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________________ २०८] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [१, २, २३. मिच्छाइटी होति । सेसस्स असंखेज्जेसु खंडेसु कदेसु तत्थ बहुभागा विदियपुढविमिच्छाइट्टी होति । एवं तदिय-चउत्थ-पंचम-छह-ससमपुढवीणं अव्यामोहेण भागभागो कायव्यो । पुणो सेसस्स असंखेज्जेमु भागेसु कदेसु तत्थ बहुमागा पढमाए पुढवीए असंजदसम्माइट्टिणो हवंति । सेसस्स असंखेज्जेसु भागेसु कदेमु तत्थ बहुभागा पढमपुढविसम्मामिच्छाइट्ठिणो हवंति । सेसस्स संखेज्जेसु भागेसु कदेसु तत्थ बहुमागा पढमपुढविसासणसम्माइट्ठिणो हवंति । सेसस्स असंखेज्जेमु भागेसु कदेसु तत्थ बहुभागा विदियपुढविअसंजदसम्माइट्टिणो हवंति । सेसस्स असंखेजेसु भागेसु कदेसु तत्थ बहुखंडा तत्थतणसम्मामिच्छाइट्ठिणो हवंति । सेसस्स संखेज्जेसु भागेसु कदेसु तत्थ बहुभागा तत्थतणसासणसम्माइट्ठिणो हवंति । एवं तदियादि जाव सत्तमपुढवि त्ति गुणपडिवण्णाणं भागाभागो कायव्यो । एवं भागाभागो समत्तो। अप्पाबहुगं तिविहं, सत्थाणं परत्थाणं सव्यपरत्थाणं चेदि । तत्थ सत्थाणप्पाबहुगं वुच्चदे । सव्वत्थोवा सामण्णणेरइयमिच्छाइटिविक्खंभसूची। अवहारकालो असंखेजगुणो । को गुणगारो ? अवहारकालस्स असंखेजदिभागो । को पडिभागो ? सगविक्खंभ होते हैं। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर उनमेंसे बहुभागप्रमाण दूसरी पृथिवीके मिथ्यादृष्टि जीव होते हैं। इसीप्रकार तीसरी, चौथी, पांचवी छठी और सातवीं पृथिवीकी जीवराशिका सावधानीसे भागाभाग कर लेना चाहिये । पुनः सातवीं पृथिवीके मिथ्यादृष्टियोंके अनन्तर जो एक भाग शेष रहे उसके असंख्यात भाग करने पर उनमेंसे बहुभागप्रमाण पहली पृथिवीके असंयतसम्यग्दृष्टि जीव होते हैं। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर उनमेंसे बहुभागप्रमाण पहली पृथिवीके सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव होते हैं। शेष एक भागके संख्यात भाग करने पर उनमेंसे बहुभागप्रमाण पहली पृथिवीके सासादनसम्यग्दष्टि जीव होते हैं। शेष एक भागके असंख्यात भाग करने पर उनमेंसे बहुभागप्रमाण दूसरी पृथिवीके असंयतसम्यग्दृष्टि जीव होते हैं। शेष एक भागके असंख्यात भाग करने पर उनसे बहुभागप्रमाण दूसरी प्रथिवीके सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव होते हैं। शेष एक भागके संख्यात भाग करने पर उनसे बहुभागप्रमाण दूसरी पृथिवीके सासादनसम्यग्दृष्टि जीव होते हैं । इसीप्रकार तीसरी पृथिवासे लेकर सातवीं पृथिवीतक गुणस्थानप्रतिपन्न जीवोंका भागाभाग करना चाहिये। इसप्रकार भागाभाग समाप्त हुआ। अल्पबहुत्व तीन प्रकारका है, स्वस्थान अल्पबहुव, परस्थान अल्पबहुत्व और सर्वपरस्थान अल्पबहुत्व । उनमेंसे पहले स्वस्थान अल्पबहुत्वका कथन करते हैं- सामान्य नारक मिथ्यादृष्टियोंकी विष्कंभसूची सबसे स्तोक है । सामान्य नारक मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल सामान्य नारक मिथ्यादृष्टि विकभसूचीसे असंख्यातगुणा है। गुणकार १ प्रतिषु — संखेज्जेसु ' इति पाठः । २ प्रतिषु ' असंखेजेसु ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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