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________________ १८] छखंडागमे जीवट्ठाणं [१, २, २. ज्ञानं प्रमाणमित्याहुरुपायो न्यास उच्यते । नयो ज्ञातुरभिप्रायो युक्तितोऽर्थपरिग्रहः ॥ १५ ॥ जं तं गणणाणंतं तं पि तिविहं, परित्ताणतं जुत्ताणतं अगंताणतमिदि । अणंता इदि सामण्णेण वुत्ते एदम्हि चेवाणंते मिच्छाइटि-जीवा होंति इदरेसु अणंतेसु ण होति त्ति ण जाणिज्जदे, अणंता इदि बहुवयणणिदेसादो । जत्थ तिण्णि वि अणंताणि अस्थि तस्स चेव अगंताणतस्स गहणं होदि इदि चे ण, मिच्छाइट्ठीणं बहुत्तमवेक्खिय बहुवयणुप्पत्तीदो । अहवा तिणि वि अणंताणि सभेदे अस्सिऊण अगंतवियप्पाणि । तत्थ एदस्स बहुत्तविवक्खाए बहुवयणं अण्णभेदस्सणेदि ण जाणिज्जदे ? एत्थ परिहारो वुच्चदे- 'अणंताणताहि ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहि ण अवहिरंति कालेण' त्ति ज्ञापकादवसीयते यथा अनन्तानन्ता मिथ्यादृष्टय इति, व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिरिति प्रतीत होता है॥१४॥ विद्वान् पुरुष सम्यग्ज्ञानको प्रमाण कहते हैं, नामादिकके द्वारा वस्तुमें भेद करनेके उपायको न्यास या निक्षेप कहते हैं और ज्ञाताके अभिप्रायको नय कहते हैं । इसप्रकार युक्तिसे अर्थात् प्रमाण, नय और निक्षेपके द्वारा पदार्थका ग्रहण अथवा निर्णय करना चाहिये ॥ १५ ॥ गणनानन्त तीन प्रकारका है, परीतानन्त, युक्तानन्त और अनन्तानन्त । शंका-सूत्रमें 'अणंता' इसप्रकार मिथ्यादृष्टियोंका परिमाण सामान्यरूपसे कहा गया है, पर इतने कथन करनेमात्रसे अनन्तके तीन भेदोंमेंसे इसी अनन्तमें मिथ्यादृष्टि जीव अर्थात् मिथ्यादृष्टि जीवोंका प्रमाण पाया जाता है दूसरे अनन्तोंमें नहीं, यह बात नहीं जानी जाती है, क्योंकि, सूत्रमें अनन्तके किसी भी भेदका उल्लेख न करके केवल उसका बहुवचनरूपसे निर्देश किया है। जहां पर तीनों अनन्त पाये जाते हैं वहां उसी अनन्तानन्तका ग्रहण होता है, सो भी नहीं है, क्योंकि, मिथ्याहाट जीवोंके बहुत्वकी अपेक्षा करके अनन्त शब्दका बहुवचन प्रयोग बन सकता है। अथवा तीनों अनन्त अपने अपने भेदोंका आश्रय करके अनन्त विकल्परूप हैं। उनके इसी भेदकी विवक्षासे बहुवचन दिया है अन्य भेदकी अपेक्षासे नहीं, यह भी नहीं जाना जाता है ? समाधान- आगे पूर्वोक्त शंकाका परिहार करते हैं-'मिथ्यादृष्टि जीव कालकी अपेक्षा अनन्तानन्त अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियोंके द्वारा अपहृत नहीं होते हैं' इस शापक सूत्रसे जाना जाता है कि मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तानन्त होते हैं। अथवा, व्याख्यानसे ___ प्रतिषु ' प्रमाण नयं युक्तवत् । ज्ञानं प्रमाणं परिग्रहः । इति एतेनैव पाठेनोक्तकारिकाद्वयस्य सूचना प्राप्यते । दे. (सं. प. गा. १०-११) २ प्रतिषु · उप्पण्णभेदस्स ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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