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________________ १, २, ७३.] दव्वपमाणाणुगमे चउग्गइभागाभागपख्वणं [२९५ असंखेज्जगुणो ? को गुणगारो ? सेढी । चउग्गइभागाभागं वत्तइस्सामो । तं जहा- सव्वजीवरासिमणंतखंडे कए तत्थ बहुखंडा एइंदिय-विगलिंदिया होति । सेसमणतखंडे कए बहुखंडा सिद्धा होति । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा पंचिंदियतिरिक्खअपञ्जत्ता होति । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्तमिच्छाइट्ठिणो होति । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा जोइसियमिच्छाइद्विणो होति । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा भवणवासियमिच्छाइट्ठिणो होति । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा पढमपुढविमिच्छाइट्ठी होति । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा सोहम्मीसाणमिच्छाइट्ठी होति । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा मणुसअपज्जत्ता होति । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा विदियपुढविमिच्छाइट्ठी होति । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा सणक्कुमार-माहिंदमिच्छाइट्ठी होति । एवं तदियपुढवि-बम्हबम्होत्तर-चउत्थपुढवि-लांतवकाविट्ठ-पंचमपुढवि-सुक्कमहासुक्क-सदारसहस्सार-छट्टपुढविसत्तमपुढविमिच्छाइट्टि त्ति णेयव्वं । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा सोहम्मीसाणअसंजद मात्र विशेषसे अधिक है । देव मिथ्यादृष्टि द्रव्यसे जगप्रतर असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? अवहारकाल गुणकार है । जगप्रतरसे लोक असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है? जगश्रेणी गुणकार है। अब चतुर्गतिसंबन्धी भागाभागको बतलाते हैं। वह इसप्रकार है- सर्व जीवराशिके अनन्त खंड करने पर उनमेसे बहुभागप्रमाण एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीव हैं। शेष एक भागके अनन्त खंड करने पर बहुभागप्रमाण सिद्ध हैं । शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर उनमेंसे बहुभागप्रमाण पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्त हैं। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर उनमेंसे बहुभागप्रमाण पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त मिथ्यादृष्टि हैं। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभागप्रमाण ज्योतिषी मिथ्यादृष्टि देव हैं। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर उनसे बहुभागप्रमाण भवनवासी मिथ्यादृष्टि देव हैं। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर उनमेंसे बहुभागप्रमाण पहली पृथिवीके मिथ्यादृष्टि नारकी हैं। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर उनमेंसे बहुभागप्रमाण सौधर्म और ऐशान कल्पके मिथ्यादृष्टि देव हैं। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर उनमेंसे बहुभागप्रमाण मनुष्य अपर्याप्त है। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर उनमेंसे बहुभागप्रमाण दूसरी पृथिवीके मिथ्यादृष्टि नारकी हैं। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर उनमेंसे बहुभागप्रमाण सानत्कुमार और माहेन्द्र कल्पके मिथ्यादृष्टि देव हैं। इसीप्रकार तीसरी पृथिवी, ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर, चौथी पृथिवी, लांतव और कापिष्ठ, पांचवी पृथिवी, शुक्र और महाशुक्र, शतार और सहस्रार, छठवी पृथिवी और सातवीं पृथिवीके मिथ्यादृष्टियोंका प्रमाण आनेतक ले जाना चाहिये । सातवीं पृथिवीके मिथ्यादृष्टियोंका प्रमाण आनेके अनन्तर शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर उनमेंसे बहुखंडप्रमाण सौधर्म और पेशान कल्पके असंयतसम्यग्दृष्टियोंका प्रमाण है। शेष एक भागके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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