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________________ ३१४] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, २, ८०. वग्गिदे पज्जत्ताणमवहारकालो होदि । तेण पडिभाएण । पदरंगुलस्स असंखेजदिभाग सलागनंद ठविय विगलिंदियअपज्जत्तेहि जगपदरे अवहिरिज्जमाणे सलागाहि सह जगपदरं समप्पदि । पदरंगुलस्स संखेलदिभागं सलागभूदं ठविय विगलिंदियपज्जत्तेहि जगपदरे अवहिरिज्जमाणे सलागाहि सह जगपदरं समप्पदि त्ति जं वुत्तं होदि। पंचिंदिय-पांचंदियपज्जत्तएसु मिच्छाइट्ठी दव्वपमाणेण केवडिया, असंखेजा ॥८०॥ एदस्स सुत्तस्स अत्थो सुगमो त्ति ण वुच्चदे। असंखेज्जासंखेजाहि ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहि अवहिरांत कालेण ॥ ८१॥ एदस्स वि सुत्तस्स अत्थो सुगमो त्ति ण वुच्चदे । . खेत्तेण पंचिंदिय-पंचिंदियपज्जत्तएसु मिच्छाइट्ठीहि पदरमवहिरदि अंगुलस्स असंखेज्जदिभागवग्गपडिभाएण अंगुलस्स संखेज्जदिभागवग्गपडिभाएण॥ ८२॥ पर्याप्तीका अवहारकाल होता है। इस प्रतिभागसे । प्रतरांगुलके असंख्यातवें भागको शलाकारूपसे स्थापित करके विकलेन्द्रिय अपर्याप्तोंके द्वारा जगप्रतरके पुनः पुनः अपहृत करने पर अर्थात् घटाने पर शलाकाओंके साथ जगप्रतर समाप्त होता है । तथा प्रतरांगुलके संख्यातवें भागको शलाकारूपसे स्थापित करके विकलेन्द्रिय पर्याप्तकोंके द्वारा जगप्रतरके पुनः पुनः अपहृत करने पर शलाकाओंके साथ जगप्रतर समाप्त होता है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंमें मिथ्यादृष्टि द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? असंख्यात हैं ॥ ८ ॥ इस सूत्रका अर्थ सुगम है, इसलिये नहीं कहते हैं। कालकी अपेक्षा पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीव असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियोंके द्वारा अपहृत होते हैं ॥ ८१ ॥ इस सूत्रका अर्थ सुगम है, इसलिये नहीं कहते हैं। क्षेत्रकी अपेक्षा पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंमें मिथ्यादृष्टियोंके द्वारा सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागके वर्गरूप प्रतिभागसे और सूच्यंगुलके संख्यातवें भागके वर्गरूप प्रतिभागसे जगप्रतर अपहृत होता है ।। ८२ ॥ १४४ मणुस्सादिगा सभेदा जे । जुगवारमसंखेज्जा ॥ गो. जी. १७५. २ पञ्चेन्द्रियेषु मिथ्यादृष्टयोऽसंख्येयाः श्रेणयः प्रतरासंख्ययभागप्रमिताः । स. सि. १, ८, प्रतिषु 'संखे. ज्जदिभायपडिभाएण' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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