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छक्खंड | गमे जीवाणं
[ १, २, ९८.
होदि । पुणो सुमवण फइअपज्जत्तरासिणा' सुहुमवण फइकाइयरासिम्हि भागे हिदे तत्थ जं लद्धं तं दुप्पडिरासि काऊण तत्थेगेण सुहुमवण फइकाइयधुवरासिं गुणिदे सुहुमवणफदिकाइयअपज्जत्तधुवरासी होदि । पुणो पुधट्ठवियपुव्विलसं खेज्जरूवेहि रूवृणेहि सुहुमवफादिकाइयधुवरासिंखंडिय तत्थेयखंड तम्हि चेव पक्खित्ते सुहुमवणप्फइकाइयपञ्जत्तध्रुवरासी होदि । बादरवणप्फइकाइयपज्जत्तएहि बादरवण फइकाइय सिम्हि भागे हिदे लद्धं असंखेज्जलोगं दुप्पडिरासिं काऊण तत्थेगेण बादरवणप्फइकाइयधुवरासिं गुणिदे बादरवण फइकाइयपज्जत्तधुवरासी होदि । पुध वियरासिणा रूवूणेण बादरवणप्फइकाइयध्रुवरासं खंडिय तत्थेगखंडं तम्हि चेव पक्खित्ते बादरवणप्फइकाइय अपजत्तधुवरासी होदि । एवं चेव णिगोदाणं पि धुवरासी उप्पादेदव्वो । वरि पत्तेयसरीरेहि सह सत्त पक्खेवरासीओ भवति । सेसविहीणं वणष्फइकाइयभंगो ।
तसकाइय-तसकाइयपज्जत्तएसु मिच्छाइट्ठी दव्वपमाणेण केवडिया, असंखेना ॥ ९८ ॥
सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्त जीवराशिसे सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीवराशिके भाजित करने पर वहां जो लब्ध आवे उसकी दो प्रतिराशियां करके उनमें से एक प्रतिराशिके द्वारा सूक्ष्म वनस्पतिकायिक ध्रुवराशिके गुणित करने पर सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्त जीवोंकी ध्रुवराशि होती है । पुनः पृथक् स्थापित पूर्वोक्त प्रतिराशिके संख्यात प्रमाणमेंसे एक कम करके जो शेष रहे उससे सूक्ष्म वनस्पतिकायिक ध्रुवराशिके खंडित करके वहां जो एक खंड लब्ध आवे उसे उसी सूक्ष्म वनस्पतिकायिक ध्रुवराशिमें मिला देने पर सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्त जीवोंकी ध्रुवराशि होती है । बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त राशिके प्रमाणसे बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त राशिके भाजित करने पर जो असंख्यात लोक लब्ध आवें उनकी दो प्रतिराशियां करके उनमेंसे एक प्रतिराशिसे बादर वनस्पतिकायिक ध्रुवराशिके गुणित करने पर बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त जीवराशिकी ध्रुवराशि होती है । पुनः पृथक् स्थापित प्रतिराशिमेंसे एक कम करके जो शेष रहे उससे बादर वनस्पतिकायिक ध्रुवराशिको खंडित करके वहां जो एक खंड लब्ध आवे उसे उसी बादर वनस्पतिकायिक ध्रुवराशिमें मिला देने पर बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्त जीवोंकी ध्रुवराशि होती है । इसीप्रकार निगोद जीवोंकी भी ध्रुवराशि उत्पन्न कर लेना चाहिये । इतना विशेष है कि प्रत्येकशरीर वनस्पतिकायिकों के साथ सात प्रक्षेपराशियां होती हैं। शेष विधि वनस्पतिकायिकके कथन के समान है
कायिक और कायिक पर्याप्तों में मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? असंख्यात हैं ॥ ९८ ॥
१ प्रतिषु ' अपज्जतरासि' इति पाठः ।
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कायिकसंख्या पश्चेन्द्रियवत् । स. सि. १, ८.
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