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________________ २५४] छक्खंडागमे जीवठाणं [१, २, ४०. दव्वं विसेसाहियं । केत्तियमेत्तेण ? आवलियाए असंखेज्जदिभागखंडिदमेत्तेण । पदरमसंखेज्जगुणं । को गुणगारो ? अवहारकालो । लोगो असंखेज्जगुणो। को गुणगारो ? सेढी। तिरिक्खमिच्छाइट्ठिदव्यमणंतगुणं । को गुणगारो ? अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो सिद्धेहि वि अणंतगुणो भवसिद्धियजीवाणमणताभागस्स असंखेज्जदिभागो । मणुसगईए मणुस्सेसु मिच्छाइट्ठी दव्वपमाणेण केवडिया, असंखेज्जा ॥ ४०॥ ___ एत्थ मणुसगइगहणेण सेसगइपडिसेहो कदो । मणुस्सेसु त्ति वयणेण तत्थ द्विदसेसजीवादिदध्वपडिसेहो कओ । मिच्छाइट्टि त्ति वयणेण सेसगुणट्ठाणपडिसेहो कदो । खेत्त-कालपमाणवुदासढुं दव्वगहणं । सुत्तस्स पमाणपरूवणटुं केवडियगहणं । संखेजाणताणं घुदासढे असंखेज्जगहणं । अइथूलपरूवर्ण परुविय सुहुमट्टपरूवण8 उत्तरसुत्तं भणदि विशेष अधिक है। कितनेमात्रसे अधिक है ? पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तोंके द्रव्यको आवलीके असंख्यातवें भागसे खंडित करके जो एक खंड लब्ध आवे तन्मात्रसे अधिक है । पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टियोंके द्रव्यसे जगप्रतर असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल गुणकार है। जगप्रतरसे लोक असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है? जगश्रेणी गुणकार है। लोकसे तियेच मिथ्याटि द्रव्य अनन्तगुणा है। गुणकार क्या है ? अभव्यसिद्धोंसे अनन्तगुणा, सिद्धोंसे भी अनन्तगुणा या भव्यसिद्ध जीवोंके अनन्त बहुभागोंका असंख्यातवां भाग गुणकार है। मनुष्यगतिप्रतिपन्न मनुष्योंमें मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्य प्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? असंख्यात हैं ॥४०॥ इस सूत्रमें 'मनुष्यगति' इस पदके ग्रहण करनेसे शेष गतियोंका प्रतिषेध कर दिया गया है। मनुष्योंमें' इसप्रकारके धचनसे वहां पर स्थित शेष जीवादि द्रव्योंका प्रतिषेध कर दिया है । 'मिथ्यादृष्टि' इस वचनसे शेष गुणस्थानोंका प्रतिषेध कर दिया है। क्षेत्रप्रमाण और कालप्रमाणका निराकरण करनेके लिये द्रव्य पदका ग्रहण किया है। सूत्रकी प्रमाणताका प्ररूपण करनेके लिये 'कितने हैं। इस पदका ग्रहण किया है। संख्यात और अनन्तका निराकरण करनेके लिये असंख्यात पदका ग्रहण किया है। अब अतिस्थूल प्ररूपणाका प्ररूपण करके सूक्ष्म प्ररूपणाका प्ररूपण करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं १ प्रतिषु ' -भाए ' इति पाठः । २ असंखिज्जा मणुस्सा । अनु. सू. १४१ पृ. १७९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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