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________________ १, २, ७७.] दव्वपमाणाणुगमे वेइंदियादिपमाणपरूवणं बहूणं वीइंदियादीणं तस्सेवेत्ति एगवयणणिदेसो कधं घडदे ? ण एस दोसो, बहूणं पि जादीए एयत्तविरोहाभावादो । एत्थ अपञ्जतवयणेण अपज्जत्तणामकम्मोदयसहिदजीवा घेत्तव्या । अण्णहा पज्जत्तणामकम्मोदयसहिदणिबत्तिअपजत्ताणं पि अपज्जत्तवयणेण गहणप्पसंगादो। एवं पज्जत्ता इदि वुत्ते पज्जत्तणामकम्मोदयसहिदजीवा घेत्तया । अण्णहा पज्जत्तणामकम्मोदयसहिदणिव्यत्तिअपज्जत्ताणं गहणाणुववतीदो। वि-ति-चउरिदिए त्ति वुत्ते वीइंदिय-तीइंदिय-चउरिदियजादिणामकम्मोदयसहिदजीवाणं गहणं । वेण्णि इंदियाणि जेसिं ते वेइंदिया इदि घेप्पमाणे को दोसो १ चे ण, अपज्जत्तकाले वट्टमाणजीवाणमिंदियाभावेण तेसिमगहणप्पसंगादो। खओवसमो इंदियं ण दबिदियमिंदियमिदि चे ण, सजोगिकेवलिस्स पणखओवसमस्स अणिंदियत्तप्पसंगादो । होदु ? चे ण, सुत्तस्स पंचिंदियत्तपदुप्पायणादो। कम्हि तं सुत्तमिदि चे एत्थेव । तं शंका-द्वीन्द्रियादिक जीव बहुत हैं, अतएव उनके लिये ' तस्सेव' इसप्रकार एक वचन निर्देश कैसे बन सकता है ? समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, बहुतके भी जातिसे एकत्वके प्रति कोई विरोध नहीं आता है। ___ यहां सूत्र में अपर्याप्त पदसे अपर्याप्त नामकर्मके उदयसे युक्त जीवोंका ग्रहण करना चाहिये । अन्यथा पर्याप्त नामकर्म के उदयसे युक्त निर्वृत्यपर्याप्त जीवोंका भी अपर्याप्त इस वयनसे ग्रहण प्राप्त हो जायगा। इसीप्रकार पर्याप्त ऐसा कहने पर पर्याप्त नामकर्मके उदयसे युक्त जीवोंका ग्रहण करना चाहिये । अन्यथा पर्याप्त नामकर्मके उदयसे युक्त नित्यपर्याप्त जीवोंका ग्रहण नहीं होगा। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय, ऐसा कहने पर द्वीन्द्रिय जाति, त्रीन्द्रिय जाति और चतुरिन्द्रिय जाति नामकर्मके उदयसे युक्त जीवोंका ग्रहण करना चाहिये। शंका-'जिन जीवोंके दो इन्द्रियां पाई जाती हैं वे द्वीन्द्रिय जीव हैं ' ऐसा ग्रहण करने में क्या दोष आता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, उपर्युक्त अर्थके ग्रहण करने पर अपर्याप्त कालमें विद्यमान जीवोंके इन्द्रियां नहीं पाई जानेसे उनके नहीं ग्रहण होनेका प्रसंग प्राप्त हो जायगा। शंका-क्षयोपशमको इन्द्रिय कहते हैं, द्रव्येन्द्रियको इन्द्रिय नहीं कहते हैं। इसलिये अपर्याप्त कालमें द्रव्येन्द्रियोंके नहीं रहने पर भी द्वीन्द्रियादि पदोंके द्वारा उन जीवोंका ग्रहण हो जायगा? समाधान नहीं, क्योंकि, यदि इन्द्रियका अर्थ क्षयोपशम किया जाय तो जिनका क्षयोपशम नष्ट हो गया है ऐसे सयोगिकेवलीको अनिन्द्रियपनेका प्रसंग आ जाता है। शंका- आ जाने दो? समाधान- नहीं, क्योंकि, सूत्र सयोगिकेवलीको पंचेन्द्रियरूपसे प्रतिपादन करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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