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________________ ३१२] छक्खंडागमे जीववाणं [ १, २, ७८. जहा-पंचिंदिया सासणसम्माइटिप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति दव्यपमाणेण केवडिया, ओघमिदि। सुहुमट्टपरूवणटुं सुत्तमाहअसंखेजाहि ओसाप्पिणि-उस्सप्पिणीहि अवहिरंत कालेण ॥७८॥ एदस्म सुत्तस्स अत्थो सुगमो त्ति ण वुच्चदे। एदाओ रासीओ सयकालमायाणु रूववयसहिदाओ त्ति ण वोच्छेदमुवढुक्कते तदो असंखेज्जाहि ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहि अवहिरंति त्ति कधमेदं घडदे ? सच्चं, ण वोच्छिज्जति चेव किं तु एदासिमाएण विणा जदि वओ चेव भवदि तो णिच्छएण वोच्छिज्जति । अण्णहा असंखेज्जत्ताणुववत्तादो । एदस्सत्थस्स अवबोहणहूँ अवहिरंति त्ति वुत्तं । शंका- वह सूत्र कहां पर है ? समाधान-यहीं आगे है । यथा- 'पंचेन्द्रिय जीव सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थानतक द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? सामान्य प्ररूपणाके समान पांचवें गुणस्थानतक पल्योपमके असंख्यातवें भाग और छठवेसे संख्यात हैं। अब सूक्ष्म अर्थका प्ररूपण करने के लिये सूत्र कहते हैं कालकी अपेक्षा द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीव तथा उन्हींके पर्याप्त और अपर्याप्त जीव असंख्यात अवसर्पिणियों और उत्सपिणियोंके द्वारा अपहृत होते हैं ।। ७८॥ इस सूत्रका अर्थ सुगम है, इसलिये नहीं कहते हैं। शंका-ये द्वीन्द्रियादि सर्व जीवराशियां सर्व काल आयके अनुरूप व्ययसे युक्त हैं, इसलिये यदि विच्छेदको प्राप्त नहीं होती है तो ' असंख्यात अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियोंके द्वारा अपहृत होती हैं, यह कथन कैसे घटित हो सकता है ? समाधान-यह सत्य है कि उपर्युक्त द्वीन्द्रियादिक जीवराशियां विच्छिन्न नहीं होती हैं, किन्तु इन राशियोंका आयके विना यदि व्यय ही होता तो निश्चयसे विच्छिन्न हो जातीं। यदि ऐसा न माना जाय तो 'द्वीन्द्रियादि राशियां असंख्यात हैं' यह कथन नहीं बन सकता है । इसी अर्थका ज्ञान करानेके लिये 'अवहिरंति' ऐसा कहा। विशेषार्थ-यहां सूत्रमें ' असंखेजाहि' पाठ है, किन्तु अर्थसंदर्भकी दृष्टि से वहां 'असंखेजासंखेजाहि' ऐसा पाठ प्रतीत होता है। खुद्दाबंध खंडके इसी प्रकरणमें इन्हीं जीवोंकी सामान्य संख्या बतलाते हुए यह सूत्र पाया जाता है- 'असंखेज्जासंखेन्जाहि ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहि अवहिरंति कालेण ।' किन्तु यहां टीकमें भी 'असंखेज्जाहि' पद होनेसे उसी पाठकी रक्षा की गई। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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