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________________ ३४८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, २, ८८. जोणीभूदसरीरा तब्धिवरीदसरीरा चेदि । तत्थ जे बादरणिगोदाणं जोणीभूदसरीरपत्तेगसरीरजीवा ते वादरणिगोदपदिद्विदा भणंति। के ते ? मूलयद्ध-भल्य-सूरण-गलोई-लोगेसरपभादओ । उत्तं च (बीजे जोणीभूदे जीवो वक्कमइ सो व अण्णो वा । जे वि य मूलादीया ते पत्तेया पढमदाए ॥ ७६ ॥ ___ सुत्ते बादरवणप्फदिपसेयसरीराणमेव गहणं कदं, (ण तब्भेदाणं )? ण', चादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीरजीवेसु चेव तेसिमंतब्भावादो । एदेसिं बादरपज्जत्ताणं परूवमाणाण परूवणट्टमुत्तरसुत्तमाह (बादरपुढविकाइय-बादरआउकाइय-बादरवणप्फइकाइयपत्तेयसरीरपज्जत्ता दव्वपमाणेण केवडिया, असंखेज्जा ॥ ८८ ॥) (एदस्स सुत्तस्स अत्थो सुगमो त्ति ण वुचदे ।) असंखेजा इदि सामण्णवयणेण तो बादरनिगोद जीवोंके योनिभूत प्रत्येकशरीर और दूसरे उनसे विपरीत शरीरवाले अर्थात् बादरनिगोद जीवोंके अयोनिभूत प्रत्येकशरीर जीव । उनमेंसे जो बादरनिगोद जीवोंके योनिभूतशरि प्रत्येकशरीर जीव हैं उन्हें धादरनिगोद प्रतिष्ठित कहते हैं। शंका-घे बादरनिगोद जीवोंके योनिभूत प्रत्येकशरीर जीव कौन हैं ? समाधान -मूली, अदरक (१) भल्लक (भद्रक), सूरण, गलोइ (गुडुची या गुरवेल) लोकेश्वरप्रभा ? आदि बादरनिगोद प्रतिष्ठित हैं । कहा भी है योनिभूत बीज में वही जीव उत्पन्न होता है, अथवा दूसरा कोई जीव उत्पन्न होता है। घह और जितने भी मूली आदिक सप्रतिष्ठितप्रत्येक हैं वे प्रथम अवस्थामें प्रत्येक ही है ॥६॥ शंका-सूत्रमें बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर जीवोंका ही ग्रहण किया है, उनके भेदोंका क्यों नहीं किया ? समाधान-नहीं, क्योंकि, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर जीवों में ही उनका अन्तर्भाव हो जाता है। अब इन बादर पर्याप्तोंकी प्ररूपणाके प्ररूपण करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं बादर पृथिवीकायिक, बादर अप्कायिक और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? असंख्यात हैं ।। ८८ ॥ इस सूत्रका अर्थ सुगम है, इसलिये नहीं कहते हैं। सूत्रमें 'असंख्यात हैं' ऐसा १ आ. प्रतौ · सलोई । इति पाठः । २ गो. जी. १८७. बीए जोणिभूए जीवो वक्कमइ सो व अन्नो वा । जोऽवि य मूले जीवो सोऽवि य पत्ते पढमयाए । प्रज्ञापना १,४५, गा. ५१, पृ. ११९. ३ प्रतिषु 'गहणं कधं ण ' इति पाठः। ४ प्रतिषु चादरआउकाइय' इति पाठः नास्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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