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________________ ४२४ ] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, २, १३५० दन्त्रमसंखेज्जगुणं । इत्थिवेदमिच्छाइदिव्वं संखेजगुणं । पदरमसंखेज्जगुणं । लोगो असंखेज्जगुणो । अवगतवेदा अणतगुणा । णवुंसयवेदमिच्छाइट्ठी अनंतगुणा (वेदगुणपडवण्णगुणगारो ण' णव्यदित्ति के वि आइरिया भणति । तेसिमभिप्पाएण सव्वपरत्थाणं वुच्चदे । सव्वत्थोवा अप्पमत्त संजदा तिवेदगदा ।) ( पमत्त संजदा संखेज्जगुणा । संजदा ) तिवेदा विसेसाहिया । तिवेदअर्सजद सम्माइट्ठिअवहारकालो असंखेज्जगुणो । एवं दव्वं जाव पलिदोवमं ति । उवरि इत्थवेदमिच्छाइट्ठिअवहारकालो असंखेज्जगुणो । तदुवरि पुत्रं व वतव्वं । एवं वेदमग्गणा समत्ता । कोधकसाइ-माणकसाइ-मायकसाइ-लोभकसाईसु कसायाणुवादेण मिच्छाइट्टि पहुडि जाव संजदासंजदा त्ति ओघं ॥ १३५ ॥ दस्त सुत्तस्स अत्थो वुच्चदे । तं जहा- अनंतत्तणेण पलिदोवमस्स असंखेजदि पुरुषवेदी मिथ्यादृष्टियोंका द्रव्य जगश्रेणीसे असंख्यातगुणा है । स्त्रीवेदी मिथ्यादृष्टियोंका द्रव्य पुरुषवेद मिथ्यादृष्टि द्रव्यसे संख्यातगुणा है । जगप्रतर स्त्रीवेद मिथ्यादृष्टि द्रव्यसे असंख्यात । गुणा है। लोक जगप्रतरसे असंख्यातगुणा है । अपगतवेदी जीव लोक से अनन्तगुणे हैं - नपुंसक वेदी मिथ्यादृष्टि जीव अपगतवेदियोंसे अनन्तगुणे हैं । वेद गुणस्थानप्रतिपन्न जीवोंके अवहार कालका गुणकार ज्ञात नहीं है, ऐसा कितने ही आचार्योंका कथन है । आगे उन्हीं के अभिप्रायानुसार सर्व परस्थान अल्पबहुत्वका कथन करते हैं। तीनों वेदोंसे युक्त अप्रमत्तसंयत जीव सबसे स्तोक हैं। तीनों वेदोंसे युक्त प्रमत्तसंयत जीव उनसे संख्यातगुणे हैं। तीन वेदवाले संयत जीव विशेष अधिक हैं । त्रिवेदी असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल असंख्या है । इसीप्रकार पल्योपमतक ले जाना चाहिये । इससे ऊपर स्त्रीवेदी मिथ्यादृष्टियों का अवहारकाल असंख्यातगुणा है । इससे ऊपर पहलेके समान कथन करना चाहिये । इसप्रकार वेदमार्गणा समाप्त हुई । कषायमार्गणा के अनुवाद से क्रोधकपायी, मानकपायी, सगुणा कषायी जीवोंमें मिध्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर संयतासंयत गुणस्थान में जीव सामान्य प्ररूपणाके समान हैं ॥ १३५ ॥ इस सूत्र का अर्थ कहते हैं । वह इसप्रकार है- अनन्तत्वकी अपेक्षा मिथ्यादृष्टि जीव और पल्योपमके असंख्यातवें भागत्वकी अपेक्षा गुणस्थानप्रतिपन्न जीव ओघ मिथ्यादृष्टि और Jain Education International मायाकषायी और लोभगुणस्थानतक प्रत्येक १ प्रतिषु ' - गुणगारेण ' इति पाठः । २ कषायानुवादन क्रोधमानमायासु मिथ्यादृष्टयादयः संयतासंयतान्ताः सामान्योक्तसंख्याः । लोभकषायाणमुक्त एव क्रमः । स. सि. १, ८. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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