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१, २, १. ]
दव्यमाणागमे णिसपरूवणं
शब्दादि । तं च रूवि - अजीवदव्वं छन्हिं, पुढवि-जल-छाया चउरिदियविसय-कम्मक्खंध - परमाणू चेदि । वुत्तं च
पुढवी जलं च छाया चउरिदियविसय कम्म-परमाणू । छवि मेयं भणियं पोग्गलदव्वं जिणवरे हिं' ॥ २ ॥
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जं तं अरूवि - अजीवदव्यं तं चउत्रिहं, धम्मदव्वं अधम्मदव्त्रं आगासदव्वं कालदव्यं चेदि । तत्थ धम्मदव्वस्स लक्खणं वुच्चदेववगदपंचवणं ववगदपंचरसं ववगद - दुगंधं ववगदअडपासं जीव- पोग्गलाणं गमनागमनकारणं असंखेजपदेसियं लोगपमाणं धम्मदव्वं । एवं चेत्र अधम्मदव्वं पि, गवरि जीव-पोग्गलाणं एदं द्विदिहेदू । एवमागास पि, णवरि आगासदव्यमणंतपदेसियं सव्वगयं ओगाहणलक्षणं । एवं चेव कालदव्वं पि, वरिस - परपरिणामहेऊ अपदेसियं लोग पदेसपरिमाणं । एदाणि छ
अजीवद्रव्य है, जैसे शब्दादि । वह रूपी अजीवद्रव्य छह प्रकारका है, पृथिवी, जल, छाया, नेत्रको छोड़कर शेष चार इन्द्रियोंके विषय, कर्मस्कन्ध और परमाणु । कहा भी है
जिनेन्द्रदेवने पृथिवी, जल, छाया, नेत्र इन्द्रियके अतिरिक्त शेष चार इन्द्रियों के विषय, कर्म और परमाणु, इसप्रकार पुद्गलद्रव्य छह प्रकारका कहा है ॥ २ ॥ विशेषार्थ - - ऊपर जो पुगलके छह भेद बतलाये हैं वे उपलक्षणमात्र हैं, इसलिये उपलक्षणसे उस उस जाति के पुतलोंका उस उस भेदमें ग्रहण हो जाता है । ग्रन्थान्तरोंमें जो पुद्गल के स्थूल-स्थूल, स्थूल, स्थूल सूक्ष्म, सूक्ष्म-स्थूल, सूक्ष्म और सूक्ष्म-सूक्ष्म, ये छह भेद गिनाये हैं और उनका दृष्टान्तोंद्वारा स्पष्टीकरण करनेके लिये उपर्युक्त पृथिवी आदि छह प्रकार बतलाये हैं, इससे भी यही सिद्ध होता है कि ये पृथिवी आदि नाम उपलक्षणरूप से लिये गये हैं ।
अरूपी अजीवद्रव्य चार प्रकारका है, धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य और कालद्रव्य | उनमें से धर्मद्रव्यका लक्षण कहते हैं । जो पांच प्रकारके वर्णसे रहित है, पांच प्रकार रससे राहत है, दो प्रकारके गन्धसे रहित है, आठ प्रकारके स्पर्शसे रहित है, जीव और पुद्गलों के गमन और आगमन में साधारण कारण है, असंख्यात प्रदेशी है और लोकाकाशके बराबर है वह धर्मद्रव्य है । इसीप्रकार अधर्मद्रव्य भी है, परंतु इतनी विशेषता है कि यह जीव और पुद्गलों की स्थिति में साधारण कारण है । इसीप्रकार आकाशद्रव्य भी है, पर इतनी विशेषता है कि आकाशद्रव्य अनन्तप्रदेशी, सर्वगत और अवगाहनलक्षगवाला है । इसीप्रकार
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१ गो. जी. ६०१. पुढवी जलं च छाया चउरिदियविसयकम्मपाओग्गा । कम्मातीदा एवं छन्भेया पौग्गला होंति ॥ पञ्चा. ८३.
२ लोगागास पदे से एक्के जे डिया हु एक्केका । रयणाणं रासी हव ते कालागू असंखदव्वाणि ॥ दव्व सं. २२. गो. जी. ५८९.
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