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________________ २८२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, २, ७२. एत्थ असंजदसम्माइट्ठिदव्वपरूवणं सेसगुणट्ठाणाणं तत्थाभावं सूचेदि । ण च संतं ण परूवेति जिणा, तेसिमजिणत्तप्पसंगादो । एत्थ आइरिओवएसेण सव्वदेवगुणपडिवण्णाणं विसेसपरूवणं भणिस्सामो । तं जहा- देवअसंजदसम्माइटिअवहारकालमावलियाए असंखेजदिभाएण खंडिय तत्थेगखंडं तम्हि चेव पक्खित्ते सोहम्मीसाणअसंजदसम्माइट्ठिअवहारकालो होदि । तम्हि आवलियाए असंखेजदिभाएण गुणिदे सम्मामिच्छाइडिअवहारकालो होदि । कुदो ? उवक्कमणकालभेदादो। तम्हि संखेजस्वेहि गुणिदे सासणसम्माइटिअवहारकालो होदि। कुदो ? उवकमणकालभेदादो उभयगुणं पडिवज्जमाणरासिविसेसदो वा। तम्हि आवलियाए असंखेजदिभाएण गुणिदे सणक्कुमार-माहिंदअसंजदसम्माइट्टिअवहारकालो होदि । कुदो ? सुहकम्माहियजीवबहुत्ताभावादो । एवं णेयव्वं जाव सदार-सहस्सारो त्ति । तस्स सासणसम्माइडिअवहारकालमावलियाए असंखेजदिभाएण गुणिदे जोइसियदेव असंजदसम्माइटिअवहारकालो होदि । ग्दृष्टि देव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? पल्योपमके असंख्यातवें भाग हैं। इन उपर्युक्त जीवराशियोंके द्वारा अन्तर्मुहूर्तसे पल्योपम अपहृत होता है ॥ ७२ ॥ इन अनुदिश आदि विमानोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि जीवराशिकी प्ररूपणा वहां पर शेष गुणस्थानोंके अभावको सूचित करती है। यदि कोई कहे कि यहां पर शेष गुणस्थानोंके प्रमाणकी प्ररूपणा नहीं की होगी सो बात नहीं हैं, क्योंकि, जिनदेव विद्यमान अर्थका प्ररूपण नहीं करते हैं ऐसा नहीं हो सकता, क्योंकि, ऐसा मान लेने पर उन्हें अजिनपनेका प्रसंग आ जाता है । अब यहां आचार्योंके उपदेशानुसार संपूर्ण गुणस्थानप्रतिपन्न देवोंकी विशेष प्ररूपणाको कहते हैं। वह इसप्रकार है-देव असंयतसम्यग्दृष्टि अवहारकालको आवलीके असंख्यातवें भागसे खंडित करके उनमेंसे एक खंडको उसी देव असंयतसम्यग्दृष्टि अवहारकालमें मिला देने पर सौधर्म और ऐशानसंबन्धी असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है। इसे आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर सौधर्म और ऐशानसंबन्धी सम्यमिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल होता है, क्योंकि, सम्यग्दृष्टियोंके उपक्रमण कालसे सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंके उपक्रमण कालमें भेद है। सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंके अवहारकालको संख्यातसे गुणित करने पर सौधर्म और ऐशानसंबन्धी सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है, क्योंकि, सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंके उपक्रमण कालसे सासादनसम्यग्दृष्टियोंके उपक्रमण कालमें भेद है। अथवा, उक्त दोनों गुणस्थानोंको प्राप्त होनेवाली राशियोंमें विशेषता है। सौधर्म और ऐशान सासादनसम्यग्दृष्टियोंके अवहारकालको आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर सानत्कुमार और माहेंद्र असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है, क्योंकि, ऊपर शुभ कर्मोकी बहुलता होनेसे बहुत जीव नहीं पाये जाते हैं । इसीप्रकार शतार सहस्रार कल्पतक ले जाना चाहिये। उन शतार-सहस्रार कल्पके सासादनसम्यग्दृष्टिसंबन्धी अवहारकालको आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर ज्योतिषी असंयतसम्यग्दृष्टि देवोंका अवहारकाल होता है, क्योंकि, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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