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________________ १, २, ३९. ] माणागमे तिरिक्खगदिअप्पा बहुगपरूवणं [ २४१ अहवा सेढीए असंखेज्जदिभागो असंखेज्जाणि सेढिपढमवग्गमूलाणि । को पडिभागो ? सगअवहारकालवग्गो | अहवा असंखेज्जाणि घणंगुलाणि । केत्तियमेत्ताणि १ सूचिअंगुलस्स असंखेजदिभागमेत्ताणि । सेढी असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? सगअवहारकालो । दव्वमसंखेज्जगुणं । को गुणगारो ? सगविक्खंभसूई । पदरमसंखेज्जगुणं । को गुणगारो ? सगअवहारकालो | लोगो असंखेज्जगुणो । को गुणगारो १ सेढी । एवं चैव पंचिदियतिरिक्खपज्जतमिच्छाइट्ठीणं पि । णवरि जम्हि सूचिअंगुलस्स असंखेजदिभागमेत्ताणि घणांगुलाणि त्ति वृत्तं तम्हि सूचिअंगुलस्स संखेज्जदिभागमेत्ताणि ति वत्तव्यं । एवं चैव पंचिदियतिरिक्खजोणिणीमिच्छाइट्ठीणं हि । गवरि जम्हि सूचिअंगुलस्स संखेज्जदिभागमेत्ताणि त्ति वृत्तं तम्हि संखेज्जसूचिअंगुलमेत्ताणि त्ति वत्तव्वं । पंचिदियेतिरिक्खा पज्जत्तसत्थाणप्पा बहुगं पंचिदियतिरिक्खमिच्छाइ द्विसत्थाणमंगो । पंचिदियतिरिक्खपज्जत्त-पंचिदियतिरिक्खजोगिणीगुणपडिवण्णाणं सत्थाणं तिरिक्खगुण पडवण्णसत्थाणभंगो । परत्थाणे पयदं । असंजदसम्माइद्विअवहारकालादो जाव पलिदोषमेति जगश्रेणीका असंख्यातवां भाग गुणकार है जो जगश्रेणीके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण है । प्रतिभाग क्या है ? अपने अवहारकालका वर्ग प्रतिभाग है । अथवा, असंख्यात घनांगुल गुणकार है । वे कितने हैं ? सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागमात्र हैं। विष्कंभसूचीसे जगश्रेणी असंख्यातगुणी है | गुणकार क्या है ? अपना अवहारकाल गुणकार है । जगश्रेणीसे पंचेन्द्रिय तिर्यच मिथ्यादृष्टियोंका द्रव्य असंख्यातगुणा है। गुणकार क्या है ? अपनी विष्कंभसूची गुणकार है | पंचेन्द्रिय तिर्येच मिथ्यादृष्टियोंके द्रव्यसे जगप्रतर असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? अपना अवहारकाल गुणकार है । जगप्रतरसे लोक असंख्यातगुणा है । गुणकार क्या है ? जगणी गुणकार है । इसीप्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यच पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टियों का भी स्वस्थान अल्पबहुत्व कहना चाहिये । पर इतना विशेष है कि जहां पर सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागमात्र घनांगुल होते हैं ऐसा कहा है वहां पर सूच्यंगुलके संख्यातवें भागमात्र घनांगुल होते हैं ऐसा कहना चाहिये । इसीप्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती मिथ्यादृष्टियोंका भी स्वस्थान अल्पबहुत्व होता है। इतना विशेष है कि जहां पर सूच्यंगुलके संख्यातवें भागमात्र घनांगुल होते हैं ऐसा कहा है वहां पर संख्यात सूच्यंगुलमात्र घनांगुल होते हैं ऐसा कहना चाहिये। पंचेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्तोंका स्वस्थान अल्पबहुत्व पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टियों के स्वस्थान अल्पबहुत्व के समान है । पंचेन्द्रिय तिर्यच पर्याप्त और पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिमती गुणस्थानप्रतिपन्न जीवोंका स्वस्थान अल्पबहुत्व तिर्यच गुणस्थानप्रतिपन्न जीवोंके स्वस्थान अल्पबहुत्वके समान है । अब परस्थानमें अल्पबहुत्वका कथन प्रकृत है— असंयतसम्यग्दृष्टि अवहारकालले १ प्रतिषु ' सूचि-' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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