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________________ १, २, १४.] दव्वपमाणाणुगमे ओघ-भागभागपख्वणं [ ११३ दव्यमोवहिय रूवाहियं करिय विरलेऊण एकारसगुणट्ठाणरासिं समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि दसगुणट्ठाणरासिपमाणं पावेदि । तत्थ बहुभागा सासणसम्माइद्विरासिपमाणं होदि । पुणो णवगुणट्ठाणरासिणा संजदासंजदरासिमोवट्टिय रूवाहियं करिय विरलेऊण दसगुणहाणरासिं समखंडं करिय दिण्णे पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तविरलणरूवं पडि णवगुणट्ठाणरासिपमाणं पावदि । तत्थ बहुभागा संजदासंजदरासिपमाणं होदि । सेसं संखेज्जभागे कदे तत्थ बहुभागा पमत्तसंजदरासिपमाणं होदि । सेसं संखेजखंडे कए तत्थ बहुभागा अप्पमत्तसंजदरासिपमाणं होदि । सेसं संखेज्जभागे कदे तत्थ बहुभागा सजोगिरासिपमाणं होदि । सेसं संखेज्जभागे कदे तत्थ बहुभागा पंच-खवगपमाणं होदि। सेसेगभागो चउण्हमुवसामगाणं होदि। एवं भागभागो समत्तो। करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति ग्यारह (सासादन और संयतासंयतादि १०) गुणस्थानसंबन्धी राशिको समान खण्ड करके देयरूपसे दे देने पर विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति दश (संयतासंयतादि १०) गुणस्थानसंबन्धी जीवराशिका प्रमाण प्राप्त होता है। यहां पर बहुभाग सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिका प्रमाण है। उदाहरण–२०४८ : ५१४ = ३२५३+ १ = ४३५७ २५३ २५३. ५१४ ५१४ ५१४ ५१४ ५०६ यहां पर बहुभाग २०४८ प्रमाण - २५७ सासादनसम्यग्दृष्टि राशि है। अनन्तर नौ (प्रमत्तसंयतादि ९) गुणस्थानसंबन्धी राशिसे संयतासंयत राशिको भाजित करके जो लब्ध आवे उसे रूपाधिक करके और उसका विरलन करके विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति दश (संयतासंयतादि १०) गुणस्थानसंबन्धी राशिको समान खण्ड करके देयरूपसे देने पर पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र विरलनके प्रति नौ (संयतादि ९) गुणस्थानसंबन्धी राशिका प्रमाण प्राप्त होता है। यहां पर बहुभाग संयतासंयत जीवराशिका प्रमाण है। उदाहरण-५१२२ = २५६ +१ = २५७; २ २ २ २ २ यहां पर बहुभाग ५१२ संयता१ १ १ १ १ २५७ वार संयत राशि है। शेष राशिके संख्यात भाग करने पर उनमेंसे बहुभाग प्रमत्तसंयत जीवराशिका प्रमाण है। शेष राशिके संख्यात खण्ड करने पर उनमेंसे बहुभाग अप्रमत्तसंयत जीवराशिका प्रमाण है। शेषके संख्यात भाग करने पर उनमेंसे बहुभाग सयोगिकेवली जीवराशिका प्रमाण है। शेषके संख्यात भाग करने पर उनमेंसे बहुभाग पांचों क्षपकोंका प्रमाण है । शेष एक भाग चारों उपशमकोंका प्रमाण है । इसप्रकार भागभाग समाप्त हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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