वैक्रियकमिश्रकाययोगियों के प्रमाणके नहीं लानेका कारण यह है कि उनका अनुपक्रमकाल अधिक होनेसे उनमें वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंका प्रमाण अल्प होगा, इसलिये उनकी यहां विवक्षा नहीं की है। १ सोत्रक्कमाणुवक्कमकालो संखेन्जवासठिदिवाणे । आवलि असंखभागो संखेज्जावलिपमा कमसो। तहिं सव्वे सुद्धसला सोवक्कमकालदा दु संखगुणा । तत्तो संखगुणूणा अपुण्णकालम्हि सुद्धसला ॥ तं सुद्धसलागाहिदणियरासिमपुण्णकालल दाहिं । सुद्धसलागाहिं गुणे वेंतरवेगुव्वमिस्सा हु॥ तहिं सेसदेवणारयमिस्स जुदे सबमिस्सवेगुव्वं ॥ गो. जी. २६६-२६९. २ तत्र उत्पत्तिः उपक्रमः, तत्सहितः कालः सोपक्रमकालः निरन्तरोत्पत्तिकाल: इत्यर्थः। गो.जी.२६६ टीका. ३ अ प्रतौ -कालेण गहिदे जदि' इति पाठः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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