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________________ १, २,२ ] दव्वरमाणाणुगमे मिच्छाइडिपमाणपरूवणं [१९ न्यायाद्वा । जंतं अणंताणंतं तं पि तिविहं, जहण्णमुक्कस्सं मज्झिममिदि। तत्थ इमं होदि त्ति ण जाणिज्जदि जहण्णमणंताणंतं ण भवदि उक्कस्समणंताणंतं च भवदि ? 'जम्हि जम्हि अणंताणतयं मग्गिज्जदि तम्हि तम्हि अजहण्णमणुक्कस्स-अणंताणंतस्सेव गहणं' इदि परियम्मवयणादो जाणिज्जदि अजहण्णमणुक्कस्स-अणंताणंतस्सेव गहणं होदि त्ति । तं पि अणंताणंतवियप्पमत्थि त्ति इमं होदि त्ति ण जाणिज्जदि ? जहण्णअणताणंतादो अणंताणि वग्गणट्ठाणाणि उवरि अब्भुस्सरिऊण उक्कस्स-अणंताणंतादो अणंताणि वग्गणटाणाणि हेट्टा ओसरिऊण अंतरे जिणदिट्ठभावो रासी घेत्तव्यो । अहवा तिण्णिवारवग्गिदसंवग्गिदरासीदो अणंतगुणो छद्दव्वपक्खित्तरासीदो अणंतगुणहीणो मिच्छाइहिरासी होदि । को तिण्णिवारवग्गिदसंवग्गिदरासी ? उच्चदे- जहण्णमणंताणंतं विरलेऊण एकेकस्स रूवस्स विशेषकी प्रतिपत्ति होती है ' ऐसा पाय है जिससे भी जाना जाता है कि मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तानन्त होते हैं। ऊपर जो अनन्तानन्त कद्द आये हैं वह भी तीन प्रकारका है, जघन्य अनन्तानन्त, उत्कृष्ट अनन्तानन्त और मध्यम अनन्तानन्त । शंका-उन तीनों अनन्तानन्तोंमेंसे यहां पर जघन्य अनन्तानन्त नहीं होता है और उत्कृष्ट अनन्तानन्त होता है, ऐसा कुछ भी नहीं जाना जाता है ? समाधान--'जहां जहां अनन्तानन्त देखा जाता है वहां वहां अजघन्यानुत्कृष्ट अर्थात् मध्यम अनन्तानन्तका ही ग्रहण होता है' इस परिकर्मके वचनसे जाना जाता है कि प्रकृतमें अजघन्यानुत्कृष्ट अर्थात् मध्यम अनन्तानन्तका ही ग्रहण है। शंका-वह मध्यम अनन्तानन्त भी अनन्तानन्त विकल्परूप है, इसलिये उनमेंसे यहां कौनसा विकल्प लिया है, इस बातका केवल मध्यम अनन्तानन्तके कथन करनेसे ज्ञान नहीं होता है ? समाधान--जघन्य अनन्तानन्तसे अनन्त वर्गस्थान ऊपर जाकर और उत्कृष्ट अनन्तानन्तसे अनन्त वर्गस्थान नीचे आकर मध्यमें जिनेन्द्रदेवके द्वारा यथादृष्ट राशि यहां पर अनन्तानन्त पदसे ग्रहण करनी चाहिये । अथवा, जघन्य अनन्तानन्तके तीनवार वर्गित. संवर्मित करने पर जो राशि उत्पन्न होती है उससे अनन्तगुणी और छह द्रव्योंके प्रक्षिप्त करने पर जो राशि उत्पन्न होती है उससे अनन्तगुणी हीन मध्यम अनन्तानन्तप्रमाण मिथ्यादृष्टि जीवोंकी राशि है। शंका-तीन चार वर्गितसंवर्गित राशि कौनसी है ? १ति.प. पत्र ५३. यत्रानन्तानन्तं मार्गणं तत्राजघन्योत्कृष्टानन्तानन्तं ग्रामम् । त. रा. वा. ३. ३८, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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