________________
२०६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, २, २३. सासणसम्माइहिप्पहुडि जाव असंजदसम्माइटित्ति ओघ ॥२३॥
पलिदोवमस्स असंखेजदिभागत्तं पडि विसेसाभावादो विदियादिपुढविगुणपडिवण्णाणं परूवणा ओघमिदि वुत्ता दव्वट्ठियसिस्साणुग्गहढें। पज्जवट्ठियणए पुण अवलंबिज्जमाणे विसेसो अस्थि चेव, अण्णहा एगपुढविगुणपडिवण्णाणं सत्तपमाणाणवत्था च दुप्पडिसेज्झा पसज्जदे। तं (गुणपडिवण्णजीवविसेसं पुव्वाइरियाणमविरुद्धोवएसेण आइरियपरंपरागदेण वत्तइस्सामो)। तें जहा- पुवमुप्पाइयसामण्णणेरड्यअसंजदसम्माइट्टिअवहारकालमावलियाए असंखेजदिभागेण भागे हिदे लद्धं तम्हि चेव पक्खित्ते पढम
सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानतक प्रत्येक गुणस्थानमें द्वितीयादि छह पृथिवियोंमेंसे प्रत्येक पृथिवीके नारकी जीव सामान्य प्ररूपणाके समान पल्योपमके असंख्यातवें भाग हैं ॥ २३ ॥
विशेषार्थ-इस सूत्रमें 'दद्वपमाणेण केवडिया' अर्थात् द्रव्यप्रमाणसे कितने हैं ? ऐसा पृच्छावाक्य नहीं पाया जाता जिससे सूत्रसंख्या २ की टीकामें जो उक्त पृच्छावाक्यका फल स्वकर्तृत्वनिराकरणपूर्वक आप्तकर्तृत्वप्रतिपादन बतलाया है उसकी यहां आकांक्षा रह जाती है। तथापि सूत्र सदैव संक्षेपार्थ हुआ करते हैं और उनमें यह सार्वत्रिक नियम है कि 'सूत्रेष्वदृष्टं पदं सूत्रान्तरादनुवर्तनीयं सर्वत्र' अर्थात् जो अपेक्षित पद प्रस्तुत सूत्रमें न पाया जाय उसकी अन्य सूत्रोंसे अनुवृत्ति सदैव कर लेना चाहिये । इसप्रकार प्रस्तुत सूत्रमें भी उक्त पृच्छापदकी अनुवृत्ति हो जाती है। आगे भी जहां कहीं उक्त पद न पाया जाय वहां इसी नियमका अधिकार समझ लेना चाहिये ।
द्वितीयादि गुणस्थानोंकी सामान्य संख्या और द्वितीयादि पृथिवियों में गुणस्थानप्रतिपन्न जीवोंकी संख्या, ये राशियां पल्योपमके असंख्यातवें भागत्वके प्रति समान हैं, इसलिये द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा रखनेवाले शिष्योंके अनुग्रहके लिये द्वितीयादि पृथिवियोंके गुणस्थानप्रतिपन्न जीवोंकी संख्या सामान्य प्ररूपणाके समान है, ऐसा कहा । पर्यायार्थिक नयका अवलंबन करने पर तो गुणस्थानप्रतिपन्न सामान्य नारकी जीवोंकी संख्या और द्वितीयादि पृथिवियोंके गुणस्थानप्रतिपन्न जीवोंकी संख्या, इन दोनों में विशेष है ही। यदि ऐसा नहीं माना जाय तो एक पृथिवीके गुणस्थान प्रतिपन्न जीवोंकी संख्या और सातों पृथिवियोंके गुणस्थान प्रतिपन्न जीवोंकी संख्या एकसी हो जायगी जिसके निषेधके दुष्कर होनेका प्रसंग आ जाता है। अब गुणस्थान प्रतिपन्न जीवोंके उस विशेषको आचार्य-परंपरासे आये हुए पूर्वोचार्योंके अविरुद्ध उपदेशके अनुसार बतलाते हैं। वह इसप्रकार है
____सामान्य नारक असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल जो पहले उत्पन्न करके बतला आये हैं, उसे आवलीके असंख्यातवें भागसे भाजित करने पर जो लब्ध आवे उसे उसी नारक सामान्य असंयतसम्यग्दृष्टियोंके अवहारकालमें ही मिला देने पर प्रथम पृथिवीके असंयत.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org