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छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, २, ५.
' । सो अत्थो जइवि पुव्वाइरियसंपदायविरुद्धो तो वि तंतजुत्तिले अम्हेहिं परूविदो । तदो इदमित्थं वेत्ति हा संगहो कायच्त्रों, अईदियत्थविसए छदुवेत्थवियप्पिदजुत्तीणं णिण्णयहे उत्ताणुववत्तदो । तम्हा उवएसं लड़्ण विसेसणिष्णयो एत्य कायन्त्रो त्ति । खेत्तपमाणपरूवणं किमहं कीरदे ? असंखेज्जपदेसे लोगागासे अनंतलोग मेत्तो वि जीवरासी सम्माइ त्ति जाणावणडुं । अट्ठसु माणेसु लोगपमाणेण मिणिज्जमाणे एत्तिय लोगा होंति त्ति जाणावणङ्कं वा । तो वि ते केत्तिया होंति त्ति भणिदे एगलोगेण मिच्छाइट्ठिीरासिम्हि भागे हिदे लद्धरूवमेता लोगा होंति ।
तिन्हं पि अधिगमो भावप्रमाणं ॥ ५ ॥
वातवलय के मध्यभागमें जो पृथिवी है वहां वातवलयकी संभावना है । और इसलिये महामत्स्य वेदनासमुद्धात के समय उससे स्पर्श कर सकता है । इसलिये स्वयंभूरमणकी बाह्य वेदिका के उस ओर असंख्यात द्वीपों और समुद्रोंके व्यास से संख्यातगुणी पृथिवीके सिद्ध हो जाने पर भी 'वेदनासमुद्धात से पीड़ित हुआ महामत्स्य वातवलय से संसक्त होता है ' वेदनाखंडके इस वचनके साथ उक्त कथनका कोई विरोध नहीं आता है ।
यद्यपि यह अर्थ पूर्वाचार्योंके संप्रदाय के विरुद्ध है, तो भी आगमके आधारपर युक्ति के बलसे हमने (वीरसेन आचार्यने ) इस अर्थका प्रतिपादन किया है । इसलिये यह अर्थ इसप्रकार भी हो सकता है, इस विकल्पका संग्रह यहां पर छोड़ना नहीं चाहिये, क्योंकि, अतीन्द्रिय पदार्थों के विषय में छद्मस्थ जीवोंके द्वारा कल्पित युक्तियों के विकल्प रहित निर्णय के लिये हेतुता नहीं पाई जाती है । इसलिये उपदेशको प्राप्त करके इस विषय में विशेष निर्णय करना चाहिये ।
शंका- यहां पर क्षेत्रप्रमाणका प्ररूपण किसलिये किया है ?
समाधान - असंख्यात प्रदेशी लोकाकाशमें अनन्तले कप्रमाण जीवराशि समा जाती इस बातके ज्ञान करानेके लिये यहां पर क्षेत्रप्रमाणका प्ररूपण किया है । अथवा, आठ प्रकारके प्रमाणों में से लोकप्रमाणके द्वारा जीवोंकी गणना करने पर इतने लोक हो जाते हैं इस बातके ज्ञान कराने के लिये यहां पर क्षेत्रप्रमाणका प्ररूपण किया है । तो भी वे लोक कितने होते हैं ऐसा पूछने पर आचार्य उत्तर देते हैं कि एक लोकका अर्थात् एक लोकके जितने प्रदेश है उनका मिध्यादृष्टि जीवराशिमें भाग देने पर जितनी संख्या लब्ध आवे तत्प्रमाण लोक होते हैं ।
उपर्युक्त तीनों प्रमाणोंका ज्ञान ही भावप्रमाण है ॥ ५ ॥
१ भावत्थो पुव्ववेरियदेवेण महामच्छो सयंभुरमणबाहिर वेश्याए बाहिरे भागे लोगणालीए सामीवे पुचीदी | तत्थ तिव्ववेयणावसेण वेयणसमुग्वादेण समुग्धादो जाव लोगणालीए बाहिरपेरंतो लन्गो चि उत्तं होदि ।
धवला. पत्र. ८८२.
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