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________________ २५०] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, २, ४२. मगुसससिपरूवणादो जुत्तं खुद्दाबंधम्हि भागलद्धादो एयरूवस्स अवणयणं, एत्थ पुण जीवाणम्हि मिच्छत्तविससिदजीवपमाणपरूवणे कीरमाणे रूवाहियतेरसगुणट्ठाणमेत्तेण अवणयणरासिणा होदव्यामिदि । तं कधं जाणिजदे ? ' मणुसमिच्छाइट्टीहि रूवा पक्खिचएहि सेढी अवहिरिजदि 'त्ति सुत्तम्हि रूवा इदि बहुवयणणिदेसादो। अहवा रूवपक्खिसरहिं ति बहुवीहिसमासेण लक्खणविसेसेण कयपुव्वणिवाएण अवणिदबहुवयणादो बहुतोवलद्धी होज्ज । रूवं पक्खित्तएहि त्ति एगवयणमपि कहिं दिस्सदे तो वि ण दोसो, बरगं जीवाणं जादिदुवारेण एयत्तदसणादों। का एत्थ जाई णाम ? चेदणादिसमाणपरिणामो । तदो भागलद्धादो रूवाहियतेरसगुणट्ठाणपमाणे अवणिदे मणुसमिच्छाइटि. और तृतीय वर्गमूलके गुणनफलरूप भागहारका भाग देनेसे जो राशि लब्ध आयगी वह कृतयुग्मरूप होनेसे उसमें से एक कम कर देना चाहिये। खुद्दाबंधमें मिथ्यादष्ठि इत्यादि विशेषणसे रहित सामान्य मनुष्यराशिका प्ररूपण होनेसे वहां पर सूच्यंगुलके प्रथम और तृतीय वर्गमूलोंके परस्पर गुणफलरूप भागहारका जगश्रेणी में भाग देनेसे जो लब्ध आवे उसमेंसे एक संख्याका कम करना युक्त है। परंतु यहां जीवस्थानमें तो मिथ्यात्व विशेषणसे युक्त जीवोंके प्रमाणका प्ररूपण किया गया है, अतएव मिथ्यादृष्टि मनुष्यराशि लानेके लिये उत्त. भागहारसे जगश्रेणीके भाजित करने पर जोलब्ध आवे उसमेंसे एक अधिक तेरह गुणस्थानवर्ती मनुष्यराशि अपनयनराशि होना चाहिये। . शंका-यह कैसे जाना जाता है? समाधान-'रूपाधिक मनुष्य मिथ्यादृष्टि जीवराशिके द्वारा जगश्रेणी अपहृत शेती है। इस सूत्रमें · रूवा' यह बहुवचन निर्देश पाया जाता है, जिससे जाना जाता है कि या पर उक्त भागहारसे जगश्रेणीके भाजित करने पर जो लब्ध आवे उसमेंसे एक अधिक तेहगुणस्थानवी जीवराशि अपनयनराशि है । अथवा, 'रूवपक्खित्तपहिं ' इस पदमें नियमविशेषसे जिसमें पूर्वनिपात हो गया है ऐसा बहुव्रीहि समास होनेके कारण रूप पदके बहु. पचनसे रहित होनेके कारण भी उससे बहुत्वकी उपलब्धि हो जाती है। कहीं पर 'रूवं पतिपहि'इसप्रकार एकवचन भी कहीं देखा जाता है.तोभी कोई दोष नहीं आता है, क्योंकि. बन जीवोंका जातिद्वारा एकत्व देखने में आता है। - शंका-यहां पर जातिसे क्या अर्थ अभिप्रेत है? समाधान- यहां पर चेतना आदि समान परिणाम जातिसे अभिप्रेत है। इसलिये उक्त भागहारका जगश्रेणी में भाग देने पर जो भाग लब्ध आवे उसमेंसे एक अधिक तेरह गुणस्थानवी जीवारशिके प्रमाणके कम कर देने पर मनुष्य मिथ्यादृष्टि १'जायाख्यायामेकस्मिन्बहुवचनमन्यतरस्याम्' १, २, ५८. पाणिनि । एकोऽप्यों वा बहुत्ववद् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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