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१, २, ६०.] दव्वपमाणाणुगमे देवगदिपमाणपरूवणं
[२७१ असंखेज्जाओ सेढीओ इदि वुत्तं जगपदरमाई काऊण उवरिम-असंखेज्जासंखेज्जवियप्पपडिसेहटुं । पदरस्स असंखेजदिभागो वि अणेयवियप्पो इदि कट्ट तं णिण्णयह सेढीणं विक्खंभमूई उत्ता। तिस्से पमाणं वुच्चदे। अंगुलं अंगुलबग्गमूलगुणिदं भवणवासिय मिच्छाइद्विविक्खंभसई हवदि त्ति संबंधेयव्वं । घणंगुलपढमवग्गमूलमिदि जं वुत्तं होदि । अंगुलवग्गमूलगुणिदेणेत्ति तइयाणिदेसो कधं घडदे ? पढमाविहत्तीए अढे एसो तइयाणिदेसो दट्ठवो। अण्णत्थ ण एवं दिस्सदीदि चे ण, 'वेछप्पण्णंगुलसदवग्गपडिभागेण' इच्चादिसु सुत्तेसुवलंभा । अहवा णिमित्ते एसा तइयाविहत्ती दडव्या । अंगुलवग्गमूलगुणणकारणेण जमुप्पण्णंगुलं सा विक्खंभसूई होदि त्ति जं वुत्तं होदि । एदाए विक्खंभसूईए जगसेढिं गुणिदे भवणवासियमिच्छाइद्विपमाणं होदि ।
. सासणसम्माइट्ठि-सम्मामिच्छाइटि--असंजदसम्माइहिपरूवणा ओघं ॥६०॥
असंख्यातासंख्यात अनेक प्रकारका है, इसलिये जगप्रतरको आदि करके उपरिम असंख्यातासंख्यातके विकल्पोंका प्रतिषेध करने के लिये भवनवासी मिथ्यादष्टि देवोंका प्रमाण असंख्यात जगश्रेणिप्रमाण कहा है। वह जगप्रतरका असंख्यातवां भाग भी अनेक प्रकारका है ऐसा समझकर उसका निर्णय करनेके लिये उन असंख्यात जगश्रेणियोंकी विष्कंभसूची कही। आगे उस विष्कंभसूचीका प्रमाण कहते हैं- सूच्यंगुलको सूच्यंगुलके प्रथम वर्गमूलसे गुणित करके जो लब्ध आवे इतनी भवनवासी मिथ्यादृष्टियोंकी विष्कंभसूची है, ऐसा इस कथनका संबन्ध करना चाहिये। जो विष्कभंसूची घनांगुलके प्रथम वर्गमूलप्रमाण है, यह इस कथनका अभिप्राय है।
शंका-'अंगुलवग्गमूलगुणिदेण' इसप्रकार यहां तृतीया विभक्तिका निर्देश कैसे बन सकता है?
समाधान-प्रथमा विभक्तिके अर्थमें यह तृतीया विभक्तिका निर्देश जानना चाहिये । शंका- दूसरी जगह ऐसा नहीं देखा जाता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, 'वेछप्पण्णंगुलसदवग्गपडिभागेण ' इत्यादिक सूत्रोंमें प्रथमा विभक्तिके अर्थमें तृतीया विभक्ति देखी जाती है । अथवा निमित्तरूप अर्थमें यह तृतीया विभक्ति जानना चाहिये। जिससे यह अभिप्राय हुआ कि अंगुलके वर्गमूलके गुणनकारणसे जो अंगुल उत्पन्न हो तत्प्रमाण भवनवासी मिथ्यादृष्टियोंकी विष्कंभसूची है। इस विष्कंभसूचीसे जगश्रेणीके गुणित करने पर भवनवासी मिथ्यादृष्टियोंका प्रमाण होता है।
सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि भवनवासी जीवोंकी प्ररूपणा सामान्य प्ररूपणाके समान है ॥६॥
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