Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * स्व० पूज्य गुरुदेव श्री जोरावरमल जी महाराज की स्मृति में आयोजित 5535 संयोजक एवं प्रधान सम्पादक युवाचार्य श्री मधुकर मुनि जीवाजीवाभिगमसूत्र (मूल-अनुवाद-विवेचन-टिप्पण-परीष्टापट युक्तो Tandulionision Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिमत श्रीसुव्रतमुनि 'सत्यार्थी शास्त्री एम.ए. (हिन्दी-संस्कृत) परमपूज्य, विद्वद्वरेण्य, तत्त्ववेत्ता, प्रबुद्ध मनीषी, आगमबोधनिधि, श्रमणश्रेष्ठ, स्व. युवाचार्य श्री मिश्रीमलजी म. 'मधुकर' जी प्राचीन विद्या के सर्वतन्त्रस्वतन्त्र प्रवक्ता थे। आपके मार्गदर्शन एवं प्रधान सम्पादकत्व में जैन आगम प्रकाशन का जो महान् श्रुत-यज्ञ प्रारम्भ हुआ, उसमें प्रकाशित श्री प्राचारांग, उत्तराध्ययन, व्याख्याप्रज्ञप्ति और उपासकदशांग आदि सूत्र गुरुकृपा से देखने को मिले। नागमों की सामयिक भाषा-शैली, और तुलनात्मक विवेचन एवं विश्लेषण अतीव श्रमसाध्य है। शोधपूर्ण प्रस्तावना, अनिवार्य पादटिप्पण एवं परिशिष्टों से आगमों की उपयोगिता सामान्य और विशेष दोनों ही प्रकार के पाठकों के लिए सुगम हो गई है तथा आधुनिक शोध-विधा के लिए अत्यन्त उपयोगी है। सभी सूत्रों की सुन्दर शुद्ध छपाई, उत्तम कागज और कवरिंग बहुत ही आकर्षक है / अतीव अल्प समय में विशालकाय 30 आगमों का प्रकाशन महत्त्वपूर्ण अवदान है। इसका श्रेय श्रुत-यज्ञ के प्रणेता आगममर्मज्ञ, पूज्यप्रवर युवाचार्य श्री जी म. को है तथापि इस महनीय श्रुत-यज्ञ में जिन पूज्य गुरुजनों, साध्वीवृन्द एवं सद्गृहस्थों ने सहयोग दिया है वे सभी अभिनन्दनीय एवं प्रशंसनीय हैं। आगम प्रकाशन समिति विशेष साधुवाद की पात्र है। For Private & Personal use only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ अहं जिनागम-प्रन्यमाला : ग्रन्थांक-३० [परम श्रद्धय गुरुदेव पूज्य श्री जोरावरमलजी महाराज की पुण्यस्मृति में आयोजित] श्रुतस्थविरप्रणीत-उपाङ्गसूत्र जीवाजीवाभिगमसूत्र [प्रथम खण्ड [मूलपाठ, प्रस्तावना, अर्थ, विवेचन तथा परिशिष्ट आदि युक्त] सन्निधि / उपप्रवर्तक शासनसेवी स्व० स्वामी श्री ब्रजलालजी महाराज प्राद्य संयोजक तथा प्रधान सम्पादक / (स्व०) युवाचार्य श्री मिश्रीमलजी महाराज 'मधुकर' सम्पादक - श्री राजेन्द्रमुनिजी, एम. ए., साहित्यमहोपाध्याय मुख्य सम्पादक - पं. शोभाचन्द्र भारिल्ल प्रकाशक श्री आगमप्रकाशन समिति, ग्यावर (राजस्थान) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिमागम-प्राधमाला : प्रन्थाङ्क 30 0 निर्देशन साध्वी श्री उमरावकुंवर 'अर्चना' सम्पादकमण्डल अनुयोगप्रवर्तक मुनिश्री कन्हैयालाल, 'कमल' उपाचार्य श्री देवेन्द्रमुनि शास्त्री श्री रतनमुनि पण्डित श्री शोभाचन्द्र भारिल्ल 69788 0 सम्प्रेरक मुनिश्री विनयकुमार 'भीम' श्री महेन्द्रमुनि 'दिनकर' 0 प्रकाशन तिथि वीर निर्वाण सं० 2515 वि. सं. 2046 - ई. सन् 1989 प्रकाशक श्री बागमप्रकाशन समिति वृज-मधुकर स्मृति भवन, पीपलिया बाजार, ब्यावर (राजस्थान) पिन-३०५९०१ Oमुद्रक सतीशचन्द्र शुक्ल वैदिक यंत्रालय, केसरगंज, प्रजमेर-३०५००१ मूल्य : रुपये Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Poblished at the Holy Remembrance occasion Rev. Guru Shri Joravarmalji Maharai.. JIVAJIVABHIGAMA SUTRA [Part-1 [ Original Text, Hindi Version, Introduction aod Appendices etc. ] Paspiring Sool (Late) Up-pravartaka Shasansevi Rev. Swami Sri Brijlalji Maharaj Convener & Founder Editor (Late) Yuvacharya Sri Mishrimalji Maharaj 'Madhukar Editor Shri Rajendra Muni, M. A. Sahityamahopadhyay Cbief Editor Pt. Shobhachandra Bharilla Publishers Shri Agam Prakashan Samiti Beawar (Raj.) Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jbragam Granthmala Publication No. 30 D Direction Sadhwi Shri Umravkupwar 'Archana' Board of Editors Abuyoga-pravartaka Muni Shri Kanhaiyalal 'Kamal' Upachrya Sri Devendramuni Shastri Sri Ratan Muni Pt. Shobbachandra Bharilla D Promotor Muni Sri Vinayakumar 'Bhima' Sri Mahendramuni 'Dinakar Date of Publication Vir-nirvana Samvat 2515 Vikram Samvat 2046; June, 1989 O Pablishers Sri Agam Prakashan Samiti, Brij-Madhukar Smriti-Bhawan, Pipalia Bazar, Beawar (Raj.) Pin 305 901 Printer Satishchandra Shukla Vedic Yantralaya Kaisarganj, Ajmer Price : Rs 50/621 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय श्री जिनागम-ग्रन्थमाला का ३०वाँ ग्रन्थाङ्क 'जीवाजीवाभिगम (प्रथम खण्ड) आगमप्रेमी पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करते प्रानन्द का अनुभव हो रहा है / प्रस्तुत सूत्र विशाल है और इसमें तात्त्विक वर्णन होने से इसके अनुवाद में विस्तृत विवेचन की प्रावश्यकता रहती है। ऐसा किये बिना जिज्ञासु पाठकों को पूरी तरह परितोष नहीं हो सकता / इस दृष्टि को समक्ष रखकर विद्वर मुनिवर श्री राजेन्द्र मुनिजी ने पर्याप्त विस्तृत विवेचन किया है। इससे सूत्र का हार्द समझने में पाठकों को बहुत सुविधा हो गई है, किन्तु साथ इसके कलेवर में वृद्धि भी हो गई है। ऐसा होने पर भी इसे एक ही जिल्द में छपाने का विचार किया था, मगर कतिपय प्रतिकूलताओं के कारण विवश होकर दो खण्डों में प्रकाशित करना पड़ रहा है। पाठकों को धरने-उठाने और विहार के समय साथ रखने में अधिक सुविधा रहेगी, यह एक लाभ भी है। प्रस्तुत सूत्र का दूसरा खण्ड भी यथासुविधा शीघ्र प्रकाशित करने का प्रयास किया जायगा। श्री राजेन्द्र मुनिजी भागमों के विशिष्ट अध्येता और वेत्ता हैं, साथ ही उच्च कोटि के लेखक भी हैं। उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म. तथा उपाचार्य श्री देवेन्द्र मुनिजी म. जैसे विशिष्ट प्रबुद्ध मुनिराजों के अन्तेवासी होने के कारण ऐसा होना स्वाभाविक ही है। जीवाजीवाभिगम का सम्पादन-विवेचन करना सरल कार्य नहीं है, फिर भी मुनिश्री ने हमारी प्रार्थना अंगीकार करके इस महान श्रमसाध्य कार्य को हाथ में लिया और अल्पकाल में ही सम्पन्न कर दिया, इसके लिए प्राभार प्रदर्शन करने योग्य शब्द हमारे पास नहीं है। जिनवाणी के प्रचार-प्रसार में निरन्तर निरत रहने वाले महान् सरस्वती उपासक उपाचार्य श्री देवेन्द्र मुनिजी म. का ग्रन्थमाला-प्रकाशन के प्रारम्भ से ही अनमोल सहकार प्राप्त रहा है / निःस्सन्देह कहा जा सकता है कि उपाचार्य श्री का सहयोग न मिला होता तो जिस द्रुत गति से प्रकाशन-कार्य हुमा है, वह कदापि सम्भव न होता / प्रस्तुत सूत्र की विद्वत्तापूर्ण प्रस्तावना लिखकर आपने हमें उपकृत किया है। प्रागमबत्तीसी के सम्पादन-परिशोधन का कार्य सम्पूर्ण हो चुका है / बीच में प्राचारांग और उपासकदशांग के द्वितीय संस्करण छपाना अनिवार्य हो जाने से छेदसूत्रों का प्रकाशन रुक गया था। अब वे प्रेस में दे दिये गये है / प्रागम-अनुयोग प्रवर्तक पण्डितराज श्री कन्हैयालालजी म. 'कमल' ने छेद सूत्रों के सम्पादनादि में यथेष्ट श्रम किया है, रस लिया है। आपकी कृपा से उऋण नहीं हुआ जा सकता। जिन-जिन महानुभावों का इस महान कार्य में सहयोग प्राप्त हुआ और हो रहा है, उन सभी के हम प्राभारी हैं। रतनचन्द मोदी कार्यवाहक अध्यक्ष निवेदक सायरमल चोरडिया महामन्त्री श्री जैन आगम-प्रकाशन समिति, ब्यावर (राजस्थान) अमरचन्द मोदी मन्त्री Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय वक्तव्य सर्वज्ञ-सर्वदर्शी वीतराग परमात्मा जिनेश्वर देवों की सुधास्यन्दिनी प्रागम-वाणी न केवल विश्व के धार्मिक साहित्य की मनमोल निधि है अपितु वह जगज्जीवों के जीवन का संरक्षण करने वाली संजीवनी है। प्रर्हन्तों द्वारा उपदिष्ट यह प्रवचन वह अमृत-कलश है जो सब विष-विकारों को दूर कर विश्व के समस्त प्राणियों को नव जीवन प्रदान करता है। जैनागमों का उद्भव ही जगत् के जीवों के रक्षण रूप दया के लिए हुमा है।' अहिंसा, दया, करुणा, स्नेह, मैत्री ही इसका सार है। अतएव विश्व के जीवों के लिए यह सर्वाधिक हितंकर, संरक्षक एवं उपकारक है। यह जैन प्रवचन जगज्जीवों के लिए त्राणरूप हैं, शरणरूप है, गतिरूप है और प्राधारभूत है। पूर्वाचार्यों ने इस प्रागम-वाणी को सागर की उपमा से उपमित किया है / उन्होंने कहा _ 'यह जैनागम महान् सागर के समान हैं। यह ज्ञान से अगाध है, श्रेष्ठ पद-समुदाय रूपी जल से लबालब भरा हुआ है, अहिंसा की अनन्त ऊर्मियों-लहरों से तरंगित होने से यह अपार विस्तार वाला है, चुला रूपी ज्वार इसमें उठ रहा है, गुरु की कृपा से प्राप्त होने वाली मणियों से यह भरा हुआ है, इसका पार पाना कठिन है। यह परम सार रूप और मंगल रूप है। ऐसे महावीर परमात्मा के प्रायमरूपी समुद्र की भक्तिपूर्वक प्राराधना करनी चाहिए।' सचमुच जैनागम महासागर की तरह विस्तृत और गंभीर है / तथापि गुरुकृपा और प्रयल से इसमें अवगाहन करके सारभूत रत्नों को प्राप्त किया जा सकता है। जैन प्रवचन का सार अहिंसा और समता है। जैसाकि सूत्रकृतांग सूत्र में कहा है-सब प्राणियों को आत्मवत् समझ कर उनकी हिंसा न करना, यही धर्म का सार है, प्रात्मकल्याण का मार्ग है। जैन सिद्धान्त अहिंसा से ओतप्रोत हैं और प्राज के हिंसा के दावानल में सुलगते विश्व के लिए अहिंसा की अजस्र जलधारा ही हितावह है / अत: जैन सिद्धान्तों का पठन-पाठन / अनुशीलन एवं उनका व्यापक प्रचारप्रसार प्राज के युग की प्राथमिक आवश्यकता है। अहिंसा के अनुशीलन से ही विश्व-शान्ति की सम्भावना है, अतएव अहिंसा से प्रोत-प्रोत जैनागमों का अध्ययन एवं अनुशीलन परम आवश्यक है। जनागम द्वादशांगी गणिपिटक रूप हैं। अरिहंत तीर्थकर परमात्मा केवलज्ञान की प्राप्ति होने के पश्चात् अर्थरूप से प्रवचन का प्ररूपण करते हैं और उनके चतुर्दश पूर्वधर विपुल बुद्धिनिधान गणधर उन्हें सूत्ररूप में निबद्ध —प्रश्नव्याकरण सूत्र 1. सव्वजगजीवरक्खणदयट्ठयाए भगवया पावयणं कहियं / 2. बोधागाधं सुपदपदवी नीरपूराभिरामं, जीवाहिंसाऽविरललहरी संगमागाहदेहं / / चलावेलं गुरुमममणिसंकुलं दूरचारं। सारं वोरागमजलनिधि सादरं साधु सेवे / / 3. अहिंसा समयं चेव एयावंतं विजाणिया / Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करते हैं। इस तरह प्रवचन की परम्परा चलती रहती है। प्रतएव अर्थरूप प्रागम के प्रणेता श्री तीर्थंकर परमात्मा हैं और शब्दरूप प्रागम के प्रणेता गणधर हैं / अनन्तकाल से महन्त और उनके गणधरों की परम्परा चलती आ रही है। अतएव उनके उपदेश रूप प्रागम की परम्परा श्री अनादि काल से चली आ रही है। इसीलिए ऐसा कहा जाता है कि यह द्वादशांगी ध्रव है, नित्य है, शाश्वत है, सदाकाल से है. यह कभी नहीं थी, ऐसा नहीं, यह कभी नहीं है-ऐसा नहीं, यह कभी नहीं होगी....ऐसा भी नहीं है / यह सदा थी, है और सदा रहेगी। भावों की अपेक्षा यह, ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है।' द्वादशांगी में बारह अंगों का समावेश है। प्राचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग व्याख्या-प्रज्ञप्ति, ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशा, अन्तकृद् दशा, अनुरोपपातिक, प्रश्नव्याकरण, विपाकसूत्र और दृष्टिवाद / ये बारह अंग हैं। यही द्वादशांगी गणिपिटक है जो साक्षात् तीर्थंकरों द्वारा उपदिष्ट है। यह अंगप्रविष्ट प्रागम कहा जाता है / इसके अतिरिक्त अनंगप्रविष्ट--अंगबाह्य प्रागम वे हैं जो तीर्थकरों के वचनों से अविरुद्ध रूप में प्रज्ञातिशयसम्पन्न स्थविर भगवंतों द्वारा रचे गये हैं। इस प्रकार जैनागम दो भागों में विभक्त है-अंगप्रविष्ट और अनंगप्रतिष्ट (अंगबाह्य) / प्रस्तुत जीवाभिगम शास्त्र अनंगप्रविष्ट अागम है। दूसरी विवक्षा से बारह अंगों के बारह उपांग भी कहे गये हैं। तदनुसार औषपातिक आदि को उपांग संज्ञा दी जाती है। प्राचार्य मलयागिरि ने, जिन्होंने जीवाभिगम पर विस्तृत वृत्ति लिखी है-इसे तृतीय अंग-स्थानांग का उपांग कहा है। प्रस्तुत जीवाजीवाभिगम सूत्र की आदि में स्थविर भगवंतों को इस अध्ययन के प्ररूपक के रूप में प्रतिपादित किया गया है। वह पाठ इस प्रकार है---- 'इह खलु जिणमयं जिणाणुमयं, जिणाणुलोमं जिणप्पणीयं जिणप्परूवियं जिणक्खायं जिणाणुचिण्णं जिणपग्णत्तं जिणदेसियं जिणपसत्थं अणुवीइय तं सद्दहमाणा तं पत्तियमाणा तं रोयमाणा येरा भगवंता जीवा जीवाभिगमणामज्झयणं पण्णवंसु / ' ----'समस्त जिनेश्वरों द्वारा अनुमत, जिनानुलोम, जिनप्रणीत, जिनप्ररूपित, जिनाख्यात, जिनानुचीर्ण जिन-प्रज्ञप्त और जिनदेशित इस प्रशस्त जिनमत का चिन्तन करके, उस पर श्रद्धा-विश्वास एवं रुचि करके स्थविर भगवन्तों ने जीवाजीवाभिगम नामक अध्ययन की प्ररूपणा की। उक्त कथन द्वारा यह स्पष्ट किया गया है कि प्रस्तुत सूत्र की रचना स्थविर भगवन्तों ने की है। वे स्थविर भगवंत तीर्थंकरों के प्रवचन के सम्यक ज्ञाता थे। उनके वचनों पर श्रद्धा-विश्वास और रुचि रखने वाले थे। इससे यह ध्वनित किया गया है कि ऐसे स्थविरों द्वारा प्ररूपित पागम भी उसी प्रकार प्रमाणरूप है जिस प्रकार सर्वज्ञ सर्वदर्शी तीर्थकर परमात्मा द्वारा प्ररूपित आगम प्रमाणरूप हैं / क्योंकि स्थविरों की यह रचना तीर्थंकरों के वचनों से अविरुद्ध है। प्रस्तुत पाठ में आये हुए जिनमत के विशेषणों का स्पष्टीकरण उक्त मूलपाठ के विवेचन में किया गया है। प्रस्तुत सूत्र का नाम जीवाजीवाभिगम है परन्तु मुख्य रूप से जीव का प्रतिपादन होने से अथवा संक्षेप दष्टि से यह सूत्र 'जीवाभिगम' के नाम से भी जाना जाता है। 1. एयं दुवालसंगं गणिपिटगं ण कयावि नासि, न कयावि न भवइ, न कयावि न भविस्सह, धुवं णिच्चं सासयं ।---नन्दीसूत्र। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तत्त्वज्ञान प्रधानतया प्रात्मवादी है। जीव या आत्मा इसका केन्द्र बिन्दु है / वैसे तो जैन सिद्धान्त ने नौ तत्त्व माने हैं अथवा पुण्य-पाप को प्रास्रब बन्ध तत्त्व में सम्मिलित करने से सात तत्त्व माने हैं परन्तु वे सब जीव और अजीव कर्म-द्रव्य के सम्बन्ध या वियोग की विभिन्न अवस्थारूप ही हैं / अजीव तत्त्व का प्ररूपण जीव तत्त्व के स्वरूप को विशेष स्पष्ट करने तथा उससे उसके भिन्न स्वरूप को बताने के लिए है / पुण्य, पाप, प्रास्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष तत्त्व जीव और कर्म के संयोग-वियोग से होने वाली अवस्थाएँ हैं / अतएव यह कहा जा सकता है कि जैन तत्त्व ज्ञान का मूल प्रात्मद्रव्य (जीव) है। उसका प्रारम्भ ही आत्मविचार से होता है तथा मोक्ष उसकी अन्तिम परिणति है। प्रस्तुत सूत्र में उसी प्रात्मद्रव्य को अर्थात जीव की विस्तार के साथ चर्चा की गई है। प्रतएव यह जीवाभिगम कहा जाता है। अभिगम का अर्थ है ज्ञान / जिसके द्वारा जीव-अजीव का ज्ञान ज्ञान हो वह 'जीवाभिमम' है / प्रजीव तत्त्व के भेदों का सामान्य रूप से उल्लेख करने के उपरान्त प्रस्तुत सूत्र का सारा अभिधेय जीव तत्त्व को लेकर ही है। जीव के दो भेद-सिद्ध और संसारसमापनक के रूप में बताये गये हैं। तदुपरान्त संसारसमापन्नक जीवों के विभिन्न विवक्षाओं को लेकर किये गये भेदों के विषय में नौ प्रतिपत्तियों—मन्तव्यों का विस्तार से वर्णन किया गया है / ये नौ ही प्रतिपत्तियां भिन्न भिन्न अपेक्षाओं को लेकर प्रतिपादित हैं अतएव भिन्न भिन्न होने के बावजूद ये परस्पर विरोधी हैं और तथ्यपरक हैं / राग-द्वेषादि विभाव परिणतियों से परिणत यह जीव संसार में कैसी कैसी अवस्थानों का, किन किन रूपों का, किन किन योनियों में जन्म-मरण प्रादि का अनुभव करता है, प्रादि विषयों का उल्लेख इन नौ प्रतिपत्तियों में किया गया है। स-स्थावर के रूप में, स्त्री-पुरुष नपुंसक के रूप में, नारक-तिर्यञ्च-मनुष्य और देव के रूप में, एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय के रूप में, पृथ्वीकाय यावत् त्रसकाय के रूप में तथा अन्य अपेक्षाओं से अन्य-अन्य रूपों में जन्म-मरण करता हुआ वह जीवात्मा जिन जिन स्थितियों का अनुभव करता है, उनका सूक्ष्म वर्णन किया गया है। द्विविध प्रतिपत्ति में बस-स्थावर के रूप में जीवों के भेद बताकर 1 शरीर, 2 अवगाहना, 3 संहनन, 4 संस्थान, 5 कषाय, 6 संज्ञा, 7 लेश्याः 8 इन्द्रिय, 9 समुद्घात, 10 संज्ञी-असंज्ञी, 11 वेद, 12 पर्याप्ति-अपर्याप्ति, 13 दृष्टि, 14 दर्शन, 15 ज्ञान, 16 योग, 17 उपयोग, 18 प्राहार, 19 उपपात, 20 स्थिति, 21 समवहतप्रसमवहत, 22 च्यवन और 23 गति-प्रागति- इन 23 द्वारों से उनका निरूपण किया गया है। इसी प्रकार भागे की प्रतिपत्तियों में भी जीव के विभिन्न भेदों में विभिन्न द्वारों को घटित किया गया है। स्थिति, संचिटणा (कायस्थिति), अन्तर और प्रल्पबहुत्व द्वारों का यथासंभव सर्वत्र उल्लेख किया गया है। अन्तिम प्रतिपत्ति में सिद्धसंसारी भेदों की विविक्षा न करते हुए सर्वजीव के भेदों की प्ररूपणा की गई है। प्रस्तुत सूत्र में नारक-तिर्यञ्च, मनुष्य और देवों के प्रसंग में अधोलोक, तिर्यक् लोक और ऊर्वलोक का निरूपण किया गया है। तिर्यक लोक के निरूपण में द्वीप-समुद्रों को वक्तव्यता, कर्मभूमि अकर्मभूमि की वक्तव्यता, वहाँ की भौगोलिक और सांस्कृतिक स्थितियों का विशद विवेचन भी किया गया है जो विविध दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। इस प्रकार यह सूत्र और इसकी विषय-वस्तु जीव के सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी देती है, प्रतएव इसका जीवाभिगम नाम सार्थक है / यह पागम जैन तत्वज्ञान का महत्त्वपूर्ण अंग है। प्रस्तुत सूत्र का मूल प्रमाण 6750 (चार हजार सात सौ पचास) ग्रन्थान है। इस पर प्राचार्य मलयागिरि ने 14000 (चौदह हजार) ग्रन्थान प्रमाण वृत्ति लिखकर इस गम्भीर प्रागम के मर्म को प्रकट किया है। वृत्तिकार अपने बुद्धि-वैभव से प्रागम के मर्म को हम साधारण लोगों के लिए उजागर कर हमें बहुत उपकृत किया है। सम्पादन के विषय में प्रस्तुत संस्करण के मूल पाठ का मुख्यतः प्राधार सेठ श्री देवनन्द लालभाई पुस्तकोद्धार फण्ड सूरत से Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशित वृत्तिसहित जीवाभिगम सूत्र का मूल पाठ है परन्तु अनेक स्थलों पर उस संस्करण में प्रकाशित मूलपाठ में वृत्तिकार द्वारा मान्य पाठ में अन्तर भी है। कई स्थलों में पाये जाने वाले इस भेद से ऐसा लगता है कि वृत्तिकार के सामने कोई अन्य प्रति (आदर्श) रही हो। अतएव अनेक स्थलों पर हमने वृत्तिकार-सम्मत पाठ अधिक संगत लगने से उसे मुलपाठ में स्थान दिया है। ऐसे पाठान्तरों का उल्लेख स्थान-स्थान पर फुटनोट (टिप्पण) में किया गया है। स्वयं वृत्तिकार ने इस बात का उल्लेख किया है कि इस पागम के सत्रपाठों में कई स्थानों पर भिन्नता दृष्टिगोचर होती है। यह स्मरण रखने योग्य है कि यह भिन्नता शब्दों को लेकर है। तात्पर्य में कोई अन्तर नहीं है / तात्त्विक अन्तर न होकर वर्णनात्मक स्थलों से शब्दों का और उनके क्रम का अन्तर दृष्टिमोचर होता है / ऐसे स्थलों पर हमने टीकाकारसम्मत पाठ को मूल में स्थान दिया है। प्रस्तुत प्रागम के अनुवाद और विवेचन में भी मुख्य आधार प्राचार्य श्री मलयगिरि की वृत्ति ही रही है। हमने अधिक से अधिप यह प्रयास किया है कि इस तात्त्विक आगम की सैद्धान्तिक विषय-वस्तु को अधिक से अधिक स्पष्ट रूप में जिज्ञासुमों के समक्ष प्रस्तुत किया जाय / अतएब वृत्ति में स्पष्ट की गई प्रायः सभी मुख्य मुख्य बातें हमने विवेचन में दे दी हैं ताकि संस्कृत भाषा को न समझने वाले जिज्ञासुजन भी उनसे लाभान्वित हो सकें। मैं समझता हूं कि मेरे इस प्रयास से हिन्दी भाषी जिज्ञासुमों को वे सब तात्विक बातें समझने को मिल सकेंगी जो वत्ति में संस्कृत भाषा में समझाई गई हैं। इस दष्टि से इस संस्करण की उपयोगिता बहत बढ़ जाती हैं। जिज्ञासु जन यदि इससे लाभान्वित होंगे तो मैं अपने प्रयास को सार्थक समझंगा। अन्त में, मैं स्वयं को धन्य मानता हूं कि मुझे इस संस्करण को तैयार करने का सु-अवसर मिला / प्रागमप्रकाशन समिति, ब्यावर की ओर से मुझे प्रस्तुत जीवाभिगम सूत्र का सम्पादन करने का दायित्व सौंपा गया। सूत्र की गंभीरता को देखते हुए मुझे अपनी योग्यता के विषय में संकोच अवश्य पैदा हुआ परन्तु श्रुतभक्ति से प्रेरित होकर मैंने यह दायित्व स्वीकार कर लिया और उसके निष्पादन में निष्ठा के साय जुट गया। जैसा भी मुझ से बन पड़ा, वह इस रूप में पाठकों के सन्मुख प्रस्तुत है। कृतज्ञता-ज्ञापन--- श्रुत-सेवा के मेरे इस प्रयास में श्रद्धेय गुरुवर्य उपाध्याय श्री पुष्करमुनिजी म. एवं श्रमणसंघ के उपाचार्य साहित्य-मनीषी सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री देवेन्द्र मुनिजी म. का कुशल मार्गदर्शन एवं दिशानिर्देशन प्राप्त हुप्रा है जिसके फलस्वरूप मैं यह भगीरथ-कार्य सम्पन्न करने में सफल हो सका हूं। इन पूज्य गुरुवयों का जितना प्राभार मान उतना कम ही है। श्रद्धेय उपाचार्य श्री ने तो इस पागम की विद्वत्तापूर्ण प्रस्तावना लिखने की महती अनुकम्पा की है। इससे इस संस्करण की उपयोगिता में चार चांद लग गये हैं। प्रस्तुत पागम का सम्पादन करते समय मुके जैन समाज के विश्रुत विद्वान पं. श्री बसन्तीलालजी नलवाया रतलाम का महत्त्वपूर्ण सहयोग मिला। उनके विद्वत्तापूर्ण एवं श्रमनिष्ठ सहयोग के लिए कृतज्ञता व्यक्त करना मैं नहीं भूल सकता। सेठ देवनन्द लालभाई पृस्त कोद्धार फण्ड, 'सूरत का मुख्य रूप से प्राभारी हूं। जिसके द्वारा प्रकाशित संस्करण का उपयोग इसमें किया गया है। पागम प्रकाशन समिति ब्यावर एवं अन्य सब प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष सहयोगियों का कृतज्ञतापूर्वक आभार व्यक्त करता हूं। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदि मेरे इस प्रयास से जिज्ञासु आगम-रसिकों को तात्त्विक सात्विक लाभ पहुंचेगा तो मैं अपने प्रयास को सार्थक समझंगा। अन्त में मैं यह शुभकामना करता हूं कि जिनेश्वर देवों द्वारा प्ररूपित तत्त्वों के प्रति जन-जन के मन में श्रद्धा, विश्वास और रुचि उत्पन्न हो ताकि वे ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूप रत्नत्रय की आराधना करके मूक्ति-पथ के पथिक बन सकें। जैनं जयति शासनम् / श्री तारक गुरु जैन ग्रन्थालय उदयपुर--(राज.) 11 मई 1989 -राजेन्द्र मुनि एम. ए. साहित्यमहोपाध्याय { 10 ] Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना जीवाजीवाभिगम : एक समीक्षात्मक अध्ययन जैनागम विश्व-दाङमय की अनमोल मणि-मंजूषा है। यदि विश्व के धार्मिक और दार्शनिक साहित्य की दृष्टि से सोचें तो उसका स्थान और भी अधिक गरिमा और महिमा से मण्डित हो उठता है। धार्मिक एवं दार्शनिक साहित्य के असीम अन्तरिक्ष में जैनागमों और जैन साहित्य का वही स्थान है जो असंख्य टिमटिमाते ग्रह-नक्षत्र एवं तारकमालिकाओं के बीच चन्द्र और सूर्य का है। जैनसाहित्य के बिना विश्व-साहित्य की ज्योति फीकी और निस्तेज है। डॉ. हर्मन जेकोबी, डॉ. शुबिंग प्रभूति पाश्चात्य विचारक भी यह सत्य-तथ्य एक स्वर से स्वीकार करते हैं कि जैनागमों में दर्शन और जीवन का, प्राचार और विचार का, भावना और कर्तव्य का जैसा सुन्दर समन्वय हुआ है वैसा अन्य साहित्य में दुर्लभ है। जैनागम ज्ञान-विज्ञान का अक्षय कोष है। अक्षर-देह से वह जितना विशाल है उससे भी अधिक उसका सूक्ष्म एवं गम्भीर चितन विशद एवं महान है। जैनागमों ने आत्मा को शाश्वत सत्ता का उदघोष किया है और उसको सर्वोच्च विशुद्धि का पथ प्रदर्शित किया है। साथ ही उसके साधन के रूप में सम्यग् ज्ञान, सम्यक् श्रद्धान और सम्यग् आचरण के पावन त्रिवेणी-संगम का प्रतिपादन किया है। त्याग, वैराग्य और संयम की आराधना के द्वारा जीवन के चरम प्रौर परम उत्कर्ष को प्राप्त करने की प्रेरणा प्रदान की है। जीवन के चिरन्तन सत्य को उन्होंने उद्घाटित किया है। न केवल उद्घाटित ही किया है अपितु उसे आचरण में उतारने योग्य एवं व्यवहार्य बनाया है / अपनी साधना के बल से जैनागमों के पुरस्कर्तामों ने प्रथम स्वयं ने सत्य को पहचाना, यथार्थ को जाना तदनन्तर उन्होंने सत्य का प्ररूपण किया। अतएव उनके चिन्तन में अनुभूति का पुट है। वह कल्पनामों की उड़ान नहीं है अपितु अनुभूतिमूलक यथार्थ चिन्तन है। यथार्थदर्शी एवं वीतराग जिनेश्वरों ने सत्य तत्त्व का साक्षात्कार किया और जगत के जीवों के कल्याण के लिए उसका प्ररूपण किया।' यह प्ररूपण और निरूपण ही जैनागम हैं। यथार्थदृष्टा और यथार्थवक्ता द्वारा प्ररूपित होने से यह सत्य हैं, निश्शंक हैं और प्राप्त वचन होने से पागम हैं। जिन्होंने रागद्वेष को जीत लिया है वह जिन, तीथकर, सर्वश भगवान् प्राप्त हैं और उनका उपदेश एवं वाणी ही जैनागम हैं। क्योंकि उनमें बक्ता के यथार्थ दर्शन एवं बीतरागता के कारण दोष की सम्भावना नहीं होती और न पूर्वापर विरोध तथा युक्तिबाघ ही होता है। जैनागमों का उद्भव जनागमों के उद्भव के विषय में प्रावश्यकनियुक्ति में श्री भद्रबाहुस्वामी ने तथा विशेषावश्यकभाष्य में श्री जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण ने कहा है -प्रश्नव्याकरण, संवरदार 1. सन्वजगजीवरक्खणदयट्टयाए पावयणं भगवया सुकहियं / 2. तमेव सच्चं णिस्संक जंजिणेहि पवेइयं / 3. प्राप्तवचनादाविर्भतमर्थसंवेदनमागमः / --प्रमाणनयतत्त्वालोक [11] Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___'तप, नियम तथा ज्ञानरूपी वृक्ष पर मास्ट अनन्त ज्ञान-सम्पन्न केवलज्ञानी भव्य जनों को उद्घोधित करने हेतु ज्ञान-पुष्पों की वृष्टि करते हैं / गणघर उसे बुद्धिरूपी पट में ग्रहण कर उसका प्रवचन के निमित्त प्रथन करते हैं।" 'प्रहन्त अर्थरूप से उपदेश देते हैं और गणधर निपुणतापूर्वक उसको सूत्र के रूप में गूंथते हैं / इस प्रकार धर्मशासन के हितार्थ सूत्र प्रवर्तित होते. हैं / 2 अर्थात्मक ग्रन्य के प्रणेता तीर्थकर हैं / प्राचार्य देववाचक ने इसीलिए भागमों को तीर्थकरप्रणीत कहा है। प्रबुद्ध पाठकों को यह स्मरण रखना होगा कि आगम साहित्य की प्रामाणिकता केवल गणधरकृत होने से ही नहीं किन्तु अर्थ के प्ररूपक तीर्थकर की वीतरागता और सर्वज्ञता के कारण है। गणधर केवल द्वादशांगी की रचना करते हैं। अंगवाह्य भागमों की रचना स्थविर करते हैं। प्राचार्य मलयगिरि आदि का अभिमत है कि गणधर तीथंकर के सन्मुख यह जिज्ञासा व्यक्त करते हैं कि तत्त्व क्या है ? उत्तर में तीर्थंकर 'उप्पन्न इ वा विगमेइ वा धुवेइ वा' इस त्रिपदी का उच्चारण करते हैं। इस त्रिपदी को मातका-पद' कहा जाता है. क्योंकि इसके आधार पर ही गणघर द्वादशांगी की रचना करते हैं। यह द्वादशांगी रूप प्रागम-साहित्य अंगप्रविष्ट के रूप में विश्रत होता है / अवशेष जितनी भी रचनाएँ हैं वे सब अंगबाह्य हैं। द्वादशांगी त्रिपदी से उद्भूत है, इसलिए वह गणधरकृत है। यहाँ यह भी स्मरण रखना चाहिए कि गणधरकृत होने से सभी रचनाएं अंग नहीं होती, त्रिपदी के अभाव में मुक्त व्याकरण से जो रचनाएं की जाती हैं, भले ही उन रचनामों के निर्माता गणधर हों अथवा स्थविर हों, वे अंगबाह्य ही कहलाएंगी। ___ स्थविर के दो भेद हैं-चतुर्दशपूर्वी और दशपूर्वी / वे सूत्र और अयं की दृष्टि से अंग साहित्य के पूर्ण ज्ञाता होते हैं / वे जो भी रचना करते हैं या कहते हैं, उसमें किंचित्-मात्र भो विरोध नहीं होता। प्राचार्य संघदास गणी का अभिमत है कि जो बात तीर्थकर कह सकते हैं, उसको श्रुतकेवली भी उसी रूप में कह सकते हैं। दोनों में इतना ही अन्तर है कि केवल ज्ञानी सम्पूर्ण तत्त्व को प्रत्यक्ष रूप से जानते हैं तो श्रुतकेवली श्रतज्ञान के द्वारा परोक्ष रूप से जानते हैं। उनके वचन इसलिए भी प्रामाणिक होते हैं कि वे नियमत: सम्यग्दृष्टि होते हैं। वे सदा निर्ग्रन्थ-प्रवचन को पागे करके ही चलते हैं। उनका उद्घोष होता है कि यह निग्रंन्य प्रवचन ही सत्य है, नि:शंक है, यही अर्थ है, परमार्थ है, शेष अनर्थ है। अतएव उनके द्वारा रचित ग्रन्यों में द्वादशांगी से विरुद्ध तथ्यों की सम्भावना नहीं होती। उनका कथन द्वादशांमी से अविरुद्ध होता है। अतः उनके द्वारा रचित ग्रन्थों को भी पागम के समान प्रामाणिक माना गया है। 1. तवणियमणाणरुक्खं प्रारूढो केवली अमियनाणी / तो मुयइ नाणवुद्धिं भवियजणविवोहणठाए // तं बुद्धिमएण पडेण गणहरा मिहिउं णिरवसेस / तित्स्थयरभासियाई गंथंति तो पवयणट्ठा / / -आवश्यक नियुक्ति गा. 89-90 2. प्रत्थं भासइ परहा सुत्तं गंथंति गणहरा णिउणं / सासणस्स हियट्ठाए तनो सुत्तं पवत्तइ / / -विशेषावश्यक भाष्य गा.१११९ 3. बृहत्कल्पभाष्य गाथा 963 से 966 4. बृहत्कल्पभाष्य गाथा 132 [12] Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व और अंग जैनागमों का प्राचीनतम वर्गीकरण पूर्व और अंग के रूप में समवायांग सूत्र में मिलता है / वहाँ पूर्वो की संख्या चौदह और अंगों की संख्या बारह बताई गई है। जैन वाङमय में ज्ञानियों की दो प्रकार की परम्पराएँ उपलब्ध हैं. पूर्वधर और द्वादशांगवेत्ता / पूर्वधरों का ज्ञान की दृष्टि से उच्च स्थान रहा है। जो श्रमण चौदह पूर्वो का ज्ञान धारण करते थे उन्हें श्रुतकेवली कहा जाता था / पूर्वो में समस्त वस्तु-विषयों का विस्तृत विवेचन था प्रतएव उनका विस्तार एवं प्रमाण बहुत विशाल था एवं गहन भी था। पूर्वो की परिधि से कोई भी सत् पदार्थ अछूता नहीं था। पूर्वो की रचना के विषय में विज्ञों के विभिन्न मत हैं / आचार्य अभयदेव आदि के प्रभिमतानुसार द्वादशांगी से पहले पूर्वसाहित्य रचा गया था। इसी से उसका नाम पूर्व रखा गया है। कुछ चिन्तकों का मत है कि पूर्व भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा की श्रुतराशि है। पूर्वगत विषय प्रति गंभीर दुरूह और दुर्गम होने के कारण विशिष्ट क्षयोपशमधारियों के लिए ही वह उपयोगी हुमा / सामान्य जनों के लिए भी वह विषय उपयोगी बने, इस हेतु से अंगों की रचना की गई / जैसा कि विशेषावश्यक भाष्य में कहा है-'यद्यपि भूतवाद या दृष्टिवाद में समग्र ज्ञान का अवतरण है परन्तु अल्पबुद्धि वाले लोगों के उपकार हेतु उससे शेष श्रुत का निर्वृहण हुअा, उसके आधार पर सारे वाङमय का सर्जन हुआ / वर्तमान में पूर्व द्वादशांगी से पृथक् नहीं माने जाते हैं। दृष्टिवाद बारहवां अंग है / जब तक प्राचारांग प्रादि अंगसाहित्य का निर्माण नहीं हुआ था तब तक समस्त श्रुतराशि पूर्व के नाम से या दृष्टिवाद के नाम से पहचानी जाती थी। जब अंगों का निर्माण हो गया तो प्राचारांगादि ग्यारह अंगों के बाद दुष्टिवाद को बारहवें अंग के रूप में स्थान दे दिया गया। आगम साहित्य में द्वादश अंगों को पढ़ने वाले और चौदह पूर्व पढ़ने वाले दोनों प्रकार के श्रमणों का वर्णन मिलता है किन्तु दोनों का तात्पर्य एक ही है। चतुर्दशपूर्वी होते थे वे द्वादशांगवित भी होते थे क्योंकि बारहवें अंग में चौदह पूर्व हैं ही। आगमों का दूसरा वर्गीकरण अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य के रूप में किया गया है। अंगप्रविष्ट : अंगबाह्य प्राचार्य जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य का विश्लेषण करते हुए कहा है 1. चउद्दसपुब्या पण्णत्ता तं जहा- उप्पायपुब्ब............तह विंदुसारं च / दुवालस गणिपिडगे प. तं-आयारे जाव दिट्टिवाए। 2. (क) प्रथमं पूर्व तस्य सर्वप्रवचनात् पूर्व क्रियमाणत्वात् -समवायांग बत्ति / (ख) सर्वश्रुतात् पूर्व क्रियते इति पूर्वाणि, उत्पादपूर्वादीनि चतुर्दश / -स्थानांग वृत्ति (ग) जम्हा तित्थकरो तित्थपवत्तणकाले गणधराण सव्वसुत्ताधारत्तणतो पुव्वं पुव्वगतसुत्तत्थं भासति तम्हा पुन्वं ति भणिता। -नंदी चूर्णि 3. जइवि य भूयावाए सव्वस्स य भागमस्स पोयारो। निज्जूहणा तहा वि हु दुम्मेहे पप्प इत्थी य / ---विशेषावश्यक भाष्य गाथा, 551 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगप्रविष्ट श्रत वह है (1) जो गणधर के द्वारा सूत्ररूप में बनाया हुआ हो, (2) जो गणधर द्वारा प्रश्न करने पर तीर्थकर के द्वारा प्रतिपादित हो, (3) जो शाश्वत सत्यों से संबंधित होने के कारण ध्रव एवं सुदीर्घकालीन हो। इसी अपेक्षा से ऐसा कहा जाता है कि यह द्वादशांगी रूप गणिपिटक कभी नहीं था, ऐसा नहीं है, कभी नहीं है और कभी नहीं होगा, ऐसा भी नहीं है / यह था, है, और होमा / यह ध्रुव है, नियत है, शाश्वत है, अक्षय है, अव्यय है, अवस्थित है और नित्य है। ___ अंगबाह्य श्रुत वह है-(१) जो स्थविरकृत होता है, (2) जो बिना प्रश्न किये ही तीर्थंकरों द्वारा प्रतिपादित होता है, (3) जो अध्र व हो अर्थात् सब तीथंकरों के तीर्थ में अवश्य हो, ऐसा नहीं है, जैसे तन्दुलवैचारिक आदि प्रकरण / ___ नंदीसूत्र के टीकाकार प्राचार्य मलयगिरि ने अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य की व्याख्या करते हुए लिखा है कि-'सर्वोत्कृष्ट श्रुतलब्धि-सम्पन्न गणधर रचित मूलभूत सूत्र जो सर्वथा नियत हैं, ऐसे प्राचारांगादि अंगप्रविष्ट धुत हैं। उनके अतिरिक्त अन्य श्रुत स्थविरों द्वारा रचित श्रुतअंगबाह्य श्रत है।' अंगवाह त दो प्रकार का है-आवश्यक और आवश्यकव्यतिरिक्त / अावश्यकव्यतिरिक्त श्रुत दो प्रकार का है(१) कालिक और (2) उत्कालिक / जो श्रुत रात तथा दिन के प्रथम मौर अन्तिम प्रहर में पढ़ा जाता है वह कालिक' श्रुत है तथा जो काल वेला को बजित कर सब समय पढ़ा जा सकता है, वह उत्कालिक सूत्र है। नन्दीसूत्र में कालिक और उत्कालिक सूत्रों के नामों का निर्देश किया गया है। अंग, उपांग, मूल और छेद आगमों का सबसे उत्तरवर्ती वर्गीकरण है-अंग, उपांग, मूल और छेद / नन्दीसूत्र में न उपांग शब्द का प्रयोग है और न ही मूल और छेद का उल्लेख / वहाँ उपांग के अर्थ में अंगबाह्य शब्द पाया है। __ प्राचार्य श्रीचन्द ने, जिनका समय ई. 1112 से पूर्व माना जाता है, सुखबोधा समाचारी की रचना की। उसमें उन्होंने आगम के स्वाध्याय की तपोविधि का वर्णन करते हुए अंगबाह्य के अर्थ में 'उपांग' का प्रयोग किया है। चणि साहित्य में भी उपांग शब्द का प्रयोग हुअा है / मूल और छेद सूत्रों का विभाग कब रूप से नहीं कहा जा सकता / विक्रम संवत् 1334 में निर्मित प्रभावकचरित में सर्वप्रथम अंग, उपांग, मूल और छेद का विभाग मिलता है। फलितार्थ यह है कि उक्त विभाग तेरहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में हो चुका था। मूल और छेद सूत्रों की संख्या और नामों के विषय में भी मतैक्य नहीं है। अंग-साहित्य की संख्या के संबंध में श्वेताम्बर और दिगम्बर सब एक मत हैं / सब बारह अंग मानते हैं / किन्तु अंगबाह्य प्रागमों की संख्या में विभिन्न मत हैं / श्वेताम्बर मूर्तिपूजक 45 भागम मानते हैं, स्थानकवासी और तेरापंथी बत्तीस आगम मानते हैं / 11 अंग, 12 उपांग, 6 मूल सूत्र, छह छेद सूत्र और दस पइन्ना-यों पैंतालीस प्रागम श्वेताम्बर-मूर्तिपूजक समुदाय प्रमाणभूत मानता है। स्थानकवासी पोर तेरापंथ के अनुसार 11 अंग, 12 उपांग, 4 मूल सूत्र, 4 छेद सूत्र, १प्रावश्यक सूत्र यों बत्तीस वर्तमान में प्रमाणभूत माने जाते हैं। जीवाजोवाभिगम-प्रस्तुत जीवाजीवाभिगमसूत्र उक्त वर्गीकरण के अनुसार उपांग श्रुत और कालिक सूत्रों 1. गणहर-थेरकयं वा पाएसा मुक्कवागरणपो वा / घव-चलविसेसो वा अंगाणंगेसु णाणत्तं / / -विशेषावश्यक भाष्य मा. 550 [14] Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में इसका उल्लेख है / वृत्तिकार प्राचार्य मलय गिरि ने इसे तृतीय अंग स्थानांग का उपांग कहा है।' इस प्रायम की महत्ता बताते हुए वे कहते हैं कि यह जीवाजीवाभिगम नामक उपांग राग रूपी विष को उतारने के लिए श्रेष्ठ मंत्र के समान है। द्वेष रूपी आग को शान्त करने हेतु जलपूर के समान है। प्रज्ञान-तिमिर को नष्ट करने के लिए सूर्य के समान है / संसाररूपी समुद्र को तिरने के लिए सेतु के समान है / बहुत प्रयल द्वारा ज्ञेय है एवं मोक्ष को प्राप्त कराने की अमोघ शक्ति से युक्त है। वत्तिकार के उक्त विशेषणों से प्रस्तुत प्रागम का महत्व स्पष्ट हो जाता है। प्रस्तुत आगम के प्रथम सूत्र में इसके प्रज्ञापक के रूप में स्थविर भगवंतों का उल्लेख करते हुए कहा गया है-'उन स्थविर भगवंतों ने तीर्थंकर प्ररूपित तत्त्वों का अपनी विशिष्ट प्रज्ञा द्वारा पर्यालोचन करके, उस पर अपनी प्रगाढ श्रदा, प्रीति, रुचि, प्रतीति एवं गहरा विश्वास करके जीव और अजीब सम्बन्धी अध्ययन का प्ररूपण किया है।' उक्त कथन द्वारा यह अभिव्यक्त किया गया है कि प्रस्तुत प्रागम के प्रणेता स्थविर भगवंत हैं। उन स्थविरों ने जो कुछ कहा है वह जिनेश्वर देवों द्वारा कहा गया ही है, उनके द्वारा अनुमत है, उनके द्वारा प्रणीत है, उनके द्वारा प्ररूपित है, उनके द्वारा प्रख्यात है, उनके द्वारा प्राचीर्ण है, उनके द्वारा प्रज्ञप्त है, उनके द्वारा उपदिष्ट है, यह पथ्यान्न की तरह प्रशस्त और हितावह है तथा परम्परा से जिनत्व की प्राप्ति कराने वाला यह पागम शब्दरूप से स्थविर भगवंतों द्वारा कथित है किन्तु अर्थरूप से तीर्थंकरों द्वारा उपदिष्ट होने से द्वादशांगी की तरह ही प्रमाणभूत है। इस प्रकार प्रस्तुत प्रागम की प्रामाणिकता प्रकट की गई है। अंगश्रुतों के अनुकूल होने से ही उपांगश्रुतों की प्रामाणिकता है। श्रुत.की पुरुष के रूप में कल्पना की गई। जिस प्रकार पुरुष के अंग-उपांग होते हैं उसी तरह श्रुत-पुरुष के भी बारह अंग और बारह उपांगों को स्वीकार किया गया / पुरुष के दो पांव, दो जंघा, दो उरु, देह का अग्रवर्ती तथा पृष्ठवर्ती भाग (छाती और पीठ), दो बाहु, ग्रीवा और मस्तक--ये बारह अंग माने गये हैं। इसी तरह श्रुत-पुरुष के प्राचारांग प्रादि बारह अंग हैं। अंगों के सहायक के रूप में उपांग होते हैं, उसी तरा सहायक-पूरक के रूप में उपांग श्रुत की प्रतिष्ठापना की गई। बारह अंगों के बारह उपांग मान्य किये गये / वैदिक परम्परा में भी वेदों के सहायक या पूरक के रूप में वेदांगों एवं उपांगों को मान्यता दी गई है जो शिक्षा, व्याकरण, छन्द, निरुक्त, ज्योतिष तथा कल्प के नाम से प्रसिद्ध हैं। पुराण, न्याय, मीमांसा तथा धर्मशास्त्रों की उपांग के रूप में स्वीकृति हुई। अंगों और उपांगों के विषय-निरूपण में सामंजस्य अपेक्षित है जो स्पष्टतः प्रतीत नहीं होता है। यह विषय विज्ञों के लिए अवश्य विचारणीय है। नामकरण एवं परिचय प्रस्तुत सूत्र का नाम जीवाजीवाभिगम है परन्तु अजीब का संक्षेप दृष्टि से तथा जीव का विस्तृत रूप से प्रतिपादन होने के कारण यह 'जीवाभिगम' नाम से प्रसिद्ध है। इसमें भगवान महावीर और गणधर गौतम के प्रश्नोत्तर में रूप में जीव और प्रजीव के भेद और प्रभेदों की चर्चा है / परम्परा की दृष्टि से प्रस्तुत प्रागम में 20 उद्देशक थे 1. प्रतो यदस्ति स्थाननाम्नो रागविषपरममंत्ररूपं द्वेषानलसलिलयूरोपमं तिमिरादित्यभूतं भवाब्धिपरमसेतुर्महा प्रयत्नगम्यं नि:श्रेयसावाप्त्यवन्ध्यशक्तिक जीवाजीवाभिगमनामकमुपाङ्गम् / --मलय गिरि वृत्ति 2. इह खलु जिणमयं जिणाणुमयं जिणाणुलोमं जिणप्पणीतं जिणपरूवियं जिणक्खायं जिणाणचिण्णं जिनपण्णत्तं जिणदेसियं जिणपसत्थं अणुव्वी इय तं सद्दहमाणा तं पत्तियमाणा त रोयमाणा थेरा भगवंतो जीवाजीवाभिगमणामञ्झयणं पण्णवइंसु / -जीवा. सूत्र 1 [ 15 ] Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और बीसवें उद्देशक की व्याख्या श्री शालिभद्रसूरि के शिष्य श्री चन्द्रसूरि ने की थी। श्री अभयदेव ने इसके तृतीय पद पर संग्रहणी लिखी थी / परन्तु वर्तमान में जो इसका स्वरूप है उसमें केवल नौ प्रतिपत्तियां (प्रकरण) हैं जो 272 सूत्रों में विभक्त हैं। संभव है इस मागम का महत्त्वपूर्ण भाग लुप्त हो जाने से शेष बचे हुए भाग को नौ प्रतिपत्तियों के रूप में संकलित कर दिया गया हो। उपलब्ध संस्करण में 9 प्रतिपत्तियां, एक अध्ययन, 18 उद्देशक, 4750 श्लोक प्रमाण पाठ है / 272 गद्यसूत्र और 81 पद्य (गाथाएं) हैं। प्रसिद्ध वृत्तिकार श्री मलयगिरि ने इस पर वृत्ति लिखी है। उन्होंने अपनी वृत्ति में अनेक स्थलों पर वाचनाभेद का उल्लेख किया है। प्रागमोदय समिति द्वारा प्रकाशित जीवाभिगम के संस्करण में जो मूल पाठ दिया गया है उसकी पाण्डुलिपि से वृत्तिकार के सामने रही हई पाण्डुलिपि में स्थान-स्थान पर भेद है, जिसका उल्लेख स्वयं वत्तिकार ने विभिन्न स्थानों पर किया है। प्रस्तुत संस्करण के विवेचन और टिप्पण में ऐसे पाठभेदों का स्थान-स्थान पर उल्लेख करने का प्रयत्न किया गया है। यहां यह स्मरणीय है कि शाब्दिक भेद होते हुए भी प्रायः तात्पर्य में भेद नहीं है। यहां एक महत्त्वपूर्ण विचारणीय विषय यह है कि नन्दीसूत्र आदि श्रुतग्रन्थों में श्रुतसाहित्य का जो विवरण दिया गया है तदनुरूप श्रुतसाहित्य वर्तमान में उपलब्ध नहीं है। उसमें उल्लिखित विशाल श्रुतसाहित्य में से बहुत कुछ तो लुप्त हो गया और बहुत-सा परिवर्तित भी हो गया / भगवान् महावीर के समय जो श्रुत का स्वरूप और परिमाण था वह धीरे धीरे दुभिक्ष आदि के कारण तथा कालदोष से एवं प्रज्ञा-प्रतिभा की क्षीणता से घटता चला गया। समय समय पर शेष रहे हुए श्रुत की रक्षा हेतु प्रागमों की वाचनाएं हुई हैं। उनका संक्षिप्त विवरण यहाँ दिया जाना अप्रासंगिक नहीं होगा। वाचनाएँ श्रमण भगवान् महावीर के परिनिर्वाण के पश्चात् प्रागम-संकलन हेतु पांच वाचनाएं हुई हैं। प्रथम वाचना-वीरनिर्वाण के 160 वर्ष पश्चात् पाटलिपुत्र में. द्वादशवर्षीय भीषण दुष्काल पड़ने के छिन्न-भिन्न हो गया। अनेक बहश्रतधर श्रमण ऋर काल के गाल में समा गये। अनेक अन्य विघ्नबाधाओं ने भी यथावस्थित सूत्रपरावर्तन में बाधाएं उपस्थित की। प्रागम ज्ञान की कड़ियां-लड़ियां विखलित हो गई। दुभिक्ष समाप्त होने पर विशिष्ट प्राचार्य, जो उस समय विद्यमान थे, पाटलिपुत्र में एकत्रित हुए / ग्यारह अंगों का व्यवस्थित संकलन किया गया / बारहवें दृष्टिवाद के एकमात्र ज्ञाता भद्रबाहु स्वामी उस समय नेपाल में महाप्राण-ध्यान की साधना कर रहे थे / संघ की प्रार्थना से उन्होंने बारहवें अंग की वाचना देने की स्वीकृति दी। मुनि स्थूलभद्र ने दस पूर्व तक प्रर्थसहित वाचना ग्रहण की। ग्यारहवें पूर्व की वाचना चल रही थी तभी स्थूलभद्र मुनि ने सिंह का रूप बनाकर बहिनों को चमत्कार दिखलाया / जिसके कारण भद्रबाहु ने प्रागे वाचना देना बंद कर दिया। तत्पश्चात् संघ एवं स्थूलभद्र के अत्यधिक अनुनय-विनय करने पर भद्रबाहु ने मूलरूप से अन्तिम चार पूर्वो की वाचना दी, अर्थ की दृष्टि से नहीं। शाब्दिक दृष्टि से स्थूलभद्र चौदह पूर्वी हुए किन्तु अर्थ की दृष्टि से दसपूर्वी ही रहे। 1. इह भूयान पुस्तकेषु वाचनाभेदो गलितानि च सूत्राणि बहले पुस्तके, यथावस्थितवाचनाभेदप्रतिपत्त्यर्थं गलित सूत्रोद्वारणार्थं चैवं सुगमत्यपि बिवियन्ते / जीवा. वृत्ति 3,376 2. तेण चितियं भगिणीणं इडिट दरिसेमित्ति सीहरूवं विउब्बई। -आवश्य, वृत्ति 3. तित्थोगालिय पइण्णय 742 / आवश्यकणि पृ. 187 परिशिष्ट पर्व सर्ग 1. [16] : Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय वाचना-प्रागम-संकलन का द्वितीय प्रयास ईस्वी पूर्व द्वितीय शताब्दी के मध्य में हुमा। सम्राट खारवेल जैनधर्म के परम उपासक थे। उनके सुप्रसिद्ध 'हाथीगुंफा' अभिलेख से यह सिद्ध हो चुका है कि उन्होंने उड़ीसा के कुमारी पर्वत पर जैनमुनियों का एक संघ बुलाया और मौर्यकाल में जो अंग विस्मृत हो गये थे, उनका पुनः उद्धार कराया था।' हिमवंत थेरावली नामक संस्कृत प्राकृत मिश्रित पट्टावली में भी स्पष्ट उल्लेख है कि महाराजा खारवेल ने प्रवचन का उद्धार करवाया था।' तृतीय वाचना-पागमों को संकलित करने का तीसरा प्रयास वीरनिर्वाण 827 से 840 के मध्य हुप्रा। उस समय द्वादशवर्षीय भयंकर दुष्काल से श्रमणों को भिक्षा मिलना कठिन हो गया था। श्रमणसंघ की स्थिति गंभीर हो गई थी। विशुद्ध प्राहार की अन्वेषणा-गवेषणा के लिए युवक मुनि दूर-दूर देशों की मोर चल पड़े। अनेक वृद्ध एवं बहुश्रुत मुनि आहार के प्रभाव में प्रायु पूर्ण कर गये। क्षुधा परीषह से संत्रस्त मुनि अध्ययन, अध्यापन, धारण और प्रत्यावर्तन कैसे करते ? सब कार्य अवरुद्ध हो गये / शनैः शनैः श्रुत का ह्रास होने लगा। अतिशायी श्रुत नष्ट हया / अंग और उपांग साहित्य का भी अर्थ की दृष्टि से बहुत बड़ा भाग नष्ट हो गया। दुर्भिक्ष की समाप्ति पर श्रमणसंघ मथुरा में स्कन्दिलाचार्य के नेतृत्व में एकत्रित हमा। जिन श्रमणों को जितना जितना अंश स्मरण था उसका अनुसंधान कर कालिक श्रुत और पूर्वगत श्रुत के कुछ अंश का संकलन हुमा। यह वाचना मथरा में सम्पन्न होने के कारण माथुरी वाचना के रूप में विश्रत हई। उस संकलित श्रुत के अर्थ की अनुशिष्टि प्राचार्य स्कन्दिल ने दी थी अतः उस अनुयोग को स्कन्दिली वाचना भी कहा जाने लगा। नंदीसत्र की चणि और वत्ति के अनसार माना जाता है कि दभिक्ष के कारण किंचिन्मात्र भी श्रतज्ञान कान्दल को छोड़कर शेष अनुयोगधर मुनि स्वर्गवासी हो चके थे। एतदर्थ प्राचार्य स्कन्दिल ने पुन: अनुयोग का प्रवर्तन किया जिससे प्रस्तुत वाचना को माथुरी वाचना कहा गया और सम्पूर्ण मनुयोग स्कन्दिल संबंधी माना गया। चतुर्य वाचना-जिस समय उत्तर, पूर्व और मध्यभारत में विचरण करने वाले श्रमणों का सम्मेलन मथुरा में हया था उसी समय दक्षिण और पश्चिम में विचरण करने वाले श्रमणों की एक वाचना (वीर निर्वाण सं. 827-840) वल्लभी (सोराष्ट्र) में प्राचार्य नागार्जुन की अध्यक्षता में हुई। किन्तु वहां जो श्रमण एकत्रित हुए थे उन्हें बहुत कुछ श्रुत विस्मृत हो चुका था। जो कुछ उनके स्मरण में था, उसे ही संकलित किया गया। यह वाचना वल्लभी वाचना या नागार्जुनीय वाचना के नाम से अभिहित है। पंचम वाचना-वीरनिर्वाण की दसवीं शताब्दी (980 या 993 ई. सन् 454-466 ) में देवद्धिगणी श्रमाश्रमण की अध्यक्षता में पुनः श्रमणसंघ वल्लभी में एकत्रित हुमा / देवद्धिगणी 11 अंग और एक पूर्व से भी 1. जर्नल आफ दि बिहार एण्ड उडीसा रिसर्च सोसायटी भा. 13 पृ. 336 2. जैनसाहित्य का वृहद् इतिहास भा. 1 पृ. 52. 3. प्रावश्यक चूर्णि। 4. नंदी चुणि पृ. 8, नन्दी गाथा 33, मलयगिरि वृत्ति / कहावली। जिनवचनं च दुष्षमाकालवशात् उच्छिन्नप्रायमिति मत्वा भगवद्भि-नागार्जुनस्कन्दिलाचार्यप्रभृतिभिः पुस्तकेषु न्यस्तम् / --योगशास्त्र, प्र 3, पृ. 207 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिक सूत्र के ज्ञाता थे। स्मृति की दुर्बलता, परावर्तन की न्यूनता, धृति का ह्रास और परम्परा की व्यवच्छित्ति अनेक कारणों से श्रतसाहित्य का अधिकांश भाग नष्ट हो गया था। विस्मृत श्रत को संकलित व संग्रहीत करने का प्रयास किया गया। देवद्धिगणी ने अपनी प्रखर प्रतिभा से उसको संकलित कर पुस्तकारूढ किया। पहले जो माथुरी और वल्लभी वाचनाएँ हुई थीं, उन दोनों वाचनाओं का समन्वय कर उनमें एकरूपता लाने का प्रयास किया गया। जिन स्थलों पर मतभेद की अधिकता रही वहाँ माथुरी वाचना को मूल में स्थान देकर वल्लभी वाचना के पाठों को पाठान्तर में स्थान दिया / यही कारण है कि प्रागमों के व्याख्याग्रन्थों में यत्र तत्र 'नागार्जुनीयास्तु पठन्ति' इस प्रकार निर्देश मिलता है। आगमों को पुस्तकारूढ करते समय देवद्धिगणी ने कुछ मुख्य बातें ध्यान में रखीं। प्रागमों में जहाँ-जहाँ समान पाठ प्राये हैं उनकी वहां पुनरावृत्ति न करते हुए उनके लिए विशेष ग्रन्थ या स्थल का निर्देश किया गया जैसे-'जहा उववाइए, जहा पण्णवणाए'। एक ही प्रागम में एक बात अनेक बार आने पर 'जाव' शब्द का प्रयोग करके उसका अन्तिम शब्द सूचित कर दिया है जैसे 'णागकुमारा जाव विहरंति' तेण कालेणं जाव परिसा णिग्गया / इसके अतिरिक्त भगवान महावीर के पश्चात् की कुछ मुख्य-मुख्य घटनाओं को भी प्रागमों में स्थान दिया। यह वाचना वल्लभी में होने के कारण 'वल्लभी वाचना' कही गई। इसके पश्चात् भागमों की फिर कोई सर्वमान्य वाचना नहीं हुई। वीरनिर्वाण की दसवीं शताब्दी के पश्चात् पूर्वज्ञान की परम्परा विच्छिन्न हो गई। उक्त रीति से प्रागम-साहित्य का बहुतसा भाग लुप्त होने पर भी आगमों का कछ मौलिक भाग माज भी सुरक्षित है। प्रश्न हो सकता है कि वैदिक वाङ्मय की तरह जैन श्रागम साहित्य पूर्णरूप से उपलब्ध क्यों नहीं है ? वह विच्छिन्न क्यों हो गया ? इसका मूल कारण यह है कि देवद्धिगणी क्षमाश्रमण के पूर्व आगम साहित्य लिखा नहीं गया / वह श्रुतिरूप में ही चलता रहा। प्रतिभासम्पन्न योग्य शिष्य के अभाव में गुरु ने वह ज्ञान शिष्य को नहीं बताया जिसके कारण श्रुत-साहित्य धीरे-धीरे विस्मृत होता गया ? यह सब होते हुए भी वर्तमान में उपलब्ध जो श्रुतसाहित्य है वह भी बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। उसमें प्रभ महावीर की वाणी अपने बहुत कुछ अंशों में अब भी प्राप्त होती है / यह कुछ कम गौरव की बात नहीं है। जीवाभिगम की विषय-वस्तु--- प्रस्तुत प्रागम में नौ प्रतिपत्तियां (प्रकरण ) हैं / प्रथम प्रतिपत्ति में जीवाभिगम और अजीवाभिगम का निरूपण किया गया है। अभिगम शब्द का अर्थ परिच्छेद अथवा ज्ञान है। आत्मतत्त्व-इस अनन्त लोकाकाश में या अखिल ब्रह्माण्ड में जो भी चराचर या दृश्य-अदृश्य पदार्थ या सद्रूप वस्तु-विशेष है वह सब जीव या अजीव-इन दो पदों में समाविष्ट है। मूलभूत तत्व जीव और अजीव है। शेष पूण्य-पाप पासव-संवर निर्जरा बंध और मोक्ष-ये सब इन दो तत्त्वों के सम्मिलन और वियोग की परिणतिमात्र हैं। अन्य प्रास्तिक दर्शनों ने भी इसी प्रकार दो मूलभूत तत्त्वों को स्वीकार किया है। वेदान्त ने ब्रह्म और माया के रूप में इन्हें माना है। सांख्यों ने पुरुष और प्रकृति के रूप में, बौद्धों ने विज्ञानघन और वासना 1. वल्लहिपुरम्मि नयरे देवढिपमुहेण समणसंधेण / पुत्थइ आगमो लिहियो नवसयनसीप्रानो ववीरानो। 2. जदिस्थ णं लोगे तं सवं दुपदोप्रारं, तं जहा-जीवच्चेव अजीबच्चेव / -स्थानांग द्वितीय स्थान Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के रूप में, वैदिकदर्शन ने प्रात्मतत्त्व और भौतिकतत्त्व के रूप में इसी बात को मान्यता प्रदान की है। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि आस्तिक दर्शनों की भित्ति आत्मवाद है। विशेषकर जैन धर्म ने प्रात्मतत्त्व का बहुत ही सूक्ष्मता के साथ विस्तृत विवेचन किया है। जैन चिन्तन की धारा का उद्गम आत्मा से होता है और अन्त मोक्ष में प्राचारांग सूत्र का प्रारम्भ ही प्रात्म-जिज्ञासा से हमा है। उसके आदि वाक्य में ही कहा गया है.---'इस संसार मे कई जीवों को यह ज्ञान और भान नहीं होता कि उनकी प्रात्मा किस दिशा से प्राई है और कहाँ जाएगी? वे यह भी नहीं जानते कि उनकी प्रात्मा जन्मान्तर में संचरण करने वाली है या नहीं? मैं पूर्व जन्म में कोन था और यहां से मर कर दूसरे जन्म में क्या होऊंगा-यह भी वे नहीं जानते / इस प्रात्मजिज्ञासा से ही धर्म और दर्शन का उदगम है। वेदान्त दर्शन का आरम्भ भी ब्रह्मसूत्र के 'अथातो ब्रह्मजिज्ञासा' से हुमा है / यद्यपि वेदों में भौतिक समृद्धि हेतु यज्ञादि के विधान और इन्द्रादि देवों की स्तुति की बहुलता है किन्तु उत्तरवर्ती उपनिषदों और प्रारण्यकों में आत्मतत्त्व का गहन चिन्तन एवं निरूपण हुआ है। उपनिषद् के ऋषियों का स्वर निकला-'आत्मा हि दर्शनीय, श्रवणीय मननीय और ध्यान किए जाने योग्य है। आत्मजिज्ञासा से प्रारम्भ हा यह चिन्तन-प्रवाह क्रमशः विकसित होता हमा, सहस्रधाराओं में प्रवाहित होता हा अन्ततः ममृतत्त्व--मोक्ष के महासागर में विलीन हो जाता है। उपनिषद् में मंत्रेयी याज्ञवल्क्य से कहती है-'जिससे मैं अमृत नहीं बनती उसे लेकर क्या करू! जो अमृतत्वका साधन हो वही मुझे बताइए। जैन चिन्तकों के अनुसार प्रत्येक प्रात्मा की अन्तिम मंजिल मुक्ति है / मुक्ति की प्राप्ति के लिए ही समस्त साधनाएँ और आराधनाएँ हैं। समस्त प्रात्मसाधकों का लक्ष्य मोक्ष प्राप्त करना है अतएव वे साधक मुमुक्षु कहलाते हैं / से लगाकर मोक्ष की प्राप्ति पर्यन्त पुरुषार्थ में ही प्रात्मा की कृतार्थता और सार्थकता है एवं यही सिद्धि है। प्रतः जैन सिद्धान्त द्वारा मान्य नवतत्त्वों में पहला तत्त्व जीव है और अन्तिम तत्व मोक्ष है। बीच के तत्त्व प्रात्मा की विभाव परिणति से बंधने वाले अजीव कर्मदलिकों की विभिन्न प्रक्रियायों से सम्बन्धित हैं। सुख देने वाला पुद्गल-समूह पुण्यतत्त्व है। दुःख देने वाला और ज्ञानादि को रोकने वाला तत्व पाप है। प्रात्मा की मलिन प्रवृत्ति प्रास्रव है / इस मलिन प्रवृत्ति को रोकना संवर है। कर्म के प्रावरण का प्रांशिक क्षीण होना निर्जरा है। कर्मपुदगलों का प्रात्मा के साथ बंधना बंध तत्त्व है। कर्म के प्रावरणों का सर्वथा क्षीण हो जाना मोक्ष है। जीवात्मा जब तक विभाव दशा में रहता है तब तक वह अजीव पुद्गलात्मक कर्मवर्गणाओं से प्राबद्ध हो जाता है। फलस्वरूप उसे शरीर के बन्धन में बंधना पड़ता है। एक शरीर से दूसरे शरीर में जाना पड़ता है। इस प्रकार शरीर धारण करने और छोड़ने की परम्परा चलती रहती है। यह परम्परा ही जन्ममरण है। इस जन्म-मरण के चक्र में विभावदशापन्न प्रात्मा परिभ्रमण करता रहता है। यही संसार है। इस जन्ममरण की परम्परा को तोड़ने के लिए ही भव्यात्माओं के सारे धार्मिक और आध्यात्मिक प्रयास होते हैं। स्वसंवेदनप्रत्यक्ष एवं अनुमान- पागम प्रादि प्रमाणों से आत्मा की सिद्धि होती है / प्राणिमात्र को 'मैं हूं' ऐसा स्वसंवेदन होता है / किसी भी व्यक्ति को अपने अस्तित्व में शंका नहीं होती। 'मैं सुखी हूं' अथवा 1. इहमेगेसिनो सण्णा हवइ कम्हाग्रो दिसामो वा प्रायनो अहमसि अत्थि मे पाया उववाइए पत्थि मे प्राया उववाइए ? के वा अमंसि ? के वा इप्रो चुप्रो इह पेच्चा भविस्सामि / -~प्राचारांग 1-1 2. प्रात्मा वै दृष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः / ---बृहदारण्योपनिषद् 2-4-5 // 3. येनाहं नामृता स्यां किं तेन कुर्याम् / यदेव भगवानवेद तदेव मे व हि // बृहदारण्योपनिषद् [19] Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'मैं दु:खी हूं' इत्यादि प्रतीति में जो 'मैं' है वही आत्मा की प्रत्यक्षता का प्रमाण है। यह 'अहं प्रत्यय' ही मात्मा के अस्तित्व का सूचक है। प्रात्मा प्रत्यक्ष है क्योंकि उसका ज्ञानगुण स्वसंवेदन-सिद्ध है / घटपटादि भी उनके गुण-रूप प्रादि का प्रत्यक्ष होने से ही प्रत्यक्ष कहे जाते हैं। इसी तरह आत्मा के ज्ञान गुण का प्रत्यक्ष होने से प्रात्मा भी प्रत्यक्षसिद्ध होती है। प्रात्मा का अस्तित्व है क्योंकि उसका असाधारण गुण चैतन्य देखा जाता है। जिसका असाधारण गुण देखा जाता है उसका अस्तित्त्व अवश्य होता है जैसे चक्षु / चक्षु सूक्ष्म होने से साक्षात् दिखाई नहीं देती लेकिन अन्य इन्द्रियों से न होने वाले रूप विज्ञान को उत्पन्न करने की शक्ति से उसका अनुमान होता है। इसी तरह प्रात्मा का भी भूतों में न पाये जाने वाले चैतन्यगुण को देखकर अनुमान किया जाता है। भगवती सूत्र में कहा गया है कि-'गौतम ! जीव नहीं होता तो कौन उत्थान करता? कौन कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार-पराक्रम करता? यह कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार-पराक्रम जीव की सत्ता का प्रदर्शन है। कौन ज्ञानपूर्वक क्रिया में प्रवृत्त होता? ज्ञानपूर्वक प्रवृत्ति और निवृत्ति भी जीव की सत्ता का प्रदर्शन है।' पुद्गल के कार्यों को बताने वाला भगवती सूत्र का पाठ भी बहत मननीय है। वहां कहा गया हैगौतम ! पूदगल नहीं होता तो शरीर किससे बनता? विभतियों का निमित्त कौन होता? वैक्रिय शरीर किससे बनता ? कोन तेज, पाचन और दीपन करता ? सुख-दुःख की अनुभूति और व्यामोह का साधन कौन बनता ? शब्द, रूप, गंध, रस, स्पर्श और इनके द्वार कान, आंख, नाक, जीभ और चर्म कैसे बनते ? मन. वाणी और स्पन्दन का निमित्त कौन बनता ? श्वास और उच्छ्वास किसका होता ? अन्धकार और प्रकाश नहीं होते, आहार और विहार नहीं होते, धूप और छांह नहीं होती। कौन छोटा होता, कौन बड़ा होता? कौन लम्बा होता, कौन चौड़ा ? त्रिकोण और चतुष्कोण नहीं होते / वर्तुल और परिमंडल भी नहीं होते / संयोग और वियोग नहीं होते ? सुख और दुःख, जीवन और मरण नहीं होते / यह विश्व अदृश्य ही होता ?' भगवतीसूत्र के उक्त उद्धरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि विभावदशापन्न संसारी आत्मा कर्मपुद्गलों के साथ क्षीर-नीर की तरह सम्बद्ध है / प्रात्मा और शरीर का गाढ़ सम्बन्ध हो रहा है। इस संयोग से ही विविध प्रवृत्तियां होती हैं / प्राहार, श्वासोच्छ्वास, इन्द्रियां, भाषा और मन-ये न प्रात्मा के धर्म हैं और न पुद्गल के। ये संयोगज हैं-प्रात्मा और शरीर दोनों के संयोग से उत्पन्न होते हैं। भूख न प्रात्मा को लगती है और न प्रात्मरहित शरीर को / भोगोपभोग की इच्छा न प्रात्मा में होती है न प्रात्मरहित शरीर में। प्रात्मा और शरीर का योग ही सांसारिक जीवन है। कर्मों के विविध परिणामों के फलस्वरूप संसारापन्न जीव विभिन्न स्वरूपों को प्राप्त करता है। वह कभी स्थावर रूप में जन्म लेता है, कभी त्रसरूप में। कभी वह एकेन्द्रिय बनता है, कभी द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और कभी पंचेन्द्रिय बनता है। कभी वह स्त्री रूप में जन्म लेता है, कभी पुरुषरूप में तो कभी नपुंसकरूप में / त्पन्न होता है, कभी पशु-पक्षी के रूप में जन्म लेता है, कभी मनुष्य बनता है तो कभी देवलोक में पैदा होता है / चौरासी लाख जीवयोनियों और कुलकोडियों में वह जन्म-मरण करता है और विविध परिस्थितियों से मुजरता है। जीव की उन विभिन्न स्थितियों का जैनशास्त्रकारों ने बहुत ही सूक्ष्म और विस्तृत 1. भगवती शतक 13 उ. 4, सू. 2-10 / 2. भगवती शतक 13 उ. 4 / [20] Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिन्तन विविध आयामों से किया है। विविध दष्टिकोणों से विविध प्रकार का वर्गीकरण करके आत्मतत्व के विषय में विपुल जानकारी शास्त्रकारों ने प्रदान की है। वही जीवाभिगम की नो प्रतिपत्तियों में संकलित है / प्रथम प्रतिपत्ति-इस प्रतिपत्ति की प्रस्तावना में कहा गया है कि सर्वज्ञ सर्वदर्शी तीर्थकर परमात्मा के प्रवचन के अनुसार ही स्थविर भगवंतों ने जीवाभिगम और अजीवाभिगम की प्रज्ञापना की है। पाल्पवक्तव्यता होने से पहले अजीवाभिगम का कथन करते हए बताया गया है कि अजीवाभिगम दो प्रकार का है-रूपी अजीवाभिगम और प्ररूपी अजीवाभिगम / अरूपी अजीवाभिगम के दस भेद बताये हैं-धर्मास्तिकाय के स्कन्ध. देश, प्रदेश, अधर्मास्तिकाय के स्कन्ध, देश, प्रदेश, आकाशास्तिकाय के स्कन्ध, देश, प्रदेश और प्रद्धासमय ( काल)। धर्मास्तिकायादि का अस्तित्व जैन सिद्धान्तानुसार धर्म गति-सहायक तत्त्व है और अधर्म स्थिति-सहायक तत्त्व / आकाश और काल को अन्य दर्शनकारों ने भी माना है परन्तु धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय को जैनसिद्धान्त के सिवाय किसी ने भी नहीं माना है / जैन सिद्धान्त की यह सर्वथा मौलिक अवधारणा है / इस मौलिक अवधारणा के पीछे प्रमाण और युक्ति का सुदृढ आधार है। जैनाचार्यों ने युक्तियों के आधार से सिद्ध किया है कि लोक और अलोक की व्यवस्था के लिए कोई नियामक तत्त्व होना ही चाहिए / जीव और पुद्गल जो गतिशील हैं उनकी गति लोक में ही होती है, प्रलोक में नहीं होती। इसका नियामक कोई तत्त्व अवश्य होना चाहिए। अन्यथा जीव और पुद्गलों की अनन्त अलोकाकाश में भी गति होती तो अनवस्थिति का प्रसंग उपस्थित हो जाता और सारी लोकव्यवस्था छिन्नभिन्न हो जाती। प्रतएव जैन ताकिक चिन्तकों ने गति नियामक तत्त्व के रूप में धर्म की और स्थितिनियामक तत्त्व के रूप में अधर्म की सत्ता को स्वीकार किया है। प्राधुनिक विज्ञान ने भी गतिसहायक तत्त्व को (Medium of Motion) स्वीकार किया है। न्यूटन और आइंस्टीन ने गति तत्त्व स्थापित किया है / वैज्ञानिकों द्वारा सम्मत ईथर (Ether) गति तत्त्व का ही दूसरा नाम है। लोक परिमित है। लोक के परे अलोक अपरिमित है। लोक के परिमित होने का कारण यह है कि द्रव्य अथवा शक्ति लोक के बाहर नहीं जा सकती। लोक के बाहर उस शक्ति का प्रभाव है जो गति में सहायक होती है। प्रभु महावीर ने कहा है कि जितने भी स्पन्दन हैं वे सब धर्म की सहायता से होते हैं। यदि धर्मतत्त्व न होता तो कौन प्राता ? कौन जाता? शब्द की तरंगे कैसे फैलती ? आँखें कैसे खुलती? कौन मनन करता? कौन बोलता ? कौन हिलता- डुलता? यह विश्व अचल ही होता / जो चल हैं उन सबका निमित्त गति सहायक तत्त्व धर्म ही है। इसी तरह स्थिति का सहायक अधर्म तत्त्व न होता तो कौन चलते-चलते हो ठहर पाता ? कौन बैठता ? सोना कैसे होता ? कौन निस्पन्द बनता ? निमेष कैसे होता? यह विश्व सदा चल ही बना होता जो गतिपूर्वक स्थिर हैं उन सबका पालम्बन स्थिति सहायक तत्त्व अधर्म-अधर्मास्तकाय है। उक्त रीति से धर्म-अधर्म के रूप में जैन चिन्तकों ने सर्वथा मौलिक अवधारणा प्रस्तुत की है। आकाश की सत्ता तो सब दार्शनिकों ने मानी है। आकाश नहीं होता तो जीव और पुद्गल कहाँ रहते ? धर्मस्तिकाय अधर्मास्तिकाय कहाँ व्याप्त होते ? काल कहां परतता? पुद्गल का रंगमंच कहाँ बनता? यह विश्व निराधार ही होता। काल प्रौपचारिक द्रव्य है। निश्चयनय की दृष्टि से काल जीव और अजीव की पर्याय है। किन्तु व्यवहार नय की दृष्टि से वह द्रव्य है / क्योंकि वर्तना प्रादि उसके उपकार हैं। जो उपकारक है वह द्रव्य है। [21] Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदार्थों की स्थितिमर्यादा आदि के लिए जिसका व्यवहार होता है वह प्रावलिकादि रूप काल जीव-जीव की पर्याय होने से उनसे भिन्न नहीं है। रूपी अजीवाभिगम चार प्रकार का है-स्कन्ध, देश, प्रदेश और परमाणु पुद्गल / यह पुद्गल द्रव्य मूर्तिक है। यह प्रखण्ड द्रव्य नहीं है। इसका सबसे छोटा रूप एक परमाणु है तो सबसे बड़ा रूप है मचित्त समें संयोग-विभाग, छोटा-बड़ा, हल्का भारी, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, संस्थान पाये जाते हैं। जैन सिद्धान्त ने प्रकाश, अन्धकार, छाया, पातप तथा शब्द को पौद गलिक माना है। शब्द को पौद्गलिक मानना जैन तत्वज्ञान की सूक्ष्म दृष्टि का परिचायक है। न्याय-वैशेषिक दर्शन ने शब्द को प्रकाश का गुण माना है। अाज के विज्ञान ने शब्द की पौगलिकता को स्पष्ट कर दिया है। जिस युग में आधुनिक वैज्ञानिक उपकरण उपलब्ध नहीं थे तब जैन चिन्तकों ने शब्द को पौदगलिक कहा और यह भी कहा कि हमारा शब्द क्षण मात्र में लोकव्यापी बन जाता है। तार का सम्बन्ध न होते हुए भी सुघोषा घंटा का स्वर असंख्य योजन दूरी पर रही हुई घण्टाओं में प्रतिध्वनित होता है-यह उस समय का विवेचन है जब रेडियो वायरलेस आदि का अनुसन्धान नहीं हुया था। उक्त रीति से अजीवाभिगम का निरूपण करने के पश्चात् जीवाभिगम का कथन प्राता है / आत्मा का शुद्धाशुद्ध स्वरूप जीवाभिगम के दो भेद किये गये हैं-संसार समापन्नक जीव और असंसार समापन्नक जीव / जो जीव अपनी ज्ञान-दर्शन-चारित्र की उत्कृष्ट पाराधना करके अपने विशुद्ध स्वरूप को प्राप्त कर चुके हैं वे जीव असंसारसमापन्नक हैं। वे फिर संसार में नहीं पाते। जैनसिद्धान्त को मान्यता है कि---जैसे बीज के दग्ध होने पर उससे अंकुर उत्पन्न नहीं हो सकते उसी तरह कर्मरूपी बीज के दग्ध होने पर फिर भवरूपी अंकुर प्रस्फुटित नहीं हो सकते / बौद्धदर्शन या वैदिकदर्शन की तरह जनदर्शन अवतारवाद में विश्वास नहीं करता। वह उत्तारवादी दर्शन है। संसारवर्ती प्रात्मा ही विकास करता हूआ सिद्धस्वरूप बन जाता है फिर वह संसार में नहीं पाता। . संसार-समापन्नक जीव वे हैं जो विभावदशापन्न होकर कर्मबन्ध की विचित्रता को लेकर नानाप्रकार की सांसारिक शरीर, इन्द्रिय, योग, उपयोग, लेश्या, वेद आदि स्थितियों को प्राप्त करते हैं। यह प्रात्मा की अशुद्ध दशा है। सिद्ध अवस्था प्रात्मा की शुद्ध अवस्था है और संसारवर्ती सशरीर दशा प्रात्मा की अशुद्ध अवस्था है। - आत्मा अपने मौलिकरूप में शुद्ध है किन्तु वह कब अशुद्ध बना, यह नहीं कहा जा सकता। जैसे अण्डा और मुर्गी का सन्तति-प्रवाह अनादिकालीन है, यह नहीं कहा जा सकता कि अण्डा पहले था या मुर्गी पहले ? वैसे ही संसारवर्ती प्रात्मा कब अशुद्ध बना यह नहीं कहा जा सकता। अनादिकाल से प्रात्मा और कर्म का सम्बन्ध चला पा रहा है अतएव अनादिकाल से प्रात्मा अशुद्ध दशा को प्राप्त है। इस प्रशुद्ध दशा से शुद्ध दशा की प्राप्त करना ही उसका लक्ष्य है धौर उसी के लिए सब साधनाएं और अराधनाएँ हैं। सांख्यदर्शन का मन्तव्य है कि प्रात्मा शुद्ध ही है। वह अशुद्ध नहीं होती। वह न बंधती है और न मुक्त होती है। बंध और मोक्ष प्रकृति का होता है, पुरुष-ग्रात्मा नित्य है, अकर्ता है, निर्गुण है। जैसे नर्तकी रंगमंच पर अपना नृत्य बताकर निवृत्त हो जाती है वैसे ही प्रकृति अपना कार्य पूरा कर निवृत्त हो जाती है—यह पुरुष और प्रकृति का वियोग ही मुक्ति है। ____सांख्यदर्शन की यह मान्यता एकांगी और अपूर्ण है / यदि प्रात्मा शुद्ध और शाश्वत है तो फिर साधना और आराधना का क्या प्रयोजन रह जाता है ? साधना की प्रावश्यकता तभी होती है जब प्रात्मा अशुद्ध हो / [22[ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेन दृष्टि से शरीरमुक्त पात्मा शुद्ध प्रात्मा है और शरीरयुक्त प्रात्मा अशुद्ध / शरीरयुक्त प्रात्मा में प्रात्मा और कर्मपुद्गल का योग है। इस योग के कारण ही प्रात्मा की अशुद्ध पर्यायें हैं। इन अशुद्ध पर्यायों के कारण ही जैनसिद्धान्त ने आत्मा को परिणमनशील कहा है / वह न एकान्ततः नित्य है और न एकान्ततः अनित्य है अपितु द्रव्यरूप से नित्य होते हुए भी पर्याय रूप से अनित्य है। नित्यानित्यत्व बौद्धदर्शन प्रात्मा को एकान्ततः अनित्य कहता है। यह मन्तव्य भी एकांगी और अपूर्ण है / प्रात्मा को एकान्त क्षणभंगुर मानने पर बन्ध-मोक्ष प्रादि घटित नहीं हो सकते / ऐसी स्थिति में उसके द्वारा मान्य कर्मवाद और पुनर्जन्मवाद भी घटित नहीं होते। बौद्धदर्शन प्रात्मा के विषय में वस्तुतः अस्पष्ट है। एक ओर वह निरात्मवादी है तो दूसरी ओर पुनर्जन्म और कर्मवाद को मानता है। जनदर्शन प्रात्मा के सम्बन्ध में बहुत स्पष्ट है / वह प्रात्मा को अनेकान्तदृष्टि से नित्यानित्य' रूप मानता है, उसका बंध और मोक्ष होना मानता है। यहां तक कि वह प्रात्मा को अमूर्त मानता हुमा भी सांसारिक आत्मा को कथंचित् मूर्त भी मानता है। संसारी प्रात्मा शरीर धारण करती है, इन्द्रियों के माध्यम से बह वस्तु को ग्रहण करती है, आहार, श्वासोच्छवास, भाषा और मनयुक्त होती है। ये सब परिणतियां होने के कारण आत्मा को कथं नित् मूर्त भी माना गया है। सांसारिक जीवों की सारी प्रवत्तियां प्रात्मा और शरीर के योम से होती हैं प्रतएव वे यौगिक हैं। अकेली आत्मा में ये क्रियाएँ नहीं हो सकती हैं और अकेले शरीर में भी ये क्रियाएँ सम्भव नहीं है। नवविध मन्तव्य संसारसमापनक जीव के भेदों को बताने के लिए नौ प्रकार की मान्यताओं का उल्लेख किया गया है। प्रथम प्रत्तिपत्ति (मान्यता) के अनुसार संसारी जीव के दो भेद किये गये हैं-अस और स्थावर / दूसरी प्रतिपत्ति के अनुसार तीन प्रकार कहे गये हैं-स्त्री, पुरुष पोर नपुंसक / तीसरी प्रतिपत्ति के अनुसार संसारी जीव के चार भेद कहे गये हैं- रयिक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव / चौथी प्रतिपत्ति के अनुसार पांच भेद कहे गये हैंएकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय / पंचम प्रतिपत्ति के अनुसार संसारी जीव के छह भेद हैं-पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और सकाय। छठी प्रतिप्रति के अनुसार संसारी जीव के सात भेद कहे गये हैं-नैरयिक, तिर्यंच, तिर्यचिनी, मनुष्य, भानुषी, देव और देवी। सप्तम प्रतिपत्ति में संसारी जीव के आठ भेद प्ररूपित हैं. प्रथम समयवर्ती नैरयिक, अप्रथम समयवर्ती नरयिक, एवं प्रथम समय तिर्यञ्च अप्रथम समय तिर्यंच, प्रथम समय मनुष्य, अप्रथम समय मनुष्य, प्रथम समय देव, और अप्रथम समय देव / अष्टम प्रतिपत्ति में सांसारिक जीव के नौ भेद प्ररूपित हैं—पृथ्वीकायिक, अपकायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय / नवम प्रतिपत्ति में संसारी जीव के दस प्रकार बताये हैं--प्रथम समय एकेन्द्रिय से प्रथम समय पंचेन्तिय तक पांच और अप्रथम समय एकेन्द्रिय से अप्रथम समय पंचेन्द्रिय तक पांच; कुल मिलाकर दस प्रकार के संसारी जीव बनाये गये हैं। उक्त सब प्रतिपत्तियां दिखने में पृथक्-पृथक्-सी प्रतीत होती हैं परन्तु तात्त्विक दृष्टि से उनमें कोई विरोध नहीं है। अलग-अलग दृष्टिकोण से एक ही वस्तु का स्वरूप अलग-अलग प्रतीत होता है किन्तु उनमें विरोध नहीं . होता। वर्गीकरण की भिन्नता को लेकर अलग-अलग प्ररूपणा है परन्तु उक्त सब प्रतिपत्तियाँ अविरोधिनी हैं। अनेकान्त दृष्टि की यही विशेषता है। [23] Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असत्व और स्थावरत्व प्रथम प्रतिपत्ति के अनुसार संसारवर्ती जीव के दो भेद हैं-स और स्थावर / स्थावर के तीन भेद किये गये हैं-पृथ्वीकायिक, अपकायिक और वनस्पतिकायिक / बस के भी तीन भेद बताये हैं-तेजस्कायिक, वायुकायिक और उदार त्रस / जैन तीर्थङ्कारों ने अपने विमल एवं निर्मल केवलज्ञान के पालोक में जगत के जीवों का सूक्ष्म निरीक्षण एवं परीक्षण किया है। प्रतएव वे 'सय्य जगजीवजोणिवियाणक' हैं जगत् के जीवों की सर्वयोनियों के विज्ञाता हैं। उन तीर्थङ्करों ने न केवल चलते-फिरते दिखाई देने वाले जीवों के अस्तित्व को स्वीकार किया है अपितु पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति में भी जीवों का सद्भाव जाना है और प्ररूपित किया है। जैन सिद्धान्त के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं भी ऐसा निरूपण एवं प्रज्ञापन दृष्टिगोचर नहीं होता / जैन तत्त्व चिन्तकों का स्पष्ट निर्देश है कि पृथ्वी आदि में भी जीव हैं और अहिंसक साधक को इन सूक्ष्म जीवों की भी वैसी ही रक्षा का प्रयास करना चाहिए जैसे स्थल प्राणियों की रक्षा का। केवल मनुष्य या पशुओं की रक्षा में अहिंसा देवी की माराधना समाप्त नहीं होती परन्तु पृथ्वी, अप्, तेज वायु और वनस्पति के अध्यक्त चेतना वाले जीवों की भी अहिंसा का पूर्ण लक्ष्य रखना चाहिए। पृथ्वीकायादि में जीवास्तित्व का प्रतिपादन करते हुए नियुक्तिकार ने कहा है कि उपयोग, योग, अध्यवसाय, मतिश्रुतज्ञान, अचक्षुदर्शन, प्रष्ट प्रकार के कर्मों का उदय और बंध लेश्या, संज्ञा, श्वासोच्छ्वास और कषाय-ये जीव में पाये जाने वाले गुण पृथ्वीकाय आदि में भी पाये जाते हैं। प्रतः मनुष्यादि की तरह पृथ्वीकायादि को भी सचित्त--जीवात्मक समझना चाहिए। यद्यपि पृथ्वीकायादिक में उपर्युक्त लक्षण अव्यक्त हैं तदपि अव्यक्त होने से उनका निषेध नहीं किया जा सकता। इसे स्पष्ट करने के लिए उदाहरण दिया गया हैकिसी पुरुष ने अत्यन्त मादक मदिरा का पान अत्यधिक मात्रा में किया हो और ऐसा करने से वह बेजान एवं मूछित हो गया हो तब उसकी चेतना अव्यक्त हो जाती है लेकिन इतने मात्र से उसे अचेतन नहीं कहा जा सकता। ठीक इसी तरह पृथ्वीकायादिक में चेतना-शक्ति अव्यक्त है परन्तु उसका निषेध नहीं किया जा सकता है। पृथ्वीकायादिक एकेन्द्रिय जीवों के कान, नेत्र, नाक, जीभ, वाणी और मन नहीं होते हैं तो वे दुःख का वेदन किस प्रकार करते हैं, यह प्रश्न सहज ही उठाया जा सकता है। इसका समाधान प्राचारांग सूत्र में एक उदाहरण द्वारा किया गया है। जैसे कोई जन्म के अंधे, बहरे, लले-लंगड़े तथा अवयवहीन किसी प्रादि शस्त्र से पांव, टकने, पिण्डी, घुटने, जंघा, कमर, नाभि, पेट, पांसली, पीठ, छाती, हर भजा, हाथ, अंगूलि, नख, गर्दन, दाढी, होठ, दांत, जीभ, तालू, गाल, कान, नाक, प्रांख, भौंह, ललाट, मस्तक मादि-अवयवों को छेदे-भेदे तो उसे वेदना होती है किन्तु वह उस वेदना को व्यक्त नहीं कर सकता। इसी प्रकार एकेन्द्रिय पृथ्वीकायादिक जीवों को अव्यक्त वेदना होती है। जैसे मूछित अवस्था में कोई किसी को पीड़ादे तो उसे पीड़ा होती है वैसे ही पृथ्वीकायादिक जीवों की वेदना को समझना चाहिए। महामनीषी प्राचार्यों ने विविध युक्तियों से एकेन्द्रिय जीवों में सचेतनता सिद्ध की है। वनस्पति की सचेतनता तो अधिक स्पष्टरूप में प्रतीत होती है। विशेषावश्यक भाष्य प्रादि ग्रन्थों में पुष्ट एवं प्रबल प्राधारों से प्रमाणित किया गया है कि उनमें स्पष्ट चेतना है। नारी शरीर के साथ वनस्पति की समानता प्रतिपादित करते हुए प्राचारांग सूत्र में कहा गया है कि-नर-नारी के शरीर की तरह वनस्पति जाति ( जन्म ) स्वभाववाली है, वृद्धिस्वभाववाली है, सचित्त है, काटने पर म्लान होने वाली है। इसे भी पाहार की अपेक्षा रहती है, इसमें भी विकार होते हैं। प्रत: नर-नारी के शरीर की तरह वनस्पति भी सचेतन है। [24] Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राधनिक विज्ञान ने भी वनस्पति की सचेतनता सिद्ध कर दी है। वैज्ञानिक साधनों द्वारा यह प्रत्यक्ष करा दिया गया है कि वनस्पति में क्रोध, प्रसन्नता, हास्य, राग प्रादि भाव पाये जाते हैं। अ. बे हास्य प्रकट करती हुई और निन्दा करने से क्रोध करती हुई दिखाई दी हैं। प्रस्तुत प्रतिपत्ति में संसारी जीव के त्रस और स्थावर-ये दो भेद किये गये हैं / त्रस की व्युत्पत्ति करते हुए वृत्ति में कहा गया है कि-उष्णादि से अभितप्त होकर जो जीव उस स्थान से अन्य स्थान पर छायादि हेतु जाते हैं, वे स हैं। इस व्युत्पत्ति के अनुसार अस नामकर्म के उदय वाले जीवों की ही असत्व में परिगणना होती है, शेष की नहीं / परन्तु यहां स्थावर नामकर्म के उदय वाले तेजस्काय और वायुकाय को भी अस कहा गया है। अतएव यहाँ प्रसत्व की व्युत्पत्ति इस प्रकार करनी चाहिए जो प्रभिसंधिपूर्वक या अनभिसंधिपूर्वक भी ऊर्ध्व, अधः, तिर्यक् चलते हैं वे बस हैं, जैसे तेजस्काय, वायुकाय, और द्वीन्द्रिय प्रादि / उष्णादि अभिताप के होने पर भी जो उस स्थान को नहीं छोड़ सकते हैं, वहीं रहते हैं वे स्थावर जीव हैं, जैसे पृथ्वी, जल और वनस्पति / / प्राय: स्थावर के रूप में पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति- ये पांचों गिने जाते हैं। प्राचारांग में यही कथन है। किन्तु यहाँ गति को लक्ष्य में रखकर तेजसू और वायु को अस कहा गया है। क्योंकि अग्नि का ऊर्ध्वगमन और वायु का तिर्यगगमन प्रसिद्ध है। दोनों कथनों का सामंजस्य स्थापित करते हुए कहा गया है कि अस जीव दो प्रकार के हैं-गतित्रस और लब्धित्रस / तेजस् और वायु केवल गतित्रस हैं, लब्धित्रस नहीं है। जिनके त्रस नामकर्म रूपी लब्धि का उदय है वे ही लब्धित्रस हैं जैसे द्वीन्द्रिय प्रादि उदार अस, तेजस् और वायु में यह लन्धि न होने से वे लब्धित्रस न होकर स्थावर में परिगणित होते हैं। केवल गति की अपेक्षा से ही उन्हें यहाँ त्रस के रूप में परिगणित किया गया है। पृथ्वीकाय के दो भेद किये गये हैं---सूक्ष्म पृथ्वीकाय और बादर पृथ्वीकाय / सूक्ष्म पृथ्वीकाय के दो भेद बताये हैं-पर्याप्तक और अपर्याप्तक / तदनन्तर सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों की विशेष जानकारी देने के लिए 23 द्वारों के द्वारा उनका निरूपण किया गया है। वे 23 द्वार हैं-शरीर, प्रवगाहना, संहनन, संस्थान, कषाय, संज्ञा, लेश्या, इन्द्रियां, समुद्धात, संजी-प्रसंज्ञी, वेद, पर्याप्ति-अपर्याप्ति, दृष्टि, दर्शन, ज्ञान, योग, उपयोग, पाहार, उपपात, स्थिति, समुद्घात करके मरण, च्यवन, गति और प्रागति / प्रश्न के रूप में पूछा गया है कि भगवन् ! उन सूक्ष्म पृथ्वीकायिकों के शरीर कितने होते हैं ? उत्तर में कहा गया है कि उनके तीन शरीर होते हैं यथाऔदारिक, तेजस और कार्मण / इस तरह शेष द्वारों को लेकर भी प्रश्नोत्तर किये गये हैं। 1. तत्र सन्ति--उष्णाद्यभितप्ता: सन्तो विवक्षितस्थानाद्विजन्ति गच्छन्ति च छायाद्यासेवनार्थ स्थानान्तरमिति प्रसाः, प्रनया च व्युत्पत्त्या प्रसास्त्रसनामकर्मोदयवर्तिनः एव परिगृह्यन्ते, न शेषाः, अथ शेषरपीह प्रयोजनं, तेषामप्यने वक्ष्यमाणत्वात्, तत एवं व्युत्पत्तिः---त्रसन्ति अभिसन्धिपूर्वकमनभिसन्धिपूर्वकं वा ऊर्ध्वमधस्तिर्यक् चलन्तीति असा:-तेजोवायवो द्वीन्द्रियादयश्र / उष्णाद्यभितापेऽपि तत्स्थानपरिहारासमर्थाः सन्तस्तिष्ठन्ती त्येवं शीलाः स्थावरा:-पृथिव्यादयः / --मलयगिरि वृत्तिः सरीरोगाहण संघयण संठागकसाय तह य हंति सनायो। लेसिदियसमुग्धाए सन्नी वेए य पज्जत्ती // 1 // दिट्ठी दंसणनाणे जोगुवप्रोगे तहा किमाहारे। उववाय ठिई समुग्धाय चवणमइरागई चेव // 2 // [ 25 ] Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी तरह बादर पृथ्वीकाय के भी दो भेद बताये हैं-श्लक्ष्ण बादर पृथ्वीकाय और खरबादर पृथ्वीकाय / श्लक्ष्ण पृथ्वीकाय के सात भेद और खरवादर पृथ्वीकाय के अनेक भेद बताये हैं। फिर इनके पर्याप्त और अपर्याप्त भेद करके पूर्वोक्त 23 द्वार घटाये हैं। तदनन्तर अपकाय के सूक्ष्म और बादर तथा पर्याप्तक और अपर्याप्त भेद किये गये हैं और पूर्वोक्त 23 द्वारों से उनका निरूपण किया है। तत्पश्चात् बनस्पतिकाय के सूक्ष्म और बादर पर्याप्तक और अपर्याप्तक भेद करके पूर्वोक्त द्वार घटित किये हैं / तदनन्तर बादर वनस्पति के प्रत्येकशरीर बादर वनस्पति और साधारणशरीर बादर बनस्पति-ये दो भेद करके उनके भेद-प्रभेद बताये हैं। प्रत्येकशरीर बादर वनस्पति के 12 भेद वृक्ष, गुच्छ, गुल्म, लता, वल्ली, पर्वग, तृण, बलय, हरित, प्रोषधि, जलरुह और कुहण बताये गये हैं। तदनन्तर साधारणशरीर बादर वनस्पति के अनेक प्रकार बताये हैं। इन सब भेदों में उक्त 23 द्वार घटाये गये हैं। स जीवों के तेजस्काय, वायुकाय और उदारत्रस ये तीन भेद किये हैं। तेजस्काय और वायुकाय के सूक्ष्म और बादर फिर बादर के अनेक भेद बताये हैं। उदारत्रस के द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय रूप से चार प्रकार बताये हैं / पंचेन्तिय के नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देव-ये चार भेद किये हैं। नारक के रत्नप्रभादि पृथियों के प्राधार से सात भेद, तिथंच के जलचर, स्थलचर और खेचर-ये तीन करके फिर एक-एक के अनेक भेद किये हैं। मनुष्य के संमूछिम और गर्मोत्पन्न भेद किये हैं। देव के भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक के रूप में चार प्रकार बताये हैं / उक्त सब जीव के भेद-प्रभेदों में उपर्युक्त तेवीस द्वार घटित किये गये हैं। उपर्युक्त सब द्वारों की परिभाषा और व्याख्या विद्वान् अनुवादक और विवेचक मुनिश्री ने यथास्थान की है जो जिज्ञासुओं के लिए बहुत उपयोगी है। जिज्ञासु जन वहाँ देखें / यहाँ उनका उल्लेख करमा पुनरावृत्ति रूप ही होगा, अतएव विषय का निर्देश मात्र ही किया गया है। द्वितीय प्रतिपत्ति प्रस्तुत सूत्र की द्वितीय प्रतिपत्ति में समस्त संसारी जीवों को वेद की अपेक्षा से तीन विभागों में विभक्त किया गया है। वे विभाग हैं-स्त्री, पुरुष और नपुसंक / स्त्रियों के तीन प्रकार कहे गये हैं-१. तिर्यगयोनिक स्त्रियाँ, मानुषी स्त्रियाँ और देवस्त्रियां / नारक जीव नपुंसक वेद वाले ही होते हैं अत: उनमें स्त्री या पुरुष वेद नहीं होता। तिर्यगयोनिक स्त्रियों के तीन भेद हैं- जलचरी, स्थलचरी और खेचरो। फिर उनके उत्तर भेदों का कथन किया गया है। मानुषी स्त्रियों के तीन प्रकार कहे गये हैं.--कर्मभूमि में उत्पन्न होने वाली, अकर्मभूमि में उत्पन्न होने वाली और अन्तद्वीपों में उत्पन्न होने वाली / अन्तीपिका स्त्रियों के 28 प्रकार, अकर्मभूमिका स्त्रियों के तीस प्रकार और कर्मभूमिका स्त्रियों के 15 प्रकार कहे गये हैं। देवस्त्रियों के चार प्रकार कहे हैं-भवनवासी देवस्त्रियां, वानव्यन्तर देवस्त्रियां, ज्योतिष्कदेव स्त्रियां और वैमानिक देव स्त्रियां / तदनन्तर इनके उत्तर भेदों का कथन हैं। वैमानिक देव स्त्रियां केवल दो देवलोक-सौधर्म और ईशान में ही हैं / आगे के देवलोकों में स्त्रियां-देवियां नहीं होती हैं। स्त्रियों के भेद निरूपण के पश्चात उनकी स्थिति बताई गई है। पहले सामान्यरूप से जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति का कथन है फिर उत्तर भेदों को लेकर प्रत्येक की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति कही गई है। मूलग्नन्थ मौर अनुवाद से स्थिति का प्रमाण जानना चाहिए। [ 26 ] Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थितिनिरूपण के पश्चात् स्त्री का संचिठणाकाल बताया गया है। संचिठ्ठणाकाल का तात्पर्य यह है कि स्त्री निरन्तररूप से (स्त्रीस्व को छोड़े बिना) कितने काल तक स्त्रीरूप में ही रह सकती है? सामान्य स्त्री की अपेक्षा संचिठणाकाल बताने के पश्चात् प्रत्येक उत्तर भेद की संचिठ्ठणा बताई गई है। वह भी मूलपाठ और अनुवाद से जानना चाहिए। संचिठ्ठणाकाल के अनन्तर अन्तर का निरूपण किया गया है। अन्तर से तात्पर्य है कि कोई स्त्री, स्त्रीत्व से छूटने के बाद फिर कितने काल के पश्चात पुन: स्त्री होती है ? सामान्यस्त्री और उत्तरभेद वाली प्रत्येक स्त्री का अन्तरकाल प्रकट किया गया है / अन्तरद्वार के पश्चात् अल्पबहुत्व द्वार का प्ररूपण है। अल्पबहुत्व का अर्थ है अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक का प्रमाण बताना। यह अल्प बहुत्व कई अपेक्षाओं से बताया गया है। जैसे तिर्यस्त्रियों, मनुष्यस्त्रियों और देव स्त्रियों में कौन किससे अल्प है, बहुत है, तुल्य है या विशेषाधिक है? सबसे कम मनुष्यस्त्रियां हैं, तिर्यकस्त्रियां उनसे प्रसंख्यात गुणी हैं प्रोर देवस्त्रियां उनसे भी असंख्यात गुणी हैं / तदनन्तर लेकर अल्पबहुत्व का निर्देश किया गया है। इसके पश्चात् स्त्रीवेद नामक कर्म की बंधस्थिति बताते हुए कहा है कि जघन्यतः पल्योपमासंख्येय भाग न्यून एक सागरोयम का सार्ध सप्तभाग और उत्कर्षतः पन्द्रह कोटाकोटि सागरोपम है। पन्द्रह सौ वर्ष का अबाधाकाल है और अबाधाकाल रहित कर्मस्थिति उसका कर्मनिषेक (अनूभवनकाल) काल है। जितने समय तक कर्म बन्धन के पश्चात् उदय में नहीं पाता है उस काल को अबाधा काल कहते हैं। कर्मदलिक का उदयावलि में प्रविष्ट होने का काल कर्मनिषेक काल कहलाता है। तत्श्चात् स्त्रीवेद की उपमा फुस्फुम अग्नि से दी गई है। कुम्फुम का अर्थ कारीषाग्नि (कंडे की अग्नि) है। जैसे कंडे की अग्नि धीरे धीरे जलती हुई बहुत देर तक बनी रहती है इसी तरह स्त्रीवेद का अनुभव धीरे-धीरे और बहुत देर तक होता रहता है / स्त्रीवेद के कथन के अनन्तर पुरुषवेद का निरूपण है। पुरुष के भेद-प्रभेदों का वर्णन करके उनकी स्थिति, संचिठणा, अन्तर और अल्पबहत्व का प्रतिपादन किया गया है। तदनन्तर पुरुषवेद की बंधस्थिति, अबाधाकाल और कर्म निषेक बताकर पुरुषवेद को दावाग्नि ज्वाला के समान निरूपित किया है। ___ नपुंसक वेद के निरूपण में कहा गया है कि नपुंसक तीन प्रकार के हैं---नरयिक नपुंसक, तिर्यक्योनिक नपुंसक र मनुष्ययोनिक नपुंसक / देव नपुंसक नहीं होते हैं। तदनन्तर इनके भेद-प्रभेद निरूपित किये हैं। तत्पश्चात पूर्ववत् स्थिति, संचिठ्ठणा, अन्तर, अल्पबहत्व, बंधस्थिति अवाधाकाल और कर्मनिषेक प्रतिपादित हैं। नपुंसक वेद को महानगरदाह के समान बताया गया है। तत्पश्चात् पाठ प्रकार से वेदों का अल्पबहुत्व निर्देशित किया गया है। तदनन्तर कहा गया है कि पुरुष सबसे थोड़े हैं, उनसे स्त्रियां संख्येयगुणी हैं, उनसे नपुंसक अनन्त गुण हैं / तिर्यकयोनिक पुरुषों की अपेक्षा तिर्यक्योनिक स्त्रियां तिगुनी अधिक हैं। मनुष्य पुरुषों की अपेक्षा मनुष्य-स्त्रियां सत्तावीस गुणी हैं और देवों से देवियां बत्तीस गुनी अधिक हैं।' 1. तिगुणा तिरूव प्रहिया तिरियाणं इत्थिया मुणेयब्वा / सत्ताबीसगुणा पुण मणुयाणं तदहिया चेव // 1 // बत्तीस गुणा बत्तीसरूब अहिया उ होंति देवाणं / देवीमी पण्णत्ता जिणेहि जियरागदोसेहिं // 2 // ---संग्रहणिगाथा [ 27] Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति नारक-वर्णन यदि संसारवर्ती जीवों को चार भागों में विभक्त किया जाय तो उनका विभाजन इस प्रकार होता हैनरयिका, तिर्यकयोनिक मनुष्य और देव / नैरयिक जीव सात प्रकार के नरकों में रहते हैं। ये नरक मध्यलोक के नीचे हैं / ये नरकपृध्वियां कही जाती हैं। उनके नाम घम्मा, वंशा, सेला, अंजना, रिष्टा, मघा और माघवती हैं। इनके रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा और तमतमः प्रभा-ये सात गोत्र हैं। रत्नप्रभा पृथ्वी की मोटाई एक लाख अस्सी हजार योजन है, शर्कराप्रभा की मोटाई एक लाख बत्तीस हजार योजन, बालुका प्रभा की एक लाख अठ्ठावीस हजार योजन, पंकप्रभा की एक लाख बीस हजार, घूमप्रभा की एक लाख अठारह हजार, तम:प्रभा की एक लाख सोलह हजार और तमस्तमःप्रभा की मोटाई एक लाख पाठ हजार योजन की है। रत्नाप्रभा पृथ्वी के तीन विभाग (काण्ड) हैं-खर काण्ड जिसे रत्न काण्ड भी कहते हैं, पंक काण्ड और प्रपबहुल काण्ड / केवल रत्नप्रभा पृथ्वी के हो काण्ड हैं शेष पृथ्वियों के काण्ड नहीं हैं---वे एकाकार हैं। रत्नप्रभा पृथ्वी के एक लाख अस्सी हजार योजन प्रमाण क्षेत्र में से ऊपर-नीचे के एक एक हजार योजन भाग को छोड़कर शेष क्षेत्र में ऊपर भवनवासी देवों के सात करोड़ बहत्तर लाख भवन हैं तथा नीचे नारकियों के तीस लाख नारकावास हैं। दूसरी नरकपथ्वी के ऊपर-नीचे के एक-एक हजार योजन छोड़कर शेष भाग में 25 लाख नारकावास हैं / इसी तरह तीसरी पृथ्वी में 15 लाख, चौथी में दस लाख, पांचवीं में तीन लाख, छठी में पांच कम एक लाख और सातवीं में पांच नारकावास हैं। रत्नप्रभा पृथ्वी से नीचे असंख्यात योजन के अन्तराल के बाद दूसरी शर्करा पृथ्वी है। इसके असंख्यात हजार योजन नीचे बालुका पृथ्वी है / इस तीसरी पृथ्वी का तल भाग मध्यलोक से दो राजु प्रमाण नीचा है। तीसरी पृथ्वी से असंख्यात हजार योजन नीचे जाने पर चौथी पंकप्रभा पृथ्वी है। इस पृथ्वी का तल भाग मध्यलोक से तीन राजु नीचा है। इससे असंख्यात हजार योजन नीचे जाने पर पांचवीं धूमप्रभा पृथ्वी है। इसका तल भाग ज नीचे है। पांचवीं पृथ्वी से असंख्यात हजार योजन नीचे जाने पर छठी तमःप्रभा पृथ्वी है। इसका तल भाग मध्यलोक से पांच राजु नीचे है। छठी पृथ्वी से असंख्यात हजार योजन नीचे जाने पर सातवीं तमस्तम:प्रभा पृथ्वी है। इसका तल भाग मध्यलोक से छह राजु नीचा है। सातवीं पृथ्वी के नीचे एक राजु प्रमाण मोटा और सात राजु विस्तृत क्षेत्र हैं जहां केवल एकेन्द्रिय जीव ही रहते हैं / ये रत्नप्रभा आदि प्रध्वियां घनोदधि, धनवात और तनुवात पर प्राधारित हैं। इनके नीचे अवकाशान्तर (पोलार) है / सात नरकों और उनके अवकाशान्तर में पुद्गलद्रव्यों की व्यापक स्थिति है। रलप्रभा से लेकर समस्त तमस्तमःप्रभा पृथ्वी तक सबका आकार झल्लरि के समान बताया है। तदनन्तर सात नरकों से चारों दिशाओं में लोकान्त का अन्तर बताया गया है। रत्नप्रभादि सातों नरकों में सब जीव कालक्रम से उत्पन्न हुए हैं और निकले हैं क्योंकि संसार अनादि है। रत्नप्रभादि कथंचित् शाश्वत हैं और कथंचिद् अशाश्वत हैं द्रव्यापेक्षया शाश्वत और पर्यायापेक्षया अशाश्वत हैं। नरकावासों के संस्थान, आयाम-विष्कंभ, परिधि, वर्ण गंध और स्पर्श का वर्णन करते हुए उनकी प्रशुभता बताई है। चार गतियों की अपेक्षा गति-प्रागति, उनके श्वासोच्छवास के पुद्गल, आहार के पुदगल, लेश्याएँ, ज्ञान, प्रज्ञान, उपयोग, अवधिज्ञान का प्रमाण, समुद्घात, सात नरकों झुधा-पिपासा आदि की वेदना, शीतोष्ण बेदना, [28] Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानवलोक की उष्णता से नारकीय उष्णता की तुलना, नरयिकों के अनिष्ट पुद्गलपरिणमन का वर्णन किया गया है। तदनन्तर नारकों की स्थिति, उद्वर्तना और व्युत्क्रान्ति (उत्पत्ति) का वर्णन है / नारक उद्देशक का उपसंहार करते हुए कहा गया है-नारक जीव अत्यन्त अनिष्ट एवं अशुभ पुद्गलपरिणाम का अनुभव करते हैं। उनकी वेदना, लेश्या, नाम, गोत्र, परति, भय, शोक, भूख-प्यास, व्याधि, उच्छ्वास, मनुताप, क्रोध, मान, माया, लोभ, आहार, भय, मैथुन-परिग्रहादि संज्ञा ये सब अशुभ एवं अनिष्ट होते हैं / प्रायः महापरिग्रह वाले वासदेव. माण्डलिक राजा. चक्रवर्ती' तन्दल मस्त्यादि जलचर कालसोकारिक आदि कोटम्बिक (महारंभ-महापरिग्रह एवं कर परिणामों से) नरक गति में जाते हैं। नरक में नारकियों को प्रक्षिनिमीलन मात्र के लिए भी सुख नहीं है। वहाँ दुःख ही दुःख है। वहाँ अति शीत, अति उष्ण, अति तृष्णा, अति क्षुधा और अति भय है। नारक जीवों को निरन्तर असाता का ही अनुभव करना पड़ता है। तिर्यञ्चाधिकार तिर्यग्योनिक जीवों के एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रियादि पांच प्रकार बताये हैं। एकेन्द्रिय के पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु बनस्पति रूप से पांच प्रकार कहे हैं / इसी प्रकार द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवों के भेद-प्रभेद बताये गये हैं। पंचेन्द्रिय जलचर, स्थलचर और खेचर के दो-दो भेद सम्मूछिम और गर्भव्युत्क्रान्तिक के रूप में कहे हैं / खेचर आदि पंचेन्द्रिय निर्यगयोनिक के तीन प्रकार का योनिसंग्रह कहा है-अंडज, पोतज और संमूछिम / अंडज और पोतज तीनों वेद वाले होते हैं। संमूछिम नपुंसक ही होते हैं। इन जीवों का लेश्या, दृष्टि, ज्ञान-प्रज्ञान, योग, उपयोग, प्रागति, गति, स्थति समुद्घात आदि द्वारों से वर्णन किया गया है। तदनन्तर जाति, कुलकोडी का कथन किया गया है। द्वितीय उद्देशक में छह प्रकार के संसारवर्ती जीव कहे हैं—पृथ्वीकाय यावत् श्रसकाय / इनके भेद-प्रभेद किये हैं। इनकी स्थिति, संचिटणा और निर्लेपना का कथन है। प्रसंगोपात्त विशुद्ध अविशुद्ध लेश्या वाले अनगार के विशुद्ध-अविशुद्ध लेश्या वाले देव-देवी को जानने संबंधी प्रश्नोत्तर हैं। ___ मनुष्य दो प्रकार के हैं संमूछिम मनुष्य और गर्भव्युत्क्रांतिक मनुष्य / सम्भूछिम मनुष्य क्षेत्र के चौदह अशुचि स्थानों में उत्पन्न होते हैं। उनकी स्थिति अन्तर्मुहूर्त मात्र होती है। गर्भज मनुष्य तीन प्रकार के हैं—कर्मभूभक, अकर्मभूमक और अन्तीपक / मनुष्याधिकार अन्तर्वीपक–हिमवान पर्वत की चारों विदिशाओं में तीन-तीन सौ योजन लवणसमुद्र के भीतर जाने पर चार अन्तर्वीप हैं / इसी प्रकार लवण समुद्र के भीतर चार सौ, पांच सौ, छह सौ, सात सौ, पाठ सौ और नौ सौ योजन मागे जाने पर भी चारों विदिशाओं में चार-चार अन्तर्वीप हैं / इस प्रकार चुल्ल हिमवान के 744-28 अन्तर्वीप हैं / इन अन्तर्वीपों में रहने वाले मनुष्य अन्तीपक कहलाते हैं / इन अन्तर्वीपकों के 28 नाम हैं-१. एकोहक, 2. आभाषिक, 3. वैषाणिक, 4. नांगोलिक, 5. हयकर्ण, 6. गजकर्ण, 7. गोकर्ण, 8. शष्कुलकर्ण, 9. प्रादर्शमुख, 10. मेण्डमुख, 11. अयोमुख, 12. गोमुख, 13. अश्वमुख, 14. हस्तिमुख, 15. सिंहमुख, 16. व्याघ्रमुख, 17. अश्वकर्ण, १८.सिंहकर्ण,१९. अकर्ण, 20. कर्णप्रावरण, 21. उल्कामुख, 22. मेघमुख, 23. विद्युहन्त, 24. [29] Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्युज्जिह्वा, 25. धनदन्त, 26. लष्टदन्त, 27. गूढदन्त और 28. शुद्धदन्त / इसी प्रकार शिखरी पर्वत की लवणसमुद्रगत दाढानों पर भी 28 अन्तर्वीप हैं। दोनों ओर के मिलाकर 56 अन्तर्वीप हो जाते हैं। एकोरुक द्वीप का प्रायाम-विष्कंभ तीन सौ योजन और परिधि नौ सौ उनपचास योजन है / वह एक पनवरवेदिका और एक बनखण्ड से चारों ओर से घिरा हुआ है। इस द्वीप का भूमिभाग बहुत समतल और रमणीय है / वहाँ बहुत सारे द्रुम, वृक्ष, वन, लता, गुल्म आदि हैं जो नित्य कुसुमित रहते हैं। वहाँ बहुत सो हरी भरी वनराजियां हैं / वहाँ दस प्रकार के कल्पवृक्ष हैं जिनसे वहां के निवासियों का जीवन-निर्वाह होता है / (1) मत्तांग नामक कल्पवृक्ष से उन्हें विविध पेयपदार्थों की प्राप्ति होती है। (2) भृतांग नामक कल्पवृक्ष से बर्तनों की पूर्ति होती है / (3) त्रुटितांग कल्पवृक्ष से वाद्यों की पूर्ति (4) दीपशिखा नामक कल्पवृक्ष से प्रकाश की पूर्ति होती है। (5) ज्योति-अंग नामक कल्पवृक्ष से सूर्य की तरह प्रकाश बौर सुहावनी धूप प्राप्त होती है। (6) चित्रांग नामक कल्पवृक्ष विविध प्रकार के चित्र एवं विविध मालाएं प्रदान करते हैं। (7) चित्तरसा नामक कल्पवृक्ष विविध रसयुक्त भोजन प्रदान करते हैं। (8) मण्यंग नामक कल्पवृक्ष विविध प्रकार के मणिमय प्राभूषण प्रदान करते हैं / (9) गेहागार नाम के कल्पवृक्ष विविध प्रकार के आवास प्रदान करते हैं और (10) अणिगण नाम के कल्पवक्ष उन्हें विविध प्रकार के वस्त्र प्रदान करते हैं / एकोरुक द्वीप के मनुष्य और स्त्रियां सुन्दर अंगोपांग युक्त, प्रमाणोपेत अवयव वाले, चन्द्र के समान सौम्य और अत्यन्त भोग-श्री से सम्पन्न होते हैं। नख से लेकर शिख तक के उनके अंगोपांगों का साहित्यिक और सरस वर्णन किया गया है / ये प्रकृति से भद्रिक होते हैं। चतुर्थ भक्त अन्तर से प्राहार की इच्छा होती है। ये मनुष्य आठ सौ धनुष ऊंचे होते हैं, 64 पृष्ठकरंडक (पांसलियां) होते हैं / उनपचास दिन तक अपत्य-पालना करते हैं। उनकी स्थिति जघन्य देशोन पल्योपम का असंख्येय भाग और उत्कृष्ट पल्योपम का असंख्येय भाग प्रमाण है। जब उनकी छह मास प्रायु शेष रहती है तब युगलिक-स्त्री सन्तान को जन्म देती है। ये युगलिक स्त्री-पुरुष सुखपूर्वक प्रायुष्य पूर्ण करके अन्यतर देवलोक में उत्पन्न होते हैं। ___एकोरुक द्वीप में गृह, ग्राम, नगर, असि, मसि, कृषि प्रादि कर्म, हिरण्य-सुवर्ण प्रादि धातु, राजा और सामाजिक व्यवस्था, दास्यकर्म वैरभाव, मित्रादि, नटादि के नृत्य, वाहन, धान्य, डांस-मच्छर, युद्ध, रोग, अतिवृष्टि, लोहे प्रादि धातु की खान, क्रय विक्रय प्रादि का प्रभाव होता है / वह भोगभूमि है / इसी तरह सब अन्तद्वीपों का वर्णन समझना चाहिए / __ कर्मभूमिज मनुष्य कर्मभूमियों में और अकर्मभूमिज मनुष्य अकर्मभूमि में पैदा होते हैं / कर्मभूमि वह है जहाँ मोक्षमार्ग के उपदेष्टा तीथंकर उत्पन्न होते हैं, जहाँ असि (शस्त्र) मषि (लेखन-व्यापार आदि) और कृषि कर्म करके मनुष्य अपना जीवन-निर्वाह करते हैं / ऐसी कर्मभूमियां पन्द्रह हैं-५ भरत, 5 एरवत और 5 महाविदेह / (ये भरत आदि एक एक जम्बूद्वीप में, दो-दो घातकीखण्ड में और दो-दो-पुष्करार्ध द्वीप में हैं।) यहाँ के मनुष्य अपने पुरुषार्थ के द्वारा कर्मों का क्षय करके मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं / ये अपने-अपने पुण्य-पाप के अनुसार चारों गतियों में उत्पन्न हो सकते हैं। जहां असि-मसि-कृषि नहीं है किन्तु प्रकृति प्रदत्त कल्पवृक्षों द्वारा जीवन निर्वाह है वह अकर्मभूमि है। अकर्मभूमियां 30 हैं पांच हैमवत, पांच हैरण्यवत्त, पांच हरिवास, पांच रम्यकवास, पांच देवकुरु और पांच उत्तरकरु / इनमें से एक-एक जम्बूद्वीप में, दो-दो धातकीखण्ड में और दो-दो पुष्करार्धद्वीप में हैं। 30 प्रकर्मभ्रमि और 56 अन्तर्वीप भोगभूमियां हैं। यहाँ युगलिक धर्म है-चारित्र धर्म यहाँ नहीं है। [ 30 ] Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्यों का वर्णन करने के पश्चात् चार प्रकार के देवों का कथन है-भवनपति, वानव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक / भवनपति और वानव्यन्तर देवों का प्रावास रत्नप्रभा पृथ्वी में-मध्यलोक में है। ज्योतिष्क देव भी मध्यलोक में हैं / वैमानिक देवों का निवास ऊर्वलोक में है / भवनवासी देवों के 7 करोड 72 लाख भवनावास रत्नप्रभा पृथ्वी में कहे गये हैं। उनमें असुरकुमार आदि दस प्रकार के भवनपति देव रहते हैं। असुरकुमारों के भवनों का वर्णन, असुरेन्द्र की 3 पर्षद्, उनमें देव-देवियों की संख्या, उनकी स्थिति, तीन पर्षदों की भिन्नता का कारण, उत्तर के असुरकूमारों का वर्णन तथा उनकी पर्षदानों का वर्णन है / दक्षिण-उत्तर के नागकुमारेन्द्र और दक्षिण-उत्तर के धरणेन्द्र व उनकी तीन पर्षदों का भी वर्णन है / व्यन्तर देवों के भवन, इन्द्र और परिषदों का भी वर्णन है। ज्योतिष्क देवों के विमानों का संस्थान, और सूर्य चन्द्र देवों की तीन-तीन परिषदों का उल्लेख है। इसके पश्चात् द्वीप-समुद्रों का वर्णन किया गया है / जम्बूद्वीप-जम्बूद्वीप के वृत्ताकार की उपमाएँ, उसके संस्थान की उपमाएँ, प्रायाम-विष्कभ, परिधि, जगती की ऊँचाई, उसके मूल मध्य और ऊपर का विकभ, 'उसका संस्थान, जगती की जाली को ऊंचाई, विष्कंभ, पयवरवेदिका की ऊंचाई एवं विष्कंभ, उसकी जालिकाएं, घोड़े प्रादि के चित्र, वनलता प्रादि लताएँ, अक्षत, स्वस्तिका, विविध प्रकार के कमल, शाश्वत या प्रशाश्वत आदि का वर्णन है। जम्बूद्वीप के वनखंड का चक्रवाल, विष्कंभ, विविध वापिकाएं, उनके सोपान, तोरण, समीपवर्ती पर्वत, लतागृह, मंडप, शिलापट्ट और उन पर देव देवियों की क्रीडामों आदि का वर्णन है। जम्बूद्वीप के विजयद्वार का स्थान, उसकी ऊंचाई, विष्कभ तथा कपाट की रचना का विस्तृत वर्णन है। विजयदेव सामानिक देव, अनमहिषियों, तीन पर्षदों, प्रात्मरक्षक देवों आदि के भद्रासनों का वर्णन है। विजयद्वार के ऊपरी भाग का, उसके नाम के हेतु का तथा उसकी शाश्वतता का उल्लेख किया गया है। जम्बद्वीप की विजया राजधानी का स्थान, उसका आयाम-विष्कंभ, परिधि, प्राकार की ऊंचाई. प्राकार के मूल, मध्य और ऊपरी भाग का विष्कंभ, उसका संस्थान, कपिशीर्षक का प्रायाम-विष्कंभ, उसके द्वारों की ऊंचाई और विष्कंभ, चार वनखण्ड, उनका प्रायाम-विष्कंभ, दिव्य प्रासाद, उनमें चार महद्धिक देव, परिधि, पद्मवरवेदिका बनखंड सोपान व तोरण प्रासादावतंसक, मणिपीठिका, सिंहासन, पाठ मंगल, समीपवर्ती प्रासादों की ऊंचाई,प्रायाम-विष्कंभ, अन्य पार्श्ववर्ती प्रासादों की ऊंचाई, आयाम, विष्कंभ आदि का वर्णन है। विजयदेव की सुधर्मा सभा, ऊंबाई, पायाम-विष्कंभ, उसके तीन द्वारों की ऊंचाई व विकभ, मुखमंडपों * का आयाम विष्कंभ और ऊंचाई, प्रेक्षागृह-मंडपों का प्रायाम-विष्कंभ व ऊंचाई, मणिपीठिकाओं, चैत्य वक्षों, महेन्द्र ध्वजारों और सिद्धायतन के प्रायाम-विष्कंभ तथा ऊंचाई का वर्णन किया गया है / तदनन्तर उपपात सभा, विजयदेव की उत्पत्ति, पर्याप्ति, मानसिक संकल्प आदि का वर्णन है / विजयदेव और उसके सामानिक देवों की स्थिति बताई गई है / जम्बूद्वीप के विजय, वैजयन्त, जयंत और अपराजित द्वारों का विस्तृत वर्णन किया गया है। जम्बूद्वीप के एक द्वार से दूसरे द्वार का अन्तर, जम्बूद्वीप से लवणसमुद्र का और लवणसमुद्र का जम्बूद्वीप से स्पर्श का तथा परस्पर में इनमें जीवों की उत्पत्ति का कथन है। ___ जम्बूद्वीप में उत्तरकुरु का स्थान, संस्थान और विष्कंभ, जीवा और वक्षस्कार पर्वत का स्पर्श, धनुपृष्ठ को परिधि उत्तरकुरु क्षेत्र के मनुष्यों की ऊंचाई, पसलियां, पाहारेच्छा, काल, स्थिति, अपत्यपालन-काल, आदि का वर्णन है। उत्तरकुरु के दो यमक पर्वत हैं। उनकी ऊंचाई, उद्वेध, मूल, मध्य और ऊपरी भाग का प्रायाम-विष्कंभ, [31] Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिधि, उन पर्वतों पर प्रासाद और उनकी ऊंचाई, यमक नाम का कारण, यमक पर्वत की नित्यता, यमक देवों की राजधानी के स्थान प्रादि का वर्णन है। उत्तरकुरु में नीलवंत द्रह का स्थान, प्रायाम-विष्कंभ, और उद्वेध, पद्मकमल का प्रायाम, विष्कंभ, परिधि, बाहल्य, ऊंचाई और सर्वोपरिभाग, इसी तरह कणिका, भवन, द्वार, मणिपीठिका 108 कमल, कणिकाएँ, पन परिवार के पायाम-विष्कंभ और परिधि वर्णित हैं। कंचनग पर्वतों का स्थान, प्रासाद, नाम का कारण, कंचनगदेव और उसकी राजधानी, उत्तरकुरु द्रह का स्थान, चन्द्रद्रह ऐरावण द्रह, माल्यवंत द्रह, जम्बूपीठ का स्थान, मणिपीठिका, जम्बू सुदर्शन वृक्ष की ऊंचाई-पायामविष्कंभ प्रादि का वर्णन है। जम्बूसुदर्शन की शाखाएँ, उन पर भवन द्वार, उपरिभाग में सिद्धायतन के द्वारों को ऊंचाई, विष्कंभ प्रादि वर्णित हैं। पार्श्ववर्ती अन्य जम्बूसुदर्शनों की ऊंचाई, अनाहत देव और उसका परिवार, चारों ओर के वनखण्ड, प्रत्येक बनखण्ड में भवन, नन्दापुष्करिणियां, उनके मध्य प्रासाद, उनके नाम, एक महान कुट, उसकी ऊंचाई और पायाम-विष्कंभ आदि का वर्णन है। जम्बूसुदर्शन पर अष्ट मंगल, उसके 12 नाम, नाम का कारण, अनाहत देव की स्थिति, राजधानी का स्थान जम्बूद्वीप नाम की नित्यता और उसमें चन्द्र-सूर्य, नक्षत्र, ग्रह और गरागण की संख्या आदि का वर्णन किया गया है। लवण समुद्र---लवण समुद्र का संस्थान, उसका चकवाल विष्कंभ, परिधि, पद्मवरवेदिका की ऊंचाई और वनखंड, लबण समुद्र के द्वारों का अन्तर, लवण समुद्र और धातकीखंड का परस्पर स्पर्श, परस्पर में जीवों की उत्पत्ति, नामकरण का कारण, लबणाधिपति सुस्थित देव की स्थिति, लवण समुद्र की नित्यता, उसमें चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र, ग्रह और तारानों की संख्या, लवण समुद्र की भरती और घटती और उसमे रहे हए चार पाताल कलशों का वर्णन है। लदणाधिपति सुस्थित देव, गौतम द्वीप का स्थान, वनखंड, क्रीडास्थल, मणिपीठिका पोर नाम के कारण का उल्लेख है। जंबूद्वीप के चन्द्रद्वीप का स्थान, ऊंचाई, पायाम-विष्कंभ, क्रीडास्थल, प्रासादावतंसक, मणिपीठिका का परिमाण, नाम का हेतु आदि वर्णित हैं। इसी प्रकार जंबूद्वीप के सूर्य और उनके द्वीपों का वर्णन है। लवणसमुद्र के बाहर चन्द्र-सूर्य और उनके द्वीप, धातकीखण्ड के चन्द्र-सूर्य और उनके द्वीप, कालोदधि समुद्र के चन्द्र-सूर्य और उनके द्वीप, पुष्करवरद्वीप के चन्द्र सूर्य और उनके द्वीप, लवण समुद्र में वेलंधर मच्छ कच्छप, बाह समुद्रों में वेलंघरों का प्रभाव, लवण समुद्र के उदक का वर्णन, उसमें वर्षा आदि का सद्भाव किन्तु बाह्य समुद्रों में प्रभाव आदि का वर्णन है। धातकीखण्ड-धातकीखण्ड का संस्थान, चक्रवाल विष्कंभ, परिधि, पावरवेदिका, वनखण्ड, द्वार, द्वारों का अन्तर, धातकीखंड और कालोदधि का परस्पर संस्पर्श और जीवोत्पत्ति, नाम का हेतु, धातकीखण्ड के वृक्ष और देव-देवियों की स्तुति, उसकी नित्यता तथा चन्द्र-सूर्य-ग्रह-नक्षत्र-तारागण आदि का वर्णन है। कालोद समुद्र-कालोद समुद्र का संस्थान, चक्रवाल विष्कंभ परिधि, पनवरवेदिका, वनखंड, चार द्वार, उनका अन्तर, कालोद समुद्र और पुष्करवर द्वीप का परस्पर स्पर्श एवं जीवोत्पत्ति, नाम का कारण, काल महाकाल देव की स्थिति, कालोद समुद्र की नित्यता और उसके चन्द्र-सूर्य-ग्रह-नक्षत्र और तारों प्रादि का वर्णन किया गया है। पुष्करवर द्वीप-पुष्करवर द्वीप का संस्थान, चक्रवाल विष्कंभ, परिधि, पनवरवेदिका, बनखंड, चार द्वार, उनका अन्तर, द्वीप और समुद्र के प्रदेशों का स्पर्श और परस्पर में जीवोत्पत्ति, नाम का हेतु, पद्म और महापद्म वृक्ष, [ 32 ] Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन और पुंडरीक देवों की स्थिति तथा इस द्वीप के चन्द्र-सूर्य-ग्रह-नक्षत्र और तारागणों की संख्या आदि का वर्णन है। मानुषोतर पर्वत बीच में आ जाने से इस द्वीप के दो विमाग हो गये हैं / जंबूद्वीप, घातकीखण्ड और अर्ध पुष्करवर द्वीप को पढ़ाई द्वीप, मनुष्यक्षेत्र अथवा समयक्षेत्र कहते हैं। समयक्षेत्र का प्रायाम विष्कंभ, परिधि, मनुष्य क्षेत्र के नाम का कारण तथा चन्द्र सूर्यादि का वर्णन है। मनुष्य लोक और उसके बाहर तारामों की गति प्रादि, मानुषोत्तर पर्वत की ऊंचाई, पर्वत के नाम का कारण, लोकसीमा के अनेक विकल्प, मनुष्यक्षेत्र में चन्द्रादि ज्योतिष्क देवों की मण्डलाकार गति, इन्द्र के प्रभाव में सामानिक देवों द्वारा शासन, इन्द्र का विरह काल, पुष्करोदधि का संस्थान, चक्रवाल विष्कंभ परिधि, चार द्वार, उनका अन्तर, द्वीप समुद्र में जीवों की परस्पर उत्पत्ति प्रादि का कथन किया गया है / इसके पश्चात् वरुणवर द्वीप, वरुणवर समुद्र, क्षीरवर द्वीप, क्षीरोदसागर, घृतवर द्वीप, घृतवर समुद्र, क्षोदवर द्वीप-क्षोदवर समुद्र, नन्दीश्वर द्वीप-नन्दीश्वर समुद्र प्रादि असंख्यात द्वीप और समुद्र हैं और अन्त में असंख्यात योजन विस्तृत स्वयंभूरमण समुद्र, हैं, ऐसा कथन किया गया है। लवणसमुद्र से लगाकर कालोद, पुष्करोद वरुणोद, क्षीरोद, घृतोद, क्षोदोद तथा शेष समुद्रों के जल का प्रास्वाद बताया गया है। प्रकृति-रसवाले चार समुद्र, उदारसवाले तीन समुद्र, बहुत कच्छ मच्छ वाले तीन समुद्र, शेष समुद्र अल्पमच्छ वाले कहे गये हैं / समुद्र के मत्स्यों की कुलकोटि, अवगाहना आदि का वर्णन है। देवों को दिव्य गति, बाह्य पुदगलों के ग्रहण से ही विकुर्वणा, देव के वैक्रिय शरीर को छपस्थ नहीं देख सकता, बालक का छेदन-भेदन किये बिना बालक को छोटा-बड़ा करने का सामर्थ्य देव में होता है, यह वर्णन किया गया है। चन्द्र और सूर्यो के नीचे, बीच में और ऊपर रहने वाले तारामों का वर्णन, प्रत्येक चन्द्र सूर्य के परिवार का प्रमाण, जंबूद्वीप के मेरु से ज्योतिष्क देवों की गति का अन्तर, लोकान्त में ज्योतिठक देवों की गति-क्षेत्र का अन्तर, रत्नप्रभा के ऊपरी भाग से ताराभों का, सूर्यविमान का चन्द्रविमान का और सबसे ऊपर के तारे के विमान का अन्तर भी बताया गया है। इसी प्रकार अधोवी तारे से सूर्य चन्द्र और सर्वोपरि तारे का अन्तर, जंबूद्वीप में सर्वाभ्यन्तर, सर्व बाह्य, सर्वोपरि सर्व प्रधो गति करने वाले नक्षत्रों का वर्णन, चन्द्र विमान यावत् तारा विमान का विष्कंभ, परिधि, चन्द्र-सूर्य-ग्रह-नक्षत्रों के विमानों को परिवहन करने वाले देवों की संख्या, चन्द्रादि की गति, प्रग्रमहिषियां, उनकी विकुर्वणा आदि का वर्णन भी किया गया है। . वैमानिक देवों का वर्णन-वैमानिक देवों का वर्णन करते हुए शकेन्द्र की तीन परिषद्, उनके देवों की संख्या, स्थिति, यावत् अच्युतेन्द्र की तीन परिषद् प्रादि का वर्णन है / प्रहमिन्द्र गवेयक व अनुत्तर विमान के देवों का वर्णन है / सौधर्म-ईशान से लेकर अनुत्तर विमानों का प्राधार, बाहल्य, संस्थान, ऊंचाई, प्रायाम, विष्कंभ, परिधि, वर्ण, प्रभा, गंध और स्पर्श का उल्लेख किया गया है। सर्व विमानों की पौदगलिक रचना, जीवों और पुदगलों का चयोपचय, जीवों की उत्पत्ति का भिन्न-भिन्न क्रम. सब जीवों से सर्वथा रिक्त न होना, देवों की भिन्न भिन्न अवगाहना का वर्णन है। ग्रैवेयक और अनुत्तर देवों में विक्रिया करने की शक्ति होने पर भी बे विक्रिया नहीं करते, देवों में संहनन का प्रभाव है, केवल शुभ पुदगलों का परिणमन होता है। देवों में समचतुरस्त्र संस्थान है। वैमानिक देवों के अवधि ज्ञान की भिन्न भिन्न अवधि, [ 33 ] Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिन्न भिन्न समुद्घात और भिन्न भिन्न वर्ण-गंध, रस और स्पर्श होते हैं। इन देवों में क्षुधा-पिपासा के वेदन का प्रभाव, भिन्न भिन्न प्रकार की वैक्रिय शक्ति, सातावेदनीय, वेशभूषा, कामभोग, भिन्न भिन्न गति का वर्णन किया गया है। तदनन्तर नैरयिक-तियंच-मनुष्य और देवों को जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति तथा जघन्य और उत्कृष्ट संचिटुणा काल, जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एवं उनका अल्प-बहुत्व बताया गया है। इस प्रकार इस तृतीय प्रतिपत्ति में चार प्रकार के संसारी जीवों को लेकर विस्तृत विवेचन किया गया है / चतुर्थ प्रतिपत्ति-इस प्रतिपत्ति में सांसारिक जीवों के पांच प्रकार बताये गये हैं—एकेन्द्रिय यावत् पंचेन्द्रिय / इनके भेद-प्रभेद, जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति संस्थितिकाल और अल्पबहुत्व बताये गये हैं। पंचम प्रतिपत्ति-इस प्रतिपत्ति में सांसारिक जीवों को छह विभागों में विभक्त किया गया है-पृथ्वीकाय यावत् त्रसकाय। इसके भेद-प्रभेद, स्थिति, संचिट्ठणा, अन्तर और अल्पबहुत्व बताये गये हैं। इसमें निगोद का वर्णन, स्थिति, संचिटणा, अन्तर और अल्प-बहुत्व प्रतिपादित हैं। षष्ठ प्रतिपत्ति---इस प्रतिपत्ति में सांसारिक जीव सात प्रकार के कहे गये हैं --नैरयिक, तिर्यच, तियंचनी, मनुष्य, मानुषी, देव और देवी / इनकी स्थिति, संस्थिति, अन्तर और अल्पबहुत्व बताये गये हैं। सप्तम प्रतिपत्ति-इसमें पाठ प्रकार के संसारी जीव बताये गये हैं। प्रथम समय नैरयिक, अप्रथम समय नैरयिक, प्रथम समय तिर्यंच, अप्रथम समय तिर्यंच, प्रथम समय मनुष्य, अप्रथम समय मनुष्य, प्रथम समय देव और अप्रथम समय देव / इन माठों प्रकार के संसारी जीवों की स्थिति, संस्थिति, अन्तर और अल्प-बहुत्व प्रतिपादित किया है। अष्टम प्रतिपत्ति-इस प्रतिपत्ति में संसारवर्ती जीवों के नौ प्रकार बताये हैं—पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक द्वीन्द्रिय यावत् पंचेन्द्रिय / इन नौ की स्थिति, संस्थिति, अन्तर और अल्पबहुत्व का विवेचन है। नौवीं प्रतिपत्ति-इस प्रतिपत्ति में संसारवर्ती जीवों के दस भेद प्रतिपादित किये हैं--प्रथम समय एकेन्द्रिय से लेकर प्रथम समय पंचेन्द्रिय तक 5 और अप्रथम समय एकेन्द्रिय से लेकर प्रप्रथम समय पंचेन्द्रिय तक पांच / दोनों मिलकर दस प्रकार हए / इन जीवों की स्थिति, संस्थिति, अन्तर और अल्पबहत्व का निरूपण किया गया है। किया गया है। तदनन्तर इस प्रतिपत्ति में जीवों के सिद्ध-प्रसिद्ध सेन्द्रिय-प्रनिन्द्रिय, ज्ञानी-अज्ञानी, पाहारक-प्रनाहारक, भाषक-प्रभाषक, सम्यग्दष्टि-मिथ्यादृष्टि, परित्त-अपरित्त, पर्याप्तक-अपर्याप्तक, सूक्ष्म-बादर, संज्ञी-प्रसंशी, भवसिद्धिक-प्रभवसिद्धिक रूप से भेदों का विधान किया गया है तथा योग, बेद, दर्शन, संयत, पसंयत, कषाय, ज्ञान, शरीर, काय, लेश्या, योनि इन्द्रिय प्रादि की अपेक्षा से वर्णन किया गया है। उपसंहार-इस प्रकार प्रस्तुत प्रागम में जीव और अजीव का अभिगम है / दो विभागों में इनका निरूपण किया गया है। प्रथम विभाग में अजीव का और संसारी जीवों का निरूपण है तो दूसरे विभाग में संसारी और सिद्ध दोनों का समावेश हो जाय, इस प्रकार भेद निरूपण है। . प्रस्तुत प्रागम में द्वीप और सागरों का विस्तार से वर्णन है। प्रसंगोपात्त, इसमें विविध लौकिक और सामाजिक, भौगोलिक और खगोल संबंधी जानकारियां भी उपलब्ध होती हैं / सोलह प्रकार के रत्न, अस्त्र-शस्त्रों के नाम, धातुओं के नाम, विविध प्रकार के पात्र, विविध [34] Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राभूषण भवन, वस्त्र, ग्राम, नगर पादि का वर्णन है। त्योहार, उत्सव, नृत्य, यान प्रादि के विविध नाम भी इसमें वर्णित हैं / कला, युद्ध व रोग आदि के नाम भी उल्लिखित हैं। इसमें उद्यान, वापी, पुष्करिणी, कदलीघर, प्रसाधनघर और स्त्री-पुरुष के अंगों का सरस एवं साहित्यिक वर्णन भी है। प्राचीन सांस्कृतिक सामग्री की इसमें प्रचुरता है। प्राचीन भारत के सामाजिक जीवन के विभिन्न पक्षों के अध्ययन की दृष्टि से इस पागम का बहुत महत्त्व है। व्याख्या-साहित्य जीवाभिगम का व्याख्या-साहित्य वर्तमान में इस प्रकार उपलब्ध है / जीवाभिगम पर न नियुक्ति लिखी गई और न कोई भाष्य ही लिखा गया। हां इस पर सर्वप्रथम व्याख्या के रूप में चूणि प्राप्त होती है, पर वह चूणि अप्रकाशित है, इसलिए उस चूणि के सम्बन्ध में स्पष्ट रूप से यह नहीं कहा जा सकता कि वह चूणि जिनदास गणि महत्तर की है या संघदास गणि की है। जीवाभिगम पर संस्कृत भाषा में प्राचार्य मलयगिरि की वृत्ति मिलती है। यह वृत्ति जीवाभिमम के पदों के विवेचन के रूप में है। जीवाभिगमवृत्ति प्रस्तुत वृत्ति जीवाभिगम के पदों के विवेचन के रूप में है। इस वृत्ति में अनेक ग्रन्थों और ग्रन्थकारों का नामोल्लेख किया गया है-जैसे कि धर्मसंग्रहणीटोका, प्रज्ञापनाटीका, प्रज्ञापना-मूल-टीका, तत्त्वार्थ मूल-टीका, सिद्धप्राभृत, विशेषणवती, जीवाभिगममूल-टीका, पंचसंग्रह, कर्मप्रकृति संग्रहणी, क्षेत्र-समास टीका, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिटोका, कर्मप्रकृतिसंग्रहणीचूणि, वसुदेवचरित, जीवाभिगमणि, चन्द्रप्रज्ञप्तिटीका, सूर्यप्रज्ञप्तिटीका, देशीनाममाला, सूर्यप्रज्ञप्तिनियुक्ति, पंचवस्तुक, प्राचार्य हरिभद्ररचित तत्त्वार्थटीका, तत्त्वार्थ भाष्य, विशेषावश्यक भाष्य स्वोपज्ञवृत्ति, पंचसंग्रहटीका प्रति / इन ग्रन्थों में से अनेक ग्रन्थों के उद्धरण भी टीका में प्रयुक्त हुए हैं। वृत्ति के प्रारम्भ में मंगल के प्रयोजन पर प्रकाश डालते हुए भागे के सूत्रों में तन्तु पोर पट के सम्बन्ध में भी विचार-चर्चा की गई है और माण्डलिक, महामाण्डलिक, ग्राम, निगम, खेट, कर्बट, मडम्ब, पत्तन, द्रोणमुख, प्राकर, प्राधम, सम्बाध, राजधानी प्रभति मानव-बस्तियों के स्वरूप पर चिन्तन किया गया है। बत्ति में ज्ञानियों के भेदों पर चिन्तन करते हुए यह बताया है कि सिद्धप्राभूत में अनेक ज्ञानियों का उल्लेख है। नरकावासों के सम्बन्ध में बहत ही विस्तार से प्रकाश डाला है और क्षेत्रसमासटीका, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिटीका के प्रवलोकन संकेत किया है। नारकीय जीवों की शीत और उष्ण वेदना पर विचार करते हुए प्रावट, वर्षा रात्र, शरद, हेमन्त, बसन्त और ग्रीष्म-इन छ: ऋतुत्रों का वर्णन किया है। प्रथम शरद् कार्तिक मास को बताया गया है। ज्योतिष्क देवों के विमानों पर चिन्तन करते हुए विशेष जिज्ञासुमों को चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति एवं संग्रहणी टीकाएँ देखने का निर्देश किया गया है। एकादश अलंकारों का भी इसमें वर्णन है और राजप्रश्नीय में उल्लिखित 32 प्रकार की नाट्यविधि का भी सरस वर्णन किया गया है / प्रस्तुत वृत्ति को प्राचार्य ने 'विवरण' शब्द से व्यवहृत किया है और इस विवरण का ग्रन्थमान 1600 श्लोक प्रमाण है। [35] Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाभिगम पर प्राचार्य श्री प्रमोलक ऋषि जी म. ने प्रागम-बत्तीसी के साथ हिन्दी अनुवाद किया वह अनुवाद भावानुवाद के रूप में है। इसके पश्चात् स्थानकवासी परम्परा के प्राचार्य श्री घासीलाल जी म. ने जीवाभिगम पर संस्कृत में अपनी विस्तृत टीका लिखी। इस टीका का हिन्दी और गुजराती में भी अनुवाद प्रकाशित हुमा / इसके अतिरिक्त जीवाभिगम को सन् 1883 में मलयगिरि वृत्ति सहित गुजराती विवेचन के साथ रायबहादुर धनपतसिंह ने अहमदाबाद से प्रकाशित किया / देवचन्द लालभाईपुस्तकोद्धारक फण्ड, बम्बई से सन् 1919 में जीवाभिगम का मलयगिरि वृत्ति सहित प्रकाशन हया है। पर हिन्दी में ऐसे प्रकाशन की आवश्यकता चिरकाल से अनुभव की जा रही थी जो अनुवाद सरल-सुगम और मूल विषय को स्पष्ट करने वाला हो। स्वर्गीय युवाचार्य श्री मधुकर मुनिजी ने जन प्रागम प्रकाशन समिति का निर्माण किया। उस समिति के द्वारा अनेक मूर्धन्य मनीषियों के द्वारा प्रागमों का अनुवाद और विवेचन प्रकाशित हुमा। उसी क्रम में प्रस्तुत जीवाभिगम का भी प्रकाशन हो रहा है / यह अत्यन्त प्राह्लाद का विषय है कि बहुत ही स्वल्प समय में अनेक मनीषियों के सहयोग के कारण प्रागम-बत्तीसी का कार्य प्रायः पूर्ण होने जा रहा है। प्रस्तुत प्रागम का सम्पादन मेरे सुशिष्य श्री राजेन्द्र मुनि के द्वारा हो रहा है। राजेन्द्र मुनि एक युवा मुनि हैं / इसके पूर्व उन्होंने उत्तराध्ययन सूत्र का भी सुन्दर सम्पादन किया था और अब द्रव्यानुयोग का यह अपूर्व मागम सम्पादन कर अपनी प्रागमरुचि का परिचय दिया है। अनुवाद और विवेचन मूल प्रागम के भावों को सुस्पष्ट करने में सक्षम हैं। प्रस्तुत सम्पादन जन-जन के मन को भाएगा और वे इस पागम का स्वाध्याय कर अपने ज्ञान की अभिवृद्धि करेंगे, ऐसी भाशा है। में प्रस्तुत प्रामम पर पूर्व प्रागमों की प्रस्तावनामों की तरह विस्तृत प्रस्तावना लिखना चाहता था पर सामाजिक कार्यों में और भीड़-भरे वातावरण में चाहते हुए भी नहीं लिख सका / संक्षिप्त में जो प्रस्तावना दी जा रही है, उससे भी पाठकों को प्रागम की महत्ता का सहज परिज्ञान हो सकेगा। परम श्रद्धेय महामहिम राष्ट्रसन्त प्राचार्यसम्राट् श्री प्रानन्द ऋषिजी म. को असीम कृपा मुझ पर रही है और परमादरणीय पूज्य गुरुदेव श्री पुष्कर मुनिजी म. का हादिक आशीर्वाद मेरे साथ है। इन महान पुरुषों की कृपा के कारण ही में प्राज कुछ भी प्रगति कर सका है। इनकी सदा सर्वदा कृपा बनी रहे, इनकी निर्मल छत्र-छाया में हम अपना प्राध्यात्मिक समुत्कर्ष करते रहें, यही मंगल-मनीषा। मन्दसौर. दिनांक 10-3-89 - उपाचार्य देवेन्द्र मुनि [ 36 ] Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम प्राथमिक उपोद्घात द्विविधाख्या प्रथम प्रतिपत्ति मंगलमय प्रस्तावना स्वरूप और प्रकार धर्मास्तिकाय की सिद्धि प्रधर्मास्तिकाय प्रद्धासमय रूपी अजीव जीवाभिगम का स्वरूप पोर प्रकार संसारसमापन्न जीवाभिगम प्रथम प्रतिपत्ति का कथन पृथ्वीकाय का कथन पर्याप्ति का स्वरूप किसके कितनी पर्याप्तियां पर्याप्त-अपर्याप्त के भेद सूक्ष्मपृथ्वीकायिक के 23 द्वारों का निरूपण बादर पृथ्वीकाय का वर्णन अपकाय का अधिकार बादर अपकायिक वनस्पतिकायिक जीवों का अधिकार बादर वनस्पतिकायिक साधारण वनस्पति का स्वरूप प्रत्येकशरीरी वनस्पति के लक्षण त्रसों का प्रतिपादन सूक्ष्म-बादर तेजस्कायिक , ,, वायुकाय प्रौदारिक त्रसों का वर्णन द्वीन्द्रियवर्णन श्रीन्द्रियों का वर्णन चतुरिन्द्रियों का वर्णन पञ्चेन्द्रियों का कथन [ 37 ] Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112 116 117 122 123 तिर्यक् का कथन जलचरों का वर्णन स्थलचरों का वर्णन खेचर-वर्णन गर्भज जलचरों का वर्णन , स्थलचरों का वर्णन खेचर-वर्णन मनुष्यों का प्रतिपादन देवों का वर्णन भवस्थिति का वर्णन त्रिविधाख्या द्वितीय प्रतिपत्ति तीन प्रकार के संसारसमापन्नक जीव स्त्रियों का वर्णन स्त्रियों की भवस्थिति का प्रतिपादन तिर्यंचस्त्री आदि को पृथक् पृथक् भवस्थिति मनुष्यस्त्रियों की स्थिति देवस्त्रियों की स्थिति वैमानिक देवस्त्रियों की स्थिति तिर्यंचस्त्री का तदरूप में प्रवस्थानकाल मनुष्यस्त्रियों का " , (स्त्रियों का) अन्तरद्वार अल्पबहुत्व स्त्रीवेद की स्थिति पुरुष सम्बन्धी प्रतिपादन पुरुष की कालस्थिति तियंच पुरुषों की स्थिति देव " पुरुष का पुरुषरूप में निरन्तर रहने का काल अन्तरद्वार अल्पबहुत्व पुरुषवेद की स्थिति नपुंसक की स्थिति नपंसकों की कायस्थिति 123 125 130 134 138 140 145 146 147 148 149 150 Movi 162 165 168 171 174 नपुंसकों का अल्पबहुत्व नपुसकवेद की बन्धस्थिति और प्रकार 180 [38] Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 181 192 192 194 194 0 0 0 0 0 0 208 210 212 21 4 219 नवविध प्रल्पबहुत्व समुदायरूप में स्त्री-पुरुष-नपंसकों की स्थिति स्त्रियों को पुरुषों से अधिकता चतुर्विधाख्या तृतीय प्रतिपत्ति [ प्रथम उद्देशक ] चार प्रकार के संसारसमापन्नक' जीब नारकावासों की संख्या घनोदधि आदि को पृच्छा रत्नादिकाण्डों का बाहल्य रत्नप्रभादि में द्रव्यों की सत्ता नरकों का संस्थान सातों पृथ्वियों की अलोक से दूरी घनोदधि वातवलय का तिर्यग बाहल्य अपान्तराल और बाहल्य का यंत्र सर्वजीव-पुद्गलों का उत्पाद (रत्नप्रभा पृथ्वी) शाश्वत या प्रशाश्वत ? पृथ्वियों का विभागवार अन्तर बाहल्य की अपेक्षा तुल्यतादि [द्वितीय उद्देशक ] नरकभूमियों का वर्णन नारकावासों का संस्थान " के वर्णादि कितने बड़े हैं ? नरकासों में विकार उपपात संख्याद्वार अवगाहनाद्वार अवगाहनादर्शक यंत्र संहनन-संस्थानद्वार लेश्या प्रादि द्वार नारकों को भूख-प्यास एक-अनेक विकुर्वणा-वेदनादि नरकों में उष्णवेदना का स्वरूप नरकों में शीतवेदना का स्वरूप नरयिकों की स्थिति स्थितिदर्शक विभिन्न यंत्र 222 225 227 229 230 231 232 238 239 242 242 247 249 250 251 [ 39 ] Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 2 257 از له xururur سه ق 271 274 278 279 282 284 286 289 289 290 उद्वर्तना नरकों में पृथ्वी आदि का स्पर्शादि-निरूपण उद्देशाकार्शसंग्रहिणी माथाएँ [ तृतीय उद्देशक] नरकों का पुद्गलपरिणाम तिर्यम् अधिकार तिर्यग्योनिकों के भेद तिर्यच संबंधी द्वारनिरूपणा गंधांगप्ररूपण विमानों के विषय में प्रश्न तियंग्योनिक अधिकार का द्वितीय उद्देशक पृथ्वीकायिकों के विषय में विशेष जानकारी निर्लेप सम्बन्धी कथन प्रविशुद्ध-विशुद्ध लेश्या वाले अनगार का कथन सम्यग-मिथ्या क्रिया का एक साथ न होना मनुष्य का अधिकार मनुष्यों के भेद एकोरुक मनुष्यों के एकोरुक द्वीप का वर्णन एकोषक द्वीप के भूमिभागादि का वर्णन द्रुमादिवर्णन मत्तांगकल्पवृक्ष का वर्णन भृतांग , त्रुटितांग , , दीपशिखा , , ज्योतिशिखा , चित्रांग नामक कल्पवृक्ष चित्र रस मण्यंग गेहाकार , " अनग्नकल्पवृक्ष एकोरुक द्वीप के मनुष्यों का वर्णन एकोरुक-स्त्रियों का वर्णन एकोरुक द्वीप का प्रकीर्णक वर्णन एकोरुक मनुष्यों की स्थिति प्रादि प्रकर्मभूमिज-कर्मभूमिज मनुष्य प्रद्राईस अन्तरद्वीपिकों के कोष्ठक 292 293 294 294 295 296 297 297 298 299 300 300 304 321 322 [40] Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 324 r mmm Mmm 341 343 344 349 देववर्णन चमरेन्द्र की परिषद् का वर्णन नागकुमारों की वक्तव्यता वान-व्यन्तरों का अधिकार ज्योतिष्क देवों के विमानों का वर्णन तिर्यकलोक के प्रसंग में द्वीप-समुद्रवक्तव्यता जम्बूद्वीप-वर्णन पद्मवरवेदिका-वर्णन वनखण्डवर्णन बनखण्ड की वावड़ियों प्रादि का वर्णन जम्बूद्वीप के द्वारों की संख्या-वर्णन सुधर्मा सभा का वर्णन सिद्धायतन-वर्णन उपपातादि-सभावर्णन विजयदेव का उपपात और उसका अभिषेक पादि वैजयन्त प्रादि द्वार जम्बदीप क्यों कहलाता है? काञ्चनपर्वतों का अधिकार जम्बूवृक्ष-वक्तव्यता जम्बूद्वीप में चन्द्रादि की संख्या 387 398 400 422 425 432 434 442 [ 41] Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाजीवाभिगमसुत्तं जीवाजीवाभिगमसूत्र Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राथमिक उपोद्घात जगत् हितंकर, विश्ववंद्य देवाधिदेव तोर्थकर परमात्मा ने जगज्जीवों को संसार-सागर से पार करने, उन्हें सांसारिक प्राधि-व्याधि-उपाधियों से उबारने के लिए एवं अनादिकालीन कर्मबन्धनों से छुटकारा दिलाकर मुक्ति के अनिर्वचनीय सुख-सुधा का पान कराने हेतु प्रवचन का प्ररूपण किया है।' यह प्रवचन संसार के प्राणियों को भवोदधि से तारने वाला होने से 'तीर्थ' कहलाता है। प्रवचन तीर्थ है और तीर्थ प्रवचन है। प्रवचनरूप तीर्थ की रचना करने के कारण भगवान अरिहंत तीर्थकर कहलाते हैं। प्रवचन द्वादशांग गणिपिटक रूप है। प्रवाह की अपेक्षा से प्रवचन अनादि अनन्त होने पर भी विवक्षित तीर्थंकर को अपेक्षा वह आदिमान् है / अतः 'नमस्तीर्थाय' कहकर तीर्थंकर परमात्मा भी अनादि अनन्त तीर्थ को नमस्कार करते हैं। द्वादशांग गणिपिटक में उपयोगयुक्त रहने के कारण चतुर्विध श्रमणसंघ भी तीर्थ या प्रवचन कहा जाता है।' तीर्थंकर प्ररूपित यह प्रवचन द्वादशांगरूप है / तोयंकर परमात्मा अर्थरूप से इसका निरूपण करते हैं और विशिष्ट मति वाले गणधर सूत्ररूप में उसे ग्रथित करते हैं / सर्वज्ञ सर्वदर्शी तीर्थंकर परमात्मा द्वारा उपदिष्ट और विशिष्टमतिसम्पन्न चार ज्ञान, चोदह पूर्वो के धारक गणधरों द्वारा गुम्फित यह द्वादशांगो श्रुत-पुरुष के अंगरूप है। जो इस द्वादशांगी से अविरुद्ध और श्रुतस्थविरों द्वारा रचित हो वह श्रुत-पुरुष के उपांगरूप है। इस अपेक्षा से श्रुतसाहित्य अंगप्रविष्ट और अनंगप्रविष्ट के रूप से दो प्रकार का हो जाता है / जो गणधरों द्वारा रचित हो, जो प्रश्न किये जाने पर उत्तररूप हो, जो सर्व तीर्थंकरों के तीर्थ में नियत हो वह श्रत अंगप्रविष्टश्रत है। प्राचारांग से लगाकर दष्टिवाद पर्यन्त बारह अंग, अंगप्रविष्टश्रुत हैं। जो श्रुतस्थविरों द्वारा रचित हो, जो अप्रश्नपूर्वक मुक्तव्याकरण रूप हो तथा जो सर्व तीर्थकरों के तीर्थ में अनियत रूप हो वह अनंगप्रविष्टश्रत है। जैसे प्रोपपातिक आदि बारह उपांग और मूल, छेदसूत्र आदि / 1. जगजीवरक्खणदयट्रयाए भगवया पावयणं कहियं / ----प्रश्नव्याकरण 2. प्रगतं जीवादिपदार्थब्यापक, प्रधान, प्रशस्तं, प्रादौ वा वचनं प्रवचनम् द्वादशांगं गणिपिटकम् / -विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1 टीका 3. गणिपिटकोपयोगानन्यवाद वा चतुर्विधधीश्रमणसंघोऽपि प्रवचनमुच्यते / ---विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1 टीका 4. प्रत्थं भासह परहा सुतं गंथंति गणहरा भिउणं / 5. गणधर थेरकयं वा पाएसा मुक्कवागरणो वा। ध्रुव-चलविसेसो वा अंगाणंगेसु नाणत्तं // -विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 550 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जीवाजीवाभिगमसूत्र प्रस्तुत जीवाजीवाभिगमसूत्र तृतीय उपांग है / स्थानांग नामक तीसरे अंग का यह उपांग है / यह श्रुतस्थविरों द्वारा संदृब्ध (रचित) है। अंगबाह्यश्रुत कालिक और उत्कालिक के भेद से दो प्रकार के हैं / जो श्रुत अस्वाध्याय को टालकर दिन-रात के चारों प्रहर में पढ़े जा सकते हैं वे उत्कालिक हैं, यथा दशवकालिक आदि और जो दिन और रात्रि के प्रथम और अन्तिम प्रहर में ही पढ़े जाते हैं वे कालिकश्रुत हैं, यथा उत्तराध्ययन प्रादि / प्रस्तुत जीवाजीवाभिगमसूत्र उत्कालिकसूत्र है / ' जीवाजीवाभिगम-अध्ययन एक प्रवृत्ति है और कण्टकशाखा मर्दन की तरह निरर्थक प्रवृत्ति बुद्धिमानों की नहीं होती। अतएव ग्रन्थ के प्रारम्भ में प्रयोजन, अभिधेय और सम्बन्ध के साथ मंगल अवश्य ही बताया जाना चाहिए।' 1. प्रयोजन--प्रयोजन दो प्रकार का है-(१) अनन्तरप्रयोजन और (2) परम्परप्रयोजन / पुनः प्रयोजन दो प्रकार का है-(१) कर्तृगतप्रयोजन और (2) श्रोतृगतप्रयोजन / कर्तृगतप्रयोजन-प्रस्तुत जीवाजीवाभिगम अध्ययन द्रव्याथिकनय की अपेक्षा से कर्तृ रहित है, क्योंकि वह शाश्वत है, नित्य है। आगम में कहा है-'यह द्वादशांग गणिपिटक पूर्वकाल में नहीं था, ऐसा नहीं; वर्तमान में नहीं है, ऐसा भी नहीं; भविष्य में नहीं होगा, ऐसा भी नहीं। यह ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है / नित्य वस्तु का कोई कर्ता नहीं होता। पर्यायाथिकनय की अपेक्षा इसके कर्ता अर्थापेक्षया अर्हन्त हैं और सूत्रापेक्षया गणधर हैं। अर्थरूप पागम तो नित्य है किन्तु सूत्ररूप आगम अनित्य है। प्रतः सूत्रकार का अनन्तर प्रयोजन जीवों पर अनुग्रह करना है और परम्पर प्रयोजन अपवर्गप्राप्ति है। यहाँ यह शंका की जा सकती है कि अर्थरूप पागम के प्रणेता श्री अर्हन्त भगवान् का अर्थप्रतिपादन का क्या प्रयोजन है ? वे तो कृतकृत्य हो चुके हैं; उनमें प्रयोजनवत्ता कैसे घटित हो सकती है ? इसका समाधान यह है कि यद्यपि तीर्थकर परमात्मा कृतकृत्य हो चुके हैं, अतएव उनमें प्रयोजनवत्ता घटित नहीं होती तदपि वे तीर्थकर नामकर्म के उदय से अर्थ प्रतिपादन में प्रवृत्त होते हैं / जैसा कि कहा गया है-तीर्थकर नामकर्म का वेदन कैसे होता है ? अग्लान भाव से धर्मदेशना देने से तीर्थकर नामकर्म का वेदन होता है।" 1. उक्कालियं प्रणेगविहं पण्णत्तं तंजहा-दसवेयालियं, कप्पिया, कप्पियं, चुल्लकप्पसुयं महाकप्पसुयं, उववाइयं रायपसेणियं जीवाभिगमो.... -नंदीसूत्र 2. प्रेक्षावतां प्रवृत्त्यर्थ फलादि त्रितयं स्फुटम् / मंगलञ्चव शास्त्रादी वाच्यमिष्टार्थसिद्धये // -जीवा. मलयगिरि टीका 3. एयं दुवालसंग गणिपिडगं न कया वि नासी, न कयाइ वि न भवइ, न कया वि न भविस्सइ / धुनं गिच्चं सासयं। -नन्दीसूत्र 4. तं च कहं वेइज्जइ ? प्रगिलाए धम्मदेसणाए। --आवश्यकनियुक्ति Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राथमिक उपोद्घात] श्रोतृगतप्रयोजन-श्रोता का अनन्तर प्रयोजन विवक्षित अध्ययन के अर्थ को जानना है और उसका परम्पर-प्रयोजन निःश्रेयस् पद की प्राप्ति है। विवक्षित अर्थ को समझने के पश्चात् संयम में श्रोता की प्रवृत्ति होगी और संयम-प्रवृत्ति से सकल कर्मों का क्षय करके वह मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार प्रस्तुत अध्ययन को प्रारम्भ करने का प्रयास प्रयोजनयुक्त है, निष्प्रयोजन नहीं / 2. अभिधेय-प्रस्तुत शास्त्र का अभिधेय (विषय) जीव और अजीव के स्वरूप को प्रतिपादित करना है / जैसा कि इसके नाम से ही स्पष्ट हो जाता है। जीवों और अजीवों का अभिगम अर्थात् परिच्छेद-ज्ञान जिसमें हो या जिसके द्वारा हो वह जीवाजीवाभिगम अध्ययन है। सूत्रकार ने प्रस्तुत सूत्र को सार्थक नाम से विभूषित किया है। 3. सम्बन्ध-प्रस्तुत शास्त्र में दो प्रकार का सम्बन्ध है-(१) उपायोपेयभावसम्बन्ध और (2) गुरुपर्वक्रमरूप सम्बन्ध / तर्क का अनुसरण करने वालों की अपेक्षा से उपायोपेयभावसम्बन्ध है / नय तथा वचनरूप प्रकरण उपाय है और उसका परिज्ञान उपेय है। ___ गुरुपर्वक्रमरूप सम्बन्ध केवल श्रद्धानुसारियों की अपेक्षा से है। अर्थ की अपेक्षा यह जीवाजीवाभिगम तीर्थंकर परमात्मा ने कहा है और सूत्र की अपेक्षा द्वादशांगों में गणधरों ने कहा है / इसके पश्चात मन्दमतिजनों के हित के लिए अतिशय ज्ञान वाले चतर्दश-पूर्वधरों ने स्थानांग नाम ततीय अंग से लेकर पृथक् अध्ययन के रूप में इस जीवाजीवाभिगम का कथन किया और उसे व्यवस्थापित किया है / अतः यह तृतीय उपांगरूप में कहा गया है। ऐसे हो सम्बन्धों का विचार कर सूत्रकार ने 'थेरा भगवंतो पण्णवइंसु' कहा है। 4. मंगल प्रस्तुत अध्ययन सम्यग्ज्ञान का हेतु होने से तथा परम्परा से मोक्ष की प्राप्ति कराने वाला होने से स्वयमेव मंगलरूप है, तथापि 'श्रेयांसि बहुविघ्नानि' के अनुसार विघ्नों की उपशान्ति के लिए तथा शिष्य की बुद्धि में मांगलिकता का ग्रहण कराने के लिए शास्त्र में मंगल करने की परिपाटी है। इस शिष्टाचार के पालन में ग्रन्थ के अादि, मध्य और अन्त में मंगलाचरण किया जाता है। आदिमंगल का उद्देश्य ग्रन्थ की निर्विघ्न समाप्ति और शास्त्रार्थ में होने वाले विघ्नों से पार होना है / मध्यमंगल उसकी स्थिरता के लिए है तथा शिष्य-प्रशिष्य परम्परा तक ग्रन्थ का विच्छेद न हो, इसलिए अन्तिम मंगल किया जाता है / प्रस्तुत अध्ययन में 'इह खलु जिणमय' आदि मंगल है। जिन नाम का उत्कीर्तन मंगल रूप है। 1. जीवानामजीवानामभिगमः परिच्छेदो यस्मिन तज्जीवाजीवाभिगमं नाम्ना। 2. तं मंगलमाईए मज्झे पज्जतए य सत्थस्स। . पढमं सत्थत्थाविग्धपारगमणाय निद्दिष्ट्र। तस्सेव य थेज्जत्थं मज्झिमयं अंतिमपि तस्सेव / प्रवोच्छित्ति निमित्तं सिस्सपसिस्साइवंसस्स // विशेषा. भाम्म Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6. जीवाजीवामिगमसूत्र द्वीप-समुद्र आदि के स्वरूप का कथन मध्यमंगल है। क्योंकि निमित्तशास्त्र में द्वीपादि को परम मंगलरूप में माना गया है। जैसा कि कहा है-'जो जं पसत्थं अत्थं पुच्छइ तस्स प्रत्थसंपत्ती।' 'दसविहा सव्वे जीवा' यह अन्तिम मंगल है। सब जीवों के परिज्ञान का हेतु होने से इसमें मांगलिकता है। अथवा सम्पूर्ण शास्त्र ही मंगलरूप है। क्योंकि वह निर्जरा का हेतुभूत है। जैसे तप निर्जरा का कारण होने से मंगलरूप है। शास्त्र सम्यग्ज्ञानरूप होने से निर्जरा का कारण होता है। क्योंकि कहा गया है कि 'अज्ञानी जिन कर्मों को बहुत से करोड़ों वर्षों में खपाता है, उन्हें मन-वचन-काया से गुप्त ज्ञानी उच्छ्वासमात्र काल में खपा डालता है।'' इस प्रकार प्रयोजनादि तीन तथा मंगल का कथन करने के पश्चात अध्ययन का प्रारम्भ किया जाता है। 1. जं अण्णाणी कम्म खवेइ बहुयाहि वासकोडीहिं। तं नाणो तिहिं गुत्तो खवेइ ऊसासमितणं / / Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति मंगलमय प्रस्तावना 1. इह खलु जिणमयं, जिणाणुमयं, जिणाणुलोम, जिणप्पणीयं, जिणपरूवियं, जिणक्खायं, जिणाणचिन्नं, जिणपण्णतं, जिणदेसियं, जिणपसत्थं, अणुब्धोइय तं सद्दहमाणा, तं पत्तियमाणा, तं रोयमाणा थेरा भगवंतो जीवाजीवाभिगमणाममजायणं पण्णवइंसु। [1] इस मनुष्य लोक में अथवा जैन प्रवचन में तीर्थंकर परमात्मा के सिद्धान्तरूप द्वादशांग गणिपिटक का, जो अन्य सब तीर्थंकरों द्वारा अनुमत है, जिनानुकूल है, जिन-प्रणीत है, जिनप्ररूपित है, जिनाख्यात है, जिनानुचीर्ण है, जिनप्रज्ञप्त है, जिनदेशित है, जिन प्रशस्त है, पर्यालोचन कर उस पर श्रद्धा करते हए, उस पर प्रतीति करते हए, उस पर रुचि रखते हुए ए स्थविर भगवंतों ने जीवाजीवाभिगम नामक अध्ययन प्ररूपित किया। विवेचन—इस प्रथम सूत्र में मंगलाचरण की शिष्टपरिपाटी का निर्वाह करते हुए ग्रन्थ की प्रस्तावना बताई गई है। विशिष्ट मतिसम्पन्न चतुर्दशपूर्वधर श्रुतस्थविर भगवंतों ने तीर्थकर परमात्मा के द्वादशांगीरूप गणिपिटक का भलीभांति पर्यालोचन एवं अनुशीलन कर, परम सत्य के रूप में उस पर श्रद्धा, प्रतीति एवं रुचि करके जीवाजीवाभिगम नामक अध्ययन का प्ररूपण किया। सूत्र में पाया हुया 'जिणमयं'--नसिद्धान्त पद विशेष्य है और 'जिणाणुमयं' से लगाकर 'जिणपसत्थं' तक के पद 'जिणमयं' के विशेषण हैं / इन विशेषणों के द्वारा सूत्रकार नेजैन सिद्धान्त की महिमा एवं गरिमा का वर्णन किया है। ये सब विशेषण 'जनमत' की अलग-अलग विशेषताओं का प्रतिपादन करते हैं / प्रत्येक विशेषण की सार्थकता इस प्रकार है जिणाणमयं-यह जैनसिद्धान्त जिनानुमत है। वर्तमानकालीन जैनसिद्धान्त चरम तीर्थकर जिनशासननायक वर्तमान तीर्थाधिपति श्री वर्धमान स्वामी के आधिपत्य में गतिमान हो रहा है। राग-द्वेषादि अन्तरंग अरियों को जीतकर केवलज्ञान-केवलदर्शन प्राप्त करने के पश्चात् जिनेश्वर श्री वर्धमान (महावीर) स्वामी ने प्राचारांग से लेकर दृष्टिवाद पर्यन्त द्वादशांग का प्ररूपण किया। यह जनमत' है। प्रभ महावीर का यह 'जिनमत' सार्वभौम सत्य होने के कारण भूतवर्तमान-भविष्य के सब तीर्थंकरों के द्वारा अनुमत है। भूतकाल में जितने ऋषभादि तीर्थकर हए हैं और भविष्य में जो पद्मनाभ आदि तीर्थक र होंगे तथा वर्तमान में जो सीमंधर स्वामी आदि तीर्थकर हैं, उन सबके द्वारा यह अनुमोदित और मान्य है। शाश्वत सत्य सदा एकरूप होता है। उसमें कोई विसंगति या भिन्नता नहीं होती / इस कथन द्वारा यह प्रवेदित किया गया है-सब तीथंकरों के वचनों में अविसंवादिता होने के कारण एकरूपता होती है। जिणाणुलोम-यह जैनमत जिनानुलोम है अर्थात् जिनों के लिए अनुकूल है। यहाँ 'जिन' से तात्पर्य अवधिजिन, मनःपर्यायजिन और केवल जिन से है।' यह जैनमत अवधिजिन आदि के लिए 1. तो जिणा पण्णत्ता तं जहा--प्रोहिणाणजिणे, मणपज्जवणाणजिणे, केवलणाणजिणे / ----स्थानांग, 3 स्थान, 4 उद्दे. Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जीवाजीवाभिगमसूत्र अनुकूल है / तात्पर्य यह है कि इस सिद्धान्त के द्वारा जिनत्व की प्राप्ति होती है। यथोक्त जिनमत का आसेवन करने से साधुवर्ग अवधिज्ञान, मन:पर्यवज्ञान और केवलज्ञान प्राप्त करते हैं। अतएव जिनमत को जिनानुलोम विशेषण से अलंकृत किया गया है। जिणप्पणीयं-यह जैनसिद्धान्त जिनप्रणीत है। अर्थात् वर्तमान तीर्थाधिपति श्री वर्धमान स्वामी द्वारा कथित है। केवलज्ञान की प्राप्ति होने पर श्री वर्धमान स्वामी ने बीजबूद्धि आदि परम गुण कलित गौतमादि गणधरों को समस्तार्थ-संग्राहक मातृकापदत्रय 'उप्पन्न इवा, विगमे इ वा, धुवेइ वा' का कथन किया। इन तीन मातृका पदों का अवलम्बन लेकर गौतमादि गणधरों ने द्वादशांगी की रचना की / अतएव यह जिनमत जिनप्रणीत है। इस कथन से यह बताया गया है कि प्रागम सूत्र की अपेक्षा पौरुषेय ही है, अपौरुषेय नहीं। आगम शब्दरूप है और पुरुष-व्यापार के बिना वचनों का उच्चारण नहीं हो सकता / पुरुष-व्यापार के बिना शब्द आकाश में ध्वनित नहीं होते / मीमांसक मत वाले आगम को अपौरुषेय मानते हैं। उनकी यह मान्यता इस विशेषण द्वारा खण्डित हो जाती है / जिणपरूवियं-यह जिनमत जिनेश्वरों द्वारा प्ररूपित किया गया है। इस विशेषण द्वारा यह बताया गया है कि भगवान् वर्धमान स्वामी ने इस सिद्धान्त का इस प्रकार प्ररूपण किया कि श्रोता. जन उसके तत्त्वार्थ को भलीभांति समझ सकें। यहाँ कोई शंका कर सकता है कि यह अध्ययन या प्रकरण अविज्ञात अर्थ वाला ही रहने वाला है चाहे वह सर्वज्ञ से ही क्यों न सुना जाय / क्योंकि सर्वज्ञ की विवक्षा का प्रत्यक्ष द्वारा ग्रहण नहीं हो सकता / ऐसी स्थिति में उस विवक्षा के विषयभूत शब्द के अर्थ में प्रत्यय या विश्वास कैसे नमेगा? जैसे म्लेच्छ व्यक्ति प्रार्य व्यक्ति के भाषण को नकल मात्र कर सकता है, उसके अर्थ को नहीं समझ सकता, इसी तरह श्रोता भी सर्वज्ञ के वचनों के अर्थ को नहीं समझ सकता है।' उक्त शंका का समाधान यह है कि यद्यपि वक्ता की विवक्षा अप्रत्यक्ष होती है फिर भी वह अनुमानादि के द्वारा जान ली जाती है। विवक्षा को जानकर संकेत की सहायता से श्रोता को शब्द के अर्थ का ज्ञान हो ही जाता है। यदि ऐसा न हो तो अनादि शब्द-व्यवहार ही ध्वस्त हो जायेगा / शब्दव्यवहार की कोई उपयोगिता नहीं रहेगी / बालक भी शब्द से अर्थ की प्रतीति कर ही लेता है। अनेक अर्थ वाले सैन्धव आदि शब्द भी भगवान् के द्वारा संकेतित होकर प्रसंग और औचित्य आदि के द्वारा नियत अर्थ को बताते ही हैं। अतः अनेकार्थ वाले शब्दों से भी यथास्थित अर्थ का बोध होता है। ... भगवान इस प्रकार से तत्त्व प्ररूपित करते हैं जिससे श्रोता को सम्यग् बोध हो जाय / भगवान् सबके हितैषी हैं, वे अविप्रतारक हैं अतएव अन्यथा समझने वाले को उसकी गलती समझाकर सत्य अर्थ की प्रतीति कराते हैं। वे अन्यथा समझने वाले के प्रति उपेक्षा भी नहीं करते, क्योंकि वे तीर्थप्रवर्तन में प्रवृत्त होते हैं। अतएव भगवान् के वचनों से गणधरों को साक्षात् और शेष श्रोताओं को परम्परा से यथावस्थित अर्थ की प्रतीति होती है / अत: आगम अविज्ञात अर्थवाला नहीं है। 1. पार्याभिप्रायमज्ञात्वा म्लेच्छ वागयोगतुल्यता / सर्वज्ञादपि हि श्रोतुस्तदन्यस्यार्थदर्शने / / Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति : मंगलमय प्रस्तावना] [. जिणक्खायं-यह जिनमत जिनेश्वर द्वारा साक्षात् वचनयोग द्वारा कहा गया है। कतिपय मनीषियों का कहना है कि तीर्थकर भगवान् प्रवचन के लिए प्रयास नहीं करते हैं किन्तु उनके प्रकृष्ट पुण्य प्राग्भार से श्रोताजनों को वैसा आभास होता है। जैसे चिन्तामणि में स्वयं कोई रंग नहीं होता किन्तु उपाधि-संसर्ग के कारण वह रंगवाला दिखाई देता है। वैसे ही तीर्थकर प्रवचन का प्रयास नहीं करते फिर भी उनके पुण्यप्रभाव से श्रोताओं को ऐसा प्रतीत होता है कि भगवान् तीर्थंकर ऐसा-ऐसा प्ररूपण कर रहे हैं। यह कथन उचित नहीं है। इस मत का खुण्डन करने के लिए 'जिनाख्यात' विशेषण दिया गया है। इसका तात्पर्य यह है कि तीर्थकर भगवान् तीर्थंकर नामकर्म के उदय से साक्षात् वचनव्यापार द्वारा प्रवचन करते हैं। साक्षात् वचन-व्यापार के उपलब्ध होने पर भी यदि आधिपत्यमात्र से श्रोताओं को वैसा प्रतीत होना माना जाय तो अतिप्रसंग होगा। अन्यत्र भी ऐसी कल्पना की जा सकेगी। वैसी स्थिति में प्रत्यक्षविरोध होगा। अतः उक्त मान्यता तर्क और प्रमाण से सम्मत नहीं है। जिणाणुचिण्णं-यह जिनमत गणधरों द्वारा समाधि रूप से परिणमित हुआ है / यहाँ 'जिन' शब्द से गणधरों का अभिप्राय समझना चाहिए / गणधर ऐसी शक्ति से सम्पन्न होते हैं कि उन्हें हित की प्राप्ति से कोई रोक नहीं सकता। वे इस जिनमत का अर्थ हृदयंगम करके अनासक्ति द्वारा समभाव की प्राप्ति करके समाधिदशा का अनुभव करते हैं। गणधरों द्वारा प्रासेवित होने से जिनमत को 'जिणाणुचिण्णं' कहा गया है / अथवा अतीतकाल में सामान्यकेवली आदि जिन इसका सेवन कर जिनत्व को प्राप्त हुए हैं / इस अपेक्षा से भी जिणाणुचिण्णं को संगति समझनी चाहिए / जिणपण्णत्तं यह जिनमत गणधरों द्वारा प्रज्ञप्त है / पूर्वोक्त समाधिभाव से सम्प्राप्त अतिशयविशेष के कारण गणधरों में ऐसी विशिष्ट शक्ति आ जाती है जिसके प्रभाव से वे सूत्र के रूप में प्राचारादि अंगोपांगादि भेद वाले श्रुत की रचना कर देते हैं। इसलिए यह जिनमत सूत्ररूप से जिनप्रज्ञप्त अर्थात् गणधरों द्वारा रचित है। आगम में कहा गया है-'तीर्थकर अर्थरूप से कथन करते हैं और गणधर उसे सूत्ररूप से गुम्फित करते हैं / इस तरह जिनशासन के हित के लिए सूत्र प्रवर्तित होता है। जिणदेसियं-यह जिनमत गणधरों द्वारा भी हितमार्ग में प्रवृत्ति करने वाले योग्य जनों को ही दिया गया है। इससे यह ध्वनित होता है कि योग्यजनों को ही सूत्र-सिद्धान्त का ज्ञान दिया जाना चाहिए / यहाँ 'जिन' शब्द का अर्थ हितमार्ग में प्रवृत्ति करने वाले विनेयादि के लिए प्रयुक्त हुआ है। जो श्रोताजन हितमार्ग से अभिमुख हों और अहितमार्ग से विमुख हों, उन्हीं को यह श्रुत दिया जाना चाहिए / सुधर्मा गणधर ने ऐसे ही योग्य विनेय श्री जम्बूस्वामी को यह श्रुत प्रदान किया। 1. तदाधिपत्यादाभासः सत्वानामुपजायते / स्वयं तु यत्नरहितश्चिन्तामणिरिव स्थितः / / 2. प्रत्थं भासह मरहा सुत्तं गंथंति गणहरा निउणं / सासणस्स हियद्वाए, तो सुत्तं पवत्तइ / / 3. जिना इह हितप्रवृत्तगोत्रविशुद्धोपायाभिमुखापायविमुखादयः परिगृह्यन्ते। -मलयगिरि वृत्ति / Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10] [जीवाजीवाभिगमसूत्र शंका की जा सकती है कि श्रुत-सिद्धान्त प्रकृति-सुन्दर है तो क्यों नहीं सभी को दिया जाता है ? इसका समाधान है कि अयोग्य व्यक्तियों के प्रकृति से ही असुन्दर होने से अनर्थों की संभावना रहती है। प्रायः देखा जाता है कि पात्र की असुन्दरता के कारण प्रकृति से सुन्दर सूर्य की किरणें उलूकादि के लिए अनर्थकारी ही होती हैं। कहा है कि जो जिसके लिए हित के रूप में परिणत हो उसी का प्रयोग किया जाना चाहिए। मछली के लिए कांटे में लगा गल आहार होने पर भी अनर्थ के लिए ही होता है।' जिणपसत्थं-यह जिनमत योग्य एवं पात्र व्यक्तियों के लिए कल्याणकारी है / यहाँ भी 'जिन' शब्द का अर्थ हितमार्ग में प्रवृत्ति करने वाले और अहितमार्ग से विमुख रहने वाले जनों के लिए प्रयुक्त हया है। जैसे नीरोग के लिए पथ्याहार भविष्य में होने वाले रोगों को रोकने वाला होने से हितावह होता है, इसी तरह यह जिनमत हितमार्ग में प्रवृत्त और अहितमार्ग से निवृत्त जनों के लिए हितावह है / इसका सम्यग् रूप से प्रासेवन करने से यह जिनमत कल्याणकारी और हितावह सिद्ध होता है। उक्त विशेषणों से विशिष्ट 'जिनमत' को प्रोत्पत्तिकी आदि बुद्धियों द्वारा सम्यक् पर्यालोचन करके, उस पर श्रद्धा, प्रतीति एवं रुचि रखने वाले स्थविर भगवंतों ने 'जीवाजीवाभिगम' इस सार्थक नाम वाले अध्ययन का प्ररूपण किया। यद्यपि काल-दोष से बुद्धि आदि गुणों का ह्रास हो रहा है, फिर भी यह समझना चाहिए कि जिनमत का थोड़ा भी ज्ञान एवं प्रासेवन भव का छेदन करने वाला है / ऐसा मानकर कोमल चित्त से जिनमत पर श्रद्धा रखनी चाहिए। स्थविर भगवंतों से अभिप्राय उन प्राचार्यों से है जिनका ज्ञान और चारित्र परिपक्व हो चुका है। धर्मपरिणति से जिनकी मति का असमंजस दूर हो गया है और श्रुतरूपी ऐश्वर्य के योग से जिन्होंने कषायों को भग्न कर दिया है। इस प्रकार प्रस्तुत सूत्र में गुरुपर्वक्रमलक्षण सम्बन्ध और अभिधेय आदि का कथन किया गया है। स्वरूप और प्रकार 2. से कि तं जीवाजोवाभिगमे ? जीवाजोवाभिगमे दुविहे पण्णत्ते, तं जहाजीवाभिगमे य अजीवाभिगमे य / [2] जीवाजीवाभिगम क्या है ? जीवाजीवाभिगम दो प्रकार का कहा गया है, वह इस प्रकार--१. जीवाभिगम और 2. अजीवाभिगम / 1. पउंजियव्वं धीरेण हियं जं जस्स सव्वहा / पाहारो वि हु मच्छस्स न पसत्थों गलो भुवि / / Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति: स्वरूप और प्रकार] [11 3. से कि तं अजीवाभिगमे ? अजीवाभिगमे विहे पण्णतेतं जहा--१ रूवि-अजीवाभिगमे य 2 अरूवि-अजीवाभिगमे य / [3] अजीवाभिगम क्या है ? अजीवाभिगम दो प्रकार का कहा गया हैवह इस प्रकार-१ रूपी-अजीवाभिगम और 2 अरूपी अजीवाभिगम / 4. से कि त अरूवि-अजीवाभिगमे ? अरूवि-अजीवाभिगमे बसविहे पण्णत्ते--- तं जहा-धम्मत्थिकाए एवं जहा पण्णवणाए' जाव (अद्धासमए), से तं प्रवि-अजीवाभिगमे। [4] अरूपी-अजीवाभिगम क्या है ? अरूपी-अजीवाभिगम दस प्रकार का कहा गया हैजैसे कि-१ धर्मास्तिकाय से लेकर 10 अद्धासमय पर्यन्त जैसा कि प्रज्ञापनासूत्र में कहा गया है / यह अरूपी-अजीवाभिगम का वर्णन हुआ। 5. से कि तं रूवि-अजीवाभिगमे ? रूवि-अजीवाभिगमे चउम्विहे पण्णत्तेतं जहा-खंधा, खंधदेसा, खंघप्पएसा, परमाणुपोग्गला / ते समासतो पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा-वण्णपरिणया, गंधपरिणया, रसपरिणया, फासपरिणया, संठाणपरिणया एवं जहा पण्णवणाए' (जाव लक्ख फास-परिणया वि) / से तं रूवि-अजीवाभिगमे; से तं अजीवाभिगमे / [5] रूपी-अजीवाभिगम क्या है ? रूपी-अजीवाभिगम चार प्रकार का कहा गया हैवह इस प्रकार–स्कंध, स्कंध का देश, स्कंध का प्रदेश और परमाणुपुद्गल / वे संक्षेप से पांच प्रकार के कहे गये हैंजैसा कि-१ वर्णपरिणत, 2 गंधपरिणत, 3 रसपरिणत, 4 स्पर्शपरिणत और 5 संस्थान / इस प्रकार जैसा प्रज्ञापना में कहा गया है वैसा कथन यहाँ भी समझना चाहिए। यह रूपीअजीव का कथन हुआ। इसके साथ ही अजीवाभिगम का कथन भी पूर्ण हुआ। विवेचन–प्रस्तुत सूत्रों में जिज्ञासु प्रश्नकार ने प्रश्न किये हैं और गुरु-प्राचार्य ने उनके उत्तर दिये हैं / इससे यह ज्ञापित किया गया है कि यदि मध्यस्थ, बुद्धिमान और तत्त्वजिज्ञासु प्रश्नकर्ता प्रश्न करे तो ही उसके समाधान हेतु भगवान् तीर्थकर द्वारा उपदिष्ट तत्त्व की प्ररूपणा करनी चाहिए, अन्य अजिज्ञासुनों के समक्ष नहीं। 1. प्रज्ञापनासूत्र 5 2. प्रज्ञापनासूत्र 5 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12] [जीवाजीवाभिगमसूत्र इन सूत्रों में सामान्य रूप से प्रश्न और उत्तर दिये गये हैं। इनके मूलपाठ में किसी गौतमादि विशिष्ट प्रश्नकर्ता का उल्लेख नहीं और न ही उत्तर में गौतम आदि संबोधन है। इसका तात्पर्य यह है कि सूत्र-साहित्य का अधिकांश भाग गणधरों के प्रश्न और भगवान् वर्धमान स्वामी के उत्तर रूप में रचा गया है और थोड़ा भाग ऐसा है जो अन्य जिज्ञासुओं द्वारा पूछा गया है और स्थविरों द्वारा उसका उत्तर दिया गया है / पूरा का पूरा श्रुत-साहित्य गणधर-पृष्ट और भगवान् द्वारा उत्तरित ही नहीं है / प्रस्तुत सूत्र भी सामान्य तथा अन्य जिज्ञासुओं द्वारा पृष्ट और स्थविरों द्वारा उत्तरित है। प्रथम प्रश्न में जीवाजीवाभिगम का स्वरूप पूछा गया है। उत्तर के रूप में उसके भेद बताकर स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है / जीवाजीवाभिगम जीवाभिगम और अजीवाभिगम स्वरूप वाला है / अभिगम का अर्थ परिच्छेद, बोध या ज्ञान है / जीवद्रव्य का ज्ञान जोवाभिगम है और अजीव द्रव्यों का ज्ञान अजीवाभिगम है / इस विश्व में मूलतः दो ही तत्त्व हैं—जीव तत्त्व और अजीव तत्त्व / अन्य सब इन दो ही तत्त्वों का विस्तार है। ये दोनों मूल तत्त्व द्रव्य की अपेक्षा तुल्य बल वाले हैं, यह ध्वनित करने के लिए दोनों पदों में 'च' का प्रयोग किया गया है। जीव और अजीव दोनों भिन्न जातीय हैं और स्वतन्त्र अस्तित्व वाले हैं। जीव और अजीव तत्व का सही-सही भेद-विज्ञान करना अध्यात्मशास्त्र का मुख्य विषय है। इसीलिए शास्त्रों में जीव और अजीव के स्वरूप के विषय में विस्तार से चर्चा की गई है। जीव और अजीव के भेद-ज्ञान से ही सम्यग्दर्शन होता है और फिर सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र से मुक्ति होती है / प्रतएव जीवाभिगम और अजीवाभिगम परम्परा से मुक्ति का कारण है। सूत्रकार ने पहले जीवाभिगम कहा और बाद में अजीवाभिगम कहा है / 'यथोद्देशस्तथा निर्देश:' अर्थात् उद्देश के अनुसार ही निर्देश-कथन करना चाहिए--इस न्याय से पहले जीवाभिगम के विषय में प्रश्नोत्तर किये जाने चाहिए थे, परन्तु ऐसा न करते हुए पहले अजीवाभिगम के विषय में प्रश्नोत्तर किये गये हैं। इसका कारण यह है कि जीवाभिगम में वक्तव्य-विषय बहुत है और अजीवाभिगम में अल्पवक्तव्यता है / अत: 'सूचिकटाह' न्याय से पहले अजीवाभिगम के विषय में प्रश्नोत्तर हैं। अजीवाभिगम दो प्रकार का है—१. रूपी-अजीवाभिगम और अरूपी-अजीवाभिगम / सामान्यतया जिसमें रूप पाया जाय उसे रूपी कहते हैं / परन्तु यहाँ रूपी से तात्पर्य रूप, रस, गंध, स्पर्श, चारों से है / उपलक्षण से रूप के साथ रसादि का भी ग्रहण हो जाता है, क्योंकि ये चारों एक दूसरे को छोड़कर नहीं रहते / प्रत्येक परमाणु में रूप, रस, गन्ध, स्पर्श पाये जाते हैं।' इससे बात का खण्डन हो जाता है कि रूप के परमाणु अलग ही हैं और रसादि के परमाणु सर्वथा अलग ही हैं / रूप-रसादि के परमाणुओं को सर्वथा अलग मानना प्रत्यक्षबाधित है। हम देखते हैं कि हार आदि के रूपपरमाणुओं में स्पर्श की उपलब्धि भी साथ-साथ होती है और घृतादि रस के परमाणुओं में रूप और गन्ध की भी उपलब्धि होती है / कपूर आदि के गन्ध परमाणुओं में रूप की उपलब्धि भी निरन्तर रूप से होती है / इसलिए रूप, रस, गन्ध और स्पर्श परस्पर अभिन्न हैं। रूप, रस, गन्ध, स्पर्श वाले रूपी अजीव हैं और जिनमें रूप, रस, गन्ध, स्पर्श नहीं हैं वे अरूपी अजीव हैं। 1. कारणमेव तदन्त्यं सूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाणुः / एकरसगंधवों द्विस्पर्श: कार्यलिगश्च // Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति : स्वरूप और प्रकार] अरूपी अजीव इन्द्रियप्रत्यक्ष से नहीं जाने जाते हैं। वे आगमप्रमाण से जाने जाते हैं। अरूपी अजीव के दस भेद कहे गये हैं--१. धर्मास्तिकाय, 2. धर्मास्तिकाय का देश, 3. धर्मास्तिकाय के प्रदेश, 4. अधर्मास्तिकाय, 5. अधर्मास्तिकाय का देश, 6. अधर्मास्तिकाय के प्रदेश, 7. आकाशास्तिकाय, 8. आकाशास्तिकाय का देश, 9. आकाशास्तिकाय के प्रदेश और 10. अद्धासमय / उक्त भेद प्रज्ञापनासूत्र के अनुसार समझने हेतु सूत्रकार ने सूचना की है। 1. धर्मास्तिकाय-स्वतः गतिपरिणत जीवों और पुद्गलों को गति करने में जो सहायक होता है, निमित्तकारण होता है वह धर्मास्तिकाय है / जिस प्रकार मछली को तैरने में जल सहायक होता है, वृद्ध को चलने में दण्ड सहायक होता है, नेत्र वाले व्यक्ति के ज्ञान में दीपक सहायक होता है, उसी तरह जीव और पुद्गलों की गति में निमित्तकारण के रूप में धर्मास्तिकाय सहायक होता है।' यह ध्यान देने योग्य है कि धर्मास्तिकाय जीव और पुद्गलों को गति करने में प्रेरक नहीं होता है अपितु सहायक मात्र होता है। जैसे जल मछली को चलाता नहीं, दण्ड वृद्ध को चलाता नहीं, दीपक नेत्रवान् को दिखाता नहीं अपितु सहायक मात्र होता है / वैसे ही धर्मास्तिकाय गति में प्रेरक न होकर सहायक होता है। धर्मास्तिकाय की सिद्धि धर्मास्तिकाय का अस्तित्व जैनदर्शन के अतिरिक्त अन्य किन्हीं भी दार्शनिकों ने स्वीकार नहीं किया है / अतएव सहज जिज्ञासा होती है कि धर्मास्तिकाय के अस्तित्व में क्या प्रमाण है ? इसका समाधान करते हुए जैन दार्शनिकों और शास्त्रकारों ने कहा है कि-गतिशील जीवों और पुद्गलों की गति को नियमित करने वाले नियामक तत्त्व के रूप में धर्मास्तिकाय को मानना आवश्यक है / यदि ऐसे किसी नियामक तत्व को न माना जाय तो इस विश्व का नियत संस्थान घटित नहीं हो सकता। जड़ और चेतन द्रव्य की गतिशीलता अनुभवसिद्ध है। यदि वे अनन्त आकाश में बेरोकटोक चलते ही जावें तो इस लोक का नियत संस्थान बन हो नहीं सकेगा। अनन्त पुद्गल और अनन्त जीव अनन्त आकाश में बेरोकटोक संचार करते रहेंगे तो वे इस तरह से अलग-थलग हो जायेंगे कि उनका मिलना और नियत सृष्टि के रूप में दिखाई देना असम्भव हो जावेगा। इसलिए जीव और पुदगलों की सहज गतिशीलता को नियमित करने वाला नियामक तत्व धर्मास्तिकाय स्वीकार किया गया है / धर्मास्तिकाय का अस्तित्व मानने पर ही लोक-अलोक का विभाग संगत हो सकता है। सहज गतिस्वभाव वाले होने पर भी जीव और पुद्गल लोक से बाहर अलोक में नहीं जा सकते। परमाण जघन्य से परमाणमात्र क्षेत्र से लगाकर उत्कृष्टतः चौदह राजूल गति कर सकता है। इससे एक प्रदेशमात्र अधिक क्षेत्र में उसकी गति नहीं हो सकती। इसका नियामक कौन है ? आकाश तो इस गति का नियामक नहीं हो सकता क्योंकि आकाश तो अलोक में भी समान रूप से है। अतएव जो इस गतिपरिणाम का नियामक है वह धर्मास्तिकाय है। जहां धर्मास्तिकाय है वहीं जीव-पुद्गलों की गति है और जहाँ धर्मास्तिकाय नहीं है वहाँ जीव-पुद्गलों की 1. परिणामी गतेध मों भवेत्पुद्गलजीवयोः / अपेक्षाकारणाल्लोके मीनस्येव जलं सदा // Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14] [जीवाजीवाभिगमसूत्र गति नहीं होती। धर्मास्तिकाय लोकाकाश में ही है इसीलिए जीवों और पुद्गलों की गति लोकाकाश तक ही सीमित है / इस प्रकार धर्मास्तिकाय के गतिसहायक रूप कार्य से उसके अस्तित्व की सिद्धि होती है। सकल धर्मास्तिकाय एक अखण्ड अवयवी द्रव्य है, वह स्कन्धरूप है। उसके असंख्यात प्रदेश अवयव रूप हैं / अवयवों का तथारूप संघात, परिणाम विशेष ही अवयवी है। जैसे तन्तुओं का पातानवितान रूप संघातपरिणाम ही पट है।' उनसे भिन्न पट और कुछ नहीं है। अवयव और अवयवी कथंचित् भिन्नाभिन्न हैं। 2. धर्मास्तिकाय का देश-धर्मास्तिकाय के बुद्धिकल्पित द्विप्रदेशात्मक, त्रिप्रदेशात्मक आदि विभाग को धर्मास्तिकाय का देश कहते हैं। वास्तव में तो धर्मास्तिकाय एक अखण्ड द्रव्य है। उसके देश-प्रदेश आदि विभाग बुद्धिकल्पित ही हैं। 3. धर्मास्तिकाय के प्रदेश स्कन्ध के ऐसे सूक्ष्म भाग को, जिसका फिर अंश न हो सके, प्रदेश कहते हैं। 'प्रदेशा निविभागा भागा:' अर्थात् स्कन्धादि के अविभाज्य निरंश अंश को प्रदेश कहते हैं / ये प्रदेश असंख्यात हैं अर्थात् लोकाकाशप्रमाण हैं / ये प्रदेश केवल बुद्धि से कल्पित किये जा सकते हैं / वस्तुतः ये स्कन्ध से अलग नहीं हो सकते। इस प्रकार धर्मास्तिकाय के तीन भेद बताये गये हैं स्कन्ध, देश और प्रदेश / प्रश्न हो सकता है कि धर्मद्रव्य को अस्तिकाय क्यों कहा गया है ? इसका समाधान है कियहाँ 'अस्ति' का अर्थ प्रदेश है और 'काय' का अर्थ संघात या समुदाय है। प्रदेशों के समुदाय को अस्तिकाय कहा जाता है। धर्मद्रव्य असंख्यात प्रदेशों का समूहरूप है अतएव उसे अस्तिकाय कहा जाता है। 4. अधर्मास्तिकाय-जीव और अजीव की स्थिति में सहायक होने वाला तत्त्व अधर्मास्तिकाय है। जैसे वृक्ष की छाया पथिक के लिए ठहरने में निमित्तकारण बनती है, इसी तरह अधर्मास्तिकाय जीव-पुद्गलों की स्थिति में सहायक होता है / / यह भी स्थिति में सहायक है, प्रेरक नहीं / जो भी स्थितिरूप भाव हैं वे सब अर्धास्तिकाय के होने पर ही होते हैं। धर्मास्तिकाय की तरह यह भी एक अखण्ड अविभाज्य इकाई है / यह असंख्यातप्रदेशी और सर्वलोकव्यापी है / 5-6. अधर्मास्तिकाय का देश और प्रदेश अधर्मास्तिकाय के तीन भेद हैं-स्कन्ध, देश और प्रदेश / सम्पूर्ण वस्तु को स्कन्ध कहते हैं। द्विप्रदेशी आदि बुद्धिकल्पित विभाग को देश कहते हैं और वस्तु से मिले हुए सबसे छोटे अंश को–जिनका फिर भाग न हो सके-प्रदेश कहते हैं। 1. तन्त्वादिव्यतिरेकेण, न पटाधुपलम्भनम् / तन्त्वादयोऽविशिष्टा हि, पटादिव्यपदेशिनः / / 2. अस्तयः प्रदेशास्तेषां कायः संघातः / 'गण काए य निकाए खंधे वग्गे य रासी य' इति वचनात अस्तिकायः प्रदेशसंघातः। -मलयगिरिवृत्ति 3. अहम्मो ठिइलक्खणो / Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति: स्वरूप और प्रकार] [15 7-8-6. आकाशास्तिकाय के स्कन्ध, देश, प्रदेश–आकाश सर्वसम्मत अरूपी द्रव्य है। शाब्दिक व्युत्पत्ति के अनुसार जिसमें अन्य सब द्रव्य अपने स्वरूप को छोड़े बिना प्रकाशित-प्रतिभासित होते हैं, वह आकाश है अथवा जो सब पदार्थों में अभिव्याप्त होकर प्रकाशित होता रहता है, वह आकाश है।' अवगाह प्रदान करना--स्थान देना आकाश का लक्षण है। जैसे दूध शक्कर को अवगाह देता है, भींत खूटी को स्थान देती है।। आकाश द्रव्य सब द्रव्यों का आधार है। अन्य सब द्रव्य इसके प्राधेय हैं। यद्यपि निश्चयनय की दृष्टि से सब द्रव्य स्वप्रतिष्ठा हैं-अपने-अपने स्वरूप में स्थित हैं किन्तु व्यवहारनय की दृष्टि से आकाश सब द्रव्यों का आधार है / प्रश्न हो सकता है कि जब आकाश सब द्रव्यों का आधार है तो आकाश का आधार क्या है ? इसका उत्तर यह है कि आकाश स्वप्रतिष्ठित है / वह किसी दूसरे द्रव्य के आधार पर नहीं है / आकाश से बड़ा या उसके सदृश और कोई द्रव्य है ही नहीं। आकाश अनन्त है / वह सर्वव्यापक-लोकालोक व्यापी है / स्थूल दृष्टि से आकाश के दो भेद हैं---लोकाकाश और अलोकाकाश / जिस आकाश-खण्ड में धर्म-अधर्म-आकाश-पुद्गल और जीवरूप पंचास्तिकाय विद्यमान हैं वह लोकाकाश है। लोकाकाश के असंख्यात प्रदेश हैं / जहाँ आकाश ही प्राकाश है और कुछ नहीं, वह अलोकाकाश है / वह अनन्त प्रदेशात्मक है / असीम और अनन्त है। अलोकाकाश के महासिन्धु में लोकाकाश बिन्दुमात्र है। सम्पूर्ण प्राकाश आकाशास्तिकाय का स्कन्ध है। बुद्धिकल्पित उसका अंश आकाशास्तिकाय का देश है / आकाशद्रव्य के अविभाज्य निरंश अंश आकाशास्तिकाय के प्रदेश हैं / 10. अद्धा-समय-प्रद्धा का अर्थ होता है-काल / वह समयादि रूप होने से श्रद्धा-समय कहा जाता है। अथवा काल का जो सूक्ष्मतम निविभाग भाग है वह अद्धासमय है। यह एक समय ही, जो वर्त रहा है, तात्त्विक रूप से सत् है / जो बीत चुका है वह नष्ट हो गया और जो आगे पाने वाला है वह अभी उत्पन्न ही नहीं हुआ। अतएव भूत और भविष्य असत् हैं, केवल वर्तमान क्षण ही सत् है / एक समय रूप होने से इसका कोई समूह नहीं बनता, इसलिए इसके देश-प्रदेश की कल्पना नहीं होती। यह काल समयक्षेत्र और असमयक्षेत्र का विभाग करने वाला है। अढ़ाई द्वीप पर्यन्त ज्योति चक्र गतिशील है और उसके कारण अढ़ाई द्वीप में काल का व्यवहार होता है अतएव अढ़ाई द्वीप को समयक्षेत्र कहते हैं। उसके आगे काल-विभाग न होने से असमयक्षेत्र कहा जाता है। यह कथन भी व्यवहारनय की अपेक्षा से समझना चाहिए / काल द्रव्य का कार्य वर्तना, परिणाम, क्रिया और परत्वापरत्व है। अपने अपने पर्याय की 1. आ-समन्तात् सर्वाण्यपि द्रव्याणि काशन्ते-दीप्यन्तेऽत्र व्यवस्थितानीत्याकाशम् / 2. आकाशस्यावगाहः। --तत्त्वार्थसूत्र अ. 5 सू. 18 3. प्रति कालस्याख्या, प्रद्धा चासो समय प्रद्धासमयः, अथवा प्रदाया समयो निविभागो भागोऽद्धासमयः / 4. वर्तनापरिणामक्रियापरत्वापरत्वे च कालस्य। -तत्त्वार्थसूत्र प्र. 5 सू. 22 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16] [जीवाजीवाभिगमसूत्र उत्पत्ति में निमित्त होना वर्तना है। पूर्व पर्याय का त्याग और उत्तर पर्याय का धारण करना परिणाम है। परिस्पन्दन होना क्रिया है और ज्येष्ठत्व कनिष्ठत्व परत्वापरत्व है। __ काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानने के सम्बन्ध में सर्व प्राचार्य एकमत नहीं हैं। कोई प्राचार्य उसे स्वतन्त्र द्रव्य कहते हैं और कोई कहते हैं कि काल स्वतन्त्र द्रव्य नहीं है अपितु जीवाजीवादि द्रव्यों की पर्यायों का प्रवाह ही काल है। काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानने वाले प्राचार्यों की युक्ति है कि जिस प्रकार जीव और पुद्गल में गति-स्थिति करने का स्वभाव होने पर भी उस कार्य के लिए निमित्तकारण के रूप में धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय माने जाते हैं, इसी प्रकार जीव-अजीव में पर्यायपरिणमन का स्वभाव होने पर भी उसके लिए निमित्तकारण रूप में कालद्रव्य मानना चाहिए। अन्यथा धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय मानने में भी कोई युक्ति नहीं। दिगम्बर परम्परा में यही पक्ष स्वीकार किया गया है। काल को स्वतन्त्र द्रव्य न मानने वाले पक्ष की युक्ति है कि पर्याय-परिणमन जीव-अजीव की क्रिया है, जो किसी तत्त्वान्तर की प्रेरणा के बिना ही हुआ करती है / इसलिए वस्तुतः जीव-अजीव के पर्याय-पुंज को ही काल कहना चाहिए। काल कोई स्वतन्त्र द्रव्य नहीं है। श्वेताम्बर परम्परा में दोनों ही पक्षों का उल्लेख है। . इस प्रकार धर्मास्तिकाय के स्कन्ध, देश, प्रदेश; अधर्मास्तिकाय के स्कन्ध, देश, प्रदेश और आकाशास्तिकाय के स्कन्ध, देश, प्रदेश और अद्धासमय-ये दस अरूपी अजीव के भेद समझने चाहिए। रूपो अजीव-रूपी अजीव के चार भेद बताये हैं स्कन्ध, देश, प्रदेश और परमाणुपुद्गल / पुद्गल स्कन्धों की अनन्तता के कारण मूलपाठ में बहुवचन का प्रयोग हुआ है। जैसा कि कहा गया है-'द्रव्य से पुद्गलास्तिकाय अनन्त है / ' स्कन्धों के बुद्धिकल्पित द्वि-प्रदेशी आदि विभाग स्कन्धदेश हैं। स्कन्धों में मिले हुए निविभाग भाग स्कन्ध-प्रदेश हैं। स्कन्धपरिणाम से रहित स्वतन्त्र निविभाग पुद्गल परमाणु है , आशय यह कि स्कन्ध या देश से जुड़े हुए परमाणु प्रदेश हैं और स्कन्ध या देश से अलग स्वतन्त्र परमाणु, परमाण पुद्गल हैं। एकमात्र पुद्गल द्रव्य ही रूपी अजीव है / ये पुद्गल पांच वर्ण, दो गंध, पांच रस, आठ स्पर्श और पांच संस्थान के रूप में परिणत होते हैं / प्रज्ञापनासूत्र में इन वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थानों के पारस्परिक सम्बन्ध की अपेक्षा बनने वाले विकल्पों का कथन किया गया है / संक्षेप से उनका यहाँ उल्लेख करना प्रासंगिक है / वह इस प्रकार है काला, हरा, लाल, पीला और सफेद-इन पांच वर्ण वाले पदार्थों में 2 गन्ध, 5 रस, 8 स्पर्श पौर 5 संस्थान, ये बीस बोल पाये जाते हैं अतः 2045 = 100 भेद वर्णाश्रित हुए। सुरभिगन्ध दुरभिगन्ध में 5 वर्ण, 5 रस, 8 स्पर्श और 5 संस्थान, ये 23 बोल पाये जाते हैं अतः 2342-46 भेद गन्धाश्रित हुए। 1. 'दम्वनो णं पुग्गलत्थिकाए णं प्रणते / ' Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति : जीवामिगम का स्वरूप और प्रकार] [17 मधुर, कटु, तिक्त, आम्ल और कसैला-इन पांच रसों में 5 वर्ण, 2 गन्ध, 8 स्पर्श और 5 संस्थान, ये 20 बोल पाये जाते हैं अतः 204 5 = 100 भेद रसाश्रित हुए / गुरु और लघु स्पर्श में 5 वर्ण, 2 गन्ध, 5 रस और 6 स्पर्श (गुरु और लघु छोड़कर) और पांच संस्थान, ये 23 बोल पाये जाते हैं अतः 234 2 = 46 भेद गुरु-लघुस्पर्शाश्रित हुए। शीत और उष्ण स्पर्श में भी इसी प्रकार 46 भेद पाये जाते हैं / अन्तर यह है कि आठ स्पर्शों में से शीत, उष्ण को छोड़कर छह स्पर्श लेने चाहिए / स्निग्ध, रूक्ष, कोमल तथा कठोर इन में भी पूर्वोक्त छह-छह स्पर्श लेकर 23-23 बोल पाये जाते हैं, अत: 23 4 4 = 92 भेद हुए / 46+46+92 = 184 भेद स्पर्शाश्रित हुए। वृत्त, व्यस्र, चतुरस्र, परिमंडल और आयत इन पांच संस्थानों में 5 वर्ण, 2 गन्ध, 5 रस और 9 स्पर्श ये बीस-बीस बोल पाये जाते हैं अत: 2045=100 भेद संस्थान-प्राश्रित हुए / इस तरह वर्णाश्रित 100, गन्धाश्रित 46, रसाश्रित 100, स्पर्शाश्रित 184 और संस्थानआश्रित 100, ये सब मिलकर 530 विकल्प रूपी अजीव के होते हैं। ___ अरूपी अजीव के धर्मास्तिकाय आदि के स्कंध, देश, प्रदेश प्रादि 10 भेद पूर्व में बताये हैं। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, प्राकाशास्तिकाय और काल-इन चार के द्रव्य. क्षेत्र. काल गुण की अपेक्षा से 20 भेद भी होते हैं। अतः 10+20 मिलाकर 30 अरूपो अजीव के बन जाते हैं। ___ इस प्रकार रूपी अजीव के 530 तथा अरूपी अजीव के 30 भेद मिलाकर 560 भेद अजीवाभिगम के हो जाते हैं। वर्णादि के परिणाम का अवस्थान-काल जघन्य एक समय और उत्कृष्ट असंख्यात काल है। इस प्रकार अजीवाभिगम का निरूपण पूरा हुआ। जीवाभिगम का स्वरूप और प्रकार 6. से किं तं जीवाभिगमे? जीवाभिगमे दुविहे पण्णत्ते तंजहा-संसारसमावण्णग-जीवाभिगमे य असंसारसमावण्णग-जीवाभिगमे य / [6] जीवाभिगम क्या है ? जीवाभिगम दो प्रकार का कहा गया है, जैसे---संसारसमापनक जीवाभिगम और प्रसंसारसमापन्नक जीवाभिगम / 7. से कि तं असंसारसमावण्णग-जीवाभिगमे ? असंसारसमावण्णग-जीवाभिगमे दुविहे पण्णत्ते, Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18] [जीवाजीवाभिगमसूत्र संजहा--अणंतरसिद्धासंसारसमावण्णग जीवाभिगमे य परंपरसिद्धासंसारसमावण्णग जीवाभिगमे य। से कि तं अणंतरसिद्धासंसारसमावण्णग-जीवाभिगमे ? अणंतरसिद्धासंसारसमावष्णग जीवाभिगमे पण्णरसविहे पण्णत्ते, तंजहा-तित्थसिद्धा जाध अणेगसिद्धा। से तं अणंतरसिद्धा० / से कि तं परंपरसिद्धासंसारसमावण्णग-जीवाभिगमे ? परंपरसिद्धासंसारसमावण्णग-जीवाभिगमे अणेगविहे पण्णते तंजहा--पढमसमय सिद्धा, दुसमयसिद्धा जाव अणंतसमयसिद्धा। से तं परंपरसिद्धासंसारसमावण्णग-जीवाभिगमे / से तं असंसारसमावण्णग-जीवाभिगमे। [7] असंसार-प्राप्त जीवाभिगम क्या है ? प्रसंसारप्राप्त जीवाभिगम दो प्रकार का है, यथा-अनन्तरसिद्ध असंसारप्राप्त जीवाभिगम और परंपरसिद्ध असंसारप्राप्त जीवाभिगम। अनन्तरसिद्ध असंसारप्राप्त जीवाभिगम कितने प्रकार का कहा गया है ? अनन्तरसिद्ध असंसारप्राप्त जीवाभिगम पन्द्रह प्रकार का कहा गया है, यथा तीर्थसिद्ध यावत् अनेकसिद्ध। यह अनन्तरसिद्ध असंसारप्राप्त जीवाभिगम का कथन हुआ। परम्परसिद्ध असंसारप्राप्त जीवाभिगम क्या है ? परम्परसिद्ध असंसारप्राप्त जीवाभिगम अनेक प्रकार का कहा गया है। यथा-प्रथमसमयसिद्ध, द्वितीयसमय सिद्ध यावत् अनन्तसमयसिद्ध / यह परम्परसिद्ध असंसारप्राप्त जीवाभिगम का कथन हुआ। यह असंसारप्राप्त जीवाभिगम का कथन पूर्ण हुआ। विवेचन--अजीवाभिगम का कथन करने के पश्चात् प्रस्तुत सूत्रों में जीवाभिगम का कथन किया गया है / वैसे तो यह सब जीव-अजीव का ही कथन है, किन्तु इन दोनों के साथ जो 'अभिगम' पद लगा हुआ है वह यह बताने के लिए है कि इन जीवों और अजीवों में अभिगमगम्यता धर्म पाया जाता है। अर्थात ये जीव और अजीव ज्ञान के विषय (ज्ञेय) होते हैं। अद्वैतवादी मानते हैं कि जीव ज्ञान का विषय नहीं होता है / इसका खण्डन करने के लिए 'अभिगम' पद जीव-अजीव के साथ जोड़ा गया है / यदि जीव ज्ञान का विषय न हो तो उसका बोध ही नहीं होगा और स्वरूप को जाने बिना संसार से निवृत्ति एवं मोक्ष में प्रवृत्ति कैसे हो सकेगी? इस तरह शास्त्ररचना का प्रयोजन ही निरर्थक हो जावेगा। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति: जीवाभिगम का स्वरूप और प्रकार [19 जीवाभिगम क्या है, इस प्रश्न के उत्तर में जीव के भेद बताकर उसका स्वरूप कथन किया गया है / जीवाभिगम दो प्रकार का है-संसारसमापन्नक अर्थात् संसारवर्ती जीवों का ज्ञान और असंसारसमापन्नक अर्थात् संसार-मुक्त जीवों का ज्ञान / संसार का अर्थ नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव भवों में भ्रमण करना है। जो जीव उक्त चार प्रकार के भवों में भ्रमण कर रहे हैं वे संसारसमापन्नक जीव हैं और जो जीव इस भवभ्रमण से छूटकर मोक्ष को प्राप्त हो चुके हैं, वे असंसारसमापनक जीव हैं। संसारवर्ती जीव हों या मुक्तजीव हों, जोवत्व की अपेक्षा उनमें तुल्यता है / इससे यह ध्वनित होता है कि मुक्त अवस्था में भी जीवत्व बना रहता है / कतिपय दार्शनिक मानते हैं कि जैसे दीपक का निर्वाण हो जाने पर वह लुप्त हो जाता है, उसका अस्तित्व नहीं रहता, इसी तरह मुक्त होने पर जीव का अस्तित्व नहीं रहता। इसी तरह वैशेषिकदर्शन की मान्यता है कि बुद्धि आदि नव आत्मगुणों का उच्छेद होने पर मुक्ति होती है। इन मान्यताओं का इससे खण्डन होता है / मुक्त होने पर यदि जीव का अस्तित्व ही मिट जाता हो, अथवा उसके बुद्धि, सुख आदि प्रात्मगुण नष्ट हो जाते हों तो ऐसे मोक्ष के लिए कौन विवेकशील व्यक्ति प्रयत्न करेगा? कौन अपने आपको मिटाने का प्रयास करेगा? कौन स्वयं को सुखहीन बनाना चाहेगा? ऐसी स्थिति में मोक्ष का ही उच्छेद हो जावेगा। अल्पवक्तव्यता होने से प्रथम असंसारप्राप्त जीवों का कथन किया गया है। प्रसंसारप्राप्त, मुक्त जीव दो प्रकार के हैं-अनन्तरसिद्ध और परम्परसिद्ध / अनन्तरसिद्ध-सिद्धत्व के प्रथम समय में विद्यमान सिद्ध अनन्तरसिद्ध हैं / अर्थात् उनके सिद्धत्व में समय का अन्तर नहीं है / परम्परसिद्ध--परम्परसिद्ध वे हैं जिन्हें सिद्ध हुए दो तीन यावत् अनन्त समय हो चुका हो। अनन्तर सिद्धों के 15 प्रकार कहे गये हैं-१. तीर्थसिद्ध, 2. अतीर्थसिद्ध, 3. तीर्थकरसिद्ध, 4. अतीर्थकरसिद्ध, 5. स्वयंबद्धसिद्ध, 6. प्रत्येकबुद्धसिद्ध, 7. बुद्धबोधितसिद्ध, 8. स्त्रीलिंगसिद्ध, 9. पुरुलिंगसिद्ध, 10. नपुंसकलिंगसिद्ध, 11. स्वलिंगसिद्ध, 12. अन्यलिंगसिद्ध, 13. गृहस्थलिंगसिद्ध, 14. एकसिद्ध और 15. अनेकसिद्ध / 1. तीर्थसिद्ध-जिसके अवलम्बन से संसार-सागर तिरा जाय, वह तीर्थ है / इस अर्थ में तीर्थकर परमात्मा के द्वारा प्ररूपित प्रवचन और उनके द्वारा स्थापित चतुर्विध श्रमणसंघ तीर्थ है। प्रथम गणधर भी तीर्थ है / ' तीर्थकर द्वारा प्रवचनरूप एवं चतुर्विध श्रमणसंघरूप तीर्थ की स्थापना किये जाने के पश्चात् जो सिद्ध होते हैं, वे तीर्थ सिद्ध कहलाते हैं / यथा गौतम, सुधर्मा, जम्बू आदि / 2. अतीर्थसिद्ध--तीर्थ की स्थापना से पूर्व अथवा तीर्थ के विच्छेद हो जाने के बाद जो जीव सिद्ध होते हैं, वे अतीर्थसिद्ध हैं। जैसे मरुदेवी माता भगवान ऋषभदेव द्वारा तीर्थस्थापना के पूर्व ही सिद्ध हुई / सुविधिनाथ आदि तीर्थंकरों के बीच के समय में तीर्थ का विच्छेद हो गया था / उस समय जातिस्मरणादि ज्ञान से मोक्षमार्ग को प्राप्त कर जो जीव सिद्धगति को प्राप्त हुए, वे अतीर्थसिद्ध हैं। 1. तित्थं पुण चाउवष्णो समणसंघो पढमगणहरो वा / Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20] [জীকালীবাসিত 3. तीर्थकरसिद्ध-जो तीर्थ की स्थापना करके सिद्ध हुए वे तीर्थंकरसिद्ध हैं / जैसे इस अवसर्पिणी काल में ऋषभदेव से लगाकर महावीर स्वामी तक चौबीस तीर्थकर, तीर्थंकरसिद्ध हैं। 4. प्रतीर्थकरसि-जो सामान्य केवली होकर सिद्ध होते हैं, वे अतीर्थंकरसिद्ध हैं / जैसे सामान्य केवली। 5. स्वयंबद्ध सिद्धजो दूसरे के उपदेश के बिना स्वयं ही जातिस्मरणादि ज्ञान से बोध पाकर सिद्ध होते हैं / यथा नमिराजर्षि / / 6. प्रत्येकबुद्धसिद्ध-जो किसी भी बाह्य निमित्त को देखकर स्वयमेव प्रतिबोध पाकर सिद्ध होते हैं, वे प्रत्येकबुद्धसिद्ध हैं / यथा करकण्डु आदि / यद्यपि स्वयंबद्ध और प्रत्येकबद्ध दोनों ही परोपदेश के बिना ही प्रतिबोध पाते हैं, तथापि इनमें बाह्यनिमित्त को लेकर अन्तर है। स्वयंबुद्ध किसी बाह्य निमित्त के बिना ही प्रतिबोध पाते हैं, जबकि प्रत्येकबुद्ध वृषभ, मेघ, वृक्ष आदि बाह्य निमित्त को देखकर प्रतिबुद्ध होते हैं।' स्वयंबुद्ध और प्रत्येकबुद्ध में उपधि, श्रुत और लिंग की अपेक्षा से भी भेद है। वैसे स्वयंबुद्ध दो प्रकार के होते हैं-तीर्थंकर और तीर्थकर से भिन्न / तीर्थकर तो तीर्थंकरसिद्ध में आ जाते हैं अतः यहाँ तीर्थंकरभिन्न स्वयंबुद्धों का अधिकार समझना चाहिए। स्वयंबुद्धों के पात्रादि बारह प्रकार की उपधि होती है, जबकि प्रत्येकबुद्धों के जघन्यतः दो और उत्कृष्टतः वस्त्र को छोड़कर नौ प्रकार की उपाधि होती है। स्वयंबुद्धों के पूर्वाधीत श्रुत होता भी है और नहीं भी होता है। अगर होता है तो देवता उन्हें वेष (लिंग) प्रदान करता है अथवा वे गुरु के पास जाकर मुनिवेष धारण कर लेते हैं / यदि वे एकाकी विचरण करने में समर्थ हों और एकाकी विचरण को इच्छा हो तो एकाकी विचरण करते हैं, नहीं तो गच्छवासी होकर रहते हैं / यदि उनके पूर्वाधीत श्रुत न हो तो नियम से गुरु के सान्निध्य में मुनिवेष लेकर गच्छवासी होकर रहते हैं। प्रत्येकबुद्धों के नियम से पूर्वाधीत श्रुत होता है / जघन्यतः ग्यारह अंग और उत्कृष्टतः दस पूर्व से कुछ कम श्रुत पूर्वाधीत होता है / उन्हें देवता मुनिलिंग देते हैं अथवा कदाचित् वे लिंगरहित भी रहते हैं। 7. बुद्धबोधितसिद्ध-प्राचार्यादि से प्रतिबोध पाकर जो सिद्ध होते हैं वे बुद्धबोधितसिद्ध हैं / यथा जम्बू आदि। 1. पत्तेयं-बाह्यवृषभादिकं कारणमभिसमीक्ष्य बुद्धा; वहिष्प्रत्ययं प्रतिबुद्धानां च पत्तेयं नियमा विहारो जम्हा तम्हा ते पत्तेय बुद्धा। पत्तेयबुद्धाणं जहन्नण दुविहो उक्कोसेण नवविहो नियमा उवही पाउरणवज्जो भवइ / सयंबुद्धस्स पुग्वाहीयं सुयं से हवइन बा, जइ से णत्थि तो लिंग नियमा गुरुसन्निहे पडिवज्जइ, जइ य एगविहारविहरणसमत्थो इच्छा बा से तो एक्को चेव विहरइ, अन्नहा गच्छे विहरइ / पत्त यबुद्धाणं पुश्वाहीयं सुयं नियमा होइ, जहन्त्रेण इक्कारस अंगा उक्कोसेण भिन्नदसपूज्वा / लिंगं च से देवया पयच्छइ, लिंगवज्जिमो वा हवइ / Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति : मोवाभिगम का स्वरूप और प्रकार] [21 8. स्त्रीलिंगसिद्ध--स्त्री शरीर से जो सिद्ध हुए हों वे स्त्रीलिंगसिद्ध हैं / यथा मल्लि तीर्थकर, मरुदेवी प्रादि / ___ लिंग' तीन तरह का है-वेद, शरीरनिष्पत्ति और वेष / यहाँ शरीर-रचना रूप लिंग का अधिकार है। वेद और नेपथ्य का नहीं / वेद मोहकर्म के उदय से होता है / मोहकर्म के रहते सिद्धत्व नहीं पाता / जहाँ तक वेष का सवाल है वह भी मुक्ति से कोई सम्बन्ध नहीं रखता / अतः यहाँ स्त्रीशरीर से प्रयोजन है। ___ दिगम्बर परम्परा की मान्यता है कि स्त्री-शरीर से मुक्ति नहीं होती जबकि यहाँ 'स्त्रीलिंगसिद्ध' कह कर स्त्रीमुक्ति को मान्यता दी गई है। 'स्त्री की मुक्ति नहीं होती' इस मान्यता का कोई तार्किक या प्रागमिक आधार नहीं है। मुक्ति का सम्बन्ध शरीर-रचना के साथ न होकर ज्ञान-दर्शनचारित्र के प्रकर्ष के साथ है / स्त्री-शरीर में ज्ञान-दर्शन-चारित्र का प्रकर्ष क्यों नहीं हो सकता ? पुरुष की तरह स्त्रियाँ भी ज्ञान-दर्शन-चारित्र का प्रकर्ष कर सकती हैं। दिगम्बर परम्परा में वस्त्र को चारित्र का प्रतिबन्धक माना गया है और स्त्रियाँ वस्त्र का त्याग नहीं कर सकतीं, इस तर्क से उन्होंने स्त्री की मुक्ति का निषेध कर दिया है। परन्तु तटस्थ दृष्टि से सोचने पर स्पष्ट हो जाता है कि वस्त्र का रखना मात्र चारित्र का प्रतिबंधक नहीं होता / वस्त्रादि पर ममत्व होना चारित्र का प्रतिबंधक है। वस्त्रादि के अभाव में भी शरीर पर ममत्व है तो शरीर का त्याग भी चारित्र के लिए आवश्यक मानना होगा / शरीर का त्याग तो नहीं किया जा सकता, ऐसी स्थिति में क्या चारित्र का पालन नहीं हो सकता ? निष्कर्ष यह है कि वस्त्रादि के रखने मात्र से चारित्र का प्रभाव नहीं हो जाता, आगम में तो मूर्छा को परिग्रह कहा गया है। वस्तुओं को नहीं / अतः वस्त्रों का त्याग न करने के कारण स्त्रियों में चारित्र का प्रकर्ष न मानना और फलतः उन्हें मुक्ति की अधिकारिणी न मानना तर्क एवं आगमसम्मत नहीं है। 9. पुरुषलिंगसिद्ध-पुरुष-शरीर में स्थित होकर जो सिद्ध हुए हों वे पुरुषलिंगसिद्ध हैं / 10. नपुंसकलिंगसिद्ध-स्त्री-पुरुष से भिन्न नपुंसक शरीर के रहते जो सिद्ध हों वे नपुंसकलिंगसिद्ध हैं / कृत्रिम नपुंसक सिद्ध हो सकते हैं, जन्मजात नपुंसक सिद्ध नहीं होते। 11. स्वलिंगसिद्ध-जो जैनमुनि के वेष रजोहरणादि के रहते हुए सिद्ध हुए हों, वे स्वलिंग सिद्ध है। 12. अन्यलिंगसिद्ध–जो परिव्राजक, संन्यासी, गेरुपा वस्त्रधारी आदि अन्य मतों के वेष के रहते सिद्ध हुए हों, वे अन्यलिंग सिद्ध हैं। 13. गहिलिंगसिद्ध-जो गृहस्थ के वेष में रहते हुए सिद्ध हुए हों, वे गृहिलिंगसिद्ध हैं। जैसे मरुदेवी माता। 14. एकसिद्ध–जो एक समय में अकेले ही सिद्ध हुए हो, वे एकसिद्ध हैं। 1. लिंमं च तिविहं-वेदो सरीरनिवित्ती नेवत्थं च। इह सरीरनिव्वत्तीए अहिगारोन वेय-देवत्थेहि।-नन्दी For Private & Personal use only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22] [जीवाजीवाभिगमसूत्र 15. अनेक सिद्ध-जो एक समय में एक साथ अनेक सिद्ध हुए हों वे अनेकसिद्ध हैं। सिद्धान्त में एक समय में अधिक से अधिक 108 जीव सिद्ध हो सकते हैं। इस सम्बन्ध में सिद्धान्त की एक संग्रहणी' गाथा में कहा गया है आठ समय तक जब निरन्तर सिद्ध होते हैं तब एक से लगाकर वत्तीस पर्यन्त सिद्ध होते हैं। अर्थात् प्रथम समय में जघन्यतः एक, दो और उत्कृष्ट से बत्तीस होते हैं, दुसरे समय में भी इसी तरह एक से लेकर बत्तीस सिद्ध होते हैं। इस प्रकार आठवें समय में भी एक से लेकर बत्तीस सिद्ध होते हैं। इसके बाद अवश्य अन्तर पड़ेगा। जब तेतीस से लगाकर अड़तालीस पर्यन्त सिद्ध होते हैं तब सात समय पर्यन्त ऐसा होता है। इसके बाद अवश्य अन्तर पड़ता है। जब उनपचास से लेकर साठ पर्यन्त निरन्तर सिद्ध होते हैं तब छह समय तक ऐसा होता है / बाद में अन्तर पड़ता है। जब इकसठ से लगाकर बहत्तर पर्यन्त निरन्तर सिद्ध होते हैं तब पांच समय तक ऐसा होता है / बाद में अन्तर पड़ता है। जब तिहत्तर से लगाकर चौरासी पर्यन्त निरन्तर सिद्ध होते हैं तव चार समय तक ऐसा होता है / बाद में अवश्य अन्तर पड़ता है। जब पचासी से लगाकर छियानवे पर्यन्त निरन्तर सिद्ध होते हैं तब तीन समय तक ऐसा होता है। बाद में अवश्य अन्तर पड़ता है। जब सत्तानवे से लगाकर एक सौ दो पर्यन्त निरन्तर सिद्ध होते हैं तब दो समय तक ऐसा होता है / बाद में अन्तर पड़ता है। जब एक सौ तीन से लेकर एक सौ आठ निरन्तर सिद्ध होते हैं तब एक समय तक ही ऐसा होता है / बाद में अन्तर पड़ता ही है / इस प्रकार एक समय में उत्कृष्टत: एक सौ आठ सिद्ध हो सकते हैं / यह अनेकसिद्धों का कथन हुआ। इसके साथ ही अनन्तरसिद्धों का कथन सम्पूर्ण हुआ। परम्परसिद्ध-परम्परसिद्ध अनेक प्रकार के कहे गये हैं / यथा प्रथमसमयसिद्ध, द्वितीयसमयसिद्ध, तृतीयसमयसिद्ध यावत् असंख्यातसमयसिद्ध और अनन्तसमयसिद्ध / जिनको सिद्ध हुए एक समय हा वे तो अनन्तरसिद्ध होते हैं अर्थात् सिद्धत्व के प्रथम समय में वर्तमानसिद्ध अनन्तरसिद्ध कहलाते हैं। अतः सिद्धत्व के द्वितीय आदि समय में स्थित परम्परसिद्ध होते हैं / मूल पाठ में जो 'पढमसमयसिद्ध' पाठ है वह परम्परसिद्धस्व का प्रथम समय अर्थात् सिद्धत्व का द्वितीय समय जानना चाहिए / अर्थात् जिन्हें सिद्ध हुए दो समय हुए वे प्रथमसमय परम्परसिद्ध 1. बत्तीसा अडयाला सट्री बावत्तरी य बोद्धब्धा / चुलसीइ छन्न उइ उ दुरहियमद्रुत्तरसयं च // Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [23 प्रथम प्रतिपत्ति : संसारसमापन्नक जीवाभिगम] हैं / जिन्हें सिद्ध हुए तीन समय हुए बे द्वितीयसमयसिद्ध परम्परसिद्ध जानने चाहिए। इसी तरह आगे भी जान लेना चाहिए। यह परम्परसिद्ध असंसारसमापन्नक जीवाभिगम का कथन हुआ। संसारसमापन्नक जीवाभिगम 8. से कि तं संसारसमापन्नकजीवाभिगमे ? संसारसमावण्णएसु णं जीवेसु इमाओ णव पडिवत्तीओ एवमाहिज्जंति, तंजहा--- 1. एगे एवमांहसु-दुविहा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता। 2. एगे एवमाहंसु---तिविहा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता। 3. एगे एवमाहंसु-चउस्विहा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता। 4. एगे एवमाहंसु-पंचविहा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता। 5-10. एतेण अभिलावेणं जाव दसविहा संसारसमावण्णगा जोवा पण्णत्ता। [8] संसारप्राप्त जीवाभिगम क्या है ? संसारप्राप्त जीवों के सम्बन्ध में ये नौ प्रतिपत्तियाँ (कथन) इस प्रकार कही गई हैं१. कोई ऐसा कहते हैं कि संसारप्राप्त जीव दो प्रकार के कहे गये हैं। 2. कोई ऐसा कहते हैं कि संसारवर्ती जीव तीन प्रकार के कहे गये हैं। 3. कोई ऐसा कहते हैं कि संसारप्राप्त जीव चार प्रकार के कहे गये हैं। 4. कोई ऐसा कहते हैं कि संसारप्राप्त जीव पाँच प्रकार के कहे गये हैं। 5-10. ऐसा ही कथन तब तक कहना चाहिए यावत् कोई ऐसा कहते हैं कि संसारप्राप्त जीव दस प्रकार के कहे गये हैं। विवेचन प्रस्तुत सूत्र में संसारवर्ती जीवों के विषय में प्रश्नोत्तर किये गये हैं। प्रश्न किया गया है कि संसारवर्ती जीव का स्वरूप क्या है ? संसारवर्ती जीव के भेदों को बताकर उक्त प्रश्न का उत्तर दिया गया है। भेदों के कथन से वस्तु का स्वरूप ज्ञात हो ही जाता है। संसारवर्ती जीवों के प्रकार के सम्बन्ध में यहाँ नौ प्रतिपत्तियाँ बताई गई हैं। प्रत्तिपत्ति का अर्थ है-प्रतिपादन, कथन / ' इस सम्बन्ध में नौ प्रकार के प्रतिपादन हैं। जैसे कि कोई प्राचार्य संसारवर्ती जीवों के दे हैं, कोई प्राचार्य उनके तीन प्रकार कहते हैं। इसी क्रम से कोई आचार्य संसारवर्ती जीवों के दस प्रकार कहते हैं। दो से लगाकर दस प्रकार के संसारी जीव हैं—यह नौ प्रकार के कथन या प्रतिपादन हुए। यहां यह ध्यान रखना चाहिए कि ये नौ ही प्रकार के कथन परस्पर भिन्न होते हुए भी विरोधी नहीं हैं / जो आचार्य संसारवती जीवों को दो प्रकार का कहते हैं, वे ही आचार्य अन्य विवक्षा से संसारवर्ती जीव के तीन प्रकार भी कहते हैं, अन्य विवक्षा से चार प्रकार भी कहते हैं यावत् अन्य विवक्षा से 1. प्रतिपत्तयः प्रतिपादनानि संवित्तयः इति यावत् / -मलय. वृत्ति 2. प्रतिपत्तय इति परमार्थतोऽनयोगद्वाराणि, इति प्रतिपत्तव्यम् / Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24] [जीवाणीवाभिगम दस प्रकार भी कहते हैं / विवक्षा के भेद से कथनों में भेद होता है परन्तु उनमें विरोध नहीं होता। जो जीवा दो प्रकार के हैं वे ही दूसरी अपेक्षा से तीन प्रकार के हैं, अन्य अपेक्षा से चार, पाँच, छह, सात, आठ, नौ और दस प्रकार के हैं। अतएव इन नौ प्रकार की प्रतिपत्तियों में कोई विरोध नहीं है / अपेक्षा के भेद से सभी सम्यग् और सही हैं। वृत्तिकार ने 'प्रतिपत्ति' शब्द के सन्दर्भ में यह भी कहा है कि प्रतिपत्ति केवल शब्दरूप ही नहीं है अपितु शब्द के माध्यम से अर्थ में प्रवृत्ति कराने वाली है। शब्दाद्वैतवादी मानते हैं कि 'शब्दमात्रं विश्वम्' / सब संसार शब्दरूप ही है, ऐसा मानने से केवल शब्द ही सिद्ध होगा, विश्व नहीं / अतः उक्त मान्यता सत्य से परे है। सही बात यह है कि शब्द के माध्यम से अर्थ का कथन किया जाता है, तभी प्रतिपत्ति (ज्ञान) हो सकती है। स्याद्वाद या अपेक्षावाद जैन सिद्धान्त का प्राण है। अतएव नय-निक्षेप की अपेक्षाओं को घ्यान में रख कर वस्तुतत्त्व को समझना चाहिए। वस्तु अनन्तधर्मात्मक है। वह एकान्त एकरूप नहीं है। यदि वस्तु को सर्वथा एकरूप ही माना जायगा तो विश्व की विचित्रता संगत नहीं होगी। प्रथम प्रतिपत्ति का कथन 9. तत्थ गं जे एवमाहंसु 'दुविहा संसारसमावग्णगा जीवा पग्णता' ते एवमाहंसु तं जहातसा चेव थावरा चेव // [9] जो दो प्रकार के संसारसमापनक जीवों का कथन करते हैं, वे कहते हैं कि अस और स्थावर के भेद से वे दो प्रकार के हैं। 10. से कि तं थावरा? यावरा तिविहा पण्णत्ता, तं जहा१. पुढविकाइया 2. आउक्काइया 3. वणस्सइकाइया / [10] स्थावर किसे कहते हैं ? स्थावर तीन प्रकार के कहे गये हैं- . यथा-१. पृथ्वीकायिक 2. अप्कायिक और 3. वनस्पतिकायिक / विवेचन-संसारसमापन्न जीवों के भेद बताने वाली नौ प्रतिपत्तियों में से प्रथम प्रतिपत्ति का निरूपण करते हुए इस सूत्र में कहा गया है कि संसारवर्ती जीव दो प्रकार के हैं--प्रस और स्थावर / इन दो भेदों में समस्त संसारी जीवों का अन्तर्भाव हो जाता है। स-'सन्तीति साः' इस व्युत्पत्ति के अनुसार जो एक स्थान से दूसरे स्थान पर प्रा-जा सकते हैं, वे जीव अस कहलाते हैं। गर्मी से तप्त होने पर जो जीव उस स्थान से चल कर छाया स्थान पर आते हैं अथवा शीत से घबरा कर धूप में जाते हैं, वे चल-फिर सकने वाले जीव त्रस हैं। असनामकर्म के उदय वाले जीव त्रस कहलाते हैं, इस अपेक्षा से द्वीन्द्रिय, त्रीरिन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीव अस के अन्तर्गत आते हैं। Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति का कयन] [25 यहां यह उल्लेखनीय है कि प्रागम में तेजस्काय और वायुकाय का भा त्रस क अन्तर्गत माना गया है। इसी जीवाभिगमसूत्र में आगे कहा गया है कि-त्रस तीन प्रकार के हैं तेजस्काय, वायुकाय और औदारिक त्रस प्राणी।' तत्त्वार्थसूत्र में भी 'तेजोवायुद्वीन्द्रियादयश्च त्रसाः' कहा गया है / 2 अन्यत्र उन्हें स्थावर कहा गया है। इन दोनों प्रकार के कथनों की संगति इस प्रकार जाननी चाहिए--- __ स जीवों के सम्बन्ध में दो प्रकार की विवक्षाएँ हैं। प्रथम विवक्षा में जो जीव अभिसन्धि. पूर्वक-समझपूर्वक इधर से उधर गमनागमन कर सकते हैं और जिनके असनामकर्म का उदय है वे त्रस जीव लब्धित्रस कहे जाते हैं और इस विवक्षा से द्वीन्द्रियादि जीव त्रस की कोटि में आते हैं, तेज और वायु नहीं। दूसरी विवक्षा में जो जीव अभिसन्धिपूर्वक अथवा अनभिसन्धिपूर्वक भी ऊर्ध्व या तिर्यक् गति करते हैं, वे त्रस कहलाते हैं। इस व्याख्या और विवक्षा के अनुसार तेजस् और वायु ऊर्ध्व या तिर्यक् गति करते हैं, इसलिए वे त्रस हैं। ऐसे त्रस जीवों को गतित्रस कहा गया है। तात्पर्य यह है कि जब केवल गति की विवक्षा है तब तेजस् और वायु को त्रस में गिना गया है / परन्तु जब स्थावर नामकर्म के उदय की विवक्षा है तब उन्हें स्थावर में गिना गया है। तेज और वायु के असनामकर्म का उदय नहीं, स्थावरनामकर्म का उदय है। अतएव विवक्षाभेद से दोनों प्रकार के कथनों की संगति समझना चाहिए। स्थावर-'तिष्ठन्तीत्येवंशीला: स्थावराः' / उष्णादि से अभितप्त होने पर भी जो उस स्थान को छोड़ने में असमर्थ हैं, वहीं स्थित रहते हैं; ऐसे जीव स्थावर कहलाते हैं। यहाँ स्थावर जीवों के तीन भेद बताये गये हैं-१. पृथ्वीकाय 2. अप्काय और 3. वनस्पतिकाय / सामान्यतया स्थावर के पांच भेद गिने जाते हैं। तेजस् और वायु को भी स्थावरनामकर्म के उदय से स्थावर माना जाता है। परन्तु यहाँ गतित्रस की विवक्षा होने से तेजस्, वायु की गणना त्रस में करने से स्थावर जीवों के तीन ही भेद बताये हैं। तत्त्वार्थसूत्र में भी ऐसा ही कहा गया है'पृथिव्यम्बुवनस्पतयः स्थावराः / / 1. पृथ्वीकाय--पृथ्वी ही जिन जीवों का काया-शरीर है, वे पृथ्वीकायिक हैं / जो लोग पृथ्वी को एक देवता रूप मानते हैं, इस कथन से उनका निरसन हो जाता है। पृथ्वी एकजीवरूप न होकर--असंख्य जीवों का समुदाय रूप है। जैसा कि आगम में कहा है-पृथ्वी सचित्त कही गई है, उसमें पृथक पृथक् अनेक जीव हैं / 2. अप्काय-जल ही जिन जीवों का शरीर है, वे अप्कायिक जीव हैं / 3. वनस्पतिकाय-वनस्पति जिनका शरीर है, वे वनस्पतिकायिक जीव हैं। 1. तसा तिविहा पण्णत्ता तं जहा तेउकाइया, वाउकाइया पोराला तसा पाणा। -जीवाभि. सूत्र 16 2. तत्त्वार्थ. अ. 2, सू. 14 3. तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 2, सूत्र 13 Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जीवाजीवाभिगमसूत्र पृथ्वी सबका माधार होने से उसे प्रथम ग्रहण किया है / पृथ्वी के आधार पर पानी रहा हुधा है प्रतएव पृथ्वी के बाद जल का ग्रहण किया गया है। 'जत्थ जलं तत्थ वणं'' के अनुसार जहाँ जहाँ जल है वहाँ वहाँ वनस्पति है, इस सैद्धान्तिक तत्त्व के प्रतिपादन हेतु जल के बाद वनस्पति का ग्रहण हुआ है। इस प्रकार पृथ्वी, पानी और बनस्पतिकायिकों के क्रम का निरूपण किया गया है / पृथ्वीकाय का वर्णन 11. से कि पुढविकाइया ? पुढ विकाइया दुविहा पण्णत्ता, तं जहासुहमपुढविकाइया य बायरपुढविकाइया छ / [11] पृथ्वीकायिक का स्वरूप क्या है ? पृथ्वीकायिक दो प्रकार के कहे गये हैं-जैसे कि सूक्ष्मपृथ्वीकायिक और बादरपृथ्वीकायिक। 12. से कि सुहमपुढविकाइमा ? सुहमपुढविकाइया दुविहा पण्णत्तातं महा-पज्जत्तगा य अपज्जत्तगाम / [12] सूक्ष्मपृथ्वीकायिक क्या हैं ? सूक्ष्मपृथ्वीकायिक दो प्रकार के कहे गये हैंजैसे कि-पर्याप्तक और अपर्याप्तक / विवेचन—पृथ्वीकायिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं—१. सूक्ष्म पृथ्वीकायिक और 2. बादर पृथ्वीकायिक / सूक्ष्म पृथ्वीकाय से तात्पर्य सूक्ष्मनामकर्म के उदय से है, न कि बेर और आंवले की तरह आपेक्षिक सूक्ष्मता या स्थूलता से / सूक्ष्म नामकर्म के उदय से जिन जीवों का शरीर चर्मचक्षुओं से नहीं देखा जा सकता है, वे सूक्ष्म जीव हैं। ये सूक्ष्म जीव चतुर्दश रज्जुप्रमाण सम्पूर्ण लोक में सर्वत्र व्याप्त हैं। इस लोक में कोई ऐसा स्थान नहीं है जहाँ सूक्ष्म जीव न हों। जैसे काजल की कुप्पी में काजल ठसाठस भरा रहता है अथवा जैसे गंधी की पेटी में सुगंध सर्वत्र व्याप्त रहती है इसी तरह सूक्ष्म जीव सारे लोक में ठसाठस भरे हुए हैं—सर्वत्र व्याप्त हैं / ये सूक्ष्म जीव किसी से प्रतिघात नहीं पाते। पर्वत की कठोर चट्टान से भी आर-पार हो जाते हैं। ये सूक्ष्म जीव किसी के मारने से मरते नहीं, छेदने से छिदते नहीं, भेदने से भिदते नहीं। विश्व की किसी भी वस्तु से उनका घात-प्रतिघात नहीं होता / ऐसे सूक्ष्मनामकर्म के उदय वाले ये सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव सारे लोक में व्याप्त हैं।' बावर पृथ्वीकाय-बादरनामकर्म के उदय से जिन पृथ्वीकायिक जीवों का शरीर (अनेकों के मिलने पर) चर्मचक्षुषों से ग्राह्य हो सकता है, जिसमें घात-प्रतिघात होता हो, जो मारने से मरते 1. पुढवी चित्तमंतमक्खाया, अणेग जीवा, पुढो सत्ता प्रश्नत्थ सत्थपरिणएणं / -दशवै० 2. 'सुहमा सव्वलोगम्मि'। -उत्तराध्ययन Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति : पृथ्वीकाय का वर्णन [27 हों, छेदने से छिदते हों, भेदने से भिदते हों, बे बादर पृथ्वीकायिक जीव हैं / ये लोक के प्रतिनियत क्षेत्र में ही होते हैं, सर्वत्र नहीं। मूल में आये हुए 'दोनों चकार सूक्ष्म और बादर के स्वगत अनेक भेद-प्रभेद के सूचक हैं।' सूक्ष्म पृथिवीकायिक के भेद-सूक्ष्म पृथ्विकायिक जीवों के सम्बन्ध में बताया गया है कि वे दो प्रकार के हैं—यथा 1. पर्याप्तक और 2 अपर्याप्तक / पर्याप्तक-जिन जीवों ने अपनी पर्याप्तियां पूरी कर ली हों वे पर्याप्तक हैं। अपर्याप्तक-जिन जीवों ने अपनी पर्याप्तियां पूरी नहीं की हैं या पूरी करने वाले नहीं हैं वे अपर्याप्तक हैं। पर्याप्तक और अपर्याप्तक के स्वरूप को समझने के लिए पर्याप्तियों को समझना आवश्यक है। पर्याप्ति का स्वरूप इस प्रकार हैपर्याप्ति का स्वरूप आहारादि के पुद्गलों को ग्रहण कर उन्हें शरीरादि रूप में परिणत करने की आत्मा की शक्ति को पर्याप्ति कहते हैं।' यह शक्ति पुद्गलों के उपचय से प्राप्त होती है। जीव अपने उत्पत्तिस्थान पर पहुंचकर प्रथम समय में जिन पुद्गलों को ग्रहण करता है और इसके बाद भी जिन पुद्गलों को ग्रहण करता है उनको शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन के रूप में परिवर्तित करता है। पुद्गलों को इन रूपों में परिणत करने की शक्ति को ही पर्याप्ति कहा जाता है। पर्याप्तियाँ छह प्रकार की हैं-१. आहारपर्याप्ति, 2. शरीरपर्याप्ति, 3. इन्द्रियपर्याप्ति, 4. श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति, 5. भाषापर्याप्ति और 6. मनःपर्याप्ति / 1. आहारपर्याप्ति—जिस शक्ति से जीव प्राहार को ग्रहण कर उसे रस और खल (प्रसार भाग) में परिणत करता है, उसे पाहारपर्याप्ति कहते हैं। 2. शरीरपर्याप्ति-जिस शक्ति से जीव रस रूप में परिणत प्राहार को रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और वीर्य रूप सात धातुओं में परिणत करता है, वह शरीरपर्याप्ति है। 3. इन्द्रियपर्याप्ति-जिस शक्ति से जीव सप्त धातुओं से इन्द्रिय योग्य पुद्गलों को ग्रहण कर उन्हें इन्द्रिय रूप में परिणत करता है, वह इन्द्रियपर्याप्ति है / 4. श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति-जिस शक्ति से जीव श्वासोच्छ्वास योग्य पुद्गलों को ग्रहण करके श्वास और उच्छ्वास में परिणत करता है, वह श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति है। 5. भाषापर्याप्ति-जिस शक्ति से जीव भाषावर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करके भाषा रूप में बदलता है, वह भाषापर्याप्ति है। 6. मनःपर्याप्ति-जिस शक्ति से जीव मनोवर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण कर उन्हें मन के रूप में बदलता है, वह मन:पर्याप्ति है। 1. पर्याप्तिामाहारादिपुदगलग्रहणपरिणमनहेतुरात्मनः शक्तिविशेषः। -मलयगिरि वत्ति / Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28] [जीवाजीवाभिगमसूत्र पर्याप्तियों का क्रम और काल-सब पर्याप्तियों का पारंभ एक साथ होता है किन्तु उनकी पूर्णता अलग-अलग समय में होती है / पहले आहारपर्याप्ति पूर्ण होती है, फिर क्रमशः शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छवास, भाषा और मनःपर्याप्ति पूर्ण होती है / पूर्व की अपेक्षा उत्तर-उत्तर की पर्याप्ति सूक्ष्म, सूक्ष्मतर होती है। जैसे छह व्यक्ति एक साथ सूत कातने बैठे हों लो जो बारीक कातेगा उसे उसकी अपेक्षा अधिक समय लगेगा जो मोटा कातता है / प्राहारपर्याप्ति सबसे स्थूल है और मनःपर्याप्ति सबसे सूक्ष्म है। आहारपर्याप्ति का काल एक समय है। वह एक समय में पूर्ण हो जाती है। इसका प्रमाण यह है कि प्रज्ञापना के आहार पद में यह पाठ है कि 'आहारपर्याप्ति से अपर्याप्त जीव आहारक है या अनाहारक ? उत्तर में कहा गया है कि प्राहारक नहीं है, अनाहारक है। प्राहारपर्याप्ति से अपर्याप्तजीव विग्रहगति में ही होता है, उपपातक्षेत्र में पाया हुया नहीं। उपपातक्षेत्र समागत जीव. प्रथम समय में ही आहारक होता है। इससे पाहारपर्याप्ति की समाप्ति का काल एक समय का सिद्ध होता है। यदि उपपातक्षेत्र में आने के बाद भी आहारपर्याप्ति से अपर्याप्त होता तो प्रज्ञापना में 'कदाचित् आहारक और कदाचित् अनाहारक' ऐसा उत्तर दिया गया होता / जैसा कि शरीरादि पर्याप्तियों में दिया गया है / इसके बाद शरीर आदि पर्याप्तियाँ अलग-अलग एक-एक अन्तर्मुहूर्त में पूरी होती हैं। सब पर्याप्तियों का समाप्तिकाल भी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है क्योंकि अन्तर्मुहूर्त भी अनेक प्रकार का है। किसके कितनी पर्याप्तियां ? एकेन्द्रिय जीवों के चार पर्याप्तियाँ होती हैं-१. पाहार, 2. शरीर, 3. इन्द्रिय और 4. श्वासोच्छ्वास / द्वीन्द्रिय, वीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय के पांच पर्याप्तियाँ होती हैं-पूर्वोक्त चार और भाषापर्याप्ति / संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के छहों पर्याप्तियाँ होती हैं। आहार, शरीर और इन्द्रिय—ये तीन पर्याप्तियाँ प्रत्येक जीव पूर्ण करता है / इनको पूर्ण करके ही जीव अगले भव की प्रायू का बंध कर सकता है। अगले भव की आय का बंध किये बिना कोई जीव नहों मर सकता / इन तीन पर्याप्तियों की अपेक्षा से तो प्रत्येक जीव पर्याप्त ही होता है परन्तु पर्याप्तअपर्याप्त का विभाग इन तीन पर्याप्तियों की अपेक्षा से नहीं है, अपितु जिन जीवों के जितनी पर्याप्तियाँ कही गई हैं, उनकी पूर्णता-अपूर्णता को लेकर है / ___ स्वयोग्य पर्याप्तियों को जो पूर्ण करे वह पर्याप्त जीव हैं और स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूर्ण न करे वह अपर्याप्त जीव हैं। जैसे एकेन्द्रिय जीव के स्वयोग्य पर्याप्तियाँ 4 कही गई हैं / इन चार पर्याप्तियों को पूर्ण करनेवाला एकेन्द्रिय जीव पर्याप्त है और इन चार को पूर्ण न करने वाला अपर्याप्त है। पर्याप्त-अपर्याप्त के भेद पर्याप्त जीव दो प्रकार के हैं.---१. लब्धिपर्याप्त और 2. करणपर्याप्त। जिस जीव ने स्वयोग्य पर्याप्तियों को अभी पूर्ण नहीं किया किन्तु आगे अवश्य पूरी करेगा, वह लब्धि की अपेक्षा से लब्धि-पर्याप्तक कहा जाता है / जिस जीव ने स्वयोग्य पर्याप्तियां पूरी कर ली हैं बह करणपर्याप्त है। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति : पृथ्वीकाय का वर्णन] [29 अपर्याप्त जीव भी दो प्रकार के हैं-१. लब्धि-अपर्याप्त और 2. करण-अपर्याप्त / जिस जीव ने स्वयोग्य पर्याप्तियां पूरी नहीं की और आगे करेगा भी नहीं अर्थात् अपर्याप्त ही मरेगा वह लब्धिअपर्याप्त है / जिसने स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूरा नहीं किया किन्तु आगे पूरा करेगा वह करण से अपर्याप्त है। इस प्रकार सूक्ष्म पृथ्वोकायिक जीवों के पर्याप्तक और अपर्याप्तक के भेद से दो प्रकार हए / सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों के सम्बन्ध में शेष वक्तव्यता कहने के लिए दो संग्रहणी गाथाएँ यहाँ दी गई हैं, वे इस प्रकार हैं सरीरोगाहण संघयण संठाण कसाय तह य हंति सन्नाओ। लेसिदिय समुग्धाए सन्नी बेए य पज्जत्ती // 1 // विट्ठी सण नाणे जोगुवनोगे तहा किमाहारे / उबवाय ठिई समुग्घाय चवण गइरागई चेव // 2 // इसके आगे सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों का 23 द्वारों द्वारा निरूपण किया जायेगा। वे तेवीस द्वार इस प्रकार हैं 1. शरीर, 2. अवगाहना, 3. संहनन, 4. संस्थान, 5. कषाय, 6. संज्ञा, 7. लेश्या, 8. इन्द्रिय, 9. समुद्घात, 10. संजी-असंज्ञी, 11. वेद. 12. पर्याप्ति, 13. दृष्टि, 14. दर्शन, 15. ज्ञान, 16. योग, 17. उपयोग, 18. आहार, 19. उपपात, 20. स्थिति, 21. समवहत-असमवहत मरण 22. च्यवन और 13. गति-प्रागति / आगे के सूत्रों में क्रमश: इन 23 द्वारों को लेकर प्रश्नोत्तर किये गये हैं। 'यथोद्देशः तथा निर्देशः' के अनुसार प्रथम क्रमशः शरीर आदि द्वारों का कथन किया जाता है-~ 13. [1] तेसि णं भंते ! जीवाणं कति सरीरया पण्णता ? गोयमा ! तो सरीरगा पण्णता, तंजहा-ओरालिए, तेयए, कम्मए / [1] हे भगवन् ! उन सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों के कितने शरीर कहे गये हैं ? गौतम ! तीन शरीर कहे गये हैं, जैसे कि 1. औदारिक 2. तैजस और 3. कार्मण। [2] तेसि णं भंते ! जीवाणं केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णता? गोयमा ! जहन्नेणं अंगुलासंखेज्जहभागं उक्कोसेणवि अंगुलासंखेज्जइभागं / [2] भगवन् ! उन जीवों के शरीर की अवगाहना कितनी बड़ी कही गई है ? गौतम ! जघन्य से अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट से भी अंगुल का असंख्यातवां भाग प्रमाण है। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30] [जीवाजीवाधिगमसूत्र [3] तेसिणं भंते ! जीवाणं सरीरा किसंघयणा पण्णता? गोयमा ! छेवट्टसंघयणा पण्णत्ता। [3] भगवन् ! उन जीवों के शरीर किस संहनन वाले कहे गये हैं ? गौतम ! सेवार्तसंहनन वाले कहे गये हैं / [4] तेसि णं भंते ! जीवाणं सरीरा किंसंठिया पण्णता? गोयमा ! मसूरचंदसंठिया पण्णत्ता / [4] भगवन् ! उन जीवों के शरीर का संस्थान क्या है ? गौतम ! चन्द्राकार मसूर की दाल के समान है। [5] तेसि णं भंते ! जीवाणं कति कसाया पण्णता? गोयमा ! चत्तारि कसाया पण्णत्ता, तं जहा–कोहकसाए, माणकसाए, मायाकसाए, लोहकसाए। [5] भगवन् ! उन जीवों के कषाय कितने कहे गये हैं ? गौतम ! चार कषाय कहे गये हैं। जैसे कि क्रोधकषाय, मानकषाय, मायाकषाय और लोभकषाय। [6] तेसि णं भंते ! जीवाणं कति सण्णा पण्णता? गोयमा ! चत्तारिसण्णा पण्णत्ता, तंजहा-आहारसण्णा जाव परिग्गहसण्या। [6] भगवन् ! उन जीवों के कितनी संज्ञाएँ कही गई हैं ? गौतम ! चार संज्ञाएँ कही गई हैं, यथा-आहारसंज्ञा यावत् परिग्रहसंज्ञा / [7] तेसि गं भंते ! जीवाणं कति लेसाओ पण्णत्ताओ? गोयमा! तिन्नि लेस्साप्रो पण्णत्ताओ, तंजहा—किण्हलेस्सा, नीललेस्सा, काउलेस्सा। [7] भगवन् ! उन जीवों के लेश्याएँ कितनी कही गई हैं ? गौतम ! तीन लेश्याएँ कही गई हैं / यथा-कृष्णलेश्या, नीललेश्या प्रौर कापोतलेश्या। [8] तेसि णं भंते ! जीवाणं कति इंदियाइं पण्णत्ताई? गोयमा ! एगे फासिदिए पण्णत्ते / [8] भगवन् ! उन जीवों के कितनी इन्द्रियाँ कही गई हैं ? गौतम ! एक स्पर्शनेन्द्रिय कही गई है। [9] तेसि गं भंते ! जीवाणं कति समुग्घाया पण्णता? गोयमा! तो समुग्घाया पण्णता, तंजहा–१. वेयणासमुग्याए, 2. कसायसमुग्याए, 3. मारणंतियसमुग्घाए। [9] भगवन् ! उन जीवों के कितने समुद्घात कहे गये हैं ? . गौतम ! तीन समुद्घात कहे गये है। जैसे कि-१. वेदना-समुद्घात, 2. कषाय-समुद्धात मोर 3. मारणांतिक-समुद्धात / Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति: पृथ्वीकाय का वर्णन] [10] ते णं भंते ! जीवा कि सन्नी असन्नी ? गोयमा ! नो सन्नी, असन्नी। [10] भगवन् ! वे जीव संज्ञी हैं या असंज्ञी ? गौतम ! संज्ञी नहीं हैं, असंज्ञी हैं / [11] ते णं भंते ! जीवा कि इस्थिवेया, पुरिसवेया, णपुसगवेया ? गोयमा ! णो इत्थिवेया, णो पुरिसवेया, पसगवेया। [11] भगवन् ! वे जीव स्त्रीवेद वाले हैं, पुरुषवेद वाले हैं या नपुंसकवेद वाले हैं ? गौतम ! वे स्त्रीवेद वाले नहीं हैं, पुरुषवेद वाले नहीं हैं, नपुंसकवेद वाले हैं। [12] तेसि णं भंते ! जीवाणं कति पन्जत्तीओ पण्णताओ? गोयमा ! चत्तारि पज्जत्तीओ पण्णत्तामो, तंजहा-आहारपज्जत्ती, सरीरपग्मती, इंरियपन्जसी, आणपाणुपज्जत्ती। तेसि गं भंते ! जीवाणं कति अपज्जत्तीओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! चत्तारि अपज्जत्तीओ पण्णताओ, तंजहा-आहार-मपन्नती नाव मागपाणमपन्नती। [12] भगवन् ! उन जीवों के कितनी पर्याप्तियां कही गई हैं ? गौतम ! चार पर्याप्तियां कही गई हैं। जैसे 1. आहारपर्याप्ति, 2. शरीरपर्याप्ति, 3. इन्द्रियपर्याप्ति और 4. श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति / हे भगवन् ! उन जीवों के कितनी अपर्याप्तियां कही गई हैं ? गौतम ! चार अपर्याप्तियाँ कही गई हैं। यथा--आहार-अपर्याप्ति यावत् श्वासोच्छ्वासअपर्याप्ति / [13] ते णं भंते ! जीवा कि सम्मविट्ठी, मिच्छादिट्ठी, सम्ममिच्छादिट्ठी। गोयमा ! णो सम्मदिट्ठी, मिच्छाविट्ठी, णो सम्ममिच्छाविट्ठी। [13] भगवन् ! वे जीव सम्यग्दृष्टि हैं, मिथ्यादृष्टि हैं या सम्यग्-मिथ्यावृष्टि (मिश्रदृष्टि) गौतम ! वे सम्यग्दृष्टि नहीं हैं, मिथ्यादृष्टि हैं, सम्यग्-मिथ्यादृष्टि (मिश्रदृष्टि) भी नहीं हैं / [14] ते णं भंते ! जीवा किं चक्खुदंसणी, प्रचक्खुदंसणी, ओहिसणी, केवलदसणी। गोयमा! नो चक्खुदंसणी, अचवखुदंसणी, नो ओहिदंसणी, नो केवलदसणी। [14] भगवन् ! वे जीव चक्षुदर्शनी हैं, अचक्षुदर्शनी हैं, अवधिदर्शनी हैं या केवलदर्शनी हैं ? गौतम ! वे जीव चक्षुदर्शनी नहीं हैं, अचक्षुदर्शनी हैं, अवधिदर्शनी नहीं हैं, केवलदर्शनी नहीं हैं। हैं Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32] . [जीवाजीवाभिगमसूत्र [15] ते णं भंते ! जीवा कि गाणी, अण्णाणी ? गोयमा ! नो णाणी, अण्णाणी। नियमा दुअण्णाणि, तंजहा–मति-अन्नाणी, सुय-प्रणाणी य / [15] भगवन् ! वे जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी ? गौतम ! वे ज्ञानी नहीं, अज्ञानी हैं / वे नियम से (निश्चित रूप से) दो अज्ञानवाले होते हैं-मति-अज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी / / [16] ते णं भंते ! जीवा कि मणजोगी, वयजोगी, कायजोगी ? गोयमा ! नो मणजोगी, नो वयजोगी, कायजोगी। [16] भगवन् ! वे जीव क्या मनोयोग वाले, वचनयोग वाले और काययोग वाले हैं ? गौतम ? वे मनोयोग वाले नहीं, वचनयोग वाले नहीं, काययोग वाले हैं। [17] ते णं भंते ! जीवा कि सागारोंवउत्ता अणागारोवउत्ता? गोयमा! सागारोवउत्ता वि अणागारोवउत्ता वि। [17] भगवन् ! वे जीव क्या साकारोपयोग वाले हैं या अनाकारोपयोग वाले ? गौतम ! साकार-उपयोग वाले भी हैं और अनाकार-उपयोग वाले भी हैं / [18] ते णं भंते ! जीवा किमाहारमाहारेंति ? गोयमा! दव्वओ अणंतपएसियाई, खेत्तओ असंखेज्जपएसोवगाढाइं, कालओ अन्नयर समयद्विइयाई, भावओ वण्णमंताई, गंधमंताई, रसमंताई फासमंताई जाइं भावनो वण्णमंताई आहारेति ताई कि एगवण्णाई आ०, दुवण्णाई आ०, तिवण्णाई आ०, चउवण्णाई आ०, पंचवण्णाई आहारेंति ? ___ गोयमा ! ठाणमग्गणं पडुच्च एगवण्णाई पि दुवण्णाई पि तिवण्णाई पि चउवण्णाई पिपंचवण्णाई पि आहारैति / विहाणमग्गणं पडुच्च कालाई पि आ० जाव सुक्किलाई पि आहारेति / जाई वष्णओ कालाई आहारेति ताई कि एगगुण कालाई आ० जाव अणंतगुणकालाई आहारति ? गोयमा ! एगगुणकालाई पि आ० जाव अणंतगुणकालाई पि आ० एवं जाव सुक्किलाई / जाइं भावओ गंधमंताई आ० ताई कि एगगंधाइं आ० दुगंधाइं आहारति ? गोयमा ! ठाणमग्गणं पडुच्च एगगंधाई पि आ० दुगंधाई पि आ० / विहाणमग्गणं पडुच्च सुम्भिगंधाई पि आ० दुग्भिगंधाई पि आ० / जाई गंधप्रो सुब्भिगंधाई आ० ताई कि एगगुणसुम्भिगंधाई आ० जाव अणंतगुणसुन्भिगंधाई आहारति ? गोयमा ! एगगुणसुभिगंधाई पि आ० जाव अणंतगुणसुग्भिगंधाई पि आहारैति / एवं दुम्भिगंधाई पि। रसा जहा वण्णा / Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति : पृथ्वीकाय का वर्णन] [33 जाई भावओ फासमंताई आहारेति ताई कि एगफासाई आ० जाव अट्ठफासाई आहारेंति ? गोयमा ! ठाणं मागणं पडुच्च नो एगफासाई आ० नो दुफासाइं आ० नो तिफासाई प्रा० चउफासाई आ० पंचफासाई.पि जाव अट्ठफासाई पि आहारेति / विहाणमग्गणं पडुच्च कक्खडाई पि आ० जाव लक्खाई पि आहारैति / जाई फासओ कक्खडाई आ० ताई कि एगगुणकक्खडाई आ० जाव अणंतगुणकक्खडाई आहारैति? गोयमा ! एगगुणकक्खडाई पि आहारति जाव अणंतगुणकक्खडाई पि आहारैति एवं जाव लक्खा यव्वा / ताई भंते किं पुट्ठाई आहारति अपुट्ठाई आ० ? गोयमा ! पुट्ठाई आ० नो अपुट्ठाई आ० / ताई भंते ! ओगाढाइं आ० अणोगावढाई आ० ? गोयमा ! ओगाढाई प्रा० नो अणोगाढाई आ० / ताई भंते ! कि अणंतरोबगाढाई आ० परंपरोवगाढाई आ० ? गोयमा ! अणंतरोगाढाइं पा०, नो परंपरोवगाढाइं आ० / ताई भंते ! कि अणूई आ०, बायराइं आ० ? गोयमा ! अणूई पि आ०, बायराइं पि आहारेति / ताई भंते ! उड्ढं आ०, अहे आ०, तिरियं आहारेंति ? गोयमा ! उड्ढं पि आ०, अहे वि आ०, तिरियं पि आ० / ताई भंते ! कि आई आ०, मज्झे आ०, पज्जवसाणे आहारति ? गोयमा ! आई पि आ०, मझे वि आ०, पज्जबसाणे पि आ० / ताई भंते ! कि सविसए आ०, अविसए आ०। गोयमा! सविसए आ०, नो अविसए आ०? ताई भंते कि आणुपुब्धि आ०, अणाणुपुन्धि प्रा० ? गोयमा! आणुपुस्वि आ० नो अणाणुपुग्वि आहारति / ताई भंते ! कि तिदिसि आहारेति, चउविसि आ०, पंचदिसि प्रा०, छदिसि आ० ? गोयमा ! निव्वाधाएणं छदिसि / वाघायं पडुच्च सिय तिदिसि सिय चउदिसि सिय पंचदिसि / उस्सन्नकारणं पडुच्च वण्णओ कालाई नीलाई जाव सुक्किलाई, गंधओ सुम्भिगंधाइं दुन्भिगंधाई रसओ तित्तजावमहराइं, फासओ कक्खडमउय जाव निद्धलुक्खाई, तेसि पोराणे वण्णगुणे विप्परिणामइत्ता परिपालइत्ता, परिसाउइत्ता परिविद्धंसइत्ता अण्णे अपुब्वे वण्णगुणे गंधगुणे जाव फासगुणे उप्पाइत्ता आयसरीरोगाढा पोग्गले सम्बप्पणयाए आहारमाहरति / Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34] जिीवाजीवाभिगमसूत्र [18] भगवन् ! वे जोव क्या प्राहार करते हैं ? गौतम ! वे द्रव्य से अनन्तप्रदेशी पुद्गलों का आहार करते हैं, क्षेत्र से असंख्यप्रदेशावगाढ पुद्गलों का आहार करते हैं, काल से किसी भी समय की स्थिति वाले पुद्गलों का आहार करते हैं, भाव से वर्ण वाले, गंध वाले, रस वाले और स्पर्श वाले पुद्गलों का प्राहार करते हैं। प्र.--भगवन् ! भाव से जिन वर्ण वाले पुद्गलों का आहार करते हैं, वे एक वर्ण वाले, दो वर्ण वाले, तीन वर्ण वाले, चार वर्ण वाले या पंच वर्ण वाले हैं ? उ.-गौतम ! स्थानमार्गणा की अपेक्षा से एक वर्ण वाले, दो वर्ण वाले, तीन वर्ण वाले, चार वर्ण वाले, पांच वर्ण वाले पुद्गलों का प्राहार करते हैं। भेदमार्गणा की अपेक्षा काले पुद्गलों का भी आहार करते हैं यावत् सफेद पुद्गलों का भी प्राहार करते हैं। प्र.-भंते ! वर्ण से जिन काले पुद्गलों का आहार करते हैं वे क्या एक गुण काले हैं यावत् अनन्तगुण काले हैं ? उ.-गौतम ! एकगुण काले पुत्गलों का भी आहार करते हैं यावत् अनन्तगुण काले पुद्गलों का भी आहार करते हैं / इस प्रकार यावत् शुक्लवर्ण तक जान लेना चाहिए / प्र.-भंते ! भाव से जिन गंध वाले पुद्गलों का आहार करते हैं वे एक गंध वाले या दो गंध वाले पुद्गलों का आहार करते हैं ? ___ उ.—गौतम ! स्थानमार्गणा की अपेक्षा एक गन्ध वाले पुद्गलों का भी पाहार करते हैं और दो गन्ध वालों का भी। भेदमार्गणा की अपेक्षा से सुरभिगन्ध वाले और दुरभिगन्ध वाले दोनों का आहार करते हैं। प्र.-भंते ! जिन सुरभिगन्ध वाले पुद्गलों का आहार करते हैं वे क्या एकगुण सुरभिगन्ध वाले हैं यावत् अनन्तगुण सुरभिगन्ध वाले होते हैं ? उ.- गौतम ! एकगुण सुरभिगन्ध वाले यावत् अनन्तगुण सुरभिगन्ध वाले पुद्गलों का पाहार करते हैं। इसी प्रकार दुरभिगन्ध के विषय में भी कहना चाहिए / रसों का वर्णन भी वर्ण की तरह जान लेना चाहिए। प्र.-भंते ! भाव की अपेक्षा से वे जीव जिन स्पर्श वाले पुद्गलों का आहार करते हैं वे एक स्पर्श वालों का श्राहार करते हैं यावत् पाठ स्पर्श वाले पुद्गलों का आहार करते हैं ? उ.--गौतम ! स्थानमार्गणा की अपेक्षा एक स्पर्श वालों का आहार नहीं करते, दो स्पर्श वालों का आहार नहीं करते हैं, तीन स्पर्श वालों का आहार नहीं करते, चार स्पर्श वाले, पाँच स्पर्श वाले यावत् आठ स्पर्श वाले पुद्गलों का पाहार करते हैं। भेदमार्गणा की अपेक्षा कर्कश स्पर्श वाले पुद्गलों का भी यावत् रूक्ष स्पर्श वाले पुद्गलों का भी आहार करते हैं। प्र.---भंते ! स्पर्श की अपेक्षा जिन कर्कश पुद्गलों का आहार करते हैं वे क्या एकगुण कर्कश हैं या अनन्तगुण कर्कश हैं ? Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति : पृथ्वीकाय का वर्णन [35 उ.-गौतम ! एकगुण कर्कश का भी आहार करते हैं और अनन्तगुण कर्कश का भी प्राहार करते हैं / इस प्रकार यावत् रूक्षस्पर्श तक जान लेना चाहिए। प्र.-भंते ! वे आत्म-प्रदेशों से स्पृष्ट का आहार करते हैं या अस्पृष्ट का आहार करते हैं ? उ.--गौतम ! स्पृष्ट का आहार करते हैं, अस्पृष्ट का नहीं। प्र.-भंते ! वे प्रात्म-प्रदेशों में अवगाढ पुद्गलों का आहार करते हैं या अनवगाढ का? उ.-गौतम ! आत्म-प्रदेशों में अवगाढ पुद्गलों का आहार करते हैं, अनवगाढ का नहीं। प्र.---भंते ! वे अनन्तर-अवगाढ पुद्गलों का आहार करते हैं या परम्परा से अवगाढ पुद्गलों का प्रहार करते हैं ? उ.-गौतम ! अनन्तर-अवगाढ पुद्गलों का आहार करते हैं, परम्परावगाढ का नहीं / प्र.-भंते ! वे अणु-थोड़े प्रमाण वाले पुद्गलों का पाहार करते हैं या बादर-अधिक प्रमाण वाले पुद्गलों का आहार करते हैं ? उ.-गौतम ! वे थोड़े प्रमाण वाले पुदगलों का भी आहार करते हैं और अधिक प्रमाण वाले वाले पुद्गलों का भी पाहार करते हैं / प्र.-भंते ! क्या वे ऊपर, नीचे या तिर्यक् स्थित पुद्गलों का आहार करते हैं ? उ.-गौतम ! वे ऊपर स्थित पुद्गलों का भी आहार करते हैं, नीचे स्थित पुद्गलों का भी पाहार करते हैं और तिरछे स्थित पुद्गलों का भी प्राहार करते हैं। प्र.-भंते ! क्या वे ग्रादि, मध्य और अन्त में स्थित पुद्गलों का आहार करते हैं ? उ.-गौतम ! वे आदि में स्थित पुद्गलों का भी आहार करते हैं, मध्य में स्थित पुद्गलों का भी ग्राहार करते हैं और अन्त में स्थित पुद्गलों का भी पाहार करते हैं। प्र.-भंते ! क्या वे अपने योग्य पुद्गलों का आहार करते हैं या अपने अयोग्य पुद्गलों का पाहार करते हैं ? उ.-गौतम ! वे अपने योग्य पुदगलों का आहार करते हैं, अयोग्य पुद्गलों का नहीं। प्र.--भंते ! क्या वे प्रानुपूर्वी-समीपस्थ पुद्गलों का पाहार करते हैं या अनानुपूर्वी-दूरस्थ पुद्गलों का आहार करते हैं ? उ.-गौतम ! वे समीपस्थ पुद्गलों का प्राहार करते हैं, दूरस्थ पुद्गलों का पाहार नहीं करते। प्र.-भंते ! क्या वे तीन दिशाओं, चार दिशाओं, पाँच दिशानों और छह दिशाओं में स्थित पुद्गलों का आहार करते हैं ? उ.-गौतम ! व्याघात न हो तो छहों दिशाओं के पुद्गलों का आहार करते हैं / व्याघात हो तो तीन दिशाओं, कभी चार दिशाओं और कभी पाँच दिशाओं में स्थित पुद्गलों का ग्राहार करते हैं। प्रायः विशेष करके वे जीव कृष्ण, नील यावत् शुक्ल वर्ण वाले पुद्गलों का पाहार करते हैं। गन्ध से सुरभिगंध दुरभिगंध वाले, रस से तिक्त यावत् मधुररस वाले, स्पर्श से कर्कश मृदु यावत् स्निग्धरूक्ष पुद्गलों का आहार करते हैं। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36] [जीवाजीवाभिगमसूत्र वे उन आहार्यमाण पुद्गलों के पुराने (पहले के) वर्णगुणों को यावत् स्पर्शगुणों को बदलकर, हटाकर, झटककर, विध्वंसकर उनमें दूसरे अपूर्व वर्णगुण, गन्धगुण, रसगुण और स्पर्शगुणों को उत्पन्न करके प्रात्मशरीरावगाढ पुद्गलों को सब प्रात्मप्रदेशों से ग्रहण करते हैं / 16. ते गं भंते ! जीवा कओहिंतो उववज्जति ? कि नेरइयतिरिक्खमणुस्सदेवेहितो उववज्जति ? गोयमा ! नो नेरइएहितो उववज्जंति, तिरिक्खजोणिएहितो उपवज्जति, मणुस्सेहितो उववज्जंति, नो देवेहितो उववज्जंति, तिरिक्खजोणियपज्जत्तापज्जतेंहितो असंखेज्जवासाउयवज्जेहिंतो उववज्जात, मणुस्सेहितो अकम्मभूमिग-असंखेज्जवासाउयवज्जेहितो उववज्जति / वक्कंति-उववाओ भाणियव्यो। [19] भगवन् ! वे जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? / क्या वे नरक से, तिर्यञ्च से, मनुष्य से या देव से आकर उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! वे नरक से पाकर उत्पन्न नहीं होते, तिर्यञ्च से पाकर उत्पन्न होते हैं, मनुष्य से पाकर उत्पन्न होते हैं, देव से पाकर उत्पन्न नहीं होते हैं। तिर्यञ्च से उत्पन्न होते हैं तो असंख्यात्तवर्षायु वाले भोगभूमि के तिर्यञ्चों को छोड़कर शेष पर्याप्त-अपर्याप्त तिर्यंचों से आकर उत्पन्न होते हैं। __ मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं तो अकर्मभूमि वाले और असंख्यात वर्षों की आयु वालों को छोड़कर शेष मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं / इस प्रकार (प्रज्ञापना के अनुसार) व्युत्क्रान्ति-उपपात कहना चाहिए / [20] तेसि णं भंते ! जीवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं / [20] उन जीवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से भी अन्तर्मुहूर्त उनकी स्थिति है। [21] ते णं भंते ! जीवा मारणंतियसमुग्घाएणं किं समोहया मरंप्ति असमोहया मरंति ? गोयमा ! समोहयावि मरंति असमोहया वि मरंति / [21] वे जीव मारणान्तिक समुद्घात से समवहत होकर मरते हैं या असमवहत होकर ? गौतम ! वे मारणान्तिक समुद्धात से समवहत होकर भी मरते हैं और असमवहत होकर भी मरते हैं। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति: पृथ्वीकाय का वर्णन] [22] ते णं भंते ! जीवा अणंतरं उव्वट्टित्ता कहिं गच्छंति ?कहिं उववज्जंति ? कि नेरइएसु उववज्जंति, तिरिक्खजोणिएसु उववज्जति, मणुस्सेसु उववज्जति, देवेसु उववज्जंति ? गोयमा ! नो नेरइएसु उववजंति, तिरिक्खनोणिएसु उववज्जंति, मणुस्सेसु उववज्जंति, गो देवेसु उववज्जति / कि एगिदिएसु उववज्जंति जाव पंचिदिएस उबवज्जंति ? गोयमा! एगिदिएस उववज्जति जाव पंचिदियतिरिक्खजोणिएसु उववज्जंति, असंखेज्जवासाउयवज्जेस पज्जतापज्जत्तएसु उववज्जति / मणुस्सेसु अकम्मभूभग-अंतरदोवग-असंखेज्जवासाउयवज्जेसु पज्जत्तापज्जत्तेसु उववज्जति। [22] भगवन् ! वे जीव वहां से निकलकर अगले भव में कहाँ जाते हैं ? कहां उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नैरयिकों में, तिर्यञ्चों में, मनुष्यों में और देवों में उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! नरयिकों में उत्पन्न नहीं होते, तिर्यचों में उत्पन्न होते हैं, मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं, देवों में उत्पन्न नहीं होते। भंते ! क्या वे एकेन्द्रियों में यावत् पंचेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! वे एकेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं, यावत् पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकों में उत्पन्न होते हैं, लेकिन असंख्यात वर्षायु वाले तिर्यंचों को छोड़कर शेष पर्याप्त अपर्याप्त तिर्यंचों में उत्पन्न होते हैं। ____ अकर्मभूमि वाले, अन्तरद्वोप वाले तथा असंख्यात-वर्षायु वाले मनुष्यों को छोड़कर शेष पर्याप्त-अपर्याप्त मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं। [23] ते णं मंते ! जीवा कतिगतिका कतिआगतिका पण्णत्ता ? गोयमा ! दुगतिका दुआगतिका परित्ता असंखेज्जा पण्णत्ता समणाउसो! __ से तं सुहुमपुढविक्काइया / [23] भगवन् ! वे जीव कितनी गति में जाने वाले और कितनी गति से आने वाले हैं ? गौतम ! वे जीव दो गति वाले और दो प्रगति वाले हैं / हे अायुष्मन् श्रमण ! वे जीव प्रत्येक शरीर वाले और असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण कहे गये हैं। यह सूक्ष्म पृथ्वीकायिक का वर्णन हुमा / / विवेचन–प्रस्तुत सूत्र में सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों के सम्बन्ध में 23 द्वारों के द्वारा विशेष जानकारी भगवान् श्री गौतम के प्रश्नों और देवाधिदेव प्रभु श्री महावीर के उत्तर के रूप में दी गई है। यहाँ मूल सूत्र में 'भंते !' पद के द्वारा श्री गौतमस्वामी ने प्रभु महावीर को सम्बोधन किया है / 'भंते !' का अर्थ सामान्यतया 'भगवन्' होता है / टीकाकार ने भदन्त अर्थात् परम कल्याणयोगिन् ! अर्थ किया है / सचमुच भगवान् महावीर परम सत्यार्थ का प्रकाश करने के कारण परम कल्याणयोगी हैं। यहाँ सहज जिज्ञासा होती है कि भगवान् गौतम भी मातृकापद श्रवण करते ही प्रकृष्ट श्रुतज्ञानावरण के क्षयोपशम से चौदह पूर्वो के ज्ञाता हो गये थे / चौदह पूर्वधारियों से कोई भी प्रज्ञापनीय Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जीवाजीवाभिगमसूत्र भाव अविदित नह विशेषतः गणधर गौतम तो सर्वाक्षरसन्निपाती और संभिन्नश्रोतोलब्धि जैसी सर्वोत्कृष्ट लब्धियों से सम्पन्न थे। वे प्रश्न किये जाने पर संख्यातीत भवों को बता सकते थे। ऐसे विशिष्ट ज्ञानी भगवान् गौतम साधारण साधारण प्रश्न क्यों पूछते हैं ? इस जिज्ञासा को लेकर तीन प्रकार के समाधान प्रस्तुत किये गये हैं। प्रथम समाधान यह है कि-श्री गौतम गणधर सब कुछ जानते थे और वे अपने विनेयजनों को सब प्रतिपादन भी करते थे। परन्तु उसकी यथार्थता का शिष्यों के मन में विश्वास पैदा करने के लिए वे भगवान से प्रश्न करके उनके श्रीमुख से उत्तर दिलवाते थे। दूसरा समाधान यह है कि द्वादशांगी में तथा अन्य श्रुतसाहित्य में गणधरों के प्रश्न तथा भगवान् के उत्तर रूप बहुत सारा भाग है, अतएव सूत्रकार ने इसी रूप में सूत्र की रचना की है। तीसरा समाधान यह है कि चौदह पूर्वधर होने पर भी आखिर तो श्री गौतम छद्मस्थ थे और छद्मस्थ में स्वल्प भी अनाभोग (अनुपयोग) हो सकता है। इसलिए भगवान से पूछकर उस पर यथार्थता की छाप लगाने के लिए भी उनका प्रश्न करना संगत ही है। / भगवान् गौतम ने प्रश्न पूछा कि हे परमकल्याणयोगिन् ! सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों के कितने शरीर होते हैं ? प्रभु महावीर ने लोकप्रसिद्ध महागोत्र 'गौतम' सम्बोधन से सम्बोधित कर गौतम स्वामी के मन में प्रमोद और आह्लाद्र भाव पैदा करते हुए उत्तर दिया / यह मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि जिज्ञासु के असाधारण गुणों का कथन करने से उस व्यक्ति में विशिष्ट प्रेरणा जागृत होती है, जिससे वह विषय को भलीभाँति समझ सकता है / 1. शरीरद्वार-भगवान् ने कहा कि-सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों के तीन शरीर होते हैं--- औदारिक, तंजस् और कार्मण / सामान्यरूप से शरीर पाँच हैं-१. औदारिक, 2. वैक्रिय, 3. प्राहारक, 4. तेजस् और 5. कार्मण। औदारिक-उदार अर्थात् प्रधान-श्रेष्ठ पुद्गलों से बना हुआ शरीर प्रौदारिक है। यह तीर्थकर और गणधरों के शरीर की अपेक्षा समझना चाहिए / तीर्थंकर एवं गणधरों के शरीर की तुलना में अनुत्तर विमानवासी देवों के शरीर अनन्तगुणहीन हैं। ___अथवा उदार का अर्थ बृहत् (बड़ा) है। शेष शरीरों की अपेक्षा बड़ा होने से प्रौदारिक है। औदारिक शरीर का प्रमाण कुछ अधिक हजार योजन है / यह वृहत्तर (जन्मजात) भवधारणीय वैक्रिय शरीर की अपेक्षा से है / अन्यथा उत्तरवैक्रिय तो लाखयोजन प्रमाण भी होता है। 1. संखातीते वि भवे साहइ जंबा परो उ पुच्छेज्जा / न य णं अणाइसेसी वियाणइ एस छउमत्यो। 2. नहि नामानाभोगश्छद्मस्थस्येह कस्यचिन्नास्ति / शानावरणीयं हि ज्ञानावरणप्रकृति कर्म / Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति: पृथ्वीकाय का वर्णन] अथवा उदार अर्थात् स्थूल पुद्गलों से बना हुआ शरीर औदारिक है। जो शरीर सड़न-गलन स्वभाव वाला है, जिसका छेदन-भेदन किया जा सकता है, जिसमें त्वचा, रक्त, मांस, अस्थि आदि हों, वह औदारिक शरीर है। वैकियशरीर--जो शरीर विविध या विशिष्ट रूपों में परिवर्तित किया जा सकता है, वह वैक्रिय शरीर है / जो एक होकर अनेक हो जाता हो, अनेक होकर एक हो जाता हो, छोटे से बड़ा, बड़े से छोटा हो जाता हो, खेचर से भूचर और भूचर से खेचर, दृश्य से अदृश्य और अदृश्य से दृश्य हो सकता हो, वह वैक्रिय शरीर है / यह शरीर दो प्रकार का है-औपपातिक और लब्धिप्रत्ययिक / देवों और नारकों को जन्म से जो शरीर प्राप्त होता है वह औपपातिक वैक्रिय शरीर है। तथा किन्हीं विशिष्ट मनुष्य-तियंञ्चों को लब्धि के प्रभाव से विविध रूप बनाने की शक्ति प्राप्त होती है वह लब्धिजन्य वैक्रिय शरीर है / बादर वायुकायिक जीवों में भी कृत्रिम लब्धिजन्य वक्रिय शरीर माना गया है / इस शरीर की रचना में रक्त,मांस, अस्थि आदि नहीं होते। सड़न-गलन धर्म भी नहीं होते / औदारिक की अपेक्षा इसके प्रदेश प्रमाण में असंख्यातगुण अधिक होते हैं किन्तु सूक्ष्म होते हैं / __आहारकशरीर-चौदह पूर्वधारी मुनि तीर्थंकर की ऋद्धि-महिमा दर्शन के लिए तथा अन्य इसी प्रकार के प्रयोजन होने पर विशिष्ट लब्धि द्वारा जिस शरीर की रचना करते हैं, वह आहारक' है। विशिष्ट प्रयोजन बताते हुए कहा गया है कि-२ प्राणिदया, ऋद्धिदर्शन, सूक्ष्मपदार्थों को जानकारी के लिए और संशय के निवारण के लिए चतुर्दशपूर्वधारी मुनि अपनी लब्धिविशेष से एक हस्तप्रमाण सूक्ष्मशरीर बनाकर तीर्थंकर भगवान के पास भेजते हैं। यह सूक्ष्मशरीर अत्यन्त शुभ स्वच्छ स्फटिकशिला की तरह शुभ्र पुद्गलों से रचा जाता है। इस शरीर की रचना कर चौदह पूर्वधारी मुनि महाविदेह प्रादि क्षेत्र में विचरते हुए तीर्थंकर भगवान् के पास भेजते हैं। यदि तीर्थकर भगवान् वहाँ से अन्यत्र विचरण कर गये हों तो उस एक हस्तप्रमाण से मुंड हस्तप्रमाण पुतला निकलता है जो तीर्थकर भगवान जहाँ होते हैं वहाँ पहुँच जाता है। वहाँ से प्रश्नादि का समाधान लेकर एक हस्तप्रमाण शरीर में प्रवेश करता है और वह एक हस्तप्रमाण शरीर चौदह पूर्वधारी मुनि के शरीर में प्रविष्ट हो जाता है। इससे चौदह पूर्वधारी का प्रयोजन पूरा हो जाता है। एक अन्तर्मुहूर्त काल में यह सब प्रक्रिया हो जाती है / इस प्रकार को शरीर-रचना आहारक शरीर है। यह आहारक शरीर लोक में कदाचित् सर्वथा नहीं भी होता है / इसके अभाव का काल जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह मास है। तेजसशरीर-जो शरीर तेजोमय होने से खाये हुए आहार आदि के परिपाक का हेतु और दीप्ति का कारण हो वह तेजसशरीर है। जैसे कृषक खेत के क्यारों में अलग-अलग पानी पहुंचाता है इसी तरह यह शरीर ग्रहण किये हुए आहार को रसादि में परिणत कर अवयव-अवयव में पहुँचाता है / विशिष्ट तप से प्राप्त लब्धिविशेष से किसी किसी पुरुष को तेजोलेश्या निकालने की लब्धि 1. माह्नियते-निर्वत्त्यते इत्याहारकम् / 2 कज्जाम्मि सम्प्पन्ने सूयकेवलिणा विमिटलद्धीए / जं एत्थ प्राहारेज्जइ भणंति प्राहारगं तं तु / / Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जीवाजीवाभिगमसूत्र प्राप्त हो जाती है, उसका हेतु भी तेजस्शरीर है।' यह सभी संसारी जीवों के होता है। कार्मणशरीर-आत्मप्रदेशों के साथ क्षीर-नीर की तरह मिले हुए कर्मपरमाणु ही शरीर रूप से परिणत होकर कार्मणशरीर कहलाते हैं / कर्म-समूह ही कार्मणशरीर है / यह अन्य सब शरीरों का मूल है / कार्मण के होने पर ही शेष शरीर होते हैं / कार्मण के उच्छेद होते ही सब शरीरों का उच्छेद हो जाता है। जीव जब अन्य गति में जाता है तब तेजस् सहित कार्मण शरीर ही उसके साथ होता है। सक्षम होने के कारण यह तेजस-कार्मण शरीर गत्यन्तर में जाता-पाता दष्टिगोचर नहीं होता। इस विषय में अन्यतीथिक भी सहमत हैं। उन्होंने कहा है कि-गत्यन्तर में जाता-प्राता हुआ यह शरीर सूक्ष्म होने से दृष्टिगोचर नहीं होता। दृष्टिगोचर न होने से उसका प्रभाव नहीं मानना चाहिए। उक्त पांच शरीरों में से सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों के तीन शरीर होते हैं----ौदारिक, तैजस और कार्मण / वैक्रिय और आहारक उनके नहीं होते / क्योंकि ये दोनों लब्धियां हैं और भवस्वभाव से ही वे जीव इन लब्धियों से वंचित होते हैं। 2. अवगाहनाद्वार-शरीर की ऊँचाई को अवगाहना कहते हैं। यह दो प्रकार को होती है-जघन्य और उत्कृष्ट / सूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीवों की अवगाहना जघन्य अंगुल का असंख्यातवाँ भाग है और उत्कृष्ट भी अंगुल का असंख्यातवाँ भाग ही है, परन्तु जघन्य पद से उत्कृष्ट पद में अपेक्षाकृत अधिक अवगाहना जाननी चाहिए। 3. संहननद्वार-हड्डियों की रचनाविशेष को संहनन कहते हैं। वे छह हैं-वज्र ऋषभनाराच, ऋषभनाराच, नाराच, अर्धनाराच, कीलिका और सेवार्त। वज्रऋषभनाराच-वज्र का अर्थ कीलिका है। ऋषभ का अर्थ परिवेष्टनपट्ट है और नाराच का अर्थ दोनों तरफ मर्कटबन्ध होना है / तात्पर्य यह हुआ कि दो हड्डियाँ दोनों ओर से मर्कटबन्ध से जुड़ी हों, ऊपर से तीसरी हड्डीरूप पट्टे से वेष्टित हों और ऊपर से तीनों अस्थियों को भेदता हा कीलक हो। इस प्रकार की मजबूत हड्डियों की रचना को वनऋषभनाराचसंहनन कहते हैं। ऋषभनाराच-जिसमें मर्कटबन्ध हो, पट्ट हो लेकिन कीलक न हो, ऐसी अस्थिरचना को ऋषभनाराच कहते हैं। नाराच-जिसमें मर्कटबन्ध से ही हड्डियाँ जुड़ी हों वह नाराचसंहनन है। 1. सव्वस्स उम्हासिद्धं रसाइ पाहारपाकजण गं च / तेजगलद्धिनिमित च तेयगं होइ नायव्वं / 2. कम्मविकारो कम्मट्टविह विचित्तकम्मनिष्फन / सम्वेसि सरीराणां कारणभूयं मुणेयन्वं / / 3. अन्तरा भवदेहोऽपि सूक्ष्मत्वान्नोपलभ्यते / निष्क्रामन् प्रविशन् वाऽपि नाभावोऽनोक्षणादपि // Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रनिपत्ति : पृथ्वीकाय का वर्णन [41 अर्घ-नाराच-जिसमें एक तरफ मर्कटबन्ध हो और दूसरी ओर कीलिका हो, वह अर्धनाराच है। कीलिका-जिसमें हड्डियाँ कील से जुड़ी हों। सेवार्त (छेदति)-जिसमें हड्डियाँ केवल आपस में जुड़ी हुई हों (कीलक आदि का बन्ध भी न हो) वह सेवात या छेदति संहनन है। प्रायः मनुष्यादि के यह संहनन होने पर तेलमालिश आदि की अपेक्षा रहती है। उक्त प्रकार के छह संहननों में से सूक्ष्म पृथ्वीकायिक के अन्तिम छेदवति या सेवात संहनन कहा गया है / यद्यपि सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों के औदारिक शरीर में हड्डियां नहीं होती हैं फिर भी हड्डी होने की स्थिति में जो शक्ति-विशेष होती है वह उनमें है, अतः उनको उपचार से संहनन माना है। सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों के औदारिक शरीर तो है, उस शरीर के कारण से सूक्ष्म शक्ति-विशेष तो होती ही है। 4. संस्थानद्वार-संस्थान का अर्थ है-आकृति / ये संस्थान छह बताये गये हैं। 1 समचतुरस्रसंस्थान, 2 न्यग्रोध-परिमंडलसंस्थान, 3 सादिसंस्थान, 4 कुब्जसंस्थान, 5 वामनसंस्थान, 5 हुंडसंस्थान / 1. समचतुरस्त्र-पालथी मार कर बैठने पर जिस शरीर के चारों कोण समान हों। दोनों जानुओं, दोनों स्कन्धों का अन्तर समान हो, वाम जानु और दक्षिण स्कन्ध, वाम स्कन्ध और दक्षिण जानु का अन्तर समान हो, आसन से कपाल तक का अन्तर समान हो, ऐसी शरीराकृति को समचतुरस्रसंस्थान कहते हैं / अथवा सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार जिस शरीर के सम्पूर्ण अवयव ठीक प्रमाण वाले हों, वह समचतुरस्र है। 2. न्यग्रोधपरिमंडल-न्यग्रोध का अर्थ वटवृक्ष है। वटवृक्ष की तरह जिस शरीर का नाभि से ऊपर का हिस्सा पूर्ण हो और नीचे का भाग हीन हो वह न्यग्रोधपरिमंडल है / 3. सादि-यहाँ सादि से अर्थ नाभि से नीचे के भाग से है। जिस शरीर में नाभि से नीचे का भाग पूर्ण हो और ऊपर का भाग हीन हो वह सादिसंस्थान है। 4. कुब्ज-जिस शरीर में हाथ, पैर, सिर आदि अवयव ठीक हों परन्तु छाती, पीठ, पेट हीन और टेढ़े हों, वह कुब्जसंस्थान है / 5. वामन-जिस शरीर में छाती, पीठ, पेट आदि अवयव पूर्ण हों परन्तु हाथ, पैर आदि अवयव छोटे हों वह वामनसंस्थान है / 6. हुंड-जिस शरीर के सब अवयव हीन, अशुभ और विकृत हों, वह हुंडसंस्थान है। उक्त छह संस्थानों से सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों के कौनसा संस्थान है, इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है कि उनका संस्थान मसूर की दाल जैसा चन्द्राकार संस्थान है। चन्द्राकार मसूर की दाल जैसा संस्थान हुंडकसंस्थान ही है। अन्य पाँच संस्थानों में यह प्राकार नहीं हो सकता। अतः हुंडसंस्थान में ही यह समाविष्ट होता है। जीवों के छह संस्थानों के अतिरिक्त तो और कोई संस्थान नहीं Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42] [जीवाजीवाभिगमसूत्र होता / हुंडकसंस्थान का कोई एक विशिष्ट रूप नहीं है। वह असंस्थित स्वरूप वाला है। अतएव सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों के मसूर की दाल जैसी आकृति वाला हुंडसंस्थान जानना चाहिए / 5. कषायद्वार-जिसमें प्राणी कसे जाते हैं, पीड़ित होते हैं वह है कष अर्थात् संसार / जिनके कारण प्राणी संसार में आवागमन करते हैं--भवभ्रमण करते हैं वे कषाय हैं / कषाय 4 हैंक्रोध, मान, माया और लोभ / सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों में चारों कषाय पाये जाते हैं। यद्यपि इन जीवों में ये कषाय और इनके बाह्य चिह्न दिखाई नहीं देते किन्तु मन्द परिणाम से उनमें होते अवश्य हैं। अनाभोग से मन्द परिणामों की विचित्रता से वे अवश्य उनमें होते हैं। भले ही दिखाई न दें। 6. संज्ञाद्वार-संज्ञा दो प्रकार की हैं-१ ज्ञानरूप संज्ञा और 2 अनुभवरूप संज्ञा / ज्ञानरूप संज्ञा मतिज्ञानादि पाँच ज्ञानरूप है। स्वकृत असातावेदनीय कर्मफल का अनुभव करने रूप अनुभवसंज्ञा है। यहाँ अनुभवसंज्ञा का अधिकार है, क्योंकि ज्ञानरूप संज्ञा की ज्ञानद्वार में परिगणना की गई है। अनुभवसंज्ञा चार प्रकार की है-१. आहारसंज्ञा, 2. भयसंज्ञा, 3. मैथुनसंज्ञा और 4. परिग्रहसंज्ञा। आहारसंज्ञा-क्षुधा वेदनीयकर्म से होने वाली आहार की अभिलाषा रूप प्रात्म-परिणाम पाहारसंज्ञा है। भयसंज्ञा--भय वेदनीय से होने वाला त्रासरूप परिणाम भयसंज्ञा है / मैथुनसंज्ञा-वेदोदय जनित मैथुन की अभिलाषा मैथुनसंज्ञा है / परिग्रहसंज्ञा-लोभ से होने वाला मूर्छा परिणाम परिग्रहसंज्ञा है / आहारादि संज्ञा इच्छारूप होने से मोहनीय कर्म के उदय से होती है। सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों में ये चारों संज्ञाएँ अव्यक्त रूप में होती हैं / 7. लेण्याद्वार--जिसके कारण प्रात्मा कर्मों के साथ चिपकती है वह लेश्या है।' कृष्णादि द्रव्यों के सान्निध्य से आत्मा में होने वाले शुभाशुभ परिणाम लेश्या हैं / जैसे स्फटिक रत्न में अपना कोई काला-पीला-नीला आदि रंग नहीं होता है, वह तो स्वच्छ होता है, परन्तु उसके सान्निध्य में जैसे रंग की वस्तु आती है, वह उसी रंग का हो जाता है / वैसे ही कृष्णादि पदार्थों के सान्निध्य से आत्मा में जो शुभाशुभ परिणाम उत्पन्न होते हैं, वह लेश्या है। शास्त्रकारों ने लेश्याओं के छह भेद बताये हैं-१. कृष्णलेश्या, 2. नीललेश्या, 3. कापोतलेश्या, 4. तेजोलेश्या, 5. पद्मलेश्या और 6. शुक्ललेश्या। जम्बूफलखादक छह पुरुषों के दष्टान्त से शास्त्रकारों ने इन लेश्याओं का स्वरूप उदाहरण द्वारा समझाया है। वह इस प्रकार है: छह पुरुष रास्ता भूल कर जंगल में एक जामुन के वृक्ष के नीचे बैठकर इस प्रकार विचारने लगे---एक पुरुष बोला कि इस पेड़ को जड़मूल से उखाड़ देना चाहिए। दूसरा पुरुष बोला कि जड़मूल से तो नहीं स्कन्ध भाग काट देना चाहिए। तीसरे ने कहा कि बड़ी-बड़ी डालियाँ काट 1. कृष्णादि द्रव्यसाचिव्यात् परिणामो यात्मनः / स्फटिकस्येव तत्रायं, लेश्याशब्दः प्रवर्तते / / Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपति : पृथ्वीकाय का वर्णन] [43 लेनी चाहिए। चोथा बोला-जामुन के गुच्छों को ही तोड़ना चाहिए / पाँचवां बोला-सब गुच्छे नहीं केवल पके-पके जामुन तोड़ लेने चाहिए। छठा बोला-वृक्षादि को काटने की क्या जरूरत है, हमें जामुन खाने से मतलब है तो सहजरूप से नीचे पड़े हुए जामुन ही खा लेने चाहिए। जैसे उक्त पुरुषों की छह तरह की विचारधाराएँ हुईं, इसी तरह लेश्याओं में भी अलग-अलग परिणामों की धारा होती है।' ___प्रारम्भ की कृष्ण, नील, कापोत-ये तीन लेश्याएँ अशुभ हैं और पिछली तेज, पद्म, शुक्ल ये तीन लेश्याएं शुभ हैं / सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों में तीन अशुभ लेश्याएँ ही पायी जाती हैं / सूक्ष्मों में देवों की उत्पत्ति नहीं होती है / अतएव अादि की तीन लेश्याएँ ही इनमें होती हैं / 8. इन्द्रियद्वार—'इन्दनाद् इन्द्रः' इस व्युत्पत्ति के अनुसार सम्पूर्ण ज्ञानरूप परम ऐश्वर्य का अधिपति होने से प्रात्मा इन्द्र है। उसका अविनाभावी चिह्न इन्द्रियाँ हैं। वे इन्द्रियाँ पाँच हैंश्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, जिह्वन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय / __ ये पांचों इन्द्रियाँ दो-दो प्रकार की हैं-द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय / द्रव्येन्द्रिय भी दो प्रकार को हैं- 1 निर्वृत्तिद्रव्येन्द्रिय और 2 उपकरणद्रव्येन्द्रिय / निवृत्ति का अर्थ है अलग-अलग आकृति की पौद्गलिक रचना / यह निवृत्तिइन्द्रिय भी बाह्य और आभ्यन्तर के भेद से दो प्रकार की है / कान की पपड़ी आदि बाह्य निर्वृत्ति है और इसका कोई एक प्रतिनियत प्राकार नहीं है। मनुष्य के कान नेत्र के प्राजु-बाजु और भौहों के बराबरी में होते हैं जबकि घोड़े के कान नेत्रों के ऊपर होते हैं और उनके अग्रभाग तीखे होते हैं। आभ्यन्तर निवृत्तिइन्द्रिय सब जीवों के एकरूप होती है। इसको लेकर ही आगम में कहा गया है कि-श्रोत्रेन्द्रिय का आकार कदम्ब के फल के समान, चक्षुरिन्द्रिय का मसूर की चन्द्राकार दाल के समान, घ्राणेन्द्रिय का आकार अतिमुक्तक के समान, जिह्वन्द्रिय का खुरपे जैसा और स्पर्शनेन्द्रिय का नाना प्रकार का है। स्पर्शनेन्द्रिय में प्रायः बाह्य-प्राभ्यन्तर का भेद नहीं, तत्वार्थ की मूल टीका में यह भेद नहीं माना गया है / उपकरण का अर्थ है आभ्यन्तर निति की शक्ति-विशेष / बाह्य निर्वत्ति तलवार के समान है और आभ्यन्तर निर्वृत्ति तलवार की धार के समान स्वच्छतर पुद्गल समूह रूप है। उपकरण इन्द्रिय और आभ्यन्तर निवृत्ति इन्द्रिय में थोड़ा भेद है, जो शक्ति और शक्तिमान में है / आभ्यन्तर निर्वृत्ति इन्द्रिय के होने पर भी उपकरणेन्द्रिय का उपघात होने पर विषय ग्रहण नहीं होता / जैसे कदम्बाकृति रूप प्राभ्यन्तर निर्वत्ति इन्द्रिय के होने पर भी महाकठोर घनगर्जना आदि से शक्ति का उपघात होने पर शब्द सुनाई नहीं पड़ता। 1. पंथानो परिभट्ठा छप्पुरिसा अडविमझयारंमि / जम्बूतरुस्स होट्टा परोप्परं ते विचितेंति // 1 // निम्मूल खंघसाला मोच्छे पक्के य पडियसडियाई / जह एएसि भाबा, तह लेसाम्रो वि णायब्वा // 2 // Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जीवाजीवाभिगमसूत्र भावेन्द्रिय दो प्रकार की हैं-१. लब्धि और 2. उपयोग। आवरण का क्षयोपशय होना लब्धिइन्द्रिय है और अपने-अपने विषय में लब्धि के अनुसार प्रवृत्त होना-जानना उपयोगभावेन्द्रिय है। द्रव्येन्द्रिय-भावेन्द्रिय आदि अनेक प्रकार की इन्द्रियाँ होने पर भी यहाँ बाह्य निर्वत्ति रूप इन्द्रिय को लेकर प्रश्नोत्तर समझने चाहिए। इसको लेकर ही एकेन्द्रियादि का व्यवहार होता है।' बकुल आदि बनस्पतियाँ भावरूप से पाँचों इन्द्रियों के विषय को ग्रहण करती हैं किन्तु वे पंचेन्द्रिय नहीं कही जातीं, क्योंकि उनके बाह्यन्द्रियाँ पाँच नहीं हैं। स्पर्शनरूप बाह्य इन्द्रिय एक होने से वे एकेन्द्रिय ही हैं। सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों में केवल एक स्पर्शनेन्द्रिय ही होती है। 9. समुद्घातद्वार-वेदना आदि के साथ एकरूप होकर वेदनीयादि कर्मदलिकों का प्रबलता के साथ घात करना समुद्घात कहलाता है। समुद्घात सात हैं—१. वेदनासमुद्घात, 2. कषायसमुद्घात, 3. मारणान्तिकसमुद्धात, 4. वैक्रियसमुद्घात, 5. तेजससमुद्घात, 6. आहारकसमुद्घात और 7. केवलिसमुद्घात / 1. वेदनासमुद्घात–असातावेदनीय कर्म को लेकर वेदनासमुद्घात होता है। तीव्रवेदना से अभिभूत जीव बहुत-से वेदनीयादि कर्मपुद्गलों को, कालान्तर में अनुभवयोग्य दलिकों को भी उदीरणाकरण से उदयावलिका में लाकर वेदता-भोग भोग कर उन्हें निर्जरित कर देता है-आत्मप्रदेशों से अलग कर देता है / वेदना से पीड़ित जीव अनन्तानन्त कर्मपुद्गलों से वेष्टित आत्मप्रदेशों को शरीर से बाहर फेंकता है। उन प्रदेशों से वदन-जघनादि छिद्रों को और कर्ण-स्कन्धादि अन्तरालों की पूर्ति करके आयाम-विस्तार से शरीरमात्र क्षेत्र में व्याप्त होकर अन्तर्मुहर्त तक स्थित होता है। उस अन्तर्मुहूर्त में बहुत सारे असातावेदनीय के कर्मपुद्गलों की परिशातना, निर्जरा होती है / यह वेदनासमुद्घात है। 2. कषायसमुद्घात-यह समुद्घात कषायोदय से होता है। कषायोदय से समाकुल जीव स्वप्रदेशों को बाहर निकालकर उनसे वदनोदरादि रन्ध्रों और अन्तरालों की पूर्ति कर आयामविस्तार से देहमात्र क्षेत्र में व्याप्त होकर रहता है। इस स्थिति में वह जीव बहुत से कषायकर्मपुद्गलों का परिशातन (निर्जरा) करता है, यह कषायसमुद्घात है। 3. मारणांतिकसमुद्घात-पायुकर्म को लेकर यह समुद्घात होता है / इस समुद्घात बाला जीव पूर्वविधि से बहुत सारे प्रायुकर्म के दलिकों की परिशातना करता है, यह मारणांतिकसमुद्घात है। 4. वैकियसमुद्घात-वैक्रियशरीर का प्रारम्भ करते समय वैक्रियशरीर नामकर्म को लेकर यह होता है। वैक्रियसमुद्घातगत जीव स्वप्रदेशों को शरीर से बाहर निकालकर शरीर की 1. पंचिदियो उ बउलो नरोव्व सब्ब विसरोवलंभाओ। तहवि न भण्णइ पंचिदिउ ति बज्झिदियाभावा / / 2. समिति–एकीभावे उत्-प्राबल्ये ; एकीभावेन प्राबल्येन घात: समुद्घातः / Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति: पृथ्वीकाय का वर्णन] [45 चौड़ाई प्रमाण तथा संख्यातयोजन प्रमाण लम्बा दण्ड निकालता है और पहले बंधे हुए वैक्रिय नामकर्म के स्थूल पुद्गलों की परिशातना करता है / यह वैक्रियसमुद्घात है / 5. तेजससमुद्घात--तैजसशरीर नामकर्म को लेकर यह होता है / वैक्रिय समुद्धात की तरह यह भी जानना चाहिए / इसमें तैजसशरीर नामकर्म की बहुत निर्जरा होती है / 6. आहारकसमुद्घात-आहारकशरीर की रचना करते समय यह समुद्घात होता है। इसमें आहारकशरीर नामकर्म के बहुत से पुद्गलों की निर्जरा होती है। विधि वैक्रियशरीर की तरह जानना चाहिए। 7. केवलिसमुद्घात-जब केवली के आयुकर्म के दलिक कम रह जाते हैं और वेदनीय, नाम, गोत्र कर्म के दलिक विशेष शेष होते हैं, तब निर्वाण के अन्तर्मुहुर्त पहले केवली समुद्घात करते हैं। इसमें वेदनीय, नाम और गोत्र कर्म के बहुत सारे दलिकों की निर्जरा हो जाती है। इसमें आठ समय लगते हैं / प्रथम समय में दण्डरचना, द्वितीय समय में कपाट रचना, तीसरे समय में मन्थान, चौथे समय में सम्पूर्ण लोक में व्याप्ति, पांचवें समय में अन्तराल के प्रदेशों का संहरण, छठे समय में मन्थान का संहरण, सातवें समय में कपाट का संहरण और आठवें समय में दण्ड का संहरण कर केवली पुनः स्वशरीस्थ हो जाते हैं / इस प्रक्रिया से वेदनीय, नाम और गोत्र कर्म के दलिकों का प्रभूत शातन हो जाता है और वे आयुकर्म के दलिकों के तुल्य हो जाते हैं। बेदनादि छह समुद्घातों का समय अन्तर्मुहूर्त और केवलिसमुद्घात का काल पाठ समय मात्र है। - सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों में पूर्वोक्त सात समुद्घातों में से तीन समुद्घात होते हैं-वेदना, कषाय और मारणांतिक, शेष 4 समुद्धात नहीं होते / क्योंकि उनमें वैक्रिय, तेजस, आहारक और केवल लब्धि का अभाव है। 10. संजीद्वार-संज्ञा जिसके हो, वह संज्ञी है / यहाँ संज्ञा से तात्पर्य भूत, वर्तमान और भविष्यकाल का पर्यालोचन करने की शक्ति से है। विशिष्ट स्मरणादि रूप मनोविज्ञान वाले जीव संज्ञी हैं / उक्त मनोविज्ञान से विकल जीव असंज्ञी हैं। संज्ञा तीन प्रकार की कही गई हैं-१. दीर्घकालिकी संज्ञा, 2. हेतुवादोपदेशिकी और 3. दृष्टिवादोपदेशिकी। दीर्घकालिकी संज्ञा-भूतकाल का स्मरण, भविष्यकाल का चिन्तन और वर्तमान का प्रवृत्तिनिवत्तिरूप व्यापार, जिस संज्ञा द्वारा होता है, वह दीर्घकालिकी संज्ञा है / इसी संज्ञा को लेकर संजी-असंज्ञी का विभाग पागम में किया गया है / यह संज्ञा देव, नारक और गर्भज तिर्यंच मनुष्यों को होती है। हेतुवादोपदेशिकी-देहनिर्वाह हेतु इष्ट में प्रवृत्ति और अनिष्ट से निवृत्ति के लिए उपयोगी केवल वर्तमानकालिक विचार ही जिस संज्ञा से हो, वह हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा है / यह संज्ञा द्वीन्द्रियादि में भी पाई जाती है / केवल एकेन्द्रियों में नहीं पाई जाती। दृष्टिवादोपदेशिकी--यहाँ दष्टि से मतलब सम्यग्दर्शन से है। इसकी अपेक्षा से क्षायोपशमिक आदि सम्यक्त्व वाले जीव ही संजी हैं / मिथ्यात्वी असंज्ञी हैं / Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जीवाजीवाभिगमसूत्र उक्त तीन प्रकार की संज्ञाओं में से दीर्घकालिक संज्ञा की अपेक्षा से ही संज्ञी-असंज्ञी का व्यवहार समझना चाहिए। यहाँ प्रश्न किया जा सकता है कि एकेन्द्रिय जीवों में भी आहारादि दस प्रकार की संज्ञाएँ आगम में कही गई हैं तो उन्हें संज्ञी क्यों न माना जाय ? उसका समाधान दिया गया है कि एकेन्द्रियों में यद्यपि उक्त दस प्रकार की संज्ञाएँ अवश्य होती हैं तथापि वे अति अल्पमात्रा में होने से तथा मोहादिजन्य होने से अशोभन होती हैं अतएव उनकी गणना संज्ञी में नहीं की जाती है। जैसे किसी व्यक्ति के पास दो चार पैसे हों तो उसे पैसेवाला नहीं कहा जाता। इसी तरह कुरूप व्यक्ति में रूप होने पर भी उसे रूपवान नहीं कहा जाता / यही बात यहाँ भी समझ लेनी चाहिए। सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों में दीर्घकालिक संज्ञा नहीं होती है, अतएव वे संज्ञी नहीं हैं। असंज्ञी 11. बेदद्वार-स्त्री की पुरुष में, पुरुष की स्त्री में, नपुंसक की दोनों में अभिलाषा होना वेद है / वेद तीन हैं-१. स्त्रीवेद, 2. पुरुषवेद और 3. नपुंसकवेद / सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव नपुंसकवेद वाले हैं / इनका सम्मूछिम जन्म होता है / नारक और सम्मूछिम नपुंसकवेदी ही होते हैं।' 12. पर्याप्तिद्वार-सूत्रक्रमांक 12 के विवेचन में पर्याप्ति-अपर्याप्ति का विवेचन कर दिया है। सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों में आहार, शरीर, इन्द्रिय और श्वासोच्छ्वास ये चार पर्याप्तियाँ और ये चार ही अपर्याप्तियां पाई जाती हैं। ये चारों अपर्याप्तियाँ करण की अपेक्षा से समझना चाहिए / लब्धि की अपेक्षा से तो एक ही प्राणापान अपर्याप्ति समझनी चाहिए। क्योंकि लब्धि अपर्याप्तक भी नियम से आहार, शरीर, इन्द्रिय पर्याप्ति तो पूर्ण करते ही हैं / अगले भव की आयु बांधे बिना कोई जीव मरता नहीं और अगले भव की आयु उक्त तीन पर्याप्तियों के पूर्ण होने पर ही बंधती है। 13. दृष्टिद्वार-दृष्टि का अर्थ है जिनप्रणीत वस्तुतत्व की प्रतिपत्ति (स्वीकृति)। दृष्टि तीन प्रकार की है-१. सम्यग्दृष्टि, 2. मिथ्यादृष्टि और 3. सम्यग्मिथ्या (मिश्र) दृष्टि / जिनप्रणीत वस्तुतत्त्व की सही-सही प्रतिपत्ति सम्यग्दृष्टि है। जिनप्रणीत वस्तुतत्त्व की विपरीत प्रतिपत्ति मिथ्यादष्टि है। जैसे जिस व्यक्ति ने धतूरा खाया हो उसे सफेद वस्तु पीली प्रतीत होती है, इसी तरह जिसे जिनप्रणीत तत्त्व मिथ्या लगता हो और जो उस पर अरुचि करता हो वह मिथ्यादृष्टि है। जो दृष्टि न तो सम्यग् हो और न मिथ्या ही हो, ऐसी दृष्टि मिश्रदृष्टि है / / सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव उक्त तीन दृष्टियों में से मिथ्यादृष्टि वाले हैं। उनमें सम्यग्दृष्टि नहीं होती। सास्वादनसम्यक्त्व भी उनमें नहीं पाया जाता। सास्वादनसम्यक्त्व वाले भी उनमें 1. नारकसंमूछिमा नपुंसका-इति भगवद्वचनम् / : Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति: पृथ्वीकाय का वर्णन] [47 उत्पन्न नहीं होते। सदा अतिसंक्लिष्ट परिणाम वाले होने से मिश्रदृष्टि भी उनमें नहीं पाई जाती। न मिश्रदृष्टि वाला ही उनमें उत्पन्न होता है / क्योंकि मिश्रदृष्टि में कोई काल नहीं करता।' 14. वर्शनद्वार-सामान्यविशेषात्मक वस्तु के सामान्यधर्म को ग्रहण करने वाला अवबोध दर्शन कहलाता है / यह चार प्रकार का है-१. चक्षुर्दर्शन, 2. अचक्षुर्दर्शन, 3. अवधिदर्शन और 4. केवलदर्शन / चक्षुर्दर्शन सामान्य-विशेषात्मक वस्तु के रूप सामान्य को चक्षु द्वारा ग्रहण करना चक्षुर्दर्शन है। अचक्षुर्दर्शन-चक्षु को छोड़कर शेष इन्द्रियों और मन द्वारा सामान्यधर्म को जानना अचक्षुर्दर्शन है। अवधिदर्शन---इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना रूपी सामान्य को जानना अवधिदर्शन है। केवलदर्शन-सकल संसार के पदार्थों के सामान्य धर्मों को जानने वाला केवलदर्शन है। सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों के इन चार दर्शनों में से एक अचक्षुर्दर्शन पाया जाता है / स्पर्शनेन्द्रिय को अपेक्षा प्रचक्षुर्दर्शन है, अन्य कोई दर्शन उनमें नहीं होता। 15. ज्ञानद्वार-वैसे तो वस्तु-स्वरूप को जानना ही ज्ञान कहलाता है परन्तु शास्त्रकारों ने वही ज्ञान ज्ञान माना है जो सम्यक्त्वपूर्वक हो / सम्यक्त्वरहित ज्ञान को अज्ञान कहा जाता है। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान सम्यग्दृष्टि के तो ज्ञानरूप हैं किन्तु मिथ्यादृष्टि के मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान और विभंगज्ञान हो जाते हैं / सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव मिथ्यादष्टि हैं, अतएव उनमें ज्ञान नहीं माना गया है और निश्चित रूप से मति-अज्ञान और श्रुत-अज्ञान माना गया है / यह मति-अज्ञान और श्रुत-अज्ञान भी अन्य बादर आदि जीवों की अपेक्षा अत्यन्त अल्प मात्रा में होता है / / 16. योगद्वार–मन, वचन और काया के व्यापार (प्रवृत्ति) को योग कहते हैं / ये योग तीन प्रकार के हैं—मनयोग, वचनयोग और काययोग / उन तीन योगों में से सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों के केवल काययोग ही होता है / वचन और मन उनके नहीं होता। 17. उपयोगद्वार-आत्मा की बोधरूप प्रवृत्ति को उपयोग कहते हैं / उपयोग दो प्रकार का है-साकार-उपयोग और अनाकार-उपयोग / 1. न सम्ममिच्छो कुणइ कालं--इति वचनात् / 2. सर्व निकृष्टो जीवस्य दृष्ट: उपयोग एष बीरेण / सूक्ष्मनिगोदापर्याप्तानां स च भवति विज्ञेयः // 1 // तस्मात् प्रभृति ज्ञानविवृद्धिदृण्टा जिनेन जीवानाम् / लब्धिनिमिस: करण : कायेन्द्रियवाग्मनोदग्भिः // 2 // Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48] [जीवाजीवाभिगमसूत्र साकार-उपयोग-किसी भी वस्तु के प्रतिनियत धर्म को (विशेष धर्म को) ग्रहण करने का परिणाम साकार उपयोग है ।'पागारो उ विसेसो' कहा गया है। इसलिए पांच ज्ञान और तीन प्रज्ञान रूप आठ प्रकार का उपयोग साकार उपयोग है। अनाकार-उपयोग-वस्तु के सामान्य धर्म को ग्रहण करने का परिणाम अनाकार उपयोग है। चार दर्शनरूप उपयोग अनाकार उपयोग है। साकार उपयोग के 8 और अनाकार उपयोग के 4, कुल मिलाकर बारह प्रकार का उपयोग कहा गया हैं। ये सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव मति-अज्ञान और श्रुत-प्रज्ञान वाले होने से इन दोनों उपयोगों को अपेक्षा साकार उपयोग बाले हैं / अचक्षुर्दर्शन उपयोग की अपेक्षा अनाकार उपयोग वाले हैं / 18. आहारद्वार-आहार से तात्पर्य बाह्य पुद्गलों को ग्रहण करना है। सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव द्रव्य से अनन्तप्रदेशी स्कन्ध का आहार करते हैं। संख्यातप्रदेशी और असंख्यातप्रदेशी स्कन्ध जीव के द्वारा ग्रहणप्रायोग्य नहीं होते हैं। क्षेत्र से असंख्यात प्रदेशों में रहे हुए स्कन्धों का वे आहार करते हैं। काल से किसी भी स्थिति वाले पुद्गलस्कंधों का वे ग्रहण करते हैं। जघन्य स्थिति, मध्यम स्थिति या उत्कृष्ट स्थिति किसी भी प्रकार की स्थिति वाले आहार योग्य स्कंधों को ग्रहण करते हैं / भाव से-वे जीव वर्ण वाले, गंध वाले, रस वाले और स्पर्श वाले पुद्गलों को ग्रहण करते हैं। क्योंकि प्रत्येक परमाणु में एक वर्ण, एक गंध, एक रस और दो स्पर्श तो होते ही हैं / वर्ण की अपेक्षा से स्थानमार्गणा (सामान्य चिन्ता) को लेकर एक वर्ण वाले, दो वर्ण वाले, तीन वर्ण वाले, चार वर्ण वाले और पांच वर्ण वाले पुद्गलों को ग्रहण करते हैं और भेदमार्गणा की अपेक्षा से काले, नीले, लाल, पीले और सफेद वर्ण वाले पुद्गलों का ग्रहण करते हैं / यह कथन व्यवहारनय की अपेक्षा से जानना चाहिए। व्यवहारदृष्टि से ही एक वर्ण वाले, दो वर्ण वाले आदि होता है। अन्यथा निश्चयनय की अपेक्षा से तो छोटे से छोटे अनन्तप्रदेशी स्कन्ध में पांचों वर्ण पाये जाते हैं / कृष्ण प्रादि प्रतिनियत वर्ण में भी तरतमता पाई जाती है अतएव प्रश्न किया गया कि सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव जिन काले वर्ण वाले पुद्गलों को ग्रहण करते हैं वे एकगुण काले होते हैं यावत् दस गुण काले होते हैं, संख्यातगुण काले होते हैं, असंख्यातगुण काले होते हैं या अनन्तगुण काले होते हैं ? उत्तर दिया गया है कि एकगुण काले यावत् अनन्तगुण काले पुद्गलस्कंधों का ग्रहण करते हैं। इसी प्रकार दो गंध और पांच रस के विषय में भी समझ लेना चाहिए। __ स्पर्श की अपेक्षा से एक स्पर्श वाले, दो स्पर्श वाले, तीन स्पर्श वाले पुद्गलों का ग्रहण नहीं करते किन्तु चार स्पर्श वाले, पांच स्पर्श वाले, यावत् आठ स्पर्श वाले पुद्गलों को ग्रहण करते हैं / भेदमार्गणा को लेकर कर्कश यावत् रूक्ष का आहार करते हैं / कर्कश आदि स्पर्शों में एकगुण कर्कश यावत अनन्तगुण कर्कश का ग्रहण करते हैं। इसी तरह आठों स्पर्श के विषय में समझ लेना चाहिए। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति : पृथ्वीकाय का वर्णन] वे सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव जिन वर्ण, गंध, रस और स्पर्श वाले पुद्गलस्कन्धों को ग्रहण करते हैं वे प्रात्मप्रदेशों के साथ स्पृष्ट (छुए हुए) होते हैं। अस्पृष्ट पुद्गलस्कंधों का ग्रहण नहीं होता। जो पुद्गलस्कन्ध आत्मप्रदेशों में अवगाढ होते हैं, उन्हें ही वे ग्रहण करते हैं, अनवगाढ को नहीं। स्पर्श अवगाहक्षेत्र के बाहर भी हो सकता है जबकि अवगाहन उसी क्षेत्र में होता है। अतः अलग-अलग प्रश्न और उत्तर किये गये हैं। अवगाढ पुद्गलस्कन्ध दो प्रकार के हैं-अनन्तरावगाढ और परम्परावगाढ / जिन आत्मप्रदेशों में जो व्यवधानरहित होकर रहे हुए हैं वे अनन्तरावगाढ हैं और जो एक-दो-तीन आदि प्रदेशों के व्यवधान से रहे हुए हैं वे परम्परावगाढ हैं। सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव अनन्तरावगाढ पुद्गलों को ग्रहण करते हैं, परंपरावगाढ को नहीं। ये अनन्तरावगाढ पुद्गल अणुरूप (थोड़े प्रदेश वाले) भी होते हैं और बाहर (विपुल प्रदेश घाले) रूप भी होते हैं / ये सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव दोनों प्रकार के पुद्गलों को ग्रहण करते हैं। वह पृथ्वीकायिक जीव जितने क्षेत्र में अवगाढ है उस क्षेत्र में ही बह ऊर्ध्व या तिर्यक् स्थित प्रदेशों को ग्रहण करता है। जिस अन्तर्मुहूर्त प्रमाणकाल में वह जीव उपभोगयोग्य द्रव्यों को ग्रहण करता है वह उस अन्तर्मुहूर्त काल के आदि में, मध्य में प्रोर अन्त में भी ग्रहण करता है। ये सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव अपने लिए उचित आहारयोग्य पुद्गलस्कंधों को ग्रहण करते हैं, अपने लिए अनुचित का ग्रहण नहीं करते। ___ ये सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव स्वविषय पुद्गलों को भी आनुपूर्वी से ग्रहण करते हैं, अनानुपूर्वी से नहीं / अर्थात् ये यथासामीप्य वाले पुद्गलों को ग्रहण करते हैं-दूरस्थ को नहीं। ये सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव जिन यथा-पासन्न पुद्गलों को ग्रहण करते हैं उन्हें व्याघात न होने पर छहों दिशाओं से ग्रहण करते हैं / व्याघात होने पर कभी तीन दिशाओं, कभी चार दिशाओं, कभी पांच दिशाओं के पुद्गलों को ग्रहण करते हैं। व्याघात का अर्थ है- अलोकाकाश से प्रतिस्खलन (रुकावट) / इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है जब कोई सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव लोकनिष्कुट में (आखरी किनारे पर) नीचे के प्रतर के प्राग्नेय कोण में रहा हा हो तो उसके नीचे अलोक होने से अधोदिशा में पूदगलों का अभाव होता है, आग्नेयकोण में स्थित होने से पूर्व दिशा के पुद्गलों का और दक्षिणदिशा के पुद्गलों का प्रभाव होता है। इस तरह अधोदिक् पूर्वदिक और दक्षिणदिक—ये तीन दिशाएँ अलोक से व्याप्त होने से इनमें पुद्गलों का अभाव है, अतः शेष तीन दिशात्रों के पुद्गलों का ही ग्रहण संभव है / इसलिए कहा गया है कि वे सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव व्याघात को लेकर कभी तीन दिशाओं के पुद्गलों का आहार करते हैं। जब वही जीव पश्चिमदिशा में वर्तमान होता है तब उसके पूर्वदिशा अधिक हो जाती है। दक्षिण दिशा और अधोदिशा-ये दो दिशाएँ ही अलोक से व्याप्त होती हैं इसलिए वह जीव चार दिशाओं से-ऊर्ध्व, पूर्व, पश्चिम और उत्तर दिशा से पुद्गलों को ग्रहण करता है। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50] [जीवाजीवाभिगमसूत्र जब वह जीव ऊपर के द्वितीयादि प्रतरगत पश्चिम दिशा में होता है तब उसके अधोदिशा भी अधिक हो जाती है। केवल एकपर्यन्तवर्तिनी दक्षिण दिशा ही अलोक से व्याहत रहती है / ऐसी स्थिति में वह जीव पूर्वोक्त चार और अधोदिशा मिलाकर पांच दिशाओं में स्थित पुद्गलों को ग्रहण करता है। ___आहारद्वार का उपसंहार करते हुए सूत्रकार ने कहा है कि वे सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव प्राय:बहुलता से पांचों वर्गों के, दोनों गंधवाले, पांचों रसवाले और पाठों स्पर्शवाले पुद्गलों को ग्रहण करते हैं और उनके पूर्ववर्ती वर्ण, रस, गंध और स्पर्श गुणों को परिवर्तित कर अपूर्व वर्ण, गंध, रस और स्पर्श गुणों को पैदा कर अपने शरीरक्षेत्र में अवगाढ पुद्गलों को प्रात्मप्रदेशों से प्राहार के रूप में ग्रहण करते हैं। 19. उपपातद्वार-जहाँ से पाकर उत्पत्ति होती है वह उपपात है / ये सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव नरक से आकर उत्पन्न नहीं होते, देवों से आकर भी उत्पन्न नहीं होते / ऐसा ही भवस्वभाव है कि देव और नारक सूक्ष्म पृथ्वीकाय के रूप में उत्पन्न नहीं होते। ये जीव असंख्यात वर्षों की आयुवाले तियंचों को छोड़कर शेष पर्याप्त-अपयप्ति तिर्यंचों से प्राकर उत्पन्न होते हैं / असंख्यात वर्षायु तियंच इनमें उत्पन्न नहीं होते / प्रकर्मभूमि के, अन्तरद्वीपों के और प्रसंख्यात वर्ष की प्रायुवाले कर्मभूमि में उत्पन्न मनुष्यों को छोड़कर शेष पर्याप्त-अपर्याप्त मनुष्यों से आकर उत्पन्न हो सकते हैं। . 20. स्थितिद्वार-स्थिति से मतलब उसी जन्म की आयु से है / सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव की स्थिति जघन्य से भी अन्तर्मुहूर्त है और अधिक से अधिक भी अन्तर्मुहूर्त ही है / लेकिन जघन्य अन्तर्मुहूर्त से उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त अधिक समझना चाहिए / 21. समवहत-असमवहत द्वार-मारणान्तिकसमुद्घात करके जो मरण होता है, वह समवहत है मौर मारणान्तिकसमुद्घात किये बिना जो मरण होता है, वह असमवहत है। सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों में दोनों प्रकार का मरण है। 22. च्यवनद्वार-वर्तमान भव पूरा होने पर उस भव का अन्त होना च्यवन है / सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव मर कर न तो नारकों में उत्पन्न होते हैं और न देवों में उत्पन्न होते हैं / वे तिर्यचों और मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं / तिर्यंचों में उत्पन्न होते हैं तो असंख्यात वर्षों की आयु वाले भोगभूमि के तियंचों को छोड़ कर शेष एकेन्द्रिय यावत् पंचेन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त सब तिर्यंचों में उत्पन्न हो सकते हैं / यदि वे मनुष्यों में उत्पन्न हों तो अकर्मभूमिज, अन्तर्वीपज और असंख्यात वर्ष की प्रायु वाले मनुष्यों को छोड़ कर शेष पर्याप्त या अपर्याप्त मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं / इस कथन द्वारा यह भी सिद्ध किया गया है कि आत्मा सर्वव्यापक नहीं है और वह भवान्तर में जाकर उत्पन्न होती है। 23. गति-आगति द्वार-जीव मर कर जहां जाते हैं वह उनकी गति है और जीव जहां से पाकर उत्पन्न होते हैं वह उनकी आगति है। सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव दो गति वाले और दो प्रागति वाले हैं / ये सूक्ष्म पृथ्वीकायिक मर कर तिर्यंच और मनुष्य गति में उत्पन्न होते हैं, नारकों और देवों में नहीं / अतः तिर्यंचगति और मनुष्यगति ही इनकी दो गतियाँ हैं। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति : पृथ्वीकाय का वर्णन] [51 ये सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव देवों और नारकों से आकर उत्पन्न नहीं होते। केवल तिर्यंचों और मनुष्यों से ही आकर उत्पन्न होते हैं, अत: ये जीव दो आगति वाले हैं / परीत-ये सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव प्रत्येकशरीरी हैं, असंख्येय लोकाकाश प्रमाण हैं। इस प्रकार सब तीर्थंकरों ने प्रतिपादित किया है। समणाउसो-हे श्रमण ! हे आयुष्मान् ! इस प्रकार सम्बोधन कर जिज्ञासुत्रों के समक्ष प्रभु महावीर ने सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों के स्वरूप का प्रतिपादन किया। बावर पृथ्वीकाय का वर्णन 69788 14. से कितं बायरपुढविकाइया? बायरपुढ विकाइया दुविहा पण्णत्ता--- तं जहा-सह बायरपुढविकाइयाय खर बायरपुढविकाइया य / [14] बादर पृथ्वीकायिक क्या हैं ? बादर पृथ्वीकायिक दो प्रकार के हैंयथा-श्लक्ष्ण (मृदु) बादर पृथ्वीकाय और खर बादर पृथ्वीकाय / 15. से किं तं सह बायरपुढवीकाइया ? सह बायरपुढवीकाइया सत्तविहा पण्णत्ता तं जहा-कहमत्तिया, मेवो जहा पग्णवणाए जाव ते समासओ दुविहा पण्णता, तं जहा--- पज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य / तेसि णं भंते ! जीवाणं कति सरीरगा पण्णता? गोयमा! तो सरीरगा, पण्णता, तं जहा-ओरालिए, तेयए, कम्मए / तं चेव सम्वं नवरं चत्तारि लेसाओ अवसेसं जहा सुहुमपुढविक्काइयाणं पाहारो जाव णियमा छहिसि / / उवधानो तिरिक्खजोणिय मणुस्स देवेहितो, देवेहिं जाव सोहम्मेसाणेहितो। ठिई जहानेणं अंतोमहत्तं उपकोसेण बायोसंवाससहस्साई। ते णं भंते ! जीवा मारणंतियसमुग्धाएणं किं समोहया मरंति असमोहया मरंति ? गोयमा ! समोहया कि मरंति असमोहया वि मरंति / ते गं भंते ! जीवा अणंतरं उम्वट्टित्ता कहिं गच्छंति, कहि उववज्जति ? कि नेरइएस उववज्जति ? पुच्छा। नो नेरइएसु उववज्जति, तिरिक्खजोगिएसु उववज्जति, मणुस्सेसु उववअंति, नो देवेसु उववज्जंति, तं चेव जाव असंखेज्जवासा उवज्जेहि। ते णं भंते ! जीवा कतिगतिया कतिआगतिया पण्णता? गोयमा ! दुगतिया, तिआगतिया परित्ता प्रसंखेज्जा य समजाउसो ! से तं बायरपुढ विक्काइया / से तं पुढ विक्काइया। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52] [जीवाजीवाभिगमसूत्र [15] श्लक्ष्ण (मृदु) बादर पृथ्वीकाय क्या हैं ? श्लक्ष्ण बादर पृथ्वीकाय सात प्रकार के कहे गये हैं-काली मिट्टी प्रादि भेद प्रज्ञापनासूत्र के अनुसार जानने चाहिए यावत् वे संक्षेप से दो प्रकार के कहे गये हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त / हे भगवन् ! उन जीवों के कितने शरीर कहे गये हैं ? गौतम ! तीन शरीर कहे गये हैं जैसे कि, प्रौदारिक, तेजस और कार्मण / इस प्रकार सब कथन पूर्ववत् जानना चाहिए / विशेषता यह है कि इनके चार लेश्याएं होती हैं। शेष वक्तव्यता सूक्ष्म पृथ्वीकायिकों की तरह जानना चाहिए यावत् नियम से छहों दिशा का आहार ग्रहण करते हैं / ये बादर पृथ्वीकायिक जीव तिर्यंच, मनुष्य और देवों से प्राकर उत्पन्न होते हैं। देवों से आते हैं तो सौधर्म और ईशान (पहले दूसरे) देवलोक से आते हैं। इनकी स्थिति जघन्य अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्ट बावीस हजार वर्ष की है। हे भगवन् ! ये जीव मारणांतिकसमुद्धात से समवहत होकर मरते हैं या असमवहत होकर मरते हैं ? गौतम ! समवहत होकर भी मरते हैं और असमवहत होकर भी मरते हैं। भगवन् ! ये जीव वहाँ से मर कर कहां जाते हैं ? कहाँ उत्पन्न होते हैं ? क्या नारकों में उत्पन्न होते हैं आदि प्रश्न करने चाहिए ? गौतम ! ये नारकों में उत्पन्न नहीं होते हैं, तिर्यञ्चों में उत्पन्न होते हैं, मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं, देवों में उत्पन्न नहीं होते। तिर्यंचों और मनुष्यों में भी असंख्यात वर्ष की आयु वाले तिर्यंचों और मनुष्यों में उत्पन्न नहीं होते, इत्यादि / / भगवन् ! वे जीव कितनी गति वाले और कितनी आगति वाले कहे गये हैं ? गौतम ! वो गति वाले और तीन प्रागति वाले कहे गये हैं। हे आयुष्मन श्रमण ! वे बादर पध्वीकाय के जीव प्रत्येकशरीरी हैं और असंख्यात लोकाकाश प्रमाण हैं। इस प्रकार बादर पृथ्वीकाय का वर्णन हुआ। इसके साथ ही पृथ्वीकाय का वर्णन पूरा हुग्रा / विवेचन-बादर नामकर्म के उदय से जिन पृथ्वीकायिक जीवों का शरीर बादर होसमूहरूप में चर्मचक्षों से ग्राह्य हों वे बादर पृथ्वीकायिक जीव हैं। बादर पृथ्वीकायिक जीवों के दो भेद हैं-श्लक्ष्ण बादर पृथ्वीकायिक और खर बादर पृथ्वीकायिक / पीसे हुए प्राटे के समान जो मिट्टी मृदु हो वह श्लक्ष्ण पृथ्वी है और तदात्मक जो जीव हैं वे भी उपचार से श्लक्ष्ण बादर पृथ्वीकायिक कहलाते हैं। कर्कशता वाली पृथ्वी खर बादर पृथ्वी है। तदात्मक जीव उपचार से खर बादर पृथ्वीकायिक कहलाते हैं। श्लक्ष्ण बाबर पथ्वीकाय-लक्ष्ण बादर पृथ्वीकाय के सात प्रकार हैं-काली मिट्टी आदि भेद प्रज्ञापना के अनुसार जानने की सूचना सूत्रकार ने दी है। प्रज्ञापना के उस पाठ का अर्थ इस प्रकार है Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [53 प्रथम प्रतिपत्ति : पृथ्वीकाय का वर्णन] 1 काली मिट्टी, 2 नीली मिट्टी, 3 लाल मिट्टी, 4 पीली मिट्टी 5 सफेद मिट्टी 6 पांडु मिट्टी और 7 पणग मिट्टी-ये सात प्रकार की मिट्टियां श्लक्ष्ण बादर पृथ्वी हैं / इनमें रहे हुए जीव एलक्ष्ण बादर पृथ्वीकायिक जीव हैं / वर्ण के भेद से पूर्व के 5 भेद स्पष्ट ही हैं। पांडु मिट्टी वह है जो देशविशेष में मिट्टीरूप होकर पांडु नाम से प्रसिद्ध है। पनकमृत्तिका का अर्थ टीकाकार ने इस प्रकार किया है ---नदी आदि में पूर पाने और उसके उतरने के बाद भूमि में जो मृदु पंक शेष रह जाता है, जिसे 'जलमल' भी कहते हैं वह पनकमृत्तिका है। उसमें रहे हुए जीव भी उपचार से पनकमृत्तिका श्लक्ष्ण बादर पृथ्वीकायिक कहलाते हैं। खरबादर पृथ्वीकायिकः-खर बादर पृथ्वीकायिक अनेक प्रकार के कहे गये हैं। मुख्यतया चार गाथाओं में चालीस प्रकार बताये गये हैं।' वे इस प्रकार-१ शुद्धपृथ्वी-नदीतट भित्ति 2 शर्करा--छोटे कंकर आदि 3 बालुका-रेत 4 उपल-टांकी आदि उपकरण तेज करने का (सान बढ़ाने का) पाषाण 5 शिला-घड़ने योग्य बड़ा पाषाण 6 लवण---नमक प्रादि 7 ऊस-खारवाली मिट्टी जिससे जमीन ऊसर हो जाती है 8 लोहा 9 तांबा 10 रांगा 11 सोसा 12 चाँदी 13 सोना 14 वज-हीरा 15 हरताल 16 हिंगलु 17 मनःशिला 18 सासग-पारा 19 अंजन 20 प्रवाल-विद्रुम 21 अभ्रपटल-अभ्रक-भोडल 22 अभ्रबालुका---अभ्रक मिली हुई रेत और (नाना प्रकार की मणियों के 18 प्रकार जैसे कि) 23 गोमेज्जक 24 रुचक 25 अंक 26 स्फटिक 27 लोहिताक्ष 28 मरकत 29 भुजमोचक 30 मसारगल 31 इन्द्रनील 32 चन्दन 33 गैरिक 34 हंसगर्भ 35 पुलक 36 सौगंधिक 37 चन्द्रप्रभ 38 वैडूर्य 39 जलकान्त और 40 सूर्यकान्त / उक्त रीति से मुख्यतया खर बादर पृथ्वीकाय के 40 भेद बताने के पश्चात् 'जे यावण्णे तहप्पगारा' कहकर अन्य भी पद्मराग आदि का सूचन कर दिया गया है / ये बादर पृथ्वीकायिक संक्षेप से दो प्रकार के कहे गये हैं पर्याप्त और अपर्याप्त / जिन जीवों ने स्वयोग्य पर्याप्तियां पूरी नहीं की हैं उनके वर्णादि विशेष स्पष्ट नहीं होते हैं अतएव उनका काले आदि विशेष वर्णों से कथन नहीं हो सकता। शरीर आदि पर्याप्तियाँ पूर्ण होने पर ही बादर जीवों में वर्णादि प्रकट होते हैं। ये अपर्याप्त जीवन उच्छ्वास पर्याप्ति पूर्ण करने के पूर्व ही मर जाते हैं अतः इन अपर्याप्तों के विशेष वर्णादि का कथन नहीं किया जा सकता / सामान्य विवक्षा में तो शरीरपर्याप्ति पूर्ण होते ही वर्णादि होते ही हैं। अतएव अपर्याप्तों में विशेष वर्णादि न होने का कथन किया गया है / सामान्य वर्णादि तो होते ही हैं। 1. पुढवी य सकरा वालुया य उवले सिला य लोणूसे / तंबा य तउय सीसय रुप्प सुवष्णे य वइरे य॥१॥ हरियाले हिंगुलए मणोसिला सासगंजणपवाले / अभ पडलम्भवालुय वायरकाये मणिविहाणा / / 2 / / गोमेज्जए य रुयए अंके फलिहे य लोहियक्खे य / मरगय मसारमल्ले भुयभोयग इंदनीले य // 3 // चंदण गेश्य हंसे पुलए सोगंधिए य बोद्धम् / चंदप्पभ वेरुलिए जलकते सूरकते य // 4 // ---प्रज्ञापना, सूत्र-१५ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जीवाजीवाभिगमसूत्र इन बादर पृथ्वीकायिकों में जो पर्याप्त जीव हैं, उनमें वर्णभेद से, गंधभेद से, रसभेद से और स्पर्शभेद से हजारों प्रकार हो जाते हैं। जैसे कि- वर्ण के 5, गंध के 2, रस के 5 और स्पर्श के 8 / एक-एक काले प्रादि वर्ण के तारतम्य से अनेक प्रवान्तर भेद भी हो जाते हैं। कोयला, कज्जल आदि काले हैं किन्तु इन सबकी कालिमा में न्यूनाधिकता है, इसी तरह नील मादि वर्गों में भी समझना चाहिए / इसी तरह गन्ध, रस और स्पर्श को लेकर भी भेद समझ लेने चाहिए। इसी तरह वर्गों के परस्पर संयोग से भी धूसर, कर्बर आदि अनेक भेद हो जाते हैं। इसी तरह गन्धादि के संयोग से भी कई भेद हो जाते हैं। इसलिए कहा गया है कि वर्णादि की अपेक्षा हजारों भेद हो जाते हैं।। इन बादर पृथ्वीकायिकों की संख्यात लाख योनियाँ हैं। एक-एकवर्ण, गन्ध. रस मोर स्पर्श में पृथ्वीकायिकों की संवृतयोनि तीन प्रकार की हैं—सचित्त, अचित्त और मिश्र / इनमें से प्रत्येक के शीत, उष्ण, शीतोष्ण के भेद से तीन-तीन प्रकार हैं / शीतादि के भी तारतम्य से अनेक भेद हैं / केवल एक विशिष्ट वर्ण काले संख्यात होते हुए भी स्वस्थान में व्यक्तिभेद होते हुए भी योनि-जाति को लेकर एक ही योनि गिनी जाती है / ऐसी संख्यात लाख योनियां पृथ्वीकाय में हैं / सूक्ष्म और बादर सब पृथ्वीकायों की सात लाख योनियां कही गई हैं। ये बादर पृथ्वीकायिक जीव एक पर्याप्तक की निश्रा में असंख्यात अपर्याप्त उत्पन्न होते हैं। जहाँ एक पर्याप्त है वहाँ उसकी निश्रा में नियम से असंख्येय अपर्याप्त होते हैं। इन बादर पृथ्वीकायिक जीवों के शरीर, अवगाहना आदि द्वारों का विचार पूर्ववणित सूक्ष्म पृथ्वीकायिकों के समान कहना चाहिए। जो विशेषता और अन्तर है उसी का उल्लेख यहाँ किया गया है / निम्न द्वारों में विशेषता जाननी चाहिए लेण्याद्वार-सूक्ष्म पृथ्वीकायिकों में तीन लेश्याएँ कही गई थीं। बादर पृथ्वीकायिकों में चार लेश्याएं जाननी चाहिए / उनमें तेजोलेश्या भी होती है। व्यन्तरदेवों से लेकर ईशान देवलोक तक के देव अपने भवन और विमानों में अति मूर्छा होने के कारण अपने रत्न कुण्डलादि में उत्पन्न होते हैं, वे तेजोलेश्या वाले भी होते हैं / आगम का वाक्य है कि 'जल्लेसे मरइ सल्लेसे उववज्जई' जिस लेश्या में मरण होता है, उसी लेश्या में जन्म होता है। इसलिए थोड़े समय के लिए अपर्याप्त मवस्था में तेजोलेश्या भी उनमें पाई जाती है। माहारद्वार-बादर पृथ्वीकायिक जीव नियम से छहों दिशाओं से आहार ग्रहण करते हैं। क्योंकि बादर जीव नियम से लोकमध्य में ही उत्पन्न होते हैं, किनारे नहीं / इसलिए व्याघात का प्रश्न ही नहीं रहता। उपपातद्वार-देवों से प्राकर भी बादर पृथ्वीकायिक में जन्म होता है। इसलिए तिर्यच, मनुष्य और देवों से पाकर बादर पृथ्वीकाय में जन्म हो सकता है। स्थिति- इनकी स्थिति जघन्य अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्ट बावीस हजार वर्ष की है। गति-आगतिद्वार-देवों से भी इनमें आना होता है इसलिए इनकी तीन गतियों से प्रागति है और दो गतियों में गति है। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति : अप्काय का अधिकार] [55 इस प्रकार हे आयुष्मन् ! हे श्रमणो! ये बादर पृथ्वीकायिक जीव प्रत्येकशरीरी हैं और असंख्येय लोकाकाशप्रमाण कहे गये हैं। यह बादर पृथ्वीकाय का वर्णन हुआ और इसके साथ ही पृथ्वीकाय का अधिकार पूर्ण हुआ। अपकाय का अधिकार 16. से कि त आउकाइया ? आउक्काइया दुविहा पण्णत्ता, तं जहासुहुमआउक्काइया य बायरआउक्काइया य / सुहुमआउक्काइया दुविहा पण्णता, तंजहापज्जसा य अपज्जताय / तेसि णं भंते ! जीवाणं कति सरीरया पण्णत्ता ? गोयमा! तओ सरीरया पण्णत्ता, तंजहा-- ओरालिए, तेयए, कम्मए, जहेव सुहुम पुढविक्काइयाणं, गवरं थिबुगसंठिता पण्णता, सेस तं चेव जाव दुगतिया दुआगतिया परिसा असंखेज्जा पण्णता। से तं सुहुमआउपकाइया। [16] अप्कायिक क्या हैं ? अप्कायिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं, जैसे कि सूक्ष्म अप्कायिक और बादर अप्कायिक / सूक्ष्म अपकायिक जीव दो प्रकार के हैं, जैसे कि पर्याप्त और अपर्याप्त / भगवन् ! उन जीवों के कितने शरीर कहे गये हैं ? गौतम ! उनके तीन शरीर कहे गये हैं, जैसे कि औदारिक, तैजस और कार्मण / इस प्रकार सब द्वारों को वक्तव्यता सूक्ष्म पृथ्वीकायिकों की तरह कहना चाहिए / विशेषता यह है कि संस्थान द्वार में उनका स्तिबुक (बुद्बुद रूप) संस्थान कहा गया है / शेष सब उसी तरह कहना यावत् वे दो गति वाले, दो आगति वाले हैं, प्रत्येकशरीरी हैं और असंख्यात कहे गये हैं / यह सूक्ष्म अप्काय का अधिकार हुमा / बादर अपकायिक 17. से किं तं बायरआउक्काइया ? बायरआउक्काइया प्रणेगविहा पण्णता, तं जहा--ओसा, हिमे, जाव जे यावन्ने तहप्पगारा, ते समासओ दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-पज्जत्ता य अपज्जत्ता य / तं चेव सव्वं णवरं थिगसंठिता, चत्तारि लेसाओ, आहारो नियमा छद्दिसि, उववाओ तिरिक्ख जोणिय मणुस्स देवेहि, ठिई जहन्नेणं अंतोमुत्तं उक्कोसं सत्तवाससहस्साई; Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 56] [जीवाजीवाभिगमसूत्र सेसं सं चेव जहा बायरपुढविकाइया जाव दुगतिया तिआगतिया परित्ता असंखेज्जा पन्नत्ता समणाउसो ! से तं बायरआउक्काइया, से तं आउक्काइया। [17] बादर अप्कायिक का स्वरूप क्या है ? बादर अप्कायिक अनेक प्रकार के कहे गये हैं, जैसे-प्रोस, हिम यावत् अन्य भी इसी प्रकार के जल रूप। वे संक्षेप से दो प्रकार के हैं--पर्याप्त और अपर्याप्त / इस प्रकार पूर्ववत् कहना चाहिए / विशेषता यह है कि उनका संस्थान स्तिबुक (बुद्बुद) है। उनमें लेश्याएँ चार पाई जाती हैं, पाहार नियम से छहों दिशाओं का, तिर्यंचयोनिक, मनुष्य और देवों से उपपात, स्थिति जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट सात हजार वर्ष जानना चाहिए / शेष बादर पृथ्वीकाय की तरह जानना चाहिए यावत् वे दो गति वाले, तीन आगति वाले हैं, प्रत्येकशरीरी हैं और असंख्यात कहे गये हैं / हे आयुष्मन् ! हे श्रमण ! यह बादर अप्कायिकों का कथन हुआ। इसके साथ ही अप्कायिकों का अधिकार पूरा हुआ। विवेचन-पृथ्वीकायिक जीवों के वर्णन के पश्चात् इन दो सूत्रों में प्रकायिक जीवों के संबंध में जानकारी दी गई है। अप्कायिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं.-सूक्ष्म अप्कायिक और बादर अप्कायिक / सूक्ष्म अप्कायिक जीव सारे लोक में व्याप्त हैं और बादर अपकायिक जीव घनोदधि आदि स्थानों में हैं। सूक्ष्म अपकायिक जीवों के सम्बन्ध में पूर्वोक्त 23 द्वार सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों के समान ही समझना चाहिए / केवल संस्थानद्वार में अन्तर है। सूक्ष्म पृथ्वीकायिकों का संस्थान मसूर की चक्राकार दाल के समान बताया गया है जबकि सूक्ष्म अप्कायिक जीवों का संस्थान बुद्बुद के समान है। बादर अपकायिक जीव-बादर अपकायिक जीव अनेक प्रकार के कहे गये हैं, जैसे कि प्रोस, बर्फ आदि / इनका विशेष वर्णन प्रज्ञापना सूत्र के अनुसार जानना चाहिए / वह अधिकार इस प्रकार है _ 'बादर अप्कायिक जीव अनेक प्रकार के कहे गये हैं, जैसे कि प्रोस, हिम (जमा हुआ पानी-बर्फ) महिका (गर्भमास में सूक्ष्म वर्षा-अर) करक (ोला) हरतनु (भूमि को फोड़कर अंकुरित होने वाला तृणादि पर रहा हुआ जलबिन्दु), शुद्धोदक (आकाश से गिरा हुआ या नदी आदि का पानी) शीतोदक (ठंडा कुए आदि का पानी) उष्णोदक (गरम सोता का पानी) क्षारोदक (खारा पानी) खट्टोदक (कुछ खट्टा पानी) आम्लोदक (अधिक कांजी-सा खट्टा पानी) लवणोदक (लवणसमद्र का पानी) वारुणोदक (वरुणसमद्र का मदिरा जैसे स्वाद वाला पानी) क्षीरोदक (क्षीरसमुद्र का पानी) घृतोदक (घृतवरसमुद्र का पानी) क्षोदोदक (इक्षुरससमुद्र का पानी) और रसोदक (पुष्करवरसमुद्र का पानी) इत्यादि, और भी इसी प्रकार के पानी हैं। वे सब बादर अप्कायिक समझने चाहिए। वे बादर अप्कायिक दो प्रकार के हैं—पर्याप्त और अपर्याप्त / इनमें 1. प्राचारांगनियुक्ति तथा उत्तराध्ययन प्र. 36 गाथा 26 में बादर अपकाय के पांच भेद ही बताये है 1. शुद्धोदक, 2. प्रोस, 3. हिम, 4. महिका पोर 5. हरतनु / Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति : बादर वनस्पतिकायिक] [57 जो अपर्याप्त जीव हैं, उनके वर्ण, गंध, रस, स्पर्श प्रादि प्रप्रकट होने से काले प्रादि विशेष वर्ण, गंध, रस, स्पर्श वाले नहीं कहे जाते हैं किन्तु सामान्यतया शरीर होने से वर्णादि अप्रकट रूप से होते ही हैं / जो जीव पर्याप्त हैं उनमें वर्ण से, गंध से, रस से और स्पर्श से नाना प्रकार हैं। वर्णादि के भेद से और तरतमता से उनके हजारों प्रकार हो जाते हैं। उनकी सब मिलाकर सात लाख योनियाँ हैं / एक पर्याप्त जीव की निश्रा में असंख्यात अपर्याप्त जीव उत्पन्न होते हैं / जहाँ एक पर्याप्त है वहाँ नियम से असंख्यात अपर्याप्त जीव हैं। बादर अप्कायिक जीवों के सम्बन्ध में 23 द्वारों को लेकर विचारणा बादर पृथ्वीकायिकों के समान जानना चाहिए। जो अन्तर है वह इस प्रकार है संस्थानद्वार में अप्कायिक जीवों का संस्थान बुद्बुद के प्राकार का जानना चाहिए / स्थितिद्वार में जघन्य अन्तर्मुहर्त, उत्कृष्ट सात हजार वर्ष जानना चाहिए / शेष सब वक्तव्यता बादर पृथ्वीकायिकों की तरह ही समझना चाहिए यावत् हे आयुष्मन् श्रमण ! वे अप्कायिक जीव प्रत्येकशरीरी और असंख्यात लोकाकाश प्रमाण कहे गये हैं। यह अप्कायिकों का अधिकार हुआ। वनस्पतिकायिक जीवों का अधिकार 18. से कि तं वणस्सइकाइया? वणस्सइकाइया दुविहा पण्णता, सं जहा सुहमवणस्सइकाइया य बायरवणस्सइकाइया य / [18] वनस्पतिकायिक जीवों का क्या स्वरूप है ? वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं, यथा-सूक्ष्म वनस्पतिकायिक और बादर वनस्पतिकायिक / 16. से कि तं सुहमवणस्सइकाइया ? सुहुमवणस्सइकाइया दुविहा पण्णता, संजहा-पज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य / तहेव णवरं अणित्यंत्यसंठाणसंठिया, दुतिया दुआगतिया अपरित्ता अणंता अवसेसं जहा पुढविकाइयाणं, से तं सुहुमवणस्सइकाइया। [19] सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीव क्या हैं कैसे हैं ? सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकार के हैं पर्याप्त और अपर्याप्त, इत्यादि वर्णन सूक्ष्म पृथ्वीकायियों के समान जानना चाहिए। विशेषता यह है कि सूक्ष्म वनस्पतिकायिकों का संस्थान अनियत है / वे जीव दो गति में जाने वाले और दो गतियों से पाने वाले हैं। वे अप्रत्येकशरीरी (अनन्तकायिक) हैं और अनन्त हैं / हे आयुष्मन् ! हे श्रमण ! यह सूक्ष्म वनस्पतिकाय का वर्णन हुआ। बादर बनस्पतिकायिक 19. से किं तं बायरवणस्सइकाइया ? बायरवणस्सइकाइया दुविहा पण्णता, तं जहा-पत्तेयसरीरबायरवणस्सहकाइया य साधारणसरीर वायरवणस्सइकाइयाय। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58] [जीवाजीवाभिगमसूत्र [19] बादर वनस्पतिकायिक क्या हैं--कैसे हैं ? बादर वनस्पतिकायिक दो प्रकार के कहे गये हैंजैसे-प्रत्येकशरीर बादर वनस्पतिकायिक और साधारणशरीर बादर वनस्पतिकायिक / 20. से कि तं पत्तेयसरीर बायरवणस्सइकाइया? पत्तेयसरीर वायरवणस्सइकाइया दुवालसविहा पण्णता, तंजहा-. रुक्खा गुच्छा गुम्मा लता य वल्ली य पध्वगा चेव / तण-वलय-हरित-ओसहि-जलरुह-कुहणा य बोद्धम्या // 1 // से कि तं रुक्खा ? रुक्खा दुविहा पण्णता, तं जहा-एट्ठिया य बहुबीया य / से कि तं एगट्टिया ? एगट्ठिया प्रणेगविहा पण्णत्ता, तं नहा--- निबंब जंबू जाव पुण्णागणागरुक्खे सीवण्णो तहा असोगे य / जे यावणे तहप्पगारा / एतेसि णं मूला वि असंखेन्मजीविया एवं कंदा, खंघा, तया, साला, पवाला, पत्ता पत्तेयजीवा, पुष्फाई अणेगजीवाई फला एगट्ठिया, से तं एगट्टिया। से किं तं बहुबोया? बहुबोया अणेगविधा पपणत्ता, तं जहा अस्थिय-तेंदुय-उंबर-कविट्ठ-प्रामलक-फणस-दाहिम गग्गोष-काउंबरी य तिलय-लउय-लोढे घवे, जे यावण्णे तहप्पगारा, एतेसि गं मूला वि प्रसंखेज्जजीविया जाव फला बहुबोयगा, से तं बहुबीयगा / से तं रुक्खा। एवं जहा पण्णवणाए तहा भाणियग्वं, जाव जे यावन्ने तहप्पगारा, से तं कुहणा। नाणाविधसंठाणा रुक्खाणं एगजीविया पत्ता। खंधो वि एगजीवो ताल-सरल-नालिएरोणं // 1 // 'जह सगलसरिसवाणं पत्तयसरीराणं' गाहा // 2 // 'जह वा तिलसक्कुलिया' गाहा // 3 // से तं पत्तयसरीरबायरवणस्सइकाइया / [20] प्रत्येकशरीर बादर वनस्पतिकायिक जीवों का स्वरूप क्या है ? प्रत्येकशरीर बादर बनस्पतिकायिक बारह प्रकार के हैंजैसे-वृक्ष, गुच्छ, गुल्म, लता, वल्ली, पर्वग, तृण, वलय, हरित, औषधि, जलरुह और कुहण / वृक्ष किसे कहते हैं ? वक्ष दो प्रकार के हैं--एक बीज वाले और बहुत बीज बाले / एक बीज वाले कौन हैं? एक बीज वाले अनेक प्रकार के हैं, जैसे कि-नीम, प्राम, जामुन यावत् पुनाग नागवृक्ष, श्रीपर्णी तथा अशोक तथा और भी इसी प्रकार के अन्य वृक्ष / इनके मूल असंख्यात जीव वाले हैं, Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति: बादर बनस्पतिकायिक] [59 कंद, स्कंध, त्वचा, शाखा, प्रवाल, पत्ते ये प्रत्येक-एक-एक जीव वाले हैं, इनके फूल अनेक जीव वाले हैं, फल एक बीज वाले हैं / यह एक बीज वाले वृक्षों का वर्णन हुआ। बहुबोज वृक्ष कौन से हैं ? बहबीज वृक्ष अनेक प्रकार के हैं, जैसे-अस्तिक, तेंदुक, अम्बर, कबीठ, प्रांवला, पनस, दाडिम, न्यग्रोध, कादुम्बर, तिलक, लकुच (लवक), लोध्र, धव और अन्य भी इस प्रकार के वृक्ष / इनके मूल असंख्यात जीव वाले यावत् फल बहुबीज वाले हैं / यह बहुबीजक का वर्णन हुआ / इसके साथ ही वृक्ष का वर्णन हुआ / इस प्रकार जैसा प्रज्ञापना में कहा वैसा यहाँ कहना चाहिए, यावत्-'इस प्रकार के अन्य भी' से लेकर 'कुहण' तक / गाथार्थ-वृक्षों के संस्थान नाना प्रकार के हैं। ताल, सरल और नारीकेल वृक्षों के पत्ते और स्कंध एक-एक जीव वाले होते हैं / जैसे श्लेष (चिकने) द्रव्य से मिश्रित किये हुए प्रखण्ड सरसों की बनाई हुई बट्टी एकरूप होती है किन्तु उसमें वे दाने अलग-अलग होते हैं। इसी तरह प्रत्येकशरीरियों के शरीरसंघात होते हैं। __ जैसे तिलपपड़ी में बहुत सारे अलग-अलग तिल मिले हुए होते हैं उसी तरह प्रत्येकशरीरियों के शरीरसंघात अलग-अलग होते हुए भी समुदाय रूप होते हैं। यह प्रत्येकशरीर बादरवनस्पतिकायिकों का वर्णन हुआ। विवेचन-बादर नामकर्म का उदय जिनके है वे वनस्पतिकायिक जीव बादर वनस्पतिकायिक कहलाते हैं / इनके दो भेद हैं--प्रत्येकशरीरी और साधारणशरीरी। जिन जीवों का अलगअलग शरीर है वे प्रत्येकशरीरी हैं और जिन जीवों का सम्मिलित रूप से शरीर है, वे साधारणशरोरी हैं / इन दो सूत्रों में बादर वनस्पतिकायिक जीवों का वर्णन किया गया है। बादर प्रत्येकशरीरी वनस्पतिकायिक के 12 प्रकार कहे गये हैं / वे इस प्रकार हैं(१) वृक्ष-नीम, आम आदि (2) गुच्छ-पौधे रूप बैंगन आदि (3) मुल्म-पुष्पजाति के पौधे नवमालिका आदि (4) लता-वृक्षादि पर चढ़ने वाली लता, चम्पकलता आदि (5) वल्ली-जमीन पर फैलने वाली वेलें, कष्माण्डो, अपुषी मादि (6) पर्वग-पौर-गांठ वाली वनस्पति, इक्षु आदि (7) तृण-दूब, कास, कुश आदि हरी घास (8) वलय-जिनकी छाल गोल होती है, केतकी, कदली आदि (9) हरित-बथुप्रा आदि हरी भाजी (10) औषधि-गेहूं आदि धान्य जो पकने पर सूख जाते हैं (11) जलसह-जल में उगने वाली वनस्पति, कमल, सिंघाड़ा आदि (12) कुहण-भूमि को फोड़कर उगने वाली वनस्पति, जैसे कुकुरमुत्ता (छत्राक) Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60] [जीवाजीवाभिगमसूत्र वक्ष दो प्रकार के हैं एक बीज वाले और बहुत बीज वाले। जिसके प्रत्येक फल में एक गुठली या बीज हो वह एकास्थिक है और जिनके फल में बहुत बीज हों वे बहुबीजक हैं। एकास्थिक वृक्षों में से नीम, पाम आदि कुछ वृक्षों के नाम सूत्र में गिनाए हैं और शेष प्रज्ञापनासत्र के अनुसार जानने की सूचना दी गई है। प्रज्ञापनासत्र में एकास्थिक वक्षों के नाम इस प्रकार गिनाये हैं- 'नीम, आम, जामुन, कोशम्ब (जंगली प्राम), शाल, अंकोल्ल, (अखरोट या पिश्ते का पेड़), पीलु, शेलु (लसोड़ा), सल्लकी (हाथ को प्रिय) मोनकी, मालुक, बकुल (मौलसरी), पलाश (ढाक), करंज (नकमाल); पुत्रजीवक, अरिष्ट (अरीठा), विभीतक (बहेड़ा), हरड, भल्लातक (भिलावा), उम्बेभरिया, खिरनी, धातकी (धावडा) और प्रियाल; पूतिक (निम्ब), करंज, श्लक्ष्ण, शिंशपा, अशन, पुन्नाग (नागकेसर) नागवृक्ष, श्रीपर्णी और अशोक. ये सब एकास्थिक वक्ष हैं। इसी प्रकार के अन्य जितने भी वक्ष हैं जो विभिन्न देशों में उत्पन्न होते हैं तथा जिनके फल में एक ही गुठली हो वे सब एकास्थिक वृक्ष समझने चाहिए / ___ इन एकास्थिक वृक्षों के मूल असंख्यात जीवों वाले होते हैं / इनके कन्द, स्कन्ध, त्वचा (छाल), शाखा और कोंपल भी असंख्यात जीवों वाले होते हैं। किन्तु इनके पत्ते प्रत्येकजीव (एक पत्ते में एक जीव) वाले होते हैं / इनके फूलों में अनेक जीव होते हैं, इनके फलों में एक गुठली होती है। बहुबीजक वृक्षों के नाम पन्नवणासूत्र में इस प्रकार कहे गये हैं__अस्थिक, तिंदुक, कबीठ, अम्बाडग, मातुलिंग (बिजौरा), बिल्व, आमलक (प्रांवला), पनस (अनन्नास), दाडिम, अश्वस्थ (पीपल), उदुम्बर, (गूलर), वट (बड), न्यग्रोध (बड़ा बड़); नन्दिवृक्ष, पिप्पली, शतरी, प्लक्ष, कादुम्बरी, कस्तुम्भरी, देवदाली, तिलक, लवक (लकुच-लीची), छत्रोपक, शिरीष, सप्तपर्ण, दधिपर्ण लोध्र, धव, चन्दन, अर्जन, नीप, कूरज, (कूटक) और कदम्ब; इसी प्रकार के और भी जितने वक्ष हैं कि जिनके फल में बहुत बीज हैं, वे सब बहुबीजक जानने चाहिए। ऊपर जो वृक्षों के नाम गिनाये गये हैं उनमें कतिपय नाम ऐसे हैं जो प्रसिद्ध हैं और कतिपय नाम ऐसे हैं जो देशविशेष में ही होते हैं। कई नाम ऐसे हैं जो एक ही वृक्ष के सूचक हैं किन्तु उनमें प्रकार भेद समझना चाहिए। भिन्न-भिन्न देशों में भिन्न-भिन्न नाम से कहे जाने के कारण भी अलग से निर्देश समझना चाहिए। बहुबीजकों में 'पामलक' (प्रांवला) नाम पाया है। वह प्रसिद्ध प्रांवले का वाचक न होकर अन्य वृक्षविशेष का वाचक समझना चाहिए। क्योंकि बहु-प्रसिद्ध प्रांवला तो एक बीज वाला है, बहुबीजवाला नहीं। ___ इन बहुबीजक वृक्षों के मूल असंख्यात जीवों वाले होते हैं। इनके कन्द, स्कन्ध, त्वचा, शाखा और प्रवाल (कोंपल) असंख्य जीवात्मक होते हैं। इनके पत्ते प्रत्येकजीवात्मक होते हैं, अथ प्रत्येक पत्ते में एक-एक जीव होता है। इनके पुष्प अनेक जीवोंवाले हैं और फल बहुत बीज वाले हैं। 1. प्रज्ञापनासूत्र, प्रथमपद, गाथा 13-14-15 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [61 प्रथम प्रतिपत्ति : साधारण वनस्पति का स्वरूप] वृक्षों की तरह ही गुच्छ, गुल्म, लता, वल्ली, पर्वग, तृण, वलय, हरित, ओषधि, जलरुह और कुहण के विभिन्न प्रकार प्रज्ञापनासूत्र में विस्तार से बताये गये हैं। ___ यहाँ यह शंका उठ सकती है कि यदि वृक्षों के मूल आदि अनेक प्रत्येकशरीरी जीवों से अधिष्ठित हैं तो वे एक शरीराकार में कैसे दिखाई देते हैं ? इस शंका का समाधान सूत्रकार ने दो दृष्टान्तों द्वारा किया है ____ सरसों की बट्टी का दृष्टान्त-जैसे सम्पूर्ण अखण्ड सरसों के दानों को किसी श्लेष द्रव्य के द्वारा मिश्रित कर देने पर एक बट्टी बन जाती है परन्तु उसमें वे सरसों के दाने अलग-अलग अपनी अवगाहना में रहते हैं। यद्यपि परस्पर चिपके होने के कारण बट्टी के रूप में वे एकाकार प्रतीत होते हैं फिर भी वे सरसों के दाने अलग-अलग होते हैं। इसी तरह प्रत्येकशरीरी जीवों के शरीरसंघात भी पृथक्-पृथक् अपनी अवगाहना में रहते हैं, परन्तु विशिष्ट कर्मरूपी श्लेष के द्वारा परस्पर मिश्रित होने से एक शरीराकार प्रतीत होते हैं। तिलपपड़ी का दृष्टान्त-जिस प्रकार तिलपपड़ी में प्रत्येक तिल अपनी-अपनी अवगाहना में अलग-अलग होता है किन्तु तिलपपड़ी एक है। इसी तरह प्रत्येकशरीरी जीव अपनी-अपनी अवगाहना में स्थित होकर भी एक शरीराकार प्रतीत होते हैं। यह प्रत्येकशरीरी बादर वनस्पति का वर्णन हुआ। साधारण वनस्पति का स्वरूप 21. से किं तं साहारणसरीरवादरवणस्सइकाइया ? ___ साहारणसरीरबादरवणस्सइकाइया अणेगविहा पग्णत्ता, तं जहा-आलुए, मूलए, सिंगबेरे, हिरिलि, सिरिलि, सिस्सिरिलि, किट्टिया, छिरिया, छिरियविरालिया, कण्हकंदे, वज्जकंदे, सूरणकंदे, खल्लूडे, किमिरासि, भद्दे, मोत्थापिंडे, हलिहा, लोहारी, गोहु [ठिहु], थिभु, अस्सकग्णी, सोहकन्नी, सोउंढी, मूसंढी–जे यावण्णे तहप्पगारा; ते समासओ दुविहा पण्णता, तंजहापज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य / तेसि गं भंते ! जीवाणं कति सरीरगा पण्णता? गोयमा ! तमो सरीरगा पण्णत्ता, तंजहा--- ओरालिए, तेयए, कम्मए / तहेव जहा बायरपुढविकाइयाणं / णवरं सरीरोगाहणा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइमागं उक्कोसेणं सातिरेग जोयणसहस्सं। सरीरगा अणित्यंस्थसंठिया, लिई महन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं वसवाससहस्साई। जाव दुगतिया, तिआगतिया, परिसा प्रणंता पण्णता। से तं बायरवणस्सइकाइया, से तं थावरा। [21] साधारणशरीर बादर वनस्पतिकायिक कैसे हैं ? साधारण शरीर बादर वनस्पतिकायिक जीव अनेक प्रकार के हैं, जैसे-पाल, मूला, अदरख, हिरिलि, सिरिलि, सिस्सिरिली, किटिका, क्षीरिका, क्षीरविडालिका, कृष्णकन्द, वज्रकन्द, सूरण Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 62] जीवाजीवाभिगमसूत्र कन्द, खल्लूट, कृमिराशि, भद्र, मुस्तापिंड, हरिद्रा, लोहारी, स्निहु, स्तिभु, अश्वकर्णी, सिंहकर्णी, सिकुण्डी, मुषण्डी और अन्य भी इस प्रकार के साधारण वनस्पतिकायिक-अंवक, पलक, सेवाल आदि जानने चाहिए। ये संक्षेप से दो प्रकार के कहे गये हैं, जैसे -पर्याप्त और अपर्याप्त / भगवन् ! इन जीवों के कितने शरीर कहे गये हैं ? गौतम ! तीन शरीर कहे गये हैं---औदारिक, तेजस और कार्मण / इस प्रकार सब कथन बादर पृथ्वीकायिकों की तरह जानना चाहिए। विशेषता यह है कि इनके शरीर की अवगाहना जघन्य से अगूल तवाँ भाग और उत्कृष्ट से एक हजार योजन से कुछ अधिक है। इनके शरीर के संस्थान अनियत हैं, स्थिति जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट दस हजार वर्ष की जाननी चाहिए। यावत् ये दो गति में जाते हैं और तीन गति से आते हैं। प्रत्येकवनस्पति जीव असंख्यात हैं और साधारणवनस्पति के जीव अनन्त कहे गये हैं। यह बादर वनस्पति का वर्णन हुआ और इसके साथ ही स्थावर का वर्णन पूरा हुमा / विवेचन-एक ही शरीर में आश्रित अनन्त साधारणबनस्पतिकायिक जीव एक साथ ही उत्पन्न होते हैं, एक साथ ही उनका शरीर बनता है, एक साथ ही वे प्राणापान के पुद्गलों को ग्रहण करते हैं और एक साथ ही श्वासोच्छ्वास लेते हैं। एक शरीर में पाश्रित साधारण जीवों का आहार, श्वासोच्छ्वास आदि एक साथ ही होता है / एक जीव द्वारा आहारादि का ग्रहण सब जीवों के द्वारा आहारादि का ग्रहण करना है और सबके द्वारा आहारादि का ग्रहण किया जाना ही एक जीव के द्वारा आहारादि ग्रहण करना है। यही साधारण जीवों की साधारणता का लक्षण है। ___ जैसे अग्नि में प्रतप्त लोहे का गोला सारा का सारा लाल अग्निमय हो जाता है वैसे ही निगोदरूप एक शरीर में अनन्त जीवों का परिणमन जान लेना चाहिए। एक, दो, असंख्यात निगोद जीवों का शरीर दृष्टिगोचर नहीं होता। अनन्त निगोदों के शरीर ही दृष्टिगोचर हो सकते हैं। इस विषय में तीर्थकर देव के वचन ही प्रमाणभूत हैं। भगवान् का कथन है कि सूई की नोंक के बराबर निगोदकाय में असंख्यात गोले होते हैं, एक-एक गोले में असंख्यात निगोद होते हैं और एक-एक निगोद में अनन्त-अनन्त जीव होते हैं / प्रस्तुत सूत्र में साधारण वनस्पतिकाय के अनेक प्रकार बताये गये हैं। कतिपय साधारण वनस्पतियों के नाम बताकर विशेष जानकारी के लिए प्रज्ञापनासूत्र का निर्देश कर दिया है। वहाँ इस सम्बन्ध में विस्तार के साथ निरूपण है / प्रासंगिक और उपयोगी होने से प्रज्ञापनासूत्र में निर्दिष्ट बादर वनस्पति और साधारण वनस्पति के लक्षणों का यहाँ उल्लेख किया जाता है POJITS 1. गोला य असंखेज्जा होति निगोया असंखया गोले / एक्केको य निगोप्रो अणंतजीयो मुणेयव्यो / Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति : साधारण वनस्पति का स्वरूप] साधारणशरीरी वनस्पति की पहचान-१. जिस मूल, कंद, स्कंध, त्वचा, शाखा, प्रवाल, पुष्प, फल, बीज, आदि को तोड़े जाने पर समान भंग हो अर्थात् चक्राकार भंग हो, समभंग हो अर्थात् जो प्राडी-टेढ़ी न टूटकर समरूप में टूटती हो वह वनस्पति साधारणशरीरी है। 2. जिस मूल, कंद, स्कंध और शाखा के काष्ठ (मध्यवर्ती सारभाग) की अपेक्षा छाल अधिक मोटी हो वह अनन्तजीव वाली समझनी चाहिए। 3. जिस मूल, कन्द, स्कन्ध, त्वचा, शाखा, पत्र, पुष्प आदि के तोड़े जाने पर उसका भंगस्थान चक्र के आकार का सम हो / 4. जिसकी गांठ या पर्व को तोड़ने पर चूर्ण निकलता हो। 5. जिसका पृथ्वी के समान प्रतरभेद (समान दरार) होती हो वह अनन्तकायिक जानना चाहिए। 6. दूध वाले या बिना दूध वाले जिस पत्र की शिराएँ दिखती न हों, अथवा जिस पत्र की संधि सर्वथा दिखाई न दे, उसे भी अनन्त जीवों वाला समझना चाहिए। पुष्पों के सम्बन्ध में आगम निर्देशानुसार समझना चाहिए / उनमें कोई संख्यात जीव वाले, कोई असंख्यात जीव वाले और कोई अनन्त जीव वाले होते हैं / प्रत्येकशरीरी वनस्पति के लक्षण-१. जिस मूल, कन्द, स्कन्ध, त्वचा, शाखा, प्रवाल, पत्र, पुष्प, फल और बीज को तोड़ने पर उसमें हीर दिखाई दे अर्थात् जिसका भंग समरूप न होकर विषम हो-दतीला हो। 2. जिसका भंगस्थान चक्राकार न होकर विषम हो। 3. जिस मूल, कन्द, स्कन्ध या शाखा के काष्ठ (मध्यवर्ती सारभाग) की अपेक्षा उसकी छाल अधिक पतली हो, वे वनस्पतियां प्रत्येकशरीरी जाननी चाहिए। पूर्वोक्त साधारण वनस्पति के लक्षण जिनमें न पाये जावें वे सब प्रत्येकवनस्पति जाननी चाहिए। प्रत्येक किशलय (कोंपल) उगते समय अनन्तकायिक होता है, चाहे वह प्रत्येकशरीरी हो या साधारणशरीरी !' किन्तु वही किशलय बढ़ता-बढ़ता बाद में पत्र रूप धारण कर लेता है तब साधारणशरीरी से प्रत्येकशरीरी हो जाता है / - ये बादर वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकार के हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त / जो अपर्याप्त हैं उनके वर्णादि विशेषरूप से स्पष्ट नहीं होते हैं। जो पर्याप्त हैं उनके वर्गादेश से, गंधादेश से, रसादेश से और स्पर्शादेश से हजारों प्रकार हो जाते हैं / इनकी संख्यात लाख योनियां हैं। प्रत्येक वनस्पतिकाय की 10 लाख और साधारण वनस्पति की 14 लाख योनियाँ हैं। पर्याप्त जीवों की निश्रा में अपर्याप्त जीव उत्पन्न होते हैं। जहां एक बादर पर्याप्त है वहाँ कदाचित् संख्यात, कदाचित् असंख्यात और कदाचित् अनन्त अपर्याप्त पैदा होते हैं / प्रत्येक वनस्पति की अपेक्षा संख्यात, असंख्यात और साधारण वनस्पति की अपेक्षा अनन्त अपर्याप्त समझने चाहिए / 1. 'उग्गेमाणा अणंता'। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाजीवाभिगमसूत्र उन बादर वनस्पतिकायिकों के विषय में 23 द्वारों की विचारणा में सब कथन बादर पृथ्वीकायिकों के समान जानना चाहिए। जो अन्तर है वह इस प्रकार है इन बादर वनस्पतिकायिक जीवों का संस्थान नाना रूप है- अनियत है। इसकी उत्कृष्ट अवगाहना एक हजार योजन से अधिक की बताई है। वह बाह्य द्वीपों में वल्ली आदि की अपेक्षा तथा समुद्र एवं गोतीर्थों में पद्मनाल की अपेक्षा से समझना चाहिए / इससे अधिक पद्मों की अवगाहना को पृथ्वीकाय का परिणाम समझना चाहिए। ऐसी वृद्ध प्राचार्यों की धारणा है। स्थितिद्वार में उत्कृष्ट दस हजार वर्ष कहने चाहिए। गति-प्रागति द्वार के बाद 'अपरित्ता अणंता' पाठ है / इसका अर्थ यह है कि प्रत्येकशरीरी वनस्पति जीव असंख्यात हैं और साधारणशरीरी वनस्पति जीव अनन्त हैं / इस प्रकार हे आयुष्मन् श्रमण ! यह बादर वनस्पति का कथन हुअा और इसके साथ ही स्थावर जीवों का कथन पूर्ण हुआ। त्रसों का प्रतिपादन 22. से कि तसा? तसा तिविहा पण्णसा, तंजहा-- तेउक्काइया, वाउक्काइया, ओराला तसा पाणा / [22] त्रसों का स्वरूप क्या है ? त्रस तीन प्रकार के कहे गये हैं, यथा-- तेजस्काय, वायुकाय और उदारत्रस / 23. से कि तं तेउक्काइया ? तेउक्काइया दुविहा पण्णत्ता, तंजहासुहुमतेउक्काइया य बादरतेउक्काइया य? [23] तेजस्काय क्या है ? तेजस्काय दो प्रकार के कहे गये हैं, जैसेसूक्ष्मतेजस्काय और बादरतेजस्काय / 24. से किं तं सुहुमतेउक्काइया ? सुहुमतेउक्काइया जहा-सुहुमपुढविक्काइया नवरं सरीरगा सूइकलावसंठिया, एगगइआ, दुआगइआ, परित्ता असंखेज्जा पण्णत्ता, सेसं तं चेव, से तं सुहुमतेउक्काइया / [24] सूक्ष्म तेजस्काय क्या हैं ? सूक्ष्म तेजस्काय सूक्ष्म पृथ्वीकायिकों की तरह समझना / विशेषता यह है कि इनके शरीर का संस्थान सूइयों के समुदाय के आकार का जानना चाहिए। ये जीव एक गति (तियंचगति) में ही जाते हैं और दो गतियों से (तियंच और मनुष्यों) से आते हैं। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति : असों का प्रतिपादन] [65 ये जीव प्रत्येकशरीर वाले हैं और असंख्यात हैं। यह सूक्ष्म तेजस्काय का कथन हुआ। 25. से किं तं बावरतेउक्काइया? बावरतेउक्काइया अणेगविहा पण्णत्ता, तंजहाइंगाले जाले मुम्मुरे जाव सूरकंतमणिनिस्सिए; जे यावन्ने तहप्पगारा, ते समासो दुविहा पण्णत्ता, तंजहापज्जत्ता य अपज्जत्ता य। तेसि णं भंते ! जीवाणं कति सरीरगा पण्णता? गोयमा ! तो सरीरगा पण्णत्ता, तंजहा ओरालिए, तेयए, कम्मए। सेसं तं चेव, सरोरगा सूइकलावसंठिया, तिनि लेस्सा, ठिती अहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तिन्नि राइंदियाई, तिरियमणुस्से हितो उववाओ, सेसं तं चेव एगगतिया दुआगतिआ, परिता असंखेज्जा पण्णत्ता, से तं तेउक्काइया। [25] बादर तेजस्कायिकों का स्वरूप क्या है ? बादर तेजस्कायिक अनेक प्रकार के कहे गये हैं, यथा--कोयले की अग्नि, ज्वाला की अग्नि, मुर्मुर (भूभुर) की अग्नि यावत् सूर्यकान्त मणि से निकली हुई अग्नि और भी अन्य इसी प्रकार की अग्नि / ये बादर तेजस्कायिक जीव संक्षेप से दो प्रकार के हैं--पर्याप्त और अपर्याप्त / भगवन् ! उन जीवों के कितने शरीर कहे गये हैं ? गौतम ! उनके तीन शरीर कहे गये है-- 1. औदारिक 2. तैजस और 3. कार्मण / शेष बादर पृथ्वीकाय की तरह समझना चाहिए। अन्तर यह है कि उनके शरीर सूइयों के समुदाय के आकार के हैं, उनमें तीन लेश्याएँ हैं, जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीन रात-दिन की है। तिर्यच और मनुष्यों से वे आते हैं और केवल एक तिर्यंचगति में ही जाते हैं / वे प्रत्येकशरीर वाले हैं और असंख्यात कहे गये हैं / यह तेजस्काय का वर्णन हुआ। विवेचन–प्रस्तुत सूत्र में त्रसजीव तीन प्रकार के कहे गये हैं-तेजस्कायिक, वायुकायिक और उदार अस / पूर्व में कहा जा चुका है कि बस जीव दो प्रकार के बताये गये हैं-गतित्रस और लब्धित्रस / यहाँ जो तेजस्कायिकों और वायुकायिकों को त्रस कहा गया है सो गतित्रस की अपेक्षा से समझना चाहिए। तेजस्काय और वायुकाय में अनभिसंधि पूर्वक गति पाई जाती है, अभिसंधिपूर्वक गति नहीं / जो अभिसंधिपूर्वक गति कर सकते हैं वे तो स्पष्ट रूप से उदार त्रस कहे गये हैं, जैसे-द्वीन्द्रियादि त्रस जीव / ये ही लब्धित्रस कहे जाते हैं। तेजस् अर्थात् अग्नि / अग्नि ही जिनका शरीर है वे जीव तेजस्कायिक कहे जाते हैं। ये तेजस्कायिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं-सक्षम तेजस्कायिक और बादर तेजस्कायिक / सूक्ष्म तेजस्कायिक जीव वे हैं जो सूक्ष्मनामकर्म के उदय वाले हैं और सारे लोक में व्याप्त हैं तथा जो Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66] [जीवाजीवाभिगमसूत्र मारने से मरते नहीं आदि कथन सूक्ष्म पृथ्वीकायिकों की तरह जानना चाहिए / तेवीस द्वारों की विचारणा में सब कथन सूक्ष्म पृथ्वीकाय की तरह समझना चाहिए। विशेषता यह कि सूक्ष्म तेजस्कायिकों का शरीर-संस्थान सइयों के समूदाय के समान है। च्यवनद्वार में ये सूक्ष्म तेजस्कायिक वहाँ से निकल कर तिर्यंचगति में ही उत्पन्न होते हैं, मनुष्यगति में उत्पन्न नहीं होते / आगम में कहा गया है कि 'सप्तम पृथ्वी के नैरयिक, तेजस्कायिक और वायुकायिक तथा असंख्यात वर्षों की आयु वाले अनन्तर मर कर मनुष्य गति में नहीं जाते।' गति-प्रागति द्वार में तेजस्कायिक तियंचगति में ही जाते हैं और तियंचगति, मनुष्यगति से आकर उनमें उत्पन्न होते हैं / इसलिए ये एक गति वाले और दो प्रागति वाले हैं। बादर तेजस्कायिक-बादर तेजस्कायिक जीव वे हैं जो बादरनामकर्म के उदय वाले हैं / उनके अनेक प्रकार हैं, जैसे-इंगाल, ज्वाला, मुमु र यावत् सूर्यकांतमणि निश्रित / यावत् शब्द से अचि, अलात, शुद्धाग्नि, उल्का, विद्युत्, अशनि, निर्घात, संघर्षसमुत्थित का ग्रहण करना चाहिए / इंगाल का अर्थ है-धूम से रहित जाज्वल्यमान खैर आदि की अग्नि / ज्वाला का अर्थ है-अग्नि से संबद्ध लपटें या दीपशिखा / मुर्मुर का अर्थ है--भस्ममिश्रित अग्निकण-भोभर / अचि का अर्थ है-मूल अग्नि से असंबद्ध ज्वाला / अलात का अर्थ है--किसी काष्ठखण्ड में अग्नि लगाकर उसे चारों तरफ फिराने पर जो गोल चक्कर-सा प्रतीत होता है, वह उल्मुल्क या अलात है। शुद्धाग्नि--लोहपिण्ड आदि में प्रविष्ट अग्नि, शुद्धाग्नि है / उल्का-एक दिशा से दूसरी तरफ जाती हुई तेजोमाला, चिनगारी / विद्युत्-आकाश में चमकने वाली बिजली / अशनि-आकाश से गिरते हुए अग्निमय कण / निर्धात–वैक्रिय सम्बन्धित वज्रपात या विद्युत्पात / संघर्ष-समुस्थित–अरणि काष्ठ की रगड़ से या अन्य रगड़ से उत्पन्न हुई अग्नि / सूर्यकान्तमणि-निसृत--प्रखर सूर्य किरणों के स्पर्श से सूर्यकांतमणि से निकली हुई अग्नि / और भी इसी प्रकार की अग्नियां बादर तेजस्कायिक हैं। ये बादर तेजस्कायिक दो प्रकार के हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त / अपर्याप्त जीवों के वर्णादि स्पष्ट रूप से प्रकट नहीं होते हैं। पर्याप्त जीवों के वर्ण, गंध, रस और स्पर्श की अपेक्षा से हजारों प्रकार और संख्यात योनियां हो जाती हैं। इनकी सात लाख योनियां हैं / एक पर्याप्त की निश्रा में असंख्यात अपर्याप्त जीव उत्पन्न होते हैं। शरीर आदि 23 द्वारों की विचारणा सूक्ष्म तेजस्कायिकों की तरह जानना चाहिए / विशेषता यह है कि इनकी स्थिति जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से तीन रात-दिन की है / आहार बादर पृथ्वीकायिकों के समान समझना चाहिए। 1. सत्तमी महिनेरइया तेऊ वाऊ प्रणतरुव्वद्रा। नवि पावे माणुस्सं तहेवऽसंखाउया सब्वे / / Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति : वायुकाय] वायुकाय 26. से किं तं वाउक्काइया ? वाउक्काइया दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-~सुहुमवाउक्काइया य बादरवाउक्काइया य / सुहमवाउक्काइया जहा तेउपकाइया णवरं सरोरा पडागसंठिया एगगतिआ दुआगतिया परित्ता असंखिज्जा से तं सुहमवाउक्काइया / से किं तं बादरवाउक्काइया? बादरवाउक्काइया अणेगविधा पण्णत्ता, तंजहा पाईणवाए, पडोणवाए, एवं जे यावण्णे तहप्पगारा, ते समासओ दुविहा पण्णता, तंजहापज्जत्ताय अपज्जताय / तेसिणं भंते ! जीवाणं कति सरीरगा पण्णता? गोयमा ! चत्तारि सरीरगा पण्णत्ता, तंजहाओरालिए, वेउविए, तेयए, कम्मए / सरीरगा पडागसंठिया, चत्तारि समुग्धायावेयणासमुग्धाए, कसायसमुग्घाए, मारणंतियसमुग्घाए, वेउब्वियसमुग्घाए। आहारो णिव्वाघाएणं छद्दिसि, वाघायं पडुच्च सिय तिदिसि, सिय चउदिसि, सिय पंचदिसि / उववाओ देवमणुयनेरइएसु णस्थि / ठिई जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं तिनि वाससहस्साई, सेसं तं चेव एगगतिया, दुआगतिया, परित्ता, असंखेज्जा पण्णत्ता समणाउसो ! ! से तं बायरवाउक्काइआ, से तं बाउक्काइया। [26] वायुकायिकों का स्वरूप क्या है ? वायुकायिक दो प्रकार के कहे गये हैं, यथासूक्ष्म वायुकायिक और बादर वायुकायिक / सूक्ष्म वायुकायिक तेजस्कायिक की तरह जानने चाहिए। विशेषता यह है कि उनके शरीर पताका (ध्वजा) के आकार के हैं / ये एक गति में जाने वाले और दो गतियों से आने वाले हैं / ये प्रत्येकशरीरी और असंख्यात लोकाकाशप्रदेश प्रमाण हैं / यह सूक्ष्म वायुकायिक का कथन हुआ। बादर वायुकायिकों का स्वरूप क्या है ? बादर वायुकायिक जीव अनेक प्रकार के कहे गये हैं, यथा-पूर्वी वायु, पश्चिमी वायु और इस प्रकार के अन्य वायुकाय / वे संक्षेप से दो प्रकार के हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त / / भगवन् ! उन जीवों के कितने शरीर कहे गये हैं ? गौतम ! चार शरीर कहे गये हैं-औदारिक, वैक्रिय, तैजस और कार्मण / उनके शरीर ध्वजा के आकार के हैं। उनके चार समुद्घात होते हैं-वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, मारणांतिक Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 68] [जीवाजीवाभिगमसूत्र समुद्घात और वैक्रियसमुद्घात / उनका प्राहार व्याघात न हो तो छहों दिशाओं के पुद्गलों का होता है और व्याघात होने पर कभी तीन दिशा, कभी चार दिशा और कभी पांच दिशों के पुद्गलों के ग्रहण का होता है / वे जीव देवगति, मनुष्यगति और नरकगति में उत्पन्न नहीं होते। उनकी स्थिति जघन्य से अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से तीन हजार वर्ष की है। शेष पूर्ववत् / हे आयुष्मन् श्रमण ! एक गति वाले, दो प्रागति वाले, प्रत्येकशरीरी और असंख्यात कहे गये हैं। यह बादर वायुकाय और वायुकाय का कथन हुआ। विवेचन-वायु ही जिनका शरीर है वे जीव वायुकायिक कहे जाते हैं / ये दो प्रकार के हैंसूक्ष्म और बादर / सूक्ष्म वायुकायिकों का वर्णन पूर्वोक्त सूक्ष्म तेजस्कायिकों की तरह जानना चाहिए / अन्तर यह है कि वायुकायिकों के शरीर का संस्थान पताका (ध्वजा) के आकार का है। बादर वायुकायिक जीव अनेक प्रकार के कहे गये हैं। प्रज्ञापनासूत्र में कहे गये प्रकारों का यहाँ उल्लेख करना चाहिए / वहाँ इनके प्रकार इस तरह बताये गये हैं पूर्वीवात-पूर्व दिशा से आने वाली हवा / पश्चिमीवात-पश्चिम दिशा से आने वाली हवा / दक्षिणवात-दक्षिण दिशा से आने वाली हवा / उदीचीनवात-उत्तर दिशा से आने वाली हवा। ऊर्ध्ववात-ऊर्ध्व दिशा में बहने वाली हवा / अधोवात-नीची दिशा में बहने वाली हवा / तिर्यग्वात-तिरछी दिशा में बहने वाली हवा / विदिशावात--विदिशाओं से आने वाली हवा / वातोभ्रम-अनियत दिशाओं में बहने वाली हवा / वातोत्कलिका---समुद्र के समान तेज बहने वाली तूफानी हवा / वातमंडलिका-वातोली, चक्करदार हवा / उत्कालिकावात-तेज प्रांधियों से मिश्रित हवा / मण्डलिकावात--चक्करदार हवाओं से प्रारंभ होकर तेज प्रांधियों से मिश्रित हवा / गुंजावात-सनसनाती हुई हवा। झंझावात-वर्षा के साथ चलने वाला अंधड़ अथवा अशुभ एवं कठोर हवा / संवर्तकवात-तिनके आदि उड़ा ले जाने वाली हवा अथवा प्रलयकाल में चलने वाली हवा / धनवात-रत्नप्रभापृथ्वी आदि के नीचे रही हुई सघन-ठोस वायु / तनुवात-घनवात के नीचे रही हुई पतली वायु। शुद्धवात-मन्दवायु अथवा मशकादि में भरी हुई वायु / इसके अतिरिक्त भी अन्य इसी प्रकार की हवाएँ बादर वायुकाय हैं। ये बादर वायुकायिक जीव दो प्रकार के है—पर्याप्त और अपर्याप्त / अपर्याप्त जीवों के शरीर के वर्णादि पूरी तरह संप्रकट नहीं होते हैं, अतएव विशिष्ट वर्णादि की अपेक्षा उनके भेद नहीं किये गये हैं। जो पर्याप्त जीव हैं उनके वर्णादि संप्रकट होते हैं, अतएव विशिष्ट वर्णादि की अपेक्षा Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति : औदारिक प्रसों का वर्णन] उनके हजारों प्रकार हो जाते हैं / इनकी सात लाख योनियाँ हैं / एक पर्याप्त वायुकाय जीव की निश्रा में नियम से असंख्यात अपर्याप्त वायकाय के जीव उत्पन्न होते हैं। शरीर आदि 23 द्वारों की विचारणा में इन बादर वायुकायिक जीवों के चार शरीर होते हैं-औदारिक, वैक्रिय, तेजस और कार्मण / समुद्धात चार होते हैं वैक्रियसमुद्धात, वेदनासमुद्घात, कषायसमदघात और मारणांतिकसमुदघात / स्थितिद्वार में जघन्य से अन्तर्महर्त और उत्कृष्ट से तीन हजार वर्ष की स्थिति जाननी चाहिए / आहार निर्व्याघात हो तो छहों दिशा के पुद्गलों का होता है और व्याघात की स्थिति में कभी तीन, कभी चार और कभी पाँच दिशाओं के पुद्गलों का होता है / लोकनिष्कृट (लोक के किनारे) में भी बादर वायुकाय की संभावना है, अतएव व्याघात की स्थिति बन सकती है / शेष द्वार सूक्ष्म वायुकाय की तरह जानने चाहिए। उपसंहार करते हुए कहा गया है कि हे आष्युमन श्रमण ! ये जीव एक तिर्यंचगति में ही जाने वाले और तिर्यंच, मनुष्य इन दो गतियों से पाने वाले हैं। ये प्रत्येकशरीरी हैं और असंख्यातलोकाकाश के प्रदेश प्रमाण हैं / यह वायुकाय का कथन पूरा हुआ। औदारिक त्रसों का वर्णन 27. से कि तं पोराला तसा पाणा ? ओराला तसा पाणा चउबिहा पण्णत्ता, तंजहा-- बेइंदिया, तेइंदिया, चरिंदिया, पंचेंदिया। [27] औदारिक त्रस प्राणी किसे कहते हैं ? औदारिक त्रस प्राणी चार प्रकार के कहे गये हैं, यथा-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय / विवेचन--'औदारिक त्रस' पद में दिया गया औदारिक' पद गतित्रस का व्यवच्छेदक है। तेजस्काय और वायुकाय रूप गतित्रस से भिन्नता बताने के लिए 'अोरा ला तसा' कहा गया है / औदारिक का अर्थ है--स्थूल, प्रधान / मुख्यतया द्वीन्द्रियादि जीव ही त्रस रूप से विवक्षित हैं, अतएव ये औदारिक त्रस कहलाते हैं / ये चार प्रकार के हैं-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय / द्वीन्द्रिय-जिन जीवों के स्पर्शन और रसना रूप दो इन्द्रियाँ हों, वे द्वीन्द्रिय हैं। त्रीन्द्रिय--जिन जीवों के स्पर्शन, रसना और घ्राण रूप तीन इन्द्रियाँ हों, वे श्रीन्द्रिय हैं। चतुरिन्द्रिय-जिन जीवों के स्पर्शन, रसना, घ्राण और चक्षु रूप चार इन्द्रियाँ हों, वे चतुरिन्द्रिय हैं। पंचेन्द्रिय-जिन जीवों के स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र रूप पाँच इन्द्रियाँ हों, वे पंचेन्द्रिय जीव हैं। पूर्व में कहा जा चुका है कि इन्द्रियों का यह विभाग द्रव्येन्द्रियों को लेकर है, भावेन्द्रियों की अपेक्षा से नहीं। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70] [जीवाजोवाभिगमसूत्र द्वीन्द्रिय-वर्णन 28. से कि तं वे इंदिया? बेइंदिया अणेगविहा पण्णता, तंजहापुलाकिमिआ जाव समुद्दलिक्खा। जे यावण्णे तहप्पगारा; ते समासओ दुविहा पण्णता, तंजहापज्जत्ता य अपज्जत्ताय। तेसि णं भंते ! जीवाणं कति सरीरगा पण्णता? गोयमा ! तओ सरीरगा पण्णसा--- ओरालिए, तेयए, कम्मए। तेसिं णं भंते ! जीवाणं केमहालिया सरीरोगाहणा पणता ? . जहन्नेणं अंगुलासंखेज्जमागं उक्कोसेणं बारसजोयणाई। छेवट्टसंघयणा, हुंडसंठिया, चत्तारि कसाया, चत्तारि सण्णाओ, तिण्णि लेसामो, दो इंदिया, तो समुग्धाया-वेयणा, कसाय, मारणंतिया, नो सनी, असन्नी, णपुसकवेवगा, पंच पज्जत्तीओ, पंचअपज्जत्तीओ, सम्मदिट्ठी वि, मिच्छाविट्ठी वि, जो सम्ममिच्छाविट्ठी; णो ओहिदसणो, णो चक्खुदंसणी, भचक्खुदंसणी, गो केवलदसणी। ते णं भंते ! जीवा कि णाणी, अण्णाणी? गोयमा ! गाणी वि अण्णाणी विजेणाणी ते णियमा दुण्णाणी, तंजहा-प्रामिणिबोहियपाणी सुयणाणो य / जे अण्णाणी ते नियमा दुअण्णाणी मतिअण्णाणी य सुयअण्णाणो य। नो मणजोगी,वइजोगी, कायजोगी। सागारोवउत्ता वि अणागारोवउत्ता वि / आहारो णियमा छदिसि / उववाओ तिरिय-मणुस्सेसु नेरइय देव असंखेज्जवासाउय वज्जेसु। ठिई जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं बारससंवच्छराणि / समोहया वि मरंति, असमोहया वि मरंति / कहिं गच्छति ? नेरइय-देव-असंखेज्जवासाउयवज्जेसु गच्छंति, दुगतिया, दुआगतिया, परित्ता असंखेज्जा, से तं बेइंदिया। [28] द्वीन्द्रिय जीव क्या हैं ? द्वीन्द्रिय जीव अनेक प्रकार के कहे गये हैं, यथा-पुलाकृमिक यावत् समुद्रलिक्षा / और भी अन्य इसी प्रकार के द्वीन्द्रिय जीव / ये संक्षेप से दो प्रकार के हैं--पर्याप्त और अपर्याप्त / Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति: द्वीन्द्रिय-वर्णन] हे भगवन् ! उन जीवों के कितने शरीर कहे गये हैं ? गौतम ! तीन शरीर कहे गये हैं, यथा-~ोदारिक, तेजस और कार्मण / हे भगवन ! उन जीवों के शरीर की अवगाहना कितनी कही गई है ? गौतम ! जघन्य से अंगूल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट से बारह योजन की अवगाहना है / उन जीवों के सेवार्तसंहनन और हुंडसंस्थान होता है। उनके चार कषाय, चार संज्ञाएं, तीन लेश्याएँ और दो इन्द्रियाँ होती हैं। उनके तीन समुद्घात होते हैं---वेदना, कषाय और मारणांतिक / ये जीव संज्ञी नहीं हैं, असंज्ञी हैं। नपुंसकवेद वाले हैं। इनके पांच पर्याप्तियाँ और पांच अपर्याप्तियाँ होती हैं / ये सम्यग्दृष्टि भी होते हैं और मिथ्यादृष्टि भी होते हैं, लेकिन सम्यगमिथ्यादृष्टि (मिश्रदृष्टि) नहीं होते हैं। ये अवधिदर्शन वाले नहीं होते हैं, चक्षुदर्शन वाले नहीं होते हैं, अचक्षुदर्शन वाले होते हैं, केवलदर्शन वाले नहीं होते / हे भगवन् ! वे जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी ? गौतम ! ज्ञानी भी हैं, अज्ञानी भी हैं। जो ज्ञानी हैं वे नियम से दो ज्ञान वाले हैं-मतिज्ञानी और श्रुतज्ञानी / जो अज्ञानी हैं वे नियम से दो अज्ञान वाले हैं-मति-अज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी / ये जीव मनोयोग वाले नहीं हैं, वचनयोग और काययोग वाले हैं। ये जीव साकार-उपयोग वाले भी हैं और अनाकार-उपयोग वाले भी हैं / इन जीवों का आहार नियम से छह दिशाओं के पुद्गलों का है। इनका उपपात (अन्य जन्म से आकर उत्पत्ति) नरयिक, देव और असंख्यात वर्ष की आयुवालों को छोड़कर शेष तिर्यंच और मनुष्यों से होता है / इनकी स्थिति जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से बारह वर्ष की है। ये मारणांतिक समुद्घात से समवहत होकर भी मरते हैं और असमवहत होकर भी मरते हैं / हे भगवन् ! ये मरकर कहां जाते हैं ? गौतम ! नैरयिक, देव और असंख्यात वर्ष की आयुवाले तियंचों मनुष्यों को छोड़कर शेष तिर्यंचों मनुष्यों में जाते हैं / अतएव ये जीव दो गति में जाते हैं, दो गति से आते हैं, प्रत्येकशरीरी हैं और असंख्यात हैं। यह द्वीन्द्रिय जीवों का वर्णन हुआ। विवेचन---द्वीन्द्रिय जीवों के प्रकार बताते हुए सूत्रकार ने पुलाकृमि यावत् समुद्रलिक्षा कहा है / यावत् शब्द से यहाँ वे सब जीव-प्रकार ग्रहण करने चाहिए जो प्रज्ञापनासूत्र के द्वीन्द्रियाधिकार में बताये गये हैं। परिपूर्ण प्रकार इस प्रकार हैंपुलाकृमि-मल द्वार में पैदा होने वाले कृमि / / कुक्षिकृमि-कुक्षि (उदर) में उत्पन्न होने वाले कृमि / गण्डोयलक-गिंडोला / Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72] [जीवाजीवाभिगमसूत्र गोलोम, नुपूर, सौमंगलक, वंशीमुख, सूचिमुख, गोजलौका, जलौका (जोंक), जालायुष्क, ये सब लोकपरम्परानुसार जानने चाहिए। शंख-समुद्र में उत्पन्न होने वाले शंख। शंखनक समुद्र में उत्पन्न होने वाले छोटे-छोटे शंख। घुल्ला-घोंघा / खुल्ला-समुद्री शंख के आकार के छोटे शंख / वराटा--कौडियां / सौत्रिक, मौलिक, कल्लुयावास, एकावर्त, द्वि-प्रवर्त, नन्दिकावर्त, शम्बूक, मातृवाह, ये सब विविध प्रकार के शंख समझने चाहिए। सिप्पिसंपुट-सोपड़ियाँ / चन्दनक-अक्ष (पांसा) / समुद्रलिक्षा-कृमिविशेष / ये सब तथा अन्य इसी प्रकार के मृतकलेवर में उत्पन्न होने वाले कृमि आदि द्वीन्द्रिय समझने चाहिए। ये द्वीन्द्रिय जीव पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से दो प्रकार शरीरादि 23 द्वारों की विचारणा इस प्रकार जाननी चाहिएशरीरद्वार-इनके तीन शरीर होते हैं औदारिक, तैजस एवं कार्मण / अवगाहनाद्वार-इन जीवों की शरीर-अवगाहना जघन्य से अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण और उत्कृष्ट से बारह योजन की होती है / संहननद्वार-इन जीवों के छेदवति–सेवातं संहनन होता है। यहाँ मुख्य संहनन ग्रहण करना चाहिए, औपचारिक नहीं। क्योंकि इन जीवों के अस्थियां होती हैं। संस्थानद्वार-इन जीवों के हंडसंस्थान होता है / कषायद्वार-इनमें चारों कषाय पाये जाते हैं। संज्ञाद्वार-इनमें चारों आहारादि संज्ञाएँ होती हैं। लेण्याद्वार--इन जीवों में प्रारम्भ की कृष्ण, नील, कापोत, ये तीन लेश्याएँ पायी जाती हैं। इन्द्रियद्वार-इनके स्पर्शन और रसन रूप दो इन्द्रियाँ हैं / समुद्घातद्वार-इनमें तीन समुद्घात पाये जाते हैं—वेदना, कषाय और मारणांतिक समुद्घात / संज्ञाद्वार--ये जीव संज्ञी नहीं होते / असंज्ञी होते हैं / वेदद्वार-ये जीव नपुंसकवेद वाले होते हैं। ये सम्मूछिम होते हैं और जो संमूछिम होते हैं वे नपुंसक ही होते हैं / तत्त्वार्थसूत्र में कहा है-नारक और संमूछिम नपुंसकवेदी होते हैं।' पर्याप्तिद्वार-इन जीवों के पांच पर्याप्तियाँ पर्याप्त जीवों की अपेक्षा होती हैं और पांच अपर्याप्तियाँ अपर्याप्त जीवों की अपेक्षा होती हैं / दृष्टिद्वार-ये जीव सम्यग्दृष्टि भी होते हैं और मिथ्यादृष्टि भी होते हैं, लेकिन मिश्रदृष्टि वाले नहीं होते। इसकी स्पष्टता इस प्रकार है१. नारकसमूच्छिनो नपुंसकानि / --तत्त्वार्थ सू. प्र. 2 सू. 50 Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति: हीन्द्रिय का वर्णन] [73 जिस प्रकार घण्टा को बजाये जाने पर महान् शब्द होता है और वह शब्द क्रमशः होयमान, , होता हुआ लटकन तक ही रह जाता है, इसी तरह सम्यक्त्व से गिरता हुमा जीव क्रमश: गिरतागिरता सास्वादन सम्यक्त्व की स्थिति में आ जाता है और ऐसे सास्वादन सम्यक्त्व वाले कतिपय जीव मरकर द्वीन्द्रियों में भी उत्पन्न होते हैं। अतः अपर्याप्त अवस्था में थोड़े समय के लिए सास्वादन सम्यक्त्व का सम्भव होने से उनमें सम्यग्दष्टित्व पाया जाता है / शेषकाल में मिथ्यादृष्टिता है, तथा भव-स्वभाव से तथारूप परिणाम न होने से उनमें मिश्रदृष्टिता नहीं पाई जाती तथा कोई मिश्रदृष्टि वाला उनमें उत्पन्न नहीं होता। क्योंकि 'मिश्रदृष्टि वाला जीव उस स्थिति में नहीं मरता' यह प्रागम वाक्य है।' दर्शनद्वार–इनमें अचक्षुदर्शन ही पाया जाता है, चक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, केवलदर्शन नहीं। ज्ञानद्वार--ये ज्ञानी भी हैं और अज्ञानी भी हैं। सास्वादन सम्यक्त्व की अपेक्षा ज्ञानी हैं। ये ज्ञानी मतिज्ञानी और श्रुतज्ञानी है। मिथ्यादृष्टित्व की अपेक्षा अज्ञानी है। ये अज्ञानी मतिअज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी हैं। योगद्वार-ये मनोयोगी नहीं हैं। वचनयोगी और काययोगी हैं। उपयोगद्वार--ये जीव साकार-उपयोग वाले भी हैं और अनाकार-उपयोग वाले भी हैं। आहारद्वार-नियम से छहों दिशाओं के पुद्गलों का आहार ये जीव करते हैं। द्वीन्द्रियादि जीव त्रसनाडी में ही होते हैं अतएव व्याघात का प्रश्न नहीं उठता। उपपात-ये जीव देव, नारक और असंख्यात वर्षायु वाले तिर्यंचों-मनुष्यों को छोड़कर शेष तिर्यंच-मनुष्यगति से आकर पैदा होते हैं। स्थिति-उन जीवों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट बारह वर्ष की है / समवहतद्वार-ये समवहत होकर भी मरते हैं और असमवहत होकर भी मरते हैं। च्यवनद्वार-ये जीव मरकर देव, नारक और असंख्यात वर्षों की प्रायुवाले तिर्यचों-मनुष्यों को छोड़कर शेष तिर्यंच मनुष्य में उत्पन्न होते हैं / गति-आगतिद्वार-ये जीव पूर्ववत् दो गति में जाते हैं और दो गति से आते हैं। ये जीव प्रत्येकशरीरी हैं और असंख्यात हैं। घनीकृत लोक के ऊपर-नीचे तक दीर्घ एक प्रदेश वाली श्रेणी में जितने आकाशप्रदेश हैं, उतने ये द्वीन्द्रियजीव हैं। असंख्यात का यह प्रमाण बताया गया है / क्योंकि प्रसंख्यात भी असंख्यात प्रकार का है। ___ इन द्वीन्द्रिय-पर्याप्त अपर्याप्त की सात लाख जाति कुलकोडी, योनिप्रमुख होते हैं। पूर्वाचार्यों के अनुसार जातिपद से तियंचगति समझनी चाहिए। उसके कुल हैं-कृमि, कीट, वृश्चिक आदि। ये कुल योनि-प्रमुख होते हैं अर्थात् एक ही योनि में अनेक कुल होते हैं / जैसे एक ही गोबर या कण्डे , की योनि में कृमिकृत, कीट और वृश्चिककुल आदि होते हैं / इसी प्रकार एक ही योनि में 1. 'न सम्ममिच्छो कुणइ कालं' इति वचनात् / Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जीवाजीकाभिगमसूत्र अवान्तर जातिभेद होने से अनेक जातिकुल के योनि प्रवाह होते हैं / द्वीन्द्रियों के सात लाख जातिकुल कोटिरूप योनियां हैं। यह द्वीन्द्रियों का वर्णन हुआ। त्रीन्द्रियों का वर्णन 29. से कि तं तेइंदिया? तेइंदिया अणेगविहा पण्णत्ता, संजहा-- ओवइया, रोहिणीया, हस्थिसोंडा, जे यावण्णे तहप्पगारा। ते समासओ दुविहा पण्णता, तंजहापज्जत्ता य अपज्जसा य / तहेव जहा बेइंबियाणं णवरं सरीरोगाहणा उक्कोसेणं तिनि गाउयाई, तिन्नि इंदिया, ठिई जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं एगणपण्णराइंदिया, सेसं तहेव दुगतिआ, दुआगतिया, परित्ता असंखेज्जा पण्णता, से तं तेइंदिया। [29] त्रीन्द्रिय जीव कौन हैं ? त्रीन्द्रिय जीव अनेक प्रकार के कहे गये हैं, यथाप्रोपयिक, रोहिणीक, यावत् हस्तिशीण्ड और अन्य भी इसी प्रकार के श्रीन्द्रिय जीव / ये संक्षेप से दो प्रकार के हैं -पर्याप्त और अपर्याप्त / इसी तरह वह सब कथन करना चाहिए जो द्वीन्द्रियों के लिए कहा गया है। विशेषता यह है कि श्रीन्द्रिय जीवों की उत्कृष्ट, शरीरावगाहना तीन कोस की है, उनके तीन इन्द्रियां हैं, जघन्य अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्ट उनपचास रात-दिन की स्थिति है / और सब वैसे ही कहना चाहिए यावत् वे दो गतिवाले, दो प्रागतिवाले, प्रत्येकशरीरी और असंख्यात कहे गये हैं / यह त्रीन्द्रियों का कथन हुआ। विवेचन–स्पर्शन, रसन और घ्राण-ये तीन इन्द्रियाँ जिन जीवों को होती हैं वे त्रीन्द्रिय जीव हैं। उनके कई प्रकार हैं / प्रज्ञापनासूत्र में उनके भेद इस प्रकार गिनाये गये हैं औपयिक, रोहिणीक, कंथु (कथा), पिपीलिका (चींटी), उद्देशक, उद्देहिका, (उदई-दीमक), उत्कलिक, उत्पाद, उत्कट, तृणाहार, काष्ठाहार (धुन), मालुक, पत्राहार, तृणवृन्तिक, पत्रवृन्तिक, पुष्पवृन्तिक, फलवृन्तिक, बीजवृन्तिक, तेंदुरणमज्जिक, त्रपुषभिजिक, कापस स्थिभिजक, हिल्लिक, झिल्लिक, झिगिर (झींगूर), किगिरिट, बाहुक, लघुक, सुभग, सौवस्तिक, शुकवृत्त, इन्द्रकायिक, इन्द्रगोपक (इन्द्रगोप-रेशमी कीड़ा), उरुलंचक, कुस्थलवाहक, यूका (जू), हालाहल, पिशुक (पिस्सू या खटमल), शतपादिका (गजाई), गोम्ही (कानखजूरा) और हस्तिशौण्ड / उक्त श्रीन्द्रिय जीवों के प्रकारों में कुछ तो प्रसिद्ध हैं ही। शेष देशविशेष या सम्प्रदाय से जानने चाहिए। ये त्रीन्द्रिय जीव पर्याप्त-अपर्याप्त के भेद से दो प्रकार के हैं इत्यादि सब कथन पूर्वोक्त Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति : चतुरिन्द्रियों का कथन] [75 द्वीन्द्रिय जीवों के समान जानना चाहिए / तेवीस द्वारों में भी बही कथन करना चाहिए केवल जो अन्तर है वह इस प्रकार है शरीर की अवगाहना-श्रीन्द्रियों की शरीर की अवगाहना उत्कृष्ट तीन कोस की है। . इन्द्रियद्वार-इन जीवों के तीन इन्द्रियाँ होती है। स्थितिद्वार–इनकी स्थिति जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट उनपचास रात-दिन की है। शेष वही कथन करना चाहिए यावत् वे दो गति और दो प्रागति वाले हैं, प्रत्येकशरीरी हैं और असंख्यात हैं / इनकी आठ लाख कुलकोडी हैं / यह त्रीन्द्रियों का कथन हुआ। चतुरिन्द्रियों का कथन 30. से कि तं घरिदिआ? चरिदिया अगविहा पण्णत्ता, तंजहाअंधिया, पुत्तिया जाव गोमयकोडा, जे यावन्ने तहप्पगारा, ते समासओ दुविहा पण्णता, तंजहा-पज्जत्ता य अपज्जता य / तेसि णं भंते ! जीवाणं कतिसरीरमा पग्णत्ता? गोयमा! तओ सरीरगा पण्णत्ता-तं चेव, णवरं सरीरोगाहणा उक्कोसेणं चत्तारि गाउयाई, इंदिआ चत्तारि, चक्नुवंसणी, अचक्खुवंसणी, ठिई उक्कोसेण छम्मासा / सेस महा तेइंबियाणं जाप असंखेज्जा पण्णता / से तं चरिदिया। [30] चतुरिन्द्रिय जीव कौन हैं ? चतुरिन्द्रिय जीव अनेक प्रकार के कहे गये हैं-यथा अंधिक, पुत्रिक यावत् गोमयकीट, और इसी प्रकार के अन्य जीव / ये संक्षेप से दो प्रकार के हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त / हे भगवन् ! उन जीवों के कितने शरीर कहे गये हैं ? गौतम ! तीन शरीर कहे गये हैं। इस प्रकार पूर्ववत कथन करना चाहिए / विशेषता यह है कि उनकी उत्कृष्ट शरीर-अवगाहना चार कोस की है, उनके चार इन्द्रियाँ हैं, वे चक्षुदर्शनी और अचक्षुदर्शनी हैं. उनकी स्थिति उत्कृष्ट छह मास की है / शेष कथन त्रीन्द्रिय जीवों की तरह नाम्ना चाहिए यावत् वे असंख्यात कहे गये हैं / यह चतुरिन्द्रियों का कथन हुआ। विवेचन-प्रज्ञापनासूत्र में चतुरिन्द्रिय जीवों के भेद इस प्रकार बताये गये हैं- . अंधिक, पौत्रिक (नेत्रिक), मक्खी, मशक (मच्छर), कीट (टिड्डी), पतंग, डिंकुण, कुक्कुड, कुक्कुह, नंदावर्त, गिरिट, कृष्णपत्र, नीलपत्र, लोहितपत्र, हरितपत्र, शुक्लपत्र, चित्रपक्ष, विचित्रपक्ष, Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 76] [जीवाजीवाभिगमसूत्र प्रोभंजलिका, जलचारिक, गंभीर, नीनिक, तंतव, अक्षिरोट, अक्षिवेध, सारंग, नेवल, दोला, भ्रमर, भरिली, जरुला, तोट्ट, बिच्छू, पत्रवृश्चिक, छाणवृश्चिक, जलवृश्चिक, प्रियंगाल, कनक और गोमयकीट / इसी प्रकार के अन्य प्राणियों को चतुरिन्द्रिय जानना चाहिए। इनके पर्याप्त और अपर्याप्त-दो भेद हैं इत्यादि सब वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए / तेवीस द्वारों की विचारणा भी त्रीन्द्रिय जीवों की तरह समझना चाहिए / जो अन्तर है वह इस प्रकार है-- अवगाहनाद्वार-इनकी अवगाहना उत्कृष्ट चार कोस को है। इन्द्रियद्वार-इनके चार इन्द्रियाँ होती हैं। दर्शनद्वार-ये चक्षुदर्शन और प्रचक्षुदर्शन वाले हैं। स्थितिद्वार-इनकी उत्कृष्ट स्थिति छह मास की है। शेष सब कथन त्रीन्द्रियों की तरह जानना चाहिए यावत् ये चतुरिन्द्रिय जीव असंख्यात कहे गये हैं। पंचेन्द्रियों का कथन 31. से कि तं पंचेंदिया? पंचेंदिया चउग्विहा पण्णत्ता, तंजहा रइया, तिरिक्खजोणिया, मणुस्सा, देवा। - [31] पंचेन्द्रिय का स्वरूप क्या है ? पंचेन्द्रिय चार प्रकार के कहे गये हैं, यथा-नैरयिक, तिर्यंचयोनिक, मनुष्य और देव / विवेचन-निकल गया है इष्टफल जिनमें से वे निरय' हैं अर्थात् नरकावास हैं। उनमें उत्पन्न होने वाले जीव नैरयिक हैं / प्राय: तिर्यक्लोक की योनियों में उत्पन्न होने वाले तिर्यक्योनिक या तिर्यक्योनिज हैं। __'मनु' यह मनुष्य की संज्ञा है / मनु की सन्तान मनुष्य हैं / जो सदा सुखोपभोग करते हैं, सुख में रमण करते हैं, वे देव हैं। नरयिक-वर्णन 32. से किं तं नेरइया। नेरइया सत्तविहा पण्णता, तंजहा–रयणप्पमापुढविनेरइया जाय अहेसत्तमपुढविनेरइया। ते समासमो दुविहा पण्णत्ता, तंजहा–पज्जत्ता य अपज्जत्ता य / 1. तत्र प्रयम्-इष्टफलं कर्म, निर्गतं अयं येभ्यस्तेनिरया नरकावासाः / -वृत्ति / 2. प्रायः तिर्यग्लोके योनयः उत्पत्तिस्थानानि येषां ते तिर्यग्योनिकाः / / 53. मनुरिति मनुष्यस्य संज्ञा। मनोरपत्यानि मनुष्याः। ... ... 4. दीव्यन्तीति देवाः / मलयवृत्ति Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति :नैरयिक-वर्णन तेसिणं भंते ! जीवाणं कति सरीरमा पग्णता? गोयमा! तो सरीरया पण्णता, तंजहा-वेउब्धिए, तेयए, कम्मए / तेसि णं भंते ! जीवाणं केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णता? गोयमा! दुविहा सरीरोगाहणा पण्णत्ता, तंजहाभवधारणिज्जा य उत्तरवेउम्विया य / तत्य णं जा सा भवधारणिज्जा सा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जो भागो, उक्कोसेणं पंचषणसयाई। तत्थ णं जा सा उत्तरवेश्यिया सा जहण्णणं अंगुलस्स संखेज्जइभागं उक्कोसेणं घणुसहस्सं। तेसि णं भंते ! जीवाणं सरीरा किसंघयणा पण्णता? गोयमा ! छण्हं संघयणाणं असंघयणी; गेवट्ठी, व छिरा, व हारु, व संघयणमत्यि, जे पोग्गला अणिट्ठा अकता, अप्पिया, मसुभा, प्रमणुण्णा अमणामा ते तेसि संघातत्ताए परिणमंति ? तेसिणं भंते ! जीवाणं सरीरा किसंठिया पण्णता? गोयमा ! दुविहा पण्णता, तंजहा-भवधारणिज्जा य उत्तरवेउम्विया य / तत्थ णं जे ते भवधारणिज्जा ते हुंडसंठिया। तत्थ णं जे ते उत्तरवेउम्विया ते वि हुंडसंठिया पणत्ता। चतारि कसाया, चत्तारि सण्णाओ, तिणि लेसाओ, पंचिदिया,चत्तारि समुग्धाता आइल्ला,सन्त्री वि, असन्नी वि / नपुंसकदेदा, छ पज्जत्तीओ, छ अपज्जत्तीओ, तिविहा विट्ठी, तिण्णि वंसणा, गाणी वि अण्णाणी वि, जे णाणी ते णियमा तिनाणी, तंजहा–आभिणिबोहियणाणी, सुयणाणी, ओहिनाणी। जे अण्णाणी ते अस्थेगइया दु-अण्णाणी, अस्थगइया ति-अण्णाणी। जे य दुअण्णाणी ते णियमा मइअण्णाणी सुयअण्णाणी य। जे ति अण्णाणी ते नियमा मतिअण्णाणी य सुयअण्णाणी य विभंगणाणी य / तिविहे जोगे, दुविहे उवओगे, छद्दिसि आहारो, प्रोसन्नं कारणं पड़च्च वण्णमओ कालाइं जाव आहारमाहरेंति; उववानो तिरिय-मणस्सेहितो, ठिती जहन्नेणं वसवाससहस्साई, उक्कोसेण तित्तीसं सागरोवमाइं / दुविहा मरंति, उवट्टणा भागियव्वा जतो आगता, गवरि संमुच्छिमेसु पडिसिद्धो, दुगतिया, दुआगतिया परित्ता असंखेज्जा पण्णता समणाउसो! से तं नेरइया। [32] नैरयिक जीवों का स्वरूप कैसा है ? नैरयिक जीव सात प्रकार के हैं, यथा रत्नप्रभापृथ्वी-नैरयिक यावत् अधःसप्तमपृथ्वीनैरयिक / ये नारक जीव दो प्रकार के हैं पर्याप्त और अपर्याप्त / भगवन् ! उन जीवों के कितने शरीर कहे गये हैं ? गौतम ! तीन शरीर कहे गये हैं-वक्रिय, तैजस और कार्मण / भगवन् ! उन जीवों के शरीर की अंवगाहना कितनी है ? .... . गौतम ! उनकी शरीरावगाहना दो प्रकार की है, यथा अवधारणीय और उत्तरवैक्रिय / Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जीवाजीवामिगमसूत्र इसमें से जो भवधारणीय अवगाहना है वह जघन्य से अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट से पांच सौ धनुष / जो उत्तरवैक्रिय शरीरावगाहना है वह जघन्य से अंगुल का संख्यातवां भाग और उत्कृष्ट एक हजार योजन की है। भगवन् ! उन जीवों के शरीर का संहनन कैसा है ? गौतम ! छह प्रकार के संहननों में से एक भी संहनन उनके नहीं है क्योंकि उनके शरीर में व तो हड्डी है, न नाडी है, न स्नायु है। जो पुद्गल अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अशुभ, अमनोज्ञ और अमनाम होते हैं, वे उनके शरीररूप में इकट्ठे हो जाते हैं। भगवन ! उन जीवों के शरीर का संस्थान कौनसा है ? गौतम ! उनके शरीर दो प्रकार के हैं-भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय / जो भवधारणीय शरीर हैं वे हुंड संस्थान के हैं और जो उत्तरवैक्रिय शरीर हैं वे भी हुंड संस्थान वाले हैं। उन नैरयिक जीवों के चार कषाय, चार संज्ञाएँ, तीन लेश्याएँ, पांच इन्द्रियां, प्रारम्भ के चार समुद्घात होते हैं / वे जीव संज्ञी भी हैं, असंज्ञी भी हैं / वे नपुंसक वेद वाले हैं। उनके छह पर्याप्तियाँ और छह अपर्याप्तियाँ होती हैं / वे तीन दृष्टि वाले और तीन दर्शन वाले हैं / वे ज्ञानी भी हैं और अज्ञानी भी हैं / जो ज्ञानी हैं वे नियम से तीन ज्ञान वाले हैं–भतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी / जो अज्ञानी हैं उनमें से कोई दो अज्ञान वाले और कोई तीन प्रज्ञान वाले हैं। जो दो अज्ञान वाले हैं वे नियम से मतिअज्ञानी और श्रुतअज्ञानी हैं और जो तीन अज्ञान वाले हैं वे नियम से मतिअज्ञानी, श्रुतअज्ञानी और विभंगज्ञानी हैं। उनमें तीन योग, दो उपयोग एवं छह दिशाओं का आहार ग्रहण पाया जाता है / प्रायः करके वे वर्ण से काले प्रादि पुद्गलों का प्राहार ग्रहण करते हैं / तियंच और मनुष्यों से पाकर वे नरयिक रूप में उत्पन्न होते हैं। उनकी स्थिति जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की है। वे दोनों प्रकार से (समवहत और असमवहत) मरते हैं / वे मरकर गर्भज तिर्यंच एवं मनुष्य में जाते हैंसंमूछिमों में वे नहीं जाते, अतः हे आयुष्मन् श्रमण ! वे दो गति वाले, दो आगति वाले, प्रत्येक शरीरी और असंख्यात कहे गये हैं / यह नैरयिकों का कथन हुआ। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में नैरयिकों के प्रकार बताकर तेवीस द्वारों के द्वारा उनका निरूपण किया गया है। नरयिक जीव सात प्रकार के हैं-१. रत्नप्रभापृथ्वी-नरयिक, 2. शर्कराप्रभापृथ्वीनैरयिक, 3. वालुकाप्रभा-नैरयिक, 4. पंकप्रभापृथ्वी-नैरयिक, 5. धूमप्रभापृथ्वी-नैरयिक 6. तमःप्रभापृथ्वी-नैरयिक और 7. अधःसप्तमपृथ्वी-नैरयिक / ये नैरयिक जीव संक्षेप से दो प्रकार के हैं पर्याप्त और अपर्याप्त / इनके शरीरादि द्वारों की विचारणा इस प्रकार है शरीरद्वार-नरयिकजीवों में औदारिकशरीर नहीं होता। भवस्वभाव से ही उनका शरीर वैकिय होता है / अत: वैक्रिय, तैजस और कार्मण-ये तीन शरीर उनमें पाये जाते हैं। __ अवगाहना उनकी अवगाहना दो प्रकार की है-भवधारणीय और उत्तरवैक्रियिकी। जो जन्म से होती है वह भवधारणीय है और जो भवान्तर के वैरी नारक के प्रतिघात के लिए बाद में विचित्र रूप में बनाई जाती है वह उत्तरवैक्रियिकी है। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [79 प्रथम प्रतिपत्ति : नरयिक-वर्णन] नारकियों की भवधारणीय अवगाहना तो जघन्य से अंगुल का असंख्यातवां भाग है जो जन्मकाल में होती है। उत्कृष्ट अवगाहना 500 धनुष की है। यह उत्कृष्ट प्रमाण सातवीं पृथ्वी की अपेक्षा से है। इनकी उत्तरवैक्रियिकी अवगाहना जघन्य से अंगुल का संख्यातवां भाग और उत्कृष्ट से हजार धनुष की है। यह उत्कृष्ट प्रमाण सातवीं नरकभूमि की अपेक्षा से है। अलग-अलग नैरयिकों की भवधारणीय और उत्तरवैक्रियिकी उत्कृष्ट अवगाहना इस कोष्टक से जाननी चाहिएपृथ्वी का नाम भवधारणीय अवगाहना उत्तरवैक्रियिकी अव. (1) रत्नप्रभा..." 7 / / / धनुष 6 अंगुल 15 // धनुष 12 अंगुल (2) शर्कराप्रभा........ 15 // धनुष 12 अंगुल ३१धनुष (3) बालुकाप्रभा ........ 31 / धनुष 62 / / धनुष (4) पंकप्रभा'..... 62 / / धनुष 125 धनुष (5) धूमप्रभा...... 125 धनुष 250 धनुष (6) तमःप्रभा....... 250 धनुष 500 धनुष (7) अधःसप्तमपृथ्वी 500 धनुष 1000 धनुष संहननद्वार-नारक जीवों के शरीर संहनन वाले नहीं होते। छह प्रकार के सहननों में से कोई भी संहनन उनके नहीं होता, क्योंकि उनके शरीरों में न तो शिराएँ (धमनी नाड़ियाँ) होती हैं और न स्नायु (छोटी नाड़ियाँ), उनके शरीर में हड्डियां नहीं होती। संहनन की परिभाषा हैअस्थियों का निचय होना / जब नैरयिकों के शरीर में अस्थियां हैं ही नहीं तो संहनन का सवाल ही नहीं उठता। यहाँ यह शंका की जा सकती है कि पहले एकेन्द्रिय जीवों में सेवार्त संहनन बताया गया है, किन्तु उनके भी अस्थियां नहीं होती हैं ? इसका समाधान यह है कि एकेन्द्रियों के औदारिक शरीर होता है और उस शरीर के सम्बन्ध मात्र की अपेक्षा से औपचारिक सेवार्तसंहनन कहा है / वास्तव में तो अस्थिनिचयात्मक ही संहनन है। प्रज्ञापना आदि में देवों को वनसंहनन वाले कहा गया है सो वह भी गौणरूप से और उपचारमात्र से कहा गया है। देवों में पर्वतादि को उखाड़ने की शक्ति है, उन्हें इस कार्य में जरा भी शारीरिक श्रम या थकावट नहीं होती, इस दृष्टि से उन्हें वज्रसंहननी कहा गया है / वस्तु-दृष्टि से तो वे असंहननी ही है। कोई यह शंका कर सकता है कि 'शक्तिविशेष को संहनन कहते हैं। इस परिभाषा के अनुसार देवों में मुख्य रूप से संहनन मानना घटित हो सकता है। यह शंका सिद्धान्तबाधित है, क्योंकि इसी सूत्र में संहनन की परिभाषा 'अस्थिनिचयात्म' की गई है और स्पष्ट कहा गया है कि अस्थियों के अभाव में नरयिकों में छह संहननों में से कोई संहनन नहीं होता। पुनः शंका हो सकती है कि, यदि नारकियों के संहनन नहीं हैं तो उनके शरीरों का बन्ध कैसे घटित होगा? इसका समाधान करते हुए सूत्रकार कहते हैं कि- तथाविध पुद्गलस्कन्धों की तरह उनके शरीर का बन्ध हो जाता है। जो पुद्गल अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अशुभ, अमनोज्ञ और अमनाम होते हैं वे उन नैरयिकों के शरीर के रूप में परिणत हो जाते हैं। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80] जीवाज़ीवाभिगमसूत्र वृत्तिकार ने अनिष्ट आदि पदों का अर्थ इस प्रकार दिया हैअनिष्ट-जिसकी इच्छा ही न की जाय, प्रकान्त अकमनीय, जो सुहावने न हों, अत्यन्त अशुभ वर्णादि वाले, अप्रिय--जो दिखते ही अरुचि उत्पन्न करें, अशुभ-खराब वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श वाले, अमनोज्ञ-जो मन में प्राह्लाद उत्पन्न नहीं करते क्योंकि विपाक दुःखजनक होता है, अमनाम-जिनके प्रति रुचि उत्पन्न न हो। संस्थानद्वार-नारकों के भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय-दोनों प्रकार के शरीर हुण्डसंस्थान वाले हैं। तथाविध भवस्वभाव से नारकों के शरीर जड़मूल से उखाड़े गये पंख और ग्रीवा आदि अवयव वाले रोम-पक्षी की तरह अत्यन्त वीभत्स होते हैं। उत्तरविक्रिया करते हुए नारक चाहते हैं कि वे शुभ-शरीर बनायें किन्तु तथाविध अत्यन्त अशुभ नामकर्म के उदय से अत्यन्त अशुभ शरीर ही बना पाते हैं अतः वह भी हुण्डसंस्थान वाला ही होता है / कषायद्वार–नारकों में चारों ही कषाय होते हैं। संज्ञाद्वार-नारकों में चारों ही संज्ञाएँ पायी जाती हैं। लेण्याद्वार-नारकों में शुरू की तीन अशुभ लेश्याएं कृष्ण, नील और कापोत पाई जाती हैं। पहली और दूसरी नरक-भूमि में कापोतलेश्या, तीसरी नरक के कुछ नरकावासों में कापोतलेश्या और शेष में नीललेश्या; चौथी नरक में नीललेश्या, पांचवीं के कुछ नरकावासों में नीललेश्या और शेष में कृष्णलेश्या; छठी में कृष्णलेश्या और सातवीं नरक में परम कृष्णलेश्या पाई जाती है / भगवतीसूत्र में कहा है-'पादि के दो नरकों में कापोतलेश्या, तीसरी में मिश्र (कापोतनील), चौथी में नील, पांचवीं में मिश्र (नील-कृष्ण), छठी में कृष्ण और सातवीं में परम कृष्णलेश्या होती है।" इन्द्रियद्वार-रयिकों के स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्ष, श्रोत्र ये पांच इन्द्रियां होती हैं। समुद्घातद्वार-इनके चार समुद्घात होते हैं-वेदना, कषाय, वैकिय और मारणान्तिक / संज्ञीद्वार-ये नारकी जीव संज्ञी भी होते हैं और असंज्ञी भी होते हैं। जो गर्भव्युत्क्रान्तिक (गर्भज) मर कर नारकी होते हैं वे संज्ञी कहे जाते हैं और जो संमूछिमों से आकर उत्पन्न होते हैं, वे असंज्ञी कहलाते हैं / ये रत्नप्रभा में ही उत्पन्न होते हैं, आगे के नरकों में नहीं / क्योंकि अविचारपूर्वक जो अशुभ क्रिया की जाती है उसका इतना ही फल होता है। कहा है कि असंज्ञी जीव पहली नरक तक, सरीसृप दूसरी नरक तक, पक्षी तीसरी नरक तक, सिंह चौथी नरक तक, उरग (सर्पादि) पांचवीं नरक तक, स्त्री छठी नरक तक और मनुष्य एवं मच्छ सातवीं नरक तक उत्पन्न होते हैं।' 1. काऊ य दोसु तइयाए मीसिया नीलिया चउत्थिए / पंचमियाए मीसा, कण्हा तत्तो परमकण्हा // --भगवतीसूत्र 2. प्रसन्नी खलु पढमं दोच्चं व सिरीसवा तइय पक्खी। सीहा जति चउत्थि उरगा पुण पंचमि पुढवि / / छट्टि व इत्थियात्रो मच्छा भणूया य सत्तमि पुढदि। एसो परमोवानो बोद्धब्बो नरयपुढवीसु // Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति :तिर्यक् पंचेन्द्रियों का वर्णन] वेदद्वार-नारक जीव नपुंसक ही होते हैं। पर्याप्तिद्वार-इनमें छह पर्याप्तियाँ और छह अपर्याप्तियाँ होती हैं। भाषा और मन की एकत्व विवक्षा से वृत्तिकार ने पांच पर्याप्तियां और पांच अपर्याप्तियाँ कही हैं। दृष्टिद्वार-नारक जीव तीनों दृष्टि वाले होते हैं-१. मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि और मिश्रदृष्टि / दर्शनद्वार-इनमें चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शन यों तीन दर्शन पाये जाते हैं। ज्ञानद्वार—ये ज्ञानी भी होते हैं और अज्ञानी भी। जो ज्ञानी हैं वे नियम से मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी हैं। जो अज्ञानी हैं वे मति-अज्ञानी, श्रुल-अज्ञानी और विभंगज्ञानी होते हैं। भावार्थ यह समझना चाहिए कि जो नारक असंज्ञो हैं वे अपर्याप्त अवस्था में दो अज्ञान वाले और पर्याप्त अवस्था में तीन अज्ञान वाले होते हैं। संज्ञी नारक दोनों ही अवस्था में तीन अज्ञान वाले होते हैं / असंज्ञी से उत्पद्यमान नारकों में अपर्याप्त अवस्था में बोध की मन्दता होने से अव्यक्त अवधि भी नहीं होता। योगद्वार-नारकों में मनोयोग, वाग्योग और काययोग, तीन योग होते हैं। उपयोग-नारक साकार और अनाकार दोनों उपयोगवाले हैं। आहारद्वार-नारक जीव लोक के निष्कुट (किनारे) में नहीं होते, मध्य में होते हैं अतः उनके व्याघात नहीं होता। अतः छहों दिशाओं के पुद्गलों को ग्रहण करते हैं और प्रायः करके अशुभ वर्ण, गंध, रस और स्पर्श वाले पदगलों को ग्रहण करते हैं। उपपातद्वार-नारक जीव असंख्यात वर्ष की आयु वाले तिर्यंचों और मनुष्यों को छोड़कर शेष पर्याप्त पंचेन्द्रिय तिर्यंचों और मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं / शेष जीवस्थानों से नहीं। स्थितिद्वार-नारकों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम है / जघन्य स्थिति प्रथम नरक की अपेक्षा और उत्कृष्ट स्थिति सातवीं नरक की अपेक्षा से समझनी चाहिए। समवहतद्वार-नारक जीव मारणान्तिक समुद्धात से समवहत होकर भी मरते हैं और असमवहत होकर भी मरते हैं। उद्वर्तनाद्वार--नारक पर्याय से निकल कर नारक जीव असंख्यात वर्षायु वाले तिर्यंचों और मनुष्यों को छोड़कर संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचों और मनुष्यों में ही उत्पन्न होते हैं / संमूछिम मनुष्यों में उत्पन्न नहीं होते / गति-प्रागतिद्वार-नारक जीव मरकर तिर्यंचों और मनुष्यों में ही जाते हैं, इसलिए दो गति वाले और तिर्यंचों मनुष्यों से ही प्राकर उत्पन्न होते हैं, इसलिए दो आगति वाले हैं / हे आयुष्मन् श्रमण ! ये नारक जीव प्रत्येकशरीरी हैं और असंख्यात हैं। यह नैरयिकों का वर्णन हुआ। . तिर्यक् पंचेन्द्रियों का वर्णन 33. से किं तं पंचेवियतिरिक्खजोणिया ? पंचेंदियतिरिक्खजोणिया दुविहा पण्णता, Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82] [जीवाजीवाभिगमसूत्र तंजहा-समुच्छिम पंचेंद्रियतिरिक्खजोणिया य गम्भवक्कंतिय पंचेंदियतिरिक्खजोणिया य / [33] पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक कौन हैं ? पंचेन्द्रिय तियंचयोनिक दो प्रकार के कहे गये हैं / यथा-- (1) संमूछिम पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक और (2) गर्भव्युत्क्रान्तिक पंचेन्द्रिय तियंचयोनिक / 34. से कि तं समुच्छिम पंचेदियतिरिक्खजोणिया ? समुच्छिम पंचेंदिय तिरिक्खजोगिया तिविहा पण्णता, तंजहाजलयरा, थलयरा, खहयरा। [34] संमूछिम पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक कौन हैं ? संमूछिम पंचेन्द्रिय तियंचयोनिक तीन प्रकार के हैं-- जलचर, स्थलचर और खेचर / जलचरों का वर्णन 35. से कितं जलयरा? जलयरा पंचविहा पण्णत्ता, संजहामच्छगा, कच्छभा, मगरा, गाहा, सुंसुमारा। से कितं मच्छा? एवं जहा पण्णवणाए जाव से यावणे तहप्पगारा / ते समासओ दुविहा पण्णता, तंजहापज्जत्ता य अपज्जत्ता य। तेसि णं भंते ! जीवाणं कतिसरीरगा पण्णत्ता ? गोयमा ! तो सरीरया पणत्ता, संजहा-ओरालिए, तेयए, कम्मए / सरीरोगाहणा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं, उक्कोसेणं जोयणसहस्सं / छेवट्टसंघयणी। हुंग्संठिया / चत्तारि कसाया, सग्णाओ वि, लेसाओ पंच, इंदिया पंच, समुग्घाया तिष्णि, जो सण्णी असण्णी, नपुंसकवेवा, पज्जसीओ अपज्जत्तीओ पंच, वो विट्ठीओ, दो वंसणा, दो नाणा, वो अन्नाणा, दुविहे जोगे, दुविहे उवओगे, माहारो छद्दिसि / __उववाओ तिरियमणुस्सेहितो, नो देवेहितो नो नेरइएहितो, तिरिएहितो असंखेज्जवासाउय वज्जेसु, प्रकम्मभूमग-अंतरवीवग-असंखेज्जवासाउयवज्जेसु / ठिई जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेगंपुष्वकोडी / मारणंतियसमुग्घाएणं दुविहा वि मरंति / अणंतरं उज्वट्टिता कहिं (उववअंति)? नेरइएसु वि, तिरिक्खजोणिएसु वि, मणुस्सेसु वि, देवेसु वि / नेरइएसु रयणपहाए सेसेसु पडिसेहो। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति : जलचरों का वर्णन] तिरिएसु सव्वेसु उववज्जति–संखेज्जवासाउएसु व असलज्जवासाउएसुवि, चउप्पएसु वि पक्खोसु वि / मणुस्सेसु सम्वेसु कम्मभूमिएसु, नो अकम्ममूमिएसु अंतरदीवएसु वि संखिज्जवासाउएसु वि असंखिज्जवासाउएसु वि देवेसु जाव वाणमंतरा। चउगइया, दुआगइया, परित्ता असंखेज्जा पण्णत्ता। से तं जलयर-समुच्छिम-पंचेंदियतिरिक्खा / [35] जलचर कौन हैं ? जलचर पांच प्रकार के कहे गये हैं-मत्स्य, कच्छप, मगर, ग्राह और शिशुमार (संसुमार)। मच्छ क्या हैं ? मच्छ अनेक प्रकार के हैं इत्यादि वर्णन प्रज्ञापना के अनुसार जानना चाहिए यावत् इस प्रकार के अन्य भी मच्छ आदि ये सब जलचर संमूछिम पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीव संक्षेप से दो प्रकार के हैं--पर्याप्त और अपर्याप्त / हे भगवन् ! उन जीवों के कितने शरीर कहे गये हैं ? गौतम ! तीन शरीर कहे गये हैं औदारिक, तेजस और कार्मण / उनके शरीर की प्रवगाहना जघन्य से अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट एक हजार योजन / वे सेवार्तसंहनन वाले, हुण्डसंस्थान वाले, चार कषाय वाले, चार संज्ञाओं वाले, पांच लेश्याओं वाले हैं। उनके पांच इन्द्रियाँ, तीन समुद्घात होते हैं / वे संज्ञी नहीं, असंज्ञी हैं। वे नपुंसक वेद वाले हैं। उनके पांच पर्याप्तियां और पांच अपर्याप्तियां होती हैं। उनके दो दृष्टि, दो दर्शन, दो ज्ञान, दो अज्ञान, दो प्रकार के योग, दो प्रकार के उपयोग और आहार छहों दिशाओं के पुद्गलों का होता है / __ वे तिर्यंच और मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं, देवों और नारकों से नहीं। तियंचों में से भी असंख्यात वर्षायु वाले तिर्यंच इनमें उत्पन्न नहीं होते। अकर्मभूमि और अन्तर्वीपों के असंख्यात वर्ष की आयु वाले मनुष्य भी इनमें उत्पन्न नहीं होते। इनकी स्थिति जघन्य अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटि की है / ये मारणांतिक समुद्धात से समवहत होकर भी मरते हैं और असमवहत होकर भी मरते हैं / भगवन् ! ये संमूच्छिम जलचर जीव मरकर कहाँ उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! ये नरक में भी उत्पन्न होते हैं, तिर्यंचों में भी, मनुष्यों में भी और देवों में भी उत्पन्न होते हैं। यदि नरक में उत्पन्न होते हैं तो रत्नप्रभा नरक तक ही उत्पन्न होते हैं, शेष नरकों में नहीं। तिर्यंच में उत्पन्न हों तो सब तिर्यंचों में संख्यात वर्ष की आयु वालों में भी और असंख्यात . वर्ष की आयु वालों में भी, चतुष्पदों में भी और पक्षियों में भी / मनुष्य में उत्पन्न हों तो सब कर्मभूमियों के मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं, अकर्मभूमि वाले मनुष्यों में नहीं / अन्तर्वीपजों में संख्यात वर्ष की प्रायुवालों में भी और असंख्यात वर्ष की आयु वालों में भी Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84] [जीवाजीवाभिगमसूत्र उत्पन्न होते हैं। यदि वे देवों में उत्पन्न हों तो वानव्यन्तर देवों तक उत्पन्न होते हैं (प्रागे के देवों में नहीं)। .. ये जीव चार गति में जाने वाले, दो गतियों से आने वाले, प्रत्येक शरीर वाले और असंख्यात कहे गये हैं। यह जलचर संमूच्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यंचों का वर्णन हुआ। विवेचन-(सूत्र 33 से 35 तक) प्रस्तुत सूत्रों में संमूच्छिम जलचर तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीवों के पांच भेद-मत्स्य, कच्छप, मकर, ग्राह और सुंसुमार तो बताये हैं परन्तु मत्स्य आदि के प्रकारों के लिए प्रज्ञापनासूत्र का निर्देश किया है / प्रज्ञापनासूत्र में वे प्रकार इस तरह बताये गये हैं मत्स्यों के प्रकार-श्लक्ष्ण मत्स्य, खवल्ल मत्स्य, युग मत्स्य, भिब्भिय मत्स्य, हेलिय मच्छ, मंजरिया मच्छ, रोहित मच्छ, हलीसागर, मोगरावड, वडगर तिमिमच्छ, तिमिंगला मच्छ, तंदुल मच्छ, काणिक्क मच्छ, सिलेच्छिया मच्छ, लंभण मच्छ, पताका मत्स्य पताकातिपताका मत्स्य, नक्र मत्स्य, और भी इसी तरह के मत्स्य / कच्छयों के प्रकार-कच्छपों के दो प्रकार हैं-अस्थिकच्छप और मंसलकच्छप / ग्राह के पांच प्रकार-दिली, वेढग, मुदुग, पुलग और सीमागार / मगर के दो भेद-सोंड मगर और मृट्ट मगर / सुसुमार-एक ही प्रकार के हैं / ये मत्स्यादि सब जलचर संमूछिम पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त और अपर्याप्त भेद से दो प्रकार के हैं इत्यादि वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए। शरीरादि 23 द्वारों की विचारणा चतुरिन्द्रिय की तरह जानना चाहिए / जो विशेषता है वह इस प्रकार है अवगाहनाद्वार में इनकी जघन्य अवगाहना अंगुल का असंख्यात भाग और उत्कृष्ट एक हजार योजन है। इन्द्रियद्वार में इनके पांच इन्द्रियां कहनी चाहिए / संजीद्वार में ये असंज्ञी ही हैं, संज्ञी नहीं-संमूछिम होने से ये समनस्क (संज्ञी) नहीं होते। उपपातद्वार में ये असंख्यात वर्षायु वालों को छोड़कर शेष तिर्यंचों मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं। स्थितिद्वार में जघन्य अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटी की स्थिति है। उद्वर्तनाद्वार में ये चारों गतियों में उत्पन्न होते हैं / नरक में उत्पन्न हों तो पहली रत्नप्रभा में ही उत्पन्न होते हैं, इससे आगे की नरकों में नहीं / सब प्रकार के तिर्यंचों में उत्पन्न होते हैं। मनुष्यों में कर्मभूमि के मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं / देवों में भवनपति और वाणव्यन्तरों में उत्पन्न होते हैं। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति : स्थलचरों का वर्णन] इस प्रकार ये जीव चारों गतियों में जाने वाले और दो गतियों से आने वाले हैं। हे श्रमण ! हे आयुष्मन् / ये जीव प्रत्येकशरीरी हैं और असंख्यात हैं। स्थलचरों का वर्णन 36. से कि तं थलयर-समुच्छिमपंचेंदिय-तिरिक्खजोणिया? थलयर संमु० दुविहा पण्णत्ता, तंजहाचउप्पय थल०, परिसप्प सम्मु. पंचे तिरिक्खजोणिया। से कि तं थलयर चउप्पय सम्मुच्छिम पंचे तिरिक्खजोणिया ? थलयर चउप्पय० चउम्विहा पण्णत्ता, तंजहा एगखुरा, दुखुरा, गंडोपया, सणप्फया / जाव जे यावष्णे तहप्पगारा ते समासओ दुविहा पण्णता, तंजहा-पज्जता य अपज्जत्ता य। तओ सरीरा, ओगाहणा जहण्णणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं गाउयपुहत्तं / ठिई जहण्णणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं चउरासिइवाससहस्साई। सेसं जहा जलयराणं जाव चउगतिया दो आगतिया परित्ता असंखेज्जा पेण्णत्ता। से तं थलयर चउप्पय० / से कि तं थलयर परिसप्प समुच्छिमा ? थलयर परिसप्प संमुच्छिमा दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-- उरग परिसप्प समुच्छिमा, भुयग परिसप्प समुच्छिमा। से कि तं उरग परिसप्प समुच्छिमा ? उरग परि० सं० चउम्विहा पण्णत्ता, तंजहा-- अही अयगरा आसालिया महोरगा। से कि तं अही? अही दुविहा पण्णत्ता, तंजहादव्वीकरा, मउलिणोय। से कि तं दध्वीकरा? दव्वीकरा अणेगविहा पण्णत्ता, तंजहाआसोविसा जाव से तं दग्वीकरा। से कि तं मउलिणो? मउलिको प्रगविहा पण्णत्ता, तंजहादिग्वा, गोणसा जाव से तं मउलिणो / से तं मही। से कि तं अयगरा? अयगरा एगागारा पण्णत्ता। सेतं अयगरा। से कितं आसालिया ? Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66 [जीवाजीवामिगमसूत्र प्रासालिया जहा पण्णवणाए / से तं आसालिया। से कि तं महोरगा? महोरगा जहा पण्णवणाए / से तं महोरगा। जे यावण्णे तहप्पगारा ते समासओ दुविहा पण्णता, तंजहा-पज्जत्ता य अपज्जत्ता य। तं चेव गवरि सरीरोगाहणा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं जोयणपुहत्तं / ठिई जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तेवण्णं वाससहस्साई / सेसं जहा जलयराणं जाव चउगतिया दुआगतिया परित्ता असंखेज्जा : से तं उरगपरिसप्पा। से कि तं भयगपरिसप्प समुच्छिम थलयरा? भयग परि० संमु० थलयरा अणेगविहा पग्णता, तंजहा-गोहा, पउला, जाय जे यावन्ने तहप्पगारा ते समासओ दुविहा पण्णता, तंजहा-पज्जत्ता य अपज्जत्ता य। सरीरोगाहणा जहन्नेणं अंगुलासंखेज्जं उक्कोसेणं धणुपुहुत्तं / ठिई उक्कोसेणं बायालीसं वाससहस्साई; सेसं जहा जलयराणं जाव चउगतिया, दुआगतिया, परित्ता असंखेज्जा पण्णता। से तं भुजपरिसप्प समुच्छिमा। से तं थलयरा। से कि तं खहयरा? खहयरा चउन्विहा पण्णता, तंजहाचम्मपक्खी, लोमपक्खी, समुग्गपक्खी, विततपक्खी। से कि तं चम्मपक्खी ? चम्मपक्खी प्रणेगविहा पण्णता, तंजहावग्गुली जाव जे यावन्ने तहप्पगारा, से तं चम्मपक्खी। से किं तं लोमपक्खी ? लोमपक्खी अणेगविहा पण्णत्ता, तंजहाढंका, कंका जे यावन्ने तहप्पगारा, से तं लोमपक्खी। से कि तं समुग्गपक्खी ? समुग्गपक्खी एगागारा पण्णत्ता नहा पण्णवणाए / एवं विततपक्खी जाव जे यावण्णे तहप्पगारा, ते समासओ दुविहा पण्णता, तंजहा-पज्जसा य अपज्जताय / णाणतं सरीरोगाहणा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जहभागं उक्कोसेणं षणपुहत्तं / ठिई उक्कोसेणं वावरिं वाससहस्साई। सेसं जहा जलयराणं जाव चउगतिया दुआगतिया परित्ता असंखेज्जा पण्णत्ता / से तं खहयर संमु० तिरिक्खजोणिया। से तं संमु० पंचेविय तिरिक्खजोणिया। [36] स्थलचर संमूछिम पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक कौन हैं ? स्थलचर संमूछिम पंचेन्द्रिय तियंचयोनिक दो प्रकार के हैं-चतुष्पद स्थलचर सं. पं. तिथंच और परिसर्प सम्मु. पं. ति.। चतुष्पद स्थलचर सं. पं. तिर्यंच कौन हैं ? Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति: स्थलचरों का वर्णन चतुष्पद स्थलचर सं.पं. तिर्यंच चार प्रकार के हैं, यथा-एक खुर वाले, दो खुर वाले, गंडीपद और सनखपद / यावत् जो इसी प्रकार के अन्य भी चतुष्पद स्थलचर हैं / वे संक्षेप से दो प्रकार के हैं—पर्याप्त और अपर्याप्त / उनके तीन शरीर, अवगाहना जघन्य अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट दो कोस से नो कोस तक / स्थिति जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट चौरासी हजार वर्ष की होती है / शेष सब जलचरों के समय समझना चाहिए। यावत् ये चार गति में जाने वाले और दो गति से आने वाले हैं, प्रत्येकशरीरी और असंख्यात हैं। यह स्थलचर चतुष्पद संमूच्छिय पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकों का कथन पूरा हुआ। परिसर्प स्थलचर सं. पं. तियंचयोनिक क्या हैं ? परिसर्प स्थलचर सं. पं. तियंचयोनिक दो प्रकार के हैं, यथा-उरग परिसर्प संमू. पं. ति. और भुजग परिसर्प संमू / उरग परिसर्प संमू. क्या हैं ? उरग परिसर्प समू. चार प्रकार के हैं—अहि, अजगर, असालिया और महोरग। अहि कौन हैं ? अहि दो प्रकार के हैं-दर्वीकर (फणवाले) और मुकुली (फण रहित) / दर्वीकर कौन हैं ? दर्वीकर अनेक प्रकार के हैं, जैसे-पाशीविष आदि यावत् दर्वीकर का कथन पूरा कथन / मुकुली क्या हैं ? मुकुली अनेक प्रकार के हैं, जैसे-दिव्य, गोनस यावत् मुकुली का कथन पूरा। अजगर क्या हैं? अजगर एक ही प्रकार के हैं / अजगरों का कथन पूरा। प्रासालिक क्या हैं ? प्रज्ञापनासूत्र के अनुसार प्रासालिकों का वर्णन जानना चाहिए / महोरग क्या हैं ? प्रज्ञापना के अनुसार इनका वर्णन जानना चाहिए। इस प्रकार के अन्य जो उरपरिसर्प जाति के हैं वे संक्षेप से दो प्रकार के हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त। शेष पूर्ववत् जानना चाहिए। विशेषता इस प्रकार-इनकी शरीर अवगाहना जघन्य से अंगुल के असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट योजन पृथक्त्व (दो से लेकर नव योजन तक)। स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तिरपन हजार वर्ष / शेष द्वार जलचरों के समान जानना चाहिए यावत् ये जीव चार गति में जाने वाले, दो गति से आने वाले, प्रत्येकशरीरी और असंख्यात हैं / यह उरग परिसर्प का कथन हुआ। भुजग परिसर्प संमूछिम स्थलचर क्या हैं ? भुजग परिसर्प संमूछिम स्थलचर अनेक प्रकार के हैं, यथा-गोह, नेवला यावत् अन्य इसी प्रकार के भुजग परिसर्प / ये संक्षेप से दो प्रकार के हैं पर्याप्त और अपर्याप्त / शरीरावगाहना जघन्य अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट धनुषपृथक्त्व (दो धनुष से नौ धनुष तक) Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88] [जीवाजीवाभिगमसूत्र स्थिति उत्कृष्ट से बयालीस हजार वर्ष / शेष जलचरों की भांति कहना यावत् ये चार गति में जाने वाले, दो गति से आने वाले, प्रत्येकशरीरी और असंख्यात हैं / यह भुजग परिसर्प संमूछिमों का कथन हुआ / इसके साथ ही स्थलचरों का कथन भी पूरा हुआ। खेचर का क्या स्वरूप है ? खेचर चार प्रकार के कहे गये हैं, यथा--चर्मपक्षी रोमपक्षी, समुद्गकपक्षी और विततपक्षी। चर्मपक्षी क्या हैं ? चर्मपक्षी अनेक प्रकार के हैं, जैसे-वल्गुली यावत् इसी प्रकार के अन्य चर्मपक्षी / रोमपक्षी क्या हैं ? रोमपक्षी अनेक प्रकार के हैं, यथा--ढंक, कंक यावत् अन्य इसी प्रकार के रोमपक्षी / समुद्गकपक्षी क्या हैं ? | ये एक ही प्रकार के हैं / जैसा प्रज्ञापना में कहा वैसा जानना चाहिए / इसी तरह विततपक्षी भी पन्नवणा के अनुसार जानने चाहिए। ये खेचर संक्षेप से दो प्रकार के कहे गये हैं—पर्याप्त और अपर्याप्त इत्यादि पूर्ववत् / विशेषता यह है कि इनकी शरीरावगाहना जघन्य से अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट धनुषपृथक्त्व है / स्थिति उत्कृष्ट बहत्तर हजार वर्ष की है। शेष सब जलचरों की तरह जानना खेचर चार गतियों में जाने वाले दो गतियों से ग्राने वाले प्रत्येकशरीरी और असंख्यात हैं। यह खेचरों का वर्णन हुआ। साथ. ही संमूछिम पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकों का कथन पूरा हुआ। विवेचन–पूर्व सूत्र में जलचरों का वर्णन करने के पश्चात् इस सूत्र में संमूछिम स्थलचर और खेचर का वर्णन किया गया है। स्थलचर संमूछिम पंचेन्द्रिय तिर्यंच दो प्रकार के हैं -चतुष्पद और परिसर्प / जिसके चार पांव हों वे चतुष्पद हैं, जैसे अश्व, बैल आदि / जो पेट के बल या भुजाओं के सहारे चलते हैं वे परिसर्प हैं। जैसे सर्प, नकुल आदि / सूत्र में आये हुए दो चकार स्वगत अनेक भेद के सूचक हैं। चतुष्पद स्थलचर चार प्रकार के हैं एक खुर वाले, दो खुर वाले, गंडीपद और सनखपद / प्रज्ञापना सूत्र में इन चारों के प्रकार बताये गये हैं, जो इस भांति हैं: एक खुर वाले अनेक प्रकार के हैं यथा---अश्व, अश्वतर (खेचर), घोटक (घोड़ा), गर्दभ, गोरक्षर, कन्दलक, श्रीकन्दलक और आवर्तक आदि / दो खुर वाले अनेक प्रकार के हैं, यथा-ऊँट, बैल, गवय (नील गाय), रोझ, पशुक, महिष (भैंस-भैंसा), मृग, सांभर, बराह, अज (बकरा-बकरी), एलक (भेड़ या बकरा), रुरु, सरभ, चमर (चमरीगाय), कुरंग, गोकर्ण आदि / ___ गंडोपद-गंडी का अर्थ है-- एरन / एरन के समान जिनके पांव हों वे गंडीपद हैं। ये अनेक प्रकार के हैं, यथा-हाथी, हस्तिपूतनक, मत्कुण हस्ती (बिना दाँतों का छोटे कद का हाथी), खड्गी और गेंडा / Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति : स्थलचरों का वर्णन] [89 सनखपद-जिनके पावों के नख बड़े-बड़े हों वे सनखपद हैं। जैसे-कुत्ता, सिंह आदि / सनखपद अनेक प्रकार के हैं, जैसे-सिंह, व्याघ्र, द्वीपिका (दीपड़ा), रीछ (भालू), तरस, पाराशर, शृगाल (सियार), विडाल (बिल्ली), श्वान, कोलश्वान, कोकन्तिक (लोमड़ी), शशक (खरगोश), चीता और चित्तलक (चिल्लक) इत्यादि / इन चतुष्पद स्थलचरों में पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद तथा पूर्वोक्त 23 द्वारों की विचारणा जलचरों के समान जाननी चाहिए, केवल अन्तर इस प्रकार है। इनके शरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट गव्यूतिपृथक्त्व (दो कोस से लेकर नौ कोस) की / आगम में पृथक्त्व का अर्थ दो से लेकर नौ की संख्या के लिए है। इनकी स्थिति जघन्य तो अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्ट चौरासी हजार वर्ष की है। शेष सब वर्णन जलचरों की तरह ही है / यावत् वे चारों गतियों में जाने वाले, दो गति से आने वाले, प्रत्येकशरीरी और असंख्यात हैं / ___ परिसर्प स्थलचर-पेट और भुजा के बल चलने वाले परिसर्प कहलाते हैं / इनके दो भेद किये हैं-उरगपरिसर्प और भुजगपरिसर्प / उरगपरिसर्प के चार भेद हैं—अहि, अजगर, प्रासालिक और महोरग / ___अहि-ये दो प्रकार के हैं-दर्वीकर अर्थात फण वाले और मुकुली अर्थात् बिना फण वाले / दर्वोकर अहि अनेक प्रकार के हैं, यथा-आशीविष, दृष्टिविष, उपविष, भोगविष, त्वचाविष, लालाविष, उच्छवासविष, नि:श्वासविष, कृष्णसर्प श्वेतसर्प, काकोदर, दह्यपुष्प (दर्भपुष्प) कोलाह, मेलिमिन्द और शेषेन्द्र इत्यादि / मुकुली--बिना फन वाले मुकुली सर्प अनेक प्रकार के हैं, यथा--दिव्याक (दिव्य), गोनस, कषाधिक, व्यतिकुल, चित्रली, मण्डली, माली, अहि, अहिशलाका, वातपताका आदि / अजगर-ये एक ही प्रकार के होते हैं। आसालिक-प्रज्ञापनासूत्र में आसालिक के विषय में ऐसी प्ररूपणा की गई है-- 'भंते ! आसालिक कैसे होते हैं और कहाँ संछित (उत्पन्न) होते हैं ? गौतम ! ये प्रासालिक उर:परिसर्प मनुष्य क्षेत्र के अन्दर ढाई द्वीपों में निर्व्याघात से पन्द्रह कर्मभूमियों में और ' व्याघात की अपेक्षा पांच महाविदेह क्षेत्रों में, चक्रवर्ती के स्कंधावारों (छावनियों) में, वासुदेवों के स्कंधावारों में, बलदेवों के स्कंधावारों में, मंडलिक (छोटे) राजाओं के स्कंधावारों में, महामंडलिक (अनेक देशों के) राजाओं के स्कंधावारों में, ग्रामनिवेशों में, नगरनिवेशों में, निगम (वणिकवसति) निवेशों में, खेट (खेड़ा) निवेशों में, कर्वट (छोटे प्राकार वाले) निवेशों में, मंडल (जिसके 2 / / कोस के अन्तर में ग्राम न हो) निबेशों में, द्रोणमुख (प्रायः जल निर्गम प्रवेश वाला स्थान) निवेशों में, पत्तन और पट्टन निवेशों में, आकरनिवेशों में, आश्रमनिवेशों में, संवाध (यात्रीगृह) निवेशों में और राजधानीनिवेशों में जब इनका विनाश होने -वृत्ति 1. सुषमसुषमादिरूपोऽतिदुःषमादिरूपः कालो व्याघातहेतुः। 2. पत्तनं शकटैगम्यं, घोटकैनौभिरेव च / नौभिरेव तु यद् गम्यं पट्टनं तत्प्रचक्षते // -वृत्ति Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90] [जीवाजीवाभिगमसूत्र वाला होता है तब इन पूर्वोक्त स्थानों में आसालिक संमूछिम रूप से उत्पन्न होता है। यह जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग जितनी अवगाहना (उत्पत्ति के समय) और उत्कृष्ट बारह योजन की अवगाहना और उसके अनुरूप ही लम्बाई-चौड़ाई वाला होता है। यह पूर्वोक्त स्कंधावार प्रादि की भूमि को फाड़ कर बाहर निकलता है / यह असंज्ञी, मिथ्यादृष्टि और अज्ञानी होता है और अन्तर्मुहुर्त की आयु भोग कर मर जाता है / यह प्रासालिक गर्भज नहीं होता, यह संमूछिम ही होता है। यह मनुष्यक्षेत्र से बाहर नहीं होता / यह प्रासालिक का वर्णन हुआ / महोरग---प्रज्ञापनासूत्र में महोरग का वर्णन इस प्रकार है महोरग अनेक प्रकार के कहे गये हैं, यथा-कोई महोरग एक अंगुल के भी होते हैं, कोई अंगुलपृथक्त्व के, कई वितस्ति (बेंत बारह अंगुल) के होते हैं, कई वितस्तिपृथक्त्व के होते हैं, कई एक रत्नि (हाथ) के होते हैं, कई रत्निपृथक्त्व (दो हाथ से नौ हाथ तक) के होते हैं, कई कुक्षि (दो हाथ) प्रमाण होते हैं, कई कुक्षिपृथक्त्व के होते हैं, कई धनुष (चार हाथ) प्रमाण होते हैं, कई धनुषपृथक्त्व के होते हैं, कई गव्यूति (कोस या दो हजार धनुष) प्रमाण होते हैं, कई गव्यूतिपृथक्त्व प्रमाण के होते हैं, कई योजन (चार कोस) के होते हैं, कई योजनपृथक्त्व के होते हैं। (कोई सौ योजन के, कोई दो सौ से नौ सौ योजन के होते हैं और कई हजार योजन के भी होते हैं / )* ये स्थल में उत्पन्न होते हैं परन्तु जल में भी स्थल की तरह चलते हैं और स्थल में भी चलते हैं / वे यहाँ नहीं होते, मनुष्यक्षेत्र के बाहर के द्वीप-समुद्रों में होते हैं / समुद्रों में भी पर्वत, देवनगरी प्रादि स्थलों में उत्पन्न होते हैं. जल में नहीं। इस प्रकार के अन्य भी दस अंगल आदि की वाले महोरग होते हैं। यह अवगाहना उत्सेधांगुल के मान से है। शरीर का माप उत्सेधांगुल से ही होता है। इस प्रकार अहि, अजगर आदि उरःपरिसर्प स्थलचर समूछिम पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीव संक्षेप से दो प्रकार के हैं पर्याप्त और अयर्याप्त इत्यादि कथन तथा 23 द्वारों की विचारणा जलचरों की भांति जानना चाहिए / अवगाहना और स्थिति द्वार में अन्तर है। इनकी अवगाहना जधन्य से अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट से योजनपृथक्त्व होती है। स्थिति जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तिरेपन हजार वर्ष की होती है। शेष पूर्ववत् यावत् ये चार गति में जाने वाले, दो गति से आने वाले, प्रत्येकशरीरी और असंख्यात होते हैं / भुजगपरिसर्प-प्रज्ञापनासूत्र में भुजगपरिसर्प के भेद इस प्रकार बताये गये हैं--गोह, नकुल, सरट (गिरगिट), शल्य, सरंठ, सार, खार, गृहकोकिला (घरोली-छिपकली), विषम्भरा (वसुंभरा), मूषक, मंगूस (गिलहरी), पयोलातिक, क्षीरविडालिका आदि अन्य इसी प्रकार के भुजपरिसर्प तिर्यंच / यह भुजपरिसर्प संक्षेप से दो प्रकार के हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त / शेष वर्णन पूर्ववत् समझना। तेवीस द्वारों की विचारणा में जलचरों की तरह कथन करना चाहिए, केवल अवगाहनाद्वार और स्थितिद्वार में अन्तर जानना चाहिए। इनकी अवगाहना जघन्य से अंगूल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट से धनुषपृथक्त्व है। स्थिति जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट बयालीस हजार वर्ष की है। शेष पूर्ववत् यावत् ये जीव चार गति वाले, दो आगति वाले, प्रत्येकशरीरी और असंख्यात हैं। . * कोष्ठक में दिया हुमा अंश गर्भज महोरग की अपेक्षा समझना चाहिए। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति: स्थलचरों का वर्णन] [91 खेचर-खेचर के 4 प्रकार हैं-चर्मपक्षी, रोमपक्षी, समुद्गकपक्षी और विततपक्षी / प्रज्ञापना में इनके भेद इस प्रकार कहे हैं--- चर्मपक्षी अनेक प्रकार के हैं-वग्गुली (चिमगादड़), जलौका, अडिल्ल, भारंडपक्षी जीवंजीव, समुद्रवायस, कर्ण त्रिक और पक्षीविडाली आदि / जिनके पंख चर्ममय हों वे चर्मपक्षो हैं। रोमपक्षी-जिनके पंख रोममय हों वे रोमपक्षी हैं। इनके भेद प्रज्ञापनासूत्र में इस प्रकार कहे हैं-- ढंक, कंक, कुरल, वायस, चक्रवाक, हंस, कलहंस, राजहंस (लाल चोंच एवं पंख वाले हंस) पादहंस, पाड, सेडी, वक, बलाका (बकपंक्ति), पारिप्लव, क्रौंच, सारस, मेसर, मसूर, मयूर, शतवत्स (सप्तहस्त), गहर, पौण्डरोक, काक, कामंजुक, बंजुलक, तीतर, वर्तक (बतक),लावक, कपोत, कपिजल, पारावत, चिटक, चास, कुक्कुट, शुक, वर्हि (मोरविशेष) मदनशलाका (मैना), कोकिल, सेह और वरिल्लक आदि / ___ समुद्गकपक्षी-उड़ते हुए भी जिनके पंख पेटी की तरह स्थित रहते हैं वे समुद्गकपक्षी हैं / ये एक ही प्रकार के हैं / ये मनुष्य क्षेत्र में नहीं होते। बाहर के द्वीपों समुद्रों में होते हैं / विततपक्षी-जिनके पंख सदा फैले हुए होते हैं वे विततपक्षी हैं। ये एक ही प्रकार के हैं। ये मनुष्य क्षेत्र में नहीं होते, बाहर के द्वीपों समुद्रों में होते हैं। ये खेचर संमूछिम तिर्यंच पंचेन्द्रिय पर्याप्त, अपर्याप्त के भेद से दो प्रकार के हैं, इत्यादि वर्णन पूर्ववत् / शरीर अवगाहना आदि द्वारों की विचारणा जलचरों की तरह करनी चाहिए। जो अन्तर है वह अवगाहना और स्थितिद्वारों में है। इनकी उत्कृष्ट अवगाहना धनुषपृथक्त्व है और स्थिति बहत्तर हजार वर्ष की है / ये जीव चार गति वाले, दो प्रागति वाले, प्रत्येकशरीरी और असंख्यात हैं। यहाँ स्थिति और अवगाहना को बताने वाली दो संग्रहणी गाथाएँ भी किन्हीं प्रतियों में हैं। वे इस प्रकार हैं जोयणसहस्स गाउयपुहुत्त तत्तो य जोयणपुहत्तं / दोण्हं पि धणपुहत्तं समुच्छिम वियगपक्खीणं // 1 // संमुच्छ पुग्धकोडी चउरासीई भवे सहस्साई। तेवण्णा बायाला बावत्तरिमेव पक्खीणं // 2 // इनका अर्थ इस प्रकार है-सम्मूछिम जलचरों की उत्कृष्ट अवगाहना हजार योजन को है, चतुष्पदों की गव्यूति (कोस) पृथक्त्व है, उरपरिसॉं की योजनपृथक्त्व को है / सम्मूछिम भुजगपरिसर्प और पक्षियों की धनुषपृथक्त्व की है / सम्मूछिम जलचरों को उत्कृष्ट स्थिति पूर्वकोटी है। चतुष्पदों को चौरासी हजार वर्ष की है, उरपरिसपो की तिरपन हजार वर्ष को है, भुजपरिसॉं को बयालीस हजार वर्ष की है, पक्षियों की बहत्तर हजार वर्ष की है। यह सम्मूछिम पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकों का कथन हुआ। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 92] [जीवाजीवाभिगमसूत्र गर्भज पंचेन्द्रिय तिर्यंचों का कथन से किं तं गम्भवक्कंतिय पंचेंदिय तिरिक्खजोणिया? . गब्भवक्कंतिय पं० तिरिक्ख जोणिया तिविहा पण्णत्ता, तंजहा-जलयरा, थलयरा, खहयरा। [37] गर्भव्युत्क्रान्तिक पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक क्या हैं ? / गर्भव्युत्क्रान्तिक पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक तीन प्रकार के कहे गये हैं, यथा-जलचर, स्थलचर और खेचर। गर्भज जलचरों का वर्णन 38, से कि तं जलयरा? जलयरा पंचविहा पण्णत्ता, तंजहामच्छा, कच्छभा, मगरा, गाहा, सुसुमारा। सम्वेसि भेदो भाणियन्वो तहेव जहा पण्णवणाए, जाव जे यावण्णे तहप्पगारा ते समासओ दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-पज्जत्ता य अपज्जत्ता य / तेसिणं भंते ! जीवाणं कति सरीरगा पण्णत्ता ? गोयमा! चत्तारि सरीरगा पण्णत्ता, तंजहाओरालिए, वेउविए, तेयए, कम्मए / सरोरोगाहणा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं जोयणसहस्सं। छन्विह संघयणी पण्णत्ता, तंजहा वहरोसभनारायसंघयणी, उसभनारायसंघयणी, नारायसंघयणी, अद्धनारायसंघयणी, कोलियासंघयणी, सेवट्टसंघयणी। छबिहा संठिया पण्णत्ता, तंजहा समचउरंससंठिया, जग्गोधपरिमंडलसंठिया, सादिसंठिया, खुज्जसंठिया, वामणसंठिया, हुंडसंठिया / कसाया सम्वे, सण्णाओ चत्तारि, लेसाओ छह, पंच इंदिया, पंच समुग्धाया आइल्ला, सण्णी, जो असग्णी, तिविह बेदा, छप्पज्जत्तीओ, छअप्पज्जत्तीओ, दिट्ठी तिविहा वि, तिणि दंसणा, गाणी वि अण्णाणी वि, जे णाणी ते अत्थेगइया दुणाणी, अत्थेगइया तिन्नाणी; जे दुनाणी ते णियमा आभिणिबोहियणाणी य सुयणाणी य / जे तिणाणी ते नियमा आभिनिबोहियणाणी, सुयणाणी, प्रोहिणाणी। एवं अण्णाणि वि। जोगे तिविहे, उवओगे दुविहे, आहारो छदिसि / उववाओ नेरइएहिं जाव अहेसत्तमा, तिरिक्खजोणिएहि सव्वेहि असंखेज्जवासाउयवज्जेहिं, मणुस्सेहिं अकम्मभूमग अंतरदीवग असंखेज्जवासाउयवज्जेहि, देवेहिं जाव सहस्सारो। ठिई जहण्णेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं पुषकोडी / दुविहा वि मरंति / अणंतरं उन्वट्टित्ता नेरइएसु जाव अहेसत्तमा, तिरिक्खजोगिएसु मणस्सेसु सम्वेसु देवेसु जाव सहस्सारो, चउगतिया चउआगतिया परित्ता असंखेज्जा पण्णत्ता, से तं जलयरा। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति: गर्भज जलचरों का वर्णन] [38] (गर्भज) जलचर क्या हैं ? ये जलचर पांच प्रकार के हैं-मत्स्य, कच्छप, मगर, ग्राह और सुंसुमार। इन सबके भेद प्रज्ञापनासूत्र के अनुसार कहना चाहिए यावत् इस प्रकार के गर्भज जलचर संक्षेप से दो प्रकार के हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त / हे भगवन ! इन जीवों के कितने शरीर कहे गये हैं ? गौतम ! इनके चार शरीर कहे गये हैं, जैसे कि औदारिक, वैक्रिय, तैजस और कार्मण / इनकी शरीरावगाहना जघन्य से अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट से हजार योजन की है। इन जीवों के छह प्रकार के संहनन होते हैं, जैसे कि वज्रऋषभनाराचसंहनन, ऋषभनाराचसंहनन, नाराचसंहनन, अर्धनाराचसंहनन, कोलिकासंहनन और सेवार्तसंहनन / इन जीवों के शरीर के संस्थान छह प्रकार के हैं - समचतुरस्त्रसंस्थान, न्यग्रोधपरिमंडलसंस्थान, सादिसंस्थान, कुब्जसंस्थान, वामनसंस्थान और हुंडसंस्थान / इन जीवों के सब कषाय, चारों संज्ञाएँ, छहों लेश्याएँ, पांचों इन्द्रियाँ, शुरू के पांच समुद्घात होते हैं। ये जीव संज्ञी होते हैं, असंज्ञी नहीं / इनमें तीन वेद, छह पर्याप्तियाँ, छह अपर्याप्तियाँ, तीनों दृष्टियां, तीन दर्शन, पाये जाते हैं। ये जीव ज्ञानी भी होते हैं और अज्ञानी भी होते हैं / जो ज्ञानी हैं उनमें कोई दो ज्ञान वाले हैं और कोई तीन ज्ञान वाले / जो दो ज्ञान वाले हैं वे मतिज्ञान वाले और श्रुतज्ञान वाले हैं। जो तीन ज्ञान वाले हैं वे नियम से मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी हैं। इसी तरह अज्ञानी भी। इन जीवों में तीन योग, दोनों उपयोग होते हैं / इनका पाहार छहों दिशाओं से होता है। ये जीव नै रयिकों से भी प्राकर उत्पन्न होते हैं यावत् सातवीं नरक से भी पाकर उत्पन्न होते हैं / असंख्य वर्षायु वाले तिर्यंचों को छोड़कर सब तिर्यंचों से भी आकर उत्पन्न होते हैं। अकर्मभूमि, अन्तर्वीप और असंख्य वर्षायु वाले मनुष्यों को छोड़कर शेष सब मनुष्यों से भी पाकर उत्पन्न होते हैं। ये सहस्रार तक के देवलोकों से पाकर भी उत्पन्न होते हैं / इनको जघन्य स्थिति अन्तर्महर्त की और उत्कृष्ट पूर्वकोटी की है। ये दोनों प्रकार केसमवहत, असमवहत मरण से मरते हैं। ये यहाँ से मर कर सातवीं नरक तक, सब तिर्यंचों और मनुष्यों में और सहस्रार तक के देवलोक में जाते हैं / ये चार गति वाले, चार प्रागति वाले, प्रत्येकशरीरी और असंख्यात हैं / यह (गर्भज) जलचरों का कथन हुआ। विवेचन- गर्भज जलचरों के भेद प्रज्ञापना के अनुसार जानने का निर्देश दिया गया है। ये भेद मत्स्य, कच्छप आदि पूर्व के सूत्र के विवेचन में बता दिये हैं / पर्याप्त, अपर्याप्त का वर्णन भी पूर्ववत् जानना चाहिए। शरीर आदि द्वार सम्मूछिम जलचरों के समान जानने चाहिए; जो अन्तर है, वह इस प्रकार जानना चाहिए शरीरद्वार में गर्भज जलचरों में चार शरीर पाये जाते हैं। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 94] [जीवाजीवाभिगमसूत्र इनमें वैक्रियशरीर भी पाया जाता है। अतएव औदारिक, वैक्रिय, तैजस और कार्मण-ये चार शरीर पाये जाते हैं। ___ अवगाहनाद्वार में इन गर्भज जलचरों की उत्कृष्ट अवगाहना हजार योजन की जाननी चाहिए। संहननद्वार में इन गर्भज जलचरों में छहों संहनन सम्भव हैं। वज्रऋषभनाराच, ऋषभनाराच, नाराच, अर्धनाराच, कीलिका और सेवार्त ये छह संहनन होते हैं। इनकी व्याख्या पहले 23 द्वारों की सामान्य व्याख्या के प्रसंग में की गई है।' संस्थानद्वार-इन जीवों के शरीरों के संस्थान छहों प्रकार के सम्भव हैं। वे छह संस्थान इस प्रकार हैं-समचतुरस्रसंस्थान, न्यग्रोधपरिमंडलसंस्थान, सादिसंस्थान, वामनसंस्थान, कुब्जसंस्थान और हुंडसंस्थान / इनकी व्याख्या पहले सामान्य द्वारों की व्याख्या के प्रसंग में कर दी गई है। लेण्याद्वार में छहों लेश्याएँ हो सकती हैं / शुक्ललेश्या भी सम्भव है। समुद्घातद्वार में आदि के पांच समुद्धात होते हैं / वैक्रियसमुद्धात भी सम्भव है। संजीद्वार में ये संज्ञी ही होते हैं असंज्ञी नहीं। वेदद्वार में तीनों वेद होते हैं / इनमें नपुंसक वेद के अतिरिक्त स्त्रीवेद और पुरुषवेद भी होता है। पर्याप्तिद्वार में छहों पर्याप्तियां और छहों अपर्याप्तियां होती हैं / वृत्तिकार ने पांच पर्याप्तियाँ और पांच अपर्याप्तियाँ कहीं हैं सो भाषा और मन की एकत्व-विवक्षा को लेकर समझना चाहिए। दृष्टिद्वार में तीनों (मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि और सम्यमिथ्यादृष्टि) होते हैं / दर्शनद्वार में इन जीवों में तीन दर्शन हो सकते हैं, क्योंकि किन्हीं में अवधिदर्शन भी हो सकता है। ज्ञानद्वार में ये तीन ज्ञान वाले भी हो सकते हैं / क्योंकि इनमें से किन्हीं को अवधिज्ञान भी हो सकता है। अज्ञानद्वार में तीन अज्ञान वाले भी हो सकते हैं / क्योंकि किन्हीं को विभंगज्ञान भी हो सकता है। 1. वज्जरिसहनारायं पढमं बीयं च रिसहनारायं / नारायमद्धनाराय कीलिया तह य छेवढें // 1 // रिसहो य होइ पट्टो, बज्ज पुण कीलिया मुणेयब्वा / उसपो मक्कडबंधो, नारायं तं वियाणाहि // 2 // 2. 'साची' ऐसा भी पाठ है / साची का अर्थ शाल्मलि वृक्ष होता है। वह नीचे से प्रतिपुष्ट होता है, ऊपर से तदनुरूप नहीं होता। 3. समचउरंसे नग्गोहमंडले साइखुज्जबामणए। हुंडे वि संठाणे जीवाणं छ मुणेयव्वा // 1 // Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति : गर्भज स्थलचरों का वर्णन] [95 अवधिज्ञान और विभंगज्ञान में सम्यक्त्व और मिथ्यात्व को लेकर भेद है / सम्यग्दृष्टि का अवधिज्ञान होता है और मिथ्यादृष्टि का वही ज्ञान विभंगज्ञान कहलाता है।' उपपातद्वार में ये जीव सातों नारकों से, असंख्यात वर्षायु वाले तिर्यंचों को छोड़कर शेष सब तिर्यंचों से, अकर्मभूमिज अन्तर्वीपज और असंख्यात वर्ष की आयुवालों को छोड़कर शेष कर्मभूमि के मनुष्यों से और सहस्रार नामक पाठवें देवलोक तक के देवों से आकर उत्पन्न होते हैं / इससे आगे के देव इनमें उत्पन्न नहीं होते। स्थितिद्वार में इन जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट स्थिति पूर्वकोटी की है। __उद्वर्तनाद्वार में सहस्रार देवलोक से आगे के देवों को छोड़कर शेष सब जीवस्थानों में जाते हैं। अतएव गति-प्रागति द्वार में ये चार गति वाले और चार प्रागति वाले हैं। ये प्रत्येकशरीरी और असंख्यात हैं / यह गर्भज जलचरों का वर्णन हुआ। गर्भज स्थलचरों का वर्णन 39. से कि तं यलयरा? थलयरा दुविहा पण्णता, तंजहाचउप्पदा य परिसप्पा य / से कि तं चउम्पया? चउप्पया चरविहा पण्णत्ता, तंजहा–एगखुरा सो चेव भेदो जाय जे यावन्ने तहप्पगारा ते समासओ दुविहा पण्णत्ता, तंजहा–पज्जत्ता य अपज्जत्ता य / चत्तारि सरीरा, ओगाहणा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं छ गाउयाई। ठिती उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाई नवरं उज्ववट्टित्ता नेरइएसु चउत्थपुढविं गच्छति, सेसं जहा जलयराणं जाव चउगतिया, चउआगतिया, परित्ता असंखेज्जा पण्णत्ता / से तं चउप्पया / से कि तं परिसप्पा? परिसप्पा दुविहा पण्णत्ता, तंजहाउरपरिसप्पा य भुयगपरिसप्पा य / से कि तं उरपरिसप्पा? उरपरिसप्पा तहेब आसालियवज्जो मेवो भाणियव्वो, सरीरोगाहणा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जहभागं, उक्कोसेणं जोयणसहस्सं, ठिई जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं पुवकोडी। उववट्टित्ता नेरइएसु जाव पंचमं पुढवि ताव गच्छंति, तिरिक्खमणुस्सेसु सम्वेसु, देवेसु जाव सहस्सारा। सेसं जहा जलयराणं जाव चउगतिया चउआगलिया परित्ता असंखेज्जा। से तं उरपरिसप्पा। 1. सम्यग्दृष्टेनिं मिथ्यादृष्टेविपर्यासः / --वृत्ति Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 96] [जीवाजीवाभिगमसूत्र से कि तं भुयगपरिसप्पा ? भेदो तहेव / चत्तारि सरीरगा, ओगाहणा जहन्नेणं अंगुलासंखेज्जइमागं उक्कोसेणं गाउयपुहुत्तं / ठिती जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पुष्वकोडी। सेसेसु ठाणेसु जहा उरपरिसप्पा, गवरं दोच्चं पुडविं गच्छंति। से तं भयपरिसप्पा, से तं थलयरा। [39.] (गर्भज) स्थलचर क्या हैं ? (गर्भज) स्थलचर दो प्रकार के हैं, यथा-चतुष्पद और परिसर्प / चतुष्पद क्या हैं ? चतुष्पद चार तरह के हैं, यथा ___एक खुर वाले आदि भेद प्रज्ञापना के अनुसार कहने चाहिए / यावत् ये स्थलचर संक्षेप से दो प्रकार के हैं--पर्याप्त और अपर्याप्त। इन जीवों के चार शरीर होते हैं। अवगाहना जघन्य से अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट से छह कोस की है। इनकी स्थिति उत्कृष्ट तीन पल्योपम की है। ये मरकर चौथे नरक तक जाते हैं, शेष सब वक्तव्यता जलचरों की तरह जानना यावत् ये चारों गतियों में जाने वाले और चारों गतियों से आने वाले हैं, प्रत्येकशरीरी और असंख्यात हैं। यह चतुष्पदों का वर्णन हुआ। परिसर्प क्या हैं ? परिसर्प दो प्रकार के हैं-उरपरिसर्प और भुजपरिसर्प / उरपरिसर्प क्या हैं ? उरपरिसर्प के पूर्ववत् भेद जानने चाहिए किन्तु प्रासालिक नहीं कहना चाहिए। इन उरपरिसों की अवगाहना जघन्य से अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट से एक हजार योजन है। इनकी स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट पूर्वकोटि है / ये मरकर यदि नरक में जाते हैं तो पांचवें नरक तक जाते हैं, सब तिर्यंचों और सब मनुष्यों में भी जाते हैं और सहस्रार देवलोक तक भी जाते हैं / शेष सब वर्णन जलचरों की तरह जानना / यावत् ये चार गति वाले, चार प्रागति वाले, प्रत्येकशरीरी और असंख्यात हैं। यह उरपरिसॉं का कथन हुआ / भुजपरिसर्प क्या हैं ? भुजपरिसॉं के भेद पूर्ववत् कहने चाहिए। चार शरीर, अवगाहना जघन्य से अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट से दो कोस से नौ कौस तक, स्थिति जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से पूर्वकोटि / शेष स्थानों में उरपरिसों की तरह कहना चाहिए / यावत् ये दूसरे नरक तक जाते हैं / यह भुजपरिसर्प का कथन हुआ / इसके साथ ही स्थलचरों का भी कथन पूरा हुआ। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति: गर्भज खेचरों का वर्णन [97 40. से कि तं खहयरा? खहयरा चउग्विहा पण्णत्ता, संजहा- .. .. . . . . . चम्मपक्खी तहेव मेदो, ओगाहणा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जहभाग, उसकोसेणं धणपुहुत्तं / ठिई जहण्णेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं पलिग्रोवमस्स असंखेज्जइभागो; सेसं जहा जलयराणं नवरं जाव तच्चं पुढवि गच्छति जाव से तं खयर-गम्भवक्कं तिय-चिदियतिरिक्खजोणिया, से तं तिरिक्खजोणिया। [40] खेचर क्या हैं ? खेचर चार प्रकार के हैं, जैसे कि चर्मपक्षी आदि पूर्ववत् भेद कहने चाहिए / इनकी अवगाहना जघन्य से अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट से धनुषपृथक्त्व / स्थिति जघन्य से अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्ट पल्योपम का असंख्यातवां भाग, शेष सब जलचरों की तरह कहना / विशेषता यह है कि ये जीव तीसरे नरक तक जाते हैं। यह खेचर गर्भव्युत्क्रांतिक पंचेन्द्रिय तियंचयोनिकों का कथन हुआ / इसके साथ ही तियंचयोनिकों का वर्णन पूरा हुआ। विवेचन [३९-४०]-इन सूत्रों में स्थलचर गर्भव्युत्क्रान्तिक और खेचर गर्भव्युत्क्रान्तिक के भेदों को बताने के लिए निर्देश किया गया है कि सम्मूछिम स्थलचर और खेचर की भांति इनके भेद समझने चाहिए। सम्मूछिम स्थलचरों में उरपरिसर्प के भेदों में प्रासालिका का वर्णन किया गया है, वह यहाँ नहीं कहना चाहिए। क्योंकि प्रासालिका सम्मूछिम ही होती है, गर्भव्युत्क्रान्तिक नहीं। दूसरा अन्तर यह है कि महोरग के सूत्र में 'जोयणसयंपि जोयणसयपुहुत्तिया वि जोयणसहस्संपि इतना पाठ अधिक कहना चाहिए / तात्पर्य यह है कि सम्मूछिम महोरग की अवगाहना उत्कृष्ट योजनपृथक्त्व की है जब कि गर्भज महोरग की अवगाहना सो योजनपृथक्त्व एवं हजार योजन की भी है। शरीरादि द्वारों में भी सर्वत्र गर्भज जलचरों की तरह वक्तव्यता है, केवल अवगाहगा, स्थिति और उद्वर्तना द्वारों में अन्तर है। चतुष्पदों की उत्कृष्ट अवगाहना छह कोस की है, उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्योपम की है, चौथे नरक से लेकर सहस्रार देवलोक तक की उद्वर्तना है अर्थात् इस बीच सभी जीवस्थानों में ये मरने के अनन्तर उत्पन्न हो सकते हैं / उरपरिसॉं की उत्कृष्ट अवगाहना हजार योजन है। उत्कृष्ट स्थिति पूर्वकोटि है और उद्वर्तना पांचवें नरक से लेकर सहस्रार देवलोक तक की है अर्थात् इस बीच के सभी जीवस्थानों में ये मरकर उत्पन्न हो सकते हैं। भुजपरिसों की उत्कृष्ट अवगाहना गव्यूतिपृथक्त्व अर्थात् दो कोस से लेकर नौ कोस तक की है। उत्कृष्ट स्थिति पूर्वकोटि है और उद्वर्तना दूसरे नरक से लेकर सहस्रार देवलोक तक है अर्थात् इस बीच के सब जीवस्थानों में ये उत्पन्न हो सकते हैं। खेचर गर्भज पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के भेद सम्मूछिम खेचरों की तरह ही हैं / शरीरादि द्वार गर्भज जलचरों की तरह हैं, केवल अवगाहना, स्थिति और उद्वर्तना में भेद है। खेचर गर्भज पंचेन्द्रिय Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 98] [जीवाजीवाभिगमसूत्र तिर्यंचों को उत्कृष्ट अवगाहना धनुष पृथक्त्व है। जघन्य तो सर्वत्र अंगुलासंख्येयभाग प्रमाण है। जघन्य स्थिति भी सर्वत्र अन्तर्महतं को है और इनकी उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम का असंख्यातवां भाग है। इनको उद्वर्तना तीसरे नरक से लेकर सहस्रार देवलोक तक के बीच के सब जीवस्थान हैं। अर्थात् इन सब जीवस्थानों में वे मरने के अनन्तर उत्पन्न हो सकते हैं। किन्हीं प्रतियों में अवगाहना और स्थिति बताने वाली दो संग्रहणी गाथाएँ दी गई हैं जिनका भावार्थ इस प्रकार है ____ गर्भव्युत्क्रान्तिक जलचरों की उत्कृष्ट अवगाहना हजार योजन की है, चतुष्पदों की छह कोस, उरपरिसॉं की हजार योजन, भुजपरिसों की गव्यूतपृथक्त्व, पक्षियों की धनुषपृथक्त्व है। गर्भज जलचरों की उत्कृष्ट स्थिति पूर्वकोटि है, चतुष्पदों की तीन पल्योपम, उरपरिसर्प और भुजपरिसर्प की पूर्वकोटि. पक्षियों की पल्योपम का असंख्यातवां भाग है। नरकों में उत्पाद को स्थिति को बताने वाली दो गाथाएँ हैं, जिनका भाव इस प्रकार है __ असंजी जीव पहले नरक तक, सरीसृप दूसरे नरक तक, पक्षी तीसरे नरक तक, सिंह चौथे नरक तक, सर्प पांचवें नरक तक, स्त्रियाँ छठे नरक तक और मत्स्य तथा मनुष्य सातवें नरक तक जा सकते हैं। इस प्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यंचों का कथन पूरा हुमा / अागे मनुष्यों का प्रतिपादन करते हैं / मनुष्यों का प्रतिपादन 41. से कि तं मणस्सा ? मणुस्सा दुविहा पण्णता, तंजहासमुच्छिममणुस्सा य गम्भवक्कं तियमणुस्सा य / कहि णं भंते ! संमुच्छिममणुस्सा संमुच्छंति ? गोयमा ! अतो मणुस्सखे ते जाव करेंति।। तेसि गं भंते ! जीवाणं कति सरीरगा पण्णता? गोयमा ! तिन्नि सरीरगा पण्णत्ता, तंजहा - - -- --- 1. जोयणसहस्स छग्गाउयाई तत्तो य जोयणसहस्सं। गाउयपुहुत्त भुयगे, धणुयपुहुत्तं च पक्खीसु // 1 // गम्भम्मि पुवकोडी, तिन्नि य पलिओवमाइं परमाउं / उरभुजग पुव्वकोडी, पल्लिय असंखेज्जभागो यारा। 2. असण्णी खलु पढमं दोच्चं च सरीसवा तइय पक्खी। सीहा जति चउत्थं उरगा पुण पंचमि पुढवि // 1 // छट्टि च इत्थियाउ, मच्छा मणुया य सत्तमि पुढदि / एसो परमोववाो बोद्धन्दो नरयपुढविसु // 2 // ---वृत्ति Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति : मनुष्यों का प्रतिपादन] ओरालिए, तेयए, कम्मए / से तं समुच्छिममणुस्सा। से कि तं गम्भवक्कंतियमणस्सा? गम्भवक्कंतियमणुस्सा तिविहा पण्णत्ता, तंजहाकम्मभूमया, अकम्मभूमया, अंतरदीवया / एवं मणुस्सभेदो भाणियब्वो जहा पण्णवणाए तहा णिरवसेसं भाणियव्वं जाव छउमत्था य केवलो य / ते समासओ दुविहा पण्णत्ता, तंजहा--पज्जत्ता य अपज्जताय / तेसि णं भंते ! जीवाणं कति सरीरा पण्णत्ता? गोयमा ! पंच सरीरा, तंजहा-ओरालिए जाव कम्मए / सरीरोगाहणा जहन्नेणं अंगुलाखेज्जइभागं उक्कोसेणं तिणि गाउयाइं। छच्चेव संघयणा छस्संठाणा। ते णं भंते ! जीवा कि कोहकसाई जाव लोभकसाई अकसाई ? गोयमा! सम्वे वि। ते णं भंते ! जोवा कि आहारसनोवउत्ता जाव लोभसन्नोवउत्ता नोसन्नोवउत्ता? गोयमा! सवे वि। ते णं भंते ! जीवा कि कण्हलेसा य जाव अलेसा? गोयमा ! सन्ने वि। सोइंवियोवउत्ता जाव नोइंदियोवउत्ता वि / सम्वे समुग्घाया तंजहा-यणासमुग्धाए जाव केवलिसमुग्धाए। सन्नी वि नोसन्नी वि असन्नी वि / इथिवेया वि जाव अवेदा वि / पंच पज्जतो, तिविहा वि दिट्टी, चत्तारि दंसणा, णाणी वि अण्णाणो वि। जे जाणो ते अत्थेगइया दुणाणो अत्थेगइया तिणाणी अत्थेगइया चउणाणी, अत्थेगइया एगणाणी। जे दुग्णाणी ते नियमा आभिणिबोहियणाणो, सुयनाणी य / जे तिणाणी ते आभिणिबोहियणाणी, सुयणाणी, ओहिणाणो य अहवा आभिणियोहियणाणी, सुयणाणी, मणपज्जवणाणी य / जे च उणाणी ते णियमा आभिणिबोयिणाणी, सुयणाणो, ओहिणाणी, मणपज्जवणाणी य / जे एगणाणी ते नियमा केवलणाणी। ___ एवं अण्णाणो वि दुअण्णाणो, तिअण्णाणी / मणजोगी वि वइजोगी वि, कायजोगी वि, अजोगी वि / दुबिहे उवओगे, आहारो छद्दिसि / उववाओ नेरइएहिं अहेमत्तमवज्जेहि, तिरिक्खजोशएहितो उववाओ असंखेज्जवासाउयवज्जेहि मणएहि अकम्मभूमग-अंतरदोवग-असंखेज्जवासाउयवज्जेहिं देवेहि सव्वेहि / ठिई जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं तिणि पलिओवमाई, दुविहा वि मरंति, उव्वट्टित्ता नेरइयाइसु जाव अणुत्तरोवबाइएसु, अत्थेगइया सिझति जाय अंतं करेंति / Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100] ... . [जीवाजीवाभिगमसूत्र ते णं भंते ! जीवा कतिगतिआ कतिम्रागतिया पण्णता? गोयमा ! पंचगतिया चउआगतिया परित्ता संखिज्जा पण्णत्ता समणाउसो ! से तं मणुस्सा। [41] मनुष्य का क्या स्वरूप है ? मनुष्य दो प्रकार के कहे गये हैं, यथा-सम्भूछिम मनुष्य और गर्भव्युत्क्रान्तिक मनुष्य / भगवन् ! सम्मूछिम मनुष्य कहाँ सम्मूछित होते हैं--उत्पन्न होते हैं ? .. गौतम ! मनुष्य क्षेत्र के अन्दर (गर्भज-मनुष्यों के अशुचि स्थानों में सम्मूछित) होते हैं, यावत् अन्तर्मुहूर्त की आयु में मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। भंते ! उन जीवों के कितने शरीर होते हैं ? गौतम ! तीन शरीर होते हैं-औदारिक, तेजस और कार्मण / (इस प्रकार द्वार-वक्तव्यता कहनी चाहिए।) यह सम्मूछिम मनुष्यों का कथन हुआ / गर्भज मनुष्यों का क्या स्वरूप है ? गौतम ! गर्भज मनुष्य तीन प्रकार के कहे गये हैं, यथा-कर्मभूमिज, अकर्मभूमिज और अन्तर्वीपज / इस प्रकार मनुष्यों के भेद प्रज्ञापनासूत्र के अनुसार कहने चाहिए और पूरी वक्तव्यता यावत् छद्मस्थ और केवली पर्यन्त / ये मनुष्य संक्षेप से पर्याप्त और अपर्याप्त रूप से दो प्रकार के हैं। भंते ! उन जीवों के कितने शरीर कहे गये हैं ? गौतम ! पांच शरीर कहे गये हैं-प्रौदारिक यावत् कार्मण / उनकी शरीरावगाहना जघन्य से अंगुल का असंख्याता भाग और उत्कृष्ट से तीन कोस की है। उनके छह संहनन और छह संस्थान होते हैं। भंते ! वे जीव, क्या क्रोधकषाय वाले यावत् लोभकषाय वाले या प्रकषाय हैं ? गौतम ! सब तरह के हैं। भगवन् ! वे जीव क्या प्राहारसंज्ञा वाले यावत् लोभसंज्ञा वाले या नोसंज्ञा वाले हैं ? गौतम ! सब तरह के हैं। भगवन् ! वे जीव कृष्णलेश्या वाले यावत् शुक्ललेश्या वाले या अलेश्या वाले हैं ? गौतम ! सब तरह के हैं। वे श्रोत्रेन्द्रिय उपयोग वाले यावत् स्पर्शनेन्द्रिय उपयोग और नोइन्द्रिय उपयोग वाले हैं। उनमें सब समुद्घात पाये जाते हैं, यथा-वेदनासमुद्धात यावत् केवलीसमुद्घात / वे संज्ञी भी हैं, नोसंज्ञी-प्रसंज्ञी भी हैं। वे स्त्रीवेद वाले भी हैं, पुंवेद, नपुंसकवेद वाले भी हैं और प्रवेदी भी हैं / इनमें पांच पर्याप्तियां और पांच अपर्याप्तियां होती हैं / (भाषा और मन को एक मानने की अपेक्षा)। Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति : मनुष्यों का प्रतिपादन] [101 इनमें तीनों दृष्टियां पाई जाती हैं। चार दर्शन पाये जाते हैं। ये ज्ञानी भी हैं और अज्ञानी भी हैं / जो ज्ञानी हैं-वे कोई दो ज्ञान वाले, कोई तीन ज्ञान वाले, कोई चार ज्ञान वाले और कोई एक ज्ञान वाले होते हैं। जो दो ज्ञान वाले हैं, वे नियम से मतिज्ञानी और श्रुतज्ञानी हैं, जो तीन ज्ञान वाले हैं वे मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी हैं अथवा मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी और मनःपर्यवज्ञानी हैं / जो चार ज्ञान वाले हैं वे नियम से मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी और मनःपर्यवज्ञान वाले हैं / जो एक ज्ञान वाले हैं वे नियम से केवलज्ञान वाले हैं। इसी प्रकार जो अज्ञानी हैं वे दो अज्ञान वाले या तीन अज्ञान वाले हैं। वे मनयोगी, वचनयोगी, काययोगी और अयोगी भी हैं। उनमें दोनों प्रकार का साकार-अनाकार उपयोग होता है। . उनका छहों दिशाओं से (पुद्गल ग्रहण रूप) आहार होता है। वे सातवें नरक को छोड़कर शेष सब नरकों से आकर उत्पन्न होते हैं, असंख्यात वर्षायु को छोड़कर शेष सब तिर्यंचों से भी उत्पन्न होते हैं, अकर्मभूमिज, अन्तर्वीपज और असंख्यात वर्षायु वालों को छोड़कर शेष मनुष्यों से भी उत्पन्न होते हैं और सब देवों से पाकर भी उत्पन्न होते हैं। उनकी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की होती है। ये दोनों प्रकार के समवहत-असमवहत मरण से मरते हैं। ये यहाँ से मर कर नैरयिकों में यावत् अनुत्तरोपपातिक देवों में भी उत्पन्न होते हैं और कोई सिद्ध होते हैं यावत् सब दुःखों का अन्त करते हैं / भगवन् ! ये जीव कितनी गति वाले और कितनी आगति वाले कहे गये हैं ? गौतम ! पांच गति वाले और चार प्रागति वाले हैं। ये प्रत्येकशरीरी और संख्यात हैं। आयुष्मन् श्रमण ! यह मनुष्यों का कथन हुआ। विवेचन–मनुष्य सम्बन्धी प्रश्न किये जाने पर सूत्रकार कहते हैं कि मनुष्य दो प्रकार के हैं—सम्मूछिम मनुष्य और गर्भज मनुष्य / सम्मूछिम मनुष्यों के विषय में प्रश्न किया गया है कि ये कहाँ सम्मूछित होते हैं ? कहाँ उत्पन्न होते हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रज्ञापनासूत्र का निर्देश किया गया है। अर्थात् प्रज्ञापनासूत्र के अनुसार इसका उत्तर जानना चाहिए। प्रज्ञापनासूत्र में इस विषय में ऐसा उल्लेख किया गया है "पैतालीस लाख योजन के लम्बे चौड़े मनुष्यक्षेत्र में जिसमें अढ़ाई द्वीप-समुद्र हैं, पन्द्रह कर्मभूमियां, तीस अकर्मभूमियां और छप्पन अन्तर्वीप हैं-गर्भव्युत्क्रान्तिक मनुष्यों के ही 1 उच्चार (मल) में, 2 प्रस्रवण (मूत्र) में, 3 कफ में, 4 सिंघाण-नासिका के मल में, 5 वमन में, 6 पित्त में, 7 मवाद में, 8 खून में, 9 वीर्य में, 10 सूखे हुए वीर्य के पुद्गलों के पुनः गीला होने में, 11 मृत जीव के कलेवरों में, 12 स्त्री-पुरुष के संयोग में, 13 गांवनगर की गटरों में और 14 सब प्रकार के अशुचि स्थानों में ये सम्मूछिम मनुष्य उत्पन्न होते हैं। अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण इनकी अवगाहना होती है। ये असंज्ञी, मिथ्यादृष्टि और सब पर्याप्तियों से अपर्याप्त रह कर अन्तर्मुहुर्त मात्र की आयु पूरी कर मर जाते हैं।" Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102 [जीवाजीवाभिगमसूत्र इन सम्मूछिम मनुष्यों में शरीरादि द्वारों की वक्तव्यता इस प्रकार जाननी चाहिएशरीरद्वार-इनके तीन शरीर होते हैं--प्रौदारिक, तैजस और कार्मण। अवगाहनाद्वार–इनकी अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण है। संहनन, संस्थान, कषाय, लेण्याद्वार द्वीन्द्रियों की तरह जानना / इन्द्रियद्वार- इनके पांचों इन्द्रियां होती हैं। संजीद्वार और वेदद्वार द्वीन्द्रिय की तरह जानना / पर्याप्तिद्वार में--पांच अपर्याप्तियां होती हैं / ये लब्धिअपर्याप्तक होते हैं। दप्टि, दर्शन, ज्ञान, योग, उपयोग द्वार पृथ्वीकायिकों के समान जानने चाहिए . पाहारद्वार द्वीन्द्रियों की तरह है / उपपात--नै रयिक. देव, तेजस्काय, वायुकाय और असंख्यात वर्षायु वालों को छोड़कर शेष . जीवस्थानों से पाकर उत्पन्न होते हैं। स्थिति-जयन्य और उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त प्रमाण / जघन्य अन्तर्मुहूर्त से उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कुछ अधिक जानना चाहिए। ये समवहत भी मरते हैं और असमवहत भी। उदवर्तना-नै रयिक, देव और असंख्यात वर्षायु वालों को छोड़कर शेष जीवस्थानों में मरकर उत्पन्न होते हैं। इसलिए गति-प्रागतिद्वार में दो गति वाले और दो प्रागति वाले (तिर्यक और मनुष्य) हैं। ये प्रत्येकशरीरी और असंख्यात हैं / हे आयुष्मन् श्रमण ! यह सम्मूछिम मनुष्यों का वर्णन हुआ / गर्भज मनुष्यों का वर्णन-गर्भ से उत्पन्न होने वाले मनुष्य तीन प्रकार के हैं-१. कर्मभूमिक, 2. अकर्मभूमिक और 3. अन्तद्वीपज / कर्मभूमिक-कर्म-प्रधान भूमियों में उत्पन्न होने वाले मनुष्य कर्मभूमिक हैं। कृषि वाणिज्यादि अथवा मोक्षानुष्ठानरूप कर्म जहाँ प्रधान हों वह कर्मभूमि है। पांच भरत, पांच ऐरवत और 5 महाविदेह-ये 15 कर्मभूमियाँ हैं। इन्हीं भूमियों में जीवन-निर्वाह हेतु विविध व्यापार, व्यवसाय, कषि, कला आदि होते हैं। इन्हीं क्षेत्रों में मोक्ष के लिए अनुष्ठान, प्रयत्न आदि हो सकते हैं। अतएव ये कर्मभूमियां हैं। इनमें ही सब सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक व्यवस्थाएँ होती हैं। इनमें उत्पन्न मनुष्य कर्मभूमिक मनुष्य हैं। अकर्मभूमिक-जहाँ असि (शस्त्रादि), मषि (साहित्य-व्यापार कलाएँ) और कृषि (खेती) आदि कर्म न हो तथा जहाँ मोक्षानुष्ठान हेतु धर्माराधना आदि प्रयत्न न हों ऐसी भोग-प्रधान भूमि अकर्मभूमियां हैं / पाँच हैमवत, पांच है रण्यवत, पांच हरिवर्ष, पांच रम्यकवर्ष, पांच देवकुरु और पांच उत्तरकुरु-ये तीस अकर्मभूमियां हैं / इन 30 अकर्मभूमियों में उत्पन्न होने वाले मनुष्य अकर्मभूमिक हैं / यहाँ के मनुष्यों के भोगोपभोग के साधनों को पूर्ति कल्पवृक्षों से होती है, इसके लिए उन्हें कोई कर्म नहीं करना पड़ता। पाँच हैमवत और पांच है रण्यवत क्षेत्र में मनुष्य एक कोस ऊँचे, एक पल्योपम की आयु वाले और वज्रऋषभनाराच संहनन वाले तथा समचतुरस्रसंस्थान वाले होते हैं। इनकी पीठ की पस Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति : मनुष्यों का प्रतिपादन] [103 लियाँ 64 होती हैं / ये एक दिन के अन्तर से भोजन करते हैं और 79 दिन तक सन्तान की पालना करते हैं। पांच हरिवर्ष और पांच रम्यकवर्ष क्षेत्रों में मनुष्यों की आयु दो पत्योपम की, शरीर की ऊँचाई दो कोस की होती है। ये वज्रऋषभनाराचसंहनन वाले और समचतुरस्रसंस्थान वाले होते हैं / दो दिन के अन्तर से पाहार की अभिलाषा होती है। इनके 128 पसलियाँ होती हैं / 64 दिन तक संतान की पालना करते हैं। पांच देवकुरु और पांच उत्तरकूरु क्षेत्र के मनुष्यों की आयु तीन पल्योपम की, ऊँचाई तीन कोस की होती है / इनके बनऋषभनाराचसंहनन और समचतुरस्रसंस्थान होता है / इनकी पसलियाँ 256 होती हैं, तीन दिन के अन्तर से आहार करते हैं और 49 दिन तक अपत्य-पालना करते हैं / अन्तर्दोपज–अन्तर् शब्द 'मध्य' का वाचक है / लवणसमुद्र के मध्य में जो द्वीप हैं वे अन्तर्वीप कहलाते हैं / ये अन्तर्वीप छप्पन हैं / इनमें रहने वाले मनुष्य अन्तर्वीपज कहलाते हैं। ये अन्तर्वीप हिमवान और शिखरी पर्वतों की लवणसमुद्र में निकली दाढानों पर स्थित हैं / जम्बूद्वीप में भरतक्षेत्र की सीमा पर स्थित हिमवान पर्वत के दोनों छोर पूर्व-पश्चिम लवणसमुद्र में फैले हुए हैं। इसी प्रकार ऐरवत क्षेत्र की सीमा पर स्थित शिखरी पर्वत के दोनों छोर भी लवणसमुद्र में फैले हुए हैं। प्रत्येक छोर दो भागों में विभाजित होने से दोनों पर्वतों के पाठ भाग लवणसमुद्र में जाते हैं। हाथी के दांतों के समान प्राकृति वाले हाने से इन्हें दाढा कहते हैं। प्रत्येक दाढा पर मनुष्यों की आबादी वाले सात-सात क्षेत्र हैं। इस प्रकार 847 = 56 अन्तर्वीप हैं। इनमें रहने वाले मनुष्य अन्तर्वीपज कहलाते हैं। हिमवान पर्वत से तीन सौ योजन की दूरी पर लवणसमुद्र में 300 योजन विस्तार वाले 1. एकोसक, 2. प्राभासिक, 3. वैषाणिक और 4. लांगलिक नामक चार द्वीप चारों दिशाओं में हैं। इनके आगे चार-चार सौ योजन दूरी पर चार सौ योजन विस्तार वाले 5. हयकर्ण, 6. गजकर्ण, 7. गोकर्ण और 8. शष्कुलोकर्ण नामक चार द्वीप चारों विदिशाओं में हैं। ___इसके आगे पांच सौ योजन जाने पर पांच सौ योजन विस्तार वाले 9. आदर्शमुख, 10. मेढमुख, 11. अयोमुख, 12. गोमुख नामक चार द्वीप चारों विदिशाओं में हैं। इनके आगे छह सौ योजन जाने पर छह सौ योजन विस्तार वाले 13. ह्यमुख, 14. गजमुख, 15. हरिमुख और 16. व्याघ्रमुख नामक चार द्वीप चारों विदिशाओं में हैं। इसके प्रागे सात सौ योजन जाने पर सात सौ योजन विस्तार वाले 17. अश्वकर्ण, 18. सिंहकर्ण, 19. अकर्ण और 20. कर्णप्रावरण नामक चार द्वीप चारों विदिशाओं में हैं। इनसे आठ सौ योजन आगे आठ सौ योजन विस्तार वाले, 21. उल्कामुख, 22. मेघमुख, 23. विद्युत्मुख और 23. अमुख नाम के चार द्वीप चारों विदिशाओं में हैं। इससे नौ सो योजन आगे नौ सौ योजन विस्तार वाले 25. घनदन्त, 26. लष्टदन्त, 27. गूढदन्त और 28. शुद्धदन्त नाम के चार द्वीप चारों विदिशाओं में हैं / ये सब अट्ठाईसों द्वीप जम्बूद्वीप की जगती से तथा हिमवान पर्वत से तीन सौ योजन से लगाकर नौ सो योजन दूर हैं। इसी तरह ऐरवत क्षेत्र की सीमा करने वाले शिखरी पर्वत की दाढों पर भी इन्हीं नाम वाले 28 द्वीप हैं / इस तरह दोनों तरफ के मिलकर छप्पन अन्तझैप होते हैं / इन अन्तर्वीपों में एक पल्यो Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104] [जीवाजीवाभिगमसूत्र पम के असंख्यातवें भाग की आयु वाले युगलिक मनुष्य रहते हैं / इन द्वीपों में सदैव तीसरे आरे जैसी रचना रहती है। यहाँ के स्त्री-पुरुष सर्वांग सुन्दर एवं स्वस्थ होते हैं / वहाँ रोग तथा उपद्रवादि नहीं होते हैं / उनमें स्वामी-सेवक व्यवहार नहीं होता। उनकी पीठ में 64 पसलियाँ होती हैं। उनका आहार एक चतुर्थभक्त के बाद होता है तथा मिट्टी एवं कल्पवृक्ष के पुष्प-फलादि का होता है। वहाँ की पृथ्वी शक्कर से भी अधिक मोठी होती है तथा कल्पवृक्ष के फलादि चक्रवर्ती के भोजन से अनेक गुण अच्छे होते हैं। यहाँ के मनुष्य मंदकषाय वाले, मृदुता-ऋजुता से सम्पन्न तथा ममत्व और वैरानुबन्ध से रहित होते हैं / यहाँ के युगलिक अपने अवसान के समय एक युगल (स्त्री-पुरुष) को जन्म देते हैं और 79 दिन तक उसका पालन-पोषण करते हैं। इनका मरण जंभाई, खांसी या छींक आदि से होता हैपीड़ापूर्वक नहीं / ये मरकर देवलोक में जाते हैं। कर्मभूमिक मनुष्य दो प्रकार के हैं-आर्य और म्लेच्छ (अनार्य) / शक, यवन, किरात, शबर, बर्बर, आदि अनेक प्रकार के म्लेच्छों के नाम प्रज्ञापनासूत्र में बताये गये हैं। आर्य दो प्रकार के हैं ऋद्धिप्राप्त आर्य और अद्धिप्राप्त आर्य / ऋद्धिप्राप्त प्रार्य छह प्रकार के हैं-१. अरिहंत, 2. चक्रवर्ती, 3. बलदेव, 4. वासुदेव, 5. चारण और 6. विद्याधर / अर्नाद्धप्राप्त प्रार्य नौ प्रकार के हैं—१. क्षेत्रआर्य, 2. जातिप्रार्य, 3. कुलमार्य, 4. कर्मआर्य, 5. शिल्पप्रार्य, 6. भाषामार्य, 7. ज्ञानार्य, 8. दर्शनार्य और 9. चारित्रमार्य / 1. क्षेत्रपार्य-साढे पच्चीस देश के निवासी क्षेत्रमार्य हैं / इन क्षेत्रों में तीर्थंकरों, चक्रवतियों, बलदेवों और वासुदेवों का जन्म होता है / 2. जातिआर्य-जिनका मातृवंश श्रेष्ठ हो (शिष्टजनसम्मत हो)। 3. कुलआर्य-जिनका पितवंश श्रेष्ठ हो। उग्र, भोग, राजन्य आदि कुलार्य हैं। 4. कर्मप्रार्य-शिष्टजनसम्मत व्यापार आदि द्वारा आजीविका करने वाले कर्ममार्य हैं। 5. शिल्पार्य-शिष्टजन सम्मत कलाओं द्वारा जीविका करने वाले शिल्पार्य हैं / 6. भाषाप्रार्य-शिष्टजन मान्य भाषा और लिपि का प्रयोग करने वाले भाषाप्रार्य हैं। सूत्रकार ने अर्धमागधी भाषा और ब्राह्मी लिपि का उपयोग करने वालों को भाषार्य कहा है। उपलक्षण से वे सब भाषाएँ और लिपियाँ ग्राह्य हैं जो शिष्टजनसम्मत और कोमलकान्त पदावली से युक्त हों। 7. ज्ञानप्रार्य-पांच ज्ञानों-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान और केवलज्ञान की अपेक्षा से पांच प्रकार के ज्ञानआर्य समझने चाहिए। 8. दर्शनार्य-सरागदर्शन और वीतरागदर्शन की अपेक्षा दो प्रकार के दर्शनार्य समझने चाहिए। 9. चारित्रार्य सरागचारित्र और वीतरागचारित्र की अपेक्षा चारित्रमार्य दो प्रकार के जानने चाहिए। 1. प्रज्ञापनासूत्र में विस्तृत जानकारी दी गई है। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति : मनुष्यों का प्रतिपादन] [105 ___ सरागदर्शन और सरागचारित्र से तात्पर्य कषाय को विद्यमानता जहाँ तक बनी रहती है वहां तक का दर्शन और चारित्र सरागदर्शन और सरागचारित्र जानना चाहिए / कषायों की उपशान्तता तथा क्षीणता के साथ जो दर्शन और चारित्र होता है वह वीतरागदर्शन और वीतरागचारित्र है / अकषाय रूप यथाख्यातचारित्र दो प्रकार का है—छाअस्थिक और कैवलिक / ग्यारहवें, बारहवें गुणस्थानवी जीवों के छाद्यस्थिक यथाख्यातचारित्र होता है और तेरहवें, चौदहवें गुणस्थानवी जीवों के कैवलिक यथाख्यातचारित्र होता है। इसलिये यथाख्यातचारित्र-आर्य उक्त प्रकार से दो तरह के हो जाते हैं। यह संक्षेप में प्रार्य-मनुष्यों का वर्णन हुा / विस्तृत जानकारी के लिए प्रज्ञापनासूत्र पढ़ना चाहिए। ये मनुष्य संक्षेप से पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से दो प्रकार के हैं, इत्यादि वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए। इन मनुष्यों के सम्बन्ध में 23 द्वारों की विचारणा इस प्रकार है शरीरद्वार--मनुष्यों में पांचों-औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण शरीर पाये जाते हैं। अवगाहना-जघन्य से इनकी अवगाहना अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट से तीन कोस है। संहनन-छहों संहनन पाये जाते हैं। संस्थान-छहों संस्थान पाये जाते हैं / कषायद्वार-क्रोधकषाय वाले, मानकषाय वाले, मायाकषाय वाले, लोभकषाय वाले और अकषाय वाले (वीतराग मनुष्य की अपेक्षा) भी होते हैं। संज्ञाद्वार-चारों संज्ञा वाले भी हैं और नोसंज्ञी भी हैं / निश्चय से वीतराग मनुष्य और व्यवहार से सब चारित्री नोसंज्ञोपयुक्त हैं।' लोकोत्तर चित्त की प्राप्ति से वे दसों प्रकार की संज्ञा से युक्त हैं। लेण्याद्वार--छहों लेश्या भी पायी जाती हैं और अलेश्यी भी हैं। परम शुक्लध्यानी अयोगिकेवली अलेश्यी हैं। इन्द्रियद्वार-पांचों इन्द्रियों के उपयोग से उपयुक्त भी होते हैं और केवली की अपेक्षा नोइन्द्रियोपयुक्त भी हैं। समुद्घातद्वार-सातों समुद्घात पाये जाते हैं / क्योंकि मनुष्यों में सब भाव संभव है। संजीद्वार-संज्ञी भी हैं और नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी भी हैं। केवली की अपेक्षा नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी हैं। 1. निर्वाणसाधकं सर्वं ज्ञेयं लोकोत्तराश्रयम् / संज्ञाः लोकाश्रयाः सर्वाः भवांकुरजलं परं / / Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 106] [जीवाजीवाभिगमसूत्र वेदद्वार-तीनों वेद पाये जाते हैं और अवेदी भी होते हैं। सूक्ष्मसंपराय आदि गुणस्थान वाले अवेदी हैं। पर्याप्तिद्वार-पांचों पर्याप्तियां और पांचों अपर्याप्तियां होती हैं। भाषा और मनःपर्याप्ति को एक मानने की अपेक्षा से पांच पर्याप्तियां कही हैं। दृष्टिद्वार-तीनों दृष्टियां पाई जाती हैं। कोई मिथ्यादृष्टि होते हैं, कोई सम्यग्दृष्टि होते हैं और कोई मिश्रदृष्टि होते हैं / दर्शनद्वार–चारों दर्शन पाये जाते हैं / ज्ञानद्वार-मनुष्य ज्ञानी भी होते हैं और अज्ञानी भी होते हैं / जो मिथ्यादृष्टि हैं वे अज्ञानी हैं और जो सम्यग्दृष्टि हैं वे ज्ञानी हैं। इनमें पांच ज्ञान और तीन अज्ञान की भजना कही गई है। वह इस प्रकार है-कोई मनुष्य दो ज्ञान वाले हैं, कोई तीन ज्ञान वाले हैं, कोई चार ज्ञान वाले हैं और कोई एक ज्ञान वाले हैं / जो दो ज्ञान वाले हैं, वे नियम से मतिज्ञान और श्रुतज्ञान वाले हैं / जो तीन ज्ञान वाले हैं, वे मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान वाले हैं अथवा मतिज्ञानी श्रुतज्ञानी और मनःपर्यायज्ञानी है। क्योंकि अवधिज्ञान के बिना भी मनःपर्यायज्ञानी हो सकता है। सिद्धप्राभूत आदि में अनेक स्थानों पर ऐसा कहा गया है / __ जो चार ज्ञान वाले हैं वे मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी और मनःपर्यायज्ञानी हैं। जो एक ज्ञान वाले हैं वे केवलज्ञानी हैं / केवलज्ञान होने पर शेष चारों ज्ञान चले जाते हैं। पागम में कहा गया है कि केवलज्ञान होने पर छाद्मस्थिकज्ञान नष्ट हो जाते हैं।' केवल ज्ञान होने पर शेष ज्ञानों का नाश कैसे ? यहाँ शंका हो सकती है कि केवलज्ञान का प्रादुर्भाव होने पर शेष ज्ञान चले क्यों जाते हैं ? अपने-अपने आवरण के आंशिक क्षयोपशम होने पर ये मति आदि ज्ञान होते हैं तो अपने-अपने प्रावरण के निर्मल क्षय होने पर वे अधिक मात्रा में होने चाहिए, जैसे कि चारित्रपरिणाम होते हैं। इसका समाधान मरकत मणि के उदाहरण से किया गया है। जैसे जातिवंत श्रेष्ठ मरकत मणि मल आदि से लिप्त होने पर जब तक उसका समूल मल नष्ट नहीं होता तब तक थोड़ा थोड़ा मल दूर होने पर थोड़ी थोड़ी मणि की अभिव्यक्ति होती है। वह क्वचित्, कदाचित् और कथंचिद् होने से अनेक प्रकार की होती है / इसी तरह प्रात्मा स्वभाव से समस्त पदार्थों को जानने की शक्ति से सम्पन्न है परन्तु उसका यह स्वभाव आवरण रूप मल-पटल से तिरोहित है / जब तक पूरा मल दूर नहीं होता तब तक आंशिक रूप से मलोच्छेद होने से उस स्वभाव की प्रांशिक अभिव्यक्ति होती है। वह क्वचित् कदाचित् और कथंचित् होने से अनेक प्रकार की हो सकती है / वह मति, श्रुत आदि के भेद से होती है। जब मरकतमणि का सम्पूर्ण मल दूर हो जाता है तो वह मणि एक रूप में ही अभिव्यक्त होती है / इसी तरह जब प्रात्मा के सम्पूर्ण आवरण दूर हो जाते हैं तो आंशिक ज्ञान नष्ट 1. नम्मि उ छाउमथिए नाणे' इति वचनात् / Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति: देवों का वर्णन] [107 होकर सम्पूर्ण ज्ञान (केवलज्ञान) एक ही रूप में अभिव्यक्त हो जाता है।' __ जो अज्ञानी हैं, वे दो अज्ञान वाले भी हैं और तीन अज्ञान वाले भी हैं / जो दो अज्ञान वाले हैं वे मति-अज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी हैं / जो तीन अज्ञान आले हैं वे मति-अज्ञानी, श्रुत-अज्ञानी और विभंगज्ञानी हैं। योगद्वार----मनुष्य मनयोगी, वचनयोगी, काययोगी भी है और अयोगी भी है। शैलेशी अवस्था में अयोगित्व है। उपयोगद्वार और आहारद्वार द्वीन्द्रियों की तरह जानना / उपपातद्वार--सातवीं नरक को छोड़कर शेष सब स्थानों से मनुष्यों में जन्म हो सकता है। सातवीं नरक का नैरयिक मनष्य नहीं होता। सिद्धान्त में कहा गया है कि-सप्तम पृथ्वी नैरयिक, तेजस्काय, वायूकाय और असंख्य वर्षायू वाले अनन्तर उर्तित होकर मनुष्य नहीं होते। स्थितिद्वार--मनुष्यों को जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की है। समवहतद्वार-मनुष्य मारणांतिक समुद्घात से समवहत होकर भी मरते हैं और असमवहत होकर भी मरते हैं। उद्वर्तनाद्वार—ये सब नारकों में, सब तिर्यंचों में, सब मनुष्यों में और सब अनुत्तरोपपातिक देवों तक उत्पन्न होते हैं और कोई सब कर्मों से मुक्त होकर सिद्ध-बुद्ध हो जाते हैं और निर्वाण को प्राप्त कर सब दुःखों का अन्त कर देते हैं। गति-आगतिद्वार-मनुष्य पांच गतियों में (सिद्धगति सहित) जाने वाले और चार गतियों से आने वाले हैं। हे प्रायुष्मन् श्रमण ! ये प्रत्येकशरीरी हैं और संख्येय हैं। मनुष्यों की संख्या संख्येय कोटी प्रमाण है। इस प्रकार मनुष्यों का कथन सम्पूर्ण हुआ / देवों का वर्णन 42. से किं तं देवा? देवा चउग्विहा पण्णत्ता, तंजहाभवणवासी, वाणमंतरा, जोइसिया, वेमाणिया / से कि तं भवणवासी ? 1. शंका----आवरणदेसविगमे जाइं विजंति मइसुयाई णि / प्रावरणसम्वविगमे कहं ताई न होंति जीवस्स / / समाधान-मलविद्धमणेयक्तिर्यथाऽनेकप्रकारतः / कर्मविद्धात्मविज्ञप्तिस्तथाऽनेकप्रकारतः // यथा जात्यस्य रत्नस्य नि:शेषमलहानितः / स्फूटकरूपाऽभिव्यक्तिविज्ञप्तिस्तद्वदात्मनः / / Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108] [जीवाजीवाभिगमसूत्र भवणवासी दसविहा पण्णत्ता, तंजहा-- असुरा जाव थणिया / से तं भवणवासी। से किं तं बाणमंतरा? देवभेदो सन्धो भाणियव्यो जाव ते दुविहा पण्णता, तंजहा-पज्जत्ता य अपज्जत्ता य / तओ सरीरगा–वेउन्विए, तेयए, कम्मए / ओगाहणा दुविहा-भवधारणिज्जा य उत्तरवेउठिवया य / तस्थ णं जा सा भवधारणिज्जा सा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं सत्त रयणीयो। उत्तरवेउब्विया जहन्नेणं अंगुलस्स संखेज्जइमागं उक्कोसेणं जोयणसयसहस्सं। ___ सरीरगा छण्हं संघयणाणं असंघयणी वट्ठी, व छिरा व हारू णेव संधयणमस्थि, जे पोग्गला इट्ठा कंता जाव ते तेसि संघायत्ताए परिणमंति / किसंठिया ? गोयमा! दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-भवधारणिज्जा य उत्तरदेउव्विया य / तत्थ णं जे भवधारणिज्जा ते णं समचउरंससंठिया पण्णत्ता, तत्थ णं जे ते उत्तरवेउब्विया ते णं नाणासंठाणसंठिया पण्णत्ता, चत्तारि कसाया, चत्तारि सण्णाम्रो, छ लेस्साओ, पंच इंदिया, पंच समुग्धाया, सन्नी वि, असन्नी वि, इथिवेया वि, पुरिसवेया वि, णो णपुंसकवेदी, पज्जत्ती अपत्तीओ पंच, विट्ठी तिषिण, तिण्णि बंसणा, णाणी वि अण्णाणी वि, जे नाणो ते नियमा तिग्णाणी, अण्णाणी भयणाए, दुविहे उवओगे, तिविहे जोगे, आहारो णियमा छदिसि; ओसन्न कारणं पडुच्चं वण्णओ हालिद्दसुक्किलाई जाव आहारमाहरति / उववाओ तिरियमणुस्सेहि, ठिती जहन्नेणं दसवाससहस्साई उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोबमाई, दुविहा वि मरंति, उध्वट्टित्ता नो नेरइएसु गच्छंति तिरियमणुस्सेसु जहासंभवं, नो देवेसु गच्छंति, दुगतिआ, दुआगतिआ परित्ता असंखेज्जा पण्णत्ता समणाउसो, से तं देवा; से तं पंचेंदिया; से तं ओराला तसा पाणा / [42] देव क्या हैं ? देव चार प्रकार के हैं, यथा-भवनवासी, वानव्यंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक / भवनवासी देव क्या हैं ? भवनवासी देव दस प्रकार के कहे गये हैंअसुरकुमार यावत् स्तनितकुमार / वाणमन्तर क्या है ? (प्रज्ञापनासूत्र के अनुसार) देवों के भेद कहने चाहिए। यावत् वे संक्षेप से पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से दो प्रकार के हैं। उनके तीन शरीर होते हैं-वैक्रिय, तैजस और कार्मण। अवगाहना दो प्रकार की होती है-भवधारणीय और उत्तरवैक्रियिकी / इनमें जो भवधारणीय है वह जघन्य से अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट सात हाथ की है। उत्तरवैक्रियिकी जघन्य से अंगुल का संख्यातवां भाग और उत्कृष्ट एक लाख योजन की है। देवों के शरीर छह संहननों में से किसी संहनन के नहीं होते हैं, क्योंकि उनमें न हड्डी होती है न शिरा (धमनी नाड़ी) और न स्नायु (छोटी नसें) हैं, इसलिए संहनन नहीं होता। जो पुद्गल Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति : देवों का वर्णन] [109 इष्ट कांत यावत् मन को आह्लादकारी होते हैं उनके शरीर रूप में एकत्रित हो जाते हैं-परिणत हो जाते हैं। भगवन् ! देवों का संस्थान क्या है ? गौतम ! संस्थान दो प्रकार के हैं--भवधारणीय और उत्तरवैक्रियिक / उनमें जो भवधारणीय है वह समचतुरस्रस्थान है और जो उत्तरवैक्रियिक है वह नाना आकार का है। देवों में चार कषाय, चार संज्ञाएँ,छह लेश्याएँ, पांच इन्द्रियां, पांच समुद्घात होते हैं / वे संज्ञी भी हैं और असंज्ञी भी हैं। वे स्त्रीवेद वाले, पुरुषवेद वाले हैं, नपुंसकवेद वाले नहीं हैं। उनमें पांच पर्याप्तियां और पांच अपर्याप्तियां होती हैं। उनमें तीन दृष्टियां, तीन दर्शन होते हैं। वे ज्ञानी भी होते हैं और अज्ञानी भी होते हैं। जो ज्ञानी हैं वे नियम से तीन ज्ञान वाले हैं और अज्ञानी हैं वे भजना से तीन अज्ञान वाले हैं। उनमें साकार अनाकार दोनों उपयोग पाये जाते हैं। उनमें तीनों योग होते हैं / उनका आहार नियम से छहों दिशाओं के पुद्गलों को ग्रहण करना है। प्रायः करके पीले और सफेद शुभ वर्ण के यावत् सुभगंध, शुभरस, शुभस्पर्श वाले पुद्गलों का आहार करते हैं / वे तिर्यंच और मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं। उनकी स्थिति जघन्य से दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की है / वे मारणांतिकसमुद्घात से समवहत होकर भी मरते हैं और असमवहत होकर भी मरते हैं। वे वहाँ से च्युवित होकर नरक में उत्पन्न नहीं होते, यथासम्भव तिर्यंचों मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं, देवों में उत्पन्न नहीं होते। इसलिए वे दो गति वाले, दो प्रागति वाले, प्रत्येकशरीरी और असंख्यात कहे गये हैं / हे आयुष्मन् श्रमण ! यह देवों का वर्णन हुआ। इसके साथ हो पंचेन्द्रिय का वर्णन हुआ और साथ ही उदार त्रसों का वर्णन पूरा हुआ। विवेचन-प्रज्ञापनासूत्र के अनुसार देवों के भेद-प्रभेद जानने चाहिए, वह इस प्रकार हैंदेव चार प्रकार के हैं-१ भवनवासी, 2 वाणव्यंतर, 3 ज्योतिष्क और 4 वैमानिक / भवनवासी-जो देव प्रायः भवनों में निवास करते हैं वे भवनवासी कहलाते हैं। यह नागकुमार आदि की अपेक्षा से समझना चाहिए / असुरकुमार प्राय: आवासों में रहते हैं और कदाचित् भवनों में भी रहते हैं / नागकुमार आदि प्राय: भवनों में रहते हैं और कदाचित् आवासों में रहते हैं। ___ भवन और आवास का अन्तर स्पष्ट करते हुए वृत्तिकार ने लिखा है कि भवन बाहर से गोलाकार और अन्दर से समचौरस होते हैं और नीचे कमल की कणिका के प्राकार के होते हैं। जबकि आवास काय प्रमाण स्थान वाले महामण्डप होते हैं, जो अनेक मणिरत्नों से दिशाओं को प्रकाशित करते हैं। भवनवासी देवों के दस भेद हैं-१ असुरकुमार, 2 नागकुमार, 3 सुपर्णकुमार, 4 विद्युत्कुमार, 5 अग्निकुमार, 6 द्वीपकुमार, 7 उदधिकुमार, 8 दिशाकुमार 9 पवनकुमार और 10 स्तनितकुमार / इनके प्रत्येक के दो-दो भेद है-पर्याप्त और अपर्याप्त / ये कुमारों के समान विभूषाप्रिय, क्रीड़ापरायण, तीव्र अनुराग वाले और सुकुमार होते हैं अतएव ये 'कुमार' कहे जाते हैं। वाणव्यन्तर–'वि' अर्थात विविध प्रकार के 'अन्तर' अर्थात् आश्रय जिनके हों वे व्यन्तर हैं। भवन, नगर और भावासों में-विविध जगहों पर रहने के कारण ये देव व्यन्तर कहलाते हैं / व्यन्तरों Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 110] [जीवाजीवाभिगमसूत्र के भवन रत्नप्रभापृथ्वी के प्रथम रत्नकाण्ड में ऊपर-नीचे सौ-सौ योजन छोड़कर शेष पाठ सौ योजन प्रमाण मध्य भाग में हैं। इनके नगर तिर्यग्लोक में भी हैं और इनके आवास तीनों लोकों में हैं / अथवा जो वनों के विविध पर्वतान्तरों, कंदरान्तरों आदि प्राश्रयों में रहते हैं वे वाणन्यन्तर देव है। वाणव्यन्तरों के पाठ भेद हैं-किन्नर, किंपुरुष, महोरग, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, भूत और पिचाश / इनके प्रत्येक के दो-दो भेद हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त / / ज्योतिष्क-जो जगत् को द्योतित-प्रकाशित करते हैं वे ज्योतिष्क कहलाते हैं अर्थात् विमान / जो ज्योतिष विमानों में रहते हैं वे ज्योतिष्क देव हैं / अथवा जो अपने अपने मुकुटों में रहे हुए चन्द्रसूर्यादि मण्डलों के चिह्नों से प्रकाशमान हैं वे ज्योतिष्क देव हैं। इनके पाँच भेद हैंचन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारा / इनके भी दो भेद हैं पर्याप्त और अपर्याप्त / वैमानिक----जो ऊर्ध्वलोक के विमानों में रहते हैं वे वैमानिक हैं। ये दो प्रकार के हैं--- कल्पोपन्न और कल्पातीत / कल्पोपन्न का अर्थ है-जहाँ कल्प-प्राचार-मर्यादा हो अर्थात् जहाँ इन्द्र, सामानिक, त्रायास्त्रिश आदि की मर्यादा और व्यवहार हो, वे कल्पोपपन्न हैं। जहाँ उक्त व्यवहार या मर्यादा न होवे वे कल्पातीत हैं। कल्पोपन्न के बारह भेद हैं-१ सौधर्म, 2 ईशान, 3 सानत्कुमार, 4 माहेन्द्र, 5 ब्रह्मलोक, 6 लान्तक, 7 महाशुक्र, 8 सहस्रार, 9 अानत, 10 प्राणत, 11 प्रारण और 12 अच्युत / इनके प्रत्येक के दो-दो भेद हैं--पर्याप्त और अपर्याप्त / कल्पातीत देव दो प्रकार के हैं. वेयक और अनुत्तरोपपातिक / गंवेयक देव नौ प्रकार के हैं-१ अधस्तन-अधस्तत, 2 अधस्तन-मध्यम, 3 अधस्तन-उपरिम, 4 मध्यम-अधस्तन, 5 मध्यममध्यम, 6 मध्यम-उपरिम, 7 उपरिम-अधस्तन, 8 उपरिम-मध्यम और 9 उपरिम-उपरिम / इनके भी पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से दो भेद हैं। अनुत्तरोपपातिक देवों के 5 भेद हैं-१ विजय, 2 वैजयंत, 3 जयंत, 4 अपराजित और 5 सर्वार्थसिद्ध / इनके भी प्रत्येक के दो भेद हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त / देवों में जो पर्याप्त, अपर्याप्त का भेद बताया है उसमें अपर्याप्तत्व अपर्याप्तनामकर्म के उदय से नहीं समझना चाहिए। किन्तु उत्पत्तिकाल में ही अपर्याप्तत्व समझना चाहिए / सिद्धान्त में कहा है-नारक, देव, गर्भज तियंच, मनुष्य और असंख्यात वर्ष की आयु वाले उत्पत्ति के समय ही अपर्याप्त होते हैं।' देवों की शरीरादि 23 द्वारों की अपेक्षा निम्न प्रकार की वक्तव्यता हैशरीरद्वार-देवों के तीन शरीर होते हैं वैक्रिय, तैजस और कार्मण / अवगाहनाद्वार-भवधारणीय अवगाहना जघन्य से अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट सात हाथ प्रमाण है। उत्तरवैक्रियिकी जघन्य से अंगुल का संख्यातवां भाग और उत्कृष्ट से एक लाख योजन। 2. नारयदेवातिरियमणय गब्भजा जे असंखवासाऊ / एए उ अपज्जत्ता, उववाए चेव बोद्धव्या / / Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति: देवों का वर्णन] [111 संहननद्वार-छहों संहननों में से एक भी संहनन नहीं होता, क्योंकि अस्थियों की रचना विशेष को संहनन कहते हैं और देवों के शरीर में न अस्थि है, न शिरा है और न स्नायु है / अतएव वे असंहननी हैं। किन्तु जो पुद्गल इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, मन को संतुष्ट करने वाले नरम और कमनीय होते हैं, वे पुद्गल उनके शरीररूप में एकत्रित हो जाते हैं—परिणत हो जाते हैं। ___ संस्थानद्वार-भवधारणीय संस्थान तो समचौरस संस्थान है और उत्तरवैक्रिय नाना प्रकार का होता है, क्योंकि वे इच्छानुसार आकार बना सकते हैं। कषाय-चारों कषाय होते हैं / संज्ञा-चारों संज्ञाएँ होती हैं। लेश्या-छहों लेश्याएँ होती हैं। इन्द्रिय-पांचों इन्द्रियां होती हैं। समुद्घात-पांच समुद्धात होते हैं वैक्रिय, कषाय, मारणांतिक, वैक्रिय और तेजस समुद्घात। संजीद्वार-ये संज्ञी भी होते हैं और असंज्ञी भी होते हैं / जो गर्भव्युत्क्रान्तिक मर कर देव होते हैं वे संजी हैं और जो सम्मूछिमों से आकर उत्पन्न होते हैं वे असंज्ञी कहलाते हैं। देवद्वार-ये स्त्रीवेदी और पुवेदी होते हैं / नपुंसकवेद वाले नहीं होते। पर्याप्तिद्वार, दृष्टिद्वार और दर्शनद्वार-नैरयिकों की तरह / ज्ञानद्वार—ये ज्ञानी भी हैं और अज्ञानी भी हैं / जो ज्ञानी हैं वे नियम से तीन ज्ञान वाले हैं-मति, श्रुत और अवधि / जो अज्ञानी हैं उनमें कोई दो अज्ञान वाले हैं और कोई तीन अज्ञान वाले हैं। जो तीन अज्ञान वाले हैं वे मति-प्रज्ञान, श्रत-अज्ञान और विभंगज्ञान वाले हैं। जो दो अज्ञान वाले हैं वे मति-अज्ञान, श्रुत-प्रज्ञान वाले हैं / जो असंज्ञियों से आकर उत्पन्न होते हैं, उनकी अपेक्षा से दो अज्ञान होते हैं / यह भजना का तात्पर्य है। उपयोग और आहारद्वार-नैरयिकवत् जानना चाहिए। अर्थात् साकार और अनाकार दोनों तरह से उपयोग होते हैं / छहों दिशाओं से आहार ग्रहण करते हैं। उपपातद्वार--संज्ञीपंचेन्द्रिय, असंजीपंचेन्द्रिय तिर्यंच और गर्भज मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं, शेष जीवस्थानों से नहीं। स्थितिद्वार--इनकी जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम की है। ___ समवहतद्वार-मारणांतिकसमुद्घात से समवहत होकर भी मरते हैं और असमवहत होकर भी। च्यवनद्वार-ये देव मरकर पृथ्वी, पानी, वनस्पतिकाय में, गर्भज और संख्यात वर्ष की आयु वाले तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं / शेष जीवस्थान में नहीं जाते। गति-आगतिद्वार-इसलिए वे दो गति में जाने वाले और दो गति से आने वाले हैं। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112] जीवाजीवाभिगमसूत्र हे आयुष्मन् श्रमण ! ये देव प्रत्येकशरीरी हैं और असंख्यात हैं। इस प्रकार देवों का वर्णन हुआ। इसके साथ पंचेन्द्रियों का वर्णन पूरा हुआ और साथ ही उदार बसों की वक्तव्यता पूर्ण हुई / आगे के सूत्र में स्थावरभाव और त्रसभाव की भवस्थिति का प्रतिपादन करते हुए सूत्रकार कहते हैंभवस्थिति का प्रतिपादन 43. थावरस्स णं भंते ! केवइयं कालं ठिती पण्णता ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं वावीसं वाससहस्साई ठिती पण्णत्ता। तसस्स णं भंते ! केवइयं कालं ठिती पण्णता? गोयमा ! जहण्णणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता। थावरे णं भंते ! थावरे ति कालमो केवच्चिरं होइ? जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं अणंतं कालं अणंताओ उस्सप्पिणीओ अवसप्पिणीओ कालो। खेत्तओ अणंता लोया असंखेज्जा पुग्गलपरियट्टा / तेणं पुग्गलपरियट्टा आवलियाए असंखेज्जहभागो। तसे णं भंते ! तसे ति कालओ केवञ्चिरं होइ ? जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं असंखेज्जकालं असंखेज्जाओ उस्सपिणीमो अवसप्पिणीओ कालओ। खेत्तओ असंखेज्जा लोगा। थावरस्स णं भंते ! केवतिकालं अंतर होइ? जहा तससंचिटणाए। तसस्स णं भंते ! केवइकालं अंतरं होइ ? गोयमा ! जहणणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो। एएसि णं भंते ! तसाणं थावराण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा, बहुया वा, तुल्ला वा, विसेसाहिया वा? गोयमा ! सम्वत्थोवा तसा, थावरा अणंतगुणा / से तं दुविहा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता / दुविहपडिवत्ती समत्ता। [43] भगवन् ! स्थावर की कालस्थिति (भवस्थिति) कितने समय की कही गई है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से बावीस हजार वर्ष की है। भगवन् ! अस की भवस्थिति कितने समय की कही है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट से तेतीस सागरोपम की कही है। भंते ! स्थावर जीव स्थावर के रूप में कितने काल तक रह सकता है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से अनंतकाल तक-अनन्त उत्सपिणी Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति: भवस्थिति का प्रतिपादन] [113 अवसपिणियों तक / क्षेत्र से अनन्त लोक, असंख्येय पुद्गलपरावर्त तक / प्रावलिका के असंख्यातवें भाग में जितने समय होते हैं उतने पुद्गलपरावर्त तक स्थावर स्थावररूप.में रह सकता है। भंते ! स जीव अस के रूप में कितने काल तक रह सकता है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से असंख्यात उत्सर्पिणी-प्रवपिणियों तक / क्षेत्र से असंख्यात लोक / भगवन् ! स्थावर का अन्तर कितना है ? गौतम ! जितना उनका संचिट्ठणकाल है अर्थात् असंख्येय उत्सर्पिणी-अवसर्पिणीकाल से; क्षेत्र से असंख्येय लोक / भगवन् ! स का अन्तर कितना है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्ट से वनस्पतिकाल / भगवन् ! इन बसों और स्थावरों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े त्रस हैं / स्थावर जीव उनसे अनन्तगुण हैं। यह दो प्रकार के संसारी जीवों की प्ररूपणा हुई। यह द्विविध प्रतिपत्ति नामक प्रथम प्रतिपत्ति पूर्ण हुई। विवेचन—इस सूत्र में प्रस और स्थावर जीवों को भवस्थिति, कायस्थिति, अन्तर और अल्पबहुत्व प्रतिपादित किया है। स्थावर जीवों की भवस्थिति जघन्य से अन्तमुहर्त और उत्कृष्ट से बावोस हजार वर्ष को कही है / यह स्थिति पृथ्वीकाय को लेकर समझना चाहिए, क्योंकि अन्य स्थावरकाय को उत्कृष्ट भवस्थिति इतनी संभव नहीं है। __ त्रसकाय की जघन्य भवस्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से तेतीस सागरोपम की कही है। यह देवों और नारकों की अपेक्षा से समझना चाहिए / अन्य त्रसों की इतनी उत्कृष्ट भवस्थिति नहीं होती। कायस्थिति का अर्थ है-पुनः पुनः उसी काय में जन्म लेने पर उन भवों की कालगणना / जैसे स्थावरकाय वाला जितने समय तक स्थावर के रूप में जन्म लेता रहता है, वह सब काल उसको कायस्थिति समझनी चाहिए। स्थावर जीव की कायस्थिति कितनी है ? इसका अर्थ यह है कि स्थावर जीव कितने समय तक स्थावर के रूप में लगातार जन्म लेता रहता है। इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा गया है कि जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से अनन्त काल तक स्थावर स्थावर के रूप में जन्म-मरण करता रहता है / इस अनन्तकाल को काल और क्षेत्र की अपेक्षा से स्पष्ट किया गया है। काल से अनन्त उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल तक स्थावर स्थावर के रूप में रह सकता है। क्षेत्र की अपेक्षा से इस अनन्तता को इस प्रकार समझाया गया है कि अनन्त लोकों में जितने आकाश-प्रदेश हैं उन्हें प्रतिसमय एक-एक का अपहार करने से जितना समय लगता है वह समय अनन्त अवपिणी-उत्सपिणीमय है। इसी अनन्तता को पुद्गलपरावत के मान से बताते हुए कहा गया है कि असंख्येय पुद्गलपरावर्तों (क्षेत्रपुद्गलपरावों) में जितनी उत्सपिणियां Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114] [जीवाजीवाभिगमसूत्र अवपिणियां होती हैं, उतनी अनन्त अवसर्पिणी-उत्सपिणी तक स्थावर के रूप में रह सकता है / पुद्गलपरावर्तों की असंख्येयता को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि प्रावलिका के असंख्यातवें भाग में जितने समय होते हैं उतने पुद्गलपरावर्त जानने चाहिए। __इतना कालमान वनस्पतिकाय की अपेक्षा से समझना चाहिए, पृथ्वीकाय-अपकाय की अपेक्षा से नहीं। क्योंकि पृथ्वीकाय अप्काय की उत्कृष्ट कायस्थिति असंख्येय उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी प्रमाण है। प्रज्ञापनासूत्र में यह बात स्पष्ट की गई है। यह वनस्पतिकायस्थिति काल सांव्यवहारिक जीवों की अपेक्षा से समझना चाहिए। असांव्यवहारिक जीवों की कायस्थिति को अनादि समझना चाहिए। जैसा कि विशेषणवती ग्रन्थ में कहा गया है-'ऐसे अनंत जीव हैं जिन्होंने त्रसत्व को पाया ही नहीं है। जो निगोद में रहते हैं वे जीव अनन्तानन्त हैं। कतिपय असंव्यवहार राशि वाले जीवों की कायस्थिति अनादि-अनन्त है / अर्थात् वे अव्यवहार राशि से निकल कर कभी व्यवहार राशि में आवेंगे ही नहीं। कतिपय असंव्यवहारराशि वाले जीव ऐसे हैं जिनकी कायस्थिति अनादि किन्तु अन्त वाली है अर्थात् वे व्यवहारराशि में आ सकते हैं। जैसाकि जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने विशेषणवती में कहा है कि 'संव्यवहारराशि से जितने जीव सिद्ध होते हैं, अनादि वनस्पतिराशि से उतने ही जीव व्यवहारराशि में आ जाते हैं / त्रसजीव सरूप में कितने समय तक रह सकते हैं, इसका उत्तर दिया गया है कि जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से असंख्येय काल तक / उस असंख्येय काल को काल और क्षेत्र से स्पष्ट किया गया है / काल से असंख्येय उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी तक और क्षेत्र से असंख्यात लोकों में जितने आकाशप्रदेश हैं उनका प्रतिसमय एक-एक के मान से अपहार करने में जितनी उत्सर्पिणी-अवसर्पिणियां लगती हैं, उतने काल तक त्रसजीव त्रस के रूप में रह सकता है। इतनी कायस्थिति गतिस-तेजस्काय और वायुकाय की अपेक्षा से ही सम्भव है, लब्धित्रस की अपेक्षा से नहीं / लब्धित्रस की उत्कर्ष से कायस्थिति कतिपय वर्ष अधिक दो हजार सागरोपम की ही है। अन्तर-स्थावर जीव के स्थावरत्व को छोड़ने के बाद फिर कितने समय बाद वह पुनः स्थावर बन सकता है ? इसके उत्तर में कहा गया है कि असंख्येय उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल से और क्षेत्र से असंख्यात लोक का अन्तर पड़ता है। इतना अन्तर तेजस्काय, वायुकाय में जाने की अपेक्षा से सम्भव है / अन्यत्र जाने पर इतना अन्तर सम्भव नहीं है। सकाय के सत्व को छोड़ने के बाद कितने समय बाद पुनः सत्व प्राप्त हो सकता है ? इसके उत्तर में कहा गया है कि उत्कृष्ट से वनस्पतिकाल जितना अन्तर है। अर्थात् उत्कृष्ट से अनन्त-अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणियों का और क्षेत्र से अनन्त लोक का अन्तर पड़ता है। इसकी 1. अस्थि अणंता जीवा, जेहिं न पत्तो तसाइपरिणामो। तेवि अणताणता निगोयवासं अणुवसंति // --विशेषणवती 2. सिझंति जत्तिया किर इह संववहारजीवरासिमझायो। इंति प्रणाइवणसइरासीमो तत्तिया तंमि॥ -विशेषणवती Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [115 प्रथम प्रतिपत्ति : भवस्थिति का प्रतिपादन] स्पष्टता ऊपर की जा चुकी है। इतना अन्तर वनस्पतिकाय में जाने पर ही सम्भव है, अन्यत्र जाने पर नहीं। अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े त्रस जीव हैं क्योंकि वे असंख्यात हैं। उनसे स्थावर अनन्तगुण हैं, क्योंकि वे अजघन्योत्कृष्ट अनन्तानन्त हैं। इस प्रकार दो प्रकार के संसारी जीवों की प्रतिपत्ति का वर्णन हुआ। यह दो प्रकार के जीवों की प्रतिपत्तिरूप प्रथम प्रतिपत्ति का प्रतिपादन हुआ। // प्रथम प्रतिपत्ति पूर्ण॥ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिविधारया द्वितीय प्रतिपत्ति कहा प्रथम प्रतिपत्ति में दो प्रकार के संसारसमापनक जीवों का प्रतिपादन किया गया / अब क्रमप्राप्त द्वितीय प्रतिपत्ति में तीन प्रकार के संसारप्रतिपन्नक जीवों का प्रतिपादन अपेक्षित है। अतएव त्रिविधा नामक द्वितीय प्रतिपत्ति का प्रारम्भ किया जाता है, जिसका यह आदि सूत्र हैतीन प्रकार के संसारसमापन्नक जीव 44. तत्थ जे ते एवमाहंसु-तिविधा संसार-समावण्णगा जीवा पण्णत्ता ते एवमाहंसु, तंजहा इत्थी पुरिसा णपुंसका। [44] (पूर्वोक्त नौ प्रतिपत्तियों में से) जो कहते हैं कि संसारसमापनक जीव तीन प्रकार के हैं, वे ऐसा कहते हैं कि संसारसमापन्नक जीव तीन प्रकार के हैं-१ स्त्री, 2 पुरुष और 3 नपुंसक / विवेचन–प्रथम प्रतिपत्ति में अस और स्थावर के रूप में दो प्रकार के संसारसमापन्नक जीवों का निरूपण कर 23 द्वारों के द्वारा विस्तार के साथ उनकी विवेचना की गई है। अब इस दूसरी प्रतिपत्ति में तीन प्रकार के संसारसमापनक जीवों का वर्णन करना अभिप्रेत है। गया है कि संसारसमापनक जीवों के विषय में विवक्षाभेद को लेकर नौ प्रतिपत्तियां हैं। ये सब प्रतिपत्तियां भिन्न-भिन्न रूप वाली होते हुए भी अविरुद्ध और यथार्थ हैं। विवक्षाभेद के कारण भेद होते हुए भी वस्तुतः ये सब प्रतिपत्तियां सत्य तत्त्व के विविध रूपों का ही प्रतिपादन करती हैं। जो प्ररूपक तीन प्रकार के संसारसमापन्नक जीवों की प्ररूपणा करते हैं, वे कहते हैं कि संसारसमापनक जीव तीन प्रकार के हैं-१ स्त्री, 2 पुरुष और 3 नपुंसक / यह भेद वेद को लेकर किया गया है। जब संसारी जीवों का वर्णन वेद की दृष्टि से किया जाता है, तब उनके तीन भेद हो जाते हैं / सब प्रकार के संसारी जीवों का समावेश वेद की दृष्टि से इन तीन भेदों में हो जाता है। अर्थात् जो भी संसारी जीव हैं वे या तो स्त्रीवेद वाले हैं या पुरुषवेद वाले हैं या नपुंसकवेद वाले हैं / वे अवेदी नहीं हैं। _ वेद का अर्थ है:-रमण की अभिलाषा। नोकषायमोहनीय के उदय से वेद की प्रवृत्ति होती है। स्त्रीवेद-जिस कर्म के उदय से पुरुष के साथ रमण करने की इच्छा हो, उसे स्त्रीवेद कहते हैं / स्त्रीवेद का बाह्य चिह्न योनि, स्तन आदि हैं। स्त्रियों में मृदुत्व की प्रधानता होती है, अतः हैं कठोर भाव की अपेक्षा रहती है। स्त्रीवेद का विकार करीषाग्नि (छाणे की अग्नि) के समान है, जो जल्दी प्रकट भी नहीं होता और जल्दी शान्त भी नहीं होता। व्यवहार (स्थूल) दृष्टि से Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रतिपत्ति : स्त्रियों का वर्णन [117 स्त्रीत्व के सात लक्षण माने गये हैं-१ योनि, 2 मृदुत्व, 3 अस्थैर्य, 4 मुग्धता, 5 अबलता, 6 स्तन और 7 पुंस्कामिता ( पुरुष के साथ रमण की अभिलाषा)।' पुरुषवेद-जिस कर्म के उदय से स्त्री के साथ रमण करने की इच्छा हो उसे पुरुषवेद कहते हैं / पुरुषवेद का बाह्य चिह्न लिंग, श्मश्रु-केश आदि हैं। पुरुष में कठोर भाव की प्रधानता होती है अतः उसे कोमल तत्त्व की अपेक्षा रहती है। पुरुषवेद का विकार तृण की अग्नि के समान है जो शीघ्र प्रदीप्त हो जाती है और शीघ्र शान्त हो जाती है / स्थूल दृष्टि से पुरुष के सात लक्षण कहे गये हैं-१ मेहन (लिंग), 2 कठोरता, 3 दृढता, 4 शूरता, 5 श्मश्रु (दाढ़ी-मूंछ), 6 धीरता और 7 स्त्रीकामिता। नपुसकवेद-स्त्री और पुरुष दोनों के साथ रमण करने की अभिलाषा जिस कर्म के उदय से हो वह नपुंसकवेद है। नपुंसक में स्त्री और पुरुष दोनों के मिले-जुले भाव होते हैं। नपुंसक की कामाग्नि नगरदाह या दावानल के समान होती है जो बहुत देर से शान्त होती है। नपुंसक में स्त्री और पुरुष दोनों के चिह्नों का सम्मिश्रण होता है। नपुंसक में दोनों-मृदुत्व और कठोरत्व का मिश्रण होने से उसे दोनों-स्त्री और पुरुष की अपेक्षा रहती है। नारक जीव नपंसकवेद वाले ही होते हैं। एकेन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय जोव और असंज्ञी पंचेन्द्रिय नपुंसकवेद वाले ही होते हैं / सब संमूछिम जीव नपुंसकवेदी होते हैं। गर्भज तिर्यंच और गर्भज मनुष्यों में तीनों वेद पाये जाते हैं। देवों में स्त्रीवेद और पुरुषवेद ही होता है, नपुंसकवेद नहीं होता। उक्त तीनों वेदों में सब संसारी जीवों का समावेश हो जाता है। वेदमोहनीय की उपशमदशा में उसकी सत्ता मात्र रहती है, उदय नहीं रहता / वेद का सर्वथा क्षय होने पर अवेदीअवस्था प्राप्त हो जाती है। स्त्रियों का वर्णन 45. [1] से किं तं इत्थोओ? इत्थीओ तिविहाओ पण्णत्ताओ, तंजहा--- 1. तिरिक्खजोणियाओ, 2. मस्तित्थीओ, 3. देवित्थिओ। से कि तं तिरिक्खजोणिणिस्थीओ? . तिरिक्खजोणिणित्थीयो तिविहाओ पण्णतामो, तंजहा१. जलयरीओ, 2. थलयरीओ, 3. सहयरीओ। 1. योनिमदुत्वमस्थैर्य मुग्धताऽबलता स्तनो। पुस्कामितेति चिह्नानि सप्त स्त्रीत्वे प्रचक्षते // -मलयगिरिवृत्ति 2. मेहनं खरता दाढ्यं, शौण्डीयं श्मश्रु धृष्टता। स्त्रीकामितेति लिगानि सप्त पुस्त्वे प्रवक्षते / / -मलयगिरिवृत्ति 3. स्तनादिश्मश्रुकेशादि भावाभावसमन्वितं / नपुंसकं बुधा प्राहुर्मोहानलसुदीपितम् // –मलयगिरिवृत्ति Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118 [जीवाजीवामिगमसूत्र से किं तं जलयरीओ? / जलयरीओ पंचविहाओ पण्णत्ताओ, तंजहामच्छीओ जाय सुसुमारोओ। से किं तं थलयरीमो?:: यलयरोसो दुविहाओ पण्णत्ताओ, तंजहाचउप्पदीओ य परिसप्पोमोय / से कि तं चउप्पदीओ? चउप्पदीओ पाउविबहाओ पण्णताओ, संजहाएगखुरीओ आव सणएफईओ। से किं तं परिसप्पीओ? परिसप्पीओ दुविहाओ पण्णताओ, तंजहा! उरपरिसप्पीओ य भुजपरिसप्पोमोय : से कि तं उरपरिसप्पीओ? उरपरिसप्पीनो तिविहाओ पण्णत्तामो, तंजहा१. अहीओ, 2. अयगरीओ, 3. महोरगोओ। सेतं उरपरिसप्पोप्रो / से कि तं भयपरिसप्पीओ? भयपरिसप्पीओ अणेगविहाओ पण्णताओ, तंजहा गोहीओ, णउलीओ, सेवाओ, सेलीओ सरडीओ, सेरंषीमो',ससामओ, खारामओ, पंचलोइयाओ, बउप्पइयाओ, मूसियाओ, मंगुसियाओ, घरोलियाओ, गोल्हियाम्रो, जोहियाओ, विरसिरालियामो, से तं भयपरिसप्पीओ। से कि तं खयरीओ? खहयरीओ चउविवहाम्रो पण्णताओ, तंजहाचम्मपक्खिणीओ जाव विययपविखणीओ, से तं खहयरीओ, से तं तिरिक्खजोणियानो। [45] स्त्रियाँ कितने प्रकार की हैं ? स्त्रियाँ तीन प्रकार की कही गई हैं, यथा-१ तियंचयोनिकस्त्रियां, 2 मनुष्यस्त्रियां और 3 देवस्त्रियां। तियंचयोनिक स्त्रियां कितने प्रकार की हैं ? 1. यहां अनेक वाचना-भेद दृष्टिगोचर होते हैं। प्रागमोदय समिति से प्रकाशित प्रति में 'सरडीनो सेरंधियो गोहीमो पउलीयो सेधाप्रो सणासो सरडीमो सेरंधीनो, भावाप्रो खारामो . पवण्णइयामो चउप्पइयाओ मूसियानो....इस प्रकार पाठ दिया गया है। कई वाचनाओं में गोहीमो जाव विरचिरालिया' पाठ है। Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रतिपति: स्त्रियों का वर्णन] [119 : तिर्यंचयोनिक स्त्रियां तीन प्रकार की हैं। जैसे कि-१ जलचरी, 2, स्थलचरी और 3 खेचरी। जलचरी स्त्रियां कितने प्रकार की हैं ? जलचरी स्त्रियां पांच प्रकार की हैं / यथा-मत्स्यी यावत् संसुमारी। स्थलचरी स्त्रियां कितने प्रकार की हैं ? स्थलचरी स्त्रियां दो प्रकार की हैं-चतुष्पदी और परिसी। चतुष्पदी स्त्रियां कितने प्रकार की हैं ? चतुष्पदी स्त्रियां चार प्रकार की हैं / यथा-एकखुर वाली यावत् सनखपदी / परिसपी स्त्रियां कितने प्रकार की हैं ? परिसी स्त्रियां दो प्रकार की हैं / यथा-उरपरिसी और भुजपरिसी / उरपरिसी स्त्रियां कितने प्रकार की हैं ? उरपरिसी स्त्रियां तीन प्रकार की हैं / यथा-१ अहि, 2 अजगरी और 3 महोरगी। यह उरपरिसी स्त्रियों का कथन हुआ। भुजपरिसी स्त्रियां कितने प्रकार की हैं ? भुजपरिसी स्त्रियां अनेक प्रकार की कही गई हैं, यथा-गोधिका, नकुली, सेधा, सेला, सरटी (गिरगिटी), शशकी, खारा, पंचलौकिक, चतुष्पदिका, मूषिका, मुंगुसिका (टाली), घरोलिया (छिपकली), गोल्हिका, योधिका, वीरचिरालिका आदि भुजपरिसी स्त्रियां हैं। खेचरी स्त्रियां कितने प्रकार की हैं ? खेचरी स्त्रियां चार प्रकार की हैं / यथा-चर्मपक्षिणी यावत् विततपक्षिणी। यह खेचरी स्त्रियों का वर्णन हुआ। इसके साथ ही तिर्यचस्त्रियों का वर्णन भी पूरा हुआ। [2] से कि तं मस्सिस्थीयो ? मणुस्सिस्थीओ तिविहाओ पण्णत्ताओ, तंजहा१. कम्मभूमियाओ, 2. अकम्मभूमियाओ, 3. अंतरवोवियाओ। से कि तं अंतरवीवियाओ? अंतरवीवियाओ अट्ठावीसइविहाओ पण्णत्ताओ, तंजहाएगोरइयाओ आभासियामो जाव सुद्धरतीओ / से तं अंतरवीवियाओ। से कि तं प्रकम्मभूमियाओ? अकम्मभूमियानो तीसविहाओ पण्णताओं तंजहा-- पंचसु हेमवएसु, पंचसु एरण्णवएसु, पंचसु हरिवासेसु, पंचसु रम्मगवासेसु, पंचसु देवकुरासु, पंचसु उसरकुरासु / से सं अकम्मभूमियाओ। से कि तं कम्मभूमियामो? कम्मभूमियाओ पण्णरसविहाओ पण्णासाओ, तंजहा Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120] [जीवाजीवाभिगमसूत्र पंचसु भरतेसु, पंचसु एरवएसु, पंचसु महाविवेहेसु / से तं कम्मभूमिगमणस्सीओ। से तं मणुस्सित्थीओ। मनुष्य स्त्रियां कितने प्रकार की हैं ? मनुष्य स्त्रियां तीन प्रकार की कही गई हैं-कर्मभूमिजा, अकर्मभूमिजा और अन्तर्दीपजा। अन्तर्वीपजा स्त्रियां कितने प्रकार की हैं ? अन्तर्वीपजा स्त्रियां अट्ठावीस प्रकार की हैं, यथा--- एकोरुकद्वीपजा, अाभाषिकद्वीपजा यावत् शुद्धदंतद्वीपजा। यह अन्तीपजा स्त्रियों का वर्णन हुआ। अकर्मभूमिजा स्त्रियां कितने प्रकार की हैं ? अकर्मभूमिजा स्त्रियां तीस प्रकार की हैं / यथा पांच हैमवत में उत्पन्न, पांच एरण्यवत में उत्पन्न, पांच हरिवर्ष में उत्पन्न, पांच रम्यकवर्ष में उत्पन्न, पांच देवकुरु में उत्पन्न, पांच उत्तरकुरु में उत्पन्न / यह अकर्मभूमिजा स्त्रियों का वर्णन हुआ। कर्मभूमिजा स्त्रियां कितने प्रकार की हैं ? कर्मभूमिजा स्त्रियां पन्द्रह प्रकार की हैं / यथा-- पांच भरत में उत्पन्न, पांच ऐरवत में उत्पन्न और पांच महाविदेहों में उत्पन्न / यह कर्मभूमिजा स्त्रियों का वर्णन हुआ / यह मनुष्य स्त्रियों का वर्णन हुआ। [3] से कि तं देवित्थियाओ? देवित्थियाओ चउन्बिहाओ पण्णत्ताओ, तंजहा 1. भवणवासिदेवित्थियाओ, 2. वाणमंतरदेविस्थियाओ, 3. जोइसियदेवित्थियाओ, 4. वेनाणियदेवित्थियाओ। से कि तं भवणवासिदेवित्थियाओ? भवणवासिदेवित्थियाओ क्सविहा पण्णत्ता, तंजहा असुरकुमारभवणवासिदेवित्थियाओ जाव थपियकुमारभवणवासिदेवित्थियाओ / से तं भवणवासिदेवित्थियाओ। से कि तं वाणमंतरदेवित्थियाओ? वाणमंतरदेविस्थियानो अढविहाओ पण्णत्ताओ, तंजहा–पिसायवाणमंतरदेवित्थियाओ जाव गंधव्य वाणमंतरदेवित्थीओ, से तं वाणमंतरदेवित्थियाओ। से कि तं जोइसियदेवित्थियाओ? जोइसियदेवित्थियाओ पंचविहाओ पष्णताओ, तंजहा Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रतिपत्ति : स्त्रियों का वर्णन] [121 चंदविमाणजोइसियदेवित्थियाओ, सूर० गह० नक्खत्त० ताराविमाणजोइसियदेवित्यियाओ। से तं जोइसियाओ। से कि तं वेमाणियदेवित्थियाओ? वेमाणियदेवित्थियात्रों दुविहानो पण्णताओ, तंजहा-- सोहम्मकप्पवेमाणियदेवित्थियाओ, ईसाणकल्पवेमाणियदेवित्थियाओ से तं वेमाणियदेवित्थियाओ। [3] देवस्त्रियां कितने प्रकार की हैं ? देवस्त्रियां चार प्रकार की हैं। यथा 1. भवनपतिदेवस्त्रियां, 2. वानव्यन्तरदेवस्त्रियां, 3. ज्योतिष्कदेवस्त्रियां और 4. वैमानिकदेवस्त्रियां / भवनपतिदेवस्त्रियां कितने प्रकार की हैं ? भवनपतिदेवस्त्रियां दस प्रकार की हैं / यथा असुरकुमार-भवनवासी-देवस्त्रियां यावत् स्तनितकुमार-भवनवासी-देवस्त्रियां। यह भवनवासी देवस्त्रियों का वर्णन हुआ। वानव्यन्तरदेवस्त्रियां कितने प्रकार की हैं ? वानव्यन्तरदेवस्त्रियां आठ प्रकार की हैं / यथा--- पिशाचवानव्यन्तरदेव स्त्रियां यावत् गन्धर्ववानव्यन्तरदेवस्त्रियां / यह वानव्यन्तरदेवस्त्रियों का वर्णन हुआ। ज्योतिष्कदेवस्त्रियां कितने प्रकार की हैं ? ज्योतिष्कदेवस्त्रियां पांच प्रकार की हैं / यथा चन्द्रविमान-ज्योतिष्क देवस्त्रियां, सूर्यविमान-ज्योतिष्क देवस्त्रियां, ग्रहविमान-ज्योतिष्क देवस्त्रियां, नक्षत्रविमान-ज्योतिष्क देवस्त्रियां और ताराविमान-ज्योतिष्क देवस्त्रियां / यह ज्योतिष्क देवस्त्रियों का वर्णन हुआ। वैमानिक देवस्त्रियां कितने प्रकार की हैं ? वैमानिक देवस्त्रियां दो प्रकार की हैं / यथा सौधर्मकल्प-वैमानिक देवस्त्रियां और ईशानकल्प-वैमानिक देव स्त्रियां / यह वैमानिक देवस्त्रियों का वर्णन हुआ। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में स्त्रियों का वर्णन किया गया है। चार गतियों में से नरकगति में स्त्रियां नहीं हैं क्योंकि नारक केवल नपुंसकवेद वाले ही होते हैं / अतएव शेष तीन गतियों में-तियंच, मनुष्य और देवगति में स्त्रियां हैं। इसलिए सूत्र में कहा गया है कि तीन प्रकार की स्त्रियां हैंतियंचस्त्री, मनुष्यस्त्री और देवस्त्री। तियंचगति में भी एकेन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122] [जीवाजीवाभिगमसूत्र तथा सम्मूछिम जन्म वाले नपुसकवेदी होते हैं। अतएव गर्भजतियंचों, गर्भजमनुष्यों में और देवों में स्त्रियां होती हैं। इसलिए स्त्रियों के तीन प्रकार कहे गये हैं। तियं चस्त्रियों के तीन भेद हैं, जलचरी, थलचरी और खेचरी / तिर्यंचों के अवान्तर भेद के अनुसार इनकी स्त्रियों के भी भेद जानने चाहिए। इसी तरह मनुष्यस्त्रियों के भी कर्मभूमिका, अकर्मभूमिका और अन्तरद्वीपिका भेद हैं / मनुष्यों के प्रवान्तर भेदों के अनुसार इनकी स्त्रियों के भी भेद समझने चाहिए। जैसे कर्मभूमिका स्त्रियों के 15. अकर्मभूमिका स्त्रियों के 30 और अन्तरद्वीपिकानों के 28 भेद समझने चाहिए। भवनपति, वानव्यन्तर और ज्योतिष्क देवों के भेद के अनुसार ही इनकी स्त्रियों के भेद समझने चाहिए। वैमानिक देवों में केवल पहले सौधर्म देवलोक में और दूसरे ईशान देवलोक में ही स्त्रियां हैं। प्रागे के देवलोकों में स्त्रियां नहीं हैं। अतएव वैमानिक देवियों के दो भेद बताये हैं--सौधर्मकल्प वैमानिक देवस्त्री और ईशानकल्प वैमानिक देवस्त्री। इस प्रकार स्त्रियों के तीन भेदों का वर्णन किया गया है। स्त्रियों को भवस्थिति का प्रतिपादन 46. इत्थीणं भंते ! केवइयं कालं ठिती पण्णत्ता? गोयमा! एगेणं आएसेणं जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं पणपन्नं पलिओवमाई। एक्केणं आएसेणं जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं णव पलिग्रोवमाई। एक्केणं आएसेणं जहन्नेणं अंतोमुहुतं उक्कोसेणं सत्त पलिओवमाई। एक्केणं आएसेणं जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उफ्कोसेणं पन्नासं पलिओवमाई / [46] हे भगवन् ! स्त्रियों की कितने काल की स्थिति कही गई है ? गौतम ! एक अपेक्षा से जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पचपन पल्योपम की स्थिति है / दूसरी अपेक्षा से जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट नो पल्योपम की स्थिति कही गई है। तीसरी अपेक्षा से जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट सात पल्योपम की स्थिति कही गई है। चौथी अपेक्षा से जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पचास पल्योपम की स्थिति कही गई है। विवेचन–प्रस्तुत सूत्र में सामान्य रूप से स्त्रियों की भवस्थिति का प्रतिपादन किया गया है। समुच्चय रूप से स्त्रियों की स्थिति यहाँ चार अपेक्षाओं से बताई गई है। सूत्र में आया हुआ 'आदेश' शब्द प्रकार का वाचक है / ' प्रकार शब्द अपेक्षा का भी वाचक है। ये चार आदेश (प्रकार) इस प्रकार हैं (1) एक अपेक्षा से स्त्रियों की भवस्थिति जघन्य से अन्तर्मुहूर्त है। यह तिर्यंच और मनुष्यस्त्री की अपेक्षा से जानना चाहिए / अन्यत्र इतनी जघन्य स्थिति नहीं होती / उत्कृष्ट स्थिति पचपन पल्योपम की है। यह ईशानकल्प की अपरिगृहीता देवी की अपेक्षा से समझना चाहिए। (2) दूसरी अपेक्षा से जघन्य अन्तर्मुहूर्त (पूर्ववत्) और उत्कृष्ट नो पल्योपम / यह ईशानकल्प की परिगृहीता देवी की अपेक्षा से समझना चाहिए / (3) तीसरी अपेक्षा से जघन्य अन्तर्मुहूर्त (पूर्ववत्) और उत्कृष्ट सात पल्योपम / यह सौधर्मकल्प की परिगृहीता देवी की अपेक्षा से है। 1. 'आदेसो त्ति पगारों' इति वचनात् / Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रतिपत्ति : मनुष्यस्त्रियों की स्थिति] [123 (4) चौथी अपेक्षा से जघन्य अन्तर्मुहूर्त (पूर्ववत्) और उत्कृष्ट पचास पल्योपम / यह सौधर्म कल्प की अपरिगृहीता देवी की अपेक्षा से है।' तियंचस्त्री आदि की पृथक पृथक् भवस्थिति 47. [1] तिरिक्खजोणित्थीणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णता? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाई। जलयर-तिरिक्ख-जोणित्थीणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णता? गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेण पुश्वकोडी। चउप्पद-थलयर-तिरिक्ख-जोणिस्थीणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता? गोयमा ! जहा तिरिक्खजोणिस्थीओ। उरगपरिसप्प-थलयर-तिरिक्ख-जोणिस्थीणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णता? . गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसं पुश्वकोडी। एवं भयपरिसप्प-थलयर-तिरिक्ख-जोणित्थीणं / एवं खहयर-तिरिक्खित्थीणं जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेण पलिओवमस्त मसंखेज्जइभागो। [47] (1) हे भगवन् ! तिर्यकयोनिस्त्रियों की स्थिति कितने समय की कही गई है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से तीन पल्योपम की स्थिति कही गई है। भगवन् ! जलचर तिर्यक्योनिस्त्रियों की स्थिति कितने समय की कही गई है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटि की स्थिति कही गई है। भगवन् ! चतुष्पद स्थलचरतिर्यक स्त्रियों की स्थिति कितनी कही गई है ? गौतम ! जैसे तिर्यंचयोनिक स्त्रियों की (ोधिक) स्थिति कही है वैसी जानना / भंते ! उरपरिसर्प स्थलचर तिर्यकस्त्रियों की स्थिति कितने समय की कही गई है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटि / इसी तरह भुजपरिसर्प स्त्रियों की स्थिति भी समझना / इसी तरह खेचरतियस्त्रियों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्ट पल्योपम का असंख्यातवां भाग है। मनुष्यस्त्रियों की स्थिति [2] मणुस्सित्थीणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णता ? गोयमा ! खेतं पडुच्च जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उषकोसेणं तिण्णि पलिओवमाई। धम्मचरणं पडुच्च जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं देसूणा पुश्वकोडी। 1. उक्तं च संग्रहण्याम्-. सपरिग्गहेयराणं सोहम्मीसाण पलियसाहियं / उक्कोस सत्त पन्ना नव एणपन्ना य देवीणं // Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124] [जीवाजीवाभिगमसूत्र कम्मभूमय-मणुस्सित्थीणं भंते ! केवइयं कालं ठिती पण्णता? गोयमा ! खितं पडुच्च जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाई। धम्मचरणं पडुच्च जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उपकोसेणं वेसूणा पुवकोडी। भरहेरवयकम्मभूभग-मणुस्सित्थीणं भंते ! केवइयं कालं ठिती पण्णता? गोयमा ! खेत्तं पडुच्च जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तिणि पलिओवमाई। धम्मचरणं पडुच्च जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं देसूणा पुचकोडी। पुश्वविदेह-अवरविदेहकम्मभूमग-मणुस्सित्थीणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णता? गोयमा ! खेतं पड़च्च जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं पुष्वकोडी / धम्मचरणं पडुच्च जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं वेसूणा पुवकोडी।। प्रकम्ममूभग-मणुस्सित्थीणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता? / गोयमा ! जम्मणं पडुच्च जहन्नेणं देसूर्ण पलिग्रोवमं पलिओवमस्स असंखेज्जहभागं अणगं, उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाइं / संहरणं पडुच्च जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं देसूणा पुब्धकोडी। हेमवय-एरण्णवए जम्मणं पडुच्च जहन्नेणं देसूर्ण पलिओवमं पलिओवमस्स असंखेज्जइमागेण ऊणगं पलिओवमं / संहरणं पडुच्च जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं देसूणा पुष्वकोडी। हरिवास-रम्मयवास अकम्मभूभग-मणुस्सित्थीणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णता ? गोयमा ! जम्मणं पड़तच जहन्नेणं देसूणाई दो पलिग्रोवमाइं पलिनोवमस्स असंखेज्जइमागेण कणयाई, उक्कोसेणं दो पलिप्रोवमाई / संहरणं पडुच्च जहन्नेण अंतोमुहुतं उक्कोसेणं देसूणा पुषकोडी। देवकुरु-उत्तरकुरु-अकम्मभूमग-मणुस्सिस्थीणं भंते ! केवइयं काल ठिई पण्णता? गोयमा ! जम्मणं पडुच्च जहन्नेणं देसूणाई तिणि पलिओवमाइं पलिओवमस्स असंखेज्जहभागेण ऊणयाई, उक्कोसेणं तिनि पलिओवमाई। संहरणं पडुच्च जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उषकोसेणं देसूणा पुठ्धकोडी। अंतरदीवग-अकम्मभूमग-मणुस्सित्थीणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णता? गोयमा ! जम्मणं पडुच्च जहन्नेणं देसूर्ण पलिओवमस्स असंखेज्जइभार्ग पलिओवमस्स असंखेज्जहभागेण ऊणयं, उक्कोसेण पलिम्रोवमस्स असंखेज्जइभागं / संहरणं पडुच्च जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं देसूणा पुश्वकोडी। [47] (2) हे भगवन् ! मनुष्यस्त्रियों की कितने समय की स्थिति कही गई है ? गौतम ! क्षेत्र की अपेक्षा से जघन्य अन्तर्महर्त और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की स्थिति है। चारित्रधर्म की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट कुछ कम पूर्वकोटि / भगवन् ! कर्मभूमि की मनुष्यस्त्रियों की स्थिति कितनी कही गई है ? गौतम ! क्षेत्र को लेकर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की स्थिति है और चारित्रधर्म को लेकर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोनपूर्वकोटि / Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रतिपत्ति: देवस्त्रियों की स्थिति [125 भगवन् ! भरत और एरवत क्षेत्र की कर्मभूमि की मनुष्य स्त्रियों की स्थिति कितनी कही गौतम ! क्षेत्र की अपेक्षा से जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की स्थिति है। चारित्रधर्म की अपेक्षा से जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोनपूर्वकोटि / भंते ! पूर्वविदेह और पश्चिमविदेह की कर्मभूमि को मनुष्यस्त्रियों की स्थिति कितनी कही गई है? ____ गौतम ! क्षेत्र की अपेक्षा से जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटि / चारित्रधर्म की अपेक्षा से जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोनपूर्वकोटि / भंते ! अकर्मभूमि की मनुष्यस्त्रियों की स्थिति कितनी कही गई है ? गौतम ! जन्म की अपेक्षा से जघन्य कुछ कम पल्योपम। कुछ कम से तात्पर्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग से कम समझना चाहिए। उत्कृष्ट से तीन पल्योपम की स्थिति है / संहरण की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्ट देशोनपूर्वकोटि है। हेमवत-ऐरण्यवत क्षेत्र की मनुष्यस्त्रियों की स्थिति जन्म की अपेक्षा जघन्य से देशोन पल्योपम अर्थात् पल्योपम के असंख्यावें भाग कम एक पल्योपम की है और संहरण की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोनपूर्वकोटि है / भंते ! हरिवर्ष-रम्यकवर्ष की अकर्मभूमिक मनुष्यस्त्रियों की स्थिति कितनी कही गई है ? गौतम ! जन्म की अपेक्षा जघन्य से देशोन दो पल्योपम अर्थात् पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम दो पल्योपम की है और उत्कृष्ट से दो पल्योपम की है। संहरण की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोनपूर्वकोटि है। भंते ! देवकुरु-उत्तरकुरु की अकर्मभूमि की मनुष्यस्त्रियों की स्थिति कितनी कही गई है ? गौतम ! जन्म की अपेक्षा जघन्य से देशोन तीन पल्योपम की अर्थात् पल्योपम का असंख्यातवां भाग कम तीन पल्योपम को है और उत्कृष्ट से तीन पल्योपम की है / संहरण की अपेक्षा से जघन्य अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्ट देशोनपूर्वकोटि है। भंते ! अन्तरद्वीपों की अकर्मभूमि की मनुष्यस्त्रियों की स्थिति कितनी कही गई है। गौतम ! जन्म की अपेक्षा देशोन पल्योपम का असंख्यातवां भाग। यहाँ देशोन से तात्पर्य पल्योपम का असंख्यातवां भाग है। अर्थात् पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम पल्योपम का असंख्यातवां भाग उनकी जघन्य स्थिति है, उत्कृष्ट पल्योपम का असंख्यातवां भाग है / संहरण की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृट देशोनपूर्वकोटि है / देवस्त्रियों की स्थिति [3] वेवित्थीणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णता? गोयमा ! जहन्नेणं दसवाससहस्साइं उक्कोसेणं पणपन्न पलिनोवमाई। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 126] [जीवाजीवाभिगमसूत्र भवणवासिदेवित्थीणं भंते ? जहन्नेणं दसवाससहस्साई, उक्कोसेणं अद्ध पंचमाई पलिओवमाइं। एवं असुरकुमार-भवणवासि-देवित्थियाए, नागकुमार-भवणवासि-देवित्थियाए वि जहन्नेणं दसवाससहस्साई उक्कोसेणं देसूणाई पलिओवमाई, एवं सेसाण वि जाव थणियकुमाराणं। वाणमंतरीणं जहन्नेणं दसवाससहस्साई उक्कोसं अखपलिओवमं / जोइसियदेवित्थीणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता? गोयमा ! जहन्नेणं पलिओवमं अट्ठभागं उक्कोसेणं अद्धपलिओवमं पण्णासाएहि वाससहस्सेहि अम्भहियं / चंदविमाण-जोतिसिय / देवित्थियाए जहन्नेणं चउभागपलिओवम उक्कोसेणं तं चेव / सूरबिमाण-जोतिसिय-देविस्थियाए जहन्नेणं चउभागपलिनोवम उक्कोसेणं अद्धपलिओवमं पंचहि वाससएहि अब्भहियं / गहविमाण-जोतिसिय-देवित्थीणं जहन्नेणं चउभागपलिओवमं उक्कोसेणं अद्धपलिओवमं / णक्खत्तविमाण-जोतिसिय-देवित्थीणं जहण्णेणं चउभागपलिओवम उक्कोसेणं चउभागपलिओवमं साइरेग। ताराविमाण-जोति सिय-देवित्थियाए जहन्नेणं अट्ठभाग पलिओवम उक्कोसेणी सातिरेगं अट्ठभागपलिओवमं। वेमाणिय-देवित्यिाए जहन्नेणं पलिओवम उक्कोसेणं पणपन्नं पलिओवमाइं। सोहम्मकप्पवेमाणिय-देविस्थीणं भंते ! केवइयं कालं ठिती पण्णसा?. गोयमा ! जहणणं पलिओवम उक्कोसेणं सत्त पलिभोवमाइं / ईसाण-देवित्थोणं जहणणं सातिरेगं पलिग्रोवम उक्कोसेणं णव पलिओवमाइं। [47] (3) हे भगवन् ! देवस्त्रियों की कितने काल की स्थिति है ? गौतम ! जघन्य से दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट से पचपन पल्योपम की स्थिति कही गई है। भगवन् ! भवनवासीदेवस्त्रियों की कितनी स्थिति है ? गौतम ! जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट साढे चार पल्योपम / इसी प्रकार असुरकुमार भवनवासी देवस्त्रियों की, नागकुमार भवनवासी देवस्त्रियों की जघन्य दस दजार वर्ष और उत्कृष्ट देशोनपल्योपम की स्थिति जाननी चाहिए / इसी प्रकार शेष रहे सुपर्णकुमार प्रादि यावत् स्तनितकुमार देव स्त्रियों की स्थिति जाननी चाहिए। वानव्यन्तरदेबस्त्रियों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष उत्कृष्ट स्थिति प्राधा पल्योपम की है। भंते ! ज्योतिष्कदेवस्त्रियों की स्थिति कितने समय की कही गई है ? गौतम ! जघन्य से पल्योपम का आठवां भाग और उत्कृष्ट से पचास हजार वर्ष अधिक प्राधा पल्योपम है। . Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रतिपत्ति: देवस्त्रियों की स्थिति] 127 चन्द्रविमान-ज्योतिष्कदेवस्त्रियों की जघन्य स्थिति पल्योपम का चौथा भाग और उत्कृष्ट स्थिति वही पचास हजार वर्ष अधिक प्राधे पल्योपम की है। सूर्यविमान-ज्योतिष्कदेवस्त्रियों की स्थिति जघन्य से पल्योपम का चौथा भाग और उत्कृष्ट से पांच सौ वर्ष अधिक प्राधा पल्योपम है। ग्रहविमान-ज्योतिष्कदेवस्त्रियों की स्थिति जघन्य से पल्योपम का चौथा भाग, उत्कृष्ट से प्राधा पल्योपम। नक्षत्रविमान-ज्योतिष्कदेवस्त्रियों को स्थिति जघन्य से पल्योपम का चौथा भाग और उत्कृष्ट पाव पल्योपम से कुछ अधिक / ताराविमान-ज्योतिष्कदेवस्त्रियों की जघन्य स्थिति पल्योपम का आठवां भाग और उत्कृष्ट स्थिति कुछ अधिक पल्योपम का आठवां भाग है। वैमानिकदेवस्त्रियों की जघन्य स्थिति एक पल्योपम है और उत्कृष्ट स्थिति पचपन पल्योपम की है। भगवन् ! सौधर्मकल्प की वैमानिकदेवस्त्रियों की स्थिति कितनी कही गई है ? गौतम ! जघन्य से एक पल्योपम और उत्कृष्ट सात पल्योपम की स्थिति है। ईशानकल्प की वैमानिकदेवस्त्रियों की स्थिति जघन्य से एक पल्योपम से कुछ अधिक और उत्कृष्ट नौ पल्योपम की है। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में तिर्यस्त्रियों, मनुष्यस्त्रियों और देवस्त्रियों की कालस्थिति को प्रोधिक रूप से और पृथक् पृथक् रूप से बताया गया है / सर्वप्रथम तिर्यञ्चस्त्रियों की आधिकस्थिति बतलाई गई है। स्थिति दो तरह की है-जधन्य और उत्कृष्ट / जघन्य स्थिति का अर्थ है-कम से कम काल तक रहना और उत्कृष्ट का अर्थ है अधिक से अधिक काल तक रहना। तिर्यंचस्त्रियों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्योपम की कही गई है / यह उत्कृष्ट स्थिति देवकुरु आदि में चतुष्पदस्त्री की अपेक्षा से है। विशेष विवक्षा में जलचरस्त्रियों को उत्कृष्ट स्थिति पूर्वकोटि की, स्थलचरस्त्रियों की औधिक-अर्थात् तीन पल्योपम की, खेचरस्त्रियों की पल्योपम का असंख्येयभाग स्थिति कही गई हैं / (उरपरिसर्प और भुजपरिसर्प को उत्कृष्ट स्थिति पूर्वकोटि है / ) जघन्य स्थिति सबकी अन्तमुहुर्त है। . मनुष्यस्त्रियों की स्थिति--मनुष्यस्त्रियों की स्थिति दो अपेक्षाओं से बताई गई है। एक है क्षेत्र को लेकर और दूसरी है धर्माचरण (चारित्र) को लेकर / मनुष्यस्त्रियों की प्रौधिकस्थिति क्षेत्र को लेकर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की है / यह उत्कृष्ट स्थिति देवकुरु आदि में तथा भरत आदि क्षेत्र में एकान्त सुषमादिकाल की अपेक्षा से है। ___ धर्माचरण (चारित्रधर्म) की अपेक्षा से मनुष्यस्त्रियों की जघन्यस्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट स्थिति देशोनपूर्वकोटि है। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जीवाजीवाभिगमसूत्र जो चारित्रधर्म की अपेक्षा से मनुष्यस्त्रियों की जघन्यस्थिति अन्तर्मुहर्त कही गई है वह उसी भव में परिणामों की धारा बदलने पर चारित्र से गिर जाने की अपेक्षा से समझना चाहिए। कम से कम अन्तर्मुहूर्त काल तक तो चारित्र रहता ही है। किसी स्त्री ने तथाविध क्षयोपशमभाव से सर्वविरति रूप चारित्र को स्वीकार कर लिया तथा उसी भाव में कम से कम अन्तर्मुहूर्त बाद वह परिणामों की धारा बदलने से पतित होकर अविरत सम्यग्दृष्टि हो गई या मिथ्यात्वगुणस्थान में चली गई तो इस अपेक्षा से चारित्रधर्म की जघन्यस्थिति अन्तर्मुहूर्त काल को रही अथवा चारित्र स्वीकार करने के बाद मृत्यु भी हो जाय तो भी अप्रमत्तसंयतगुणस्थान में अन्तर्मुहूर्तकाल की संभावना दूसरी दष्टि से भी इसकी संगति की जाती है / धर्माचरण से यहाँ देशविरति समझना चाहिए, सर्वविरति नहीं। देशविरति जघन्य से भी अन्तर्मुहुर्त की ही होती है क्योंकि देशविरति के बहुत से भंग (प्रकार) हैं / शंका की जा सकती है कि उभयरूप चारित्र की संभावना होते हुए भी देशविरति का ही ग्रहण क्यों किया जाय? इसका समाधान है कि प्रायः सर्वविरति देशविरति पूर्वक होती है, यह बतलाने के लिए ऐसा ग्रहण किया जा सकता है। वृद्ध आचार्यों ने कहा है कि 'सम्यक्त्व प्राप्ति के पश्चात् (अधिक से अधिक) पल्योपमपृथक्त्वकाल में श्रावकत्व की प्राप्ति और चारित्रमोहनीय का उपशम या क्षय संख्यात सागरोपम के पश्चात् होता है।' चारित्रधर्म की उत्कृष्ट स्थिति देशोनपूर्वकोटि कही गई है। आठ वर्ष की अवस्था के पूर्व चारित्र परिणाम नहीं होते। आठ वर्ष को अवस्था के बाद चारित्र स्वीकार करके उससे गिरे बिना चारित्रधर्म का पालन पूर्वकोटि के अन्तिम अन्तर्मुहुर्त तक करते रहने की अपेक्षा से कहा गया है। पाठ वर्ष की अवधि को कम करने से देशोनपूर्वकोटि चारित्रधर्म की दृष्टि से मनुष्य स्त्रियों की स्थिति बताई गई है। पूर्वकोटि से तात्पर्य एक करोड़ पूर्व से है। पूर्व का परिमाण इस प्रकार है-७० लाख 56 हजार करोड़ वर्षों का एक पूर्व होता है (70,56000,0000000 =सत्तर, छप्पन और दस मनुष्यस्त्रियों की प्राधिक स्थिति बताने के पश्चात् कर्मभूमिक प्रादि विशेष मनुष्यस्त्रियों की वक्तव्यता कही गई है। कर्मभूमिक मनुष्यस्त्रियों की स्थिति क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से तीन पल्योपम है / यह भरत और ऐरवत क्षेत्र में सुषमसुषम नामक प्रारक में समझना चाहिए। चारित्रधर्म की अपेक्षा जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से देशोनपूर्वकोटि है। यह कर्मभूमि के सामान्य लक्षण को लेकर वक्तव्यता हुई। विशेष की वक्तव्यता इस प्रकार है-भरत और ऐरवत में तीन पल्योपम की स्थिति सुषमसुषम पारे में होती है। पूर्व-पश्चिम विदेहों में क्षेत्र से 1. सम्मतम्मि उ लद्धे पलिय पहत्तेण सावत्रो होइ। चरणोवसमखयाणं सागर संखतरा होति / / 2. पुव्वस्स उ परिमाणं सारं खलु होंति कोडिलक्खायो / छप्पण्णं च सहस्सा बोद्धव्वा वासकोडीणं // Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रतिपति : देवस्त्रियों की स्थिति] [129 पूर्वकोटि स्थिति है, क्योंकि क्षेत्रस्वभाव से इससे अधिक आयु वहाँ नहीं होतो। चारित्रधर्म को लेकर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से देशोनपूर्वकोटि है। ___ अकर्मभूमिक मनुष्यस्त्रियों की स्थिति दो अपेक्षाओं से कही गई है। एक जन्म की अपेक्षा से और दूसरी संहरण की अपेक्षा से। संहरण का अर्थ है-कर्मभूमिज स्त्री को अकर्मभूमि में ले जाना / जैसे कोई मगध आदि देश से सौराष्ट्र के प्रति रवाना हुआ और चलते-चलते सौराष्ट्र में पहुँच गया और वहाँ रहने लगा तो तथाविध प्रयोजन होने पर उसे सौराष्ट्र का कहा जाता है, वैसे ही कर्मभूमि से उठाकर अकर्मभूमि में संहृत की गई स्त्री प्रकर्मभूमि की कही जाती है। औधिक रूप से जन्म को लेकर जघन्य से अकर्मभूमिज स्त्रियों की स्थिति देशोन (पल्योपम का असंख्यातवां भाग कम) एक पल्योपम की है और उत्कृष्ट से तीन फ्ल्योपम की है / यह हैमवत, हैरण्यवत क्षेत्र की अपेक्षा से समझना चाहिए। क्योंकि वहाँ जघन्य से इतनी स्थिति सम्भव है। उत्कृष्ट तीन पल्योपम की स्थिति देवकुरु-उतरकुरु की अपेक्षा से जाननी चाहिए / संहरण की अपेक्षा से जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोनपूर्वकोटि स्थिति है। कर्मभूमि से अकर्मभूमि में किसी स्त्री का संहरण किया गया हो और वह वहाँ केवल अन्तर्मुहर्त मात्र जीवित रहे या वहाँ से उसका पुनः संहरण हो जाय, इस अपेक्षा से जघन्य की स्थिति अन्तर्मुहूर्त कही है / यदि वह स्त्री वहाँ पूर्वकोटि आयुष्य वाली हो तो उसकी अपेक्षा देशोनपूर्वकोटि उत्कृष्ट स्थिति - बतलाई है। ___ यह शंका हो सकती है कि भरत और एरवत क्षेत्र भी कर्मभूमि में हैं, वहाँ भी एकान्त काल में तीन पल्योपम की स्थिति होती है और संहरण भी सम्भव है तो उत्कृष्ट से देशोनपूर्वकोटि कैसे संगत है ? इसका समाधान है कि कर्मभूमि होने पर भी कर्मकाल की विवक्षा से ऐसा कहा गया है। भरत, एरवत क्षेत्र में एकान्त सुषमादि काल में भोगभूमि जैसी रचना होती है अतः वह कर्मकाल नहीं है। कर्मकाल में तो पूर्वकोटि आयुष्य ही होता है अतएव यथोक्त देशोनपूर्वकोटि संगत है। हैमवत, हैरण्यवत अकर्मभूमिक मनुष्यस्त्रियों की स्थिति जन्म की अपेक्षा जघन्य देशोन पल्योपम (पल्योपम के असंख्येय भाग न्यून) है और उत्कर्ष से परिपूर्ण पल्योपम है / संहरण को लेकर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से देशोनपूर्वकोटि है। हरिवर्ष और रम्यकवर्ष की स्त्रियों की स्थिति जन्म की अपेक्षा पल्योपम का असंख्यातवां भाग कम दो पल्योपम की है और उत्कर्ष से परिपूर्ण दो पल्योपम की है / संहरण की अपेक्षा जघन्य एक अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोनपूर्वकोटि है। देवकुरु-उत्तरकुरु में जन्म की अपेक्षा से पल्योपम के असंख्येयभागहीन तीन पल्योपम की जघन्यस्थिति और उत्कृष्टस्थिति परिपूर्ण तीन पल्योपम को है। संहरण की अपेक्षा जघन्य एक अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोनपूर्वकोटि है / . अन्तरद्वीपों की मनुष्यस्त्रियों की स्थिति जन्म की अपेक्षा से जघन्य कुछ कम पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण है और उत्कर्ष से पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण है / तात्पर्य यह है कि Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 130] [जीवाजीवाभिगमसूत्र उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण आयुष्य से जघन्य प्रायु पल्योपम का असंख्यातवां भाग प्रमाण न्यून है / संहरण की अपेक्षा से जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोनपूर्वकोटि है।। देवस्त्रियों को स्थिति देवस्त्रियों की औधिकी जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट स्थिति पचपन पल्योपम की है। भवनपति और व्यन्तर देवियों की अपेक्षा से जघन्य स्थिति का कथन है और ईशान देवलोक की देवी को लेकर उत्कृष्ट स्थिति का विधान किया गया है। विशेष विवक्षा में भवनवासी देवियों को सामान्यतः दस हजार वर्ष और उत्कर्ष से साढ़े चार पल्योपम की स्थिति है। यह असुरकुमार देवियों की अपेक्षा से है। यहाँ भी विशेष विवक्षा में असुरकुमार देवियों की सामान्यतः जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट साढ़े चार पल्योपम, नागकुमार देवियों की जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट देशोनपल्योपम, इसी तरह शेष सुपर्णकुमारी से लगाकर स्तनितकुमारियों की स्थिति जानना चाहिए। ध्यन्तरदेवियों की स्थिति जघन्य से दस हजार वर्ष और उत्कर्ष से प्राधा पल्योपम है / ज्योतिष्कस्त्रियों की जघन्य से पल्योपम का पाठवां भाग और उत्कर्ष से पचास हजार वर्ष अधिक प्राधा पल्योपम है। विशेष विवक्षा में चन्द्रविमान की स्त्रियों की स्थिति जघन्य से पल्योपम का चौथा भाग और उत्कर्ष से पचास हजार वर्ष अधिक आधा पल्योपम है। सूर्यविमान की स्त्रियों की स्थिति जघन्य से पल्योपम का चौथा भाग और उत्कर्ष से पांच सौ वर्ष अधिक अर्धपल्योपम है। __ ग्रहविमान की देवियों की स्थिति जघन्य से पाव पल्योपम और उत्कर्ष से आधा पल्योपम है। नक्षत्रविमान की देवियों की स्थिति जघन्य से पाव पल्योपम और उत्कर्ष से पाव पल्योपम से कुछ अधिक। ताराविमान की देवियों की स्थिति जघन्य से पल्योपम और उत्कर्ष से पल्योपम से कुछ अधिक है। वैमानिकदेवियों की स्थिति वैमानिक देवियों की प्रोधिकी जघन्यस्थिति एक पल्योपम की और उत्कर्ष से 55 पल्योपम की है। विशेष चिन्ता में सौधर्मकल्प की देवियों की जघन्यस्थिति एक पल्योपम और उत्कर्ष से सात पल्योपम की है / यह स्थितिपरिमाण परिगृहीता देवियों की अपेक्षा से है / अपरिगृहीता देवियों की जघन्य से एक पल्योपम और उत्कर्ष से 55 पल्योपम है / ईशानकल्प की देवियों की जघन्यस्थिति कुछ अधिक एक पल्योपम और उत्कर्ष से नौ पल्योपम है। यहाँ भी यह स्थितिपरिमाण परिगृहीतादेवियों की अपेक्षा से है / अपरिगृहीता देवियों की जघन्यस्थिति पल्योपम से कुछ अधिक और उत्कर्ष से 55 पल्योपम की है। वृत्तिकार ने लिखा है कि कई प्रतियों में यह स्थितिसम्बन्धी पूरा पाठ पाया जाता है और कई प्रतियों में केवल यह अतिदेश किया गया है-'एवं देवीणं ठिई भाणियव्वा जहा पण्णवणाए जाव ईसाणदेवीणं / ' Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रतिपत्ति: स्त्रीत्व की निरन्तरता का कालप्रमाण] [131 स्त्रीत्व को निरन्तरता का कालप्रमाण 48. [1] इत्थीणं भंते ! इस्थिति कालो केचिचरं होइ? गोयमा ! एक्केणादेसेणं जहन्नेणं एक्कं समयं उक्कोसं वसुत्तरं पलिग्रोवमसयं पुश्वकोडि. पुहुत्तमम्भहियं // 1 // एक्केणावेसेणं जहन्नेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं अट्ठारस पलिम्रोवमाई पुवकोडिपुटुत्तमम्भहियं // 2 // एक्केणावेसेणं जहन्नेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं चउक्स पलिओवमाई पुवकोडिपुहुत्तमम्भहियाई // 3 // एक्केणावेसेणं जहन्नेणं एषकं समयं उक्कोसेणं पलिओवमसयं पुवकोडिपुहुत्तमन्भहियं // 4 // एक्केणादेसेणं जहणेणं एक्कं समयं उक्कोसं पलिओवमहत्तं पुखकोडिपुत्तमम्भहियं // 5 // [48-1] हे भगवन् ! स्त्री, स्त्रीरूप में लगातार कितने समय तक रह सकती है ? गौतम ! एक अपेक्षा से जघन्य एक समय और उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक एक सौ दस पल्योपम तक स्त्री, स्त्रीरूप में रह सकती है / 11 दूसरी अपेक्षा से जघन्य एक समय और उत्कृष्ट से पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक अठारह पल्योपम तक रह सकती है / 2 / तीसरी अपेक्षा से जघन्य एक समय और उत्कर्ष से पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक चौदह पल्योपम तक कह सकती है / 31 चौथी अपेक्षा से जघन्य एक समय और उत्कर्ष से पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक एक सौ पल्योपम तक रह सकती है / 4 / पांचवीं अपेक्षा से जघन्य एक समय और उत्कर्ष से पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक पल्योपमपृथक्त्व तक रह सकती है।५। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में प्रश्न किया गया है कि स्त्री, स्त्री के रूप में लगातार कितने समय तक रह सकती है ? इस प्रश्न के उत्तर में पांच आदेश (प्रकार-अपेक्षाएँ) बतलाये गये हैं। वे पांच अपेक्षाएँ क्रम से इस प्रकार हैं (1) पहली अपेक्षा से स्त्री, स्त्री के रूप में लगातार जघन्य से एक समय एक और उत्कृष्ट से पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक एक सौ दस (110) पल्योपम तक हो सकती है, इसके पश्चात् अवश्य परिवर्तन होता है / इस आदेश की भावना इस प्रकार है कोई स्त्री उपशमश्रेणी पर आरूढ हई और वहां उसने वेदत्रय का उपशमन कर दिया और अवेदकता का अनुभव करने लगी / बाद में वह वहाँ से पतित हो गई और एक समय तक स्त्रीवेद में रही और द्वितीय समय में काल करके (मरकर) देव (पुरुष) बन गई। इस अपेक्षा से उसके स्त्रीत्व का काल एक समय का ही रहा / अतः जघन्य से स्त्रीत्व का काल समय मात्र ही रहा। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 132] . [जीवाजीवाभिगमसूत्र [जाव स्त्री का स्त्रीरूप में अवस्थानकाल उत्कर्ष से पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक एक सौ दस पल्योपम कहा गया है, उसकी भावना इस प्रकार है कोई जीव पूर्वकोटि की आयु वाली मनुष्यस्त्रियों में अथवा तियंचस्त्रियों में उत्पन्न हो जाय और वह वहाँ पांच अथवा छह बार उत्पन्न होकर ईशानकल्प की अपरिगृहीता देवी के रूप में पचपन पल्योपम की स्थिति युक्त होकर उत्पन्न हो जाय, वहाँ से प्रायु का क्षय होने पर पुनः मनुष्यस्त्री या तिर्यचस्त्री के रूप में पूर्वकोटि आयुष्य सहित उत्पन्न हो जाय / वहाँ से पुनः द्वितीय बार ईशान देवलोक में 55 पल्योपम की उत्कृष्ट स्थिति वाली अपरिगृहीता देवी बन जाय, इसके बाद अवश्य ही वेदान्तर को प्राप्त होती है / इस प्रकार पांच-छह बार पूर्वकोटि आयु वाली मनुष्यस्त्री या तियंचस्त्री के रूप में उत्पन्न होने का काल और दो बार ईशान देवलोक में उत्पन्न होने का काल 55+55 = 110 पल्योपम-ये दोनों मिलाकर पूर्वकोटि पृथक्त्व एक सौ दस पल्योपम का कालमान होता है / यहाँ पृथक्त्व का अर्थ वहुत बार है / इतने काल के पश्चात् अवश्य ही वेदान्तर होता है। यहाँ कोई शंका कर सकता है कि कोई जीव देवकुरु-उत्तरकुरु आदि क्षेत्रों में तीन पल्योपम प्रायूवाली स्त्री के रूप में जन्म ले तो इससे भी अधिक स्त्रीवेद का अवस्थानकाल हो सकता है। इस शंका का समाधान यह है कि देवी के भव से च्यवित देवी का जीव असंख्यात वर्षायु वाली स्त्रियों में स्त्री होकर उत्पन्न नहीं होता और न वह असंख्यात वर्षायु वाली स्त्री उत्कृष्ट आयु वाली देवियों में उत्पन्न हो सकती है, क्योंकि प्रज्ञापनासूत्र-टीका में कहा गया है--'जतो असंखेज्जवासाउया उक्कोसियं ठिइं न पावेइ' अर्थात् असंख्यात वर्ष की आयुवाली स्त्री उत्कृष्ट स्थिति को प्राप्त नहीं करती / इसलिए यथोक्त प्रमाण ही स्त्रीवेद का उत्कृष्ट अवस्थानकाल है। (2) दूसरी अपेक्षा से स्त्रीवेद का अवस्थानकाल जघन्य एक समय और उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक अठारह पल्योपम है। जघन्य एक समय की भावना प्रथम आदेश के समान है। उत्कृष्ट अवस्थानकाल की भावना इस प्रकार है कोई जीव मनुष्यस्त्री और तिर्यचस्त्री के रूप में लगातार पाँच बार रहकर पूर्ववत् ईशानदेवलोक में दो बार उत्कृष्ट स्थिति वाली देवियों में उत्पन्न होता हुआ नियम से परिगृहीता देवियों में ही उत्पन्न होता है, अपरिगहीता देवियों में उत्पन्न नहीं होता। परिगृहीता देवियों की उत्कृष्ट स्थिति नौ पल्योपम की है, अत: 9+9=18 पल्योपम का ही उसका ईशान देवलोक का काल होता है / मनुष्य, तिर्यंच भव का कालमान पूर्वकोटिपृथक्त्व जोड़ने से यथोक्त पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक 18 पल्योपम का स्त्रीवेद का अवस्थान-काल होता है / 2 / / (3) तीसरी अपेक्षा से स्त्रीवेद का अवस्थानकाल जघन्य एक समय और उत्कर्ष से पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक चौदह पल्योपम है। एक समय की भावना प्रथम आदेश की तरह है। उत्कर्ष की भावना इस प्रकार है-द्वितीय आदेश की तरह कोई जीव पांच छह बार पूर्वकोटि प्रमाण वाली मनुष्यस्त्री या तिर्यंचस्त्री में उत्पन्न हुआ और बाद में सौधर्म देवलोक की सात पल्योपम प्रमाण आयु वाली परिगृहीता देवियों में दो बार देवी रूप में उत्पन्न हो, इस अपेक्षा से स्त्रीवेद का उत्कृष्ट अवस्थान-काल पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक चौदह पल्योपम है / 3 / Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रतिपत्ति : तिर्यञ्चस्त्री का तप में अवस्थानकाल] (4) चौथी अपेक्षा से स्त्रीवेद का अवस्थानकाल जघन्य एक समय और उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक सौ पल्योपम है। एक समय की भावना प्रथम आदेशानुसार है / उत्कृष्ट को भावना इस प्रकार है पूर्वकोटि प्रायु वाली मनुष्यस्त्री या तिर्यचस्त्री रूप में पांच छह बार पूर्व की तरह रहकर सौधर्मदेवलोक में 50 पल्योपम की उत्कृष्ट अायुवाली अपरिगृहीता देवी के रूप में दो बार उत्पन्न होने पर 50+50-100 पल्योपम और पूर्वकोटिपृथक्त्व तिर्यंच-मनुष्यस्त्री का काल मिलाने पर यथोक्त अवस्थानकाल पूर्वकोटिपृथकत्व अधिक सो पल्योपम होता है।४। (5) पांचवीं अपेक्षा से स्त्रीवेद का अवस्थानकाल जघन्य एक समय और उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक पल्योपमपृथक्त्व है / जघन्य की भावना पूर्ववत् / उत्कृष्ट की भावना इस प्रकार है कोई जीव मनुष्यस्त्री या तिर्यंचस्त्री के रूप में पूर्वकोटि आयुष्य सहित सात भव करके आठवें भव में देवकरुयादिकी तीन पल्योपम की स्थिति वाली स्त्रियों में स्त्रीरूप में स्त्रीरूप से उत्पन्न हो, वहाँ से मर कर सौधर्म देवलोक की जघन्य स्थिति वाली (पल्योपम स्थिति वाली) देवियों में देवीरूप से उत्पन्न हो, इसके बाद अवश्य वेदान्तर होता है। इस प्रकार पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक पल्योपम, पृथक्त्व प्रमाण स्त्रीवेद का अवस्थानकाल होता है / / उक्त पांच आदेशों में से कौनसा आदेश समीचीन है, इसका निर्णय अतिशय ज्ञानी या सर्वोत्कृष्ट श्रुतलब्धिसम्पन्न ही कर सकते हैं। वर्तमान में वैसी स्थिति न होने से सूत्रकार ने पांचों आदेशों का उल्लेख कर दिया है और अपनी ओर से कोई निर्णय नहीं दिया है। हमें तत्त्व केवलिगम्य मानकर पांचों आदेशों को अलग अलग अपेक्षाओं को समझना चाहिए / तिर्यञ्चस्त्री का तद्रूप में अवस्थानकाल [2] तिरिक्खजोणिस्थी णं भंते ! तिरिक्खजोणिस्थित्ति कालओ केवच्चिरं होति ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाइं पुग्धकोडिपुहुत्तमम्भहियाई। जलयरीए जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेण पुश्वकोडिपुहुत्तं / चउप्पदथलयरतिरिक्खजोणित्थी जहा ओहिया तिरिक्खजोणित्थी। उरपरिसप्पी-भुयपरिसप्पित्थीणं जहा जलयरीणं, खहयरित्थो णं जहण्णणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेण पलिओवमस्स असंखेज्जइभागं पुवकोडिपुहुत्तमम्भहियं / [48] (2) हे भगवन् ! तिर्यञ्चस्त्री तिर्यञ्चस्त्री के रूप में कितने समय तक (लगातार) रह सकती है ? __ गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम तक रह सकती है। जलचरी जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से पूर्वकोटिपृथक्त्व तक रह सकती है। चतुष्पदस्थलचरी के सम्बन्ध में औधिक तिर्यंचस्त्री की तरह जानना। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 134] [जीवाजीवाभिगमसूत्र उरपरिसर्पस्त्री और भुजपरिसर्पस्त्री के संबंध में जलचरी की तरह कहना चाहिए। खेचरी खेचरस्त्री के रूप में जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण काल तक रह सकती है। विवेचन–प्रस्तुत सूत्र में तिर्यचस्त्री का तिर्यञ्चस्त्री के रूप में लगातार रहने का कालप्रमाण या गया है। जघन्य से अन्तर्मुहर्त काल तक और उत्कर्ष से पूर्वकोटिप्रथकत्व अधिक तीन पल्योपम तक तिर्यंचस्त्री तिर्यंचस्त्रीरूप में रह सकती है। इसकी भावना इस प्रकार है-~ किसी तियंचस्त्री की आयु अन्तर्महर्त मात्र हो और वह मर कर वेदान्तर को प्राप्त कर ले अथवा मनुष्यादि विलक्षण भाव को प्राप्त कर ले तो उसकी अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त का जघन्य अवस्थानकाल संगत होता है / उत्कृष्ट अवस्थानकाल की भावना इस प्रकार है मनुष्य और तिर्यञ्च उसी रूप में उत्कर्ष से आठ भव लगातार कर सकते हैं, अधिक नहीं।' इनमें से सात भव तो संख्यात वर्ष की आयु वाले होते हैं और पाठवां भव असंख्यात वर्ष की आयु वाला ही होता है / पर्याप्त मनुष्य या पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च निरन्तर यथासंख्य सात पर्याप्त मनुष्य या सात पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच के भवों का अनुभव करके आठवें भव में पूनः पर्याप्त मनुष्य या पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च में उत्पन्न हो तो नियम से असंख्येय वर्षायु वाला ही होता है, संख्येय वर्षायु वाला नहीं / असंख्येय वर्षायुवाला मर कर नियम से देवलोक में उत्पन्न होता है, अत: लगातार नौवां भव मनुष्य या संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च का नहीं होता। अतएव जब पीछे के सातों भव उत्कर्ष से पूर्वकोटि आयुष्य के हों और आठवां भव देवकुरु आदि में उत्कर्ष से तीन पल्योपम का हो, इस अपेक्षा से तिर्यस्त्री का अवस्थानकाल पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम का होता है। विशेष चिन्ता में जलचरी स्त्री जलचरी स्त्री के रूप में लगातार जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से पूर्वकोटिपृथक्त्व तक रह सकती है। पूर्वकोटि यायु की जलचरी के सात भव करके अवश्य ही जलचरीभव का परिवर्तन होता है। चतुष्पद स्थलचरी की वक्तव्यता अधिक तिर्यंचस्त्री की तरह है। अर्थात् जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम है। उरपरिसर्प और भुजपरिसर्प स्त्री की वक्तव्यता जलचरस्त्री की वक्तव्यता के अनुसार है। अर्थात् जघन्य से अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व है / खेचरस्त्री का अवस्थानकाल जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक पल्योपम का असंख्यातवां भाग है। इस प्रकार तिर्यंचस्त्रियों का प्रवस्थानकाल सामान्य और विशेष रूप से कहा गया है। मनुष्यस्त्रियों का तद्रूप में प्रवस्थानकाल [3] मणुस्सिस्थी णं भंते ! मणुस्सिस्थित्ति कालओ केवच्चिरं होई ? गोयमा ! खेत्तं पडुच्च जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेण तिन्नि पलिओवमाई पुब्यकोडिपुहत्तमन्महियाई / धम्मचरणं पडुच्च जहन्नेणं एक्कं समयं उक्कोसेण देसूणा पुवकोंडो। 1. 'नरतिरियाणं सतलुभवा' इति वचनात् Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रतिपति : मनुष्यस्त्रियों का तद्रूप में अवस्थानकाल] [135 एवं कम्मभूमिया वि, भरहेरवया वि, गवरं खेत्तं पडुच्च जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाई देसूणपुग्यकोडिमम्महियाई। धम्मचरणं पड़च्च जहन्नेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं देसूणा पुवकोडी। पुग्धविदेह-अवर विदेहित्थी णं खेत्तं पड़च्च जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पुवकोडिपुहत्तं / धम्मचरणं पडुच्च जहन्नेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं देसूणा पुब्धकोडी। अकम्मभूमिग-मणुस्सित्थी णं भंते ! अकम्मभूमिग-मणुस्सिस्थित्ति कालओ केवच्चिरं होइ ? गोयमा ! जम्मणं पडुच्च जहन्नेणं देसूर्ण पलिओवमं पलिओवमस्स असंखेज्जइ भागेणं ऊणं, उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाई। संहरणं पडुच्च जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाई देसूणाए पुवकोडोए अभहियाई। हेमवय एरण्णवय-अकम्मभूमियमणस्सित्यो णं भंते ! हेमवय-एरण्णवय अकम्मभूमियमस्सिस्थित्ति कालओ केवच्चिरं होइ ? गोयमा ! जम्मणं पडुच्च जहन्नेणं देसूर्ण पलिओवमं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागेण ऊणगं, उक्कोसेणं पलिओवमं / संहरणं पडुच्च जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं पलिओवमं वेसूणाए पुषकोडीए अहियं / हरिवास-रम्मयवास-अकम्मभूमिग-मणुस्सित्थी गं हरिवास-रम्मयवास-अकम्ममूमिगमणुस्सिस्थित्ति कालमो केवच्चिरं होइ ? गोयमा ! जम्मणं पडुच्च जहन्नेणं देसूणाई दो पलिओवमाइं पलिओवमस्स असंखेज्जनभागेण ऊणाई, उक्कोसेण दो पलिओवमाई / संहरणं पडुच्च जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं दो पलिओवमाई देसूणपुश्वकोडिमम्महियाई / देवकुरुत्तरकुरूणं, जम्मणं पडुच्च जहन्नेणं देसूणाई तिन्नि पलिओवमाई पलिओवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणगाई, उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाई। संहरणं पडुच्च जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाइं देसूणाए पुश्वकोडीए अभहियाई। अंतरदीवगाकम्मभूमिग-मणुस्सित्थो णं भंते ! अंतरदीवगाकम्मभूमिग-मणुस्सिस्थिति कालो केवच्चिर होइ? गोयमा ! जम्मणं पडुच्च जहन्नेणं दिसूणं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणं, उक्कोसेण पलिअोवमस्स असंखेज्जइमागं / संहरणं पडुच्च जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेज्जइमागं देसूणाए पुग्धकोडीए अम्महियं / देविस्थीणं भंते ! देवित्थिति कालमो केवच्चिरं होइ ? गोयमा ! जच्चेव भवढिई सच्चेव संचिट्ठणा भाणियग्वा / Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 136] [जीवाजीवाभिगमसूत्र [48] (3) भंते ! मनुष्यस्त्री मनुष्यस्त्री के रूप में कितने काल तक रहती है ? गौतम ! क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम तक रहती है। चारित्रधर्म की अपेक्षा जघन्य एक समय और उत्कृष्ट देशोनपूर्वकोटि तक रह सकती है। इसी प्रकार कर्मभूमिक स्त्रियों के विषय में और भरत ऐरवत क्षेत्र की स्त्रियों के सम्बन्ध में जानना चाहिए / विशेषता यह है कि क्षेत्र की अपेक्षा से जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोनपूर्वकोटि अधिक तीन पल्योपम तक रह सकती है। चारित्रधर्म की अपेक्षा जघन्य एक समय और उत्कृष्ट देशोनपूर्वकोटि तक अवस्थानकाल है। पूर्वविदेह पश्चिमविदेह की स्त्रियों के सम्बन्ध में क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व अवस्थानकाल कहना चाहिए। धर्माचरण की अपेक्षा जघन्य एक समय, उत्कृष्ट देशोनपूर्वकोटि / भगवन् ! अकर्मभूमि की मनुष्यस्त्री अकर्मभूमि की मनुष्यस्त्री के रूप में कितने काल तक रह सकती है ? ___ गौतम ! जन्म की अपेक्षा जघन्य से देशोन अर्थात् पल्योपम का असंख्यातवां भाग न्यून एक पल्योपम और उत्कृष्ट से तीन पल्योपम तक। संहरण की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से देशोनपूर्वकोटि अधिक तीन पल्योपम तक रह सकती है। - भगवन् ! हेमवत-एरण्यवत-अकर्मभूमिक मनुष्यस्त्री हेमवत-एरण्यवत-अकर्मभूमिक मनुष्यस्त्री के रूप में कितने काल तक रह सकती है ? / ___ गौतम ! जन्म की अपेक्षा जघन्य से देशोन अर्थात् पल्योपम का असंख्यातवां भाग कम एक पल्योपम और उत्कर्ष से एक पल्योपम तक / संहरण की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्ट देशोनपूर्वकोटि अधिक एक पल्योपम तक। भगवन् ! हरिवास-रम्यकवास-अकर्मभूमिक मनुष्यस्त्री हरिवास-रम्यकवास-अकर्मभूमिक मनुष्यस्त्री के रूप में कितने काल तक रह सकती है ? गौतम ! जन्म की अपेक्षा से जघन्यतः पल्योपम का असंख्यातवां भाग न्यून दो पल्योपम तक और उत्कृष्ट से दो पल्योपम तक / संहरण की अपेक्षा से जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोनपूर्वकोटि अधिक दो पल्योपम तक। देवकुरु-उत्तरकुरु को स्त्रियों का अवस्थानकाल जन्म की अपेक्षा पल्योपम का असंख्यातवां भाग न्यून तीन पल्योपम और उत्कृष्ट से तीन पल्योपम है। संहरण की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोनपूर्वकोटि अधिक तीन पल्योपम / ___ भगवन् ! अन्तरद्वीपों की अकर्मभूमि की मनुष्य स्त्रियों का उस रूप में अवस्थानकाल कितना है ? गौतम ! जन्म की अपेक्षा जघन्य से देशोनपल्योपम का असंख्यातवां भाग कम पल्योपम का असंख्यातवां भाग है और उत्कृष्ट से पल्योपम का असंख्यातवां भाग है / संहरण की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोनपूर्वकोटि अधिक पल्योपम का असंख्यातवां भाग / Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रलिपति : मनुष्यस्त्रियों का तरूप में अवस्थानकाल] [137 भगवन् ! देवस्त्री देवस्त्री के रूप में कितने काल तक रह सकती है? गौतम ! जो उसकी भवस्थिति है, वही उसका अबस्थानकाल है। विवेचन-मनुष्यस्त्रियों का सामान्यतः अवस्थानकाल वही है जो सामान्य तियंचस्त्रियों का कहा गया है / अर्थात् जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम है / इसकी भावना तिर्यचस्त्री के अधिकार में पहले कही जा चुकी है, तदनुसार जानना चाहिए। कर्मभूमि की मनुष्यस्त्री का अवस्थानकाल क्षेत्र की अपेक्षा अर्थात सामान्यतः कर्मक्षेत्र को लेकर जघन्य अन्तर्मुहूर्त है, इसके बाद उसका परित्याग सम्भव है। उत्कर्ष से पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम का है। इसमें सात भव महाविदेहों में और पाठवां भव भरत-ऐरावतों में। एकान्त सुषमादि प्रारक में तीन पल्यापम का प्रमाण समझना चाहिए। धमोचरण को लेकर जघन्य से एक समय है, क्योंकि तदावरणकर्म के क्षयोपशम की विचित्रता से एक समय की सम्भावना है। इसके बाद मरण हो जाने से चारित्र का प्रतिपात हो जाता है / उत्कर्ष से देशोन पूर्वकोटि है, क्योंकि चारित्र का परिपूर्ण काल भी उत्कर्ष से देशोन पूर्वकोटि ही है। भरत-ऐरवत कर्मभूमिक मनुष्यस्त्री का अवस्थानकाल जघन्य से अन्तर्मुहूर्त है और उत्कर्ष से देशोन पूर्वकोटि अधिक तीन पल्योपम का है / इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है पूर्वविदेह अथवा पश्चिमविदेह की पूर्वकोटि आयु वाली स्त्री को किसी ने भरतादि क्षेत्र में एकान्त सुषमादि काल में संहृत किया। वह यद्यपि महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न हुई है तो भी पूर्वोक्त मागध पुरुष के दृष्टान्त से भरत-ऐरावत की कही जाती है। वह स्त्री पूर्वकोटि तक जीवित रहकर अपनी आयु का क्षय होने पर वहीं भरतादि क्षेत्र में एकान्त सुषम प्रारक के प्रारम्भ में उत्पन्न हुई। इस अपेक्षा से देशोन पूर्वकोटि अधिक तीन पल्योपम का उसका अवस्थानकाल हुआ। धर्माचरण की अपेक्षा कर्मभूमिज स्त्री की तरह जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से देशोन पूर्वकोटि जानना चाहिए। पूर्व विदेह-पश्चिमविदेह कर्मभूमिज स्त्री का अवस्थानकाल क्षेत्र को लेकर जघन्य से अन्तर्मुहर्त और उत्कर्ष से पूर्वकोटिपृथक्त्व है। वहीं पुनः उत्पत्ति की अपेक्षा से समझना चाहिए। धर्माचरण की अपेक्षा जघन्य एक समय और उत्कर्ष से देशोन पूर्वकोटि है / यह कर्मभूमिज स्त्रियों की वक्तव्यता हुई। अकर्मभूमिज मनुष्यस्त्री का सामान्यतः अवस्थानकाल जन्म की अपेक्षा से जघन्यतः देशोन पल्योपम है। अष्ट भाग प्रादि भी देशोन होता है अतः ऊनता को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि पल्योपम का असंख्यातवां भाग न्यून एक पल्योपम है / उत्कर्ष से तीन पल्योपम है / संहरण की अपेक्षा जघन्य से अन्तर्मुहर्त। यह अन्तर्महत आयु शेष रहते संहरण होने से अपेक्षा से है। उत्कर्ष से देशोन पूर्वकोटि अधिक तीन पल्योपम है / इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है कोई पूर्व विदेह या पश्चिमविदेह की मनुष्यस्त्री जो देशोन पूर्वकोटि की आयु वाली है, उसका देवकुरु आदि में संहरण हुआ, वह पूर्व मागधदृष्टान्त से देवकुरु की कहलाई। वह वहाँ देशोन Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 138] [जीवाजीवाभिगमसूत्र पूर्वकोटि तक जी कर कालधर्म प्राप्त कर वहीं तीन पल्योपम की आयु लेकर उत्पन्न हुई / इस तरह देशोन पूर्वकोटि अधिक तीन पल्योपम का अवस्थानकाल हुआ। ___संहरण को लेकर इस जघन्य और उत्कृष्ट अवस्थानकालमान प्रदर्शित करने से यह प्रतिपादित किया गया है कि कुछ न्यून अन्तर्मुहूर्त प्रायु शेष वाली स्त्री का तथा गर्भस्थ का संहरण नहीं होता है। अन्यथा जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से पूर्वकोटि को देशोनता सिद्ध नहीं हो सकती है। विशेष-विवक्षा से हैमवत ऐरण्यवत हरिवर्ष रम्यकवर्ष देवकुरु-उत्तरकुरु और अन्तर्वीपिज स्त्रियों का जन्म की अपेक्षा जो जिसकी स्थिति है, वही उसका अवस्थानकाल है। संहरण की अपेक्षा जघन्य से अन्तमुहूर्त और उत्कर्ष से जो जिसकी स्थिति है उससे देशोन पूर्वकोटि अधिक अवस्थानकाल जानना चाहिए / इस संक्षिप्त कथन को स्पष्टता के साथ इस प्रकार जानना चाहिए ___ हैमवत ऐरण्यवत की मनुष्यस्त्री का अवस्थानकाल जन्म की अपेक्षा पल्योपमासंख्येय भाग न्यून एक पल्योपम और उत्कर्ष से परिपूर्ण पल्योपम / संहरण की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि अधिक एक पल्योपम / हरिवर्ष रम्यकवर्ष की मनुष्यस्त्री का अवस्थानकाल जन्म की अपेक्षा पल्योपमासंख्येय भाग कम दो पल्योपम और उत्कर्ष से परिपूर्ण दो पल्योपम / संहरण की अपेक्षा जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से देशोन पूर्वकोटि अधिक दो पल्योपम / देवकुरु-उत्तरकुरु की मनुष्यस्त्री का अवस्थानकाल जन्म की अपेक्षा जघन्य से पल्योपमासंख्येय भाग न्यून तीन पल्योपम और उत्कर्ष से तीन पल्योपम / संहरण की अपेक्षा से जघन्य अन्तमुहूर्त और उत्कर्ष से देशोन पूर्वकोटि अधिक तीन पल्योपम / अन्तर्वीपों की मनुष्यस्त्री का अवस्थानकाल जन्म की अपेक्षा जघन्यतः पत्योपमासंख्येय भाग न्यून पल्योपम का असंख्यातवां भाग और उत्कर्ष से पल्योपम का असंख्येय भाग / संहरण को लेकर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से देशोन पूर्वकोटि अधिक पल्योपम का असंख्येय भाग है। देवस्त्रियों का अवस्थानकाल-देवस्त्रियों की जो भवस्थिति है, वही उनका अवस्थानकाल है। क्योंकि तथाविध भवस्वभाव से उनमें कायस्थिति नहीं होती। क्योंकि देव देवी मरकर पूनः देव देवी नहीं होते। अन्तरद्वार 46. इत्थी णं भंते ! केवइयं कालं अंतरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं अणंत कालं, वणस्सइकालो, एवं सव्वासि तिरिक्खस्थीणं। मणुस्सित्थीए खेत्तं पडुच्च जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेण वणस्सइकालो; धम्मचरणं पडुच्च जहन्नेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं अणंत कालं जाव अवडपोग्गलपरियट देसूणं, एवं जाव पुम्वविदेहअवर विदेहियानो। अकम्मभूमगमणुस्सित्थीणं भंते ! केवइयं कालं अंतर होइ? Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रतिपत्ति: अन्तरद्वार] [139 गोयमा ! जम्मणं पडुच्च जहन्नं दसवाससहस्साइं अंतोमुत्तममहियाई; उक्कोसेणं वणस्सइकालो / संहरणं पडुच्च जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो। एवं जाव अंतरवीवियानो। देविस्थियाणं सव्वासि जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेण वणस्सइकालो। [49] भगवन् ! स्त्री के पुनः स्त्री होने में कितने काल का अन्तर होता है ? (स्त्री, स्त्रीत्व का त्याग करने के बाद पुन: कितने समय बाद स्त्री होती है ?) ___गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहर्त और उत्कर्ष से अनन्तकाल अर्थात् वनस्पतिकाल / ऐसा सब तियंचस्त्रियों के विषय में कहना चाहिए। ___मनुष्यस्त्रियों का अन्तर क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल / धर्माचरण की अपेक्षा जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अनन्तकाल यावत् देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्तन / इसी प्रकार यावत् पूर्व विदेह और पश्चिमविदेह की मनुष्यस्त्रियों की वक्तव्यता कहनी चाहिए। भंते ! अकर्मभूमिक मनुष्यस्त्रियों का अन्तर कितना कहा गया है ? गौतम ! जन्म की अपेक्षा जघन्य अन्तर्महत अधिक दस हजार वर्ष और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल / संहरण की अपेक्षा से जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल। इस प्रकार यावत् अन्तद्वीपों की स्त्रियों का अन्तर कहना चाहिए। सभी देवस्त्रियों का अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से बनस्पतिकाल है। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में अन्तर बताया गया है / अन्तर का अर्थ है काल का व्यवधान / स्त्री स्त्रीपर्याय का परित्याग करके पुनः जितने समय के बाद स्त्रोपर्याय को प्राप्त करती है वह कालव्यवधान स्त्री का अन्तर कहलाता है। सामान्य विवक्षा में स्त्रीवेद का अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से अनन्तकाल अर्थात् वनस्पतिकाल है / इसकी भावना इस प्रकार है कोई स्त्री मरकर स्त्रीपर्याय से च्युत होकर पुरुषवेद या नपुंसकवेद का अन्तर्मुहूर्त काल तक अनुभव करके वहां से मरकर पुनः स्त्रीरूप में उत्पन्न हो, इस अपेक्षा से जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्तकाल का होता है। उत्कर्ष से वनस्पतिकाल का अन्तर होता है / असंख्येय पुद्गलपरावर्त का वनस्पतिकाल होता हैं / इस अनन्तकाल में काल की अपेक्षा अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी बीत जाती हैं, क्षेत्र से अनन्त लोक और असंख्येय पूदगलपरावर्त निकल जाते हैं। ये पुद्गलपरावर्त प्रावलिका के अन्दर जितने समय होते हैं उसका असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं।' इतने लम्बे काल तक स्त्रीत्व का व्यवच्छेद हो जाता है और फिर स्त्रीत्व की प्राप्ति होती है। इसी प्रकार औधिक तिर्यंचस्त्रियों का, जलचर थलचर खेचर स्त्रियों का और प्रौधिक मनुष्यस्त्रियों का अन्तर जानना चाहिए। 1. 'अणंताओ उस्सप्पिणी प्रोसप्पिणी कालो, खेत्तमो अणंता लोगा, असंखेज्जा पोग्गलपरिया,' एवं वनस्पति कालः. Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140] [जीवाजीवाभिगमसूत्र कर्मभूमिक मनुष्यस्त्रियों का अन्तर कर्मभूमिक्षेत्र की अपेक्षा जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से अनन्तकाल अर्थात् बनस्पतिकाल प्रमाण जानना चाहिए। धर्माचरण की अपेक्षा जघन्य एक समय और उत्कर्ष से अनन्तकाल अर्थात् देशोन अपार्द्ध पुद्गलपरावर्त जितना अन्तर है। इससे अधिक चरणलब्धि का प्रतिपातकाल नहीं है / दर्शनलब्धि के प्रतिपात का काल सम्पूर्ण अपार्ध पुद्गल परावर्त होने का स्थान-स्थान पर निषेध हुआ है। इसी तरह भरत-ऐरवत मनुष्यस्त्रियों का और पूर्व विदेह पश्चिमविदेह को स्त्रियों का अन्तर क्षेत्र और धर्माचरण को अपेक्षा से समझना चाहिए। अकर्मभूमि की मनुष्यस्त्रियों का अन्तर जन्म की अपेक्षा जघन्य से अन्तर्मुहुर्त अधिक दस हजार वर्ष है / इसका स्पष्टीकरण इस तरह है-कोई अकर्मभूमि की स्त्री मर कर जघन्य स्थिति के देवों में उत्पन्न हुई / वहाँ दस हजार वर्ष की आयु पाल कर उसके क्षय होने पर वहाँ से च्यवकर कर्मभूमि में मनुष्यपुरुष या मनुष्यस्त्री के रूप में उत्पन्न हुई (क्योंकि देवलोक से कोई सीधा अकर्मभूमि में पैदा नहीं होता), अन्तर्मुहूर्त काल में मरकर फिर अकर्मभूमि की स्त्री रूप में उत्पन्न हुई, इस अपेक्षा से अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष का जघन्य अन्तर होता है / उत्कर्ष से अन्तर वनस्पतिकाल है / संहरण की अपेक्षा जघन्य से अन्तर्मुहूर्त का अन्तर इस अपेक्षा से है कि कोई अकर्मभूमिज स्त्री को कर्मभूमि में संहृत कर अन्तर्मुहूर्त बाद ही बुद्धिपरिवर्तन होने से पुन: उसी स्थान पर रख दे। उत्कर्ष से अन्तर वनस्पतिकाल प्रमाण है। इतने लम्बे काल में कर्मभूमि में उत्पत्ति की तरह संहरण भी निश्चय से होता ही है। कोई अकर्मभूमि की स्त्री कर्मभूमि में संहृत की गई। वह अपनी आयु के क्षय के अनन्तर अनन्तकाल तक वनस्पति आदि में भटक कर पुन: प्रकर्मभूमि में उत्पन्न हुई। वहाँ से किसी ने उसका संहरण किया तो यथोक्त संहरण का उत्कृष्ट कालमान हुआ। इसी प्रकार हैमवत हैरण्यवत हरिवर्ष रम्यकवर्ष देवकुरु उत्तरकुरु और अन्तर्वीपों की मनुष्यस्त्रियों का भी जन्म से और संहरण की अपेक्षा से जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर कहना चाहिए / देवस्त्रियों का अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहर्त और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल है। कोई देवीभाव से च्यवकर गर्भज मनुष्य में उत्पन्न हुई / वहाँ वह पर्याप्ति की पूर्णता के पश्चात् तथाविध अध्यवसाय से मृत्यु पाकर देवी के रूप में उत्पन्न हो गई—इस अपेक्षा से जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त हुअा। उत्कर्ष से वनस्पति काल का अन्तर स्पष्ट ही है। इसी प्रकार असुरकुमार देवी से लगाकर ईशानकल्प की देवियों का अन्तर भी जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट बनस्पतिकाल जानना चाहिए / अल्पबहुत्व 50. (1) एतासि णं भंते ! तिरिक्खजोणित्थियाणं, मणुस्सिस्थियाणं देवित्थियाणं कयरा कयराहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा ! सव्वत्थोवा मणुस्सिस्थिओ, तिरिक्खजोणियाओ असंखेज्जगुणाओ, देवित्थियाओ असंखिज्जगुणाओ। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रतिपत्ति: अल्पबहुत्व] [141 (2) एतासि गं भंते ! तिरिक्खजोणिस्थियाणं जलयरीणं थलयरीणं खहयरीण य कयरा कयराहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा ! सम्वत्योवाओ खहयरतिरिक्खजोणित्थियामओ, पलयर तिरिक्खजोणित्थियाओ संखेज्जगुणाओ, जलयर तिरिक्खयोणिस्थियाओ संखेज्जगुणाओ। (3) एतासि णं भंते ! मणुस्सित्थियाणं कम्मभूमियाणं अकम्मभूमियाणं अंतरदीवियाण य कयरा कयराहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा ! सम्वत्थोवाओ अंतरदीवग-अकम्मममग-मणुस्सित्थियाओ, देवकुरुत्तरकुरु-अकम्मभूमग-मणुस्सित्थियाओ दो वि तुल्लाओ संखेज्जगुणाओ, हरिवास रम्भगवास अकम्मभूमग-मणुस्सित्थियाओ दो वि तुल्लाओ संखेज्जगुणाओ, हेमवतेरणबय अकम्मभूमिग-मणुस्सित्थियाओ दो वि तुल्लाओ संखिज्जगुणामो, भरहेरवतवासकम्मभूमग-मणुस्सित्थियाओ दो वि तुल्लाओ संखिज्जगुणाओ, पुश्वविवेह अवरविवेह कम्मभूमग-मणुस्सित्थियाओ दो वि तुल्लामो संखेज्जगुणाभो / (4) एतासि णं भंते ! देवित्थियाणं भवणवासीणं वाणमंतरीणं जोइसिणीणं वेमाणिणीणं य कयरा कयरहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवाओ वेमाणियदेवित्यियाओ, भवणवासिवेवित्थियात्रो असंखेज्जगुणाओ, वाणमंतरदेवियाओ असंखेज्जगुणाओ, जोतिसियदेविस्थियाओ संखेज्जगुणाओ। (5) एतासि णं भंते ! तिरिक्खजोणित्थियाणं जलयरीणं थलयरीणं खहयरीणं, मणुस्सिस्थियाणं कम्मभूमियाणं अकम्मभूमियाणं अंतरवीवियाणं, देवित्थियाणं भवणवासियाणं वाणमंतरीणं जोतिसियाणं वेमाणिणोण य कयरामो कयराहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सम्वत्थोवामओ अंतरदीवग अकम्मभूमग-मणुस्सित्थियाओ, देवकुरु-उत्तरकुरु अकम्मभूमग-मणुस्सिस्थियाओ दो वि तुल्लाओ संखिज्जगुणाओ, हरिवास रम्मगवास अकम्मभूमग-मणुस्सिस्थियाओ दो वि तुल्लाओ संखिज्जगुणाओ, हैमवतहेरण्णवयवास अकम्मभूमग-मणुस्सिस्थियाओ दो वि तुल्लाओ संखिज्जगुणाओ, भरहेरवयवास कम्मभूमग-मणुस्सित्थियाओ दो वि तल्लामो संखेज्जगुणाओ, पुम्वविवेह-अवरविदेहवास कम्मभूमग-मणुस्सित्थियाओ दो वि तुल्लाओ संखेज्जगुणाओ, . वेमाणियदेवस्थियाओ असंखेज्जगुणाओ, भवणवासिदेवित्थियाओ असंखेज्जगुणाओ, Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 142] [जीवाजीवाभिगमसूत्र खहयरतिरिक्खजोणित्थियाओ असंखेज्जगुणाणो, थलयरतिरिक्खजोणित्थियाओ संखिज्जगुणाओ, जलयरतिरिक्खजोणित्थियाओ संखिज्जगुणाओ, वाणमंतरदेवित्थियाओ संखेज्जगुणाओ, जोइसियदेवित्थियाओ संखेज्जगुणाओ। [50] (1) हे भगवन् ! इन तिर्यक्योनिक स्त्रियों में, मनुष्यस्त्रियों में और देवस्त्रियों में कौन किससे अल्प है, अधिक है, तुल्य है या विशेषाधिक है ? गौतम ! सबसे थोड़ी मनुष्यत्त्रियां, उनसे तिर्यक्योनिक स्त्रियां असंख्यातगुणी, उनसे देवस्त्रियां असंख्यातगुणी हैं। (2) भगवन् ! इन तिर्यक्योनि की जलचरी, स्थलचरी और खेचरी में कौन किससे अल्प, अधिक, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़ी खेचर तिर्यक्योनि की स्त्रियाँ, उनसे स्थलचर तिर्यक्योनि की स्त्रियां संख्यात गुणी, उनसे जलचर तिर्यक्योनि की स्त्रियां संख्यातगुणी हैं। (3) हे भगवन् ! कर्मभूमिक, अकर्मभूमिक और अंतरद्वीप की मनुष्य स्त्रियों में कौन किससे अल्प, अधिक तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़ी अंतर्वीपों की मनुष्यस्त्रियां, उनसे देवकुरु-उत्तरकुरु-अकर्मभूमि की मनुष्य स्त्रियां दोनों परस्पर तुल्य और संख्यातगुणी हैं, उनसे हरिवास-रम्यकवास-अकर्मभूमि की मनुष्यस्त्रियां परस्पर तुल्य और संख्यातगुणी हैं, उनसे हेमवत और एरण्यवत अकर्मभूमि की मनुष्यस्त्रियां परस्पर तुल्य और संख्यातगुणी हैं, उनसे भरत-एरवत क्षेत्र की कर्मभूमि की मनुष्यस्त्रियां दोनों परस्पर तुल्य और संख्यातगुणी हैं, उनसे पूर्वविदेह-पश्चिमविदेह कर्मभूमि की मनुष्यस्त्रियां दोनों परस्पर तुल्य और संख्यातगुणी हैं। (4) भगवन् ! भवनवासी, वानव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवस्त्रियों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं। गौतम ! सबसे थोड़ी वैमानिक देवियां, उनसे भवनवासी देवियां असंख्यातगुणी, उनसे वानव्यन्तरदेवियां असंख्यातगुणी, उनमें ज्योतिष्कदेवियां संख्यातगुणी हैं। (5) हे भगवन् ! तिर्यंचयोनि की जलचरी, स्थलचरी, खेचरी और कर्मभूमिक, अकर्मभूमिक और अन्तर्वीप की मनुष्यस्त्रियां और भवनवासी, वानव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवियों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं। गौतम ! सबसे थोड़ी अकर्मभूमि की अन्तीपों की मनुष्यस्त्रियां, उनसे देवकुरु-उत्तरकुरु की अकर्मभूमि की मनुष्यस्त्रियां दोनों परस्पर तुल्य और संख्यातगुणी; उनसे / हरिवास-रम्यकवास अकर्मभूमि की मनुष्यस्त्रियां दोनों परस्पर तुल्य और संख्यातगुणी, उनसे Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रतिपत्ति : अल्पबहुत्व [143 हैमवत-हैरण्यवत अकर्मभूमि की मनुष्यस्त्रियां दोनों परस्पर तुल्य और संख्यातगुणी; उनसे भरत-ऐरवत कर्मभूमि को मनुष्यस्त्रियां दोनों परस्पर तुल्य और संख्यातगुणी, उनसे पूर्व विदेह और पश्चिमविदेह कर्मभूमि की मनुष्यस्त्रियां दोनों परस्पर तुल्य और संख्यात गुणी, उनसे वैमानिकदेवियां असंख्यातगुणी, उनसे भवनवासीदेवियां असंख्यातगुणी, उनसे खेचरतिर्यक्योनि की स्त्रियां असंख्यातगुणी, उनसे स्थलचरस्त्रियां संख्यातगुणी, उनसे जलचरस्त्रियां संख्यातगुणी, उनसे वानव्यन्तरदेवियां संख्यातगुणी, उनसे ज्योतिष्कदेवियां संख्यातगुणी हैं। विवेचन--प्रस्तुत सूत्र में पांच प्रकार से अल्पबहत्व बताया गया है। पहले प्रकार में तीनों प्रकार की स्त्रियों का सामान्य से अल्पबहुत्व बताया है। दूसरे प्रकार में तीन प्रकार की तिर्यंचस्त्रियों का अल्पबहुत्व है। तीसरे प्रकार में तीन प्रकार की मनुष्यस्त्रियों का अल्पबहुत्व है। चौथे प्रकार में चार प्रकार की देवस्त्रियों की अपेक्षा से अल्पबहुत्व है और पांचवें प्रकार में सब प्रकार की मिथ स्त्रियों की अपेक्षा से अल्पबहुत्व बताया गया है। (1) सामान्य रूप से तीन प्रकार की स्त्रियों में सबसे थोड़ी मनुष्यस्त्रियां हैं, क्योंकि उनका प्रमाण संख्यात कोटाकोटी है। उनसे तिर्यंचस्त्रियां असंख्येयगुण हैं, क्योंकि प्रत्येक द्वीप और प्रत्येक समुद्र में तिर्यंचस्त्रियों की प्रति बहुलता है और द्वीप-समुद्र असंख्यात हैं। उनसे देवस्त्रिया असंख्येयगुणी हैं, क्योंकि भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और सौधर्म-ईशान की देवियां प्रत्येक असंख्येय श्रेणी के प्राकाश-प्रदेशप्रमाण हैं। यह प्रथम अल्पबहुत्व हुआ। (2) दूसरा अल्पबहुत्व तीन प्रकार की तिर्यंचस्त्रियों की अपेक्षा से है। सबसे थोड़ी खेचर तिर्यकयोनि की स्त्रियां, उनसे स्थलचरस्त्रियां संख्येयगुण हैं क्योंकि खेचरों से स्थलचर स्वभाव से प्रचुर प्रमाण में हैं। उनसे जलचरस्त्रियां संख्यातगुणी हैं, क्योंकि लवणसमुद्र में, कालोद में और स्वयंभूरमण समुद्र में मत्स्यों की अति प्रचुरता है और स्वयंभूरमणसमुद्र अन्य समस्त द्वीप-समुद्रों से अति विशाल है। (3) तीसरा अल्पबहुत्व तीन प्रकार की मनुष्यस्त्रियों को लेकर है / सबसे थोड़ी अन्तर्वीपों की अकर्मभूमिक मनुष्यस्त्रियां हैं, क्योंकि वह क्षेत्र छोटा है। उनसे देवकुरु-उत्तरकुरु की स्त्रियां संख्येयगुण हैं, क्योंकि क्षेत्र संख्येयगुण है। स्वस्थान में परस्पर दोनों तुल्य हैं, क्योंकि दोनों का क्षेत्र समान प्रमाण वाला है। उनसे हरिवर्ष रम्यकवर्ष अकर्मभूमि की मनुष्यस्त्रियां संख्येयगुणी हैं, क्योंकि देवकूरु-उत्तरकर क्षेत्र की अपेक्षा हरिवर्ष रम्यकवर्ष का क्षेत्र वहत अधिक है। स्वस्थान में हैं, क्योंकि क्षेत्र समान है। उनसे हैमवत-हैरण्यवत अकर्मभूमि की मनुष्यस्त्रियां संख्येयगुण हैं, क्योंकि क्षेत्र की अल्पता होने पर भी अल्प स्थिति वाली होने से वहाँ उनकी बहुलता है / स्वस्थान में परस्पर तुल्य हैं, क्योंकि दोनों क्षेत्रों में समानता है। उनसे भरत और ऐरबत कर्मभूमि की मनुष्यस्त्रियां तुल्य Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 144] [जीवाजीवामिगमसूत्र संख्येयगुण हैं, क्योंकि कर्मभूमि होने से स्वभावतः उनकी वहां प्रचुरता है। स्वस्थान में परस्पर तुल्य हैं, क्योंकि दोनों क्षेत्रों की समान रचना है। उनसे पूर्व विदेह और पश्चिमविदेह कर्मभूमि की मनुष्यस्त्रियां संख्येयगुण हैं, क्योंकि क्षेत्र की बहुलता होने से अजितनाथ तीर्थंकर के काल के समान स्वभावतः वहाँ उनकी बहुलता है / स्वस्थान में परस्पर तुल्य हैं, समान क्षेत्ररचना होने से / (4) चौथा अल्पबहत्व चार प्रकार की देवियों को लेकर है, सबसे थोड़ी वैमानिक देवस्त्रियां हैं, क्योंकि अंगुलमात्र क्षेत्र की प्रदेशराशि का जो द्वितीय वर्गमूल है उसे तृतीय वर्गमूल से गुणा करने पर जितनी प्रदेशराशि होती है, उतनी धनीकृत लोक की एक प्रादेशिक श्रेणियों में जितने प्रकाश प्रदेश हैं, उनका बत्तीसवां भाग कम कर देने पर जो राशि प्रावे उतने प्रमाण की सौधर्मदेवलोक की देवियां हैं और उतनी ही ईशानदेवलोक की देवियां हैं। वैमानिकदेवियों से भवनवासीदेवियां असंख्यातगुणी हैं, क्योंकि अंगुलमात्र क्षेत्र की प्रदेशराशि का जो प्रथम वर्गमूल है उसको द्वितीय वर्गमूल से गुणा करने पर जो प्रदेशराशि होती है उतनी श्रेणियों के जितने प्रदेश हैं उनका बत्तीसवां भाग कम करने पर जो राशि होती है उतनी भवनवासीदेवियां हैं। भवनवासीदेवियों से व्यन्तरदेवियां असंख्येयगुणी हैं, क्योंकि एक प्रतर में संख्येय योजन प्रमाण वाले एक प्रादेशिक श्रेणी प्रमाण जितने खण्ड हों, उनमें से बत्तीसवां भाग कम करने पर जो शेष राशि रहती है, उतने प्रमाण की व्यन्तरदेवियां हैं। व्यन्तरदेवियों से ज्योतिष्कदेवियां संख्येयगुण हैं / स्योंकि 256 अंगुल प्रमाण के जितने खण्ड एक प्रतर में होते हैं, उनमें से बत्तीसवां भाग कम करने पर जितनी प्रदेशराशि होती है उतनी ज्योतिष्कदेवियां हैं। (5) पांचवां अल्पबहुत्व समस्त स्त्री विषयक है। सबसे थोड़ी अन्तर्वीपों की प्रकर्मभूमिक मनुष्यस्त्रियां, उनसे देवकुरु-उत्तरकुरु की मनुष्यस्त्रियां संख्येयगुणी, उनसे हरिवर्ष-रम्यकवर्ष की यां संख्येय गुणी, उनसे हैमवत-हैरण्यवत की स्त्रियां संख्येयगुणी, उनसे भरत-एरवत कर्मभूमि की मनुष्यस्त्रियां संख्येयगुण, उनसे पूर्व विदेह-पश्चिमविदेह की मनुष्यस्त्रियां संख्येयगुण हैं। इनका स्पष्टीकरण पूर्ववत् जानना चाहिए। पूर्व विदेह-पश्चिमविदेह की मनुष्यस्त्रियों से वैमानिकदेवस्त्रियां असंख्येयगुण हैं, क्योंकि वे असंख्येय श्रेणी के आकाशप्रदेश की राशि के जितनी हैं। उनसे भवनवासीदेवियां असंख्यातगुण हैं, इसकी युक्ति पहले कही ही है। उनसे खेचरस्त्रियां असंख्येयगुण हैं। वे प्रतर के असंख्येय भागवर्ती असंख्येय श्रेणियों के आकाशप्रदेशों के बराबर हैं। उनसे स्थलचरस्त्रियां संख्येयगुण हैं, क्योंकि वे संख्येयगुण बड़े प्रतर के असंख्यातवें भाग में रही हुई असंख्येय श्रेणियों के प्राकाशप्रदेश जितनी हैं। उनसे जलचर तियंचस्त्रियां संख्येयगुण हैं क्योंकि वे वृहत्तम प्रतर के असंख्यातवें भाग में रही हुई असंख्येय श्रेणियों के प्राकाशप्रदेश जितनी हैं। उनसे व्यन्तरस्त्रियां संख्येयगुण हैं, य कोटाकोटी योजन प्रमाण एक प्रदेश की श्रेणी जितने खण्ड एक प्रतर में होते हैं, उनमें से बत्तीसवां भाग कम करने पर जो राशि होती है उतनी व्यन्तरदेवियां हैं। व्यन्तरदेवियों से ज्योतिष्कदेवियां संख्येयगुणी हैं, इसकी स्पष्टता पूर्व में की जा चुकी है। स्त्रियां Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रतिपत्ति: स्त्रीवेद की स्थिति] [145 स्त्रीवेद को स्थिति 51. इथिवेदस्स णं भंते ! कम्मस्स केवइयं कालं बंधठिई पण्णता? गोयमा ! जहन्नेणं सागरोवमस्स दिवड्डो सत्तभागो पलिओवमस्स असंखेज्जइभागेण ऊणो; उक्कोसेणं पन्नरस सागरोवमकोडाकोडोओ, पण्णरस वाससयाई अबाधा, अबाहूणिया कम्महिती कम्मणिसेयो। इत्यिवेदे णं भंते ! किंपगारे पण्णत्ते ? गोयमा ! फुफुअग्गिसमाणे पण्णत्ते से त्तं इत्थियाओ। [51] हे भगवन् ! स्त्रीवेदकर्म की कितने काल की बन्धस्थिति कही गई है ? गौतम ! जघन्य से पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम 1 // सागरोपम के सातवें भाग (1) प्रमाण है / उत्कर्ष से पन्द्रह कोडाकोडी सागरोपम को बन्धस्थिति है। पन्द्रह सौ वर्ष का अबधाकाल है / अबाधाकाल से रहित जो कर्मस्थिति है वही अनुभवयोग्य होती है, अतः वही कर्मनिषक (कर्मदलिकों की रचना) है। हे भगवन् ! स्त्रीवेद किस प्रकार का कहा गया है ? गौतम ! स्त्रीवेद फफु अग्नि (कारिष---वनकण्डे की अग्नि) के समान होता है। इस प्रकार स्त्रियों का अधिकार पूरा हुआ / विवेचन-स्त्री पर्याय का अनुभव स्त्रीवेद कर्म के उदय से होता है अतः स्त्रीवेद कर्म की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति का प्रमाण प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है। गौतमस्वामी ने प्रश्न किया कि भगवन् ! स्त्रीवेद को बन्धस्थिति कितने काल की है ? इसके उत्तर में प्रभु ने फरमाया कि स्त्रीवेद की जघन्य बन्धस्थिति डेढ सागरोपम के सातवें भाग में पल्योपम का असंख्यातवां भाग कम है / जघन्य स्थिति लाने की विधि इस प्रकार है जिस प्रकृति का जो उत्कृष्ट स्थितिबन्ध है, उसमें मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोडाकोडी सागरोपम का भाग देने पर जो राशि प्राप्त होती है उसमें पल्योपम का असंख करने पर उस प्रकृति की जघन्य स्थिति प्राप्त होती है। स्त्रीवेद की उत्कृष्ट स्थिति 15 कोडाकोडी सागरोपम है / इसमें 70 कोडाकोडी सागरोपम का भाग दिया तो 24 कोडाकोडो सागरोपम प्राप्त होता है / छेद्य-छेदक सिद्धान्त के अनुसार इस राशि में 10 का भाग देने पर " कोडाकोडी सागरोपम को स्थिति बनती है। इसमें पल्योपम का असंख्यानवां भाग कम करने से यथोक्त स्थिति बन जाती है।' यह व्याख्या मूल टीका के अनुसार है / पंचसंग्रह के मत से भी यही जघन्यस्थिति का परिमाण है, केवल पल्योपम का असंख्यातवां भाग न्यून नहीं कहना चाहिए। कर्मप्रकृति संग्रहणीकार ने जघन्य स्थिति लाने की दूसरी विधि बताई है। ज्ञानावरणी 1. 'सेसाणुकोसानो मिच्छत्तुक्कोसएण जं लद्धं' इति वचनप्रामाण्यात् / 2. वग्गुक्कोसठिईणं मिच्छत्तुक्कोसगेण णं लद्धं / सेसाणं तु जहण्णं पलियासंखेज्जगेणूणं // -कर्मप्रकृति सं. Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 146] जोबाजोवाभिगमसूत्र यादि कर्मों की अपनी-अपनी प्रकृतियां ज्ञानावरणीयादि वर्ग कहलाती हैं। वर्गों की जो अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थिति हो उसमें मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति का भाग देने पर जो लब्ध होता है उसमें पल्योपम का संख्येयभाग कम करने से जघन्य स्थिति निकल आती है। यहाँ स्त्रीवेद नोकषायमोहनीयवर्ग की प्रकृति है। उसकी उत्कृष्ट स्थिति बीस कोडाकोडी सागरोपम की है। उसमें सत्तर कोडाकोडी सागरोपम का भाग देने से (शून्य को शून्य से काटने पर) कोडाकोडी सागरोपम की स्थिति बनती है। अर्थात् दो कोडाकोडी सागरोपम का सातवां भाग, उसमें से पल्योपमासंख्येय भाग कम करने से स्त्रीवेद की जघन्यस्थिति इस विधि से कोडाकोडी सागरोपम में पल्योपमासंख्येय भाग न्यून प्राप्त होती है। स्त्रीवेद की उत्कृष्ट स्थिति पन्द्रह कोडाकोडी सागरोपम है। स्थिति दो प्रकार की है-कर्मरूपतावस्थानरूप और अनुभवयोग्य / यहाँ जो स्थिति बताई गई है वह कर्मरूपतावस्थानरूप है। अनुभवयोग्य स्थिति तो अबाधाकाल से हीन होती है। जिस कर्म की जितने कोडाकोडी सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति होती है उतने ही सौ वर्ष उसकी अबाधा होती है। जैसे स्त्रीवेद को उत्कृष्ट स्थिति पन्द्रह कोडाकोडी सागरोपम की है तो उसका अबाधाकाल पन्द्रह सौ वर्ष का होता है। अर्थात् इतने काल तक वह बन्धी हई प्रकृति उदय में नहीं प्राती और अपना फल नहीं देती। अबाधाकाल बीतने पर ही कर्मदलिकों की रचना होती है अर्थात् वह प्रकृति उदय में आती है / इसको कर्मनिषेक कहा जाता है / अबाधाकाल से हीन कर्मस्थिति ही अनुभवयोग्य होती हैं। स्त्रीवेद की बन्धस्थिति के पश्चात् गौतमस्वामी ने स्त्रीवेद का प्रकार पूछा है / इसके उत्तर में भगवान् ने कहा कि स्त्रीवेद फुम्फुक (कारीष-छाणे) की अग्नि के समान होता है, अर्थात् वह धीरे धीरे जागृत होता है और देर तक बना रहता है। इस प्रकार स्त्रीविषयक अधिकार समाप्त हुआ। पुरुष-सम्बन्धी प्रतिपादन 52. से कि तं पुरिसा? पुरिसा तिविहा पण्णत्ता, तंजहा-तिरिक्खजोणियपुरिसा, मणुस्सपुरिसा, देवपुरिसा। से कि तं तिरिक्खजोणियपुरिसा? तिरिक्खजोणियपुरिसा तिबिहा पण्णत्ता, तंजहा-जलयरा, थलयरा, खहयरा। इथिभेदो भाणियब्वो जाव खहयरा। से तं खहयरा, से तं खहयर तिरिक्खजोणियपुरिसा। से किं तं मणुस्सपुरिसा? मणुस्सपुरिसा तिविधा पण्णता, तंजहा--कम्मभूमगा, अकम्मभूमगा, अंतरदीवगा। से तं मणुस्सपुरिसा। से कि तं देवपुरिसा? देवपुरिसा चउब्धिहा पण्णता, इत्योभेदो भाणियव्यो जाव सध्वटुसिद्धा। Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रतिपत्ति : कालस्थिति] [147 [52] पुरुष क्या हैं-कितने प्रकार के हैं ? पुरुष तीन प्रकार के हैं—यथा तिर्यक्योनिक पुरुष, मनुष्य पुरुष और देव पुरुष / तिर्यकयोनिक पुरुष कितने प्रकार के हैं ? तिर्यक्योनिक पुरुष तीन प्रकार के कहे गये हैं, यथा--जलचर, स्थलचर और खेचर / इस प्रकार जैसे स्त्री अधिकार में भेद कहे गये हैं, वैसे यावत् खेचर पर्यन्त कहना / यह खेचर का और उसके साथ ही खेचर तिर्यक्योनिक पुरुषों का वर्णन हुमा / भगवन् ! मनुष्य पुरुष कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! मनुष्य पुरुष तीन प्रकार के हैं-कर्मभूमिक, अकर्मभूमिक और अन्तर्वीपिक। यह मनुष्यों के भेद हुए। देव पुरुष कितने प्रकार के हैं ? देव पुरुष चार प्रकार के हैं। इस प्रकार पूर्वोक्त स्त्री अधिकार में कहे गये भेद कहते जाने चाहिए यावत् सर्वार्थसिद्ध तक देव भेदों का कथन करना। विवेचन--पुरुष के भेदों में पूर्वोक्त स्त्री अधिकार में कहे गये भेद कहने चाहिए। विशेषता केवल देव पुरुषों में हैं। देव पुरुष चार प्रकार के हैं-भवनपति, वानव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक / भवनपति के असुरकुमार आदि 10 भेद हैं। वानव्यन्तर के पिशाच आदि पाठ भेद हैं, ज्योतिष्क के चन्द्रादि पांच भेद हैं और वैमानिक देव दो प्रकार के हैं--कलोपपन्न और कल्पातीत / सौधर्म आदि बारह देवलोक कल्पोपपन्न हैं और ग्रैवेयक तथा अनुत्तरोषपातिक देव कल्पातीत हैं / अनुत्तरोपपातिक के पांच भेद हैं-विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्ध / अत: 'जाव सम्वट्ठसिद्धा' कहा गया है / कालस्थिति 53. पुरिसस्स णं भंते ! केवइयं कालठिई पण्णता? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं तेत्तोसं सागरोमाई। तिरिक्खजोणियपुरिसाणं मणुस्सपुरिसाणं जाव चेव इत्थीणं ठिई सा चेव भाणियन्वा / देवपुरिसाण वि जाव सम्वट्ठसिद्धाणं ठिई जहा पण्णवणाए (ठिइपए) तहा भाणियव्वा / [53] हे भगवन् ! पुरुष की कितने काल की स्थिति कही गई है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहुर्त और उत्कर्ष से तेतीस सागरोपम / तियंचयोनिक पुरुषों की और मनुष्य पुरुषों को वही स्थिति जाननी चाहिए जो तिर्यंच. योनिक स्त्रियों और मनुष्य स्त्रियों की कही गई है। देवयोनिक पुरुषों की यावत् सर्वार्थसिद्ध विमान के देव पुरुषों की स्थिति वही जाननी चाहिए जो प्रज्ञापना के स्थितिपद में कही गई है। विवेचन–अपने अपने भव को छोड़े बिना पुरुषों की कितने काल तक की स्थिति है, ऐसा प्रश्न किये जाने पर भगवान ने कहा कि जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से तेतीस सागरोपम की स्थिति है। अन्तर्मुहूर्त में मरण हो जाने की अपेक्षा अन्तर्मुहुर्त की जघन्य स्थिति कही है और अनुत्तरोपपातिक देवों की अपेक्षा तेतीस सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति कही गई है। Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 148] [जीवाजीवाभिगमसूत्र प्रोधिक तिर्यंच पुरुषों की, जलचर, स्थलचर, खेचर पुरुषों की स्थिति वही है जो तिर्यचस्त्री की पूर्व में कही गई है। मनुष्य पुरुष की पौधिक तथा कर्मभूमि-अकर्मभूमि-अन्तर्वीपों के मनुष्य पुरुषों को सामान्य और विशेष से वही स्थिति समझ लेनी चाहिये जो अपने-अपने भेद में स्त्रियों की कही गई है / स्पष्टता के लिए उसका उल्लेख निम्न प्रकार हैतियंच पुरुषों की स्थिति औधिक नियंचयोनिक पुरुषों को जघन्य से अन्तर्महर्त और उत्कर्ष से तीन पल्योपम / जलचर पुरुषों की जघन्य से अन्तर्मुहूर्त, उत्कर्ष से पूर्वकोटि / चतुष्पद स्थलचर पुरुषों की जघन्य से अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट तीन पल्योपम, उरपरिसर्प स्थलचर पुरुषों की जघन्य से अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट पूर्वकोटि / भुजपरिसर्प स्थलचर पुरुषों की तथा खेचर पुरुषों की जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से पल्योपम का असंख्येयभाग। मनुष्य पुरुषों की स्थिति औधिक मनुष्य पुरुषों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्योपम की है। धर्माचरण की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि / जघन्य अन्तर्मुहुर्त की स्थिति बाह्यलिंग प्रव्रज्या-प्रतिपत्ति की अपेक्षा से है अन्यथा चरणपरिणाम तो एक सामयिक भी सम्भव है / अथवा देशविरति के बहत भंग होने से जघन्य से अन्तर्महर्त का सम्भव है। आठ वर्ष की वय के बाद चरण-प्रतिपत्ति होने से पूर्वकोटि प्रायु वाले की अपेक्षा से देशोन पूर्वकोटि उत्कर्ष से स्थिति कही है। कर्मभूमिक मनुष्यों की जघन्य स्थिति एक अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की है / चारित्रधर्म की अपेक्षा इनकी स्थिति जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि है। भरत और ऐरवत कर्मभूमिक मनुष्य पुरुषों की जघन्य स्थिति क्षेत्र की अपेक्षा एक अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की है। यह सुषमासुषम काल की अपेक्षा से है / चारित्रधर्म की अपेक्षा जघन्य स्थिति एक अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि है। पूर्वविदेह पश्चिमविदेह पुरुषों की क्षेत्र को अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से देशोन पूर्वकोटि है / चरणधम को लेकर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से देशोन पूर्वकोटि है। अकर्मभूमिक मनुष्य पुरुषों की सामान्यतः जन्म की अपेक्षा जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग से हीन एक पल्योपम को है और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की है। संहरण की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से देशोन पूर्वकोटि / हैमवत और ऐरण्यवत के मनुष्य पुरुषों की स्थिति जन्म की अपेक्षा जघन्य से पल्योपमासंख्येयभाग हीन एक पल्योपम की है। उत्कर्ष से पूर्ण एक पल्योपम की है / संहरण की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि है। हरिवर्ष, रम्यकवर्ष के मनुष्य पुरुषों की स्थिति जन्म की अपेक्षा पल्योपमासंख्येयभाग हीन दो Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वित्तीय प्रतिपत्ति: कालस्थिति] [149 पल्योपम की है और उत्कृष्ट परिपूर्ण दो पल्योपम की है। संहरण की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशीन पूर्वकोटि है। देवकुरु-उत्तरकुरु के मनुष्य पुरुषों की स्थिति जन्म की अपेक्षा जघन्य पल्योपमासंख्येय भाग होन तीन पल्पोपम है और उत्कृष्ट परिपूर्ण तोन पल्योपम है / संहरण को अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि है। अन्तर्वीपों के मनुष्य पुरुषों की स्थिति जन्म की अपेक्षा जघन्य से पल्योपम के देशोन असंख्यातवें भाग रूप है और उत्कृष्ट से देशोन पूर्वकोटि है। संहरण की अपेक्षा जघन्य से एक अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से देशोन पूर्वकोटि है / / देव पुरुषों की स्थिति प्रज्ञापना में देव पुरुषों की स्थिति इस प्रकार कही गई हैदेव पुरुषों को प्रोधिक स्थिति जघन्य से दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम / विशेष विचारणा में असुरकुमार पुरुषों की जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट कुछ अधिक एक सागरोपम / नागकुमार पुरुषों की जघन्य से दस हजार वर्ष, उत्कृष्ट देशोन दो पल्योपम / सुवर्णकुमार आदि शेष स्तनितकुमार पर्यन्त सब भवनपतियों की भी यही स्थिति है। व्यन्तरों की जघन्य दस हजार की, उत्कृष्ट एक पल्योपम; ज्योतिष्क पुरुषों की जघन्य से पल्योपम का आठवां भाग और उत्कृष्ट एक लाख वर्ष अधिक एक परिपूर्ण पल्योपम / ___ सौधर्मकल्प के देव पुरुषों की स्थिति जघन्य से एक पल्योपम और उत्कृष्ट से दो सागरोपम की है। ईशानकल्प के देव पुरुषों की जघन्य से कुछ अधिक एक पल्योपम और उत्कृष्ट कुछ अधिक दो सागरोपम है। सनत्कुमार देव पुरुषों की जघन्य दो सागरोपम और उत्कृष्ट सात सागरोपम है। माहेन्द्रकल्प के देवों की जघन्य से कुछ अधिक दो सागरोपम और उत्कृष्ट से कुछ अधिक सात सागरोपम है। ब्रह्मलोक देवों की जघन्य से सात सागरोपम और उत्कृष्ट से दस सागरोपम है / लान्लक देवों की जघन्य से दस सागरोपम और उत्कृष्ट से चौदह सागरोपम है। महाशुक्रकल्प के देवों की जघन्य चौदह सागरोपम और उत्कृष्ट सत्रह सागरोपम है। सहस्रारकल्प के देवों को जघन्य स्थिति सत्रह सागरोपम है और उत्कृष्ट अठारह सागरोपम है। आनतकल्प के देवों की स्थिति जघन्य अठारह सागरोपम और उत्कृष्ट उन्नीस सागरोपम है। प्राणतकल्प के देवों को जघन्य स्थिति उन्नोस सागरोपम की और उत्कृष्ट बीस सागरोपम को है। Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 150] [जीवाजीवाभिगमसूत्र प्रारणकल्प के देवों की जघन्य स्थिति बीस सागरोपम की और उत्कृष्ट इक्कीस सागरोपम है। अच्युतकल्प के देवों की जधन्य स्थिति इक्कीस सागरोपम है और उत्कृष्ट बावीस सागरोपम है। अधस्तनाधस्तन ग्रे वेयक देवपुरुषों की जघन्य स्थिति बाईस सागरोपम और उत्कृष्ट तेवीस सागरोपम है। अधस्तनमध्यम ग्रैवेयक देवों की जघन्य स्थिति तेवीस सागरोपम और उत्कृष्ट चौवीस सागरोपम है। अधस्तनोपरितन ग्रैवेयक देवों की जघन्य स्थिति चौवीस सागरोपम और उत्कृष्ट पच्चीस सागरोपम है। मध्यमाधस्तन ग्रैवेयक देवों की जघन्य स्थिति पच्चीस सागरोपम है, उत्कृष्ट छव्वीस सागरोपम है। - मध्यममध्यम ग्रेवेयक देवों की जघन्य स्थिति छव्वीस सागरोपम की और उत्कृष्ट सत्तावीस सागरोपम की है। मध्यमोपरितन ग्रैवेयक देवों की जघन्य स्थिति सत्तावीस सागरोपम और उत्कृष्ट अट्ठावीस सागरोपम है। उपरितनाधस्तन अवेयक देवों की जघन्य स्थिति अट्ठावीस सागरोपम और उत्कृष्ट स्थिति उनतीस सागरोपम है। ____ उपरितनमध्यम अवेयक देवों की जघन्य स्थिति उनतीस सागरोपम और उत्कृष्ट तीस सागरोपम है। उपरितनोपरितन ग्रैवेयक देवों की जघन्य स्थिति तीस सागरोपम और उत्कृष्ट इकतीस सागरोपम है। विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित विमान गत देवपुरुषों की जघन्य स्थिति इकतीस सागरोपम की है और उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम है / सर्वार्थसिद्धविमान के देवों की स्थिति तेतीस सागरोपम की है। यहाँ स्थिति में जघन्यउत्कृष्ट का भेद नहीं। पुरुष का पुरुषरूप में निरन्तर रहने का काल 54. पुरिसे णं भंते ! पुरिसेत्ति कालओ केवच्चिरं होई ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं सागरोवमसयपुहत्तं सातिरेगं / तिरिक्खजोणियपुरिसे णं भंते ! कालओ केवच्चिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं तिन्नि पलिनोवमाइं पुवकोडिपुत्तमभहियाई। एवं तं चेव संचिटणा जहा इत्थोणं जाव खहयर तिरिक्खजोणियपुरिसस्स संचिट्ठणा। Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रतिपत्ति: पुरुष का पुरुषरूप में निरन्तर रहने का काल] [151 मणुस्सपुरिसाणं भंते ! कालओ केवच्चिरं होइ? गोयमा ! खेत्तं पडुच्च जहन्नेणं अंतीमुहत्तं, उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाइं पुश्वकोडिपुहुत्तमम्भहियाइं; धम्मचरणं पडुच्च जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं देसूणा पुब्धकोडी। एवं सन्वत्थ जाव पुश्वविदेह-अवरविवह कम्मभूमिग मणुस्सयुरिसाणं। अकम्मभूमग मणुस्सपुरिसाणं जहा अकम्मभूमग मणुस्सित्थीणं जाव अंतरदीवगाणं / देवाणं जच्चेव ठिई सच्चेव संचिटणा जाव सम्वत्थसिद्धगाणं / [54] हे भगवन् ! पुरुष, पुरुषरूप में निरन्तर कितने काल तक रह सकता है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्ट से सागरोपम शतपृथक्त्व (दो सौ से लेकर नौ सौ सागरोपम) से कुछ अधिक काल तक पुरुष पुरुषरूप में निरन्तर रह सकता है। भगवन् ! तिर्यंचयोनि-पुरुष काल से कितने समय तक निरन्तर उसी रूप में रह सकता है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम तक / इस प्रकार से जैसे स्त्रियों की संचिढणा कही, वैसे खेचर तिर्यंचयोनिपुरुष पर्यन्त की संचिट्ठणा है। भगवन् ! मनुष्यपुरुष उसी रूप में काल से कितने समय तक रह सकता है ? गौतम ! क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम तक / धर्माचरण की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि / इसी प्रकार सर्वत्र पूर्व विदेह, पश्चिमविदेह कर्मभूमिक मनुष्य-पुरुषों तक के लिए कहना चाहिए। अकर्मभूमिक मनुष्यपुरुषों के लिए वैसा ही कहना जैसा अकर्मभूमिक मनुष्यस्त्रियों के लिए कहा है / इसी प्रकार अन्तरद्वीपों के प्रकर्मभूमिक मनुष्यपुरुषों तक वक्तव्यता जानना चाहिए / देवपुरुषों की जो स्थिति कही है, वही उसका संचिट्ठणा काल है / ऐसा ही कथन सर्वार्थ सिद्ध के देवपुरुषों तक कहना चाहिए / विवेचन–पुरुष पुरुषपर्याय का त्याग किये बिना कितने काल तक निरन्तर पुरुषरूप में रह सकता है ? इस प्रश्न के उत्तर में भगवान ने कहा कि जघन्य से अन्तर्महुर्त तक और उत्कर्ष से दो सौ सागरोपम से लेकर नौ सौ सागरोपम से कुछ अधिक काल तक पुरुष पुरुष-पर्याय में रह सकता है / जो पुरुष अन्तर्मुहर्त काल जी कर मरने के बाद स्त्री आदि रूप में जन्म लेता है उसकी अपेक्षा से जघन्य अन्तर्मुहूर्त कहा गया है। सामान्य रूप से तिर्यक, नर और देव भवों में इतने काल तक पुरुषरूप में रहने की सम्भावना है। मनुष्य के भवों की अपेक्षा से सातिरेकता (कुछ अधिकता) समझना चाहिए। इससे अधिक काल तक निरन्तर पुरुष नामकर्म का उदय नहीं रह सकता / नियमतः वह स्त्री आदि भाव को प्राप्त करता है। तिर्यक्योनि पुरुषों के विषय में वही वक्तव्यता है, जो तिर्यक्योनि स्त्रियों के विषय में कही गई है / वह इस प्रकार है Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 152 [जीवाजीवाभिगमसूत्र तिर्यक्योनि पुरुष अपने उस पुरुषत्व को त्यागे बिना निरन्तर जघन्य से अन्तर्मुहुर्त रह सकता है / उसके बाद मरकर गत्यन्तर या वेदान्तर को प्राप्त होता है। उत्कर्ष से पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम तक रह सकता है। इसमें सात भव तो पूर्वकोटि आयुष्य के पूर्व विदेह आदि में और आठवां भव देवकुरु-उत्तरकुरु में जहाँ तीन पल्योपम की आयु है / इस तरह पल्योपम और पूर्वकोटिपृथक्त्व (बहत पूर्वकोटियां) काल तक उसी रूप में रह सकता है। जलचरपरुष जघन्य उत्कर्ष से पूर्वकोटिपृथकत्व तक / पूर्वकोटि प्रायु वाले पुरुष के पुनः पुनः वहीं दो तीन चार बार उत्पन्न होने की अपेक्षा से समझना चाहिए। ___चतुष्पदस्थलचर पुरुष जघन्य से अन्तर्मुहूर्त, उत्कर्ष से पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम तक / भावना पूर्वोक्त मौधिक तिर्यक् पुरुष की तरह समझना चाहिए। उरपरिसर्प और भुजपरिसर्प स्थलचर पुरुष जघन्य से अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट से पूर्वकोटिपृथक्त्व तक / भावना पूर्वोक्त जलचर पुरुष की तरह समझना / खेचर पुरुष जघन्य से अन्तर्मुहूर्त, उत्कर्ष से पूर्वको टिपृथक्त्व अधिक पल्योपम का असंख्येय भाग / यह सात बार तो पूर्वकोटि की आयु वाले भवों में और आठवीं बार अन्तर्वीपादि खेचर पुरुषों में (पल्योपमासंख्येय भाग स्थिति वालों में) उत्पन्न होने की अपेक्षा से समझना चाहिए। ___ मनुष्यपुरुषों का निरन्तर तद्रूप में रहने का काल पूर्व में कही गई मनुष्यस्त्रियों की वक्तन्यता के अनुसार है / वह निम्नानुसार है सामान्य से मनुष्य-पुरुष का तद्रूप में निरन्तर रहने का कालमान जघन्य से अन्तर्महूर्त और उत्कर्ष से पूर्वकोटिपथकत्व अधिक तीन पल्योपम / इसमें सात भव तो महाविदेह में पूर्वकोटि प्राय के और आठवां भव देवकुरु आदि में तीन पल्योपम की आयु का जानना चाहिए / धर्माचरण की अपेक्षा जघन्य एक समय और उत्कृष्ट से देशोन पूर्वकोटि / पाठ वर्ष की आयु के बाद चारित्र-प्रतिपत्ति होती है, अतः आठ वर्व कम होने से देशोनता कही है। विशेष विवक्षा में कर्मभूमि का मनुष्य-पुरुष कर्मभूमि क्षेत्र की अपेक्षा से जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम तक निरन्तर तद्रूप में रह सकता है। यह सात वार पूर्वकोटि आयु वालों में उत्पन्न होकर आठवीं बार भरत-ऐरावत में एकान्त सुषमा पारे में तीन पल्योपम की स्थिति सहित उत्पन्न होने वाले की अपेक्षा से है। धर्माचरण की अपेक्षा जघन्य से एक समय (सर्वविरति परिणाम एक समय का भी संभव है) और उत्कर्ष से देशोन पूर्वकोटि तक / समग्र चारित्रकाल भी इतना है / भरत-ऐरावत कर्मभूमिक मनुष्य पुरुष भी भरत-ऐरावत क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से देशोन पूर्वकोटि अधिक तीन पल्योपम तक तद्रूप में निरन्तर रह सकता है / यह पूर्वकोटि आयु वाले किसी विदेहपुरुष को भरतादिक्षेत्र में संहरण कर लाने पर भरतक्षेत्रीय व्यपदेश होने से भवायु के क्षय होने पर एकान्त सुषमाकाल के प्रारंभ में उत्पन्न होने वाले मनुध्यपुरुष की अपेक्षा से समझना चाहिए। धर्माचरण को अपेक्षा जघन्य एक समय और उत्कर्ष से देशोन पूर्वकोटि तक संचिट्ठणा समझनी चाहिए। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रतिपत्ति : अन्तरद्वार] [153 पूर्व विदेह-पश्चिमविदेह कर्मभूमिक मनुष्यपुरुष उसी रूप में निरन्तर क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहुर्त और उत्कर्ष से पूर्वकोटिपृथक्त्व तक रह सकता है। वह बार बार वहीं सात बार उत्पत्ति की अपेक्षा से समझना चाहिए। इसके बाद अवश्य गति और योनि का परिवर्तन होता ही है / धर्माचरण की अपेक्षा जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से देशोन पूर्वकोटि / / अकर्मभूमिक मनुष्य पुरुष तद्भाव को छोड़े बिना निरन्तर जन्म की अपेक्षा से पल्योपमासंख्येयभाग क और उत्कर्ष से तीन पल्योपम तक रह सकता है। संहरण की अपेक्षा जघन्य से अन्तर्मुहूर्त (यह अन्तर्मुहुर्त आयु शेष रहने पर अकर्मभूमि में संहरण की अपेक्षा से है।) है और उत्कर्ष से देशोन पूर्वकोटि अधिक तीन पल्योपम तक / यह देशोन पूर्वकोटि आयु वाले पुरुष का उत्तरकुरु आदि में संहरण हो और वह वहीं मर कर वहीं उत्पन्न हो, इस अपेक्षा से है। देशोनता गर्भकाल की अपेक्षा से है। गर्भस्थित के संहरण का प्रतिषेध है। हैमवत-हैरण्यवत अकर्मभूमिक मनुष्य पुरुष जन्म की अपेक्षा जघन्य से पल्योपमासंख्येयभाग न्यून एक पल्योपम तक और उत्कर्ष से परिपूर्ण पल्योपम तक उसी रूप में रह सकता है / संहरण की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से देशोन पूर्वकोटि अधिक एक पल्योपम रह सकता है / हरिवर्ष-रम्यकवर्ष अकर्मभूमिक मनुष्य-पुरुष जन्म की अपेक्षा जघन्य पल्योपमासंख्येय भाग न्यून दो पल्योपम तक और उत्कर्ष से परिपूर्ण दो पल्योपम तक। जघन्य और उत्कर्ष से वहाँ इतनी ही आयु सम्भव है। संहरण की अपेक्षा जघन्य से अन्तर्मुहर्त (क्योंकि अन्तर्मुहुर्त से कम आयु वाले पुरुष का संहरण नहीं होता) और उत्कर्ष से देशोन पूर्वकोटि अधिक दो पल्योपम तक तद्रूप में रह सकता है। देवकुरु-उत्तरकुरु अकर्मभूमिक मनुष्य-पुरुष क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य से पल्योपमासंख्येय भाग न्यून तीन पल्योपम और उत्कर्ष से परिपूर्ण तीन पल्योपम तक उसी रूप में रह सकता है / संहरण की अपेक्षा जघन्य से अन्तर्महर्त और उत्कर्ष से देशोनपूर्वकोटि अधिक तीन पल्योपम तक उसी रूप में रह सकता है। __ अन्तर्वीपक मनुष्य-पुरुष जन्म की अपेक्षा देशोन पल्योपम का असंख्येय भाग तक और उत्कर्ष से परिपूर्ण पल्योपम का प्रसंख्येय भाग तक रह सकता है। संहरण की अपेक्षाजघन्य से अन्तर्महर्त और उत्कर्ष से पूर्वकोटिअधिक पल्योपमासंख्येय भाग तक उसी पुरुषपर्याय में रह सकता है। देवपुरुषों की जो स्थिति पहले बताई गई है, वही उनकी संचिठ्ठणा (कायस्थिति) भी है। शंका की जा सकती है कि अनेक भव-भावों की अपेक्षा से कायस्थिति होती है वह एक ही भव में कैसे हो सकती है ? यह दोष नहीं है क्योंकि यहाँ केवल उतनी ही विवक्षा है कि देवपुरुष देव पुरुषत्व को छोड़े बिना कितने काल तक रह सकता है। देव मर कर अनन्तर भव में देव नहीं होता अतः यह अतिदेश किया गया है कि जो देवों की भवस्थिति है वही उनकी संचिट्ठणा है। अन्तरद्वार 55. पुरिसस्स णं भंते ! केवइयं कालं अंतरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं एक्कं समयं उक्कोसेण वणस्सइकालो। Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 154] [जीवाजीवाभिगमसूत्र तिरिक्जोणियपुरिसाणं जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो। एवं जाव खहयरतिरिक्खजोणियपुरिसाणं। मणुस्सपुरिसाणं भंते ! केवइयं कालं अंतरं होइ ? गोयमा ! खेत्तं पडुच्च जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेण वणस्सइकालो। चम्मचरणं पडुच्च जहन्लेणं एक्कं समयं उक्कोसेण अणंतकालं अणंताओ उस्सप्पिणी-ओसप्पिणीओ जाव अवट्ट पोग्गलपरियटें देसूर्ण। कम्मभूमगाणं जाय विदेहो जाव धम्मचरणे एक्को समओ सेसं जहित्थीणं जाव अंतरदीवगाणं / देवपुरिसाणं जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो। भवणवासिदेवपुरिसाणं ताव जाव सहस्सारो, जहन्नेणं अंतोमुहूत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो। ____ आणतदेवपुरिसाणं भंते ! केवइयं कालं अंतरं होई ? गोयमा! जहन्नेण वासपुहत्तं उक्कोसेण वणस्सइकालो। एवं जाय गेवेज्जदेवपुरिसस्स वि। अणुत्तरोववाइयदेवपुरिसस्स जहन्नेणं वासपुहुत्तं उक्कोसेणं संखेज्जाइं सागरोवमाई साइरेगाई। [55] भंते ! पुरुष का अन्तर कितना कहा गया है ? (अर्थात् पुरुष, पुरुष-पर्याय छोड़ने के बाद फिर कितने काल पश्चात् पुरुष होता है ?) गौतम ! जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल के बाद पुरुष पुनः पुरुष होता है। भगवन् ! तिर्यक्योनिक पुरुषों का अन्तर कितना कहा गया है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल का अन्तर है। इसी प्रकार खेचर तिर्यक्योनि पर्यन्त के विषय में जानना चाहिए। भगवन् ! मनुष्य पुरुषों का अन्तर कितने काल का है ? गौतम ! क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल का अन्तर है। धर्माचरण की अपेक्षा जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट से अनन्त काल अर्थात् इस अवधि में अनन्त उत्सपिणियां-अवसर्पिणियां बीत जाती हैं यावत् वह देशोन अर्धपुद्गल परावर्तकाल होता है / ___ कर्मभूमि के मनुष्य का यावत् विदेह के मनुष्यों का अन्तर यावत् धर्माचरण की अपेक्षा एक समय इत्यादि जो मनुष्यस्त्रियों के लिए कहा गया है वही यहां कहना चाहिए। अन्तर्वीपों के अन्तर तक उसी प्रकार कहना चाहिए। देवपुरुषों का जघन्य अन्तर अन्तर्महर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है / यही कथन भवनवासी देवपुरुष से लगा कर सहस्रार देवलोक तक के देव पुरुषों के विषय में समझना चाहिए। भगवन् ! आनत देवपुरुषों का अन्तर कितने काल का कहा गया है ? गौतम ! जघन्य से वर्षपृथक्त्व (पाठ वर्ष) और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल का अन्तर होता है। Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रतिपति : अन्तरद्वार] [155 इसी प्रकार ग्रेवेयक देवपुरुषों का भी अन्तर जानना चाहिये / अनुत्तरोपपातिक देवपुरुषों का अन्तर जघन्य से वर्षपृथक्त्व और उत्कृष्ट संख्यात सागरोपम से कुछ अधिक का होता है। विवेचन-पूर्व सूत्र में उसी पर्याय में निरन्तर रहने का कालमान बताया गया था। इस सूत्र में जीव अपनी वर्तमान पर्याय को छोड़ने के बाद पुनः उस पर्याय को जितने समय बाद पुन: प्राप्त करता है, यह कहा है उसको अन्तर कहा जाता है / यहाँ तिर्यंच, मनुष्य और देव पुरुषों के अन्तर की विवक्षा है। सामान्य रूप से पुरुष, पुरुषपर्याय छोड़ने के पश्चात् कितने काल के बाद पुनः पुरुषपर्याय प्राप्त करता है, ऐसा गौतमस्वामी द्वारा प्रश्न किये जाने पर भगवान् कहते हैं कि गौतम ! जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल का अन्तर होता है / इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है जब कोई पुरुष उपशमश्रेणी पर चढ़ कर पुरुषवेद को उपशान्त कर देता है और एक समय के बाद ही मर कर वह देव-पुरुष में ही नियम से उत्पन्न होता है, इस अपेक्षा से एक समय का अन्तर कहा गया है। यहाँ कोई शंका करता है कि स्त्री और नपुंसक भी श्रेणी पर चढ़ते हैं तो उनका अन्तर एक समय का क्यों नहीं कहा ? इसका उत्तर है कि श्रेणी पर आरूढ स्त्री या नपुंसक वेद का उपशमन करने के अनन्तर मर कर तथाविध शुभ अध्यवसाय से मर कर नियम से देव पुरुषों में ही उत्पन्न होते हैं देव स्त्रियों या नपुंसकों में नहीं / अतः उनका अन्तर एक समय नहीं होता। उत्कर्ष से पुरुष का अन्तर वनस्पतिकाल कहा गया है। वनस्पतिकाल को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि 'काल से अनन्त उत्सपिणियां और अनन्त अवसपिणियां उसमें बीत जाती हैं, क्षेत्र से अनन्त लोक के प्रदेशों का अपहार हो जाता है और असंख्येय पुद्गलपरावर्त बीत जाते हैं। वे पुद्गलपरावर्त प्रावलिका के समयों के असंख्यातवें भाग प्रमाण होते हैं।' सामान्य से पुरुष का अन्तर बताने के पश्चात् तिर्यक् पुरुष आदि विशेषणों-भेदों की अपेक्षा अन्तर का कथन किया गया है। तिर्यक्योनि पुरुषों का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है। इस प्रकार जैसा तिर्यंच स्त्रियों का अन्तर बताया गया है, वही अन्तर तिर्यक् पुरुषों का भी समझना चाहिए। जलचर, स्थलचर, खेचर पुरुषों का भी जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर क्रमशः अन्तर्मुहूर्त और वनस्पतिकाल जानना चाहिए। मनुष्य स्त्रियों का जो अन्तर पूर्व में कहा गया है, वही मनुष्य पुरुषों का भी अन्तर समझना चाहिए / बह इस प्रकार है सामान्यतः मनुष्य-पुरुष का क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल का अन्तर है / धर्मचरण की अपेक्षा जघन्य से एक समय (क्योंकि चारित्र स्वीकार करने के पश्चात गिरकर पुनः एक समय में चारित्रपरिणाम हो सकते हैं), उत्कर्ष से देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्त है। 1. 'प्रणताओ उस्सप्पिणीग्रो प्रोसप्पिणीप्रो कालो, खेत्तयो अणंता लोगा, असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा, ते णं पुग्गलपरियट्टा प्रावलियाए असंखेज्जइ भागो।' इति Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 156] [जीवाजीवामिगमसूत्र इसी प्रकार भरत, ऐरवत, पूर्वविदेह, अपरविदेह कर्मभूमि के मनुष्य का जन्म को लेकर, तथा चारित्र को लेकर जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर कहना चाहिए। सामान्य से अकर्मभूमिक मनुष्य पुरुष का जन्म को लेकर अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहुर्त अधिक दस हजार वर्ष है, क्योंकि वह मर कर जघन्य स्थिति के देवों में उत्पन्न होकर वहाँ से च्यव कर कर्मभूमि में स्त्री या पुरुष के रूप में पैदा होकर पुनः अकर्मभूमि मनुष्य के रूप में उत्पन्न हो सकता है / बीच में कर्मभूमि में पैदा होकर मरने का कथन इसलिए किया गया है कि देवभव से ज्यवकर कोई जीव सीधा अकर्मभूमियों में मनुष्य या तिर्यक संज्ञी पंचेन्द्रिय के रूप में उत्पन्न नहीं होता। उत्कर्ष से वनस्पतिकाल का अन्तर है / __ संहरण की अपेक्षा जघन्य से अन्तर्मुहुर्त (अकर्मभूमि से कर्मभूमि में संहृत किये जाने के बाद अन्तमुहूर्त में तथाविध बुद्धिपरिवर्तन होने से पुनः वहीं लाकर रख देने की अपेक्षा से) उत्कर्ष से वनस्पतिकाल / इतने काल के बीतने पर अकर्मभूमियों में उत्पत्ति की तरह संहरण भी नियम से होता है। इसी तरह हैमवत हैरण्यवतादि अकर्मभूमियों में जन्म से और संहरण से जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर कहना चाहिए / इसी तरह अन्तर्वीपक प्रकर्मभूमिक मनुष्य पुरुष की वक्तव्यता तक पूर्ववत् अन्तर कहना चाहिए। मनुष्य-पुरुष का अन्तर बताने के पश्चात् देवपुरुष का अन्तर बताते हुए सूत्रकार कहते हैं कि सामान्य से देवपुरुष का अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है / देवभव से च्यवकर गर्भज मनुष्य में उत्पन्न होकर पर्याप्ति पूरी करने के बाद तथाविध अध्यवसाय से मरकर पुनः वह जीव देवरूप में उत्पन्न हो सकता है, इस अपेक्षा से जघन्य अन्तर्मुहुर्त काल का अन्तर बताया है, उत्कर्ष से वनस्पतिकाल का अन्तर है। इस प्रकार असुरकुमार से लगाकर सहस्रार (पाठवें) देवलोक तक के देवों का अन्तर कहना चाहिए। प्रानतकल्प (नौवें देवलोक) के देव का अन्तर जघन्य से वर्षपृथक्त्व है। क्योंकि आनत आदि कल्प से च्यवित होकर पुनः प्रानत आदि कल्प में उत्पन्न होने वाला जीव नियम से (मनुष्यभव में) चारित्र लेकर ही वहाँ उत्पन्न हो सकता है। चारित्र लिए बिना कोई जीव आनत प्रादि कल्पों में जन्म नहीं ले सकता / चारित्र आठ वर्ष की अवस्था से पूर्व नहीं होता अतः आठ वर्ष तक की अवधि का अन्तर बताने के लिए वर्षपृथक्त्व कहा है। उत्कर्ष से वनस्पतिकाल का अन्तर है। अनुत्तरोपपातिक कल्पातीत देवपुरुष का अन्तर जन्घय से वर्षपथक्त्व और उत्कर्ष से कुछ अधिक संख्येय सागरोपम है / अन्य वैमानिक देवों में उत्पत्ति के कारण संख्येय सागर और मनुष्यभवों में उत्पत्ति को लेकर कुछ अधिकता समझनी चाहिए। यद्यपि यह कथन सामान्य रूप से सब अनुत्तरोपपातिक देवों के लिए है तथापि यह विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित विमानों की अपेक्षा से समझना चाहिए, क्योंकि सर्वार्थसिद्ध विमान में एक बार ही उत्पत्ति होती है, अतः अन्तर की संभावना ही नहीं है / वृत्तिकार ने अन्तर के विषय में मतान्तर का उल्लेख करते हुए कहा है कि भवनवासी से लेकर ईशान देवलोक तक के देव का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त है, सनत्कुमार से लगाकर सहस्रार तक Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [155 द्वितीय प्रतिपत्ति : अल्पबहुत्व] जधन्य अन्तर नौ दिन, पानतकल्प से लगाकर अच्युतकल्प तक नौ मास, नव वेयकों में और सर्वार्थसिद्ध को छोड़कर शेष अनुत्तरोपपातिक देवों का अन्तर नौ वर्ष का है। वेयक तक सर्वत्र उत्कृष्ट अन्तर वनस्पतिकाल है। विजयादि चार महाविमानों में दो सागरोपम का उत्कृष्ट अन्तर है।' अल्पबहुत्व 56. अप्पाबहुयाणि जहेविस्थीणं जाव एतेसिणं भंते ! देवपुरिसाणं भवणवासीणं बाणमंतराणं जोतिसियाणं वेमाणियाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला बा विसेसाहिया वा? गोयमा! सम्वत्योवा वेमाणियदेवपुरिसा, भवणवइदेवपुरिसा असंखेज्जगुणा, वाणमंतरदेवपुरिसा असंखेज्जगुणा, जोइसियादेवपुरिसा संखेज्जगुणा।। एतेसि णं भंते ! तिरिक्खजोणिय-पुरिसाणं जलयराणं थलयराणं खहयराणं, मणुस्सयुरिसाणं कम्मभूमगाणं अकम्मभूमगाणं अंतरदोवगाणं, देवपुरिसाणं भवणवासोणं वाणमंतराणं जोइसियाणं वेमाणियाणं सोहम्माणं जाव सव्वट्ठसिद्धगाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुआ वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा ! सम्वत्थोवा अंतरदीवगमणुस्सपुरिसा, देवकुरुत्तरकुरुकम्ममूमग मणुस्सपुरिसा दो वि संखेज्जगुणा हरिवास रम्मगवास अकम्ममूमग मणुस्सपुरिसा दो वि संखेज्जगुणा, हेमवत हेरण्यवतवास अकम्मभूमग भणुस्सपुरिसा दोषि संखेज्जगुणा; भरहेरवतवास कम्ममूमग मणस्सपुरिसा दोवि संखेज्जगुणा, पुश्वविदेह अवरविदेह कम्मभूमग मणुस्सपुरिसा दोवि संखेज्जगुणा, अणुत्तरोववाइय देवपुरिसा असंखेज्जगुणा, उवरिमगेविज्ज देवपुरिसा संखेज्जगुणा, मज्झिमगेविज्ज देवपुरिसा संखेज्जगुणा, हेट्ठिमगेविज्ज देवपुरिसा संखेज्जगुणा, अच्चयकप्पे देवपुरिसा संखेज्जगुणा, जाव आणतकप्पे देवपुरिसा संखेज्जगुणा, सहस्सारे कप्पे देवपुरिसा असंखेज्जगुणा, महासुक्के कप्पे देवपुरिसा असंखेज्जगुणा, जाव माहिदे कप्पे देवपुरिसा असंखेज्जगुणा, 1. प्राईसाणादमरस्स अंतरं हीणयं मुहत्तंतो। मासहसारे अच्चुयणुत्तर दिणमासवास न // 1 // थावरकालुक्कोसो सव्वट्ठ बीयपो न उववाप्रो / दो प्रयरा विजयादिसु....... -मलयगिरिवृत्ति Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 158] [जीवाजीवाभिगमसूत्र सणकुमारकप्पे देवपुरिसा असंखेज्जगुणा, ईसाणकप्पे देवपुरिसा असंखेज्जगुणा, सोहम्मे कप्पे देवपुरिसा संखेज्जगुणा, भवणवासिदेवपुरिसा असंखेज्जगुणा, खहयर तिरिक्खजोणिय पुरिसा असंखेज्जगुणा, थलयर तिरिक्खजोणिय पुरिसा संखेज्जगुणा, जलयर तिरिक्खजोणिय पुरिसा असंखेज्जगुणा, वाणमंतर देवपुरिसा संखेज्जगुणा, जोति सियंदेवपुरिसा संखेज्जगुणा / [56] स्त्रियों का जैसा अल्पबहुत्व कहा यावत् हे भगवन् ! देव पुरुषों-भवनपति, वानव्यंतर, ज्योतिष्क और वैमानिकों में कौन किससे अल्प, अधिक, तुल्य या विशेषाधिक है ? गौतम ! सबसे थोड़े वैमानिक देवपुरुष, उनसे भवनपति देवपुरुष असंख्येयगुण, उनसे वानव्यन्तर देवपुरुष असंख्येय गुण, उनसे ज्योतिष्क देवपुरुष संख्येयगुणा हैं। हे भगवन् ! इन तिर्यंचयोनिक पुरुषों-जलचर, स्थलचर और खेचर; मनुष्य पुरुषोंकर्मभूमिक, अकर्मभूमिक, अन्तर्वीपकों में; देवपुरुषों-भवनवासी, वानव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों-सौधर्म देवलोक यावत् सर्वार्थ सिद्ध देवपुरुषों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े अन्तीपों के मनुष्यपुरुष, उनसे देवकुरु उत्तरकुरु अकर्मभूमिक मनुष्यपुरुष दोनों संख्यातगुण, उनसे हरिवास रम्यकवास अकर्मभूमिक मनुष्यपुरुष दोनों संख्यातगुण, उनसे हेमवत हैरण्यवत अकर्मभूमिक मनुष्यपुरुष दोनों संख्यातगुण, उनसे भरत ऐरक्तवास कर्मभूमि के मनुष्यपुरुष दोनों संख्यातगुण, उनसे पूर्वविदेह अपरविदेह कर्मभूमि मनुष्यपुरुष दोनों संख्यातगुण, उनसे अनुत्तरोपपातिक देवपुरुष असंख्यातगुण, उनसे उपरिम ग्रेवेयक देव पुरुष संख्यातगुण, उनसे मध्यम अवेयक देवपुरुष संख्यातगुण, उनसे अधस्तन ग्रेवेयक देवपुरुष संख्यातगुण, उनसे अच्युतकल्प के देवपुरुष संख्यातगुण, उनसे यावत् प्रानतकल्प के देवपुरुष संख्यातगुण, उनसे सहस्रारकल्प के देवपुरुष असंख्यातगुण, उनसे महाशुक्रकल्प के देवपुरुष असंख्यातगुण, उनसे यावत् महेन्द्रकल्प के देवपुरुष असंख्यातगुण, उनसे सनत्कुमारकल्प के देवपुरुष असंख्यातगुण, उनसे ईशानकल्प के देवपुरुष असंख्यातगुण, उनसे सौधर्मकल्प के देवपुरुष संख्यातगुण, उनसे भवनवासी देवपुरुष असंख्यातगुण, उनसे खेचर तिर्यंचयोनिक पुरुष असंख्यातगुण, उनसे स्थलचर तिर्यंचयोनिक पुरुष संखेय गुण, उनसे जलचर तिर्यंचयोनिक पुरुष असंखेयगुण, उनसे वाणव्यन्तर देवपुरुष संखेयगुण, उनसे ज्योतिषी देवपुरुष संखेयगुण हैं / विवेचन सामान्य स्त्री-प्रकरण में स्त्रियों के अल्पबहुत्व का कथन जिस प्रकार किया गया है, उसी प्रकार से सामान्य पुरुषों का अल्पबहुत्व कहना चाहिए। यहाँ पर अल्पबहुत्व का प्रकरण यावत् देवपुरुषों के अल्पबहुत्व प्रकरण से पहले पहले का गृहीत हुआ है। यहाँ पांच प्रकार से अल्प Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रतिपति : अल्पबहुत्व [159 बहुत्व बताया है / जिसमें पहला सामान्य से तिर्यंच, मनुष्य और देव पुरुषों को लेकर, दूसरा तियंचयोनिक जलचर, स्थलचर, खेचर पुरुषों को लेकर, तीसरा कर्मभूमिक आदि तीन प्रकार के मनुष्यों को लेकर, चौथा चार प्रकार के देवों को लेकर और पांचवां सबको मिश्रित करके अल्पबहुत्व बताया है। आदि के तीन अल्पबहुत्व तो जैसे इनकी स्त्रियों को लेकर कहे हैं वैसे ही यहां पुरुषों को लेकर कहना चाहिए। इन तीन अल्पबहुत्वों का यहाँ ‘यावत्' पद से ग्रहण किया है। वह स्त्रीप्रकरण के अल्पबहुत्व में देख लेना चाहिए / अन्तर केवल यह है कि 'स्त्री' की जगह 'पुरुष' पद का प्रयोग करना चाहिए। चौथा देवपुरुष सम्बन्धी अल्पबहुत्व सूत्रकार ने प्रस्तुत सूत्र में साक्षात् कहा है / वह इस प्रकार है-सबसे थोड़े अनुत्तरोपपातिक देवपुरुष हैं, क्योंकि उनका प्रमाण क्षेत्रपल्योपम के असंख्येय भागवर्ती अाकाशप्रदेशों की राशि तुल्य है / उनसे उपरितन अवेयक देवपुरुष संख्येयगुण हैं / क्योंकि वे बृहत्तर क्षेत्रपल्योपम के असंख्येयभागवती आकाश प्रदेशों की राशि प्रमाण हैं। विमानों की बह संख्येयगुणता है। अनुत्तर देवों के पांच विमान हैं और उपरितन ग्रैवेयक देवों के सौ विमान हैं। प्रत्येक विमान में असंख्येय देव हैं। जैसे-जैसे विमान नीचे हैं उनमें देवों की संख्या प्रचुरता से है। इससे जाना जाता है कि अनुत्तरविमान देवपुरुषों से उपरितन ग्रैवेयक देवपुरुष संख्येयगुण हैं। उपरितन अवेयक देवपूरुषों की अपेक्षा मध्यम ग्रेवेयक देवपुरुष संख्येयगुण हैं / उनसे अधस्तन अवेयक देवपुरुष संख्येयगुण हैं, उनसे अच्युतकल्प के देव पुरुष संख्येयगुण हैं। उनसे आरणकल्प के देव पुरुष संख्येयगुण हैं। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि यद्यपि प्रारण और अच्युत कल्प दोनों समश्रेणी और समान विमानसंख्या वाले हैं तो भी कृष्णपाक्षिक जीव तथास्वभाव से दक्षिण दिशा में अधिक रूप में उत्पन्न होते हैं। जीव दो प्रकार के हैं-कृष्णपाक्षिक और शुक्लपाक्षिक / जिन जीवों का कुछ कम अर्घपुद्गलपरावर्त संसार शेष रहा है वे शुक्लपाक्षिक हैं। इससे अधिक दीर्घ संसार वाले कृष्णपाक्षिक हैं।' कृष्णपाक्षिकों की अपेक्षा शुक्लपाक्षिक थोड़े हैं। अल्पसंसारी जीव थोड़े ही हैं / कृष्णपाक्षिक बहुत हैं, क्योंकि दीर्घसंसारी जीव अनन्तानन्त हैं / ___ शंका हो सकती है कि यह कैसे माना जाय कि कृष्णपाक्षिक प्रचुरता से दक्षिण दिशा में पैदा होते हैं ? आचार्यों ने कहा है कि ऐसा स्वाभाविक रूप से ही होता है। कृष्णपाक्षिक प्रायः दीर्घसंसारी होते हैं और दीर्घसंसारी प्रायः बहुत पापकर्म के उदय से होते हैं। बहुत पाप का उदय वाले जीव प्रायः क्रूरकर्मा होते हैं और क्रूरकर्मा जीव प्राय: तथास्वभाव से भवसिद्धिक होते हुए भी दक्षिण दिशा में उत्पन्न होते हैं / अतः दक्षिण दिशा में कृष्णपाक्षिकों की प्रचुरता होने से अच्युतकल्प देवपुरुषों की अपेक्षा प्रारणकल्प के देवपुरुष संख्येय गुण हैं / 1. जेसिमवड्ढो पुम्गलपरियट्टो सेसो य संसारो। ते सुक्कपक्खिया खलु अहिए पुण कण्हपक्खीपा // 2. पायमिह करकम्मा भवसिद्धिया वि दाहिणिल्लेसु / नेरइय-तिरिय-मणुया, सुराइठाणेसु गच्छन्ति / Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 160] [जीवाजीवाभिगमसूत्र आरणकल्प के देवपुरुषों की अपेक्षा प्राणतकल्प के देवपुरुष संख्येयगुण हैं। उनसे आनतकल्प के देवपुरुष संख्येयगुण हैं। यहाँ भी प्राणतकल्प की अपेक्षा प्रानतकल्प में कृष्णपाक्षिक दक्षिणदिशा में ज्यादा होने से संख्येयगुण हैं। सब अनुत्तरवासी देव और पानतकल्प वासी पर्यन्त देवपुरुष प्रत्येक क्षेत्रपल्योपम के असंख्येय भागवर्ती आकाश प्रदेशों को राशि प्रमाण हैं / केवल असंख्येय भाग असंख्येय प्रकार का है इसलिए पूर्वोक्त संख्येयगुणत्व में कोई विरोध नहीं है। आनतकल्प देवपुरुषों से सहस्रारकाल वासी देवपुरुष असंख्येयगुण हैं क्योंकि वे घनीकृत लोक की एक प्रादेशिक श्रेणी के असंख्यातवें भाग में जितने आकाशप्रदेश हैं, उनके तुल्य हैं। उनसे महाशुक्रकल्पवासी देवपुरुष असंख्येयगुण हैं। क्योंकि वे वृहत्तर श्रेणी के असंख्येर प्रदेश राशि तुल्य हैं। विमानों की बहलता से यह असंख्येय गणता जाननी चाहिए। सहस्रारकल्प में विमानों की संख्या छह हजार है जबकि महाशुक्र विमान में चालीस हजार विमान हैं। नीचेनीचे के विमानों में ऊपर के विमानों की अपेक्षा अधिक देवपुरुष होते हैं। महाशुक्रकल्प के देवपुरुषों की अपेक्षा लान्तक देवपुरुष असंख्येयगुण हैं। क्योंकि वे वहत्तम श्रेणी के असंख्येय भागवर्ती आकाश प्रदेश राशि प्रमाण हैं। उनसे ब्रह्मलोकवासी देवपुरुष असंख्येयगुण हैं / क्योंकि वे अधिक वृहत्तम श्रेणी के असंख्येयभागगत आकाशप्रदेशराशि प्रमाण हैं। उनसे माहेन्द्रकल्पवासी देवपुरुष असंख्येयगुण हैं क्योंकि वे और अधिक वृहत्तम श्रेणी के असंख्येय भागगत आकाश प्रदेश राशि तुल्य हैं। उनसे सनत्कुमारकल्प के देव असंख्येयगुण हैं / क्योंकि विमानों की बहुलता है / सनत्कुमारकल्प में बारह लाख विमान हैं और माहेन्द्रकल्प में आठ लाख विमान हैं। दूसरी बात यह है कि सनत्कुमारकल्प दक्षिणदिशा में है और माहेन्द्रकल्प उत्तर दिशा में है। दक्षिणदिशा में बहुत से कृष्णपाक्षिक उत्पन्न होते हैं / इसलिए माहेन्द्रकाल से सनत्कुमारकल्प में देवपुरुष असंख्येयगुण हैं / सहस्रारकल्प से लगाकर सनत्कुमारकल्प के देव सभी अपने-अपने स्थान में घनीकृत लोक की एक श्रेणी के असंख्येयभाग में रहे हुए आकाशप्रदेशों की राशि प्रमाण हैं परन्तु श्रेणी का असंख्येय भाग असंख्येय तरह का होने से असंख्यातगुण कहने में कोई विरोध नहीं आता। ___ सनत्कुमारकल्प के देवपुरुषों से ईशानकल्प के देवपुरुष असंख्येयगुण हैं क्योंकि वे अंगुलमात्र क्षेत्र की प्रदेशराशि के द्वितीय वर्गमूल को तृतीय वर्गमूल से गुणित करने पर जितनी प्रदेशराशि होती है उतनी घनीकृत लोक की एक प्रादेशिक श्रेणियों में जितने आकाश प्रदेश होते हैं, उसका जो बत्तीसवां भाग है, उतने प्रमाण वाले हैं। ईशानकल्प के देवपुरुषों से सौधर्मकल्पवासी देवपुरुष संख्येयगुण हैं। यह विमानों की बहुलता के कारण जानना चाहिए। ईशानकल्प में अट्ठावीस लाख विमान हैं और सौधर्मकल्प में बत्तीस लाख विमान हैं। दूसरी बात यह है कि सौधर्मकाल दक्षिणदिशा में है और ईशानकल्प उत्तरदिशा में है / दक्षिण दिशा में तथास्वभाव से कृष्णपाक्षिक अधिक उत्पन्न होते हैं अत: ईशानदेवलोक के देवों से सौधर्मदेवलोक के देव संख्यातगुण होते हैं। ___ यहां एक शंका होती है कि सनत्कुमार और माहेन्द्रकल्प में भी उक्त युक्ति कही है। फिर वहां तो माहेन्द्र की अपेक्षा सनत्कुमार में देवों की संख्या असंख्यातगुण कही है और यहाँ सौधर्म में Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रतिपत्ति : अल्पबहुत्व] [161 ईशान में संख्यातगुण ही प्रमाण बताया है, ऐसा क्यों ? इसका उत्तर यही है कि तथास्वभाव से ही ऐसा है / प्रज्ञापना आदि में सर्वत्र ऐसा ही कहा गया है। सौधर्म देवों से भवनवासी देव असंख्येयगुण हैं। क्योंकि वे अंगुलमात्र क्षेत्र की प्रदेश राशि के प्रथम वर्गमूल में द्वितीय वर्गमूल का गुणा करने से जितनी प्रदेश राशि होती है, उतनी घनीकृत लोक की एक प्रादेशिकी श्रेणियों में जितने आकाशप्रदेश हैं, उनके बत्तीसवें भाग प्रमाण हैं / उनसे व्यन्तर देव असंख्येयगुण हैं क्योंकि वे एक प्रतर के संख्येय कोडाकोडी योजन प्रमाण एक प्रादेशिकी श्रेणी प्रमाण जितने खण्ड होते हैं, उनका बत्तीसवें भाग प्रमाण हैं। उनसे ज्योतिष्क देव संख्येयगुण हैं। क्योंकि दो सौ छप्पन अंगुल प्रमाण एक प्रादेशिकी श्रेणी जितने एक प्रतर में जितने खण्ड होते हैं, उनके बत्तीसवें भाग प्रमाण हैं। अब पांचवा अल्पबहुत्व कहते हैं सबसे थोड़े अन्तर्वीपिक मनुष्य हैं, क्योंकि क्षेत्र थोड़ा है, उनसे देवकुरु-उत्तरकुरु के मनुष्यपुरुष संख्येयगुण हैं, क्योंकि क्षेत्र बहुत है / स्वस्थान में दोनों परस्पर तुल्य हैं क्षेत्र समान होने से। उनसे हरिवर्ष रम्यकवर्ष के मनुष्यपुरुष संख्येयगुण हैं, क्योंकि क्षेत्र प्रतिबहुल होने से / स्वस्थान में परस्पर तुल्य हैं क्योंकि क्षेत्र समान हैं। ____उनसे हैमवत हैरण्यवत के मनुष्यपुरुष संख्येयगुण हैं क्योंकि क्षेत्र की अल्पता होने पर भी स्थिति को अल्पता के कारण उनकी प्रचुरता है / स्वस्थान में परस्पर तुल्य हैं / उनसे भरत ऐरवत कर्मभूमि के मनुष्यपुरुष संख्येयगुण हैं, क्योंकि अजित प्रभु के काल में उत्कृष्ट पद में स्वभावतः ही मनुष्यपुरुषों की अति प्रचुरता होती है / स्वस्थान में दोनों परस्पर तुल्य हैं, क्योंकि क्षेत्र की तुल्यता है। __उनसे पूर्वविदेह पश्चिमविदेह के मनुष्य पुरुष संख्येय गुण हैं। क्योंकि क्षेत्र की बहुलता होने से अजितस्वामी के काल की तरह स्वभाव से ही मनुष्यपुरुषों की प्रचुरता होती है / स्वस्थान में परस्पर दोनों तुल्य हैं। उनसे अनुत्तरोपपातिक देव असंख्येयगुण हैं, क्योंकि वे क्षेत्रपल्योपम के असंख्येय भागवर्ती आकाश प्रदेशराशि प्रमाण हैं। __उनसे उपरितन अवेयक देवपुरुष, मध्यम अवेयक देवपुरुष, अधस्तन ग्रेवेयक देवपुरुष, अच्युतकल्प देवपुरुष, पारणकल्प देवपुरुष, प्राणतकल्प देवपुरुष, अानतकल्प देवपुरुष यथोत्तर (क्रमशः) संख्येयगुण हैं। उनसे सहस्रारकल्प देवपुरुष, लान्तककल्प देवपुरुष, ब्रह्मलोककल्प देवपुरुष, माहेन्द्रकल्प देवपुरुष, सनत्कुमारकल्प देवपुरुष, ईशानकल्प देवपुरुष यथोत्तर (क्रमश:) असंख्येयगुण हैं / उनसे सौधर्मकल्प के देवपुरुष संख्येयगुण हैं। सौधर्मकल्प देवपुरुषों से भवनवासी देवपुरुष असंख्येय गुण हैं। उनसे खेचर तिर्यंचयोनिक पुरुष असंख्येयगुण हैं। क्योंकि वे प्रतर के असंख्येय भागवर्ती असंख्यातश्रेणिगत आकाश प्रदेशराशि प्रमाण हैं। Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 162] [जीवाजीवाभिगमसूत्र उनसे स्थलचर संख्येय गुण, उनसे जलचर संख्येय गुण, उनसे वानव्यन्तर देव संख्येय गुण हैं। क्योंकि वानव्यन्तर देव एक प्रतर में संख्येय योजन कोटि प्रमाण एक प्रादेशिक श्रेणी के बराबर जितने खण्ड होते हैं, उनके बत्तीसवें भाग प्रमाण हैं / उनसे ज्योतिष्क देव संख्यात गुण हैं / युक्ति पहले कही जा चुकी है। पुरुषवेद की स्थिति 57. पुरिसवेवस्स णं भंते / केवइयं कालं बंधट्टिई पण्णता ? गोयमा ! जहन्नेणं अट्ठसंवच्छराणि उनकोसेणं दस सागरोवमकोडाकोडोओ। दसवाससयाई अबाधा, अबाहूणिया कम्मठिई कम्मणिसेओ। पुरिसवेदे णं भंते ! किंपगारे पण्णते? गोयमा ! वणववग्गिजालसमाणे पण्णत्ते / से तं पुरिसा। [57] हे भगवन् ! पुरुषवेद की कितने काल की बंधस्थिति है ? गौतम ! जघन्य आठ वर्ष और उत्कृष्ट दस कोडाकोडी सागरोपम की बंधस्थिति है। एक हजार वर्ष का अबाधाकाल है / अबाधाकाल से रहित स्थिति कर्मनिषेक है (उदययोग्य है)। भगवन् ! पुरुषवेद किस प्रकार का कहा गया है ? गौतम ! वन को अग्निज्वाला के समान है / यह पुरुष का अधिकार पूरा हुमा / विवेचन--पुरुषवेद की जघन्य स्थिति पाठ वर्ष की है क्योंकि इससे कम स्थिति के पुरुषवेद के बंध के योग्य अध्यवसाय ही नहीं होते। उत्कर्ष से उसकी स्थिति दस कोडाकोडी सागरोपम की है। स्थिति दो प्रकार की कही गई है-(१) कर्मरूप से रहने वाली और (2) अनुभव में आने वाली। यह जो स्थिति कही गई है वह कर्म-प्रवस्थान रूप है। अनुभवयोग्य जो स्थिति होती है वह अबाधाकाल से रहित होती है। अबाधाकाल पूरा हए बिना कोई भी कर्म अपना फल नहीं दे सकता / अबाधाकाल का प्रमाण यह बताया है कि जिस कर्म की उत्कृष्ट स्थिति जितने कोडाकोडी सागरोपम की होती है उसकी अबाधा उतने ही सौ वर्ष की होती है। पुरुषवेद की उत्कृष्ट स्थिति दस कोडाकोडी सागरोपम की है, अत: उसकी अबाधा दस सौ (एक हजार) वर्ष होती है। अबाधाकाल से रहित स्थिति हो अनुभवयोग्य होती है-यही कर्मनिषेक है अर्थात् कर्मदलिकों की उदयावलिका में आने की रचनाविशेष है। पुरुषवेद को दावाग्नि-ज्वाला समान कहा है अर्थात् वह प्रारम्भ में तीव्र कामाग्नि वाला होता है और शीघ्र शान्त भी हो जाता है। नपुंसक निरूपरण 58. से कि तं णपुंसका? णपुसका तिविहा पण्णता, तंजहा-नेरहय नपुसका, तिरिक्खजोणिय-नपुसका, मणुस्सजोणिय-णपुंसका। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रतिपत्ति : नपुंसक निरूपण] [163 से कि तं नेरइयनपुंसका? नेरइयनपुसका सत्तविहा पण्णत्ता, तंजहारयणप्पभापुढधिनेरइयनपुंसका, सक्करपमापुढविनेरइयनपुंसका, जाव अहेसत्तमपुढविनेरइयनपुसका। से तं नेरइयनपुंसका। से कि तं तिरिक्खजोणियनपुंसका? तिरिक्खजोणियनपुसका पंचविहा पण्णत्ताएगिदियतिरिक्खजोणियनपुंसका, बेइंदियतिरिक्खजोणियनपुंसका, तेइंदियतिरिक्खजोणियनपुसका, चरिदियतिरिक्खजोणियनपुंसका, पंचिदियतिरिक्खजोणियनपुसका। से कि तं एगिन्दियतिरिक्खजोणियनपुंसका? एगिदियतिरिक्खजोणियनपुसका पंचविहा पण्णता, तंजहापुढविकाइयएगिदियतिरिक्खजोणियनसका जाव वणस्सइकाइयतिरिक्खजोणियनपुसका। से तं एगिदियतिरिक्खजोणियनपुंसका। से कि तं बेइंदियतिरिक्खजोणियनपुंसका? बेइंदियतिरिक्खजोणियनपुंसका अणेगविहा पण्णत्ता। से तं बेइंदियतिरिक्खजोणियनसका। एवं तेइंदिया वि, चरिंदिया वि / से कि तं पंचिदियतिरिक्खजोणियनपुंसका ? पंचिदियतिरिक्खजोणियनपुंसका ति विहा पण्णता, तंजहा-- जलयरा, थलयरा, खहयरा। से कि तं जलयरा? सो चेव पुव्युत्तभेदो आसालियवज्जिओ भाणियव्यो। से तं पंचिदियतिरिक्खजोणियनपुंसका। से कि तं मणुस्सनपुंसका? मणुस्सनपुंसका तिविहा पण्णत्ता, तंजहाकम्मभूमगा, अफम्मभूमगा, अंतरदीवगा भेदो जाव भाणियब्यो। Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 164] [जीवाजीवाभिगमसूत्र [59] भंते ! नपुंसक क्या हैं कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! नपुंसक तीन प्रकार के हैं, यथा-१ नैरयिक नपुंसक, 2 तिर्यक्योनिक नपुंसक और 3 मनुष्ययोनिक नपुंसक। नरयिक नपुंसक कितने प्रकार के हैं ? नैरयिक नपुंसक सात प्रकार के हैं, यथा-रत्नप्रभापृथ्वी नरयिक नपुंसक, शर्कराप्रभापृथ्वी नैरयिक यावत् अधःसप्तमपृथ्वी नैरयिक नपुंसक। तिर्यंचयोनिक नपुंसक कितने प्रकार के हैं ? तिर्यंचयोनिक नपुंसक पांच प्रकार के हैं, यथा-एकेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक नपुंसक, द्वीन्द्रिय, तिर्यंचयोनिक नपुंसक, श्रीन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुंसक, चतुरिन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुंसक और पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक नपुंसक / एकेन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुंसक कितने प्रकार के हैं ? एकेन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुंसक पांच प्रकार के हैं, यथा पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुंसक यावत् वनस्पतिकायिक तिर्यक्योनिक नपुंसक। यह एकेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक नपुंसक का अधिकार हुआ। भंते ! द्वीन्द्रिय तिर्यकयोनिक नपुंसक कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! अनेक प्रकार के हैं। यह द्वीन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुंसक का अधिकार हुमा / इसी प्रकार त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय का कथन करना / पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुसक कितने प्रकार के हैं ? वे तीन प्रकार के हैं-जलचर, स्थलचर और खेचर / जलचर कितने प्रकार के हैं ? वही पूर्वोक्त भेद प्रासालिक को छोड़कर कहने चाहिए। ये पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुसक का अधिकार हुआ। भंते ! मनुष्य नपुंसक कितने प्रकार के हैं ? वे तीन प्रकार के हैं, यथा--कर्मभूमिक, अकर्मभूमिक और अन्तरर्दीपिक पूर्वोक्त भेद कहने चाहिए / विवेचन--पुरुष सम्बन्धी वर्णन पूरा करने के पश्चात् शेष रहे नपुसक के सम्बन्ध में यहाँ भेद-प्रभेद सहित निरूपण किया गया है। नपुंसक के तीन भेद गति की अपेक्षा हैं-नारकनपुसक, नियंञ्चनपुसक और मनुष्यनपुसक / देव नपुंसक नहीं होते / नारक नपुंसकों के नारकपृथ्वियों की अपेक्षा से सात भेद बताये हैं.-१. रत्नप्रभापृथ्वीनारक नपुंसक, 2. शर्कराप्रभापृथ्वीनारक नपुसक, 3. बालुकाप्रभापृथ्वीनारक नपुंसक, 4. पंकप्रभापृथ्वीनारक नपुसक, 5. धूमप्रभापृथ्वीनारक नपुंसक, 6. तमःप्रभापृथ्वीनारक नपुसक और 7. अधःसप्तमपृथ्वीनारक नपुसक / तिर्यक्योनिक नपुंसक के जाति की अपेक्षा से पांच भेद बताये हैं-एकेन्द्रियजाति नपुसक, द्वीन्द्रियजाति नपुसक, त्रीन्द्रियजाति नपुसक, चतुरिन्द्रियजाति नपुंसक और पंचेन्द्रियजाति नपुसक / Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रतिपत्ति : नपुसक की स्थिति] [165 एकेन्द्रियजाति नपुसकों के पांच भेद हैं-पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय नपुंसक / द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय नपुंसकों के भेद अनेक प्रकार के हैं। प्रथम प्रतिपत्ति में इनके जो भेद-प्रभेद बताये हैं, वे सब यहाँ कहने चाहिए। पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनि नपुसक के तीन भेद-जलचर नपुसक, स्थलचर नपुसक और खेचर नपसक हैं। इनके अवान्तर भेद-प्रभेद प्रथम प्रतिपत्ति के अनुसार कहने चाहिए। केवल में प्रासालिका का अधिकार नहीं कहना चाहिए। क्योंकि प्रासालिका चक्रवर्ती के स्कन्धावार आदि में कभी कभी उत्पन्न होते हैं और अन्तर्मुहूर्त मात्र आयु वाले होते हैं अत: उनकी यहाँ विवशा नहीं है। मनुष्य नपुसक तीन प्रकार के हैं - कर्मभूमिक, अकर्मभूमिक और अन्तर्वीपिक नपुसक / इनके भेद-अभेद प्रथम प्रतिपत्ति के अनुसार कहने चाहिए। नपुंसक की स्थिति 56. [1] णसगस्स णं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई। रइय नपुंसगस्स गं भंते ! केवइयं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं वसवाससहस्साई उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई / सम्धेसि ठिई भाणियव्वा जाव अधेसत्तमपुढविनेरइया। तिरियजोणिय णपुसकस्स णं भंते ! केवइयं कालं ठिती पण्णता ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं पुन्यकोडी। एगिदिय तिरिक्खजोणिय गपुसकस्स णं भंते ! केवइयं कालं ठिई यण्णता ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं वाबीसं वाससहस्साई। पुढधिकाइय एगिदिय तिरिक्खजोणिय णपुंसकस्स गं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णता? गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं वावीसं वाससहस्साई। सव्वेसि एगिदिय नपुसकाणं ठिती माणियग्या। बेइंविय तेइंदिय चउरिदिय णपुसगाणं ठिई भाणियम्वा / पंचिदिय तिरिक्खजोणिय णपुंसकस्स गं भंते ! केवइयं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पुग्वकोडी। एवं जलयरतिरिक्खचउप्पद-यलयर-उरगपरिसप्प-भुयगपरिसप्प-खहयरतिरिक्खजोणियणपुसकाणं सव्वेसि जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं पुत्वकोडी। मणुस्स गपुसकस्स णं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णता? Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 166] [जीवाजीवाभिगमसूत्र गोयमा ! खेत्तं पडच्च जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं पुवकोडी / धम्मचरणं पडच्च जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उफ्कोसेगं वेसूणा पुवकोडी। कम्मभूमग भरहेरवय-पुश्वविदेह-अवर विदेह मणुस्सण सगस्स वि तहेव / अकम्मभूमग मणुस्सण सगस्स णं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णता ? गोयमा ! जम्मणं पडुच्च जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं / साहरणं पडुच्च जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेण देसूणा पुष्यकोडी / एवं जाव अंसरदीवगाणं / [56] भगवन् ! नपुंसक की कितने काल की स्थिति कही है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम / भगवन् ! नरयिक नपुंसक की कितनी स्थिति कही है ? गौतम ! जघन्य से दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम / सब नारक नपुंसकों की स्थिति कहनी चाहिए अधःसप्तमपृथ्वीनारक नपुंसक तक। भगवन ! तिर्यक्योनिक नपुंसक की स्थिति कितनी है ? गौतम ! जधन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटि / भगवन् ! एकेन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुंसक की कितनी स्थिति कही है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट बावीस हजार वर्ष / / भंते ! पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुंसक की स्थिति कितनी कही है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट बावीस हजार वर्ष / सब एकेन्द्रिय नपुंसकों की स्थिति कहनी चाहिए। द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय नपुंसकों की स्थिति कहनी चाहिए / भगवन् ! पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुंसक को कितनी स्थिति कही गई है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटि / इसो प्रकार जलचरतियंच, चतुष्पदस्थलचर, उरपरिसर्प, भुजपरिसर्प, खेचर तिर्यक्योनिक नपुंसक इन सबकी जघन्य से अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट पूर्वकोटि स्थिति है। भगवन् ! मनुष्य नपंसक की स्थिति कितनी कही है ? गौतम ! क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटि / धर्माचरण की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि स्थिति / कर्मभूमिक भरत-एरवत, पूर्व विदेह-पश्चिम विदेह के मनुष्य नपुंसक की स्थिति भी उसी प्रकार कहनी चाहिए। भगवन् ! अकर्मभूमिक मनुष्य नपुंसक की कितनी स्थिति कही है ? गौतम ! जन्म की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्ट से भी अन्तर्मुहूर्त / संहरण की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से देशोन पूर्वकोटि / इसी प्रकार अन्तर्दीपिक मनुष्य नपुंसकों तक की स्थिति कहनी चाहिए / Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रतिपत्ति : नपुंसक की स्थिति] [167 विवेचनः-नपुंसकाधिकार में उसके भेद-प्रभेद बताने के पश्चात् उसकी स्थिति का निरूपण इस सूत्र में किया गया है। सामान्यतया नपुसक की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की है / जघन्य अन्तर्मुहूर्त की स्थिति तिथंच और मनुष्य नपुंसक की अपेक्षा से है और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम भी स्थिति सप्तमपृथ्वी नारक नपुंसक को अपेक्षा से है।। विशेष विवक्षा में प्रथम नारक नपुंसकों की स्थिति कहते हैं। सामान्यतः नैरयिक नपुंसक की जघन्य से दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की है। विशेष विवक्षा में अलग-अलग नरकपृथ्वियों के नारकों को स्थिति निम्न है की स्थिति नारकपृथ्वी नपुंसक का नाम जघन्य उत्कृष्ट 1. रत्नप्रभानारक नपुंसक दस हजार वर्ष एक सागरोपम 2. शर्कराप्रभानारक नपुंसक एक सागरोपम तीन सागरोपम 3. बालुकाप्रभानारक नपुसक तीन सागरोपम सात सागरोपम 4. पंकप्रभानारक नपूसक सात सागरोपम दस सागरोपम 5. धूमप्रभानारक नपुंसक दस सागरोपम सत्रह सागरोपम 6. नमःप्रभानारक नपुसक सत्रह सागरोपम बावीस सागरोपम 7. अधःसप्तमनारक नपुंसक बावीस सागरोपम तेतीस सागरोपम सामान्यतः तिर्यंच नपुसकों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटि है। तिर्यञ्च नपुंसकों की स्थिति तिर्यकनपुंसकों के भेद जघन्य उत्कृष्ट समुच्चय एकेन्द्रिय नपुसक अन्तर्मुहूर्त बावीस हजार वर्ष पृथ्वीकाय नपुसक बावीस हजार वर्ष अपकाय सात हजार वर्ष तेजस्काय तीन अहोरात्रि वायुकाय तीन हजार वर्ष वनस्पतिकाय दस हजार वर्ष द्वोन्द्रिय बारह वर्ष श्रीन्द्रिय उनपचास अहोरात्रि चतुरिन्द्रिय , छह मास सामान्य पंचेन्द्रिय तिर्यंच नपुसक पूर्वकोटि जलचर , स्थलचर , " " खेचर , " " Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 168] [जीवाजीवाभिगमसूत्र मनुष्य नपुंसकों की स्थिति मनुष्य नपुंसकों के मेव जघन्य उत्कृष्ट 1. समुच्चय मनुष्य नपुसक अन्तर्मुहूर्त पूर्वकोटि 2. कर्मभूमि मनुष्य नपुसक क्षेत्र से पूर्वकोटि 3. कर्मभूमि मनुष्य नपुसक धर्माचरण से देशोन पूर्वकोटि 4. भरत-एरवत कर्म. म. न. क्षेत्र से पूर्वकोटि ,, , ,धर्माचरण से देशोन पूर्वकोटि 6. पूर्वविदेह मनुष्य नपु. क्षेत्र से पूर्वकोटि 7. पश्चिमविदेह मनुष्य नपु. धर्माचरण से देशोन पूर्वकोटि 8. अकर्मभूमि मनुष्य नपुसक (जन्म से) (केवल संमूछिम होते हैं, गर्भज नहीं / युगलियों में नपुंसक नहीं होते) बृहत्तर अन्तर्मुहूर्त 9. अकर्मभूमि मनुष्य नपुसक संहरण से देशोन पूर्वकोटि 10. हैमवत हैरण्यवत म. नपुसक जन्म से बृहत्तर अन्तर्मुहूर्त // संहरण से देशोन पूर्वकोटि 12. हरिवर्ष रम्यकवर्ष म. नपुसक जन्म से बृहत्तर अन्तर्मुहूर्त 13. , , संहरण से देशोन पूर्वकोटि 14. देवकुरु उत्तरकुरु म. नपुसक जन्म से बृहत्तर अन्तर्मुहूर्त 15. , , संहरण से , देशोन पूर्वकोटि इस प्रकार नारक नपुसक, तिर्यक् नपुसक और मनुष्य नपुंसकों की स्थिति बताई गई है। कायस्थिति (नपुंसकों को संचिट्ठणा) 59. [2] णसए णं भंते ! णपुंसए ति कालओ केवञ्चिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं तरुकालो। रइय णपुसए णं भंते !* ? गोयमा ! जहन्नेणं वसवाससहस्साई, उक्कोसेणं तेत्तीस सागरोवमाइं / एवं पुढवीए ठिई भाणियव्वा / तिरिक्खजोणिय णपुसए णं भंते ? गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो / एवं एगिदिय णपुंसकस्स, वणस्सहकाइयस्स वि एवमेव / सेसाणं जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं असंखिज्जं कालं, असंखेज्जाओ उस्सप्पिणि-प्रोसप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ असंखेज्जा लोया। बेइंदिय तेइंदिय चरिदिय नपुसकाण य जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं संखेज्जं कालं / पंचिदिय तिरिक्खजोणिय नपुसकाणं णं भंते ! * ? Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रतिपत्ति : कास्थिति (नपुसकों की संचिट्ठणा)] [169 गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं पुश्वकोडिपुत्तं / एवं जलयरतिरिक्स चउप्पद पलयर उरगपरिसप्प भुयगपरिसप्प महोरगाण वि / मणुस्स णपुंसकस्स गं भंते ! * ? गोयमा ! खेत्तं पडच्च जहन्नेण अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं पुवकोडिपुहत्तं / पम्मचरणं पाच महन्नेणं एक्कं समयं उक्कोसेण देसूणा पुवकोडी। एवं कम्ममूमग भरहेरवय-पुत्वविदेह-अवरविदेहेसु वि भाणियव्वं / अकम्मभूमक मणुस्स णपुसए णं भंते !* ? गोयमा ! जम्मणं पडुच्च जहन्नेणं अंतोमुहृत्तं, उक्कोसेण मुहुत्तपुहत्तं / साहरणं पडच्च जहन्नेणं अंसोमुहूत्तं, उक्कोसेणं वेसूणा पुटवकोडी।। एवं सम्वेसि जाव अंतरदीवगाणं / [59] (2) भगवन् ! नपुंसक, नपुंसक के रूप में निरन्तर कितने काल तक रह सकता है ? गौतम ! जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट से वनस्पतिकाल तक रह सकता है। भंते ! नै रयिक नपुंसक के विषय में पृच्छा ? गौतम ! जघन्य से दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट से तेतीस सागरोपम तक / इस प्रकार सब नारकपृथ्वियों की स्थिति कहनी चाहिए / भंते ! तिर्यक्योनिक नपुंसक के विषय में पृच्छा? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल, इस प्रकार एकेन्द्रिय नपुंसक और वनस्पतिकायिक नपुंसक के विषय में जानना चाहिए। शेष पृथ्वीकाय आदि जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से असंख्यातकाल तक रह सकते हैं / इस असंख्यातकाल में असंख्येय उत्सपिणियां और अवसपिणियां (काल की अपेक्षा) बीत जाती हैं और क्षेत्र की अपेक्षा असंख्यात लोक के आकाश प्रदेशों का अपहार हो सकता है / द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय नपुंसक जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से संख्यातकाल तक रह सकते हैं। भंते ! पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुंसक के लिए पृच्छा ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से पूर्वकोटिपृथक्त्व पर्यन्त रह सकते हैं। इसी प्रकार जलचर तिर्यक्योनिक, चतुष्पद स्थलचर उरपरिसर्प, भुजपरिसर्प और महोरग नपुंसकों के विषय में भी समझना चाहिए / भगवन् ! मनुष्य नपुंसक के विषय में पृच्छा ? __ गौतम ! क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व / धर्माचरण की अपेक्षा जघन्य एक समय और उत्कर्ष से देशोन पूर्वकोटि / इसी प्रकार कर्मभूमि के भरत-ऐरवत, पूर्वविदेह-पश्चिमविदेह नपुंसकों के विषय में भी कहना चाहिए। Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 170] [जीवाजीवाभिगमसूत्र .. भंते ! अकर्मभूमिक मनुष्य-नपुंसक के विषय में पृच्छा ? गौतम ! जन्म की अपेक्षा से जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट मुहूर्तपृथक्त्व / संहरण की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि तक उसी रूप में रह सकते हैं। . विवेचन--पूर्वसूत्र में नपुंसकों की भवस्थिति बताई गई थी। इस सूत्र में उनकी कायस्थिति बताई गई है / कायस्थिति का अर्थ है उस पर्याय को छोड़े बिना लगातार उसी में बना रहना / सतत रूप से उस पर्याय में भयस्थिति को कायस्थिति भी कहते हैं और संचिट्ठणा भी कहते हैं। सामान्य विवक्षा में नपुंसक रूप में उस पर्याय को छोड़े बिना लगातार जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल तक रह सकता है। एक समय की स्पष्टता इस प्रकार है-कोई नपुंसक उपशमश्रेणी पर चढ़ा और अवेदक होने के बाद उपशमश्रेणी से गिरा / नपुंसकवेद का उदय हो जाने पर एक समय के अनन्तर मर कर देव हो गया और पुरुषवेद का उदय हो गया। इस अपेक्षा से नपंसकवेद जघन्य से एक समय तक रहा। __ उत्कर्ष से नपुंसकवेद वनस्पतिकाल तक रहता है। वनस्पतिकाल आवलिका के असंख्येय भाग में जितने समय हैं, उतने पुद्गलपरावर्तकाल का होता है। तथा इस काल में अनन्त उत्सपिणियां और अनन्त अवसपिणियां बीत जाती हैं। क्षेत्र की अपेक्षा से कहें तो एक समय में एक आकाश-प्रदेश का अपहार करने पर अनन्त लोकों के प्राकाश प्रदेशों का अपहार इतने काल में हो सकता है।' नैरयिक नपुंसक की कायस्थिति की विचारणा में जो उनकी स्थिति है वही जघन्य और उत्कर्ष से उनकी अवस्थिति (संचिट्ठणा) है। क्योंकि कोई नैरयिक मरकर निरन्तर नैरयिक नहीं होता, अतः भवस्थिति ही उनकी कायस्थिति जाननी चाहिए / भवस्थिति से अतिरिक्त उनमें कायस्थिति संभव नहीं है। सामान्य तिर्यंच नपुंसकों की कायस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है। अन्तर्मुहूर्त के बाद मरकर दूसरी गति में जाने से या दूसरे वेद में हो जाने से जघन्य भवस्थिति अन्तर्मुहूर्त है / उत्कर्ष से वनस्पतिकाल है, जिसका स्वरूप ऊपर बताया गया है / विशेष विवक्षा में एकेन्द्रिय नपुंसक की कायस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल है। पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय नपुंसक की कायस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से असंख्येयकाल है, 2 जो असंख्येय उत्सपिणियां और असंख्येय अवसपिणियां प्रमाण है और क्षेत्र से असंख्यात लोकों के प्राकाश प्रदेशों के अपहार तुल्य है। इसी प्रकार अपकायिक, तेजस्कायिक और वायुकायिक की काय स्थिति भी कहनी चाहिए। वनस्पति की कायस्थिति वही है जो सामान्य एकेन्द्रिय की कायस्थिति बताई है / अर्थात् जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल / 1. अणंतानो उस्स प्पिणी पोसाप्पिणी कालो, खेत्तप्रो अणंता लोया, असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा-वणस्सइ कालो। 2. उक्कोसेण असंखेज्जं कालं असंखेज्जाप्रो उस्सप्पिणी प्रोसप्पिणीयो कालो खेत्तयो असंखिज्जा लोगा। Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रतिपत्ति : अन्तर] [171 द्वीन्द्रिय नपुंसक की कास्थिति जघन्य से अन्तर्मुहर्त और उत्कर्ष से संख्यातकाल है। यह संख्यातकाल संख्येय हजार वर्ष का समझना चाहिए। इसी प्रकार त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय नपुंसकों की कायस्थिति भी कहनी चाहिए। __ पंचेन्द्रियतिर्यक नपुंसक की कायस्थिति जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से पूर्वकोटिपृथक्त्व की है। इसमें निरन्तर सात भव तो पूर्वकोटि आयु के नपुंसक भवों का अनुभव करने की अपेक्षा से है। इसके बाद अवश्य वेद का और भव का परिवर्तन होता है / इसी प्रकार जलचर, स्थलचर, खेचर नपुंसकों के विषय में भी समझना चाहिए। सामान्यतः मनुष्य नपुंसक की कायस्थिति भी इसी तरह-अर्थात् जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से पूर्वकोटिपृथक्त्व है। ___कर्मभूमि के मनुष्य नपुंसक की कायस्थिति क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य से अन्तमुहूर्त और उत्कर्ष से पूर्वकोटिपृथक्त्व है / धर्माचरण की अपेक्षा जघन्य से एक समय, उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि है / भावना पूर्ववत् / इसी तरह भरत-ऐरवत कर्मभूमिक मनुष्य नपुंसक की कायस्थिति और पूर्व विदेह-पश्चिमविदेह कर्मभूमिक मनुष्य-नपुंसक की कायस्थिति भी जाननी चाहिए / सामान्य से अकर्मभूमिक मनुष्य-नपुंसक की काय स्थिति जन्म की अपेक्षा जघन्य से अन्तर्मुहूर्त है। इतने से काल में वे कई बार जन्म-मरण करते हैं। उत्कर्ष से अन्तमुहूर्तपृथक्त्व है। इसके बाद वहाँ उसकी उत्पत्ति नहीं होती। संहरण की अपेक्षा जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से देशोन पूर्वकोटि है / हैमवत, हैरण्यवत, हरिवर्ष, रम्यकवर्ष, देवकुरु, उत्तरकुरु, अन्तर्दीपिक मनुष्य नपुंसकों की कायस्थिति भी इसी तरह की जाननी चाहिए। यह कायस्थिति का वर्णन हुआ / अन्तर [3] नपुंसकस्स णं भंते ! केवइयं कालं अंतरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं सागरोवमसयपुहत्तं सातिरेगं / गेरइय नपुंसकस्स णं भंते ! केवतियं कालं अंतर होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं तरुकालो। रयणप्पभापुढवी नेरइय गसकस्स जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं तरकालो। एवं सब्वेसि जाव अधेसत्तमा / तिरिक्खजोणिय णसगस्स जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं सागरोपमसयपहुत्तं सातिरेगं / एगिदिय तिरिक्खजोणिय णपुसकस्स जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं दो सागरोवमसहस्साई संखेज्जवासमभहियाई। पुढवि-आउ-तेउ-वाऊणं जहन्नेगं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो। वणस्सइकाइयाणं जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं जाव असंखेज्जा लोया। सेसाणं बेइंदियादोणं जाव खहयराणं जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं वणस्सहकालो। Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 172] [जीवाजीचाभिगमसूत्र मणुस्स णपुंसकस्स खेसं पडुच्च जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो। धम्मचरणं पडुच्च जहन्नेणं एगं समयं उक्कोसेणं अणंतं कालं जाव अवडपोग्गलपरियटें देसूर्ण / एवं कम्मभूमगस्स वि भरहेरवय-पुथ्वविवेह-अवरविदेहकस्स वि। अकम्मभूमक मणुस्स णपुंसकस्स गं भंते ! केवइयं कालं अंतर होइ? गोयमा! जम्मणं पड़च्च जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो। संहरणं पडुच्छ जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो एवं जाव अंतरदीवग त्ति / [59] (3) भगवन् ! नपुंसक का कितने काल का अन्तर होता है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से सागरोपमशतपृथक्त्व से कुछ अधिक / भगवन् ! नैरयिक नपुसक का अन्तर कितने काल का है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल / रत्नप्रभापृथ्वी नैरयिक नपुंसक का जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल / इसी प्रकार अधःसप्तमपृथ्वी नैरयिक नपुसक तक कहना चाहिए। तिर्यक्योनि नपुंसक का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट कुछ अधिक सागरोपमशतपृथक्त्व / ___ एकेन्द्रिय तिर्यक्योनि नपुसक का जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यातवर्ष अधिक दो हजार सागरोपमा पृथ्वी-अप-तेजस्काय और वायुकाय का जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल का अन्तर है / वनस्पतिकायिकों का जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से असंख्येयकाल-यावत् असंख्येयलोक / ___ शेष रहे द्वीन्द्रियादि यावत् खेचर नपुसकों का अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल है। मनुष्य नपुसक का अन्तर क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल है। धर्माचरण की अपेक्षा जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अनन्तकाल यावत् देशोन अर्धपुद्गलपरावर्त / इसी प्रकार कर्मभूमिक मनुष्य नपुंसक का, भरत-एरवत-पूर्वविदेह-पश्चिमविदेह मनुष्य नपुसकःका भी कहना चाहिए। भगवन् ! अकर्मभूमिक मनुष्य नपुंसक का अन्तर कितने काल का होता है ? गौतम ! जन्म को लेकर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल / संहरण की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से वनस्पतिकाल, इस प्रकार अन्तर्वीपिक नपुंसक तक का अन्तर कहना चाहिए। विवेचन-नपुसकों की भवस्थिति और कायस्थिति बताने के पश्चात् इस सूत्र में उनका Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रतिपसि : अन्तर] [173 अन्तर बताया गया है / अर्थात् नपुंसक, नपुसकपर्याय को छोड़ने पर पुनः कितने काल के पश्चात् नपुसक होता है। सामान्यत: नपुसक का अन्तर बताते हुए भगवान् कहते हैं कि गौतम ! जघन्य से अन्तमुहूर्त और उत्कर्ष से कुछ अधिक सागरोपमशतपृथक्त्व का अन्तर होता है। क्योंकि व्यवधान रूप पुरुषत्व और स्त्रीत्व का कालमान इतना ही होता है। जैसा कि संग्रहणीगाथाओं में कहा है--स्त्री और नपुंसक की संचिटणा (कायस्थिति) और पुरुष का अन्तर जघन्य से एक समय है तथा पुरुष को संचिट्ठणा और नपुंसक का अंतर उत्कर्ष से सागरपृथक्त्व-(पदैकदेशे पदसमुदायोपचार से) सागरोपमशतपृथक्त्व है।' सामान्य विवक्षा में नैरयिक नपुसक का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। सप्तमनारकपृथ्वी से निकलकर तन्दुलमत्स्यादि भव में अन्तर्मुहूर्त तक रहकर पुनः सप्समपृथ्वीनरक में जाने की अपेक्षा से अन्तर्मुहूर्त कहा गया है / उत्कृष्ट अन्तर वनस्पतिकाल है। यह नरकभव से निकलकर परम्परा से निगोद में अनन्तकाल रहने की अपेक्षा से समझना चाहिए / इसी प्रकार सातों नरकपृथ्वी के नपुंसकों का अन्तर समझ लेना चाहिए। सामान्य विवक्षा में तिर्यकयोनि नपुसक का अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से सागरोपमशतपृथक्त्व है। पूर्ववत् स्पष्टीकरण जानना चाहिए। विशेष विवक्षा में सामान्यतः एकेन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुसक का अन्तर जघन्य से अन्तमुहूर्त (क्योंकि द्वीन्द्रियादिकाल का व्यवधान इतना ही है) और उत्कर्ष से संख्येय वर्ष अधिक दो हजार सागरोपम है, क्योंकि व्यवधान रूप त्रसकाय की इतनी ही कालस्थिति है / इतने व्यवधान के बाद पुनः एकेन्द्रिय होता ही है। पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय नपुंसक का अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल है / इसी तरह अपकायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक एकेन्द्रिय नपुंसकों का भी अन्तर कहना चाहिए। वनस्पतिकायिक एकेन्द्रिय नपुसकों का जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से असंख्येय काल है। यह असंख्येय काल, काल से असंख्येय उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी रूप होता है और क्षेत्र से असंख्येय लोक प्रमाण होता है। इसका तात्पर्य यह है कि असंख्येय लोकाकाश के प्रदेशों का प्रतिसमय एक एक प्रदेश का अपहार करने पर जितने समय में उन प्रदेशों का सम्पूर्ण अपहार हो जाय, उतने काल को अर्थात् उतनी उत्सपिणियों और अवसपिणियों का वह असंख्येय काल होता है / वनस्पतिभव से छूटने पर अन्यत्र उत्कृष्ट से इतने काल तक जीव रह सकता है / इसके अनन्तर संसारी जीव नियम से पुन वनस्पतिकायिक में उत्पन्न होता है / द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुसकों का अन्तर जलचर, स्थलचर, खेचर पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुसकों का अन्तर और सामान्यतः मनुष्य नपुंसक का अन्तर 1. इत्यिनपुंसा संचिट्ठणेसु पुरिसंतरे य समयो उ / पुरिसनपुंसा संचिट्ठणंतरे सागरपुहुत्तं / / Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 174 [जीवाजीवाभिगमसूत्र जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्त काल है / वह अनन्त काल, वनस्पतिकाल है, जिसका स्वरूप पहले बताया गया है। - कर्मभूमिक मनुष्य नसक का अन्तर क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल है। धर्माचरण की अपेक्षा जघन्य से एक समय क्योंकि सर्वजघन्य लब्धिपात का काल एक समय का ही होता है। उत्कर्ष से अनन्तकाल / इस अनन्तकाल में अनन्त उत्सपिणियां और अनन्त अवसपिणियां बीत जाती हैं और क्षेत्र से असंख्येय लोकाकाश के प्रदेशों का अपहार हो जाता है। और यह देशोन अर्धपुद्गलपरावर्त जितना है / इसी तरह भरत, ऐरवत, पूर्व विदेह और अपरविदेह कर्मभूमिक नपुसकों का क्षेत्र और धर्माचरण को लेकर जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर कहना चाहिए। __ अकर्मभूमिक मनुष्य नपुसक का जन्म की अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त ( अन्य गति में जाने की अपेक्षा इतना व्यवधान होता है ) और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल का अन्तर होता है। संहरण की अपेक्षा जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से बनस्पतिकाल है / किसी ने कर्मभूमि के मनुष्य नपुंसक का अकर्मभूमि में संहरण किया, वह अकर्मभूमिक हो गया / थोड़े समय बाद तथाविध बुद्धिपरिवर्तन से पुनः कर्मभूमि में संहृत कर दिया, वहां अन्तर्मुहूर्त रोक कर पुनः अकर्मभूमि में ले आया, इस अपेक्षा से अन्तर्मुहूर्त का अन्तर होता है / उत्कर्ष से वनस्पतिकाल / विशेष विवक्षा में हैमवत, हैरण्यवत, हरिवर्ष, रम्यकवर्ष, देवकुरु-उत्तरकुरु अकर्मभूमिक मनुष्य नपुंसक का और अन्तरर्दीपिक मनुष्य नपुंसक का जन्म और संहरण की अपेक्षा से जघन्य और उत्कर्ष से अन्तर कहना चाहिए। नपुंसकों का अल्पबहुत्व 60. [1] एतेसिं गं भंते ! गैरइयनपुंसकाणं, तिरिक्खनपुसकाणं, मणुस्सनपुंसकाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुआ वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा मणुस्सणपुंसका, नेरइयणपुंसगा असंखेज्जगुणा, तिरिक्खजोणियनपुंसका अणंतगुणा। [2] एतेसि णं भंते ! रयणप्पहापुढवि गैरइयणपुंसकाणं जाव अहेसत्तमपुढवि गैरइय गपुसकाण य कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिया वा? गोयमा ! सम्वत्थोवा अहेसत्तमपुढवि-नेरइय णपुसका, छठ्ठपुढवि णेरइय नपुंसगा असंखेज्जगुणा जाव दोच्चपुढविणेरइय णपुसका असंखेज्जगुणा। इमीसे रयणप्पहाए पुढवीए णेरइयणपुसका असंखेज्जगुणा। [3] एतेसि णं भंते ! तिरिक्खजोणिय णपुसकाणं, एगिदिय तिरिक्खजोणिय गपुसकाणं, पढविकाइय जाव वणस्सइकाइय एगिदिय तिरिक्खजोणिय ण सगाणं, बेइंदिय-तेइंदिय-चरिदियपंचेंदिय तिरिक्खजोणिय गपुसकाणं जलयराणं थलयराणं खहयराण य कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिया वा? गोयमा ! सम्वत्थोवा खहयरतिरिक्खजोणियणपसगा, Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रतिपत्ति : नपुसकों का अल्पबहुत्व] [175 थलयर तिरिक्खजोणिय नपुसका संखेज्जगुणा, जलयर तिरिक्खजोणिय नपुसका संखेज्जगुणा, चरिदिय तिरिक्खजोणिय नपुसका विसेसाहिया, तेइंदिय तिरिक्खजोणिय नपुसका विसेसाहिया, बेइंदिय तिरिक्खजोणिय नपुसका विसेसाहिया, तेउक्काइय एगिदिय तिरिक्खजोणिय नपुसका असंखेज्जगुणा, पुढविक्काइय एगिदिय तिरिक्खजोणिय नपुसका विसेसाहिया, एवं आउ-वाउ-वणस्सइकाइय एगिदिय तिरिक्खजोणिय नपुसका अणंतगुणा / [4] एतेसि णं भंते ! मणुस्सणघुसकाणं, कम्मभूमगणपुसकाणं अकममूमगणपुसकाणं अंतरवीवगणसगाण य कयरे कयरहितो अप्पा वा जाव विसेसाहिया वा? गोयमा ! सम्वत्थोवा अंतरदीवग अकम्मभूमग मणुस्स ण सका, देवकुरु-उत्तरकुरु अकम्मभूमगा वोवि संखेज्जगुणा एवं जाव पुव्य विदेह-अवरविदेह कम्ममूमगमणुस्स नपुसका दो वि संखेज्जगुणा / [5] एतेसि णं भंते ! णेरइय णपुसकाणं, रयणप्पभापुढवि नेरइय नपुसकाणं जाव अधेसत्तमपुढवि रइय णपुसकाणं, तिरिक्खजोणिय नपुसकाणं, एगिदिय-तिरिक्खजोणियाणं पुढविकाइय एगिदिय तिरिक्खजोणिय णपुसगाणं जलयराणं थलयराणं खहयराणं मणुस्स णपुसकाणं कम्मभूमिगाणं अकम्मभूमिगाण अंतरदीवगाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुआ वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा ! सव्वत्थोवा अहेसत्तमपुढवि गैरइय नपुंसका, छ? पुढवि नेरइय णपु सगा असंखेज्जगुणा जाव दोच्च पुढविणेरइय नपुसका असंखेज्जगुणा, अंतरदीवग मणुस्स णसका असंखेज्जगुणा, देवकुरु-उत्तरकुरु अकम्मभूमग मणुस्स णपुसका दो वि संखेज्जगुणा, जाव पुम्वविदेह-अवरविदेह कम्मभूमग मणुस्स णसका दो वि संखेज्जगुणा, रयणप्पमा पुढवि गैरइय णपुसका असंखेज्जगुणा, खयर पंचिदिय तिरिक्खजोणिय नपुंसका असंखेज्जगणा, यलयर पंचि० तिजो० णपुसका संखिज्जगुणा, जलयर पंचि० तिजो० णसका संखिज्ज गुणा, चरिदिय तिजो० णपुसका विसेसाहिया, तेइंदिय तिजो० णपुसका विसेसाहिया, बेइंदिय तिजो० गपसका विसेसाहिया, Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 176] [जीवानीवाभिगमसूत्र तेउक्काइय एगिदिय तिजो० गपुंसका असंखेज्जगुणा, पुढविकाइय एगिविय ति० जो० गपुसका विसेसाहिया, आउक्काइय एगि० ति० जी० णपुसका विसेसाहिया, वाउक्काइय एगि० ति० जो० ण सका विसेसाहिया, वणस्सकाइय एगिदिय तिरिक्खजोणिय णपुसका अणंतगुणा / [60] (1) भगवन् इन नैरयिक नपुंसक, तिर्यक्योनिक नपुंसक और मनुष्ययोनिक नपुसकों में कौन किससे अल्प, अधिक, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े मनुष्य नपुंसक, उनसे नैरयिक नपुसक असंख्यातगुण, उनसे तिर्यक्योनिक नपुसक अनन्तगुण हैं / (2) भगवन् ! इन रत्नप्रभा पृथ्वी नैरयिक नपुंसकों में यावत् अधःसप्तमपृथ्वी नरयिक नपुंसकों में कोन किससे अल्प, अधिक, तुल्य या विशेषाधिक हैं। गौतम ! सबसे थोड़े अध:सप्तमपृथ्वी के नैरयिक नपुसक, उनसे छठी पृथ्वी के नैरयिक नपुंसक असंख्यातगुण, यावत् दूसरी पृथ्वी के नैरयिक नपुंसक क्रमशः असंख्यात-असंख्यात गुण कहने चाहिए। उनसे इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिक नपुसक असंख्यातगुण हैं। (3) भगवन् ! इन तिर्यक्योनिक नपुसकों में एकेन्द्रिय तिर्यक् नपुसकों में पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक एकेन्द्रिय तिर्थक्योनिक नपुसकों में, द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय तिर्यकयोनिक नपूसकों में, जलचरों में, स्थलचरों में, खेचरों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े खेचर तिर्यक्योनिक नपुंसक, उनसे स्थलचर तिर्थक्योनिक नपुसक संख्येयगुण, उनसे जलचर तिर्यक्योनिक नपुसक संख्येयगुण, उनसे चतुरिन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुंसक विशेषाधिक, उनसे त्रीन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुसक विशेषाधिक, उनसे द्वीन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुसक विशेषाधिक. उनसे तेजस्काय एकेन्द्रिय तिर्यक नपुसक असंख्यातगुण, उनसे पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय तिर्यक् नपुसक विशेषाधिक / उनसे अप्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक एकेन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुसक अनन्तगुण हैं। (4) भगवन् ! इन मनुष्य नपुसकों में, कर्मभूमिक मनुष्य नपुसकों में, प्रकर्मभूमिक मनुष्य नपुंसकों में और अन्तर्वीपों के मनुष्य नपुसकों में कोन किससे अल्प, अधिक, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रतिपसि : नपुंसकों का अल्पबहुत्व] [177 गौतम ! सबसे थोड़े अन्तर्वीपिक मनुष्य नपुसक, उनसे देवकुरु-उत्तरकुरु अकर्मभूमि के मनुष्य नपुसक दोनों संख्यातगुण, इस प्रकार यावत् पूर्व विदेह-पश्चिमविदेह के कर्मभूमिक मनुष्य नपुंसक दोनों संख्येयगुण हैं / (5) हे भगवन् ! इन नैरयिक नपुसक, रत्नप्रभापृथ्वी नैरयिक नपुसक यावत् अधःसप्तम पृथ्वी नरयिक नपुसकों में, तिर्यंचयोनिक नपुसकों में-एकेन्द्रिय तिर्यक्योनिकों में, पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय तिर्यक् नपुसकों में, यावत् वनस्पतिकायिक तिर्यक नपुसकों में, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय तिर्यकयोनिक नपुंसकों में, जलचरों में,स्थलचरों में, खेचरों में, मनुष्य नपुसकों में, कर्मभूमिक मनुष्य नपुसकों में, अकर्मभूमिक मनुष्य नपुसकों में अंतर्दीपिक मनुष्य नपुंसकों में कौन किससे अल्प, अधिक, तुल्य या विशेषाधिक है ? गौतम ! सबसे थोड़े अधःसप्तमपृथ्वी नरयिक नपुंसक, उनसे छठी पृथ्वी के नैरयिक नपुसक असंख्यातगुण, उनसे यावत् दूसरी पृथ्वी के नैरयिक नपुसक असंख्यातगुण, उनसे अन्तर्वीप के मनुष्य नपुंसक असंख्यातगुण, उनसे देवकुरु-उत्तरकुरु अकर्मभूमिक म. नपुसक दोनों संख्यातगुण, उनसे यावत् पूर्व विदेह पश्चिमविदेह कर्मभूमिक मनुष्य नपुंसक दोनों संख्यातगुण, उनसे रत्नप्रभा के नैरयिक नपुसक असंख्यातगुण, उनसे खेचर पंचेन्द्रियतिर्यक्योनिक नपुसक असंख्यातगुण, उनसे स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यक नपुसक संख्यातगुण, उनसे जलचर पंचेन्द्रिय तिर्यक नपुसक संख्यातगुण, उनसे चतुरिन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुसक विशेषाधिक, उनसे त्रीन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुसक विशेषाधिक, उनसे द्वीन्द्रिय तिर्यकयोनिक नपुसक विशेषाधिक, उनसे तेजस्काय एकेन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुंसक असंख्यातगुण, उनसे पृथ्वीकाय एकेन्द्रिय ति. यो. नपुंसक विशेषाधिक, उनसे अप्कायिक एकेन्द्रिय ति. यो. नपुसक विशेषाधिक, उनसे वायुकायिक एकेन्द्रिय ति. यो. नपुसक विशेषाधिक, उनसे वनस्पतिकायिक एकेन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुसक अनन्तगुण हैं। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में पांच प्रकार से अल्पबहुत्व बताया गया है। प्रथम प्रकार में नैरयिक, तिर्यक्योनिक और मनुष्य नपुसकों का सामान्य रूप से अल्पबहुत्व है। दूसरे में नैरयिकों के सात भेदों का अल्पबहुत्व है / तीसरे प्रकार में तिर्यक्योनिक नपुसकों के भेदों की अपेक्षा से अल्पबहुत्व है। चौथे प्रकार में मनुष्यों के भेदों की अपेक्षा से अल्पबहुत्व है और पांचवें प्रकार में सामान्य और विशेष दोनों प्रकारों का मिश्रित अल्पबहुत्व है। (1) प्रथम प्रकार के अल्पबहुत्व में पूछा गया है कि नैरयिक नपुसक, तिर्यक्योनिक नपुसक और मनुष्य नपुसकों में कौन किससे अल्प, अधिक, तुल्य या विशेषाधिक है। इसके उत्तर में कहा गया है Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 178] [जीवाजीवाभिगमसूत्र सबसे थोड़े मनुष्य नपुंसक हैं, क्योंकि वे श्रेणी के असंख्येयभागवर्ती प्रदेशों की राशि-प्रमाण . उनसे नरयिक नपुंसक असंख्येयगुण हैं, क्योंकि वे अंगुलमात्र क्षेत्र की प्रदेशराशि के प्रथम वर्गमूल को द्वितीय वर्गमूल से गुणित करने पर जो प्रदेशराशि होती है, उसके बराबर घनीकृत लोक की एक प्रादेशिक श्रेणियों में जितने प्रकाश प्रदेश हैं, उनके बराबर हैं / नैरयिक नपुसकों से तिर्यक्योनिक नपुंसक अनन्तगुण हैं, क्योंकि निगोद के जीव अनन्त हैं। (2) नैरयिक नपुसक भेद सम्बन्धी अल्पबहुत्व सबसे थोड़े सातवीं पृथ्वी के नैरयिक नपुंसक हैं, क्योंकि इनका प्रमाण प्राभ्यन्तर श्रेणी के असंख्येयभागवर्ती प्राकाशप्रदेश राशितुल्य है। उनसे छठी पृथ्वी के नैरयिक नपुसक असंख्येयगुण हैं, उनसे पांचवी पृथ्वी के नैरयिक नपु. असंख्येयगुण हैं, उनसे चौथी पृथ्वी के नैरयिक नप.असंख्येयगण हैं. उनसे तीसरी पृथ्वी के नैरयिक नपु. असंख्येयगुण हैं, उनसे दूसरी पृथ्वी के नैरयिक नपु. असंख्येयगुण हैं। क्योंकि ये सभी पूर्व-पूर्व नैरयिकों के परिमाण की हेतुभूत श्रेणी के असंख्येयभाग की अपेक्षा असंख्येयगुण असंख्येयगुण श्रेणी के भागवर्ती नभः-प्रदेशराशि प्रमाण हैं। दूसरी पृथ्वी के नैरयिक नपुसक असंख्येयगुण हैं, क्योंकि ये अंगुल मात्र प्रदेश की प्रदेशराशि के प्रथम वर्गमूल में / / द्वितीय वर्गमूल का गुणा करने पर जितनी प्रदेशराशि होती है, उसके बराबर धनीकृत लोक की एक प्रादेशिक श्रेणियों में जितने अाकाशप्रदेश है, उतने प्रमाण वाले हैं। प्रत्येक नरकपृथ्वी के पूर्व, उत्तर, पश्चिम दिशा के नैरयिक सर्वस्तोक हैं, उनसे दक्षिणदिशा के नैरयिक असंख्येयगुण हैं। पूर्व पूर्व की पृथ्वियों की दक्षिणदिशा के नैरयिक नपुसकों की अपेक्षा पश्चानुपूर्वी से आगे आगे की पृथ्वियों में उत्तर और पश्चिम दिशा में रहे हुए नैरयिक नपुंसक असंख्यातगुण अधिक हैं / प्रज्ञापनासूत्र में ऐसा ही कहां है / ' (3) तिर्यक्योनिक नपुसक विषय आल्पबषुत्व खेचर पंचेन्द्रिय तिर्यक नपुंसक सबसे थोड़े, क्योंकि वे प्रतर के असंख्येयभागवर्ती असंख्येय श्रेणीगत प्राकाश प्रदेशराशि प्रमाण हैं। उनसे स्थलचर तिर्यक्योनिक नपुंसक संख्येयगुण हैं, क्योंकि वे बृहत्तर प्रतर के असंख्येयभागवर्ती असंख्येय श्रेणिगत प्राकाश-प्रदेशराशिप्रमाण हैं। ___ उनसे जलचर नपुंसक संख्येयगुण है क्योंकि वे बृहत्तम प्रतर के असंख्येयभागवर्ती असंख्येय श्रेणिगत प्रदेशराशिप्रमाण हैं। 1. दिसाणुवायेण सव्वत्थोवा अहेसत्तमपुढविनेरइया पुरस्थिम पच्चत्थिम उत्तरेणं, दाहिणणं असंखेज्जगुणा...... इत्यादि / -प्रज्ञापनासूत्र पद 3 / Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रतिपत्ति : नपुंसकों का अल्पबहुत्व] [179 उनसे चतुरिन्द्रिय ति. यो. नपुंसक विशेषाधिक हैं, क्योंकि वे असंख्येय योजन कोटीकोटीप्रमाण अाकाशप्रदेश राशिप्रमाण घनीकृत लोक की एक प्रादेशिक श्रेणियों में जितने आकाशप्रदेश हैं, उतने प्रमाण वाले हैं। उनसे त्रीन्द्रिय ति. यो. नपुसक विशेषाधिक हैं, क्योंकि वे प्रभूततर श्रेणिगत आकाशप्रदेशराशिप्रमाण हैं। __ उनसे द्वीन्द्रिय ति. यो. नपुंसक विशेषाधिक हैं, क्योंकि वे प्रभूततम श्रेणिगत आकाशप्रदेशराशिप्रमाण हैं। उनसे तेजस्कायिक एकेन्द्रिय ति. यो. नपुसक असंख्यातगुण हैं, क्योंकि वे सूक्ष्म और बादर मिलकर असंख्येय लोकाकाश प्रदेशप्रमाण हैं / ___ उनसे पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय ति. यो. नपुंसक विशेषाधिक हैं, क्योंकि वे प्रभूत असंख्येय लोकाकाशप्रदेशप्रमाण हैं। ___ उनसे अप्कायिक एके. ति. यो. नपुंसक विशेषाधिक हैं, क्योंकि वे प्रभूततर असंख्येय लोकाकाशप्रदेशप्रमाण हैं। __ उनसे वायुकायिक एके. ति. यो. नपुसक विशेषाधिक हैं, क्योंकि वे प्रभूततम असंख्येय लोकाकाशप्रदेशप्रमाण हैं / . उनसे वनस्पतिकायिक एके. तिर्यक्योनिक नपुंसक अनन्तागुण हैं, क्योंकि वे अनन्त लोकाकशप्रदेश राशिप्रमाण हैं / (4) मनुष्यनपुसकसंबंधी अल्पबहुत्व सबसे थोड़े अन्तर्वीपिज मनुष्य-नपुसक / ये संमूछिम समझने चाहिए, क्योंकि गर्भज मनुष्यनपुसकों का वहाँ सद्भाव नहीं होता / कर्मभूमि से संहृत हुए हो भी सकते हैं / अन्तर्वीपिज मनुष्य नपुसकों से देवकुरु-उत्तरकुरु अकर्मभूमि के मनुष्य नपुसक संख्येयगुण हैं, क्योंकि तद्गत गर्भजमनुष्य अन्तर्वीपिक गर्भजमनुष्यों से संख्येयगुण हैं, क्योंकि गर्भजमनुष्यों के उच्चार आदि में संमूछिम-मनुष्यों की उत्पत्ति होती है / स्वस्थान में परस्पर तुल्य हैं। उनसे हरिवर्ष-रम्यकवर्ष अकर्मभूमिक मनुष्य नपुसक संख्येयगुण हैं और स्वस्थान में तुल्य उनसे हैमवत-हैरण्यवत के अकर्मभूमिक मनुष्य नपुसक संख्येयगुण हैं और स्वस्थान में तुल्य हैं / उनसे भरत-ऐरवत कर्मभूमि के मनुष्य नपुसक संख्येयगुण हैं और स्वस्थान में तुल्य हैं। उनसे पूर्व विदेह-पश्चिमविदेह कर्मभूमि के मनुष्य नपुंसक संख्येयगुण हैं और स्वस्थान में दोनों परस्पर तुल्य हैं। सर्वत्र युक्ति पूर्ववत् जाननी चाहिए। Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 180] [जीवानीवाभिगमसूत्र (5) मिश्रित अल्पबहुत्व सबसे थोड़े अधःसप्तमपृथ्वी नैरयिक नपुसक, उनसे छठी, पांचवीं, चौथी, तीसरी, दूसरी पृथ्वी के नैरयिक नपुसक यथोत्तर असंख्येयगुण, उनसे अन्तर्वीपिक म. नपुसक असंख्येयगुण (संमूछिम मनुष्य की अपेक्षा), उनसे देवकुरु-उत्तरकुरु अकर्मभूमि के म. नपुसक संख्येयगुण, उनसे हरिवर्ष-रम्यकवर्ष अकर्मभूमि के म. न. संख्येयगुण, उनसे हैमवत-हैरण्यवत अकर्मभूमिक म. नपु. संख्येयगुण, उनसे भरत-एरवत कर्मभूमिक मनुष्य नपु. संख्येयगुण, उनसे पूर्व विदेह-पश्चिमविदेह कर्म. म. नपु. संख्येयगुण हैं और स्वस्थान में परस्पर तुल्य हैं, उनसे रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक नपुंसक असंख्येयगुण हैं, उनसे खेचर पंचे. तिर्यक्योनिक नपुसक असंख्येयगुण हैं, उनसे स्थलचर पंचे. ति. यो. नपुसक संख्येयगुण हैं, उनसे जलचर पंचे. ति. यो. नपुसक संख्येयगुण हैं, उनसे चतरिन्द्रिय. श्रीन्द्रिय.दीन्द्रिय ति. यो. नपसक विशेषाधिक हैं, उनसे तेजस्कायिक एके. ति. यो. नपु. असंख्येयगुण हैं, उनसे पृथ्वी, अप, वायुकायिक एके. ति. यो. नपुसक यथोत्तर विशेषाधिक हैं, उनसे वनस्पतिकायिक एकेन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुसक अनन्तगुण हैं। युक्ति सर्वत्र पूर्ववत् जाननी चाहिए / नपुंसकवेद की बंधस्थिति और प्रकार 61. णपुसकवेवस्स णं भंते ! कम्मस्स केवइयं कालं बंधठिई पण्णता? गोयमा ! जहन्नेणं सागरोवमस्स दोणि सत्तभागा, पलिओवमस्स असंखेज्जहभागेणं ऊणगा, उक्कोसेणं बीसं सागरोवमकोडाकोडीओ, दोणि य वाससहस्साई अबाधा, अवाहूणिया कम्मठिई कम्मणिसेगो। णपुंसक वेदे गं भंते ! किंपगारे पण्णत्ते ? गोयमा ! महाणगरदाहसमाणे पण्णत्ते समणाउसो ! से तं गपुंसका। [61] हे भगवन् ! नपुसकवेद कर्म की कितने काल की स्थिति कही है ? गौतम ! जघन्य से सागरोपम के 3 (दो सातिया भाग) भाग में पल्योपम का असंख्यातवां भाग कम सौर उत्कृष्ट से बीस कोडाकोडी सागरोपम की बंधस्थिति कही गई है। दो हजार वर्ष Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रतिपत्ति : नवविध अल्पबहुत्व] [181 का अबाधाकाल है / अबाधाकाल से हीन स्थिति का कर्मनिषेक है अर्थात् अनुभवयोग्य कर्मदलिक की रचना है। भगवन् ! नपुसक वेद किस प्रकार का है ? हे प्रायुष्मान् श्रमण गौतम ! महानगर के दाह के समान (सब अवस्थाओं में धधकती कामाग्नि के समान) कहा गया है। विवेचन--प्रस्तुत सूत्र में नपुंसकवेद की बंधस्थिति कही गई है। स्थिति दो प्रकार की होती है-१. बंधस्थिति और 2. अनुभवयोग्य (उदयावलिका में आने योग्य) स्थिति / नपुसकवेद की बंधस्थिति जघन्य से पल्योपम के असंख्यातवें भाग से न्यून एक सागरोपम का 3 भाग प्रमाण है। उत्कृष्ट स्थिति बीस कोडाकोडी सागरोपम की है। यहाँ जघन्यस्थिति प्राप्त करने की जो विधि पूर्व में कही है, वह ध्यान में रखनी चाहिए / वह इस प्रकार है कि जिस प्रकृति की जो उत्कृष्ट स्थिति है, इसमें मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोडाकोडी सागरोपम का भाग देने पर जो राशि प्राप्त होती है, उसमें पल्योफ्म का असंख्यातवां भाग कम करने पर उस प्रक्रति की स्थिति प्राप्त होती है। यहाँ नपुसकवेद की उत्कृष्ट स्थिति बीस कोडाकोडी सागरोपम की है, उसमें सत्तर कोडाकोडी का भाग देने पर (शून्यं शून्येन पातयेत्-शून्य को शून्य से काटने पर) सागरोपम लब्धांक होता है। इसमें पल्योपम का असंख्यातवां भाग कम करने पर नपुसकवेद की जघन्य स्थिति प्राप्त होती है। नपुसकवेद का अबाधाकाल दो हजार वर्ष का है। अबाधाकाल प्राप्त करने का नियम यह है कि जिस कर्मप्रकति की उत्कृष्टस्थिति जितने कोडाकोडी सागरोपम की है.. उतने सौ वर्ष की उसकी अबाधा होती है। बीस कोडाकोडी सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति वाले नपुसकवेद की अबाधा बीस सौ वर्ष अर्थात् दो हजार वर्ष की हुई। बंधस्थिति में से अबाधा कम करने पर जो स्थिति बनती है वही जीव को अपना फल देती है अर्थात् उदय में पाती है। इसलिए अबाधाकाल से हीन शेष स्थिति का कर्मनिषेक होता है अर्थात् अनुभवयोग्य कर्मदलिकों की रचना होती है--कर्मदलिक उदय में आने लगते हैं। नपुसकवेद की बंधस्थिति सम्बन्धी प्रश्न के पश्चात् गौतम स्वामी ने नपुसकवेद का वेदन किस प्रकार का होता है, यह प्रश्न पूछा। इसके उत्तर में प्रभु ने फरमाया कि हे आयुष्मान् श्रमण गौतम ! नपुंसकवेद का वेदन महानगर के दाह के समान होता है। जैसे किसी महानगर में फैली हुई आग की ज्वालाएँ चिरकाल तक धधकती रहती हैं तथा उत्कट होती हैं, उसी प्रकार नपुसक की कामाग्नि चिरकाल तक धधकती रहती है और अतितीव्र होती है / वह आदि, मध्य और अन्त तक सब अवस्थाओं में उत्कट बनी रहती है / इस प्रकार नपुसक सम्बन्धी प्रकरण पूरा हुआ। नवविध अल्पबहुत्व ___62. [1] एतेसि णं भंते ! इत्थीणं पुरिसाणं नपुसकाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा, बहुया वा, तल्ला वा, विसेसाहिया वा ? Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 182] [जीवाजीवाभिगमसूत्र गोयमा ! सन्वत्थोवा पुरिसा, इत्थीओ संखिज्जगुणाओ, णसगा अणंतगुणा। [2] एएसि' णं भंते ! तिरिक्खजोणि-इत्थीणं तिरिक्खजोणियपुरिसाणं तिरिक्खजोणियणपुसकाण य कयरे कयरेहिन्तो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा ! सम्वत्थोवा तिरिक्खजोणियपुरिसा, तिरिक्खजोणि-इत्थीओ असंखेज्जगुणाओ, तिरिक्खजोणियनसगा अणंतगुणा / [3] एतेसि णं भंते ! मणुस्सित्थीणं, मणुस्सपुरिसाणं, मणुस्सनपुसकाण य कयरे कयरेहिन्तो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा ! सम्वत्थोवा मणुस्सपुरिसा, मणुस्सित्थीओ संखेज्जगुणाओ, मणुस्सनपुंसका असंखेज्जगुणा। [4] एतेसि णं भंते ! देविस्थीणं देवपुरिसाणं रइयणपुसकाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा रइयणपुसका, देवपुरिसा असंखेज्जगुणा देविस्थीओ संखेज्जगुणाओ। [5] एतेसि णं भंते ! तिरिक्खजोणित्थोणं तिरिक्खजोणियपुरिसाणं तिरिवखजोणियनपुसगाणं, मणुस्सित्थीणं, मणुस्सपुरिसाणं, मणुस्सनपुंसगाणं, देवित्थीणं, देवपुरिसाणं णेरइयणघुसकाण य कयरे कयरेहितो, अप्पा वा बहुआ वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वोत्थोवा मणुस्सपुरिसा, मणुस्सित्थीओ, संखेज्जगुणाओ, मणुस्सणसगा असंखेज्जगुणा, गेरइयणपुसका असंखेज्जगुणा, तिरिक्खजोणियपुरिसा असंखेज्जगुणा, तिरिक्खजोणिस्थियाओ संखेज्जगुणाओ, देवपुरिसा असंखेज्जगुणा, देवित्थियाओ संखेज्जगुणाओ, तिरिक्खजोणियगपुसगा अणंतगुणा। [6] एतेसि णं भंते ! तिरिक्खजोणित्थोणं, जलयरीणं थलयरीणं खहयरीणं तिरिक्खजोणियपुरिसाणं, जलयराणं थलयराणं खहयराणं तिरिक्खजोणियनपुसगाणं एगिदियतिरिक्खनोणियणपुंसगाणं पुढविकाइय-एगिदिय-तिरिक्खजोणियणपुसकाणं जाव वणस्सइकाइय-एगिदिय तिरिक्खजोणियणपुसकाणं, बेइंदिय-तिरिक्खजोणियणपुसगाणं तेइंदिय० चरिदिय० पंचेंदिय तिरिक्खजोणियणपुंसगाणं जलयराणं थलयराणं खहयराणं कयरे कयरहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा ! सम्वत्थोवा खहयरतिरिक्खजोणिय पुरिसा, खहयर तिरिक्खजोणिस्थियाओ संखेज्जगुणाओ, थलयर पंचिविय तिरिक्खजोणियपुरिसा संखेज्जगुणा, थलयर पंचिदिय तिरिक्खजोणित्थियामो संखेज्जगुणाओ, जलयर तिरिक्खजोणिय पुरिसा संखिज्जगुणा, जलयर तिरिक्खजोणित्थियामो संखेज्जगुणाओ, खहयरपंचिदिय तिरिक्खजोणिय णपुसका असंखेज्जगुणा, थलयर१. 'एयासिं णं' ऐसा पाठ वृत्तिकार ने माना है। Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रतियत्ति : नवविध अल्पबहुत्व] [183 पंचिदिय तिरिक्खजोणिय नपुंसगा संखेज्जगुणा, जलयर पंचिदिय तिरिक्खजोणिय नपुसगा संखेज्जगुणा, चरिदिय तिरि० विसेसाहिया, तेइंदिय णपुसका विसेसाहिया, बेइंदिय नपुसका विसेसाहिया, तेउक्काइय एगिदिय तिरिक्खजोणिय णपुंसका असंखेज्जगुणा, पुढवि० णपुसका विसेसाहिया, प्राउ० विसेसाहिया, वाउ० विसेसाहिया, वणप्पइ० एगिदिय णपुंसका अणंतगुणा। [7] एतेसि णं भंते ! मणुस्सित्थीणं कम्मभूमियाणं, अकम्मभूमियाणं अंतरदीबियाणं, मणुस्सपुरिसाणं कम्मभूमकाणं अकम्मभूमकाणं अंतरदोषकाणं, मणुस्सनपुसकाणं कम्मभूमाणं अकम्मभूमाणं अंतरदीवकाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा, बहुया वा, तुल्ला वा, विसेसाहिया वा ? | गोयमा ! अंतरदोवगा मणुस्सिस्थियाओ मणुस्सपुरिसा य, एते णं दुन्नि वि तुल्ला वि सम्वत्थोवा, देवकुरु-उत्तरकुरु अफम्मभूमग मणुस्सिस्थियाओ मणुस्सपुरिसा एतेणं दोन्नि वि तुल्ला संखेज्जगुणा, हरिवास-रम्मयवास-प्रकम्मभूमग मणुस्सित्थियाओ मणुस्सपरिसा य एते गं दोन्नि वि तुल्ला संखेज्जगुणा, हेमवत हेरण्यवत अकम्मभूमक मणुस्सिस्थियाओ मणुस्स पुरिसा य दो वि तुस्ला संखेज्जगुणा, भरहेरवत-कम्मभूमग मणुस्सपुरिसा दो वि संखेज्जगुणा, भरहेरवत कम्मभूमग मणुस्सित्थियाओ दो वि संखेज्जगुणाओ। पुग्यविवेह-अवर विदेह कम्मभूमग मणुस्सपुरिसा दो वि संखेज्जगुणा, पुश्वविवेह-अवर विदेह कम्मभूमग मणुस्सिस्थियाओ दो वि संखेज्जगुणाम्रो, अंतरदीवग मणुस्सणसका असंखेज्जगुणा, देवकुरु-उत्तरकुरु अकम्मभूमगमणुस्स नपुसका दो वि संखेज्जगुणा, तहेव जाव पुव्वविदेह कम्मभूमक मणुस्सणपुसका दो वि संखेज्जगुणा। [8] एतासि णं भंते ! देवित्थीणं भवणवासिणीणं वाणमंतरिणीणं जोइसिणीणं वेमाणिणोणं; देवपुरिसाणं भवणवासीणं जाव वेमाणियाणं सोहम्मकाणं जाव गेवेज्जकाणं अणुत्तरोववाइयाणं, णेरइयणपुसकाणं रयप्पभापुढविणेरइय णपुंसगाणं जाव अहेसत्तमपुढवि नेरइयाणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? ___ गोयमा ! सव्वत्थोवा अणुत्तरोववाइयदेव पुरिसा, उवरिम गेवेन्जदेव पुरिसा संखेज्जगुणा, तं चेव जाव आणए कप्पे देवपुरिसा संखेज्जगुणा; अहेसप्तमाए पुढवीए णेरइय ण सका असंखेज्जगुणा, छट्ठीए पुढवीए णेरइय नपुसका असंखेज्जगुणा, सहस्सारे कप्पे देव पुरिसा असंखेज्जगुणा, महासुक्के कप्पे देवा असंखेज्जगुणा, पंचमाए पुढवीए णेरइय णपुसका असंखेज्जगुणा, Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 184] [जीवाजीवाभिगमसूत्र लंतए कप्पे देवा असंखेज्जगुणा, चउत्थीए पुढवीए नेरइया असंखेज्जगुणा, बंभलोए कप्पे देवपुरिसा असंखेज्जगुणा, तच्चाए पुढवीए नेरइया असंखेज्जगुणा, माहिदे कप्पे देवपुरिसा असंखेज्जगुणा, सणंकुमारे कप्पे देवपुरिसा असंखेज्जगुणा, वोच्चाए पढवीए नेरइया असंखेज्जगुणा, ईसाणे कप्पे देवपुरिसा असंखेन्जगुणा, ईसाणे कप्पे देवित्थियामओ संखेज्जगुणाम्रो, सोहम्मे कप्पे देवपुरिसा संखेज्जगुणा, सोहम्मे कप्पे देवित्थियाओ संखेज्जगुणाश्रो, भवणवासि देवपुरिसा असंखेज्जगणा, भवणवासि देवित्थियानो संखेज्जगुणाओ, इमीसे रयप्पभापुढवीए नेरइया असंखेज्जगुणा, वाणमंतर देवपुरिसा असंखेज्जगुणा, वाणमंतर देवित्थियाओ संखेज्जगुणाओ, जोतिसिय देवपुरिसा संखेज्जगुणा, जोतिसिय देवित्थियाओ संखेज्जगुणाओ। [9] एतरसिं गं भंते ! तिरिक्खजोणित्थोणं जलयरोणं थलयरीणं खहयरोणं तिरिक्खजोणियपुरिसाणं, जलयराणं थलयराणं खहयराणं तिरिक्खजोणिय नसगाणं, एगिदिय तिरिक्खजोणिय गपुसगाणं पुढविकाइयएगिदिय ति० जो० नपुसकाणं, आउक्काइय एगिदिय ति० जो० गपुसगाणं जाव वणस्सइकाइय एगिदिय ति० जो० णसगाणं, बेइंबिय ति० जो० णपसगाणं, तेइंदिय ति० जो० गपुसकाणं, चरिदिय ति० जो० गपुसगाणं, पंचिदिय ति० जो० गपुसगाणं जलयराणं थलयराणं खहयराणं मणस्सित्थीणं कम्मभूमियाणं अकम्मभूमियाणं अंतरदीवियाणं मणुस्सपुरिसाणं कम्मभूमगाणं अकम्ममूमगाणं अंतरवीवयाणं मणुस्सणपुसगाणं कम्ममूमकाणं अकम्ममूमकाणं अंतरदोवयाणं देविस्थीणं भवणवासिणीणं वाणमंतरिणीणं जोतिसिणीणं वेमाणिणोणं देवपुरिसाणं भवणवासिणीणं वाणमंतराणं जोतिसियाणं वेमाणियाणं सोहम्मकाणं जाव गेवेज्जगाणं अणुत्तरोववाइयाणं नेरइयगपुसकाणं रयणप्पमापुढविनेरइय नपुसकाणं जाव अहेसत्तमपढविणेरइय णपुसकाण य कयरे कयरेहिन्तो अप्पा वा बहुमा वा तल्ला वा विसेसाहिया वा ? Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रतिपत्ति: नवविध अल्पबहुत्व] [185 ___ गोयमा ! अंतरदीवग-अकम्मभूमग मणुस्सित्थीओ मणुस्सपुरिसा य, एते गं दोवि तुल्ला सम्वत्थोवा, देवकुरु-उत्तरकुरु-अकम्मभूमग मस्सिस्थिओ पुरिसा य, एते णं दोवि तुल्ला संखेज्जगुणा, एवं हरिवास-रम्मगवास. अकम्मभूमग मणुस्सित्थाओ मणुस्सपुरिसा य एए णं दोवि तुल्ला संखेज्जगुणा, 'एव' हेमवय-हेरण्णवय-अकम्ममूमगमणुस्सित्थीओ मणुस्सयुरिसा य एए णं दोवि तुल्ला संखेज्जगुणा, भरहेरवय कम्मभूमग मणुस्सपुरिसा दोविसंखेज्जगुणा, भरहेरवय कम्मभूमिगमणुस्सिस्थिओ दोवि संखेज्जगुणाओ, पुग्धविदेह-अवर विदेह कम्मभूमक मणुस्सपुरिसा दोवि संखेज्जगुणा, पुम्वविवेह-अवरविदेह कम्मभूमक मणुस्सित्थियाओ दोवि संखेज्जगुणाओ, अणुत्तरोववाइय देवपुरिसा असंखेज्जगुणा, उपरिमोविज्जा देवपुरिसा संखेज्जगुणा, जाव आणए कप्पे देवपुरिसा संखेज्जगुणा, अहेसत्तमाए पुढवीए नेरइयणपुंसका असंखेज्जगुणा, छट्ठीए पुढवीए नेरइय नपुंसका असंखेज्जगुणा, सहस्सारे कप्पे देवपुरिसा असंखेज्जगुणा, महासुक्के कप्पे देवपुरिसा असंखेज्जगुणा, पंचमाए पुढवीए नेरइयनपुंसका असंखेज्मगुणा, लंतए कप्पे देवपुरिसा असंखेज्जगुणा, चउत्योए पुढवीए नेरइय नपुसका असंखेज्जगुणा, बंभलोए कप्पे देवपुरिसा असंखेन्जगुणा, तच्चए पुढवीए नेरइय गपुंसका असंखेज्जगुणा, माहिदे कप्पे देवपुरिसा असंखेज्जगुणा, सणंकुमारे कप्पे देवपुरिसा असंखेज्जगुणा, वोच्चाए पुढवीए नेरइय नपुंसका असंखेज्जगुणा, अंतरवीवग-अकम्ममूमग मणुस्सनपुंसका असंखेज्जगुणा, वेवकुरु-उत्तरकुरु-अकम्मभूमग मणुस्सणपुसका दो वि संखेज्जगुणा एवं जाव विवेह ति, ईसाणे कप्पे देवपुरिसा असंखेज्जगुणा, ईसाणे कप्पे देविस्थियानो संखेज्जगुणा, सोहम्मे कप्पे देवपुरिसा संखेज्मगुणाओ, सोहम्मे कप्पे देविस्थियाओ संखेज्जगुणाओ, भवनवासि देवपुरिसा असंखेज्जगुणा, भवनवासि देवित्थियाओ संखेज्जगुणाओ, Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 186] [ जीवाजीवाभिगमसूत्र इमीसे रयप्पयाए पुढवीए णेरइयणपुंसका असंखेज्जगुणा, खयर तिरिक्खजोणिय पुरिसा संखेज्जगुणा, खहयर तिरिक्खजोणित्थियाओ संखेज्जगुणानो, थलयर तिरिक्खजोणिय पुरिसा संखेज्जगुणा, थलयर तिरिक्खजोणित्थियाओ संखेज्जगुणाओ, जलयर तिरिक्ख पुरिसा संखेज्जगुणा, जलयर तिरिक्खजोणित्थियानो संखेज्जगुणाप्रो, वाणमंतर देवपुरिसा संखेज्जगुणा, वाणमंतर देवित्थियाओ संखेज्जगुणाओ, जोइसिय देवपुरिसा संखेज्जगणा, जोइसियदेविस्थियाओ संखेज्जगुणाओ, खहयर पंचिदिय तिरिक्खजोणिय ण सगा संखेज्जगुणा, थलयर णपुसका संखेज्जगुणा, जलयरणसगा संखिज्जगुणा, चरिदिय णपुंसका विसेसाहिया, तेइंदिय णपुंसका विसेसाहिया, बेइंदिय णपुंसका विसेसाहिया, तेउक्काइय एगिदिय तिरिक्खजोणिय णपुसका असंखेज्जगुणा, पुढविकाइय० णयुसका विसेसाहिया, आउक्काइय० णपुंसका विसेसाहिया, वाउक्काइय० णपुंसका विसेसाहिया, वणप्फइकाइय एगिदिय तिरिक्खजोणिय णपुंसका अणंतगुणा / [62] (1) भगवन् ! इन स्त्रियों में, पुरुषों में और नपुंसकों में कौन किससे कम, अधिक, तुल्य या विशेषाधिक है ? गौतम ! सबसे थोड़े पुरुष, स्त्रियां संख्यातगुणी और नपुंसक अनन्तगुण हैं / (2) भगवन् ! इन तिर्यक्योनिक स्त्रियों में, तिर्यक्योनिक पुरुषों में और तिर्यक्योनिक नपुंसकों में कौन किससे कम, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? / गौतम ! सबसे थोड़े तिर्यक्योनिक पुरुष, तिर्यक्योनिक स्त्रियां उनसे असंख्यातगुणी और उनसे तिर्यक्योनिक नपुंसक अनन्तगुण हैं / (3) भगवन् ! इन मनुष्यस्त्रियों में, मनुष्यपुरुषों में और मनुष्यनपुसकों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े मनुष्यपुरुष, उनसे मनुष्यस्त्रियां संख्यातगुणी, उनसे मनुष्यनपुसक असंख्यातगुण हैं। Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रतिपति : नवविध अल्पबहुत्व] [187 (4) भगवन् ! इन देवस्त्रियों में, देवपुरुषों में और नैरयिकनपुंसकों में कौन किससे कम, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? ___ गौतम ! सबसे थोड़े नैरयिकनपुंसक, उनसे देवपुरुष असंख्यातगुण, उनसे देवस्त्रियां संख्यातगुणा हैं। (5) हे भगवन् ! इन तिर्यक्योनिकस्त्रियों, तिर्थक्योनिकपुरुषों, तिर्यक्योनिकनपुसकों में, मनुष्यस्त्रियों, मनुष्यपुरुषों और नपुंसकों में, देवस्त्रियों, देवपुरुषों और नैरयिकनपुंसकों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े मनुष्यपुरुष, उनसे मनुष्यस्त्रियां संख्यातगुणी, उनसे मनुष्यनपुंसक असंख्यातगुण, उनसे नैरयिकनपुंसक असंख्यातगुण, उनसे तिर्यक्योनिकपुरुष असंख्यातगुण, उनसे तिर्यक्योनिकस्त्रियां संख्यातगुणी, उनसे देवपरुष असंख्यातगुण, उनसे देवस्त्रियां संख्यातगुण, उनसे तिर्यक्योनिक नपुंसक अनन्तगुण हैं / (6) हे भगवन् ! इन तिर्यक्योनिकस्त्रियों-जलचरी, स्थलचरी, खेचरी, तिर्यक्योनिकपुरुष-जलचर, स्थलचर, खेचर, तिर्यंचयोनिक नपुसक एकेन्द्रिय ति. यो. नपुसक, पृथ्वीकायिक एके. ति. यो. नपुसक यावत् वनस्पतिकायिक एके. ति. यो. नपुसक, द्वीन्द्रिय ति. यो. नपुसक, त्रीन्द्रिय ति. यो. नपुसक, चतुरिन्द्रिय ति. यो. नपुसक, पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुसक, जलचर, स्थलचर और खेचर नपुंसकों में कौन किससे कम, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े खेचर तिर्यकयोनिक पुरुष, उनसे खेचर तिर्यक्योनिक स्त्रियां संख्यातगुणी, उनसे स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक पुरुष संख्यातगुण, उनसे स्थल. पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक स्त्रियां संख्यातगुणी, उनसे जलचर तिर्यक्योनिक पुरुष संख्यातगुण, उनसे जलचर तिर्यक्योनिक स्त्रियां संख्यातगुणी, उनसे खेचर पंचे. तिर्यक्योनिक नपुसक असंख्यातगुण, उनसे स्थलचर पंचे. तिर्यक्योनिक नपुसक संख्यातगुण, उनसे जलचर पंचे. तिर्यक्योनिक नपुसक संख्यातगुण, उनसे चतुरिन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुसक विशेषाधिक, उनसे त्रीन्द्रिय ति. यो. नपुसक विशेषाधिक, उनसे द्वीन्द्रिय ति. यो. नपुसक विशेषाधिक, उनसे तेजस्कायिक एकेन्द्रिय ति. यो. नपुसक असंख्यातगुण, Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 188] [नोवानीवाभिगमसूत्र उनसे पृथ्वीकायिक एके. ति. यो. नपुसक विशेषाधिक, उनसे अपकायिक एके. ति. यो. नपुसक विशेषाधिक, उनसे वायुकायिक एके. ति. यो. नपुसक विशेषाधिक, उनसे वनस्पतिकायिक एकेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक नपुसक अनन्तगुण हैं / (7) हे भगवन् ! इन मनुष्यस्त्रियों में कर्मभूमिक स्त्रियों, अकर्मभूमिक स्त्रियों और अन्तरर्दीपिक मनुष्यस्त्रियों में, मनुष्यपुरुषों-कर्मभूमिक, अकर्मभूमिक और अन्तरर्दीपकों में, मनुष्य नपुंसक-कर्मभूमिक, अकर्मभूमिक और अन्तरर्दीपिक नपुंसकों में कौन किससे कम, अधिक, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? ___गौतम ! अन्तरर्दीपिक मनुष्यस्त्रियां और मनुष्यपुरुष-ये दोनों परस्पर तुल्य और सबसे थोड़े हैं, ___ उनसे देवकुरु-उत्तरकुरु अकर्मभूमिक मनुष्य स्त्रियां और मनुष्यपुरुष-ये दोनों परस्पर तुल्य और संख्यातगुण हैं, उनसे हरिवर्ष-रम्यकवर्ष अकर्मभूमिक मनुष्यस्त्रियां और मनुष्यपुरुष परस्पर तुल्य और संख्यातगुण हैं, उनसे हैमवत-हैरण्यवत अकर्मभूमिक मनुष्यस्त्रियां और मनुष्यपुरुष परस्पर तुल्य और संख्यातगुण हैं, उनसे भरत-ऐरवत-कर्मभूमिक मनुष्यपुरुष दोनों संख्यातगुण हैं, उनसे भरत-ऐरवत-कर्मभूमिक मनुष्यस्त्रियां दोनों संख्यातगुण हैं, उनसे भरत-ऐरवत-कर्मभूमिक मनुष्यपुरुष दोनों संख्यातगुण हैं, उनसे पूर्वविदेह-पश्चिमविदेह कर्मभूमक मनुष्यपुरुष दोनों संख्यातगुण है, उनसे पूर्वविदेह-पश्चिमविदेह कर्मभूमक मनुष्यस्त्रियां दोनों संख्यातगुणी हैं, उनसे अन्तरर्दीपिक मनुष्यनपुंसक असंख्यातगुण हैं, उनसे देवकुरु-उत्तरकुरु अकर्मभूमिक मनुष्य नपुंसक दोनों संख्यातगुण हैं, इसी तरह यावत् पूर्वविदेहकर्मभूमिक मनुष्यनपुंसक, पश्चिमविदेह कर्मभूमिक मनुष्यनपुंसक दोनों संख्यातगुण हैं। (8) भगवन् ! इन देव स्त्रियों में, भवनवासिनियों में, वाणव्यन्तरियों में, ज्योतिषीस्त्रियों में और वैमानिकस्त्रियों में, देवपुरुषों में भवनवासी यावत् वैमानिकों में, सौधर्मकल्प यावत् ग्रैवेयक देवों में अनुत्तरोपपातिक देवों में, नरयिक नपुंसकों में-रत्नप्रभा नैरयिक नपुंसकों यावत् अधःसप्तमपृथ्वी नैरयिक नपुंसकों में कौन किससे कम, अधिक, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े अनुत्तरोपपातिक देवपुरुष, उनसे उपरिम वेयक देवपुरुष संख्यातगुण, इसी तरह यावत् प्रानतकल्प के देवपुरुष संख्यातगुण, उनसे अधःसप्तमपृथ्वी के नैरयिक नपुसक असंख्यातगुण, Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रतिपत्ति : नवविध अल्पबहुत्व] [189 उनसे छठी पृथ्वी के नैरयिक नपुसक असंख्यातगुण, उनसे सहस्रारकल्प के देवपुरुष असंख्यातगुण, उनसे महाशुक्रकल्प के देवपुरुष प्रसंख्यातगुण, उनसे पांचवीं पृथ्वी के नैरयिक नपुंसक असंख्यातगुण, उनसे लान्तककल्प के देव असंख्यातगुण, उनसे चौथी पृथ्वी के नैरयिक असंख्यातगुण, उनसे ब्रह्मलोककल्प के देवपुरुष असंख्यातगुण, उनसे तीसरी पृथ्वी के नैरयिक नपुसक असंख्यातगुण, उनसे माहेन्द्रकल्प के देवपुरुष असंख्यातगुण, उनसे सनत्कुमारकल्प के देवपुरुष असंख्यातगुण, उनसे दूसरी पृथ्वो के नैरयिक नपुसक असंख्यातगुण, उनसे ईशानकल्प के देवपुरुष असंख्यातगुण, उनसे ईशानकल्प की देवस्त्रियां संख्यातगुणी, उनसे सौधर्मकल्प के देवपुरुष संख्यातगुण, उनसे सौधर्मकल्प की देवस्त्रियां संख्यातगणी उनसे भवनवासी देवपुरुष असंख्यातगुण, उनसे भवनवासी देवस्त्रियां संख्यातगुणी, उनसे इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक नपुसक असंख्यातगुण, उनसे वानव्यन्तर देवपुरुष असंख्यातगुण, उनसे वानव्यन्तर देवस्त्रियां संख्यातगुणी, उनसे ज्योतिष्कदेवपुरुष संख्यातगुण, उनसे ज्योतिष्क देवस्त्रियां संख्यातगुणी हैं / (9) हे भगवन् ! इन तिर्यक्योनिक स्त्रियों-जलचरी स्थलचरी व खेचरियों में, तिर्यक्योनिक पुरुषों--जलचर, स्थलचर खेचरों में, तिर्यक्योनिक नपुसकों-एकेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक नपुसकों, पृथ्वीकायिक एके. ति नपुसकों, अप्कायिक एके. ति. नपुसकों यावत् वनस्पतिकायिक एके. ति. नपुसकों में, द्वीन्द्रिय ति. नपुसकों में श्रीन्द्रिय ति. नपुसकों में, चतुरिन्द्रिय ति. नपुसकों में, पंचेन्द्रिय ति. नपसकों-जलचर, स्थलचर, खेचर नपुसकों में, मनुष्यस्त्रियों-कर्मभूमिका, अकर्मभूमिका, अन्तर्वीपिका स्त्रियों में, मनुष्यपुरुषों-कर्मभूमिक, अकर्मभूमिक, अन्तर्वीपिकों में, मनुष्य नपुसकों-कर्मभूमिक, अकर्मभूमिक, अन्तरद्वीपकों में, देवस्त्रियों-भवनवासिनियों, वानव्यन्तरियों, ज्योतिषिणियों में, वैमानिक देवियों में, देवपुरुषों में--भवनवासी, वानव्यन्तर ज्योतिष्क, वैमानिक देवों में, सौधर्मकल्प यावत् अवेयकों में, अनुत्तरोपपातिक देवों में, नैरयिक नपुसकों-रत्नप्रभापृथ्वी नरयिक नपुसकों यावत् अधःसप्तम पृथ्वी नै रयिक नपुंसकों में कौन किससे अल्प, अधिक, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! अन्तर्दीपिक अकर्मभूमिक मनुष्य स्त्रियां और मनुष्यपुरुष--ये दोनों परस्पर तुल्य और सबसे थोड़े हैं, Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 190] [जीवाजोवाभिगमसूत्र ___ उनसे देवकुरु-उत्तरकुरु अकर्मभूमिक मनुष्य स्त्रियां और पुरुष दोनों तुल्य और संख्यात इसी प्रकार अकर्मभूमिक हरिवर्ष-रम्यकवर्ष को मनुष्यस्त्रियां और मनुष्यपुरुष दोनों तुल्य और संख्यातगुण हैं / इसी प्रकार हैमवत-हैरण्यवत के स्त्री पुरुष तुल्य व संख्यातगुण हैं। भरत-ऐरवत कर्मभूमिग मनुष्यपुरुष दोनों यथोत्तर संख्यातगुण हैं, उनसे भरत-एरवत कर्मभूमिक मनुष्यस्त्रियां दोनों संख्यातगुण हैं, उनसे पूर्व विदेह-पश्चिमविदेह कर्मभूमिक मनुष्यपुरुष दोनों संख्यातगुण हैं, उनसे पूर्वविदेह-पश्चिमविदेह कर्मभूमिक मनुष्यस्त्रियां दोनों संख्यातगुण हैं, उनसे अनुत्तरोपपातिक देवपुरुष असंख्यातगुण हैं, उनसे उपरिम वेयक देवपुरुष संख्यातगुण हैं, उनसे यावत् प्रानतकल्प के देवपुरुष यथोत्तर संख्यातगुण हैं, उनसे अधःसप्तमपथ्वी के नैरयिक नपसक असंख्यातगुण हैं, उनसे छठी पृथ्वी के नैरयिक नपुसक असंख्यातगुण हैं, उनसे सहस्रारकल्प में देवपुरुष असंख्यातगुण हैं, उनसे महाशुक्रकल्प के देवपुरुष असंख्यातगुण हैं, उनसे पांचवीं पृथ्वी के नैर यिक नपुसक असंख्यातगुण हैं, उनसे लान्तककल्प के देवपुरुष असंख्यातगुण हैं, उनसे चौथी पृथ्वी के नरयिक नपुसक असंख्यातगुण हैं, उनसे ब्रह्मलोककल्प के देवपुरुष असंख्यातगुण हैं, उनसे तीसरी पृथ्वी के नैरयिक नपुसक असंख्यातगुण हैं, उनसे माहेन्द्रकल्प के देवपुरुष असंख्यातगुण हैं, उनसे सनत्कुमारकल्प के देवपुरुष असंख्यातगुण हैं, उनसे दूसरी पृथ्वी के नैरयिक नपुंसक असंख्यातगुण हैं, उनसे अन्तर्वीपिक अकर्मभूमिक मनुष्य नपुसक असंख्यातगुण हैं, उनसे देवकुरु-उत्तरकुरु अकर्मभूमिक मनुष्य नपुसक दोनों संख्यातगुण हैं, इस प्रकार यावत् विदेह तक यथोत्तर संख्यातगुण कहना चाहिए, उनसे ईशानकल्प में देवपुरुष असंख्यातगुण हैं, उनसे ईशानकल्प में देवस्त्रियां संख्यातगुणी हैं, उनसे सौधर्मकल्प में देवपुरुष संख्यातगुण हैं, उनसे सौधर्मकल्प में देवस्त्रियां संख्यातगुणी हैं, उनसे भवनवासी देवपुरुष असंख्यातगुण हैं, उनसे भवनवासी देवस्त्रियां संख्यातगुणी हैं, उनसे इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक नपुसक असंख्यातगुण हैं, उनसे खेचर तिर्यक्योनिक पुरुष संख्यातगुण हैं, उनसे खेचर तिर्यस्त्रियां संख्यातगुणी हैं, उनसे स्थलचर तिर्यक्योनिक पुरुष संख्यातगुण हैं, Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रतिपत्ति: नवविध अल्पबहत्व] [191 उनसे स्थलचर तिर्यक्योनिक स्त्रियां संख्यातगुणी हैं, उनसे जलचर तिर्यक्योनिक पुरुष संख्यातगुण हैं, उनसे जलचर तिर्यक्योनिक स्त्रियां संख्यातगुण हैं, उनसे वानव्यन्तर देवपुरुष संख्यातगुण हैं, उनसे वानव्यन्तर देवियां संख्यातगुणी हैं, उनसे ज्योतिष्क देवपुरुष संख्यातगुण हैं, उनसे ज्योतिष्क देवास्त्रियां संख्यातगुण हैं, उनसे खेचर पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुसक संख्यातगुण हैं, उनसे स्थलचर ति.यो. नपुसक संख्यातगुण हैं, उनसे जलचर ति. यो. नपुसक संख्यातगुण हैं, उनसे चतुरिन्द्रिय नपुसक विशेषाधिक हैं, उनसे श्रीन्द्रिय नपुसक विशेषाधिक हैं, उनसे द्वीन्द्रिय नपसक विशेषाधिक हैं, उनसे तेजस्कायिक एके. ति. यो. नपुसक असंख्यातगुण हैं, उनसे पृथ्वीकायिक एके. ति. यो. नपुसक विशेषाधिक हैं, उनसे अप्कायिक एके. ति. यो. नपुसक विशेषाधिक हैं, उनसे वायुकायिक एके. ति. यो. नपुसक विशेषाधिक हैं, उनसे वनस्पतिकायिक एकेन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुसक अनन्तगुण हैं। विवेचन--प्रस्तुत सूत्र में नौ अल्पबहुत्व को वक्तव्यता है / (1) प्रथम अल्पबहुत्व सामान्य से स्त्री, पुरुष और नपुसक को लेकर है। (2) दुसरा अल्पबहुत्व सामान्य से तिर्यक्योनिक स्त्री, पुरुष और नपुसक विषयक है। (3) तीसरा अल्पबहत्व सामान्य से मनुष्य स्त्री, पुरुष और नपुसक को लेकर है / (4) चौथा अल्पबहत्व सामान्य से देवी स्त्री, पुरुष और नारक नपुसक को लेकर है। देवों में नपुंसक नहीं होते और नारक केवल नपुंसक ही होते हैं, अतः देवस्त्री देवपुरुष के साथ नारकनपुसकों का अल्पबहुत्व बताया गया है। (5) पांचवें अल्पबहुत्व में सामान्य को अपेक्षा पूर्वोक्त सबका मिश्रित अल्पबहुत्व कहा है। (6) छठा अल्पबहुत्व विशेष को लेकर (भेदों की अपेक्षा से) तिर्यक्योनिक स्त्री, पुरुष नपुंसक विषयक है। (7) सातवां अल्पवहुत्व विशेष-भेदों की अपेक्षा से मनुष्य स्त्री, पुरुष, नपुसक के संबंध में है / (8) पाठवां अल्पबहुत्व विशेष की अपेक्षा से देव स्त्री, पुरुष और नारक नपुसकों को लेकर कहा गया है। (9) नौवां अल्पबहुत्व तिर्यंच और मनुष्य के स्त्री पुरुष एवं नपुंसक तथा देवों के स्त्री, पुरुष तथा नारक नपसकों का-सब विजातीय व्यक्तियों का मिश्रित अल्पबहुत्व है। मलयगिरिवृत्ति में यहाँ आठ ही अल्पबहुत्व का उल्लेख है। पहला अल्पबहुत्व जो सामान्य स्त्री-पुरुष-नपुसक को लेकर कहा गया है, उसका वत्ति में उल्लेख नहीं है / वृत्तिकार ने 'एयासिं गं भंते ! तिरिक्खजोणिय इत्थीण' पाठ से ही अल्पबहुत्व का प्रारंभ किया है / Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 192] [जीवाजीवाभिगमसूत्र अल्पबहुत्व की व्याख्या मूलार्थ से ही स्पष्ट है और पूर्व में अलग-अलग प्रसंगों में सब प्रकार के जीवों का प्रमाण और उसकी समझाइश हेतुपूर्वक दे दी गई है, अतएव यहाँ पुनः उसे दोहराना अनावश्यक ही है। समुदाय रूप में स्त्री-पुरुष-नपुसकों की स्थिति 63. इत्थीणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णता? गोयमा ! एगेणं आएसेणं जहा पुचि माणियं, एवं पुरिसस्स वि नपुसकस्स वि। संचिढणा पुनरवि तिण्हंपि जहा पुग्वि भाणिया, अंतरं पि तिण्हं पि जहा पुग्वि माणियं तहा नेयव्वं / [63] भगवन् ! स्त्रियों की कितने काल की स्थिति कही गई है ? गौतम ! 'एक अपेक्षा से' इत्यादि कथन जो स्त्री-प्रकरण में किया गया है, वही यहाँ कहना चाहिए / इसी प्रकार पुरुष और नपुसक की भी स्थिति आदि का कथन पूर्ववत् समझना चाहिए / तीनों की संचिट्ठणा (कायस्थिति) और तीनों का अन्तर भी जो अपने-अपने प्रकरण में कहा गया है, वही यहाँ (समुदाय रूप से) कहना चाहिए। विवेचन--प्रस्तुत सूत्र में स्त्री, पुरुष और नपुसकों को लेकर जो कालस्थिति (भवस्थिति), संचिट्टणा (कायस्थिति) और अन्तर आदि का पूर्व में पृथक-पृथक प्रकरण में वर्णन किया गया है, उसी का समुदायरूप में संकलन है। जो कथन पहले अलग-अलग प्रकरणों में किया गया है, उसका यहां समुदाय रूप से कथन अभिप्रेत होने से पुनरुक्ति दोष का प्रसंग नहीं है। वृत्तिकार ने यहां वह पाठ माना है जो अल्पबहुत्व सम्बन्धी पूर्ववर्ती सूत्र के प्रथम अल्पबहुत्व के रूप में दिया गया है / वह इस प्रकार है-'एयासिं णं भंते इत्थीणं पुरिसाणं नपुसकाण य कयरे कयरेहिन्तो अप्पा वा 4 ? सब्वथोवा पुरिसा, इत्थीयो संखेज्जगुणामो, नपुसका अणंतगुणा।' उक्त अल्पबहुत्व में समुदायरूप स्त्री-पुरुष एवं नपुसकों का कथन होने से वृत्तिकार ने इसे सामुदायिक प्रकरण में लिया है। सामुदायिक स्थिति, संचिट्ठणा और अन्तर के साथ ही सामुदायिक अल्पबहुत्व होने से यहाँ यह पाठ विशेष संगत होता है। लेकिन अल्पबहुत्व के साधर्म्य से पाठ अल्पबहुत्वों के साथ उसे प्रथम अल्पबहुत्व के रूप में पूर्वसूत्र में दे दिया है। इस प्रकार केवल स्थानभेद हैं--प्राशय भेद नहीं है। स्त्रियों की पुरुषों से अधिकता 64. तिरिक्खजोणित्थियाओ तिरिक्खजोणियपुरिसे हितो तिगुणानो तिरूवाषियाओ, मस्सित्थियाओ मणुस्सपुरिसेहितो सत्तावीसइगुणाओ सत्तावोसइरूवाहियानो देविस्थियाओ देवपुरिसेहितो बत्तीसइगुणाओ बत्तीसइरूवाहियानो। से तं तिविहा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता। तिविहेसु होइ मेयो, ठिई य संचिढणंतरप्पबहुं / वेवाण य बंधठिई वेओ तह किंपगारो उ // 1 // से तं तिविहा संसारसमापन्नगा जीवा पण्णत्ता। Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रतिपत्ति: स्त्रियों की पूरुषों से अधिकता] [193 [64] तिर्यक्योनि की स्त्रियां तिर्यक्योनि के पुरुषों से तीन गुनी और त्रिरूप अधिक हैं। मनुष्यस्त्रियां मनुष्यपुरुषों से सत्तावीसगुनी और सत्तावीसरूप अधिक हैं। देवस्त्रियां देवपुरुषों से बत्तीसगुनी और बत्तीसरूप अधिक हैं। इस प्रकार संसार समापनक जीव तीन प्रकार के हैं, यह प्रतिपादन पूरा हुआ। (संकलित गाथा) तीन वेदरूप दूसरो प्रतिपत्ति में प्रथम अधिकार भेदविषयक है, इसके बाद स्थिति, संचिट्ठणा, अन्तर और अल्पबहुत्व का अधिकार है। तत्पश्चात् वेदों की बंधस्थिति तथा वेदों का अनुभव किस प्रकार का है, यह वर्णन किया गया है। ॥विविधसंसार समापनक जीवरूप दूसरी प्रतिपत्ति समाप्त / विवेचन-पहले कहा गया है कि पुरुषों से स्त्रियां अधिक हैं तो सहज प्रश्न होता है कि कितनी अधिक हैं ? इस जिज्ञासा का समाधान इस सूत्र में किया गया है। तिर्यक्योनि की स्त्रियां तिर्यक् पुरुषों से तीन गुनी हैं अर्थात् संख्या में तीनगुनीविशेष हैं। 'गुण' शब्द गुण-दोष के अर्थ में भी पाता है, अतः उसे स्पष्ट करने के लिए त्रिरूप अधिक विशेषण दिया है / 'गुण' से यहां संख्या अर्थ अभिप्रेत है। __मनुष्यस्त्रियां मनुष्यपुरुषों से सत्तावीसगुनी हैं और देवस्त्रियां देवपुरुषों से बत्तीसगुनी उपसंहार इस दूसरी प्रतिपत्ति के अन्त में विषय को संकलित करने वाली गाथा दी गई है / उसमें कहा गया है कि त्रिविध वेदों की वक्तव्यता वाली इस दूसरी प्रतिपत्ति में पहले भेद, तदनन्तर क्रमशः स्थिति, संचिट्ठणा (कायस्थिति), अन्तर एवं अल्पबहुत्व का प्रतिपादन है / इसके पश्चात् वेदों की बंधस्थिति और वेदों के अनुभवप्रकार का कथन किया गया है / ॥त्रिविध संसारसमापन्नक जीव वक्तव्यतारूप द्वितीय प्रतिपत्ति समाप्त / OC 1. तिगुणा तिरूव अहिया तिरियाणं इत्थिया मुणेयध्वा / सत्तावीसगुणा पुण मनुयाणं तदहिया चेव // 1 // बत्तीसगुणा बत्तीस रूप अहिया उ होंति देवाणं / देवीमो पण्णता जिणेहि जियरागदोसेहिं // 2 // Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विधारया तृतीय प्रतिपत्ति द्वितीय प्रतिपत्ति में संसारसमापन्नक जीवों के तीन भेदों का विवेचन किया गया है। अब क्रम प्राप्त तीसरी प्रतिपत्ति में संसारसमापनक जीवों के चार भेदों को लेकर विवेचन किया जा रहा है / उसका आदिसूत्र इस प्रकार हैचार प्रकार के संसारसमापन्नक जीव 65. तत्थ जे ते एवमाहंसु-चउविहा संसारसमावष्णगा जीवा पणत्ता ते एवमाहंसु, तंजहा--नेरइया, तिरिक्खजोणिया, मणुस्सा, देवा। [65] जो प्राचार्य इस प्रकार कहते हैं कि संसारसमापन्नक जीव चार प्रकार के हैं, वे ऐसा प्रतिपादन करते हैं, यथा-नैरयिक, तिर्यंचयोनिक, मनुष्य और देव / 66. से कि त नेरइया? नेरइया सत्तविहा पण्णत्ता, तंजहा पढमापुढविनेरइया, दोच्चापुढविनेरइया, तच्चापुढविनेरइया चउत्थापुढविनेरइया, पचमापुढविनेरइया, छट्ठापुढविनेरइया, सत्तमा पुढविनेरइया / [66] नैरयिकों का स्वरूप क्या है ? नैरयिक सात प्रकार के कहे गये हैं, यथा-प्रथमपृथ्वीनरयिक, द्वितीयपृथ्वीनै रयिक, तृतीय पृथ्वीनरयिक, चतुर्थपृथ्वीनरयिक, पंचमपृथ्वीनैरयिक, षष्ठपृथ्वीनै रयिक और सप्तमपृथ्वी नैरयिक। 67. पढमा गं भंते ! पुढवी किनामा किंगोता पण्णता? गोयमा ! णामेणं धम्मा, गोत्तेणं रयणप्पभा / वोच्चा णं भंते ! पुढवी किनामा किंगोता पण्णता ? गोयमा ! णामेणं बंसा गोतेणं सक्करप्पभा ? एवं एतेणं अभिलावेणं सव्वासिं पुच्छा, णामाणि इमाणि सेला तच्चा, अंजणा चउत्थी, रिट्ठा पंचमी, मघा छट्ठी, माधवती सत्तमा जाव तमतमागोत्तणं पण्णत्ता। [67] हे भगवन् ! प्रथम पृथ्वी का क्या नाम और क्या गोत्र है ? गौतम ! प्रथम पृथ्वी का नाम 'धम्मा' है और उसका गोत्र रत्नप्रभा है / भगवन् ! द्वितीय पृथ्वी का क्या नाम और क्या गोत्र कहा गया है ? Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: चार प्रकार के संसारसमापन्नक जीव] [195 गौतम ! दूसरी पृथ्वी का नाम वंशा है और गोत्र शर्कराप्रभा है। इस प्रकार सब पृथ्वियों के सम्बन्ध में प्रश्न करने चाहिए। उनके नाम इस प्रकार हैं-तीसरी पृथ्वी का नाम शैला, चौथी पृथ्वी का नाम अंजना, पांचवीं पृथ्वी का नाम रिष्ठा है, छठो पृथ्वी का नाम मघा और सातवीं पृथ्वी का नाम माघवती है / इस प्रकार तीसरी पृथ्वी का गोत्र बालुकाप्रभा, चोथी का पंकप्रभा, पांचवीं का धूमप्रभा, छठी का तमःप्रभा और सातवीं का गोत्र तंमस्तमःप्रभा है। 68. इमा णं भंते ! रयणप्पभापुढवो केवइया वाहल्लेणं पण्णत्ता ? गोयमा ! इमा गं रयणप्पभापुढवी असिउत्तरं जोयणसयसहस्सं बाहल्लेणं पण्णत्ता, एवं एतेणं अभिलावेणं इमा गाहा अणुगंतव्वा असीयं बत्तीसं अट्ठावीसं तहेव बीसं य / अट्ठारस सोलसगं अठ्ठत्तरमेव हिटिमिया // 1 // [68] भगवन् ! यह रत्नप्रभापृथ्वी कितनी मोटी कही गई है ? गौतम ! यह रत्नप्रभापृथ्वी एक लाख अस्सी हजार योजन मोटी है / इसी प्रकार शेष पृथ्वियों की मोटाई इस गाथा से जानना चाहिए ___ 'प्रथम पृथ्वी की मोटाई एक लाख अस्सी हजार योजन की है। दूसरी की मोटाई एक लाख बत्तीस हजार योजन की है। तीसरी की मोटाई एक लाख अट्ठाईस हजार योजन की है / चौथी की मोटाई एक लाख बीस हजार योजन की है। पांचवीं की मोटाई एक लाख अठारह हजार योजन को है। छठी की मोटाई एक लाख सोलह हजार योजन की है। सातवीं की मोटाई एक लाख आठ हजार योजन की है। विवेचन-(सं. 65 से 66 तक) पूर्व प्रतिपादित दस प्रकार की प्रतिपत्तियों में से जो प्राचार्य संसारसमापनक जीवों के चार प्रकार कहते हैं वे चार गतियों के जीवों को लेकर ऐसा प्रतिपादन करते हैं; यथा-१ नरकगति के नैरयिक जीव, 2 तिर्यंचगति के जीव, 3 मनुष्यगति के जीव और 4 देवगति के जीव / ऐसा कहे जाने पर सहज जिज्ञासा होती है कि नैरयिक आदि जीव कहाँ रहते हैं, उनके निवास रूप नरकभूमियों के नाम, गोत्र, विस्तार आदि क्या और कितने हैं ? नरकभूमियों और नारकों के विषय में विविध जानकारी इन सूत्रों में और आगे के सूत्रों में दी गई है / सर्वप्रथम नारक जीवों के प्रकार को लेकर प्रश्न किया गया है। उसके उत्तर में कहा गया है कि नारक जीव सात प्रकार के हैं। सात नरकभूमियों की अपेक्षा से नारक जीवों के सात प्रकार बताये हैं, जैसे कि प्रथमपृथ्वीनैरयिक से लगा कर सप्तमपृथ्वीनैरयिक तक। इसके पश्चात् नरकपृथ्वियों के नाम और गोत्र को लेकर प्रश्न और उत्तर हैं। नाम और गोत्र में अन्तर यह है कि नाम अनादिकालसिद्ध होता है और अन्वर्थरहित होता है अर्थात् नाम में उसके अनुरूप गुण होना आवश्यक नहीं है, जबकि गोत्र गुणप्रधान होता है / सात पृथ्चियों के नाम और गोत्र इस प्रकार हैं Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 196] [जीवाजीवाभिगमसूत्र नाम गोत्र बाहल्य (योजनों में) पृथ्वियां प्रथम पृथ्वी द्वितीय पृथ्वी तृतीय पृथ्वी चतुर्थ पृथ्वी पंचम पृथ्वी षष्ठ पृथ्वी सप्तम पृथ्वी घम्मा वंशा शैला अंजना रिष्टा मधा माघवती रत्नप्रभा शर्कराप्रभा बालुकाप्रभा पंकप्रभा धमप्रभा तमप्रभा तमस्तमप्रभा एक लाख अस्सी हजार एक लाख बत्तीस हजार एक लाख अट्ठावीस हजार एक लाख बीस हजार एक लाख अठारह हजार एक लाख सोलह हजार एक लाख आठ हजार नाम की अपेक्षा गोत्र की प्रधानता है, अतएव रत्नप्रभादि गोत्र का उल्लेख करके प्रश्न किये गये हैं तथा उसी रूप में उत्तर दिये गये हैं। नरकभूमियों के गोत्र अर्थानुसार हैं, अतएव उनके अर्थ को स्पष्ट करते हुए पूर्वाचार्यों ने कहा है कि रत्नों की जहाँ बहुलता हो वह रत्नप्रभा है / यहाँ 'प्रभा' का अर्थ बाहुल्य है। इसी प्रकार शेष पृध्वियों के विषय में भी समझना चाहिए / जहाँ शर्करा (कंकर) की प्रधानता हो वह शर्कराप्रभा। जहाँ बाल की प्रधानता हो वह बालुकाप्रभा / जहाँ कीचड़ की प्रधानता हो पंकप्रभा / ' धुंए की तरह जहाँ प्रभा हो वह धूमप्रभा है / जहाँ अन्धकार का बाहुल्य हो वह तमःप्रभा और जहाँ बहुत घने अन्धकार की बहुलता हो वह तमस्तम:प्रभा है / यहाँ किन्हीं किन्हीं प्रतियों में इन पृथ्वियों के नाम और गोत्र को बताने वाली दो संग्रहणी गाथाएँ दी गई हैं; जो नीचे टिप्पण में दी गई हैं।' इसके पश्चात् प्रत्येक नरकपृथ्वी की मोटाई को लेकर प्रश्नोत्तर हैं। नरकपृथ्वियों का बाहुल्य (मोटाई) ऊपर कोष्ठक में बता दिया गया है / इस विषयक संग्रहणी गाथा इस प्रकार है--- असीयं बत्तीसं अट्ठावीसं तहेव वीसं च / अट्ठारस सोलसगं अछुत्तरमेव हिटिमिया / / इस गाथा का अर्थ मूलार्थ में दे दिया है / स्पष्टता के लिए पुन: यहाँ दे रहे हैं / रत्नप्रभानरकभूमि की मोटाई 1 लाख 80 हजार योजन, शर्कराप्रभा की 1 लाख 32 हजार, बालुकाप्रभा की 1 लाख 28 हजार, पंकप्रभा की 1 लाख 20 हजार, धूमप्रभा की 1 लाख 18 हजार, तम:प्रभा की 1 लाख 16 हजार और तमस्तमःप्रभा को मोटाई 1 लाख 8 हजार योजन की है। अब आगे के सूत्र में रत्नप्रभा आदि नरकपृथ्वियों के भेद को लेकर प्रश्नोत्तर हैं 1. रत्नानां प्रभा बाहुल्यं यत्र सा रत्नप्रभा रत्नबहुलेति भावः ।-वृत्ति 2. धूमस्येव प्रभा यस्याः सा धमप्रभा / 3. घम्मा बंसा सेला अंजण रिद्रा मधा या माधवती। सत्तण्हं पुढवीणं एए नामा उनायव्वा // 1 // रयणा सक्कर बालुयं पंका धुमा तमा य तमतमा। सत्तण्हं पुढवीणं एए गोत्ता मुणेयव्वा // 2 // Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: चार प्रकार के संसारसमापन्नक जीव] [197 66. इमा णं भंते ! रयणप्पभापुढवी कतिविहा पण्णता ? गोयमा ! तिविहा पण्णत्ता, तंजहा-खरकंडे, पंकबहुले कंडे, आवबहुले कंडे / इमोसे णं भंते ! रयणप्पभापुढवीए खरकंडे कतिविहे पण्णते? गोयमा ! सोलसविधे पण्णत्ते, तंजहा–१ रयणकंडे, 2 वइरे 3 वेरुलिए, 4 लोहितयक्खे, 5 मसारगल्ले, 6 हंसगम्भे, 7 पुलए, 8 सोयंधिए, 9 जोतिरसे, 10 अंजणे, 11 अंजणपुलए, 12 रयए, 13 जातरूवे, 14 अंके, 15 फलिहे, 16 रिठेकंडे। इमोसे णं भंते ! रयणप्पभापुढवीए रयणकंडे कतिविहे पण्णते ? गोयमा ! एगागारे पण्णत्ते / एवं जाव रिठे। इमोसे णं भंते ! रयणप्पभापुढवीए पंकबहुले कंडे कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! एगागारे पण्णत्ते / एवं आवबहुले कंडे कतिविहे पण्णते ? गोयमा! एगागारे पण्णत्ते / सक्करप्पभाए णं भंते ! पुढवी कतिविधा पण्णता? गोयमा ! एगागारा पग्णत्ता / एवं जाव अहेसत्तमा / [69] भगवन् ! यह रत्नप्रभापृथ्वी कितने प्रकार की कही गई है ? गौतम ! तीन प्रकार की कही गई है, यथा-१. खरकाण्ड, 2. पंकबहुलकांड और अपबहुल (जल की अधिकता वाला) कांड / भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी का खरकाण्ड कितने प्रकार का कहा गया है ? गौतम ! सोलह प्रकार का कहा गया है, यथा 1. रत्नकांड, 2. वज्रकांड, 3. वैडूर्य, 4. लोहिताक्ष, 5. मसारगल्ल, 6. हंसगर्भ, 7. पुलक, 8. सौगंधिक, 9. ज्योतिरस, 10. अंजन, 11. अंजनपुलक, 12. रजत, 13. जातरूप, 14. अंक, 15. स्फटिक और 16. रिष्ठकांड / भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी का रत्नकाण्ड कितने प्रकार का है ? गौतम ! एक ही प्रकार का है / इसी प्रकार रिष्टकाण्ड तक एकाकार कहना चाहिए। भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी का पंकबहुलकांड कितने प्रकार का है ? गौतम ! एक ही प्रकार का कहा गया है। इसी तरह अपबहुलकांड कितने प्रकार का है। गौतम! एकाकार है। भगवन् ! शर्कराप्रभापृथ्वी कितने प्रकार की है ? गौतम ! एक ही प्रकार की है। इसी प्रकार अधःसप्तमपृथ्वी तक एकाकार कहना चाहिए। Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 198] [जीवाजीवाभिगमसूत्र विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में रत्नप्रभा आदि पृथ्वियों के प्रकार (विभाग) की पृच्छा है। उत्तर में कहा गया है कि रत्नप्रभापृथ्वी के तीन प्रकार (विभाग) हैं, यथा -खरकांड, पंकबहुलकांड और अपबहुलकाण्ड। काण्ड का अर्थ है -विशिष्ट भूभाग / खर का अर्थ है कठिन / रत्नप्रभापृथ्वी का प्रथम खरकाण्ड 16 विभाग वाला है / रत्न काण्ड नामक प्रथम विभाग, वज्रकाण्ड नामक द्वितीय विभाग, वैडर्यकाण्ड नामक ततीय विभाग, इस प्रकार रिष्टरत्नकाण्ड नामक सोलहवां विभाग है। सोलह रत्नों के नाम के अनुसार रत्नप्रभा के खरकाण्ड के सोलह विभाग हैं / प्रत्येक काण्ड एक हजार योजन की मोटाई वाला है / इस प्रकार खरकाण्ड सोलह हजार योजन की मोटाई वाला है। उक्त रत्नकाण्ड से लगाकर रिष्टकाण्ड पर्यन्त सब काण्ड एक ही प्रकार के हैं, अर्थात् इनमें फिर विभाग नहीं है। दूसरा काण्ड पंकबहुल है / इसमें कीचड़ की अधिकता है और इसका और विभाग न होने से यह एक प्रकार का ही है। यह दूसरा काण्ड 84 हजार योजन की मोटाई वाला है / तीसरे अप्बहुलकाण्ड में जल की प्रचुरता है और इसका कोई विभाग नहीं है, एक ही प्रकार का है। यह 80 हजार योजन की मोटाई वाला है / इस प्रकार रत्नप्रभा के तीनों काण्डों को मिलाने से रत्नप्रभा की कुल मोटाई (16+84+80) एक लाख अस्सी हजार हो जाती है। दूसरी नरकपृथ्वी शर्कराप्रभा से लेकर अधःसप्तमपृथ्वी तक की नरकभूमियों के कोई विभाग नहीं हैं / सब एक ही आकार वाली हैं / नरकावासों की संख्या 70. इमीसे गं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए केवइया निरयावाससयसहस्सा पण्णता? गोयमा ! तीसं णिरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता, एवं एएणं अभिलावणं सम्बासि पुच्छा, इमा गाहा अणुगंतव्वा तीसा य पण्णवीसा पण्णरस दसेव तिणि य हवंति। पंचूण सयसहस्सं पंचैव अणुत्तरा गरगा // 1 // जाव अहेसत्तमाए पंच अणुत्तरा महतिमहालया महाणरगा पण्णत्ता, तंजहा-काले, महाकाले, रोरुए, महारोरुए, अपइट्ठाणे / [70] भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी में कितने लाख नरकावास कहे गये हैं ? गौतम ! तीस लाख नरकावास कहे गये हैं। इस गाथा के अनुसार सातों नरकों में नरकावासों को संख्या जाननी चाहिए / प्रथम पृथ्वी में तीस लाख, दूसरी में पच्चीस लाख, तीसरी में पन्द्रह लाख, चौथी में दस लाख, पांचवीं में तीन लाख, छठी में पांच कम एक लाख और सातवीं पृथ्वी में पांच अनुत्तर महान रकावास हैं। अधःसप्तमपृथ्वी में जो बहुत बड़े अनुत्तर महान रकावास कहे गये हैं, वे पांच हैं, यथा--- 1. काल, 2. महाकाल, 3. रौरव, 4. महारौरव और 5. अप्रतिष्ठान / विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में प्रत्येक नरकापृथ्वी में नारकावासों की संख्या बताई गई है / Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सृतीय प्रपित्ति : नरकावासों की संख्या] (1) प्रथम रत्नप्रभापृथ्वी से लगाकर छठी तमःप्रभापृथ्वी पर्यन्त पृथ्वियों में नरकावास दो प्रकार के हैं प्रावलिकाप्रविष्ट और प्रकीर्णक रूप। जो नरकावास पंक्तिबद्ध हैं वे श्रावलिकाप्रविष्ट हैं और जो बिखरे-बिखरे हैं, वे प्रकीर्णक रूप हैं / रत्नप्रभापृथ्वी के तेरह प्रस्तर (पाथड़े) हैं। प्रस्तर गृहभूमि तुल्य होते हैं / पहले प्रस्तर में पूर्वादि चारों दिशाओं में 49-49 नरकावास हैं / चार विदिशामों में 48-48 नरकावास हैं। मध्य में सीमन्तक नाम का नरकेन्द्रक है / ये सब नरकावास होते हैं। शेष बारह प्रस्तरों में प्रत्येक में चारों दिशाओं और चारों विदिशाओं में एक-एक नरकावास कम होने से प्राठ-पाठ नरकावास कम-कम होते गये हैं / अर्थात् प्रथम प्रस्तर में 389, दूसरे में 381, तीसरे में 373 इस प्रकार आगे-आगे के प्रस्तर में आठ-आठ नरकावास कम हैं। इस प्रकार तेरह प्रस्तरों में कुल 4433 नरकावास प्रावलिकाप्रविष्ट हैं और शेष 2965567 (उनतीस लाख पंचानवै हजार पांच सौ सडसढ) नारकावास प्रकीर्णक रूप हैं। कुल मिलाकर प्रथम रत्नप्रभापृथ्वी में तीस लाख नरकावास हैं।' (2) शर्कराप्रभा के ग्यारह प्रस्तर हैं / पहले प्रस्तर में चारों दिशाओं में 36-36 प्रावलिकाप्रविष्ट नरकाबास हैं / चारों विदिशाओं में 35-35 नरकावास और मध्य में एक नरकेन्द्रक, सब मिलाकर 285 नरकवास पहले प्रस्तर में आवलिकाप्रविष्ट हैं। शेष दस प्रस्तरों में प्रत्येक में आठपाठ की हानि होने से सब प्रस्तरों के मिलाकर 2695 प्रावलिकाप्रविष्ट नरकावास हैं / शेष 2497305 (चौवीस लाख सित्तानवै हजार तीन सौ पांच) पुष्पावकीर्णक नरकावास हैं / दोनों मिलाकर पच्चीस लाख नरकावास दूसरी शर्क राप्रभा में हैं। (3) तीसरी बालुकाप्रभा में नौ प्रस्तर हैं। पहले प्रस्तर में प्रत्येक दिशा में 25-25, विदिशा में 24-24 और मध्य में एक नरकेन्द्रक-कुल मिलाकर 197 श्रावलिकाप्रविष्ट नरकावास हैं / शेष आठ प्रस्तरों में प्रत्येक में आठ-आठ की हानि है, सब मिलाकर 1485 प्रावलिकाप्रविष्ट नरकावास हैं / शेष 1498515 पुष्पावकीर्णक नरकावास हैं। दोनों मिलाकर पन्द्रह लाख नरकावास तोसरी पृथ्वी में हैं। (4) चौथी पंकप्रभा में सात प्रस्तर हैं। पहले प्रस्तर में प्रत्येक दिशा में 16-16 श्रावलिकाप्रविष्ट नरकावास हैं और विदिशा में 15-15 हैं, मध्य में एक नरकेन्द्रक है। सब मिलकर 125 नरकावास हए / शेष छह प्रस्तरों में प्रत्येक में पाठ-पाठ की हानि है अतः सब मिलाकर 707 प्रावलिकाप्रविष्ट नरकावास हैं-शेश 999293 (नौ लाख निन्यानवै हजार दो सौ तिरानवै) पुष्पावकीर्णक नरकावास हैं। दोनों मिलाकर दस लाख नरकावास पंकप्रभा में हैं। 1. सत्तट्ठी पंचसया पणनउइसहस्स लक्ख गुणतीसं / रयणाए सेढिगया चोयालसया उ तित्तीसं // 1 // 2. सत्ता णउइसहस्सा चउवीसं लक्खं तिसय पंचहिया / बीयाए सेढिगया छब्बीससया उ पणनउया // 3. पंचसया पन्नारा अडनवइसहस्स लक्ख चोद्दस य। तइयाए सेढिमया पणसीया चोदस सया उ / 4. तेणउया दोण्णि सया नवनउइसहस्स मव य लक्खा य / पंकाए सेढिगया सत्तसया हंति सत्तहिया // Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200] [नोवाजीवाभिगमसूत्र (5) पांचवीं धूमप्रभा में 5 प्रस्तर हैं। पहले प्रस्तर में एक-एक दिशा में नौ-नौ प्रावलिकाप्रविष्ट विमान हैं और विदिशाओं में आठ-पाठ हैं। मध्य में एक नरकेन्द्रक है। सब मिलाकर 69 श्रावलिकाप्रविष्ट नरकावास हैं। शेष चार प्रस्तरों में पूर्ववत् पाठ-पाठ की हानि है / अतः सब मिलाकर 265 प्रावलिकाप्रविष्ट नरकावास हैं। शेष 299735 (दो लाख निन्यानवै हजार सात सो पैतीस) पुष्पावकीर्णक नरकावास हैं / दोनों मिलकर तीन लाख नरकावास पांचवीं पृथ्वी में हैं / (6) छठी तमःप्रभा में तीन प्रस्तर हैं। प्रथम प्रस्तर की प्रत्येक दिशा में चार-चार और प्रत्येक विदिशा में 3-3, मध्य में एक नरकेन्द्रक सब मिलाकर 29 प्रावलिकाप्रविष्ट नरकावास हैं। दो प्रस्तरों में क्रम से पाठ-आठ की हानि है। अतः सब मिलाकर 63 प्रावलिकाप्रविष्ट नरकावास हैं / शेष 99932 (निन्यानवे हजार नौ सौ बत्तीस) पुष्पावकीर्णक हैं। दोनों मिलाकर छठी पृथ्वी में 99995 नरकावास हैं / (7) सातवीं पृथ्वी में केवल पांच नरकावास हैं / काल, महाकाल, रौरव, महारोरव और अप्रतिष्ठान उनके नाम हैं 1 अप्रतिष्ठान नामक नरकावास मध्य में है और उसके पूर्व में काल नरकावास, पश्चिम में महाकाल, दक्षिण में रौरव और उत्तर में महारौरव नरकावास है। पृथ्वी का नाम प्राबलिकाप्रविष्ट नरकावास पष्पावकीर्णक नरकावास कुल नरकावास रत्नप्रभा 2995567 3000000 शर्कराप्रभा 2695 2497305 2500000 बालुकाप्रभा 1485 1498515 1500000 पंकप्रभा 707 999263 1000000 धूमप्रभा 265 299735 300000 तमःप्रभा 63 99995 99932 4 चारों दिशाओं में तमस्तमःप्रभा 1 मध्य में 1. सत्तसया पणतीसा नवनवइसहस्स दो य लक्खा य / धूमाए सेढिगया पणसठ्ठा दो सया होति / / 2. नवनउई य सहस्सा नव चेव सया हवंति बत्तीसा। पुढवीए छट्ठीए पइण्णगाणेस संखेवो / 3. पुव्वेण होइ कालो अवरेण अप्पइट्र महकालो। रोरु दाहिणपासे उत्तरपासे महारोरू / / Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति :घनोदधि आदि की पृच्छा] [201 घनोदधि आदि की पृच्छा 71. प्रत्थि णं भंते ! इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए अहे घणोवहीति वा, घणवातेति वा, तणुवातेति वा, ओवासंतरेति था? हंता अस्थि / एवं जाव अहेसत्तमाए। [71] हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नीचे घनोदधि है, घनवात है, तनुवात है और शुद्ध आकाश है क्या? हाँ गौतम ! है / इसी प्रकार सातों पृथ्वियों के नीचे घनोदधि, धनवात, तनुवात और शुद्ध आकाश है। विवेचन--प्रस्तुत सूत्र में नरकपृथ्वियों का आधार बताया गया है / सहज ही यह प्रश्न हो सकता है कि ये सातों नरकपृथ्वियां किसके आधार पर स्थित हैं ? इसका समाधान करते हुए सूत्रकार कहते हैं कि ये पृथ्वियां जमे हुए जल पर स्थित हैं। जमे हुए जल को घनोदधि कहते हैं। पुनः प्रश्न होता है कि घनोदधि किसके आधार पर रहा हुआ है तो उसका समाधान किया गया है कि घनोदधि, घनवात पर स्थित है / अर्थात् पिण्डीभूत वायु के आधार पर घनोदधि स्थित है। घनीभूत वायु (घनवात) तनुवात (हल्की वायु) पर आधारित है और तनुवात आकाश पर प्रतिष्ठित है। आकाश किसी पर अवलम्बित न होकर स्वयं प्रतिष्ठित है। तात्पर्य यह है कि प्राकाश के आधार पर तनुवात, तनुवात पर धनवात और धनवात पर घनोदधि और घनोदधि पर ये रत्नप्रभादि प्रथ्वियां स्थित हैं।' प्रश्न हो सकता है कि वायु के आधार पर उदधि और उदधि के आधार पर पृथ्वी कैसे ठहर सकती है? इसका समाधान एक लौकिक उदाहरण के द्वारा किया है गया। कोई व्यक्ति मशक (वस्ती) को हवा से फुला दे। फिर उसके मुंह को फीते से मजबूत गांठ देकर बांध दे तथा उस मशक के बीच के भाग को भी बांध दे / ऐसा करने से मशक में भरे हुए पवन के दो भाग हो जावेंगे, जिससे थैली डुगडुगी जैसी लगेगी। तब उस मशक का मुंह खोलकर ऊपर के भाग की हवा निकाल दे और उसकी जगह पानी भरकर फिर उस मशक का मुंह बांध दे और बीच का बन्धन खोल दे। तब ऐसा होगा कि जो पानी उस मशक के ऊपरी भाग में है, वह ऊपर के भाग में ही रहेगा, अर्थात् नीचे भरी हुई वायु के ऊपर ही वह पानी रहेगा, नीचे नहीं जा सकता / जैसे वह पानी नीचे भरी वायु के आधार पर ऊपर ही टिका रहता है, उसी प्रकार घनवात के ऊपर घनोदधि रह सकता है। दूसरा उदाहरण यह है कि जैसे कोई व्यक्ति हवा से भरे हुए डिब्बे या मशक को कमर पर बांधकर अथाह जल में प्रवेश करे तो वह जल के ऊपरी सतह पर ही रहेगा नीचे नहीं डूबेगा / वह जल के आधार पर स्थित रहेगा / उसी तरह घनाम्बु पर पृथ्वियां टिकी रह सकती हैं। ये सातों नरकभूमियां एक दूसरी के नीचे हैं, परन्तु बिल्कुल सटी हुई नहीं हैं / इनके बीच में बहुत अन्तर है / इस अन्तर में घनोदधि, धनवात, तनुवात और शुद्ध आकाश नीचे-नीचे हैं / प्रथम 1. रत्नशर्करावालुकापंकधूमतमोमहातमःप्रभाभूमयो घनाम्बुवाताकाशप्रतिष्ठाः सप्ताधोधः पृथुत्तराः तत्त्वार्थ० -तत्त्वार्थसूत्र अ. 3 Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 202] [जीवाजीवाभिगमसूत्र नरकभूमि के नीचे घनोदधि है, इसके नीचे बनवात है, इसके नीचे तनुवात है और इसके नीचे आकाश है। आकाश के बाद दूसरी नरकभूमि है। दूसरी और तीसरी नरकभूमि के बीच में भी क्रमश: घनोदधि, घनवात, तनुवात और आकाश है / इसी तरह सातवीं नरकपृथ्वी तक सब भूमियों के नीचे उसी क्रम से घनोदधि आदि हैं / अब सूत्रकार रत्नकाण्डादि का बाहल्य (मोटाई) बताते हैं - रत्नादिकाण्डों का बाहल्य 72. इमोसे णं भंते ! रयणप्पभाएपुढवीए खरकंडे केवइयं बाहल्लेणं पण्णते ? गोयमा ! सोलस जोयणसहस्साई बाहल्लेणं पण्णत्ते। इमोसे णं भंते ! रयणप्पभाएपुढवीए रयणकडे केवइयं बाहल्लेणं पण्णते ? गोयमा ! एक्कं जोयणसहस्सं बाहल्लेणं पण्णत्ते / एवं जाव रिठे। इमोसे गं भंते ! रयणप्पभाएपुढवीए पंकबहुले कंडे केवइयं बाहल्लेणं पण्णते? गोयमा ! चउरसीति जोयणसहस्साई बाहल्लेणं पण्णत्ते। इमीसे गं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए आवबहुल्ले कंडे केवइयं बाहल्लेणं पण्णते ? गोयमा ! असीति जोयणसहस्साई बाहल्लेणं पण्णत्ते। इमोसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए घणोदही केवइयं बाहल्लेणं पण्णते ? गोयमा ! बीसं जोयणसहस्साई बाहल्लेणं पण्णत्ते। इमीसे गं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए घणवाए केवइयं बाहल्लेणं पण्णत्ते ? गोयमा! असंखेज्जइं जोयणसहस्साई बाहल्लेणं पण्णत्ते / एवं तणुवाए वि, प्रोवासंतरे वि। सक्करप्पमाए णं पुढवीए घणोदही केवइयं बाहल्लेणं पण्णत्ते ? गोयमा! बीसं जोयणसहस्साई बाहल्लेणं पण्णत्ते। सक्करप्पभाए णं पुढवीए घणबाए केवइयं बाहल्लेणं पण्णते? गोयमा ! असंखेज्जाई जोयणसहस्साई बाहल्लेणं पण्णत्ते / एवं तणुवाए वि, प्रोवासंतरे वि। जहा सक्करप्पभाए पुढवीए एवं जाव अहेसत्तमाए। [72] भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी का खरकाण्ड कितनी मोटाई वाला कहा गया है ? गौतम ! सोलह हजार योजन की मोटाई वाला कहा गया है / भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी का रत्नकाण्ड कितनी मोटाई वाला है ? गौतम ! वह एक हजार योजन की मोटाई वाला है। इसी प्रकार रिष्टकाण्ड तक की मोटाई जानना ! भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी का पंकबहुल कांड कितनी मोटाई का है ? गौतम! वह चौरासी हजार योजन की मोटाई वाला है। Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : रत्नप्रभावि में द्रव्यों की सत्ता] [203 भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी का अपबहुलकाण्ड कितनी मोटाई का है ? गौतम ! वह अस्सी हजार योजन की मोटाई का है। भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी का घनोदधि कितना मोटा है ? गौतम ! वह बीस हजार योजन की मोटाई का है। भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी का घनवात कितना मोटा है ? गौतम ! वह असंख्यात हजार योजन का मोटा है। इसी प्रकार तनुवात भी और आकाश भी असंख्यात हजार योजन की मोटाई वाले हैं। भगवन् ! शर्कराप्रभापृथ्वी का घनोदधि कितना मोटा है ? गौतम ! बीस हजार योजन का है। भगवन् ! शर्कराप्रभा का घनवात कितना मोटा है ? गौतम ! असंख्यात हजार योजन की मोटाई वाला है। इसी प्रकार तनुवात और आकाश भी असंख्यात हजार योजन की मोटाई वाले हैं। जैसी शर्कराप्रभा के घनोदधि, घनवात, तनुवात और आकाश की मोटाई कही है, वही शेष सब पृथ्वियों की (सातवीं पृथ्वी तक) जाननी चाहिए। विवेचन-पहले नरकपृथ्वियों का बाहल्य कहा गया था। इस सूत्र में रत्नप्रभापृथ्वी के तीन काण्डों का और घनोदधि, धनवात, तनुवात तथा प्राकाश का बाहल्य बताया गया है। काण्ड केवल रत्नप्रभापृथ्वी में ही हैं। खरकाण्ड के सोलह विभाग हैं और प्रत्येक विभाग का बाहल्य एक हजार योजन का बताया है। सोलह काण्डों का कूल बाहल्य सोलह हजार योजन का है। पंकबहल दूसरे काण्ड का बाहल्य चौरासी हजार और अपबहुल तीसरे काण्ड का बाहल्य अस्सी हजार योजन है। इस प्रकार रत्नप्रभा के तीनों काण्डों का बाहल्य मिलाने से रत्नप्रभा की मोटाई एक लाख अस्सी हजार योजन की है। प्रत्येक पृथ्वी के नीचे क्रमशः घनोदधि, घनवात, तनुवात और आकाश है। अतः उनका बाहल्य भी बता दिया गया है। घनोदधि का बाहल्य बीस हजार योजन का है / धनवात का बाहल्य असंख्यात हजार योजन का है / तनुवात और आकाश का बाहल्य भी प्रत्येक असंख्यात हजार योजन का है। सभी पृथ्वियों के घनोदधि आदि का बाहल्य समान है। रत्नप्रभादि में द्रव्यों की सत्ता 73. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभापुढवीए असीउत्तर जोयणसयसहस्सबाहल्लाए खेत्तच्छेएणं छिज्जमाणीए अत्थि दवाई वग्णओ कालनीललोहितहालिहसुक्किलाई, गंधनो, सुरभिगंवाई दुडिभगंधाई, रसनो तितकड़यकसायबिलमहुराई, फासओ कक्खड-मउय-गरुय-लहु-सीय-उसिणणिद्ध-लुक्खाई, संठाणओ परिमंडल-वट्ट-तंस-चउरंस--आयय संठाणपरिणयाइं अन्नमनबद्धाइं अन्नमन्त्रपुट्ठाई, अन्नमनओगाढाई, अण्णमण्णसिणेहपडिबद्धाइं अण्णमण्णघडताए चिट्ठन्ति ? हंता अस्थि / Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 204] [जीवाजीवाभिगमसूत्र इमोसे गं भंते ! रयणप्पभाएपुढवीए खरकंडस्स सोलसजायणसहस्सबाहल्लस्स खेतच्छेएणं छिज्जमाणस्स अस्थि दव्वाई वण्णओ काल जाय परिणयाई। हंता अस्थि / ___ इमोसे गं भंते ! रयणप्पमाएपुढवीए रयणनामगस्स कंडस्स जोयणसहस्सबाहल्लस्स खेतच्छेएणं छिज्जमाणस्स तं चेव जाव हंता अस्थि / एवं जाव रिट्ठस्स। इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाएपुढवीए पंकबहुलस्स कंडस्स चउरासीति जोयणसहस्सबाहल्लस्स खेत्तच्छेएण छिज्जमाणस्स० तं चेव / एवं जाव बहुलस्स वि असीतिजोयणसहस्सबाहल्लस्स। इमोसे गं भंते / रयणप्पभापुढवीए घणोदधिस्स वीसं जोयणसहस्सबाहल्लस्स खेत्तच्छेएणं तहेव / एवं घणवातस्स असंखेज्जजोयणसहस्सबाहल्लस्स तहेव / ओवासंतरस्स वि तं चेव / ___ सक्करप्पभाए णं भंते ! पुढवीए बसीसुत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लस्स खेत्तच्छेएण छिज्जमाणीए अस्थि दवाई वणो जाव घडताए चिट्ठति ? हंता अस्थि / एवं घणोवहिस्स बीसजोयणसहस्सबाहल्लस्स घणवातस्स असंखेज्जजोयणसहस्सबाहल्लस्स, एवं जाव ओवासंतरस्स / जहा सक्करप्पमाए एवं जाव अहेसत्तमाए। [73] भगवन् ! एक लाख अस्सी हजार योजन बाहल्य वाली और प्रतर-काण्डादि रूप में (बुद्धि द्वारा) विभक्त इस रत्नप्रभापृथ्वी में वर्ण से काले-नीले-लाल-पीले और सफेद, गंध से सुरभिगंध वाले और दुर्गन्ध वाले, रस से तिक्त-कटुक-कसैले-खट्टे-मीठे तथा स्पर्श से कठोर-कोमल-भारी-हल्केशीत-उष्ण-स्निग्ध और रूक्ष, संस्थान से परिमंडल (लड्डू की तरह गोल), वृत्त (चूडी के समान गोल), त्रिकोण, चतुष्कोण और पायात (लम्बे) रूप में परिणत द्रव्य एक-दूसरे से बंधे हुए, एक दूसरे से स्पृष्ट-छुए हुए, एक दूसरे में अवगाढ़, एक दूसरे से स्नेह द्वारा प्रतिबद्ध और एक दूसरे से सम्बद्ध हैं क्या ? हाँ, गौतम ! हैं। भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के सोलह हजार योजन बाहल्य वाले और बुद्धि द्वारा प्रतरादि रूप में विभक्त खरकांड में वर्ण-गंध-रस-स्पर्श और संस्थान रूप में परिणत द्रव्य यावत् एक दूसरे से सम्बद्ध हैं क्या? हाँ, गौतम ! हैं। हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के एक हजार योजन बाहल्य वाले और प्रतरादि रूप में बुद्धिद्वारा विभक्त रत्न नामक काण्ड में पूर्व विशेषणों से विशिष्ट द्रव्य हैं क्या? हाँ, गौतम ! हैं। इसी प्रकार रिष्ट नामक काण्ड तक कहना चाहिए। भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के पंकबहुल काण्ड में जो चौरासी हजार योजन बाहल्य वाला और बुद्धि द्वारा प्रतरादि रूप में विभक्त है, (उसमें) पूर्ववणित द्रव्यादि हैं क्या ? Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: रत्नप्रभादि में द्रव्यों की सत्ता] [205 हाँ, गौतम ! हैं। इसी प्रकार अस्सी हजार योजन बाहल्य वाले अप्बहुल काण्ड में भी पूर्वविशिष्ट द्रव्यादि हैं। भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के बीस हजार योजन बाहल्य वाले और बुद्धि से विभक्त घनोदधि में पूर्व विशेषण वाले द्रव्य हैं ? हां, गौतम ! हैं। _ इसी प्रकार असंख्यात हजार योजन बाहल्य वाले घनवात और तनुवात में तथा आकाश में भी उसी प्रकार द्रव्य हैं। हे भगवन् ! एक लाख बत्तीस हजार योजन बाहल्य वाली और बुद्धि द्वारा प्रतरादि रूप में विभक्त शर्कराप्रभा पृथ्वी में पूर्व विशेषणों से विशिष्ट द्रव्य यावत् परस्पर सम्बद्ध हैं क्या ? हाँ, गौतम ! हैं। इसी तरह बीस हजार योजन बाहल्य वाले घनोदधि, असंख्यात हजार योजन बाहल्य वाले घनवात और आकाश के विषय में भी समझना चाहिए। शर्कराप्रभा की तरह इसी क्रम से सप्तम पृथ्वी तक वक्तव्यता समझनी चाहिए। विवेचन–प्रस्तुत सूत्र में सातों नरकपृथ्वियों में, रत्नप्रभापृथ्वी के तीनों काण्डों में, घनोदधियों में, घनवातों में, तनुवातों में और अवकाशान्तरों में द्रव्यों की सत्ता का कथन किया गया है। सब जगह वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा विविध पर्यायों में परिणत द्रव्यों का सद्भाव बताया गया है / प्रश्नोत्तर का क्रम इस प्रकार है ___ सर्वप्रथम रत्नप्रभापृथ्वी में द्रव्यों का सद्भाव कहा है। इसके बाद क्रमशः खरकाण्ड, रत्नकाण्ड से लेकर रिष्टकाण्ड तक, पुंकबहुलकाण्ड, अपबहुलकाण्ड, घनोदधि, धनवात, तनुवात, अवकाशान्तरों में द्रव्यों का सद्भाव कहा है। इसके पश्चात् शर्करापृथ्वी में, उसके घनोदधि-धनवात-तनुवात और अवकाशान्तरों में द्रव्यों का सद्भाव बताया है। शर्करापृथ्वी की तरह ही सातों पृथ्वियों की वक्तव्यता कही है। सूत्र में आये हुए 'अन्नमन्नबद्धाई' आदि पदों का अर्थ इस प्रकार हैअन्नमन्नबद्धाइं–एक दूसरे से सम्बन्धित / अन्नमन्नपुटाई--एक दूसरे को स्पर्श किये हुए-छुए हुए। अन्नमन्नोगाढाई-जहाँ एक द्रव्य रहा है, वहीं देश या सर्व से दूसरे द्रव्य भी रहे हुए हैं / अन्नमनसिणेहपडिबद्धाइं-स्नेह गुण के कारण परस्पर मिले हुए रहते हैं, जिससे एक के चलायमान होने पर दूसरा भी चलित होता है, एक के गृहीत होने पर दूसरा भी गृहीत होता है। अन्नमनघडताए चिट्ठति-क्षीर-नीर की तरह एक दूसरे में प्रगाढरूप से मिले हुए या समुदित रहते हैं। Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 206] [जीवाजीवाभिगमसूत्र नरकों का संस्थान 74. इमा णं भंते ! रयणप्पभा पुढवो किसंठिता पण्णता? गोयमा ! मल्लरिसंठिया पण्णत्ता। इमोसे गं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए खरकंडे किंसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा! झल्लरिसंठिए पण्णत्ते। इमोसे गं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए रयणकंडे किंसंठिए पण्णते? गोयमा! मल्लरिसंठिए पण्णत्ते / एवं जाव रिठे। एवं पंकबहुले वि एवं आवबहुले वि, घणोधी कि, घणवाए वि, तणुवाए वि, ओवासंतरे वि / सम्वे मल्लरिसंठिए पण्णत्ते / सक्करप्पभा णं भंते ! पुढवी किंसंठिया पण्णता? गोयमा ! मल्लरिसंठिए पण्णत्ते / एवं जाव ओवासंतरे, जहा सक्करप्पभाए वत्तव्यया एवं जाव अहेसत्तमाए वि। [74] हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी का आकार कैसा है ? गौतम ! झालर के प्राकार का है / अर्थात् विस्तृत वलयाकार है। भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वो के खरकांड का कैसा आकार है ? गौतम ! झालर के ग्राकार का है। भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के रत्नकाण्ड का क्या प्राकार है ? गौतम ! झालर के आकार का है। इसी प्रकार रिष्टकाण्ड तक कहना चाहिए / इसी तरह पंकबहुलकांड, अपबहुलकांड, घनोदधि, धनवात, तनुवात और अवकाशान्तर भी सब झालर के प्रकार के हैं। भगवन् ! शर्कराप्रभापृथ्वी का प्राकार कैसा है ? गौतम ! झालर के आकार का है। भगवन् ! शर्कराप्रभापृथ्वी के घनोदधि का आकार के सा है ? गौतम ! झालर के आकार का है। इसी प्रकार अवकाशान्तर तक कहना चाहिए। शर्कराप्रभा की वक्तव्यता के अनुसार शेष पृथ्वियों की अर्थात् सातवीं पृथ्वी तक की वक्तव्यता जाननी चाहिए। सातों पृथ्वियों की प्रलोक से दूरी 75. इमोसे गं भंते ! रयणप्पभाए पुढवोए पुरथिमिल्लाओ उवरिमंताओ केवइयं अबाधाए लोयंते पण्णते? गोयमा ! दुवालसहि जोयहि अबाधाए लोयंते पण्णत्ते, एवं दाहिणिल्लाओ, पच्चत्थिमिल्लाओ, उत्तरिल्लाओ। . Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: सातों पृथ्वियों की अलोक से दूरी] [207 सक्करप्पभाए पुढवीए पुरथिमिल्लाओ चरिमंताओ केवइयं अबाधाए लोयंते पण्णते? गोयमा ! तिमागूणेहि तेरसहि जोयणेहिं अबाधाए लोयंते पण्णत्ते / एवं चउद्दिसि वि / बालुयप्पभाए पुढविए पुरथिमिल्लाओ पुच्छा? गोयमा ! सतिभागेहि तेरसहि जोयणेहि अबाधाए लोयंते पण्णत्ते। एवं चउद्दिसि पि; एवं सवासि चउसु दिसासु पुच्छियध्वं / पंकप्पभापुढवीए चोदसहि जोयणेहिं अबाहाए लोयंते पग्णत्ते / पंचभाए तिभागूह पन्नरसहि जोयणेहि अबाहाए लोयंते पण्णत्ते / छट्ठीए सतिभागेहि पन्नरसहिं जोयणेहि प्रबाहाए लोयंते पण्णत्ते / सत्तमीए सोलसहि जोयणेहिं अबाहाए लोयंते पण्णत्ते / एवं जाव उत्तरिल्लाओ। इमोसे गं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए पुरथिमिल्ले चरिमंते कतिविहे पण्णते? गोयमा ! तिबिहे पण्णत्ते, तंजहा-घणोदधिवलए, घणवायवलए, तणुवायवलये। इमोसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए दाहिणिल्ले चरिमंते कतिविधे पण्णत्ते ? गोयमा ! तिविहे पण्णत्ते, तंजहा-एवं जाव उत्तरिल्ले, एवं सव्वासि जाव अधेसत्तमाए उत्तरिल्ले। [75] हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के पूर्वदिशा के उपरिमान्त से कितने अपान्तराल के बाद लोकान्त कहा गया है ? गौतम ! बारह योजन के अपान्तराल के बाद लोकान्त कहा गया है। इसी प्रकार दक्षिणदिशा के, पश्चिमदिशा के और उत्तरदिशा के उपरिमान्त से बारह योजन अपान्तराल के बाद लोकान्त कहा गया है। __ हे भगवन् ! शर्कराप्रभा पृथ्वी के पूर्वदिशा के चरमांत से कितने अपान्तराल के बाद लोकान्त कहा गया है ? गौतम ! त्रिभाग कम तेरह योजन के अपान्तराल के बाद लोकान्त कहा गया है / इसी प्रकार चारों दिशाओं को लेकर कहना चाहिए। हे भगवन् ! बालुकाप्रभा पृथ्वी के पूर्वदिशा के चरमांत से कितने अपान्तराल के बाद लोकान्त कहा गया है ? ___ गौतम ! त्रिभाग सहित तेरह योजन के अपान्तराल बाद लोकान्त है। इस प्रकार चारों दिशाओं को लेकर कहना चाहिए / सब नरकपृथ्वियों की चारों दिशाओं को लेकर प्रश्न करना चाहिए। पंकप्रभा में चौदह योजन के अपान्तराल के बाद लोकान्त है। पांचवीं धूमप्रभा में विभाग कम पन्द्रह योजन के अपान्तराल के बाद लोकान्त है। छठी तमप्रभा में विभाग सहित पन्द्रह योजन के अपान्तराल के बाद लोकान्त है / सातवीं पृथ्वी में सोलह योजन के अपान्तराल के बाद लोकान्त कहा गया है / इसी प्रकार उत्तरदिशा के चरमान्त तक जानना चाहिए / हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के पूर्वदिशा का चरमान्त कितने प्रकार का कहा गया है ? Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 208] जोबाजोवाभिगमसूत्र गौतम ! तीन प्रकार का कहा गया है, यथा-घनोदधिवलय, धनवातवलय और तनुवातवलय। हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के दक्षिणदिशा का चरमान्त कितने प्रकार का है। गौतम ! तीन प्रकार का कहा गया है, यथा घनोदधिवलय, धनवातवलय और तनुवातवलय / इसी प्रकार उत्तरदिशा के चरमान्त तक कहना चाहिए। इसी प्रकार सातवीं पृथ्वी तक की सब पृथ्वियों के उत्तरी चरमान्त तक सब दिशानों के चरमान्तों के प्रकार कहने चाहिए। विवेचन–प्रस्तुत सूत्र में नरकपृध्वियों के चरमान्त से अलोक कितना दूर है, यह प्रतिपादित किया है। रत्नप्रभापृथ्वी के पूर्वदिशा के चरमान्त से अलोक बारह योजन की दूरी पर है / अर्थात् रत्नप्रभापृथ्वी के पूर्वदिशा वाले चरमान्त और अलोक के बीच में बारह योजन का अपान्तराल है। इसी तरह रत्नप्रभापृथ्वी के दक्षिण, पश्चिम और उत्तर के चरमान्त से भी बारह योजन की दूरी पर अलोक है / यहाँ दिशा का ग्रहण उपलक्षण है अत: चारों विदिशानों के चरमान्त से भी अलोक बारह योजन की दूरी पर है और बीच में अपान्तराल है। शर्कराप्रभापृथ्वी के सब दिशाओं और विदिशाओं से चरमान्त से अलोक त्रिभागन्यून तेरह (123) योजन दूरी पर है / अर्थात् चरमान्त और अलोक के बीच इतना अपान्तराल है। बालुकाप्रभा के सब दिशा-विदिशाओं के चरमान्त से अलोक पूर्वोक्त त्रिभागसहित तेरह योजन (परिपूर्ण तेरह योजन) की दूरी पर है। बीच में इतना अपान्तराल है। पंकप्रभा और अलोक के बीच 14 योजन का अपान्तराल है। धूमप्रभा और अलोक के बीच त्रिभागन्यून 15 योजन का अपान्तराल है। तमःप्रभा और अलोक के बीच पूर्वोक्त त्रिभाग सहित पन्द्रह योजन का अपान्तराल है / अधःसप्तमपृथ्वी के चरमान्त और अलोक के बीच परिपूर्ण सोलह योजन का अपान्तराल है। इस प्रकार अपान्तराल बताने के पश्चात् प्रश्न किया गया है कि ये अपान्तराल आकाशरूप हैं या इनमें घनोदधि आदि व्याप्त हैं ? उत्तर में कहा गया है कि ये अपान्तराल घनोदधि, घनवात और तनुवात से व्याप्त हैं / यहाँ ये घनोदधि आदि वलयाकार हैं, अतएव ये धनोदधिवलय, धनवातवलय और तनुवातवलय कहे जाते हैं। पहले सब नरकपृथ्वियों के नीचे घनोदधि आदि का जो बाहल्य पण कहा गया है, वह उनके मध्यभाग का है। इसके बाद प्रदेश-हानि से घटते-घटते अपनी-अपनी पृथ्वी के पर्यन्त में तनुतर होकर अपनी-अपनी पृथ्वी को वलयाकार वेष्टित करके रहे हुए हैं, इसलिए इनको वलय कहते हैं। इन वलयों का उच्चत्व तो सर्वत्र अपनी-अपनी पृथ्वी के अनुसार ही है / तिर्यग् बाहल्य आगे बताया जायेगा। यहाँ तो अपान्तरालों का विभागमात्र बताया है। घनोदधिवलय का तिर्यग् बाहल्य 76. (1) इमोसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए घणोदधिवलए केवइयं बाहल्लेणं पण्णते ? गोयमा ! छ जोयणाणि बाहल्लेणं पण्णत्ते / सक्करप्पभाए पुढवीए घणोदधिवलए केवइयं बाहल्लेणं पण्णते? Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : घनोदधिवलय का तिर्यग् बाहल्य] [209 गोयमा ! सतिमागाई छ जोयणाई बाहल्लेणं पण्णत्ते / बालयप्पभाए पुच्छा; गोयमा ! तिभागूणाई सत्त जोयणाई बाहल्लेणं पण्णत्ते / एवं एतेण अभिलावेणं पंकप्पभाए सत्तजोयणाई बाहल्लेणं पग्णत्ते। धमप्पमाए सतिभागाइं सत्तजोयणाई पणत्ते / तमप्पभाए तिभागूणाई अट्ठजोयणाई।। तमतमपभाए अट्ठजोयणाई। इमोसे गं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए घणवायवलए केवइयं बाहल्लेणं पण्णते! गोयमा ! अद्धपंचमाई जोयणाई बाहल्लेणं / सक्करप्पभाए पुच्छा, गोयमा ! कोसूणाई पंचजोयणाई बाहल्लेणं पण्णत्ते। एवं एएणं अभिलावेणं बालुप्पभाए पंचजोयणाई बाहल्लेणं पण्णत्ते, पंकप्पभाए सक्कोसाई पंचजोयणाई बाहल्लेणं पण्णत्ते / धूमप्पभाए अद्धछट्टाई जोयणाई बाहल्लेणं पण्णत्ते / तमप्पभाए कोसूणाई छ जोयणाई बाहल्लेणंपुण्णत्ते। अहेसत्तमाए छ जोयणाई बाहल्लेणं पण्णत्ते / इमोसे गं भंते ! रयणप्पभापुढवीए तणुवायवलए केवइयं बाहल्लेणं पण्णत्ते? गोयमा ! छक्कोसेणं बाहल्लेणं पण्णत्ते / एवं एएणं अभिलावेणं सक्करप्पभाए सतिभागे छक्कोसे बाहल्लेणं पण्णत्ते / बालुयप्पभाए तिभागूणे सत्तकोसं बाहल्लेणं पण्णत्ते। पंकप्पभाए पुढवीए सत्तकोसं बाहल्लेणं पणत्ते / धूमप्पभाए सतिभागे सत्तकोसे। तमप्पभाए तिभागणे अट्ठकोसे बाहल्लेणं पण्णते / अधेसत्तमाए पुढवीए अट्ठकोसे बाहल्लेणं पण्णत्ते / [76-1] भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी का धनोदधिवलय कितना मोटा है ? गौतम ! छह योजन की मोटाई वाला है। भंते ! शर्कराप्रभापृथ्वी का घनोदधिवलय कितना मोटा है ? गौतम ! त्रिभागसहित छह योजन मोटा है। बालुकाप्रभा को पृच्छा-गौतम ! त्रिभागन्यून सात योजन का है। इसी अभिलाप से पंकप्रभा का घनोदधिवलय सात योजन का, धूमप्रभा का त्रिभागसहित सात योजन का, तमःप्रभा का त्रिभागन्यून आठ योजन का और तमस्तमःप्रभा का पाठ योजन का है। .. . हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी का घनवातवलय कितनी मोटाई वाला है ? गौतम ! साढ़े चार योजन का मोटा है / शर्कराप्रभा का एक कोस कम पांच योजन का है / इसी प्रकार बालुकाप्रभा का पांच योजन का, पंकप्रभा का एक कोस अधिक पांच योजन का, धूमप्रभा का साढ़े पांच योजन का और तमस्तमःप्रभापृथ्वी का एक कोस कम छह योजन का बाहल्य है / हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी का तनुवातवलय कितनी मोटाई वाला कहा गया है ? गौतम ! छह कोस की मोटाई का है। इसी प्रकार शर्कराप्रभा का त्रिभागसहित छह कोस, बालुकाप्रभा का त्रिभागन्यून सात कोस, पंकप्रभा का सात कोस, धूमप्रभा का त्रिभागसहित सात Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 210] [जीवाजीवामिगमसूत्र कोस का, तमःप्रभा का त्रिभागन्यून आठ कोस और अधःसप्तमपृथ्वी का तनुवातवलय पाठ कोस बाहल्य वाला है। अपान्तराल और बाहल्य का यन्त्र पृथ्वी का नाम अपान्तराल का प्रमाण धनोदधिवलय का बाहल्य घनवातवलय का बाहल्य तनुवातवलय का बाहल्य 1 रत्नप्रभा 6 योजन 4 // योजन बारह योजन त्रिभाग कम 13 योजन 6 कोस 6 कोस 2 शर्कराप्रभा त्रिभागसहित 6 योजन कोस कम 5 योजन 3 बालुकाप्रभा 13 योजन 5 योजन त्रिभागन्यून त्रिभागन्यून ७योजन 7 कोस 4 पंकप्रभा 14 योजन ७योजन 7 कोस १कोस 5 योजन 5 धूमप्रभा त्रिभागसहित 7 योजन 5 // योजन त्रिभागन्यून 15 योजन 15 योजन 71 कोस 6 तमःप्रभा त्रिभागन्यून 8 योजन कोस कम 6 योजन त्रिभागन्यून 8 कोस ७तमस्तमःप्रभा योजन 6 योजन 8 कोस [2] इमोसे गं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए घणोवषिवलयस्स छ जोयणबाहरूलस्स खेत्तच्छेएणं छिज्जमाणस्स अत्थि दवाई वण्णओ काल जाव हंता अस्थि / सक्करप्पभाए णं भंते ! पुढवीए घणोवषिवलयस्स सतिभागछज्जोयण बाहल्लस्स खेसच्छएणं छिज्जमाणस्स जाव हंता अस्थि / एवं जाव असत्तमाए जं जस्स बाहल्लं। इमोसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए घणवातवलयस्स अवपंचम जोयणबाहल्लस्स खेतछेएणं छिज्जमाणस्स जाव हंता अस्थि / एवं जाव अहेसत्तमाए जं जस्स बाहल्लं / एवं तणुवायवलयस्स वि जाव अहेसत्तमा जं जस्स बाहल्लं / इमोसे णं भंते ! रयणप्पमाए पुढवीए घणोवषिवलए किसंठिए पण्णते? गोयमा ! बट्टे वलयागारसंठाणसंठिए पग्णत्ते। जे णं इमं रयणप्पमं पुढवि सवओ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : घनोवधिवलय का तिर्यक बाहल्य] [211 संपरिक्खिवित्ता णं चिटुइ, एवं जाव अधेसतमाए पुढवीए घणोदधिवलए; गवरं अप्पणप्पणं पुढवि संपरिक्खिवित्ताणं चिट्ठति। इमोसे गं रयणप्पभाए पुढवीए घणवातवलए किंसंठिए पण्णत्ते? गोयमा ! बट्टे वलयागारे तहेव जाव जे गं इमोसे णं रयणप्पभाए पुढवीए घणोदधिवलयं सवमो समंता संपरिक्खिवित्ताणं चिट्ठा एवं जाव अहेसत्तमाए घणवातवलए। इमोसे गं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तणुवातवलए किसंठिए पण्णते ? गोयमा ! बट्टे वलयागारसंठाणसंठिए जाव जे णं इमोसे रयणप्पमाए पुढवीए घणवातवलयं सम्वओ समंता संपरिक्खि वित्ताणं चिटुइ / एवं जाव आहेसत्तमाए तणुवातवलए। इमा णं भंते ! रयणप्पभापुढवी केवइ मायामविक्वंमेण पण्णत्ता ? गोयमा ! असंखेज्जाइं जोयणसहस्साई पायामविक्खंभेणं असंखेज्जाइं जोयणसहस्साई परिक्खेवेण पण्णत्ता / एवं जाव अधेसत्तमा। इमा णं भंते ! रयणप्पभा पुढवी अंते य मज्झे य सम्वत्थ समा बाहल्लेणं पण्णता? हंता गोयमा ! इमा णं रयणप्पभापुढवी अंते य मज्ो य सम्वस्थ समा बाहल्लेणं, एवं जाव अधेसतमा। [76-2] हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के छह योजन बाहल्य वाले और बुद्धिकल्पित प्रतरादि विभाग वाले घनोदधिवलय में वर्ण से काले प्रादि द्रव्य हैं क्या? हाँ, गौतम ! हैं। हे भगवन् ! इस शर्कराप्रभापृथ्वी के त्रिभागसहित छह योजन बाहल्य वाले और प्रतरादि विभाग वाले घनोदधिवलय में वर्ण से काले आदि द्रव्य हैं क्या ? हाँ, गौतम ! हैं / इस प्रकार जितना बाहल्य है, वह विशेषण लगाकर सप्तमपृथ्वी के घनोदधिवलय तक कहना चाहिए। हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के साढ़े चार योजन बाहल्य वाले और प्रतरादि रूप में विभक्त धनवातवलय में वर्णादि परिणत द्रव्य हैं क्या? हाँ, गौतम हैं ! इसी प्रकार जिसका जितना बाहल्य है, वह विशेषण लगाकर सातवीं पृथ्वी तक कहना चाहिए। इसी प्रकार तनुवातवलय के सम्बन्ध में भी अपने-अपने बाहल्य का विशेषण लगाकर सप्तम पृथ्वी तक कहना चाहिए। हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के धनोदधिवलय का आकार कैसा कहा गया है ? गौतम ! वर्तुल और वलयाकार कहा गया है, क्योंकि वह इस रत्नप्रभा पृथ्वी को चारों ओर से घेरकर रहा हुआ है। इसी प्रकार सातों पृथ्वियों के घनोदधिवलय का आकार समझना चाहिए। विशेषता यह है कि वे सब अपनी-अपनी पृथ्वी को घेरकर रहे हुए हैं / Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 212] जिीवाजीवाभिगमसूत्र हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के धनवातवलय का आकार कैसा कहा गया है ? गौतम ! वर्तुल और वलयाकार कहा गया है, क्योंकि वह इस रत्नप्रभा पृथ्वी के घनोदधिवलय को चारों ओर से घेरकर रहा हुआ है / इसी तरह सातों पृथ्वियों के घनवातवलय का आकार जानना चाहिए। हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के तनुवातवलय का आकार कैसा कहा गया है ? गौतम ! वर्तुल और वलयाकार कहा गया है, क्योंकि वह घनवातवलय को चारों ओर से घेरकर रहा हुआ है / इसी प्रकार सप्तमपृथ्वी तक के तनुवातवलय का आकार जानना चाहिए। हे भगवन् ! यह रत्नप्रभा पृथ्वी कितनी लम्बी-चौड़ी कही गई है ? गौतम ! असंख्यात हजार योजन लम्बी और चौड़ी तथा असंख्यात हजार योजन की परिधि (घेराव) वाली है। इसी प्रकार सप्तमपृथ्वी तक कहना चाहिए। हे भगवन् ! यह रत्नप्रभापृथ्वी अन्त में और मध्य में सर्वत्र समान बाहल्य वाली कही गई है? हाँ, गौतम ! यह रत्नप्रभा पृथ्वी अन्त में, मध्य में सर्वत्र समान बाहल्य वाली कही गई है। इसी प्रकार सातवीं पृथ्वी तक कहना चाहिए। सर्व जीव-पुद्गलों का उत्पाद 77. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए सम्वजीवा उववण्णपुण्या ? सव्वजीवा उववण्णा? गोयमा ! इमोसे णं रयणप्पभाए पुढवीए सव्वजीवा उववण्णपुरवा, नो चेव णं सध्वजीवा उपवण्णा / एवं जाव अहेसत्तमाए पुढवीए / इमा णं भंते ! रयणप्पमा पुढवी सम्वजोवेहिं विजढपुवा सम्वजोवेहिविजढा ? गोयमा ! इमाणं रयणप्पभापुढवी सध्वजीहि विजढयुवा, नो चेव णं सध्वजीवविजढा। एवं जाद अधेसत्तमा / इमोसे णं भंते ! रयणपभाए पुढवीए सम्वपोग्गला पविठ्ठपुव्वा, सम्वपोग्गला पविट्ठा गोयमा ! इमोसे णं रयणप्पभाए पुढवीए सम्वपोग्गला पविठ्ठपुव्वा, नो चेव णं सवपोग्गला पविट्ठा। एवं जाव अधेसत्तमाए पुढवीए। इमा णं भंते ! रयणप्पभापुढवी सव्वपोग्गलेहि विजढपुव्या ? सव्वपोग्गला विजढा ? गोयमा ! इमा णं रयणप्पभापुढवी सम्वपोग्गलेहि विजढपुव्वा, नो चेव णं सध्यपोग्गलेहि विजढा। एवं जाव असत्तमा। Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : सर्व जीव-पुद्गलों का उत्पाद] [213 [77] हे भगवन् ! क्या इस रत्नप्रभावृथ्वी में सब जीव पहले काल-क्रम से उत्पन्न हुए हैं तथा युगपत् (एक साथ) उत्पन्न हुए हैं ? गौतम ! इस रत्नप्रभापृथ्वी में कालक्रम से सब जीव पहले उत्पन्न हुए हैं किन्तु सब जीव एक साथ रत्नप्रभा में उत्पन्न नहीं हुए। इसी प्रकार सप्तम पृथ्वी तक प्रश्न और उत्तर कहने चाहिए। हे भगवन् ! यह रत्नप्रभापृथ्वी कालक्रम से सब जीवों के द्वारा पूर्व में परित्यक्त है क्या ? तथा सब जीवों के द्वारा पूर्व में एक साथ छोड़ी गई है क्या ? गौतम ! यह रत्नप्रभापृथ्वी कालक्रम से सब जीवों के द्वारा पूर्व में परित्यक्त है परन्तु सब जीवों ने पूर्व में एक साथ इसे नहीं छोड़ा है। इसी प्रकार सप्तम पृथ्वी तक प्रश्नोत्तर कहने चाहिए। हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी में कालक्रम से सब पुद्गल पहले प्रविष्ट हुए हैं क्या ? तथा क्या एक साथ सब पुद्गल इसमें पूर्व में प्रविष्ट हुए हैं ? गौतम ! इस रत्नप्रभापृथ्वी में कालक्रम से सब पुद्गल पहले प्रविष्ट हुए हैं परन्तु एक साथ सब पुद्गल पूर्व में प्रविष्ट नहीं हुए हैं / इसी प्रकार सातवीं पृथ्वी तक कहना चाहिए। हे भगवन् ! यह रत्नप्रभापृथ्वी कालक्रम से सब पुद्गलों के द्वारा पूर्व में परित्यक्त है क्या ? तथा सब पुद्गलों ने एक साथ इसे छोड़ा है क्या ? गौतम ! यह रत्नप्रभापृथ्वी कालक्रम से सब पुद्गलों द्वारा पूर्व में परित्यक्त है परन्तु सब पुद्गलों द्वारा एक साथ पूर्व में परित्यक्त नहीं है। इस प्रकार सप्तम पृथ्वी तक कहना चाहिए। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में प्रश्न किया गया है कि क्या संसार के सब जीवों और सब पुद्गलों ने रत्नप्रभा आदि पृथ्वियों में गमन और परिणमन किया है ? प्रश्न का प्राशय यह है कि क्या सब जीव रत्नप्रभा आदि में कालक्रम से उत्पन्न हुए हैं या एक साथ सब जीव उत्पन्न हुए हैं ? पुद्गलों के सम्बन्ध में भी रत्नप्रभादि के रूप में कालक्रम से या युगपत् परिणमन को लेकर प्रश्न समझना चाहिए। भगवान् ने कहा—गौतम! इस रत्नप्रभापृथ्वी में सब जीव कालक्रम से--अलग-अलग समय में पहले उत्पन्न हुए हैं / यहाँ सब जीवों से तात्पर्य संव्यवहार राशि वाले जीव ही समझने चाहिए, अब्यवहार राशि के जीव नहीं। संसार अनादिकालीन होने से अलग-अलग समय में सब जीव रत्नप्रभा आदि में उत्पन्न हुए हैं। परन्तु सब जीव एक साथ रत्नप्रभादि में उत्पन्न नहीं हुए। यदि सब जीव एक साथ रत्नप्रभादि में उत्पन्न हो जाएँ तो देव, तिर्यंच, मनुष्यादि का अभाव प्राप्त हो जावेगा / ऐसा कभी नहीं होता। जगत् का स्वभाव ही ऐसा है। तथाविध जगत-स्वभाव से चारों गतियां शाश्वत हैं / अतः एक साथ सब जीव रत्नप्रभादि में उत्पन्न नहीं हो सकते। Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 214] [जीवाजीवाभिगमसूत्र पहला प्रश्न उत्पाद को लेकर है। निर्गम को लेकर दूसरा प्रश्न किया है कि हे भगवन् ! सब जीवों ने पूर्व में कालक्रम से रत्नप्रभादि पृथ्वियों को छोड़ा है या सब जीवों ने पूर्व में एक साथ रत्नप्रभादि को छोड़ा है ? भगवान ने कहा-गौतम ! सब जीवों ने भूतकाल में कालक्रम से, अलग-अलग समय में रत्नप्रभादि भूमियों को छोड़ा है परन्तु सब जीवों ने एक साथ उन्हें नहीं छोड़ा। सब जीव एक साथ रत्नप्रभादि का परित्याग कर ही नहीं सकते। क्योंकि तथाविध निमित्त ही नहीं है / यदि एक साथ सब जीवों द्वारा रत्नप्रभादि का त्याग किया जाना माना जाय तो रत्नप्रभादि में नारकों का प्रभाव हो जायगा / ऐसा कभी नहीं होता। जीवों को लेकर हुए प्रश्नोत्तर के पश्चात् पुद्गल सम्बन्धी प्रश्न हैं। क्या सब पुद्गल भूतकाल में रत्नप्रभादि के रूप में कालक्रम से परिणत हुए हैं या एक साथ सब पुद्गल रत्नप्रभादि के रूप में परिणत हुए हैं ? भगवान् ने कहा-सब पुद्गल कालक्रम से अलग-अलग समय में रत्नप्रभादि के रूप में परिणत हुए हैं, क्योंकि संसार अनादिकाल से है और उसमें ऐसा परिणमन हो सकता है। परन्तु सब पुद्गल एक साथ रत्नप्रभादि के रूप में परिणत नहीं हो सकते / सब पुद्गलों के तद्रूप में परिणत होने पर रत्नप्रभादि को छोड़कर अन्यत्र सब जगह पुद्गलों का अभाव हो जावेगा / ऐसा तथाविध जगत्-स्वभाव के कारण कभी नहीं होता। इसी प्रकार सब पुद्गलों ने कालक्रम से रत्नप्रभादि रूप परिणमन का परित्याग किया है। क्योंकि संसार अनादि है, किन्तु सब पुद्गलों ने एक साथ रत्नप्रभादि रूप परिणमन का त्याग नहीं किया है। क्योंकि यदि बैसा माना जाय तो रत्नप्रभादि के स्वरूप का प्रभाव हो जावेगा। ऐसा हो नहीं सकता। क्योंकि तथाविध जगत्-स्वभाव से रत्नप्रभादि शाश्वत हैं। शाश्वत या प्रशाश्वत 78. इमा णं भंते ! रयणप्पभापुढवो कि सासया असासया ? गोयमा ! सिय सासया, सिय असासया। से केणठेणं भंते ! एवं बुच्चइ-सिय सासया, सिय प्रसासया ? गोयमा! दवयाए सासया, वण्णपज्जवेहि, गंधपज्नवेहि, रसपज्जवेहि, फासपज्जवेहि असासया; से तेणछैणं गोयमा! एवं वुच्चइ-तं चेव जाव सिय असासया। एवं जाव मधेसत्तमा। इमा णं भंते ! रयणप्पभापुढची कालमो केवन्धिरं होइ ? गोयमा! न कयाह ण आसि, न कयाइ गस्थि, न कयाइ न भविस्सह भुवि च भवई य भविस्सइ य; धुवा, णियया, सासया, अक्खया, अन्वया, अवढिमा णिच्चा / एवं चेव अधेसत्तमा / [78] हे भगवन् ! यह रत्नप्रभापृथ्वी शाश्वत है या अशाश्वत ? गौतम ! कथञ्चित् शाश्वत है और कथञ्चित् अशाश्वत है। भगवन् ! ऐसा क्यों कहा जाता है कपंचित् शाश्वत है, कथंचित् अशाश्वत है ? Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [215 तृतीय प्रतिपत्ति : शाश्वत और अशाश्वत] गौतम ! द्रव्याथिकनय की अपेक्षा से शाश्वत है और वर्ण-पर्यायों से, गंधपर्यायों से, रसपर्यायों से, स्पर्शपायों से अशाश्वत है। इसलिए गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि यह रत्नप्रभापृथ्वी कथंचित् शाश्वत है और कथंचित् प्रशाश्वत है / इसी प्रकार अधःसप्तमपृथ्वी तक कहना चाहिए। भगवन् ! यह रत्नप्रभापृथ्वी काल से कितने समय तक रहने वाली है ? गौतम ! यह रत्नप्रभापृथ्वी 'कभी नहीं थी', ऐसा नहीं, 'कभी नहीं है', ऐसा भी नहीं और 'कभी नहीं रहेगी', ऐसा भी नहीं। यह अतीतकाल में थी, वर्तमान में है और भविष्य में भी रहेगी। यह ध्र ब है, नित्य है, शाश्वत है, अक्षय है, अव्यय है, अवस्थित है और नित्य है। इसी प्रकार अधःसप्तमपृथ्वी तक जाननी चाहिए। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में रत्नप्रभापृथ्वी को शाश्वत भी कहा है और प्रशाश्वत भी कहा है। इस पर शंका होती है कि शाश्वतता और प्रशाश्वतता परस्पर विरोधी धर्म हैं तो एक ही वस्तु में दो विरोधी धर्म कैसे रह सकते हैं ? यदि वह शाश्वत है तो अशाश्वत नहीं हो सकती और प्रशाश्वत है तो शाश्वत नहीं हो सकती / जैसे शीतत्व और उष्णत्व एकत्र नहीं रह सकते / एकान्तवादी दर्शनों को ऐसी ही मान्यता है / अतएव नित्यैकान्तवादी अनित्यता का अपलाप करते हैं और अनित्यकान्तवादी नित्यता का अपलाप करते हैं। सांख्य प्रादि दर्शन एकान्त नित्यता का समर्थन करते हैं जबकि बौद्धादि दर्शन एकान्त क्षणिकता-अनित्यता का समर्थन करते हैं। जैनसिद्धान्त इन दोनों एकान्तों का निषेध करता है और अनेकान्त का समर्थन करता है। जैनागम और जनदर्शन प्रत्येक वस्तु को विविध दष्टिकोणों से देखकर उसकी विविधरूपता और एकरूपता को स्वीकार करता है। वस्त भिन्न-भिन्न विवक्षाओं और अपेक्षाओं से भिन्न रूप वाली है और उस भिन्नरूपता में भी उसका एकत्व रहा हुआ है। एकान्तवादी दर्शन केवल एक धर्म को ही समग्र वस्तु मान लेते हैं। जबकि वास्तव में वस्तु विविध पहलुत्रों से विभिन्न रूप वाली है / अतएव एकान्तवाद अपूर्ण है, एकांगी है। वह वस्तु के समग्र और सही स्वरूप को प्रकट नहीं करता। जैनसिद्धान्त वस्तु को समग्र रूप में देख कर प्ररूपणा करता है कि प्रत्येक वस्तू अपेक्षाभेद से नित्य भी है, अनित्य भी है, सामान्यरूप भी है, विशेषरूप भी है, एकरूप भी है और अनेकरूप भी है। भिन्न भी है और अभिन्न भी है। ऐसा मानने पर एकान्तवादी दर्शन जो विरुद्धधर्मता का दोष देते हैं बह यथार्थ नहीं है। क्योंकि विरोध दोष तो तब हो जब एक ही अपेक्षा या एक ही विवक्षा से उसे नित्यानित्य आदि कहा जाय / अपेक्षा या विवक्षा के भेद से ऐसा मानने पर कोई दोष या असंगति नहीं है। जैसे एक ही व्यक्ति विविध रिश्तों को लेकर पिता, पुत्र, मामा, काका आदि होता ही है / इसमें क्या विरोध है ? यह तो अनुभवसिद्ध और व्यवहारसिद्ध तथ्य है। ___जैनसिद्धान्त अपने इस अनेकान्तवादी दृष्टिकोण को नयों के आधार से प्रमाणित करता है। संक्षेप में नय दो प्रकार के हैं--१. द्रव्याथिकनय और 2. पर्यायाथिकनय / द्रव्यनय वस्तु के सामान्य स्वरूप को ग्रहण करता है और पर्यायनय वस्तु के विशेषस्वरूप को ग्रहण करता है / प्रत्येक वस्तु द्रव्यपर्यायात्मक है।' 1. उत्पादव्ययध्रौव्यमुक्तं सत् / -तत्वार्थसूत्र द्रव्य-पर्यायात्मकं वस्तु / Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 216] [जीवाजीवाभिगमसूत्र वस्तु न एकान्त द्रव्यरूप है और न एकान्त पर्याय रूप है। वह उभयात्मक है।' द्रव्य को छोड़कर पर्याय नहीं रहते और पर्याय के बिना द्रव्य नहीं रहता। द्रव्य, पर्यायों का आधार है और पर्याय द्रव्य का प्राधेय हैं / आधेय के बिना आधार और आधार के बिना प्राधेय की स्थिति ही नहीं है। द्रव्य के बिना पर्याय और पर्याय के बिना द्रव्य नहीं रह सकता। अतएव कहा जा सकता है कि परपरिकल्पित एकान्त द्रव्य असत् है क्योंकि वह पर्यायरहित है। जो पर्याय रहित है वह द्रव्य असत् है जैसे बालत्वादिपर्याय से शून्य वन्ध्यापुत्र / इसी तरह यह भी कहा जा सकता है कि परपरिकल्पित एकान्त पर्याय असत् है क्योंकि वह द्रव्य से भिन्न है / जो द्रव्य से भिन्न है वह असत् है जसे वन्ध्यापुत्र की बालत्व आदि पर्याय / अतएव सिद्ध होता है कि वस्तु द्रव्य-पर्यायात्मक है और उभयदृष्टि से उसका समग्र विचार करना चाहिए। उक्त अनेकान्तवादी एवं प्रमाणित दृष्टिकोण को लेकर ही सूत्र में कहा गया है कि रत्नप्रभापृथ्वी द्रव्य की अपेक्षा से शाश्वत है / अर्थात् रत्नप्रभा पृथ्वी का प्राकारादि भाव उसका अस्तित्व आदि सदा से था, है और रहेगा। अतएव वह शाश्वत है। परन्तु उसके कृष्णादि वर्ण पर्याय, गंधादि पर्याय, रस पर्याय, स्पर्श पर्याय आदि प्रतिक्षण पलटते रहते हैं अतएव वह अशाश्वत भी है / इस प्रकार द्रव्याथिकनय की विवक्षा से रत्नप्रभापृथ्वी शाश्वत है और पर्यायाथिक नय से वह अशाश्वत है। इसी प्रकार सातों नरकपृथ्वियों की वक्तव्यता जाननी चाहिए। रत्नप्रभादि की शाश्वतता द्रव्यापेक्षया कही जाने पर शंका हो सकती है कि यह शाश्वतता सकलकालावस्थिति रूप है या दीर्घकाल-अवस्थितिरूप है, जैसा कि अन्यतीर्थी कहते हैं-यह पृथ्वी आकल्प शाश्वत है ? 2 इस शंका का समाधान करते हुए कहा गया है कि यह पृथ्वी अनादिकाल से सदा से थी, सदा है और सदा रहेगी। यह अनादि-अनन्त है। त्रिकालभावी होने से यह ध्रुव है, नियत स्वरूप वाली होने से धर्मस्तिकाय की तरह नियत है, नियत होने से शाश्वत है, क्योंकि इसका प्रलय नहीं होता / शाश्वत होने से अक्षय है और अक्षय होने से अव्यय है और अव्यय होने से स्वप्रमाण में अवस्थित है / अतएव सदा रहने के कारण नित्य है / अथवा ध्र वादि शब्दों को एकार्थक भी समझा जा सकता है / शाश्वतता पर विशेष भार देने हेतु विविध एकार्थक शब्दों का प्रयोग किया गया है। इसी प्रकार सातों पृथ्वियों की शाश्वतता जाननी चाहिए। प्रवियों का विभागवार अन्तर 79. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए उरिल्लाओ चरिमंताओ हेटिल्ले चरिमंते एस णं केवतियं अबाधाए अंतरे पण्णते ? गोयमा ! असिउत्तरं जोयणसयसहस्सं अबाधाए अंतरे पण्णत्ते / इमीसे गं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए उवरिल्लाओ चरिमंतानो खरस्स कंडस्स हेदिल्ले चरिमंते एस णं केवइयं अबाधाए अंतरे पण्णत्ते ? गोयमा ! सोलस जोयणसहस्साई अबाधाए अंतरे पण्णत्ते / 1. द्रव्यं पर्यायवियुत, पर्याया द्रव्यवजिता / क्व कदा केन किंरूपा, दृष्टा मानेन केन वा / 2. 'पाकप्पट्ठाई पुढवी सासया।' Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपसि : पृश्चियों का विभागवार अन्तर] [217 इमीसे णं भंते ! रयण. पु० उवरिल्लानो चरिमंताओ रयणकंडस्स हेडिल्ले चरिमंते एस णं केवइयं अबाधाए अंतरे पण्णत्ते ? गोयमा ! एक्कं जोयणसहस्सं अबाधाए अंतरे पण्णते ? इमोसे गं भंते ! रयण पु० उवरिल्लाओ चरिमंतानो वइरस्स कंडस्स उरिल्ले चरिमंते एस णं केवइयं अबाधाए अंतरे पण्णते? गोयमा ! एक्कं जोयणसहस्सं अबाधाए अंतरे पण्णते ? __ इमीसे गं रयण पु० उवरिल्लाओ चरिमंतानो वइरस्स कंडस्स हेदिल्ले चरिमंते एस गं भंते ! केवइयं अबाधाए अंतरे पण्णत्ते? गोयमा ! दो जोयणसहस्साई इमीसे णं अबाधाए अंतरे पण्णत्ते / एवं जाव रिटुस्स उवरिल्ले पन्नरस जोयणसहस्साई, हेढिल्ले चरमंते सोलस जोयणसहस्साई। __ इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए उरिल्लामो चरमंताओ पंकबहुलस्स कंडस्स उवरिल्ले चरिमंते एस णं अबाहाए केवइयं अंतरे पण्णत्ते? गोयमा ! सोलस जोयणसहस्साई अबाधाए अंतरे पण्णत्ते / हेदिल्ले चरमंते एक्कं जोयणसयसहस्संआवबहुलस्स उवरि एक्कं जोयणसयसहस्सं हेटिल्ले चरिमंते असीउसरं जोयणसयसहस्सं / घणोदधि उवरिल्ले असिउत्तर जोयणसयसहस्सं, हेदिल्ले चरिमंते दो जोयणसयसहस्साई / इमोसे णं भंते ! रयण पु० घणवातस्स उवरिल्ले चरिमंते दो जोयणसयसहस्साइं। हेडिल्ले चरिमंते असंखेज्जाई जोयणसयसहस्साई। इमोसे णं भंते ! रयण पु० तणुवायस्स उवरिल्ले चरमंते असंखेज्जाई जोयणसयसहस्साई अबाधाए अंतरे, हेट्ठिल्ले वि असंखेज्जाइं जोयणसयसहस्साइं। एवं ओवासंतरे वि। दोच्चाए णं भंते ! पुढवीए उवरिल्लाओ चरिमंताओ हेटिल्ले चरिमंते एस गं केवइयं अबाधाए अंतरे पण्णते? गोयमा ! बत्तीसुत्तर जोयणसयसहस्सं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। सक्करप्पभाए पुढवीए उवरि घणोदधिस्स हेटिल्ले चरिमंते बावण्णुत्तरं जोयणसयसहस्सं अबाधाए / घणवातस्स असंखेज्जाइं जोयणसयसहस्साइं पण्णत्ताई। एवं जाव प्रोवासंतरस्स वि / जाव असत्तमाए, णवरं जीसे जं बाहल्लं तेण घणोदीध संबंधेयम्वो बुद्धीए। ___ सक्करप्पभाए अणुसारेणं घणोदधिसहियाणं इमं पमाणं--तच्चाए गं भंते ! अडयालीसुत्तरं जोयणसयसहस्सं / पंकप्पभाए पुढवीए चत्तालोसुत्तरं जोयणसयसहस्सं। धूमप्पभाए पुढवीए अट्ठतीसुत्तरं जोयणसयसहस्सं / तमाए पुढवीए छत्तीसुत्तरं जोयणसयसहस्सं। अहेसत्तमाए पुढवीए अट्ठावीसुत्तरं जोयणसयसहस्सं जाव अधेसत्तमाए। एस णं भंते ! पुढबीए उवरिल्लाओ चरिमंताओ ओवासंतरस्स हेटिल्ले चरिमंते केवइयं अबाधाए अंतरे पण्णत्ते ? गोयमा ! प्रसंज्जाइं जोयणसयसहस्साई अबाधाए अंतरे पण्णत्ते। Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 218] मोवानीवाभिगमसूत्र [79] भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के ऊपर के चरमांत से नीचे के चरमान्त के बीच कितना अन्तर कहा गया है ? गौतम ! एक लाख अस्सी हजार योजन का अन्तर है / भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के ऊपर के चरमान्त से खरकांड के नीचे के चरमान्त के बीच कितना अन्तर है ? गौतम ! सोलह हजार योजन का अन्तर है। ] हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के ऊपर के चरमान्त से रत्नकांड के नीचे के चरमान्त के बीच कितना अन्तर है ? | गौतम ! एक हजार योजन का अन्तर है। भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के ऊपर के चरमान्त से वज्रकांड के ऊपर के चरमान्त के बीच कितना अन्तर है ? गौतम ! एक हजार योजन का अन्तर है / भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के ऊपर के चरमान्त से वजकांड के नीचे के चरमान्त के बीच कितना अन्तर है? गौतम ! दो हजार योजन का अन्तर है। इस प्रकार रिष्टकाण्ड के ऊपर के चरमान्त के बीच पन्द्रह हजार योजन का अन्तर है और नीचे के चरमान्त तक सोलह हजार का अन्तर है / _ भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के ऊपर के चरमान्त से पंकबहुलकाण्ड के ऊपर के चरमान्त के बीच कितना अन्तर है ? गौतम ! सोलह हजार योजन का अन्तर है। नीचे के चरमान्त तक एक लाख योजन का अन्तर है / अपबहुलकाण्ड के ऊपर के चरमान्त तक एक लाख योजन का और नीचे के चरमान्त तक एक लाख अस्सी हजार योजन का अन्तर है / घनोदधि के ऊपर के चरमान्त तक एक लाख अस्सी हजार और नीचे के चरमान्त तक दो लाख योजन का अन्तर है। इस रत्नप्रभापृथ्वी के ऊपर के चरमान्त से धनवात के ऊपर के चरमान्त तक दो लाख योजन का अन्तर है और नीचे के चरमान्त तक असंख्यात लाख योजन का अन्तर है। ___ इस रत्नप्रभापृथ्वी के ऊपर के चरमान्त से तनुवात के ऊपर के चरमान्त तक असंख्यात लाख योजन का अन्तर है और नीचे के चरमान्त तक भी असंख्यात लाख योजन का अन्तर है। इसी प्रकार अवकाशान्तर के दोनों चरमान्तों का भी अन्तर समझना चाहिए। हे भगवन् ! दूसरी पृथ्वी (शर्कराप्रभा) के ऊपर के चरमान्त से नीचे के चरमान्त के बीच कितना अन्तर है ? गौतम ! एक लाख बत्तीस हजार योजन का अन्तर है / धनोदधि के उपरि चरमान्त के बीच एक लाख बत्तीस हजार योजन का अन्तर है। नीचे के चरमान्त तक एक लाख बावन हजार योजन का Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततीय प्रतिपत्ति: बाहल्य की अपेक्षा तुल्यतादि] [219 अन्तर है। धनवात के उपरितन चरमान्त का अन्तर भी इतना ही है। धनवात के नीचे के चरमान्त तक तथा तनुवात और अवकाशान्तर के ऊपर और नीचे के चरमान्त तक असंख्यात लाख योजन का अन्तर है। इस प्रकार सप्तम पृथ्वी तक कहना चाहिए / विशेषता यह है कि जिस पृथ्वी का जितना बाहल्य है उससे घनोदधि का संबंध बुद्धि से जोड़ लेना चाहिए। जैसे कि तीसरी पृथ्वी के ऊपर के चरमान्त से घनोदधि के चरमान्त तक एक लाख अड़तासीस हजार योजन का अन्तर है / पंकप्रभा पृथ्वी के ऊपर के चरमान्त से उसके घनोदधि के चरमान्त तक एक लाख चवालीस हजार का अन्तर है / घूमप्रभा के ऊपरी चरमान्त से उसके घनोदधि के चरमान्त तक एक लाख अड़तीस हजार योजन का अन्तर है। तमःप्रभा में एक लाख छत्तीस हजार योजन का अन्तर तथा अधःसप्तम पृथ्वी के ऊपर के चरमान्त से उसके घनोदधि का चरमान्त एक लाख अट्ठावीस हजार योजन है। इसी प्रकार घनवात के अधस्तन चरमान्त की पृच्छा में तनुवात और अवकाशान्तर के उपरितन और अधस्तन की पृच्छा में असंख्यात लाख योजन का अन्तर कहना चाहिए। बाहल्य की अपेक्षा तुल्यतादि 80. इमा णं भंते ! रयणप्पभा पुढवी दोच्चं पुढवि पणिहाय बाहल्लेणं किं तुल्ला, विसेसाहिया, संखेज्जगुणा ? वित्थरेणं किं तुल्ला विसेसहीणा संखेज्जगुणहीणा ? गोयमा ! इमा णं रयणप्पभा पुढवी दोच्चं पुढवि पणिहाय बाहल्लेणं नो तुल्ला, विसेसाहिया नो संखेज्जगुणा, वित्यारेणं नो तुल्ला, विसेसहीणा, णो संखेज्जगुणहीना। वोच्चा णं भंते ! पुढवी तच्चं पुढवि पणिहाय बाहल्लेणं किं तुल्ला? एवं चेव भाणियव्वं / एवं तच्चा चउत्थी पंचमी छट्ठी / छट्ठी गं भंते ! पुढवी सत्तमं पुढवि पणिहाय बाहल्लेणं कि तुल्ला, विसेसाहिया, संखेज्जगुणा? एवं चेव भाणियव्यं / सेवं भंते ! सेवं भंते ! नेरइयउद्देसओ पढमो। [80] हे भगवन् ! यह रत्नप्रभापृथ्वी दूसरी नरकपृथ्वी की अपेक्षा मोटाई में क्या तुल्य है, विशेषाधिक है या संख्येयगुण है ? और विस्तार की अपेक्षा क्या तुल्य है, विशेषहीन है या संख्येयगुणहीन है ? गौतम ! यह रत्नप्रभापृथ्वी दूसरी नरकपृथ्वी की अपेक्षा मोटाई में तुल्य नहीं है, विशेषाधिक है, संख्यातगुणहीन है। विस्तार की अपेक्षा तुल्य नहीं है, विशेषहीन है, संख्यातगुणहीन नहीं है। भगवन् ! दूसरी नरकपृथ्वी तीसरी नरकपृथ्वी की अपेक्षा मोटाई में क्या तुल्य है इत्यादि उसी प्रकार कहना चाहिए / इसी प्रकार तीसरी, चौथी, पांचवीं और छठी नरक पृथ्वी के विषय में समझना चाहिए। भगवन् ! छठी नरकपृथ्वी सातवीं नरकपृथ्वी की अपेक्षा बाहल्य में क्या तुल्य है, विशेषाधिक है या संख्येयगुण है ? उसी प्रकार कहना चाहिए / Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 220 [जीवाजीवाभिगमसूत्र हे भगवन् ! (जैसा आपने कहा) वह वैसा ही है, वह वैसा ही है / इस प्रकार प्रथम नैरयिक उद्देशक पूर्ण हुआ। विवेचन–प्रस्तुत सूत्र में नरकपृथ्वियों के बाहल्य और विस्तार को लेकर आपेक्षिक तुल्यता, विशेषाधिकता या विशेषहीनता अथवा संख्यातगुणविशेषाधिकता या संख्यातगुणहीनता को लेकर प्रश्न किये गये हैं / यहाँ यह शंका हो सकती है कि पूर्वसूत्रों में नरकपृथ्वियों का बाहल्य बता दिया गया है, उससे अपने आप यह बात ज्ञात हो जाती है तो फिर इन प्रश्नों की क्या उपयोगिता है ? यह शंका यथार्थ है परन्तु समाधान यह है-यह प्रश्न स्वयं जानते हुए भी दूसरे मंदमतियों की अज्ञाननिवृत्ति हेतु और उन्हें समझाने हेतु किया गया है। प्रश्न दो प्रकार के हैं—एक ज्ञ-प्रश्न और दूसरा अज्ञ-प्रश्न / स्वयं जानते हुए भी जो दूसरों को समझाने की दृष्टि से प्रश्न किया जाय वह ज्ञ-प्रश्न है और जो अपनी जिज्ञासा के लिए किया जाता है वह प्रज्ञ-प्रश्न है / ऊपर जो प्रश्न किया गया है वह ज्ञ- प्रश्न है जो मंदमतियों के लिए किया गया है। यह कैसे कहा जा सकता है कि यह ज्ञ-प्रश्न है ? क्योंकि इसके आगे जो प्रश्न किया गया है वह स्व-अवबोध के लिए है। सूत्र में प्रश्न किया गया है कि दूसरी नरकपृथ्वी की अपेक्षा यह रत्नप्रभापृथ्वी मोटाई में तुल्य है, विशेषाधिक है या संख्येयगुण है ? उत्तर में कहा गया है तुल्य नहीं है, विशेषाधिक है किन्तु संख्येयगुण नहीं हैं। क्योंकि रत्नप्रभा की मोटाई एक लाख अस्सी हजार योजन की है और दूसरी शर्करापृथ्वी की मोटाई एक लाख बत्तीस हजार योजन है। दोनों में अड़तालीस हजार योजन का अन्तर है / इतना ही अन्तर होने के कारण विशेषाधिकता ही घटती है तुल्यता और संख्येयगुणता घटित नहीं होती। सब पृथ्वियों की मोटाई यहाँ उद्धृत कर देते हैं ताकि स्वयमेव यह प्रतीत हो जावेगा कि दूसरी पृथ्वी की अपेक्षा प्रथम पृथ्वी बाहल्य में विशेषाधिक है और तीसरी की अपेक्षा दूसरी विशेषाधिक है तथा चौथी की अपेक्षा तीसरी विशेषाधिक है, इसी तरह सातवीं की अपेक्षा छठी पृथ्वी मोटाई में विशेषाधिक है / सब पृथ्वियों की मोटाई इस प्रकार है प्रथम पृथ्वी की मोटाई एक लाख अस्सी हजार योजन की है। दूसरी पृथ्वी की मोटाई एक लाख बत्तीस हजार योजन की है / तीसरी पृथ्वी की एक लाख अट्ठाईस हजार योजन की है। चौथी पृथ्वी की एक लाख बीस हजार योजन की है। पांचवीं पृथ्वी की एक लाख अठारह हजार योजन की है। छठी पृथ्वी की मोटाई एक लाख सोलह हजार योजन की है। सातवीं पृथ्वी को मोटाई एक लाख आठ हजार योजन की है। अतएव बाहल्य की अपेक्षा से पूर्व-पूर्व की पृथ्वी अपनी पिछली पृथ्वी की अपेक्षा विशेषाधिक ही है, तुल्य या संख्येयगुण नहीं। विस्तार की अपेक्षा पिछली-पिछली पृथ्वी की अपेक्षा पूर्व-पूर्व की पृथ्वी विशेषहीन है, तुल्य या संख्येयगुणहीन नहीं। रत्नप्रभा में प्रदेशादि की वृद्धि से प्रवर्धमान होने पर उतने ही क्षेत्र में शर्कराप्रभादि में भी वृद्धि होती है, अतएव विशेषहीनता ही घटित होती है। Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: बाहल्य की अपेक्षा तुल्यतादि] ]221 इस प्रकार भगवान के द्वारा प्रश्नों के उत्तर दिये जाने पर श्री गौतमस्वामी भगवान् के प्रति अपनी अटूट और अनुपम श्रद्धा व्यक्त करते हुए कहते हैं कि भगवन् ! आपने जो कुछ फरमाया, वह पूर्णतया वैसा ही है, सत्य है, यथार्थ है। ऐसा कह कर गौतमस्वामी भगवान् को वन्दननमस्कार करके संयम एवं तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरते हैं / इस प्रकार जीवाजीवाभिगम की तीसरी प्रतिपत्ति का प्रथम मरक-उद्देशक समाप्त / 00 Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति द्वितीय उद्देशक प्रथम उद्देशक में नरक-पृथ्वियों के नाम, गोत्र, बाहल्य आदि विविध जानकारियां दी गई हैं। अब क्रमप्राप्त द्वितीय उद्देशक में नरक पृथ्वियों के किस प्रदेश में कितने नरकावास हैं और वे कैसे हैं, इत्यादि वर्णन किया जा रहा है। उसका आदि सूत्र यह है 81. कइ णं भंते ! पुढवीओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! सत्त पुढवीओ पण्णताओ, तंजहा-रयणप्पभा जाव अहेसत्तमा / इमोसे णं रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तर जोयणसयसहस्सबाहल्लाए उरि केवइयं ओगाहित्ता हेट्ठा केवइयं वज्जित्ता मज्शे केवइए केवइया निरयावाससयसहस्सा पण्णता? गोयमा ! इमोसे गं रयणप्पभाए पुढवीए असोउत्तर जोयणसयसहस्सबाहल्लाए उरि एगं जोयणसहस्सं ओगाहित्ता हेट्ठावि एग जोयणसहस्सं वज्जेता मज्झे अडसत्तरी जोयणसयसहस्सा, एल्थ णं रयणप्पभाए पुढवीए नेरझ्याणं तीसं निरयावाससयसहस्साई भवंति ति मक्खाया। ते णं गरग अंतोयट्टा बाहिं चउरंसा जाव असुभा णरएसु क्यणा / एवं एएणं अभिलावेणं उवजुजिउण भाणियन्वं ठाणप्पयाणुसारेण, जत्थ जं बाहल्लं जत्थ जत्तिथा वानिरयावाससयसहस्सा जाव अहे सत्तमाए पुढवीए- अहे सत्तमाए मज्झिमं केवइए कति अणुत्तरा महामहालया महाणिरया पण्णत्ता, एवं पुच्छियव्वं वागरेयव्वं पि तहेव / [81] हे भगवन् ! पृथ्वियां कितनी कही गई हैं ? गौतम ! सात पृथ्वियां कही गई हैं जैसे कि रत्नप्रभा यावत् अधःसप्तम पृथ्वी / भगवन् ! एक लाख अस्सी हजार योजन प्रमाण बाहल्य वाली इस रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपर से कितनी दूर जाने पर और नीचे के कितने भाग को छोड़कर मध्य के कितने भाग में कितने लाख नरकावास कहे गये हैं ? गौतम ! इस एक लाख अस्सीहजार योजनप्रमाण बाहल्यवाली रत्नप्रभापृथ्वी के एक हजार योजन का ऊपरी भाग छोड़ कर और नीचे का एक हजार योजन का भाग छोड़कर मध्य में एक लाख अठहत्तर हजार योजनप्रमाणक्षेत्र में तीस लाख नरकावास हैं, ऐसा कहा गया है / ये नरकावास अन्दर से मध्य भाग में गोल हैं बाहर से चौकोन है यावत् इन नरकावासों में अशुभ वेदना है। इसो अभिलाप के अनुसार प्रज्ञापना के स्थानपद के मुताबिक सब वक्तव्यता कहनी चाहिए / जहाँ जितना बाहल्य है और जहाँ जितने नरकावास हैं, उन्हें विशेषण के रूप में जोड़कर सप्तम पृथ्वी पर्यन्त कहना चाहिए, यथा--अधःसप्तमपृथ्वी के मध्यवर्ती कितने क्षेत्र में कितने अनुत्तर, बड़े से बड़े महानरक कहे गये हैं, ऐसा प्रश्न करके उसका उत्तर भी पूर्ववत् कहना चाहिए / Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : द्वितीय उद्देशक] [223 विवेचन-पृथ्वियां कितनी हैं ? यह प्रश्न पहले किया जा चुका है और उसका उत्तर भी पूर्व में दिया जा चुका है कि पृथ्वियां सात हैं—यथा रत्नप्रभा से लगाकर अधःसप्तम पृथ्वी तक / फिर दुबारा क्यों किया गया है, यह शंका सहज होती है / इसका समाधान करते हुए पूर्वाचार्यों ने कहा है कि 'जो पूर्ववणित विषय पुनः कहा जाता है वह किसी विशेष कारण को लेकर होता है। वह विशेष कारण प्रतिषेध या अनुज्ञारूप भी हो सकता है और पूर्व विषय में विशेषता प्रतिपादन रूप भी हो सकता है।' यहाँ दुबारा किया गया यह प्रश्न और पूर्ववर्णित विषय में अधिक और विशेष जानकारी देने के अभिप्राय से समझना चाहिए। यहाँ विशेष प्रश्न यह है कि नरकावासों की स्थिति नरक-पृथ्वियों के कितने भाग में है तथा उन नरकावासों का प्राकार कैसा है तथा वहाँ के नारक जीव कैसी वेदना भोगते हैं ? इन प्रश्नों के संदर्भ में प्रभु ने फरमाया कि एक लाख अस्सी हजार योजन प्रमाण बाहल्य ( मोटाई ) वाली रत्नप्रभापृथ्वी के उपरी भाग से एक हजार योजन की दूरी पार करने पर और अन्तभाग का एक हजार योजन प्रमाण भाग छोड़कर मध्य के एक लाख अठहत्तर हजार योजन प्रमाण क्षेत्र में तीस लाख नरकावास कहे गये हैं। यह कथन जैसे मैं कर रहा हूँ वैसा हो अतीत काल के तीर्थंकरों ने भी किया है / सब तीर्थंकरों के वचनों में अविसंवादिता और एकरूपता होती है। ये नरकावास मध्य में गोल हैं और बाहर से चतुष्कोण हैं / पीठ के ऊपर वर्तमान जो मध्यभाग है उसको लेकर गोलाकृति कही गई है तथा सकलपीठादि की अपेक्षा से तो प्रावलिका प्रविष्ट नरकावास तिकोण, चतुष्कोण संस्थान वाले कहे गये हैं और जो पुष्पावकीर्ण नरकावास हैं वे अनेक प्रकार के हैं--सूत्र में आये हुए 'जाव असुभा' पद से२ टिप्पण में दिये पाठ का संग्रह हुआ है, जिसका अर्थ इस प्रकार है-- अहेख रप्पसंठाणा-ये नरकावास नीचे के भाग से क्षुरा (उस्तरा) के समान तीक्ष्ण आकार के हैं / इसका अर्थ यह है कि इन नरकावासों का भूमितल चिकना या मुलायम नहीं है किन्तु कंकरों से युक्त है, जिनके स्पर्शमात्र से नारकियों के पांव कट जाते हैं-छिल जाते हैं और वे वेदना का अनुभव करते हैं। पिच्चंषयारतमसा--उन नरकावासों में सदा गाढ अन्धकार बना रहता है / तीर्थकरादि के जन्मादि प्रसंगों के अतिरिक्त वहाँ प्रकाश का सर्वथा अभाव होने से जात्यन्ध की भांति या मेधाच्छन्न अर्धरात्रि के अन्धकार से भी अतिघना अन्धकार वहाँ सदाकाल व्याप्त रहता है, क्योंकि वहाँ प्रकाश करने वाले सूर्यादि हैं ही नहीं / इसी को विशेष स्पष्ट करने के लिए भागे और विशेषण दिया है.. ववगयगहचंदसूरनक्खत्तजोइसपहा---उन नरकावासों में ग्रह-चन्द्र-सूर्य-नक्षत्र-तारा आदि ज्योतिष्कों का पथ संचार रास्ता नहीं है अर्थात् ये प्रकाश करने वाले तत्त्व वहाँ नहीं हैं / 1. पुन्वभणियं पि जं पुण भण्णइ तत्थ कारणमस्थि / पडिसेहो य अणुण्णा कारण विसेसोवलंभो वा // 2. 'अहे खुरप्पसंठाणसंठिया, णिचंधयारतमसा, बवगयगह-चंद-सूर-मक्खत्तजोइसपहा, मेयवसापूयरुहिरमंसचि विखल्ललित्ताणुलेवणतला, असुहबीभच्छा, परमदुब्भिगंधा काऊप्रगणिवण्णाभा कक्खडफासा दुरहियासा असुहा नरएसा वियणा / Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 224] [जीवाजीवाभिगमसूत्र ___ मेयवसापूयरुहिरमंसचिक्खिल्ललित्ताणुलेवणतला-उन नरकावासों का भूमितल मेद, चर्बी, पूति (पीप), खून और मांस के कीचड़ से सना हुआ है, पुनः पुनः अनुलिप्त है। " असुइबीभच्छा–मेदादि के कीचड़ के कारण अशुचिरूप होने से अत्यन्त घृणोत्पादक और बीभत्स हैं / उन्हें देखने मात्र से ही अत्यन्त ग्लानि होती है। परमदुभिगंधा-वे नरकावास अत्यन्त दुर्गन्ध वाले हैं। उनसे वैसी दुर्गन्ध निकलती रहती है जैसे मरे हुए जानवरों के कलेवरों से निकलती है / काउअगणिवण्णाभा-लोहे को धमधमाते समय जैसे अग्नि की ज्वाला का वर्ण बहुत काला हो जाता है-इस प्रकार के वर्ण के वे नरकावास हैं / अर्थात् वर्ण की अपेक्षा से अत्यन्त काले हैं / कक्खडफासा-उन नरकावासों का स्पर्श अत्यन्त कर्कश है। असिपत्र (तलवार की धार) की तरह वहाँ का स्पर्श अति दुःसह है / दुरहियासा-वे नरकावास इतने दुःखदायी है कि उन दुःखों को सहन करना बहुत ही कठिन होता है। असुभा वेयणा-वे नरकावास बहुत ही अशुभ हैं ! देखने मात्र से ही उनकी अशुभता मालूम होती है। वहाँ के वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और शब्द-~सब अशुभ ही अशुभ हैं तथा वहाँ जीवों को जो वेदना होती है वह भी अतीव असातारूप होती है अतएव 'अशुभवेदना' ऐसा विशेषण दिया गया है। नरकावासों में उक्त प्रकार की तीन एवं दुःसह वेदनाएँ होती हैं। रत्नप्रभापृथ्वी को लेकर जो वक्तव्यता कही है, वही वक्तव्यता शर्करापृथ्वी के सम्बन्ध में भी है। केवल शर्करापृथ्वी की मोटाई तथा उसके नरकावासों की संख्या का विशेषण उसके साथ जोड़ना चाहिए। उदाहरण के लिए शर्कराप्रभा-पृथ्वी संबंधी पाठ इस प्रकार होगा-~ 'सक्करप्पमाए णं भंते ! पुढवीए बत्तीसुत्तर-जोयणसयसहस्सबाहल्लाए उरि केवइयं ओगाहित्ता हेट्ठा केवइयं वज्जेत्ता मज्झे चेव केवइए केवइया णिरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता ? गोयमा ! सक्करप्पभाए बत्तीसुत्तर-जोयणसयसहस्सबाहल्लाए उरि एग जोयणसहस्समोगाहित्ता हेवा एगं जोयणसहस्सं वज्जेत्ता मज्झे तीसुत्तर जोयणसयसहस्से, एत्थ णं सक्करप्पभाए पुढविनेरइयाणं पणवीसा नरयावाससय सहस्सा भवंति ति मक्खाय, ते णं णरगा अंतो वट्टा जाव असुभानरएसु वेयणा / ' इसी प्रकार बालुकाप्रभा, पंकप्रभा धूमप्रभा, और तमःप्रभा तथा अधः सप्तमपृथ्वी तक का पाठ कहना चाहिए। सब पृथ्वियों का बाहल्य और नरकावासों की संख्या निम्न कोष्ठक से जानना चाहिए 1. इस संबंध में निम्न संगहणी गाथाएँ उपयोगी हैं: पासीयं बत्तीसं अट्ठावीसं तहेव वीसं च / अट्ठारस सोलसगं अट्ठत्तरमेव हिट्ठिमया // 1 // अट्टत्तरं च तीसं छन्वीसं चेव सयसहस्सं तु / अट्ठारस सोलसगं चोइसमाहियं तु छट्टीए // 2 // अद्धतिवण्णसहस्सा उवरिमहे वज्जिऊण भणिया। मज्झे तिसु सहस्सेसु होंति निरया तमतमाए // 3 // तीसा य पण्णवीसा पण्णरस दस चेव सयसहस्साइ / तिन्नि य पंचणेग पंचेव अणत्तरा निरया // 4 // Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : नरकावासों का संस्थान] [225 संख्या पृथ्वीनाम बाहल्य (योजन) नरकावास संख्या रत्नप्रभा शर्कराप्रभा बालुकाप्रभा पंकप्रभा धूमप्रभा तमःप्रभा 1,80000 1,32000 1,28000 1,20000 1,18000 1,16000 मध्यभाग पोलार (योजन) 1,78000 1,30000 1,26000 1,18000 1,16000 1,14000 तीस लाख पच्चीस लाख पन्द्रह लाख दस लाख तीन लाख निन्यानवे हजार नौ सौ पिच्यानवे पांच अधःसप्तम पृ. 1,08000 3000 नरकावासों का संस्थान 82. [1] इमोसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए गरका किसंठिया पण्णता ? गोयमा ! दुविहा पण्णता, तंजहा-आवलियपविट्ठा य आवलियबाहिरा य। तत्थ णं जे ते प्रावलियपविट्ठा ते तिविहा पण्णता, तंजहा-बट्टा, तंसा, चउरंसा। तत्थ णं जे ते आवलियबाहिरा ते गाणासंठाणसंठिया पण्णता, तंजहा-अयकोढसंठिया, पिटुपयणगसंठिया, कंडसंठिया, लोहीसंठिया, काहसंठिया, थालीसंठिया, पिढरगसंठिया, किमियडसंठिया, किन्नपुडगसंठिया, उडय संठिया, मुरयसंठिया, मुयंगसंठिया, नंदिमुयंगसंठिया, आलिंगकसंठिया, सुघोससंठिया, बद्दरयसंठिया, पणवसंठिया, पडहसंठिया, मेरीसंठिया, झल्लरिसंठिया, कुत बकसंठिया, नालिसंठिया, एवं जाव तमाए। अहे सत्तमाए णं भंते ! पुढवीए गरका किसंठिया पण्णता? गोयमा ! दुविहा पण्णता, तंजहा-बट्टे य तंसा य / [82-1] हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नरकावासों का आकार कसा कहा गया है ? गौतम ! ये नरकावास दो तरह के हैं-१ श्रावलिकाप्रविष्ट और 2 आवलिकाबाह्य / इनमें जो आवलिकाप्रविष्ट (श्रेणीबद्ध) हैं वे तीन प्रकार के हैं-१. गोल, 2. त्रिकोण और 3. चतुष्कोण / जो पावलिका से बाहर (पुष्पावकीर्ण) हैं वे नाना प्रकार के प्राकारों के हैं, जैसे कोई लोहे की कोठी के आकार के हैं, कोई मदिरा बनाने हेतु पिष्ट आदि पकाने के बर्तन के आकार के हैं, कोई कंदूहलवाई के पाकपात्र जैसे हैं, कोई लोही-तवा के आकार के हैं, कोई कडाही के आकार के हैं, कोई थाली- प्रोदन पकाने के बर्तन जैसे हैं. कोई पिठरक (जिसमें बहत से मनुष्यों के लिए भोजन पकाया जाता है वह बर्तन) के आकार के हैं, कोई कृमिक (जीवविशेष) के आकार के हैं, कोई कीर्णपुटक जैसे हैं, कोई तापस के आश्रम जैसे, कोई मुरज (वाद्यविशेष) जैसे, कोई मृदंग के आकार के, कोई नन्दिमृदंग (बारह प्रकार के वाद्यों में से एक) के आकार के, कोई प्रालिंगक (मिट्टी का मृदंग) के जैसे, कोई सुघोषा घंटे के समान, कोई दर्दर (वाद्यविशेष) के समान, कोई पणव (ढोलविशेष) जैसे, कोई Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 226] [जीवाजीवाभिगमसूत्र पटह (ढोल) जैसे, भेरी जैसे, झल्लरी जैसे, कोई कुस्तुम्बक (वाध-विशेष) जैसे और कोई नाडीघटिका जैसे हैं / इस प्रकार छठी नरक पृथ्वी तक कहना चाहिए। भगवन् ! सातवीं पृथ्वी के नरकावासों का संस्थान कैसा है ? गौतम वे दो प्रकार के हैं--वृत्त (गोल) और त्रिकोण / [2] इमोसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढबीए नरका केवइयं बाहल्लेणं पण्णता? गोयमा ! तिण्णि जोयणसहस्साई बाहल्लेणं पण्णत्ता, तंजहा–हेट्ठा घणा सहस्सं मझे झुसिरा सहस्सं, उप्पि संकुइया सहस्स; एवं जाव अहेसत्तमाए। इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नरका केवइयं आयाम-विक्खंभेणं केवइयं परिक्खेवेणं पण्णता? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तंजहा–संखेज्जवित्थडा य असंखेज्जवित्थडा य / तत्थ णं जे ते संखेज्जवित्थडा ते णं संखेज्जाइं जोयणसहस्साई आयामविक्खमेणं संखेज्जाइं जोयणसहस्साइं परिक्खेवेणं पण्णत्ता / तत्थ णं जे ते असंखेज्जवित्थडा ते णं असंखेज्जाई जोयणसहस्साइं आयाम-विक्खंभेणं असंखेज्जाइं जोयणसहस्साई परिक्खेवेणं पण्णत्ता, एवं जाव तमाए। अहे सत्तमाए णं भंते ! पुच्छा; गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तंजहा–संखेज्जवित्थडे य, प्रसंखेज्जवित्थडा य / तत्थ णं जे ते संखेज्जवित्थडे से गं एक्कं जोयणसहस्सं आयाम-विक्खंमेणं तिन्नि जोयणसहस्साइं सोलस सहस्साई दोनि य सत्तावीसे जोयणसए तिन्नि कोसे य अट्ठावीसं च धणुसयं तेरस य अंगुलाई अद्धंगुलयं च किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णता; तत्थ णं जे ते असंखेज्जवित्थडा ते गं असंखेज्जाइं जोयणसहस्साई आयामविक्खंभेणं असंखेज्जाई जाव परिक्खेयेणं पण्णता। [82-2] हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नरकावासों की मोटाई कितनी कही गौतम ! तीन हजार योजन की मोटाई है / वे नीचे एक हजार योजन तक घन हैं, मध्य में एक हजार योजन तक झुषिर (खाली) हैं और ऊपर एक हजार योजन तक संकुचित हैं। इसी प्रकार सप्तम पृथ्वी तक कहना चाहिए। भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नरकावासों की लम्बाई-चौड़ाई तथा परिक्षेप (परिधि) कितनी है ? __ गौतम ! वे नरकावास दो प्रकार के हैं। यथा--१. संख्यात योजन के विस्तार वाले और 2. असंख्यात योजन के विस्तार वाले। इनमें जो संख्यात योजन विस्तार वाले हैं, उनका आयाम-विष्कंभ संख्यात हजार योजन है और परिधि भी संख्यात हजार योजन की है। उनमें जो असंख्यात योजन विस्तार वाले हैं, उनका आयाम-विष्कभ असंख्यात हजार योजन और परिधि भी असंख्यात हजार योजन की है। इसी तरह छठी पृथ्वी तक कहना चाहिए / Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपति : नरकावासों के वर्णादि] [227 हे भगवन् ! सातवीं नरकपृथ्वी के नरकावासों का आयाम-विष्कंभ और परिधि कितनी है ? गौतम ! सातवीं पृथ्वी के नरकावास दो प्रकार के हैं-(१) संख्यात हजार योजन विस्तार वाले और (2) असंख्यात हजार योजन विस्तार वाले। इनमें जो संख्यात हजार योजन विस्तार वाला है वह एक लाख योजन पायाम-विष्कंभ वाला है उसकी परिधि तीन लाख सोलह हजार दो सौ सत्तावीस योजन, तीन कोस, एक सौ अट्ठावीस धनुष, साढ़े तेरह अंगुल से कुछ अधिक है। जो असंख्यात हजार योजन विस्तार वाले हैं, उनका आयाम-विष्कंभ असंख्यात हजार योजन का और परिधि भी असंख्यात हजार योजन की है। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में नरकावासों के संस्थान और आयाम-विष्कम्भ तथा परिधि बताई गई है। नरकावास दो प्रकार के हैं-पावलिकाप्रविष्ट और आवलिकाबाह्य / आठों दिशाओं में जो समश्रेणी में (श्रेणीबद्ध-कतारबद्ध) हैं, वे आवलिकाप्रविष्ट कहलाते हैं / वे तीन प्रकार के हैं, वृत्त, तिकोन और चौकोन / जो पुष्पों की तरह बिखरे-बिखरे हैं वे नरकावास नाना प्रकार के हैं / उन नाना प्रकारों को दो संग्रहणी गाथानों में बताया गया है' लोहे की कोठी, मदिरा बनाने हेतु आटे को पकाने का बर्तन, हलवाई की भट्टी, तवा, कढाई, स्थाली (डेगची), पिठरक (बड़ा चरु), तापस का प्राश्रम, मुरज, नन्दीमृदंग, आलिंगक मिट्टी का मृदंग, सुघोषा, दर्दर (वाद्यविशेष), पणव (भाण्डों का ढोल), पटह (सामान्य ढोल), झालर, भेरी, कुस्तुम्बक (वाद्य द्यावशेष) और नाडी (घटिका) के आकार के नरकावास हैं। ऊपर से संकुचित और नीचे से विस्तीर्ण है वह मृदंग है और ऊपर और नीचे दोनों जगह सम हो वह मुरज है। उक्त वक्तव्यता रत्नप्रभा से लेकर तमप्रभा नरकपृथ्वी के लिए समझनी चाहिए। सातवीं पृथ्वी के नरकावास आवलिकाप्रविष्ट ही हैं, पावलिकाबाह्य नहीं / आवलिकाप्रविष्ट ये नरकावास पांच हैं / चारों दिशाओं में चार हैं और मध्य में एक है। मध्य का अप्रतिष्ठान नरकावास गोल है और शेष 4 नरकावास तिकोने हैं। रत्नप्रभा दि के नरकावासों का बाहल्य तीन हजार योजन का है / एक हजार योजन का नीचे का भाग घन है, एक हजार योजन का मध्यभाग झुषिर है और ऊपर का एक हजार योजन का भाग संकुचित है / इसी तरह सातों पृध्वियों के नरकावासों का बाहल्य है। आयाम-विष्कम्भ और परिधि मूलपाठ से ही स्पष्ट है / नरकावासों के वर्णादि 83. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरया केरिसया वण्णेणं पण्णता? गोयमा ! काला कालावभासा गंभीरलोमहरिसा भीमा उत्तासणया परमकिण्हा वण्णणं पण्णत्ता, एवं जाव अहे सत्तमाए। 1. अय को? पिटुपयणग कंडूलोही कडाह संठाणा / थालीपिहडग किण्ह (ग) उडए मुखे मुयंगे य // 1 // नंदिमुइंगे प्रालिंग सुघोसे दद्दरे य पणवे य।। पडहगझलरि भेरी कुत्धुंबग नाडिसंठाणा // 2 // Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 228] [जीवाजीवाभिगमसूत्र ___ इमोसे गंभंते ! रयणप्पभाए पुढवीए गरगा केरिसगा गंधेणं पण्णता ? गोयमा ! से जहाणामए अहिमडेइ वा गोमडेइ वा, सुणगमडेइ वा मज्जारमडेइ वा मणुस्समडेइ वा महिसमडेइ वा मूसगमडेइ वा आसमडेइ वा हत्यिमडेइ वा सोहमंडेइ वा वग्घमडेह वा विगमडेइ वा दीवियमडेइ वा मयकुहियचिरविणट्ठकुणिम-वावण्णदुग्भिगंधे असुइविलोणविगय-बीभत्यदरिसणिज्जे किमिजालाउल संसत्ते, भवेयारवे सिया? जो इणठे समठे, गोयमा! इमोसे णं रयणप्पमाए पुढवीए गरगा एत्तो अणिट्टतरका चेव अकंततरका चेव जाव अमणामतरा चेव गंधेणं पण्णत्ता / एवं जाव अहे सत्तमाए पुढवीए / इमोसे गं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए गरगा केरिसया फासेणं पण्णता? गोयमा ! से जहानामए असिपत्तेइ वा खुरपत्तेइ वा कलंबचीरियापत्तेह वा, सतग्गेइ वा कुंतग्गेह वा तोमरग्गेइ वा नारायग्गेइ वा सूलग्गेइ वा लउडग्गेइ वा भिडिपालग्गेइ वा सूचिकलावेइ वा कवियच्छूइ वा विंचुयकंठएइ वा, इंगालेइ वा जालेइ वा मुम्मुरेइ वा अच्चिइ वा अलाएइ या सुखागणी इवा भवे एतारवे सिया? जो तिणठे समठे, गोयमा ! इमोसे णं रयणप्पभाए पुढवीए गरगा एतो अणिटुतरा चेय जाव अमणामतरका चेव फासेणं पण्णता / एवं जाव अहे सत्तमाए पुढणीए। [83] हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नरकवास वर्ण की अपेक्षा कैसे कहे गये हैं ? गौतम ! वे नरकावास काले हैं, अत्यन्तकाली कान्तिवाले हैं, नारक जीवों के रोंगटे खड़े कर देने वाले हैं, भयानक हैं, नारक जीवों को अत्यन्त त्रास करने वाले हैं और परम काले हैं इनसे बढ़कर और अधिक कालिमा कहीं नहीं है। इसी प्रकार सातों पृथ्वियों के नारकवासों के विषय में जानना चाहिए। हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नरकावास गंध की अपेक्षा कैसे कहे गये हैं ? गौतम ! जैसे सर्प का मृतकलेवर हो, गाय का मृतकलेवर हो, कुत्ते का मृतकलेवर हो, बिल्ली का मृतकलेवर हो, इसी प्रकार मनुष्य का, भैंस का, चूहे का, घोड़े का, हाथी का, सिंह का व्याघ्र का, भेड़िये का, चोते का मृतकलेवर हो जो धीरे-धीरे सूज-फूलकर सड़ गया हो और जिसमें से दुर्गन्ध फूट रही हो, जिसका मांस सड़-गल गया हो, जो अत्यन्त अशुचिरूप होने से कोई उसके पास फटकना तक न चाहे ऐसा घृणोत्पादक और बीभत्सदर्शन वाला और जिसमें कोड़े बिलबिला रहे हों ऐसे मृतकलेवर होते हैं—(ऐसा कहते ही गौतम बोले कि) भगवन् ! क्या ऐसे दुर्गन्ध वाले नरकावास हैं ? तो भगवान् ने कहा कि नहीं गौतम ! इससे अधिक अनिष्टतर, अकांततर यावत् अमनोज्ञ उन नरकावासों को गन्ध है। इसी प्रकार अधःसप्तमपृथ्वी तक कहना चाहिए / हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नरकावासों का स्पर्श कैसा कहा गया है ? गौतम ! जैसे तलवार की धार का, उस्तरे की धार का, कदम्बचीरिका (तृणविशेष जो बहुत तीक्ष्ण होता है) के अग्रभाग का, शक्ति (शस्त्रविशेष) के अग्रभाग का, भाले के अग्रभाग का, तोमर के अग्रभाग का, बाण के अग्रभाग का, शूल के अग्रभाग का, लगुड़ के अग्रभाग का, भिण्डीपाल Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपति : नरकावास कितने बड़े हैं ?] [229 के अग्रभाग का, सूइयों के समूह के अग्रभाग का, कपिकच्छु (खुजली पैदा करने वाली, वल्ली), बिच्छू का डंक, अंगार, ज्वाला, मुर्मुर (भोभर की अग्नि), अचि, अलात (जलतो लकड़ी), शुद्धाग्नि (लोहपिण्ड की अग्नि) इन सबका जैसा स्पर्श होता है, क्या वैसा स्पर्श नरकावासों का है ? भगवान् ने कहा कि ऐसा नहीं है। इनसे भी अधिक अनिष्टतर यावत् अमणाम उनका स्पर्श होता है। इसी तरह अधःसप्तमपृथ्वी तक के नरकावासों का स्पर्श जानना चाहिए / नरकावास कितने बड़े हैं ? 84. इमोसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नरगा केमहालिया पण्णत्ता ? गोयमा ! अयं णं जंबुद्दीवे दोये सम्वदीवसमुहाणं सम्बभंतरए सम्वखड्डाए वट्टे, तेल्लापूयसंठाणसंठिए बट्टे, रथचक्कवालसंठिए बट्टे, पुक्खरकणियासंठाणसंठिए बट्टे, पडिपुण्णचंदसंठाणसंठिए एक्कं जोयणसयसहस्सं पायामविक्खंभेणं जाव किंचि विसेसाहिए परिक्खेवे गं, देवे गं महड्डिए जाव महाणुभागे जाव इणामेव इणामेव त्ति कटु इमं केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं तिहिं प्रच्छरानिवाएहि तिसत्तक्लत्तो अणुपरियट्टित्ता णं हव्वमागच्छेज्जा, से गं देवे ताए उक्किट्ठाए तुरियाए चवलाए चंडाए सिग्याए उधुयाए जयणाए छेगाए दिव्वाए दिव्वगईए वौइवयमाणे बोइवयमाणे जपणेणं एगाहं वा दुयाहं वा तिमाहं वा, उक्कोसेणं छम्मासेणं वोतियएज्जा, अस्थेगइए वीइवएज्जा अत्येगइए नो वीइवएज्जा, एमहालया णं मोयमा! इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए गरगा पन्णता; एवं जाव अहे सत्तमाए, गवरं अहेसत्तमाए अत्थेगइयं नरगं वीइवएज्जा, अत्यगइए नरगे नो वीतिवएज्जा। [84] हे भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी के नरकावास कितने बड़े कहे गये हैं ? गौतम ! यह जम्बूद्वीप नाम का द्वीप जो सबसे आभ्यन्तर–अन्दर है, जो सब द्वीप-समुद्रों में छोटा है, जो गोल है क्योंकि तेल में तले पूए के आकार का है, यह गोल है क्योंकि रथ के पहिये के प्राकार का है, यह गोल है क्योंकि कमल की कणिका के आकार का है, यह गोल हैं क्योंकि परिपूर्ण चन्द्रमा के आकार का है, जो एक लाख योजन का लम्बा-चौड़ा है, जिसकी परिधि (3 लाख 16 हजार 2 सौ 27 योजन, तीन कोस, एक सौ अट्ठाबीस धनुष और साढे तेरह अंगुल से) कुछ अधिक है / उसे कोई देव जो महद्धिक यावत् महाप्रभाव वाला है, 'अभी-अभी' कहता हुआ (अवज्ञा से) तीन चुटकियाँ बजाने जितने काल में इस सम्पूर्ण जम्बू द्वीप के 21 चक्कर लगाकर आ जाता है, वह देव उस उत्कृष्ट, त्वरित, चपल, चण्ड, शीघ्र, उद्धत वेगवाली, निपुण, ऐसी दिव्य देवगति से चलता हा एक दिन, दो दिन, तीन यावत उत्कृष्ट छह मास पर्यन्त चलता रहे तो भी वह उन नरकावासों में से किसी को पार कर सकेगा और किसी को पार नहीं कर सकेगा / हे गौतम ! इतने विस्तार वाले इस रत्नप्रभापृथ्वी के नरकावास कहे गये हैं। इस प्रकार सप्तम पृथ्वी के नरकावासों के सम्बन्ध में भी कहना चाहिए / विशेषता यह है कि वह उसके किसी नरकावास को पार कर सकता है शेष चार किसी को पार नहीं कर सकता है / विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में नरकावासों का विस्तार उपमा द्वारा बताया गया है / नरकावासों के विस्तार के सम्बन्ध में पहले प्रश्न किया जा चुका है और उसका उत्तर देते हुए कहा गया हैं कि कोई नरकावास असंख्येय हजार योजन विस्तार वाले हैं / असंख्येय हजार योजन कहने से यह स्पष्ट Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 230] (जीवाजीवाभिगमसूत्र नहीं होता कि यह असंख्येयता कितनी है ? अतः उस असंख्येयता को स्पष्ट करते हुए भगवान् ने एक उपमा के द्वारा उसे स्पष्ट किया है / वह उपमा इस प्रकार है हम जहाँ रह रहे हैं वह द्वीप जम्बूद्वीप है। आठ योजन ऊँचे रत्नमय जम्बूवृक्ष को लेकर इस द्वीप का यह नामकरण है / यह जम्बूद्वीप सर्व द्वीपों और सर्व समुद्रों में प्राभ्यन्तर है अर्थात् आदिभूत है और उन सब द्वीप-समुद्रों में छोटा है। क्योंकि आगे के सब लवणादि समुद्र और घातकीखण्डादि द्वीप क्रमशः इस जम्बूद्वीप से दूने-दूने आयाम-विष्कम्भ वाले हैं। यह जम्बूद्वीप गोलाकार है क्योंकि यह तेल में तले हुए पूए के समान आकृति वाला है। यहाँ 'तेल से तले हुए' विशेषण देने का तात्पर्य यह है कि तेल में तला हुआ पूरा प्राय: जैसा गोल होता है वैसा घी में तला हुआ पूरा गोल नहीं होता / वह रथ के पहिये के समान, कमल को कणिका के समान तथा परिपूर्ण चन्द्रमा के समान गोल है / नाना देश के विनेयों को समझाने के लिए विविध प्रकार से उपमान-उपमेय बताये हैं / इस जम्बूद्वीप का आयाम-विष्कम्भ एक लाख योजन है। इसकी परिधि (धेराव) तीन लाख, सोलह हजार दो सौ सत्तावीस योजन, तीन कोस, एक सो अट्ठावीस धनुष और साढे तेरह अंगुल से कुछ अधिक है। __इतने विस्तारवाले इस जम्बूद्वीप को कोई देव जो बहुत बड़ी ऋद्धि का स्वामी है, महाद्युति वाला है, महाबल वाला है, महायशस्वी है, महा ईश है अर्थात् बहुत सामर्थ्य वाला है अथवा महा सुखी है अथवा महाश्वास है-जिसका मन और इन्द्रियां बहुत व्यापक और स्वविषय को भलीभांति ग्रहण करने वाली हैं, तथा जो विशिष्ट विक्रिया करने में अचिन्त्य शक्तिवाला है, वह अवज्ञापूर्वक (हेलया) 'अभी पार कर लेता हूँ अभी पार कर लेता हूँ' ऐसा कहकर तीन चुटुकियां बजाने में जितना समय लगता है उतने मात्र समय में उक्त जम्बूद्वीप के 21 चक्कर लगाकर वापस आ जावे-इतनी तीव्र गति से, इतनी उत्कृष्ट गति से, इतनी त्वरित गति से, इतनी चपल गति से, इतनी प्रचण्ड गति से, इतने वेग वाली गति से, इतनी उद्घत गति से, इतनी दिव्य गति से यदि वह देव एक दिन से लगाकर छह मास पर्यन्त निरन्तर चलता रहे तो भी रत्नप्रभादि के नरकावासों में किसी को तो वह पार पा सकता है और किसी को पार नहीं पा सकता / इतने विस्तार वाले वे नरकावास हैं / इसी तरह तमःप्रभा तक ऐसा ही कहना चाहिए / सातवीं पृथ्वी में 5 नरकावास हैं। उनमें से मध्यवर्ती एक अप्रतिष्ठान नामक नरकावास लाख योजन विस्तार वाला है अतः उसका पार पाया जा सकता है। शेष चार नरकावास असंख्यात कोटि-कोटि योजन प्रमाण होने से उनका पार पाना सम्भव नहीं है। इस तरह उपमान प्रमाण द्वारा नरकावासों का विस्तार कहा गया है / नरकावासों में विकार 85. इमोसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढ़वीए गरगा किमया ? गोयमा ! सव्यवइरामया पण्णत्ता; तत्थ णं णरएसु बहवे जीवा य पोग्गला य अवक्कमंति विउक्कमति चयंति उवधज्जति सासया णं ते णरगा दम्वट्ठयाए; वण्णपज्जवेहिं गंधपज्जवेहिं रसपज्जवेहि फासपज्जवेहिं असासया / एवं जाव अहे सत्तमाए। [85] हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नरकावास किसके बने हुए हैं ? गौतम ! वे नरकावास सम्पूर्ण रूप से वज्र के बने हुए हैं / उन नरकावासों में बहुत से Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : उपपात] [231 (खरबादर पृथ्वीकायिक) जीव और पुद्गल च्यवते हैं और उत्पन्न होते हैं, पुराने निकलते हैं और नये आते हैं / द्रव्याथिकनय से वे नरकावास शाश्वत हैं परन्तु वर्णपर्यायों से, गंधपर्यायों से, रसपर्यायों से और स्पर्शपर्यायों से वे प्रशाश्वत हैं / ऐसा अधःसप्तमपृथ्वी तक कहना चाहिए। विवेचन--प्रस्तुत सूत्र में प्रश्न है कि रत्नप्रभादि के नरकावास किमय हैं अर्थात किस वस्तु के बने हुए हैं ? उत्तर में कहा गया है कि वे सर्वथा वज्रमय हैं अर्थात् वज्र से बने हुए हैं। उनमें खरबादर पृथ्वीकाय के जीव और पुद्गल च्यवते हैं और उत्पन्न होते हैं / अर्थात् पहले वाले जीव निकलते हैं और नये जीव आकर उत्पन्न होते हैं / इसी तरह पुद्गल भी कोई च्यवते हैं और कोई नये आकर मिलते हैं / यह आने-जाने की प्रक्रिया वहाँ निरन्तर चलती रहती है / इसके बावजूद भी रत्नप्रभादि नरकों की रचना शाश्वत है। इसलिए द्रव्यनय की अपेक्षा से वे नित्य हैं, सदाकाल से थे, सदाकाल से हैं और सदाकाल रहेंगे / इस प्रकार द्रव्य से शाश्वत होते हुए भी उनमें वर्ण, गंध, रस और स्पर्श बदलते रहते हैं, इस अपेक्षा से बे प्रशाश्वत हैं। जैनसिद्वान्त विविध अपेक्षानों से वस्त में मानता है / इनमें कोई विरोध नहीं है। अपेक्षाभेद से शाश्वत और अशाश्वत मानने में कोई विरोध नहीं है / स्याद्वाद सर्वथा सुसंगत सिद्धान्त है। उपपात 86. [1] इमोसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढबीए नेरइया कओहितो उववज्जति ? कि असण्णोहितो उववज्जंति, सरीसिवेहितो उववज्जंति पक्खोहितो उववज्जति चउप्परहितो उवयजति उरगेहितो उववज्जति इस्थियाहिंतो उववज्जति मच्छमणुएहितो उववज्जति ? गोयमा ! असणीहितो उववज्जति जाव मच्छमणुएहितो वि उववज्जंति,' असण्णी खलु पढमं दोच्चं च सरीसिवा ततिय पक्खी। सोहा जंति चउत्थि उरगा पुण पंचमि जंति // 1 // छट्टि च इस्थियाओ मच्छा मणुया य सतमि जंति / जाव अहेससमाए पुढवीए नेरइया णो असण्णीहितो उववज्जंति जाव णो इत्थियाहितो उववजंति, मच्छमणुस्सेहितो उववज्जति / / [86] (1) भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? क्या असंज्ञी जीवों से आकर उत्पन्न होते हैं, सरीसृपों से पाकर उत्पन्न होते हैं, पक्षियों से आकर उत्पन्न होते हैं, चौपदों से आकर उत्पन्न होते हैं. (सर्पादि) उरगों से आकर उत्पन्न होते हैं, स्त्रियों से आकर उत्पन्न होते हैं या मत्स्यों और मनुष्यों से पाकर उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! प्रसंज्ञी जीवों से पाकर भी उत्पन्न होते हैं और यावत् मत्स्य और मनुष्यों से आकर भी उत्पन्न होते हैं / (यहाँ यह गाथा अनुसरणीय है) ___ असंज्ञी जीव प्रथम नरक तक, सरीसृप दूसरी नरक तक, पक्षी तीसरी नरक तक, सिंह चौथी 1. सेसासु इमाए गाहाए प्रण गंतव्वा, एवं एतेणं अभिलावेणं इमा गाथा घोसेयन्वा / Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 232] [जीवावीवाभिगमसूत्र नरक तक, उरग पांचवीं नरक तक, स्त्रियां छठी नरक तक और मत्स्य एवं मनुष्य सातवीं नरक तक जाते हैं। विवेचन-उपपात का वर्णन करते हए इस सत्र में जो दो गाथाएं दी गई हैं, उनका अर्थ यह समझना चाहिए कि असंज्ञी जीव प्रथम नरक तक ही जाते हैं, न कि असंज्ञीजीव ही प्रथम नरक में जाते हैं / इसी तरह सरीसृप--गोधा नकुल आदि दूसरी पृथ्वी तक ही जाते हैं, न कि सरीसृप ही दूसरी नरक में जाते हैं। पक्षी तीसरी नरक तक जाते हैं, न कि पक्षी ही तीसरी नरक में जाते हैं। इसी तरह आगे भी समझना चाहिए। शर्कराप्रभा आदि नरकपृथ्वी को लेकर पाठ इस प्रकार होगा 'सक्करप्पभाए णं भंते ! पुढवीए नेरइया कि असण्णीहितो उववज्जति जाव मच्छमणुएहितो उववज्जति ? गोयमा ! नो प्रसन्नीहिती उववज्जति सरीसिवेहिंतो उवबज्जति जाव मच्छमणस्सेहितो उववज्जति / बालुयप्पभाए णं भंते ! पुढवीए नेरइया कि असण्णीहितो उववज्जति जाव मच्छमणुस्सेहिंतो उववज्जति ? गोयमा ! नो असण्णीहिंतो उववज्जति नो सरीसिवेहितो उववज्जति, पक्खीहितो उववज्जति जाव मच्छमणुस्सेहिंतो उववज्जति / ' उक्त रीति से उत्तर-उत्तर पृथ्वी में पूर्व-पूर्व के प्रतिषेध सहित उत्तरप्रतिषेध तब तक कहना चाहिए जब तक कि सप्तम पृथ्वी में स्त्री का भी प्रतिषेध हो जाए। वह पाठ इस प्रकार होगा'अहेसत्तमाए णं भंते पुढवीए नेरइया कि असण्णीहितो उववज्जति जाव मच्छमणुस्सेहितो उववज्जति ? गोयमा ! नो असण्णीहितो उववज्जति जाव नो इत्थीहिंतो उववज्जति, मच्छमणुस्सेहितो उववज्जति / ' संख्याद्वार 86. [2] इमीसे गं भंते ! रयणप्पभाए पुडवीए औरइया एक्कसमयेणं केवइया उववज्जति ? गोयमा ! जहण्णणं एक्कोवा वो वा तिणि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा वा असंखिज्जा वा उबवज्जंति, एवं जाव अहेसत्तमाए। इमोसे गं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए णेरइया समए समए अवहीरमाणा अवहीरमाणा केवइकालेणं अवहिया सिया ? गोयमा ! ते णं असंखेज्जा समए समए अवहीरमाणा अबहीरमाणा असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणीओसपिणीहि अवहीरंति नो चेव णं अवहिया सिया / जाव अहेसत्तमाए। [86] (2) हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी में नारकजीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! जघन्य से एक, दो, तीन, उत्कृष्ट से संख्यात या असंख्यात भी उत्पन्न होते हैं। इसी प्रकार सप्तमपृथ्वी तक कहना चाहिए। Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीव प्रतिपति : अवगाहनावार] [233 हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों का प्रतिसमय एक-एक का अपहार करने पर कितने काल में यह रत्नप्रभापृथ्वी खाली हो सकती है? गौतम ! नैरयिक जीव असंख्यात हैं / प्रतिसमय एक-एक नैरयिक का अपहार किया जाय तो प्रसंख्यात उत्सपिणियां असंख्यात अवसर्पिणियां बीत जाने पर भी यह खाली नहीं हो सकते। इसी प्रकार सातवीं पृथ्वी तक कहना चाहिए / विवेचन-नारकजीवों की संख्या बताने के लिए असत्कल्पना के द्वारा यह प्रतिपादित किया गया है कि प्रतिसमय एक-एक नारक का अपहार किया जाय तो असंख्यात उत्सपिणियां और असंख्यात अवसपिणियां बीतने पर उनका अपहार होता है। इस प्रकार का अपहार न तो कभी हुआ, न होता है और न होगा ही / यह केवल कल्पना मात्र है, जो नारक जीवों को संख्या बताने के लिए की गई है। अवगाहनाद्वार 86. [3] इमोसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइयाणं केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णता? गोयमा ! दुविहा सरीरोगाहणा पण्णता, तंजहा-भवधारणिज्जा य उत्तरवेउविवया य / तस्थ बा सा भवधारणिज्जा सा जहन्नेणं अंगुलस्य असंखेज्जइमागं उक्कोसेणं सत्त धणूई तिण्णि य रयणीओ छच्च अंगुलाई। तत्थ णं जे से उत्तरवेउदिवए से जहन्नेणं अंगुलस्स संखेज्जइभागं उक्कोसेणं पण्णरस पणई अड्डाइज्जाओ रयणीओ। वोच्चाए, भवधारणिज्जे जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जहभागं उक्कोसेणं पण्णरस घणूई अड्डाइजाओ रयणीओ, उत्तरवेउब्विया जहन्नेणं अंगुलस्स संखेज्जइभाग, उक्कोसेणं एक्कतीसं धणूई एषकारयणी। सच्चाए, भवषारणिज्जे एक्कतीसं घणू एक्का रयणी, उत्तरवेउब्विया बाढि घण्इं दोण्णि रयणीओ। चउरपीए, भवधारणिज्जे बासह घणई दोणि य रयणीओ, उत्तरवेउब्विया पणवीसं घणुसयं / पंचमीए भवषारणिज्जे पणवीसं षणसयं, उत्तरवेउब्धिया अट्टाइज्जाई घणुसयाई। छट्ठीए मवषारणिज्जा अड्डाइज्जाई घणुसयाई, उत्तरवेउम्बिया पंच षणसयाई। Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 234] [जीवाजोवाभिगमसूत्र सत्तमाए भवधारणिज्जा पंच धणुसयाई, उत्तरवेउब्धिए घणुसहस्सं। [86] (3) हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों को शरीर-अवगाहना कितनी कही गई है ? गौतम ! दो प्रकार की शरीरावगाहना कही गई हैं, यथा-भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय / भवधारणीय अवगाहना जघन्य से अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट से सात धनुष, तीन हाथ और छह अंगुल है। उत्तरवैक्रिय अवगाहना जघन्य से अंगुल का संख्यातवां भाग, उत्कृष्ट से पन्द्रह धनुष, अढाई हाथ है। दूसरी शर्कराप्रभा के नैरयिकों की भवधारणीय अवगाहना जघन्य से अंगुल का प्रसंख्यातवां भाग, उत्कृष्ट पन्द्रह धनुष अढाई हाथ है। उत्तरवैक्रिय जघन्य से अंगुल का संख्यातवां भाग, उत्कृष्ट से इकतीस धनुष एक हाथ है। तीसरी नरक में भवधारणीय इकतीस धनुष, एक हाथ और उत्तरवैक्रिय बासठ धनुष दो हाथ है / चौथी नरक में भवधारणीय बासठ धनुष दो हाथ है और उत्तरवैक्रिय एक सौ पचीस धनुष है। पांचवीं नरक में भवधारणीय एक सौ पचीस धनुष और उत्तरवैक्रिय अढाई सौ धनुष है। छठी नरक में भवधारणीय अढाई सौ धनुष और उत्तरवक्रिय पांच सौ धनुष है। " सातवीं नरक में भवधारणीय पांच सौ धनुष है और उत्तरवैक्रिय एक हजार धनुष है / विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में नैरयिकों के शरीर की अवगाहना का कथन किया गया है। इनके शरीर की अवगाहना दो प्रकार की है। एक भवधारण के समय होने वाली और दूसरी वैक्रियलब्धि से की जाने वाली उत्तरवैक्रियिकी। दोनों प्रकार की प्रवगादता जघन्य और कल के भेद से दो प्रकार की है। इस तरह प्रत्येक नरक के नारक की चार तरह की अवगाहना का प्ररूपण किया गया है / (1) रत्नप्रभा के नैरयिकों की भवधारणीय अवगाहना जघन्य से अंगुल का असंख्यातवां भाग है और उत्कृष्ट से सात धनुष तीन हाथ और छह अंगुल है / उत्तरवैक्रिय जघन्य से अंगुल का संख्येय भाग और उत्कर्ष से पन्द्रह धनुष, दो हाथ और एक वेंत (दो वेंत का एक हाथ होता है) अतः मूल में ढाई हाथ कहा गया है / (2) शर्कराप्रभा में भवधारणीय जघन्य से अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कर्ष से 15 धनुष, 2 // हाथ है / उत्तरवैक्रिय जघन्य से अंगुल का संख्यातवां भाग और उत्कर्ष से 31 धनुष 1 हाथ है। इसी प्रकार आगे की पृथ्वियों में भी भवधारणीय जघन्य से अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्तरवैक्रिय जघन्य से अंगुल का संख्यातवां भाग कहना चाहिए / क्योंकि तथाविध प्रयत्न के अभाव Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : अवगाहनाद्वार] [235 में उत्तरविक्रिया प्रथम समय में ही अंगुल के संख्यातवें भाग प्रमाण ही होती है / इस प्रकार अतिदेश समझना चाहिए। अतः आगे की पृथ्वियों में उत्कृष्ट भवधारणीय और उत्कृष्ट उत्तरक्रिय अवगाहना का कथन मूल पाठ में किया गया है / (3) तीसरी बालुकाप्रभा में भवधारणीय उत्कृष्ट 31 धनुष 1 हाथ है और उत्तरवैक्रिय 62 धनुष है। (4) चौथी पंकप्रभा में उत्कृष्ट भवधारणीय 62 // धनुष है और उत्तरवैक्रिय 125 धनुष है। (5) पांचवीं धूमप्रभा में उत्कृष्ट भवधारणीय 125 धनुष है और उत्तरवैक्रिय 250 धनुष है / (6) छठी तमःप्रभा में उत्कृष्ट भवधारणीय 250 धनुष है और उत्तरवैक्रिय पांच सौ धनुष है। (7) सातवीं तमस्तमःप्रभा में उत्कृष्ट भवधारणीय पांच सौ धनुष है और उत्तरवैक्रिय एक हजार धनुष है। प्रत्येक नरकपृथ्वी की उत्कृष्ट भवधारणीय अवगाहना पूर्व पृथ्वी से दुगुनी-दुगुनी है तथा प्रत्येक पृथ्वी के नैरयिकों की भवधारणीय अवगाहना से उनकी उत्तरवैक्रिय अवगाहना दुगुनी-दुगुनी है / निम्न यंत्र से अवगाहना जानने में सहूलियत होगी __ अवगाहना का यंत्र पृथ्वी का नाम भवधारणीय जघन्य . उत्कृष्ट उत्तरवैक्रिय जघन्य उत्कृष्ट भाग 1. रत्नप्रभा अंगुल का असंख्यातवां 7 धनुष 3 हाथ 6 अंगु. अंगुल का 2. शर्कराप्रभा 15 धनुष 2 // हाथ सं. भाग 3. बालुकाप्रभा 31 ध. 1 हाथ 4. पंकप्रभा 62 ध.२ हाथ 5. धूमप्रभा 125 धनुष 6. तम:प्रभा 250 धनुष 7. तमस्तमःप्रभा 500 धनुष १५ध 2 // हाथ 31 ध. 1 हाथ 62 ध. 2 हाथ 125 धनुष 250 धनुष 500 धनुष 1000 धनुष रत्नप्रभादि के प्रस्तटों में अवगाहना का प्रमाण इस प्रकार है-रत्नप्रभा के 13 प्रस्तट हैं / पहले प्रस्तट में उत्कृष्ट अवगाहना 3 हाथ की है / इसके बाद प्रत्येक प्रस्तट में 56 / / अंगुल की वृद्धि . कहनी चाहिए / इस मान से 13 प्रस्तटों की अवगाहना निम्न है Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 236] [जीवाजीवामिगमसूत्र रत्नप्रभा के प्रस्तटों में अवगाहना प्रस्तट धनुष हाथ अंगुल ا ل م 8 // نه ل و ل 18 // مه له م 11 // 20 4 // و م vorw و 21 // لایر शर्कराप्रभा के 11 प्रस्तट हैं / इसके पहले प्रस्तट में वही अवगाहना है जो रत्नप्रभा के 13 वें प्रस्तट में है अर्थात् 7 धनुष 3 हाथ और 6 अंगुल / इसके बाद प्रत्येक प्रस्तट में 3 हाथ 3 अंगुल की वृद्धि कहनी चाहिए तो उसका प्रमाण इस प्रकार होगा--- शर्कराप्रभा के प्रस्तटों में अवगाहना धनुष हाथ w | سه له م و لل ل my yo mw Owono or worror ع م و له به Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरे में छठे में 1 हाथ तृतीय प्रतिपत्ति : अवगाहनाद्वार] [237 इसी प्रकार बालुकाप्रभा के प्रथम प्रस्तट में वही अवगाहना है जो दूसरी पृथ्वी के अन्तिम प्रस्तट में है-अर्थात् 15 धनुष 2 हाथ और 12 अंगुल / इसके बाद प्रत्येक प्रस्तट में 7 हाथ 19 / / अंगुल की वृद्धि कहनी चाहिए। उसका प्रमाण इस प्रकार होगापहले प्रस्तट में 15 धनुष 2 हाथ 12 अंगुल 17 धनुष 2 हाथ 7 // अंगुल तीसरे में 16 धनुष 2 हाथ 3 अंगुल चौथे में 21 धनुष 1 हाथ 22 / / अंगुल पांचवें में 23 धनुष 1 हाथ 18 अंगुल 25 धनुष 1 हाथ 13 / / अंगुल सातवें में 27 धनुष १हाथ 9 अंगुल पाठवें में 29 धनुष 1 हाथ 4 // अंगुल नौवें में 31 धनुष 0 अंगुल पंकप्रभा में सात प्रस्तट हैं। उनमें से प्रथम प्रस्तट में वही अवगाहना है जो पूर्व को बालुकाप्रभा के नौवें प्रस्तट की है / इसके आगे प्रत्येक में 5 धनुष 20 अंगुल की वृद्धि कहनी चाहिए / प्रत्येक प्रस्तट की अवहगाहना का प्रमाण इस प्रकार होगापहले प्रस्तट में 31 धनुष 1 हाथ दूसरे में 36 धनुष 1 हाथ 20 अंगुल तीसरे में 41 धनुष 2 हाथ चौथे में 46 धनुष 3 हाथ 12 अंगुल पांचवें में 52 धनुष 0 हाथ 57 धनुष 1 हाथ सातवें में 62 धनुष 2 हाथ 0 अंगुल धूमप्रभा के पांच प्रस्तट हैं। प्रथम प्रस्तट में वही अवगाहना है जो पूर्व की पृथ्वी के अन्तिम प्रस्तट की है। इसके बाद 15 धनुष 2 // हाथ प्रत्येक प्रस्तट में वृद्धि कहनी चाहिए / वह प्रमाण इस प्रकार होगापहले प्रस्तट में 62 धनुष 2 हाथ 78 धनुष 1 वितस्ति(वेत–प्राधा हाथ) तीसरे में 93 धनुष 3 हाथ चौथे में 109 धनुष 1 हाथ 1 वितस्ति पांचवें में 125 धनुष तमःप्रभापृथ्वी के तीन प्रस्तट हैं / प्रथम प्रस्तट की वही अवगाहना है जो इसके पूर्व की पृथ्वी के अन्तिम प्रस्तट की है / इसके पश्चात् प्रत्येक प्रस्तट में 62 / / धनुष की वृद्धि कहनी चाहिए। वह प्रमाण इस प्रकार होता है 16 अंगुल 8 अंगुल 4 अंगुल छठे में दूसरे में Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 238] [जीवाजीवाभिगमसूत्र दूसरे में पहले प्रस्तट में 125 धनुष 187 / / धनुष . तीसरे में 250 धनुष तमस्तमा:पृथ्वी में प्रस्तट नहीं है। उनकी भवधारणीय उत्कृष्ट अवगाहना 500 धनुष की है उत्तरवैक्रिय एक हजार योजन है / संहनन-संस्थान-द्वार 87. [1] इमीसे गं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए मेरइयाणं सरीरया किसंघयणी पण्णता ? गोयमा ! छण्हं संधयणाणं असंघयणा, गेवट्ठी, गेव छिरा, णवि हारु, व संघयणमस्थि, जे पोग्गला अणिटा जाव अमणामा ते तेसि सरीरसंघायत्ताए परिणमंति। एवं जाव अहेसत्तमाए। [87] (1) हे भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों के शरीरों का संहनन क्या है ? गौतम ! छह प्रकार के संहननों में से उनके कोई संहनन नहीं है, क्योंकि उनके शरीर में हड्डियां नहीं हैं, शिराएं नहीं हैं, स्नायु नहीं हैं। जो पुद्गल अनिष्ट और अमणाम होते हैं वे उनके शरीर रूप में एकत्रित हो जाते हैं। इसी प्रकार सप्तम पृथ्बी तक कहना चाहिए। .. 87. [2] इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइयाणं सरीरा किसंठिया पण्णता ? - गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तंजहा भवधारणिज्जा य उत्तरवेउब्विया य / तत्थ णं जे ते मवधारणिज्जा ते हंडसंठिया पणत्ता, तस्थ गंजे ते उत्तरवेउम्विया ते वि हुंडसंठिया पण्णता / एवं जाव आहेसत्तमाए / इमीसे णं भंते ! रयणप्पमाए पुढवीए रइयाणं सरीरगा केरिसया वण्णेनं पण्णता? गोयमा ! काला कालोमासा जाब परमकिण्हा वम्णेणं पण्णत्ता / एवं जाव अहेसत्तमाए। इमोसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइयाणं सरीरया केरिसया गंधेणं पण्णता? गोयमा ! से जहानामए अहिमडेइ वा तं चेव जाव अहेसत्तमा। इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइयाणं सरीरया केरिसया फासेणं पण्णता ? गोयमा! फुडितच्छविविच्छविया खरफरस झामभुसिरा फासेणं पण्णत्ता। एवं भाव महेसत्तमा / [87] (2) हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों के शरीरों का संस्थान कैसा है ? गौतम! उनके संस्थान दो प्रकार के हैं-भवधारणीय और उत्तरक्रिय। भवधारणीय की अपेक्षा वे हुंडकसंस्थान वाले हैं और उत्तरवैक्रिय की अपेक्षा भी वे हुंडकसंस्थान वाले ही हैं। इसी प्रकार सप्तमपृथ्वी तक के नैरयिकों के संस्थान हैं। भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नरयिकों के शरीर वर्ण की अपेक्षा कैसे कहे गये हैं ? गौतम! काले, काली छाया (कान्ति) वाले यावत् अत्यन्त काले कहे गये हैं। इसी प्रकार सप्तमपृथ्वी तक के नैरयिकों का वर्ण जानना चाहिए। Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : लेश्यादिद्वार] [239 भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों के शरीर की गन्ध कैसी कही गई है ? गौतम ! जैसे कोई मरा हुआ सर्प हो, इत्यादि पूर्ववत् कथन करना चाहिए। सप्तमीपृथ्वी तक के नारकों की गन्ध इसी प्रकार जाननी चाहिए। भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों के शरीरों का स्पर्श कैसा कहा गया है ? गौतम ! उनके शरीर को चमड़ी फटी हुई होने से तथा झुरिया होने से कान्तिरहित है, कर्कश है, कठोर है, छेद वाली है और जली हुई वस्तु की तरह खुरदरी है / (पकी हुई ईंट की तरह खुरदरे शरीर हैं) / इसी प्रकार सप्तमपृथ्वी तक कहना चाहिए / विवेचन–इनका विवेचन पूर्व में किया जा चुका है। 58. [1] इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए रइयाणं केरिसया पोग्गला उसासत्ताए परिणमंति? गोयमा ! जे पोग्गला अणिवा जाव अमणामा ते तेसि उसासत्ताए परिणमंति / एवं जाव अहेसत्तमाए / एवं आहारस्सवि सत्तसु वि / [8] (1) भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों के श्वासोच्छ्वास के रूप में कैसे पुद्गल परिणत होते हैं ? गौतम ! जो पुद्गल अनिष्ट यावत् अमणाम होते हैं वे नैरयिकों के श्वासोच्छ्वास के रूप में परिणत होते हैं। इसी प्रकार सप्तमपृथ्वी तक के नरयिकों का कथन करना चाहिए। इसी प्रकार जो पुद्गल अनिष्ट एवं अमणाम होते हैं, वे नैरयिकों के पाहार रूप में परिणत होते हैं / ऐसा ही कथन रत्नप्रभादि सातों नरकपृथ्वियों के नारकों के सम्बन्ध में जानना चाहिए। लेश्याविद्वार 88. [2] इमोसे गं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए णेरइयाणं कति लेसानो पण्णताओ? गोयमा ! एक्का काउलेसा पण्णत्ता। एवं सक्करप्पभाए वि। वालयप्पभाए पुच्छा, दो लेसाओ पणत्ताओ, तंजहा नीललेसा कापोतलेसा य / तत्थ जे काउलेसा ते बहुतरा, जे णीललेसा पण्णता ते थोवा / पंकप्पभाए पुच्छा, एक्का नीललेसा पण्णत्ता, धूमप्पभाए पुच्छा, गोयमा ! दो लेस्सामओ पण्णत्ताओ, तंजहा-किण्हलेस्सा य नीललेस्सा य / ते बहुयरगा जेनीललेस्सा, ते थोक्तरगा जे किण्हलेसा। तमाए पुच्छा, शेयमा! एक्का किन्हलेसा। अधेसत्तमाए एक्का परमकिण्हलेस्सा। Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24.] [जीवाजीदाभिगमसूत्र इमीसे गं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए जेरइया कि सम्मविट्ठी मिच्छविट्ठी सम्मामिच्छविट्ठी? . गोयमा ! सम्मविट्ठी वि मिच्छविट्ठो वि सम्मामिच्छविट्ठी वि, एवं नाव आहेसत्तमाए। इमीसे भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए रइया कि गाणी अण्णाणी? गोयमा ! गाणी वि अण्णाणि वि / जे गाणी ते णियमा तिणाणो, तंजहा-आभिणिबोहियगाणी, सुयणाणी, अवषिणाणी। जे अण्णाणी ते अत्यंगइया दु अण्णाणि, {अत्थेगइया ति अन्नाणी। जे दु अन्नाणि ते णियमा मतिमन्नाणी य सुय-अण्णाणी य / जे ति अनाणि ते णियमा मति-अण्णाणी, सुय-अण्णाणी, विभंगणाणी वि, सेसाणं गाणी वि अण्णाणि वि तिण्णि, जाव अहेसत्तमाए। इमोसे गं भंते ! रयणप्पमाए पुढवीए णेरइया कि मणजोगी वइजोगी कायजोगी ? तिणि वि एवं जाव अहेससमाए। इमोसे गं भंते ! रयणप्पमाए पुढवीए गेरइया कि सागारोवउत्ता मणागारोवउत्ता? गोयमा! सागारोवउत्ता वि अणागारोवउसा वि एवं जाव अहेससमाए पुढवीए। इमोसे गं भंते ! रयणप्यमाए पुढवीए नेरइया मोहिणा केवइयं खेतं जाणंति पासंति ? गोयमा ! जहणणं प्रघटुगाउयाइं उक्कोसेणं चत्तारि गाउयाई सक्करप्पमाए पु०, जहन्नेणं तिन्नि गाउयाई, उक्कोसेणं अक्षुट्ठाई। एवं अद्धद्धगाउयं पारिहायइ जाव अधेसत्तमाए जहन्नेणं अद्धगाउयं उक्कोसेणं गाउयं। इमीसे गं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइयाणं कति समुग्धाता पण्णता? गोयमा ! चत्तारि समुग्धाता पण्णत्ता, तंजहा बेदणासमुग्धाए, कसायसमुग्धाए, मारणंतियसमुग्धाए वेउब्वियसमुग्धाए / एवं जाव आहेससमाए। [88] (2) हे भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों में कितनी लेश्याएं कही गई हैं ? गौतम ! एक कापोतलेश्या कही गई है। इसी प्रकार शर्कराप्रभा में भी कापोतलेश्या है। बालुकाप्रभा में दो लेश्याएं हैं-नीललेश्या और कापोतलेश्या। कापोतलेश्या वाले अधिक हैं और नीललेश्या वाले थोड़े हैं। पंकप्रभा के प्रश्न में एक नीललेश्या कही गई है। धूमप्र मप्रभा के प्रश्न में दो लेश्याएँ कही गई हैं-कृष्णलेश्या और नीललेश्या / नीललेश्या वाले अधिक हैं और कृष्णलेश्या वाले थोड़े हैं / तमःप्रभा में एक कृष्णलेश्या है / सातवीं पृथ्वी में एक परमकृष्णलेश्या है / हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक क्या सम्यग्दृष्टि हैं, मिथ्यादृष्टि हैं या सम्यग्मिथ्यादृष्टि हैं ? गौतम ! सम्यग्दृष्टि भी हैं, मिथ्यादृष्टि भी हैं और सम्यग्मिथ्यादृष्टि भी हैं। इसी प्रकार सप्तमपृथ्वी तक कहना चाहिए। Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: लेश्याविद्वार [241 हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक ज्ञानी हैं या अज्ञानी? गौतम ! ज्ञानी भी हैं और अज्ञानी भी हैं / जो ज्ञानी हैं वे निश्चय से तीन ज्ञान वाले हैंभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी / जो अज्ञानी हैं उनमें कोई दो अज्ञान वाले हैं और कोई तीन अज्ञान वाले हैं। जो दो अज्ञान वाले हैं वे नियम से मति-अज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी हैं और जो तीन अज्ञान वाले हैं वे नियम से मति-अज्ञानी, श्रुत-अज्ञानी और विभंगज्ञानी हैं। शेष शर्कराप्रभा प्रादि पृथ्वियों के नारक ज्ञानी भी हैं और अज्ञानी भी हैं। जो ज्ञानी हैं वे तीनों ज्ञान वाले हैं और जो अज्ञानी हैं वे तोनों अज्ञान वाले हैं / सप्तमपृथ्वी तक के नारकों के लिए ऐसा ही कहना चाहिए। हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक मनयोग वाले हैं, वचनयोग वाले हैं या काययोग वाले हैं ? गौतम ! तीनों योग वाले हैं / सप्तमपृथ्वी तक ऐसा ही कहना चाहिए। हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नारक साकार उपयोग वाले हैं या अनाकार उपयोग वाले हैं ? गौतम ! साकार उपयोग वाले भी हैं और अनाकार उपयोग वाले भी हैं। सप्तमपृथ्वी तक ऐसा ही कहना चाहिए। [हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक अवधि से कितना क्षेत्र जानते हैं, देखते हैं ? गौतम ! जघन्य से साढ़े तीन कोस, उत्कृष्ट से चार कोस क्षेत्र को जानते हैं, देखते हैं / शर्कराप्रभा के नैरयिक जघन्य तीन कोस, उत्कर्ष से साढ़े तीन कोस जानते-देखते हैं। इस प्रकार प्राधाआधा कोस घटाकर कहना चाहिए यावत् अधःसप्तमपृथ्वी के नैरयिक जघन्य आधा कोस और उत्कर्ष से एक कोस क्षेत्र जानते-देखते हैं। ] हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों के कितने समुद्घात कहे गये हैं ? गौतम ! चार समुद्घात कहे गये हैं-वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, मारणांतिकसमुद्घात और वैक्रियसमुद्घात / ऐसा ही सप्तमपृथ्वी तक के नारकों का कथन करना चाहिए। विवेचन-टीकाकार ने उल्लेख किया है कि यहाँ कई प्रतियों में कई तरह का पाठ है / उन सबका वाचनाभेद भी पूरा पूरा नहीं बताया जा सकता / केवल जो पाठ बहुतसी प्रति गया और जो अविसंवादी है वही लिया गया है। पाठभेद होते हुए भी आशयभेद नहीं है। मूलपाठ में कोष्ठक के अन्तर्गत दिया गया पाठ टीका में नहीं है। प्रस्तुत सूत्र में प्रतिपाद्य विषय पूर्व में स्पष्ट किये जा चुके हैं। लेश्याद्वार में श्री भगवतीसूत्र में कही हुई एक संग्रहणी गाथा इस प्रकार है 'काऊ दोसु तइयाए मीसिया नीलिया चउत्थीए / पंचमियाए मीसा कण्हा तत्तो परमकण्हा // Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 242] [जीवाजीवाभिगमसूत्र अज्ञानद्वार में किन्हीं में दो अज्ञान और किन्हीं में तीन अज्ञान कहे गये हैं, उसका तात्पर्य यह है कि जो असंज्ञी पंचेन्द्रियों से प्राकर उत्पन्न होते हैं उनके अपर्याप्त अवस्था में विभंगज्ञान नहीं होता अतएव दो ही प्रज्ञान सम्भव हैं / शेषकाल में तीनों अज्ञान होते हैं। संज्ञी पंचेन्द्रियों से आकर जो उत्पन्न होते हैं उनके तो अपर्याप्त अवस्था में भी विभंग होता है, अतएव तीनों अज्ञान सदा सम्भव हैं। शर्कराप्रभा आदि आगे की नरकपध्वियों में संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव ही उत्पन्न होते हैं। अतएव पहली रत्नप्रभापृथ्वी को छोड़कर शेष पृथ्वियों में तीनों प्रज्ञान पाये जाते हैं। शेष सब मूलपाठ से ही स्पष्ट है। नारकों की भूख-प्यास 88. [1] इमीसे गं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए. नेरइया केरिसयं खुहस्पिवासं पच्चणुग्मवमाणा विहरंति ? ___ गोयमा! एगमेगस्स णं रयणप्पभापुढविनेरइयस्स असम्भावपट्टवणाए सम्बोदषो वा सम्वपोग्गले वा आसगंसि पक्खिवेज्जा णो चेव गं से रयणप्पमापुढवीए नेरइए सित्ते वा सिया, वितण्हे वा सिया, एरिसिया गं गोयमा ! रयणप्पभाए गैरइया खुहस्पिवासं पच्चणम्भवमाणा विहरंति एवं जाव अहेसत्तमाए। [89] (1) हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक भूख और प्यास को कैसी वेदना का अनुभव करते हैं ? गौतम ! असत्कल्पना के अनुसार यदि किसी एक रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक के मुख में सब समुद्रों का जल तथा सब खाद्यपुद्गलों को डाल दिया जाय तो भी उस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक की भूख तृप्त नहीं हो सकती और न उसकी प्यास ही शान्त हो सकती है / हे गौतम ! ऐसी तीव्र भूखप्यास की वेदना उन रत्नप्रभा नारकियों को होती है। इसी तरह सप्तमपृथ्वी तक के नैरयिकों के सम्बन्ध में भी जानना चाहिए / एक-अनेक-विकुर्वणा 89. [2] इमोसे गं भंते ! रयणप्पमाए पुढवीए नेरइया कि एगत्तं पभू विउवित्तए पुहुत्तं पि पभू विउवित्तए ? ___ गोयमा ! एगत्तं पि पभू पुत्तं पिपभू विउवित्तए। एगत्तं विउव्वेमाणा एगं महं मोग्गरत्वंवा एवं मुसुदि करवत असि सत्ती हल गया मुसल चक्कणाराय कुत तोमर सूल लउउ भिडमाला य जाव भिडमालरूवं वा पुहत्तं विउव्वेमाणा, मोरंगररूवाणि वा जाव भिडमालरूवाणि वा ताई संखेज्जाई गो असंखेज्जाई, संबद्धाइं नो असंबद्धाई, सरिसाई नो असरिसाई विउध्वंति, विउन्धित्ता अण्णमण्णस्स कायं अभिहणमाणा अभिहणमाणा वेयणं उदीरेंति उज्जलं विउलं पगाढं कक्कसं कडुयं फरसं निरं चंडं तिव्वं दुक्खं दुग्गं दुरहियास एवं जाव धूमप्पभाए पुढवीए / छटुसत्तमासु णं पुढवीसु नेरइया बहु Jain'Education International Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : एक-अनेक-विकुर्वणा] [243 महंताई लोहियकुंघुरुवाई धारामयतुंडाई गोमयकोडसमाणाई विउठवंति, विउम्वित्ता अन्नमन्नस्स कार्य समतुरंगेमागा खायमाणा खायमाणा सयपोरागकिमिया विव चालेमाणा चालेमाणा अंतो अंतो अणुप्पविसमाणा अणुप्पविसमाणा वेदणं उवीरंति उज्जलं जाव दुरहियासं। [9] (2) हे भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी के नरयिक क्या एक रूप बनाने में समर्थ हैं या बहुत से रूप बनाने में समर्थ हैं ? गौतम ! वे एक रूप भी बना सकते हैं और बहुत रूप भी बना सकते हैं / एक रूप बनाते हुए वे एक मुद्गर रूप बनाने में समर्थ हैं, इसी प्रकार एक मुसंडी (शस्त्रविशेष), करवत, तलवार, शक्ति, हल, गदा, मूसल, चक्र, बाण, भाला, तोमर, शूल, लकुट (लाठी) और भिण्डमाल (शस्त्रविशेष) बनाते हैं और बहुत रूप बनाते हुए बहुत से मुद्गर भुसंढी यावत् भिण्डमाल बनाते हैं / इन बहुत शस्त्र रूपों की विकुर्वणा करते हुए वे संख्यात शस्त्रों की ही विकुर्वणा कर सकते हैं, असंख्यात की नहीं / अपने शरीर से सम्बद्ध की विकुर्वणा कर सकते हैं, असम्बद्ध की नहीं, सदृश की रचना कर सकते हैं, असदश की नहीं। इन विविध शस्त्रों की रचना करके एक दूसरे नैरयिक पर प्रहार करके वेदना उत्पन्न करते हैं। वह वेदना उज्ज्वल अर्थात् लेशमात्र भी सुख न होने से जाज्वल्यमान होती है उन्हें जलाती है, वह विपुल हैसकल शरीरव्यापी होने से विस्तीर्ण है, वह वेदना प्रगाढ है-- मर्मदेशव्यापी होने से प्रतिगाढ होती है, वह कर्कश होती है (जैसे पाषाणखंड का संघर्ष शरीर के अवयवों को तोड़ देता है उसी तरह से वह वेदना आत्मप्रदेशों को तोड़-सी देती है। वह कटक औषधिपान की तरह कड़वी होती है, वह परुष-कठोर (मन में रूक्षता पैदा करने वाली) होती है, निष्ठुर होती है (अशक्य प्रतीकार होने से दुर्भेद्य होती है) चण्ड होती है (रोद्र अध्यवसाय का कारण होने से), वह तीव्र होती है (अत्यधिक होने से) वह दुःखरूप होती है, वह दुलंघ्य और दुःसह्य होती है / इस प्रकार धूमप्रभापृथ्वी (पांचवीं नरक) तक कहना चाहिए। छठी और सातवीं पृथ्वी के नैरयिक बहुत और बड़े (गोबर के कीट के समान) लाल कुन्थुओं की रचना करते हैं, जिनका मुख मानो वज़ जैसा होता है और जो गोबर के कीड़े जैसे होते हैं। ऐसे कुन्थुरूप की विकुर्वणा करके वे एक दूसरे के शरीर पर चढ़ते हैं, उनके शरीर को बार बार काटते हैं और सो पर्व वाले इक्ष के कीड़ों की तरह भीतर ही भीतर सनसनाहट करते हुए घुस जाते हैं और उनको उज्ज्वल यावत् असह्य वेदना उत्पन्न करते हैं। 89. [3] इमोसे गं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया कि सीयवेवणं वेवंति, उसिण. वेयणं वेवंति, सीसोसिणधेयणं वेदेति ? गोयमा! णो सोयं वेदणं वेदेति, उसिणं वेदणं वेदेति, णो सीयोसिणं, एवं जाव बालयप्पभाए। पंकप्पभाए पुच्छा-गोयमा ! सीयं पि बेयणं वेदेति, उसिणं पि वेयणं वेयंति, नो सीओसिणवेयणं वेयंति / ते बहुतरगा जे उसिणं वेवणं वेदेति, ते थोवयरगा जे सीतं वेवणं वेयंति। 1, यहाँ प्रतियों में ('ते अप्पयरा उपहजोणिया वेदेति') पाठ अधिक हैं जो संगत नहीं है। भूल से लिखा गया प्रतीत होता है। संपादक Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 244] [जीवाजोवाभिगमसूत्र धूमप्पभाए पुच्छा / गोयमा ! सीतं पि वेवणं वेदेति उसिणं पि वेयणं वेयंति णो सीतोसिणं वेयणं वेदेति / ते बहुतरगा जे सीयवेदणं वेदेति, ते थोवयरगा जे उसिणवेयणं वेयंति / तमाए पुच्छा / गोयमा ! सीयं वेयणं वेदेति जो उसिणं वेदणं वेदिति णो सीतोसिणं वेयणं वेति / एवं अहेसत्तभाए गवरं परमसीयं / [86] (3) हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक क्या शीत वेदना वेदते हैं, उष्ण वेदना वेदते हैं या शीतोष्ण वेदना वेदते हैं ? गौतम ! वे शीत वेदना नहीं वेदते हैं, उष्ण वेदना वेदते हैं, शीतोष्ण वेदना नहीं वेदते हैं / इस प्रकार शर्कराप्रभा और बालुकाप्रभा के नैरयिकों के संबंध में भी जानना चाहिए। पंकप्रभा के विषय में प्रश्न करने पर गौतम ! वे शीतवेदना भी वेदते हैं, उष्ण वेदना भी वेदते हैं, शीतोष्ण वेदना नहीं वेदते हैं / वे नैरयिक बहुत हैं जो उष्णवेदना वेदते हैं और वे कम हैं जो शीत वेदना वेदते हैं। धूमप्रभा के विषय में प्रश्न किया तो हे गौतम ! वे सीत वेदना भी वेदते हैं और उष्ण वेदना भी वेदते हैं, शीतोष्ण वेदना नहीं वेदते हैं। वे नारकजीव अधिक हैं जो शीत वेदना वेदते हैं और वे थोड़े हैं जो उष्ण वेदना वेदते हैं। तमः प्रभा के प्रश्न पर हे गौतम ! वे शीत वेदना वेदते हैं, उष्ण वेदना नहीं वेदते हैं और शीतोष्ण वेदना नहीं वेदते हैं। तमस्तमा पृथ्वी की पुच्छा में गौतम ! परमशीत वेदना वेदते हैं उष्ण या शीतोष्ण वेदना नहीं वेदते हैं। 89. [4] इमोसे गं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए णेरइया केरिसयं गिरयभवं पच्चणुभवमाणा विहरंति ? गोयमा ! ते णं तत्थ णिच्च भीता णिच्चं तसिया णिच्चं छुहिया णिच्चं उविग्गा निच्चं उपप्पुआ णिच्चं वहिया निच्चं परममसुममउलमणुबद्धं निरयभवं पच्चणुभवमाणा विहरति / एवं जाव अधेसत्तमाए णं पुढवीए पंच अणत्तरा महतिमहालया महागरगा पन्नता, तंजहा-- काले महाकाले रोरुए महारोरुए अप्पतिट्ठाणे / तत्थ इमे पंच महापुरिसा अणुत्तरेहि दंडसमावाणेहि कालमासे कालं किच्चा अप्पइट्ठाणे णरए रइयत्ताए उपवण्णा, संजहा–१ रामे जमदग्गिपुत्ते 2 वढाउ लच्छइपुत्ते 3 वसु उवरिचरे 4 सुभूमे कोरवे 5 बंभदत्ते चुलणिसुए / ते णं तत्थ नेरइया जाया काला कालोमासा जाव परमकिण्हा वण्णेणं पण्णता, तंजहा-ते गं तत्थ वेदणं वेति उज्जलं विउलं जाव दुरहियासं। [89] (4) हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिक किस प्रकार के नरक भव का अनुभव करते हुए विचरते हैं ? 1, "णिचं वहिया' यह पाठ टीका में नहीं है। संपादक Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपति : एक-अनेक-विकुर्वगा] [245 गौतम ! वे वहाँ नित्य डरे हुए रहते हैं, नित्य त्रसित रहते हैं, नित्य भूखे रहते हैं, नित्य उद्विग्न रहते हैं, नित्य उपद्रवग्रस्त रहते हैं, नित्य वधिक के समान ऋर परिणाम वाले, नित्य परम अशुभ, अनन्य सदृश अशुभ और निरन्तर अशुभ रूप से उपचित नरकभव का अनुभव करते हैं / इसी प्रकार सप्तम पृथ्वी तक कहना चाहिए। सप्तम पृथ्वी में पांच अनुत्तर बड़े से बड़े महानरक कहे गये हैं, यथा-काल, महाकाल, रोरव, महारौरव और अप्रतिष्ठान / वहाँ ये पांच महापुरुष सर्वोत्कृष्ट हिंसादि पाप कर्मों को एकत्रित कर मृत्यु के समय मर कर अप्रतिष्ठान नरक में नैरयिक के रूप में उत्पन्न हुए,-१. जमदग्नि का पुत्र परशुराम, 2. लच्छतिपुत्र दृढायु, 3. उपरिचर वसुराज, 4. कौरव्य सुभूम और 5 चुलणिसुत ब्रह्मदत्त / ये वहां नैरयिक के रूप में उत्पन्न हुए जो वर्ण से काले, काली छवि वाले यावत् अत्यन्त काले हैं, इत्यादि वर्णन करना चाहिए यावत् वे वहाँ अत्यन्त जाज्वल्यमान विपुल एवं यावत् असह्य वेदना को वेदते हैं। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में नारक जीवों को भूख-प्यास संबंधी वेदना, एक-अनेक शस्त्रों की विकुर्वणा कर परस्पर दी गई वेदना, शीतवेदना, उष्णवेदना और नरकभव से होने वाली वेदनाओं का वर्णन किया है। मुखवेदना-नारक जीवों की भूख-प्यास को असत् कल्पना के द्वारा व्यक्त करते हुए कहा गया है कि यदि किसी एक नारक जीव के मुख में सर्व खाद्य पुद्गलों को डाल दिया जाय और सारे समुद्रों का पानी पिला दिया जाय तो भी न तो उसकी भूख शान्त होगी और न प्यास ही बुझ पायगी / इसकी थोड़ी-सी कल्पना हमें इस मनुष्यलोक में प्रबलतम भस्मक व्याधि वाले पुरुष की दशा से प्रा सकती हैं / ऐसी तीव्र भूख-प्यास की वेदना वे नारक जीव सहने को बाध्य हैं। शस्त्रविकुर्वणवेदना-वे नारक जीव एक प्रकार के और बहुत प्रकार के नाना शस्त्रों की विकुर्वणा करके एक दूसरे नारक जीव पर तीव्र प्रहार करते हैं। वे परस्पर में तीव्र वेदना देते हैं, इसलिए परस्परोदीरित वेदना वाले हैं। पाठ में आया हुआ 'पुहुत्तं' शब्द बहुत्व का वाचक है। इस विक्रिया द्वारा वे दूसरों को उज्ज्वल, विपुल, प्रगाढ, कर्कश, कटुक, परुष, निष्ठुर, चण्ड, तीव्र, दुःखरूप, दुर्लध्य और दुःसह्य वेदना देते हैं / यह विकुर्वणा रूप वेदना पांचवीं नरक तक समझना चाहिए / छठी और सातवीं नरक में तो नारक जीव वज्रमय मुखवाले लाल और गोबर के कीड़े के समान, बड़े कुन्थुत्रों का रूप बनाकर एक दूसरे के शरीर पर चढ़ते हैं और काट-काट कर दूसरे नारक के शरीर में अन्दर तक प्रवेश करके इक्षु का कीड़ा जैसे इक्षु को खा-खाकर छलनी कर देता है, वैसे वे नारक के शरीर को छलनी करके वेदना पहुँचाते हैं। शीतादि वेदना-रत्नप्रभापृथ्वी के नारक शीतवेदना नहीं वेदते हैं, उष्णवेदना वेदते हैं, शीतोष्णवेदना नही वेदते हैं। वे नारक शीतयोनि वाले हैं। योनिस्थान के अतिरिक्त समस्त भूमि खैर के अंगारों से भी अधिक प्रतप्त है, अतएव वे नारक उष्णवेदना वेदते हैं; शीतवेदना नहीं। शीतोष्णस्वभाव वाली सम्मिलित वेदना का नरकों में मूल से ही अभाव है। शर्कराप्रभा और बालुकाप्रभा में भी उष्णवेदना ही है / पंकप्रभा में शीतवेदना भी और Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 246] [जीवाजीवामिगमसूत्र उष्णवेदना भी है। नरकावासों के भेद से कतिपय नारक शीतवेदना वेदते हैं और कतिपय नारक उष्णवेदना वेदते हैं / उष्णवेदना वाले नारक जीव अधिक हैं और शीतवेदना वाले कम हैं। धूमप्रभा में भी दोनों प्रकार की वेदनाएं हैं परन्तु वहां शीतवेदना वाले अधिक हैं और उष्णवेदना वाले कम हैं। छठी नरक में शीत वेदना है। क्योंकि वहाँ के नारक उष्णयोनिक है। योनिस्थानों को छोड़कर सारा क्षेत्र अत्यन्त बर्फ की तरह ठंढा है, अतएव उन्हें शीतवेदनम भोगनी पड़ती है / सातवीं पृथ्वी में अतिप्रबल शीतवेदना है। भवानुभववेदना-रत्नप्रभा आदि नरक भूमियों के नारक जीव क्षेत्रस्वभाव से ही अत्यन्त गाढ अन्धकार से व्याप्त भूमि को देखकर नित्य डरे हुए और शंकित रहते हैं। परमाधामिक देव तथा परस्परोदीरित दुःखसंघात से नित्य त्रस्त रहते हैं। वे नित्य दुःखानुभव के कारण उद्विग्न रहते हैं, वे नित्य उपद्रवग्रस्त होने से तनिक भी साता नहीं पाते हैं, वे सदा अशुभ, अशुभ रूप से अनन्यसदृश तथा अशुभरूप से निरन्तर उपचित नरकभव का अनुभव करते हैं / यह वक्तव्यता सब नरकों सप्तमपृथ्वी के अप्रतिष्ठान नरकावास में अत्यन्त क्रूर कर्म करने वाले जीव ही उत्पन्न होते हैं, अन्य नहीं / उदाहरण के रूप में यहां पांच महापुरुषों का उल्लेख किया गया है जो अत्यन्त उत्कृष्ट स्थिति के और उत्कृष्ट अनुभाग का बन्ध कराने वाले क्रूर कर्मों को बांधकर सप्तमपृथ्वी के प्रतिष्ठान नरकावास में उत्पन्न हुए हैं। वे हैं-१. जमदग्नि का पुत्र परशुराम, 2. लच्छति पुत्र दृढायु (टीकाकार के अनुसार छातीसुत दाढादाल), 3. उपरिचर वसुराजा, 4. कोरव्य गोत्रवाला अष्टमचक्रवर्ती सुभूम और 5. चुलनीसुत ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती / / ऐसा कहा जाता है कि परशुराम ने 21 बार क्षत्रियों का नाश करके क्षत्रियहीन पृथ्वी कर दी थी। सुभम प्राठवां चकवर्ती हा. इसने सात बार पृथ्वी को ब्राह्मणरहित किया। ऐसी किंवदन्ती है। तीव्र क्रूर अध्यवसायों से ही ऐसा हो सकता है। ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती अत्यन्त भोगासक्त था तथा उसके अध्यवसाय अत्यन्त क्रूर थे। वसु राजा उचरिचर के विषय में प्रसिद्ध है कि वह बहुत सत्यवादी था और इस कारण देवताधिष्ठित स्फटिक सिंहासन पर बैठा हुआ भी वह स्फटिक सिंहासन जनता को दृष्टिगोचर न होने से ऐसी बात फैल गई थी कि राजा प्राण जाने पर भी असत्य भाषण नहीं इसके प्रताप से वह भूमि से ऊपर उठकर अधर में स्थित होता है। एक बार पर्वत और नारद में वेद में आये हुए 'अज' शब्द के विषय में विवाद हुआ। पर्वत अज का अर्थ बकरा करता था और उससे यज्ञ करने का हिंसामय प्रतिपादन करता था। जबकि सम्यग्दृष्टि नारद 'अज' का अर्थ 'न उगने वाला दोनों न्याय के लिए वस राजा के पास आये। किन्हीं कारणों से वस राजा ने पर्वत का पक्ष लिया, हिंसामय यज्ञ को प्रोत्साहित किया / इस झूठ के कारण देवता कुपित हुप्रा और उसे चपेटा मार कर सिंहासन से गिरा दिया। वह रौद्रध्यान और क्रूर परिणामों से मरकर सप्तम पृथ्वी के अप्रतिष्ठान नरकावास में उत्पन्न हुआ। उक्त पंच महापुरुष और ऐसे ही अन्य अत्यन्त क्रूरकर्मा प्राणी सर्वोत्कृष्ट पाप कर्म का उपार्जन करके वहाँ उत्पन्न हुए और अशुभ वर्ण-गंध-स्पर्शादिक की उज्ज्वल, विपुल और दुःसह्य वेदना को भोग रहे हैं। Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: उष्णवेदना का स्वरूप] [247 उष्णवेदना का स्वरूप 89. [5] उसिणवेदणिज्जेसु णं भंते ! गरएसु गैरइया केरिसयं उसिणवेयणं पच्चम्भवमाणा विहरंति ? गोयमा ! से जहानामए कम्मारदारए सिया तरुणे बलवं जुगवं अप्पायंके थिरग्गहत्थे दरपाणिपादपास पिटुतरोरु [संघाय] परिणए लंघण-पवण-जवण-वग्गण-पमद्दणसमत्थे तलजमलजुयल (फलिहणिभ ) बाहू धणणिचियवलियवदृखंधे, चम्मेढगदुहणमुद्वियसमायणिचितगत्तगत्ते उरस्स बल समण्णागए छए रक्खे प? कुसले णिउणे मेहाबो णिउणसिप्पोवगए एगं महं अपिडं उपगबारसमाणं गहाय तं ताविय ताविय कोट्टिय कोट्टिय उभिदिय उग्भिदिय चुण्णिय चुग्णिय जाव एगाहं वा दयाहं या तियाहं वा उक्कोसेणं अदमासं संहणेज्जा, से गं तं सीतं सीतीमूतं अबओमएणं संदसएणं गहाय असम्भावपट्ठवणाए उसिणवेदणिज्जेसु गरएसु पक्खिवेजा, से गं तं उम्मिसिय णिमिसियंतरेण पुणरवि पच्चुरिस्सामित्तिकट्ट पविरायमेव पासेज्जा, पविलीणमेव पासेज्जा; पविद्धत्यमेव पासेज्जा णो व गं संचाएति अविरायं वा अविलोणं वा अविद्धस्थं वा पुणरवि पच्चद्धरित्तए। से जहा वा मत्तमातंगे विवे कुंजरे सद्विहायणे पढमसरयकालसमयंसि वा चरमनिवाघकालसमयंसि वा उण्हाभिहए तण्हाभिहए दवग्गिजालाभिहए पाउरे सुसिए पिवासिए दुग्बले किलते एक्कं महं पुक्खरिणि पासेज्जा चाउकोणं समतीरं अणुपुखसुजायवप्पगंभीरशीतलजलं संछण्णपत भिसमुणालं बहुउप्पलकुमुदणलिण-सुमग-सोगंधिय-पुंडरीय-महपुडरीय-सयपत्त-सहस्सयपत्त-केसर फुल्लोवचियं छप्पयपरिभुज्जमाणकमलं अच्छविमलसलिलपुण्णं परिहत्थभमंत मच्छ कच्छभं अणेगसउणिगणमिहणय विरइय सद्दुन्नाइयमहुरसरनाइयं तं पासइ, तं पासित्ता तं ओगाहइ, ओगाहित्ता से नं तत्थ उण्हंपि पविणेज्मा तिव्हपि पविणेज्जा खुह पि पविणिजा जरंपि पविणेज्जा वाहं पि पविणेज्मा णिहाएज्ज वा पयलाएज वा सई वा रइंवा घिई वा मति वा उवलमेज्जा, सीए सीयमूए संकममाणे संकममाणे सायासोक्खबहुले यावि विहरिज्मा, एवामेव गोयमा ! असम्भावपट्ठवणाए उसिणवेयणिज्जेहितो परएहितो णेरइए उन्वदिए समाणे जाई इमाई मणस्सलोयंसि भवंति गोलियालिछाणि वा सेंडियालिछाणि वा मिडियालिछाणि वा अयागराणि वा तंबागराणि वा तउयागराणि वा सोसागराणि वा रूप्पागराणि वा सुवन्नागराणि वा हिरण्णागराणि वा कुभारागणीइ वा मुसागणी वा इट्टयागणी वा कर्वल्लुयागणी वा लोहारंबरीसे इवाजंतवाडचुल्ली या हंडियलिस्थाणि वा सोंडियलिस्थाणि वा गलागणी इवा तिलागणी वा तुसागणी ति वा तत्ताई समज्जोईभूयाई फुल्लाकिसुय-समाणाई उपकासहस्साई विणिम्मुयमाणाई जालासहस्साई पमुच्चमाणाइं इंगालसहस्साई पविक्खरमाणाइं अंतो अंतो हुहुयमागाइं चिट्ठति ताई पासइ, ताई पासित्ता ताई प्रोगाहइ, ताई ओगाहिता से णं तत्थ उण्हं पि पविज्जा तण्हं पि पविणेज्जा खुहं पि पविणेज्जा जरंपि पविणेज्जा दाहयि पविणेज्जा णिहाएज्जा वा Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 248] [जीवाजीवाभिगमसूत्र पयलाएज्जा वा सई वा रई वा धिई वा मह वा उवलमेज्जा, सोए सीयभूयए संकममाणे संकममाणे सायासोक्खबहुले या वि विहरेज्जा, भवेयारवे सिया? जो इण? सम गोयमा ! उसिणवेवणिज्जेसु णरएसु नेरइया एतो अणिद्वतरियं चेव उसिण वेयणं पच्चणुभवमाणा विहरति / [89] (5) हे भगवन् ! उष्णवेदना वाले नरकों में नारक किस प्रकार की उष्णवेदना का अनुभव करते हैं ? गौतम ! जैसे कोई लुहार का लड़का, जो तरुण (युवा-विशिष्ट अभिनव वर्णादि वाला) हो, बलवान हो, युगवान् (कालादिजन्य उपद्रवों से रहित) हो, रोग रहित हो, जिसके दोनों हाथों का अग्रभाग स्थिर हो, जिसके हाथ, पांव, पसलियां, पीठ और जंघाए सुदृढ और मजबूत हों, जो लांघने में, कूदने में, बेग के साथ चलने में, फांदने में समर्थ हो और जो कठिन वस्तु को भी चूर-चूर कर सकता हो, जो दो ताल वृक्ष जैसे सरल लंबे पुष्ट बाहु वाला हो, जिस के कंधे घने पुष्ट और गोल हों, (व्यायाम के समय) चमडे की बेंत, मुदगर तथा मुट्ठी के आघात से घने और पुष्ट बने हुए अवयवों वाला हो, जो आन्तरिक उत्साह से युक्त हो, जो छेक (बहत्तर कला निपुण), दक्ष (शीघ्रता से काम करने वाला), प्रष्ठ-हितमितभाषी, कुशल (कार्य कुशल), निपुण, बुद्धिमान, निपुणशिल्पयुक्त हो, वह एक छोटे घड़े के समान बड़े लोहे के पिण्ड को लेकर उसे तपा-तपा कर कट कट कर काट-काट कर उसका चूर्ण बनावे, ऐसा एक दिन, दो दिन, तीन दिन यावत् अधिक से अधिक पन्द्रह दिन तक ऐसा ही करता रहे / (चूर्ण का गोला बनाकर उसी क्रम से चूर्णादि करता रहे और गोला बनाता रहे, ऐसा करने से वह मजबूत फौलाद का गोला बन जावेगा) फिर उसे ठंडा करे / उस ठंडे लोहे के गोले को लोहे की संडासी से पकड़ कर असत् कल्पना से उष्णवेदना वाले नरकों में रख दे, इस विचार के साथ कि मैं एक उन्मेष-निमेष में (पलभर में) उसे फिर निकाल लूंगा। परन्तु वह क्षण भर में ही उसे फूटता हुआ देखता है, मक्खन की तरह पिघलता हुआ देखता है, सर्वथा भस्मीभूत होते हुए देखता है। वह लहार का लड़का उस लोहे के गोले की अस्पटित, अगलित और अविध्वस्त रूप में पन: निकाल लेने में समर्थ नहीं होता। (तात्पर्य यह है कि वह फौलाद का गोला वहाँ की उष्णता से क्षणभर में पिघल कर नष्ट हो जाता है , इतनी भीषण वहाँ की उष्णता है।) (दूसरा दृष्टान्त) जैसे कोई मद वाला मातंग हाथी द्विप कुजर जो साठ वर्ष का है प्रथम शरत् काल समय में (आश्विन मास में) अथवा अन्तिम ग्रीष्मकाल समय में (ज्येष्ठ मास में) गरमी से पीड़ित होकर, तृषा से बाधित होकर, दावाग्नि की ज्वालाओं से झुलसता हुआ, पातुर, शुषित, पिपासित, दुर्बल, और क्लान्त बना हुआ एक बड़ी पुष्करिणी (सरोवर) को देखता है, जिसके चार कोने हैं, जो समान किनारे वाली है, जो क्रमशः आगे-आगे गहरी है, जिसका जलस्थान अथाह है, जिसका जल शीतल है, जो कमलपत्र कंद और मृणाल से ढंकी हुई है। जो बहुत से खिले हुए केसरप्रधान उत्पल, कुमुद, नलिन, सुभग, सौगंधिक, पुण्डरीक, महापुण्डरीक, शतपत्र, सहस्रपत्र आदि विविध कमल की जातियों से मुक्त है, जिसके कमलों पर भ्रमर रसपान कर रहे हैं, जो स्वच्छ निर्मल जल से भरी हुई है, जिसमें बहुत से मच्छ और कछुए इधर-उधर घूम रहे हों, अनेक पक्षियों के जोड़ों के चहचहाने के शब्दों के कारण से जो मधुर स्वर से सुनिनादित (शब्दायमान) हो रही है, ऐसी पुष्पकरिणी को देखकर वह उसमें प्रवेश करता है, प्रवेश करके अपनी गरमी को शान्त करता है, तुषा को दूर करता है, भूख को मिटाता है, तापजनित ज्वर को नष्ट करता है और दाह को उपशान्त Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : शीतवना का स्वरूप] (249 करता है / इस प्रकार उष्णता आदि के उपशान्त होने पर वह वहाँ निद्रा लेने लगता है, आँखें मूंदने लगता है, उसकी स्मृति, रति (मानन्द), धृति (धैर्य) तथा मति (चित्त की स्वस्थता) लौट आती है, वह इस प्रकार शीतल और शान्त होकर धीरे-धीरे वहां से निकलता-निकलता अत्यन्त साता-सुख का अनुभव करता है। इसी प्रकार हे गौतम ! असत्कल्पना के अनुसार उष्णवेदनीय नरकों से निकल कर कोई नैरयिक जीव इस मनुष्यलोक में जो गुड पकाने की भट्टियां, शराब बनाने की भट्टियां, बकरी की लिण्डियों की अग्निवाली भट्टियां, लोहा गलाने की भट्टियां, ताँबा गलाने की भट्टियां, इसी तरह रांगा सीसा, चांदी, सोना हिरण्य को गलाने की भट्टियां, कुम्भकार के भट्टे की अग्नि, मूस की अग्नि, ईंटें पकाने के भट्टे की अग्नि, कवेलु पकाने के भट्टे की अग्नि, लोहार के भट्टे की अग्नि, इक्षुरस पकाने की चूल की अग्नि, तिल की अग्नि, तुष की अग्नि, नड-बांस की अग्नि आदि जो अग्नि और अग्नि के स्थान हैं, जो तप्त हैं और तपकर अग्नि-तुल्य हो गये हैं, फूले हुए पलास के फूलों की तरह लाललाल हो गये हैं, जिनमें से हजारों चिनगारियां निकल रही हैं, हजारों ज्वालाएँ निकल रही हैं, हजारों अंगारे जहां बिखर रहे हैं और जो अत्यन्त जाज्वल्यमान हैं, जो अन्दर ही अन्दर धू-धू धधकते हैं, ऐसे अग्निस्थानों और अग्नियों को वह नारक जीव देखे और उनमें प्रवेश करे तो वह अपनी उष्णता को नरक की उष्णता को) शान्त करता है, तषा, क्षधा और दाह को दूर करता है और ऐसा होने से वह वहाँ नींद भी लेता है, आँखें भी मूंदता है, स्मृति, रति, धृति और मति (चित्त की स्वस्थता) प्राप्त करता है और ठंडा होकर अत्यन्त शान्ति का अनुभव करता हुआ धीरे-धीरे वहां से निकलता हुप्रा अत्यन्त सुख-साता का अनुभव करता है / भगवान् के ऐसा कहने पर गौतम ने पूछा कि भगवन् ! क्या नारकों की ऐसी उष्णवेदना है ? भगवान् ने कहा-नहीं, यह बात नहीं है। इससे भी अनिष्टतर उष्णवेदना को नारक जीव अनुभव करते हैं / शीतवेदना का स्वरूप 89. [5] सीयवेदणिज्जेसु णं भंते ! गरएसु णेरइया केरिसियं सीयवेयणं पच्चणुम्भवमाणा विहरति ? - गोयमा ! से जहानामए कम्मारदारए सिया तरुणे जुगवं बलवं जाव सिप्पोवगए एगं महं अपिडं दगवारसमाणं गहाय ताविय कोट्टिय कोट्टिय जहन्नेणं एगाहं वा दुआहं वा तियाहं बा उक्कोसेणं मासं हणेज्जा, से गं तं उसिणं उसिणभूतं अयोमएणं संबंसएणं गहाय असम्भावपटुवणाए सीयधेदणिज्जेसु णरएसु पक्खिवेज्जा, तं [उमिसियनिमिसियंतरेणं पुणरवि पच्चुरिस्सामि तिकट्ठ पविरायमेव पासेज्जा, तं चेव णं जाव णो चेव णं संचाएज्जा पुणरवि पच्चुरित्तए / से णं से जहाणामए मत्तमायगे तहेव जाद सोक्खबहुले यावि विहरेमा] एवामेव गोयमा ! असम्भावपट्टवणाए सीयवेवणेहितो णरएहितो नेरइए उव्यट्टिए समाणे जाई इमाई इहं माणुस्सलोए हवंति, संजहा–हिमाणि वा हिमपुंजाणि वा हिमपउलाणि वा हिमपउलपुजाणि वा, तुसाराणि वा, तुसारपुंजाणि वा, हिमकुंडाणि वा हिमकुडपुजाणि वा सोयाणि वा ताई पासइ, पासित्ता ताई ओगाहति, ओगाहित्ता से गं तत्थ सीयंपि पविणेज्जा, तण्हंपि पविणेज्जा खुहंपि प० जरंपि 50 दाहं पि पविणेज्जा निदाएज्ज Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 210] [जीवाजीवाभिगमसूत्र का पयलाएष्ण वा जाव उसिणे उसिणमूए संकसमाणे संकसमाणे सायासोक्खबहुले यावि विहरेज्जा। गोयमा! सीयवेयणिज्जेसु नरएसु नेरइया एत्तो अणिटुतरियं चेव सीयवेयणं पच्छणुभवमाषा विहरंति। - [89] (5) हे भगवन् ! शीतवेदनीय नरकों में नैरयिक जीव कैसी शीतवेदना का अनुभव करते हैं ? गौतम ! जैसे कोई लुहार का लड़का जो तरुण, युगवान् बलवान् यावत् शिल्पयुक्त हो, एक बड़े लोहे के पिण्ड को जो पानी के छोटे घड़े के बराबर हो, लेकर उसे तपा-तपाकर, कूट-कूटकर जघन्य एक दिन, दो दिन, तीन दिन उत्कृष्ट से एक मास तक पूर्ववत् सब क्रियाएँ करता रहे तथा उस उष्ण और पूरी तरह उष्ण गोले को लोहे की संडासी से पकड़ कर असत् कल्पना द्वारा उसे शीतवेदनीय नरकों में डाले (मैं अभी उन्मेष-निमेष मात्र समय में उसे निकाल लूगा, इस भावना से डाले परन्तु वह फ्ल-भर बाद उसे फूटता हुआ, गलता हुआ, नष्ट होता हुआ देखता है, वह उसे अस्फुटित रूप से निकालने में समर्थ नहीं होता है। इत्यादि वर्णन पूर्ववत् कहना चाहिए। तथा मस्त हाथी का उदाहरण भी वैसे ही कहना चाहिए यावत् वह सरोवर से निकलकर सुखशान्ति से विचरता है / ) इसी प्रकार हे गौतम ! असत् कल्पना से शीतवेदना वाले नरकों से निकला हुआ नरयिक इस मनुष्यलोक में शीतप्रधान जो स्थान हैं जैसे कि हिम, हिमपुंज, हिमपटल, हिमपटल के पुंज, तुषार, तुषार के पुंज, हिमकुण्ड, हिमकुण्ड के पुंज, बीत और शीतपुंज आदि को देखता है, देखकर उनमें प्रवेश करता है; वह वहाँ अपने नारकीय शीत को, तृषा को, भूख को, ज्वर को, दाह को मिटा लेता है और शान्ति के अनुभव से नींद भी लेता है, नींद से प्रांखें बंद कर लेता है यावत् गरम होकर अति गरम होकर वहां से धीरे धीरे निकल कर साता-सुख का अनुभव करता है / हे गौतम ! शीतवेदनीय नरकों में नैरयिक इससे भी अनिष्टतर शीतवेदना का अनुभव करते हैं / नरयिकों की स्थिति 90. इमोसे गं भंते ! रयणप्पभाए पुढवोए रइयाणं केवइयं कालं ठिई पण्णता? गोयमा! जहन्नेण कि उक्कोसेण वि ठिई भाणियबा जाव अहेसत्तमाए। [90] हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों की स्थिति कितनी कही गई है ? गौतम ! जघन्य से और उत्कर्ष से पन्नवणा के स्थितिपद के अनुसार अधःसप्तमीपृथ्वी तक स्थिति कहनी चाहिए। उपवर्तना 61. इमोसे णं भंते ! रयणप्पभाए रइया अणंतरं उव्यट्ठिय कहिं गच्छति ? कहि उववनंति ? कि नेरइएसु उववज्जति, किं तिरिक्खजोणिएसु उववज्जंति, एवं उव्वट्टणा भाणियम्वा जहा वक्कंतीए तहा इह वि जाव अहेसत्तमाए / [91] हे भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक वहाँ से निकलकर सीधे कहां जाते हैं ? कहाँ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : उद्वर्तना] [251 उत्पन्न होते हैं ? क्या नैरयिकों में उत्पन्न होते हैं, तिर्यक्योनिकों में उत्पन्न होते हैं ? इस प्रकार उद्वर्तना कहनी चाहिए जैसी कि प्रज्ञापना के व्युत्क्रान्तिपद में कहा गया है वैसा यहाँ भी अधःसप्तमपृथ्वी तक कहना चाहिए। विवेचन–प्रस्तुत सूत्र में नैरयिकों की स्थिति और उद्वर्तना के विषय में प्रज्ञापनासूत्र के अनुसार वक्तव्यता जाननी चाहिए, ऐसा कहा गया है / प्रज्ञापना में क्या कहा गया है, वह यहाँ उल्लेखित किया जाना आवश्यक है / वह कथन इस प्रकार का है--- पृथ्वी का नाम जघन्य स्थिति उत्कृष्ट स्थिति रत्नप्रभा शर्कराप्रभा बालकाप्रभा पंकप्रभा धूमप्रभा तमःप्रभा तमस्तम:प्रभा दस हजार वर्ष एक सागरोपम तीन सागरोपम सात सागरोपम दस सागरोपम सत्रह सागरोपम बावीस सागरोपम एक सागरोपम तीन सागरोपम सात सागरोपम दस सागरोपम सत्रह सागरोपम तेतीस सागरोपम प्रस्तट के अनुसार स्थिति 1. रत्नप्रभा के 13 प्रस्तट हैं, उनकी स्थिति इस प्रकार है प्रस्तट जघन्य स्थिति (1) प्रथम प्रस्तट (2) दूसरा प्रस्तट (3) तीसरा प्रस्तट (4) चौथा प्रस्तट (5). पांचवां प्रस्तट ) छठा प्रस्तट सातवां प्रस्तट पाठवां प्रस्तट (9) नौवां प्रस्तट (10) दसवां प्रस्तट ग्यारहवां प्रस्तट (12) बारहवां प्रस्तट (13) तेरहवां प्रस्तट दस हजार वर्ष दस लाख वर्ष नब्बे लाख वर्ष पूर्वकोटि सागरोपम का दसवां भाग सागरोपम के दो दशभाग सागरोपम के तीन दशभाग सागरोपम के चार दशभाग सागरोपम के पांच दशभाग सागरोपम के छह दशभाग सागरोपम के सात दशभाग सागरोपम के आठ दशभाग सागरोपम के नौ दशभाग उत्कृष्ट स्थिति नब्बे हजार वर्ष नब्बे लाख वर्ष पूर्व कोटि सागरोपम का दसवां भाग सागरोपम के दो दशभाग सागरोपम के तीन दशभाग सागरोपम के चार दशभाग सागरोपम के पांच दशभाग सागरोपम के छह दशभाग सागरोपम के सात दशभाग सागरोपम के आठ दशभाग सागरोपम के नौ दशभाग सागरोपम के दस दशभाग अर्थात् पूरा एक सागरोपम - - Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 252] [जीवाजीवाभिगमसूत्र 2. शर्कराप्रभा को प्रस्तट के अनुसार स्थिति जघन्य एक सागरोपम एक सागरोपम और सागरोपम - प्रस्तब उत्कृष्ट ใจ 10 // पहला प्रस्तट दूसरा " तीसरा चौथा पांचवां छठा सातवां पाठवां नौवां दसवां ग्यारहवां , 21 , २वर , २का , 3 सागरोपम पूर्ण 3. बालकाप्रभा उत्कृष्ट जघन्य 3 सागरोपम प्रथम प्रस्तट 34 सागरोपम द्वितीय , तुतीय // चतुर्थ , "पंचम , छठा " mr r xku blou oko aku ke wako aku suhu ur सप्तम , अष्टम , नवम , 7 सागरोपम पूर्ण 4. पंकप्रभा / जघन्य उत्कृष्ठ 71 सागरोपम 7 सागरोपम प्रथम प्रस्तट द्वितीय " तृतीय , चतुर्थ , पंचम , 3900 बारा-66clar 6.6K40 सप्तम , 10 सागरोपम परिपूर्ण Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतियत्ति : नरकोंमें पृथ्वी आदि का स्पर्शादि प्ररूपण] [253 . 5. धूमप्रभा जघन्य उत्कृष्ट 10 सागरोपम 115 सागरोपम प्रथम प्रस्तट दूसरा , तीसरा , चौथा / पांचवां , 125 , 144 , 125 142 // , . 17 सागरोपम प्रतिपूर्ण 6. तमःप्रभा जघन्य उत्कृष्ट १७सागरोपम प्रथम प्रस्तट द्वितीय, तृतीय , 181 सागरोपम 207 सागरोपम 22 सागरोपम प्रतिपूर्ण 3. तमस्तमःप्रमा जघन्य उत्कृष्ट तंतीस सागरोपम एक ही प्रस्तट हे 22 सागरोपम उद्वर्तना प्रज्ञापना के व्युत्क्रान्तिपद के अनुसार उद्वर्तना कहनी चाहिए / वह बहुत विस्तृत है अतः वहीं से जानना चाहिए / संक्षेप में भावार्थ यह है कि प्रथम नरक पृथ्वी से लेकर छठी नरक पृथ्वी के नैरयिक वहाँ से सीधे निकलकर ने रयिक, देव, एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, संमूछिम पंचेन्द्रिय और असंख्येय वर्षायु वाले तिर्यंच मनुष्य को छोड़कर शेष तिर्यञ्चों और मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं। सप्तम पृथ्वी नैरयिक गर्भज तिर्यक् पंचेन्द्रियों में ही उत्पन्न होते हैं, शेष में नहीं। नरकों में पृथ्वी आदि का स्पर्शादि प्ररूपण 2. इमीसे गं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया केरिसयं पुढविफासं पच्चणुम्भवमाणा विहरंति ? गोयमा ! अणिटुंजाव अमणामं / एवं जाव अहेसत्तमाए / इमोसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया केरिसयं आउफासं पच्चणम्भवमाणा विहरंति ? गोयमा ! अणिटुंजाव अमणामं / एवं जाव अहेसत्तमाए। एवं जाव वणप्फइफासं अहेसत्तमाए पुढवीए। Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 254 [जीवाजीवामिममसूत्र इमा णं भंते ! रयणप्पभापुढवो दोच्चं पुढवि पणिहाय सम्वमहंतिया बाहल्लेणं सम्वक्खुडिया सम्छतेसु ? ___ हता! गोयमा ! इमा णं रयणप्पभापुढवी दोच्च पुढवि पणिहाय जाद सव्वक्खुडिया सम्वतेसु / दोच्चा णं भंते ! पुढवी तच्चं पुढदि पणिहाय सम्वमहंतिया बाहल्लेणं पुच्छा ? हंता गोयमा ! दोच्चा णं पुढवी जाव सव्वक्खुड्डिया सव्वतेसु / एवं एएणं अभिलावणं जाव छट्टिया पुढवी अहेसत्तमं पुढविं पणिहाय सबक्खुड्डिया सम्वंतेसु / [92] हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक किस प्रकार के भूमिस्पर्श का अनुभव करते हैं ? गौतम ! वे अनिष्ट यावत् अमणाम भूमिस्पर्श का अनुभव करते हैं। इसी प्रकार सप्तम पृथ्वी तक कहना चाहिए। हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक किस प्रकार के जलस्पर्श का अनुभव करते हैं ? गौतम ! अनिष्ट यावत् अमणाम जलस्पर्श का अनुभव करते हैं / इसी प्रकार सप्तम पृथ्वी तक कहना चाहिए। इसी प्रकार तेजस्, वायु और वनस्पति के स्पर्श के विषय में रत्नप्रभा से लेकर सप्तम पृथ्वी तक के नैरयिकों के विषय में जानना चाहिए। हे भगवन् ! क्या यह रत्नप्रभापृथ्वी दूसरी पृथ्वी की अपेक्षा बाहल्य (मोटाई) में बड़ी है और सन्तिों में लम्बाई चौड़ाई में सबसे छोटी है ? हां, गौतम ! यह रत्नप्रभापृथ्वी दूसरी पृथ्वी की अपेक्षा बाहल्य में बड़ी है और लम्बाईचौड़ाई में छोटी है / भगवन् ! क्या शर्कराप्रभा नामक दूसरी पृथ्वी तीसरी पृथ्वी से बाहल्य में बड़ी और सर्वान्तों में छोटी है ? हाँ, गौतम ! दूसरी पृथ्वी तीसरी पृथ्वी से बाहल्य में बड़ी और लम्बाई-चौड़ाई में छोटी है / इसी प्रकार तब तक कहना चाहिए यावत् छठी पृथ्वी सातवीं पृथ्वी की अपेक्षा बाहल्य में बड़ी और लम्बाई-चौड़ाई में छोटी है। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में नरक-पृथ्वियों के भूमिस्पर्श, जलस्पर्श, तेजस-स्पर्श, वायुस्पर्श और वनस्पतिस्पर्श के विषय को लेकर नैरयिकों के अनुभव की चर्चा है। नरयिक जीवों को तनिक भी सुख के निमित्त नहीं हैं अतएव उनको वहाँ की भूमि का स्पर्श आदि सब अनिष्ट, प्रकांत, अप्रिय, अमनोज्ञ और अमणाम लगते हैं / यद्यपि नरकपृथ्वियों में साक्षात् बादरअग्निकाय नहीं है, तथापि उष्णरूपता में परिणत नरकभित्तियों का स्पर्श तथा परोदीरित वैक्रियरूप उष्णता वहां समझनी चाहिए। Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुतीय प्रतिपत्ति : नरकों में पृथ्वी आदि का स्पर्शावि प्ररूपण] [255 ___ साथ ही इस सूत्र में यह भी बताया गया है कि यह रत्नप्रभापृथ्वी बाहल्य की अपेक्षा सबसे बड़ी है क्योंकि इसकी मोटाई 1 लाख 80 हजार योजन है और आगे-आगे की पृथ्वियों की मोटाई कम है / दूसरी की 1 लाख बत्तीस हजार, तीसरी की एक लाख अट्ठावीस हजार, चौथी की एक लाख बीस हजार, पांचवीं की एक लाख अठारह हजार, छठी की एक लाख सोलह हजार और सातवीं की मोटाई एक लाख आठ हजार है। लम्बाई-चौड़ाई में रत्नप्रभापृथ्वी सबसे छोटी है। इसकी लम्बाई-चौड़ाई एक राजू है। दूसरी पृथ्वी की लम्बाई-चौड़ाई दो राजू की है। तीसरी की तीन राज, चौथी की 4 राज, पांचवीं की 5 राज, छठी की छह राज और सातवीं की सात लम्बाई-चौड़ाई है / बाहल्य में आगे-आगे की पृथ्वी छोटी है और लम्बाई-चौड़ाई में आगे-मागे को पृथ्वी बड़ी है / 93. इमोसे गं भंते !. रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए नरयावास-सयसहस्सेसु इक्कमिक्कसि निरयावासंसि सव्वे पाणा सच्चे भूया सम्वे जीवा सम्धे सत्ता पुढवीकाइयत्ताए जाव वणस्सइकाइयत्ताए नेरइयत्ताए उववन्नपुस्वा ? हंता गोयमा ! असई अदुवा अणंतखुत्तो। एवं जाव अहेसत्तमाए पुढवीए गवरं जत्थ जत्तिया णरका। इमोसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए निरयपरिसामंतेसु जे पुढविकाइया जाव वणप्फइकाइया, ते गं भंते ! जीवा महाकम्मतरा चेव महाकिरियतरा चेव महाआसवतरा चेव महावेयणतरा चेव? हंता गोयमा! इमोसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए निरयपरिसामंतेसु तं चेव जाव महावेयणतरका चेव / एवं जाव अधेसत्तमाए। [93) हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से प्रत्येक में सब प्राणी. सब भूत, सब जीव और सब सत्त्व पृथ्वीकायिक रूप में अप्कायिक रूप में वायुकायिक रूप में वनस्पतिकायिक रूप में और नैरयिक रूप में पूर्व में उत्पन्न हुए हैं क्या ? हां गौतम ! अनेक बार अथवा अनंत बार उत्पन्न हुए हैं। इस प्रकार सप्तम पृथ्वी तक कहना चाहिए। विशेषता यह है-जिस पृथ्वी में जितने नरकावास हैं उनका उल्लेख वहाँ करना चाहिए / भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नरकावासों के पर्यन्तवर्ती प्रदेशों में जो पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक जीव हैं, वे जीव महाकर्म वाले, महाक्रिया वाले और महामास्रव वाले और महावेदना वाले हैं क्या ? हाँ, गौतम ! वे रत्नप्रभापृथ्वी के पर्यन्तवर्ती प्रदेशों के पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक जीव महाकर्म वाले, महाक्रिया वाले, महाप्रास्रव वाले और महावेदना वाले हैं / इसी प्रकार सप्तम पृथ्वी तक कहना चाहिए। Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 256] [जीवाजीवाभिगमसूत्र विवेचन--प्रस्तुत सूत्र में दो महत्त्वपूर्ण प्रश्न और उनके उत्तर हैं। पहला प्रश्न है कि भगवन् ! उक्त प्रकार के नरकावासों में सब प्राणी, सब भूत, सब जीव और सब सत्त्व पहले उत्पन्न हुए हैं क्या? भगवान् ने कहा-हाँ गौतम ! सब संसारी जीव इन नरकावासों में से प्रत्येक में अनेक बार अथवा अनन्त बार पूर्व में उत्पन्न हो चुके हैं। संसार अनादिकाल से है और अनादिकाल से सब संसारी जीव जन्म-मरण करते चले आ रहे हैं / अतएव वे बहुत बार अथवा अनन्त बार इन नरकावासों में उत्पन्न हुए हैं। कहा है ___'न सा जाई न सा जोणी जत्थ जीवो न जायई' ऐसी कोई जाति और ऐसी कोई योनि नहीं है जहाँ इस जीव ने अनन्तबार जन्म-मरण न किया हो / मूल पाठ में प्राण, भूत, जीव और सत्त्व शब्द आये हैं, इनका स्पष्टीकरण प्राचार्यों ने इस प्रकार किया है _ 'द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों का ग्रहण 'प्राण' शब्द से, वनस्पति का ग्रहण 'भूत' शब्द से, पंचेन्द्रियों का ग्रहण 'जीव' शब्द से, शेष रहे पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजस्काय और वायुकाय के जीव 'सत्त्व' शब्द से गृहीत होते हैं / '' प्रस्तुत सूत्र में 'पुढवीकाइयात्ताए जाव' वणस्सइकाइयत्ताए' पाठ है। इससे सामान्यतया पृथ्वीकायिक, अपकायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक जीवों का ग्रहण होता है। यहाँ रत्नप्रभादि में तत् तत् रूप में उत्पन्न होने वाले जीवों के विषय में पृच्छा है। बादर तेजस्कायिक के रूप में जीव इन नरकपृथ्वियों में उत्पन्न नहीं होते अतएव उनको छोड़कर शेष के विषय में यह समझना चाहिए। वृत्तिकार ने भी ऐसा ही उल्लेख किया है। अतएव मूलार्थ में ऐसा ही अर्थ किया है। दूसरा प्रश्न यह कि क्या वे रत्नप्रभादि के पर्यन्तवर्ती पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक जीव महाकर्म वाले, महाक्रिया वाले, महापाश्रव वाले और महावेदना वाले हैं ? भगवान् ने कहाहाँ गौतम ! वे महाकर्म वाले यावत् महावेदना वाले हैं। प्रस्तुत प्रश्न का उद्भव इस शंका से होता है कि वे जीव अभी एकेन्द्रिय अवस्था में हैं। अभी वे इस स्थिति में नहीं हैं और न ऐसे साधन उनके पास हैं जिनसे वे महा पापकर्म और महारम्भ आदि कर सकें तो वे महाकर्म, महाक्रिया, महापाश्रव और महावेदना वाले कैसे हैं ? इसका समाधान करते हुए कहा गया है कि उन जीवों ने पूर्वजन्म में जो प्राणातिपात आदि महाक्रिया की है उसके अध्यवसायों से वे निवृत्त नहीं हुए हैं / अतएव वे वर्तमान में भी महाक्रिया वाले हैं। महाक्रिया का हेतु महामाश्रव है। वह महाआश्रव भी पूर्वजन्म में उनके था इससे वे निवृत्त नहीं हुए अतएव 1.. प्राणा द्वित्रिचतुः प्रोक्ताः भूताश्च तरब: स्मृताः। जीवा: पंचेन्द्रिया ज्ञेयाः शेषा: सत्त्वा उदीरिताः / / 2. 'पृथ्वीकायिकतथा अप्कायिकतया वायुकायिकतया वनस्पतिकायिकतया नैरयिकतया उत्पन्नाः उत्पन्नपूर्वाः ? भगवानाह-हंतेत्यादि। -मलयवृत्ति Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : उहेशकार्थसंग्रहणिगाथाएँ] [257 महामाश्रव भी उनके मौजूद है। महामाश्रव और महाक्रिया के कारण असातावेदनीयकर्म उनके प्रचुरमात्रा में है, अतएव वे महाकर्म वाले हैं और इसी कारण वे महावेदना वाले भी हैं। उद्देशकार्थसंग्रहणिगाथाएं 64. पुढवि मोगाहित्ता नरगा संगणमेव बाहल्लं / विक्खंभपरिक्खेवे वणो गंषो य फासो य // 1 // तेसि महालयाए उवमा देवेण होइ कायव्वा / जीवा य पोग्गला बक्कमति तह सासया निरया // 2 // उववायपरीमाणं अवहारुच्चत्तमेव संघयणं / संठाण वण्ण गंधा फासा ऊसासमाहारे // 3 // लेसा विट्ठी नाणे जोगुवओगे तहा समुग्धाया। तत्तो खुहा पिवासा विउवणा वेयणा य भए // 4 // उववालो पुरिसाणं प्रोवम्मं वेयणाए दुविहाए / उन्बट्टण पुढवी उ उववानो सव्वजीवाणं // 5 // एयाओ संगहणिगाहाओ। // बोनो उद्देसओ समत्तो / [94] इस उद्देशक में निम्न विषयों का प्रतिपादन हना है-पृथ्वियों की संख्या, कितने क्षेत्र में नरकवास हैं, नारकों के संस्थान, तदनन्तर मोटाई, विष्कम्भ, परिक्षेप (लम्बाई-चौड़ाई और परिधि) वर्ण, गन्ध, स्पर्श, नरकों की विस्तीर्णता बताने हेतु देव की उपमा, जीव और पुद्गलों की उनमें व्युत्क्रान्ति, शाश्वत् अशाश्वत प्ररूपणा, उपपात (कहाँ से आकर जन्म लेते हैं), एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं, अपहार, उच्चत्व, नारकों के संहनन, संस्थान, वर्ण, गन्ध, स्पर्श, उच्छ्वास, आहार, लेश्या, दृष्टि, ज्ञान, योग, उपयोग, समुद्घात, भूख-प्यास, बिकुर्वणा, वेदना, भय, पांच महापुरुषों का सप्तम पृथ्वी में उपपात, द्विविध वेदना-उष्णवेदना शीतवेदना, स्थिति, उद्वर्तना, पृथ्वी का स्पर्श और सर्वजीवों का उपपात / / // द्वितीय उद्देशक सम्पूर्ण // 00 Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततीय प्रतिपत्ति - तृतीय उद्देशक. नैरयिकों के विषय में और अधिक प्रतिपादन करने के लिए तृतीय उद्देशक का प्रारम्भ किया गया है / उसका आदिसूत्र इस प्रकार है-- नारकों का पुद्गलपरिणाम 95. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया :केरिसय पोग्गलपरिणामं पच्चन्भवमाणा विहरंति ? गोयमा ! अणि जाय अमणामं / एवं जाव अहेसत्तमाए एवं नेयम्वं / एत्थ किर अतिवयंति नरवसभा केसवा जलचरा य / मंडलिया रायाणो जेय महारंभ कोडुबो // 1 // भिन्नमुहुत्तो नरएसु होई तिरियमणुएसु चत्तारि। देवेसु अद्धमासो उक्कोस विउव्वणा भणिया // 2 // जे पोग्गला अणिट्ठा नियमा सो तेसि होइ आहारो। संठाणं तु. जहण्णं नियमा हुंडं तु नायव्वं // 3 // असुमा विउव्वणा खलु नेरइयाणं उ होइ सम्वेसि / वैउम्बियं सरीरं असंघयण हुंडसंठाणं // 4 // अस्साम्रो उववण्णो प्रस्साबो चेव चयइ निरयभवं / सव्वपुढवीसु जीवो सब्वेसु ठिह विसेसेसु // 5 // उववाएण व सायं नेरइओ देव-कम्मुणा वादि / अज्सवसाण निमित्तं अहवा कम्माणुभावेणं // 6 // नेरइयाणुप्पाओ उक्कोसं पंचजोयणसयाई। दुक्खेणाभियाणं वेयणसय संपगाढाणं // 7 // अच्छिनिमोलियमेत्तं नस्थि सुहं दुक्खमेव पडिबद्ध / नरए नेरइयाणं अहोनिसं पच्चमाणाणं // 8 // तेयाकम्मसरीरा सुहुमसरोरा य जे अपज्जत्ता। जीवेण मुक्कमेसा बच्चंति सहस्ससो मेयं // 6 // Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तसीय प्रतिपत्ति :नारकों का पुदगलपरिणाम] [259 अतिसोयं अतिउण्हं अतिखहा अतिभयं वा। निरये नेरइयाणं दुक्खसयाइं अविस्सामं // 10 // एस्थ य भिन्नमुहत्तो पोग्गल असुहा य होई अस्साओ। उववाओ उप्पाओ अन्छिसरीरा उ बोडब्या // 11 // नारयउद्देसओ तइयो / से तं नेरइया / [95] हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक किस प्रकार के पुद्गलों के परिणमन का अनुभव करते हैं ? गौतम ! अनिष्ट यावत् अमनाम पुद्गलों के परिणमन का अनुभव करते हैं / इसी प्रकार सप्तम पृथ्वी के नरयिकों तक कहना चाहिए। इस सप्तमपृथ्वी में प्रायः करके नरवृषभ (लौकिक दृष्टि से बड़े समझे जाने वाले और प्रति भोगासक्त) वासुदेव, जलचर, मांडलिक राजा और महा प्रारम्भ वाले गृहस्थ उत्पन्न होते हैं / 1 // नारकों में अन्तर्मुहूर्त, तिर्यक् और मनुष्य में चार अन्तर्मुहूर्त और देवों में पन्द्रह दिन का उत्तर विकुर्वणा का उत्कृष्ट अवस्थानकाल है / / 2 / / जो पुद्गल निश्चित रूप से अनिष्ट होते हैं, उन्हीं का नरयिक आहार (ग्रहण) करते हैं। उनके शरीर की आकृति प्रति निकृष्ट और हुंडसंस्थान वाली होती है / 3 // सब नरयिकों की उत्तरविक्रिया भी अशुभ ही होती है। उनका वैक्रियशरीर असंहनन वाला और हुंडसंस्थान वाला होता है। 4 / / नारक जीवों का-चाहे वे किसी भी नरकपृथ्वी के हों और चाहे जैसी स्थिति वाले होंजन्म असातावाला होता है, उनका सारा नारकीय जीवन दुःख में ही बीतता है। (सुख का लेश भी वहां नहीं है। ) // 5 // (उक्त कथन का अपवाद बताते हैं-) नैरयिक जीवों में से कोई जीव उपपात (जन्म) के समय ही साता का वेदन करता है, पूर्व सांगतिक देव के निमित्त से कोई नैरयिक थोड़े समय के लिए साता का वेदन करता है, कोई नैरयिक सम्यक्त्व-उत्पत्तिकाल में शुभ अध्यवसायों के कारण साता का वेदन करता है अथवा कर्मानुभाव से-तीर्थंकरों के जन्म, दीक्षा, ज्ञान तथा निर्वाण कल्याणक के निमित्त से साता का वेदन करते हैं / / 6 // सैकड़ों वेदनाओं से अवगाढ होने के कारण दुःखों से सर्वात्मना व्याप्त नैरयिक (दुःखों से छटपटाते हुए) उत्कृष्ट पांच सो योजन तक ऊपर उछलते हैं // 7 // रात-दिन दुःखों से पचते हुए नरयिकों को नरक में पलक मूंदने मात्र काल के लिए भी सुख नहीं है किन्तु दुःख ही दुःख सदा उनके साथ लगा हुआ है // 8 // तेजस-कार्मण शरीर, सूक्ष्मशरीर और अपर्याप्त जीवों के शरीर जीव के द्वारा छोड़े जाते ही तत्काल हजारों खण्डों में खण्डित होकर बिखर जाते हैं। 9 // Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 260] [जीवाजीवाभिगमसूत्र नरक में नैरयिकों को अत्यन्त शीत, अत्यन्त उष्णता, अत्यन्त भूख, अत्यन्त प्यास और अत्यन्त भय और सैंकड़ों दुःख निरन्तर (बिना रुके हुए लगातार) बने रहते हैं // 10 // इन गाथाओं में विकुर्वणा का अवस्थानकाल, अनिष्ट पुद्गलों का परिणमन, अशुभ विकुर्वणा, नित्य असाता, उपपात काल में क्षणिक साता, ऊपर छटपटाते हुए उछलना, अक्षिनिमेष के लिए भी साता न होना, वैक्रियशरीर का बिखरना तथा नारकों को होने वाली सैकड़ों प्रकार की वेदनाओं का उल्लेख किया गया है // 11 // तृतीय नारक उद्देशक पूरा हुमा / नरयिकों का वर्णन समाप्त हुआ। विवेचन-इस सूत्र एवं गाथाओं में नैरयिक जीवों के आहारादि पुद्गलों के परिणाम के विषय में उल्लेख किया गया है। नारक जीव जिन पुद्गलों को ग्रहण करते हैं उनका परिणमन अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अमनोज्ञ और अमनाम रूप में ही होता है। रत्नप्रभा से लेकर तमस्तम:प्रभा तक के नैरयिकों द्वारा गृहीत पुद्गलों का परिणमन अशुभ रूप में ही होता है / इसी प्रकार वेदना, लेश्या, नाम, गोत्र, अरति, भय, शोक, भूख, प्यास, व्याधि, उच्छ्वास, अनुताप, क्रोध, मान, माया, लोभ, आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा, परिग्रहसंज्ञा सम्बन्धी सूत्र भी कहने चाहिए / अर्थात् इन बीस का परिणमन भी नारकियों के लिए अशुभ होता है अर्थात् अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अमनोज्ञ और अमनाम रूप होता है।' यहाँ परिग्रहसंज्ञा परिणाम की वक्तव्यता में चरमसूत्र सप्तम पृथ्वी विषयक है और इसके आगे प्रथम गाथा कही गई है अतएव गाथा में आये हुए 'एत्थ' पद से सप्तम पृथ्वी का ग्रहण करना चाहिए / इस सप्तम पृथ्वी में प्रायः कैसे जीव जाते हैं, उसका उल्लेख प्रथम गाथा में किया गया है। जो नरवृषभ वासुदेव--जो बाह्य भौतिक दृष्टि से बहुत महिमा वाले, बल वाले, समृद्धि वाले, कामभोगादि में अत्यन्त आसक्त होते हैं, वे बहुत युद्ध आदि संहाररूप प्रवृत्तियों में तथा परिग्रह एवं भोगादि में आसक्त होने के कारण प्रायः यहाँ सप्तम पृथ्वी में उत्पन्न होते हैं / इसी तरह तन्दुलमत्स्य जैसे भावहिंसा और क्रूर अध्यवसाय वाले, वसु आदि माण्डलिक राजा तथा सुभूम जैसे चक्रवर्ती तथा महारम्भ करने वाले कालसोकरिक सरीखे गृहस्थ प्रायः इस सप्तम पृथ्वी में उत्पन्न होते हैं / गाथा में पाया हुआ 'अतिवयंति' शब्द 'प्राय:' का सूचक है। (1) दूसरी गाथा में नैरयिकों की तथा प्रसंगवश अन्य की भी विकुर्वणा का उत्कृष्ट काल बताया है-नारकों की उत्कृष्ट विकुर्वणा अन्तर्मुहुर्त काल तक रहती है / तिर्यञ्च और मनुष्यों की विकुर्वणा उत्कृष्ट चार अन्तर्मुहूर्त रहती है तथा देवों की विकुर्वणा उत्कृष्ट पन्द्रह दिन (अर्धमास) तक रहती 1. संग्रहणी गाथाएँ–पोग्गलपरिणामे वेयणा य लेसा य नाम गोए य / अरई भए य सोगे, खुहा पिवासा य वाही य // 1 // उस्सासे अणुतावे कोहे माणे य मायलोभे य / चत्तारि य सण्णाम्रो नेरझ्याणं तू परिणामा // 2 // Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : नारकों का पुद्गलपरिणाम] [261 __ जो पुद्गल अनिष्ट होते हैं वे ही नरयिकों के द्वारा प्राहारादि रूप में ग्रहण किये जाते हैं। उनके शरीर का संस्थान हंडक होता है और वह भी निकृष्टतम होता है। यह भवा ह भवधारणीय को लेकर है क्योंकि उत्तरवैक्रिय संस्थान के विषय में पागे को गाथा में कहा गया है / (3) सब नैरयिकों की विकुर्वणा अशुभ ही होती है / यद्यपि वे अच्छी विक्रिया बनाने का विचार करते हैं तथापि प्रतिकूल कर्मोदय से उनकी वह विकुर्वणा निश्चित ही अशुभ होती है। उनका उत्तरवैक्रिय शरीर और उपलक्षण से भवधारणीय शरीर संहनन रहित होता है, क्योंकि उनमें हड्डियों का ही प्रभाव है तथा उत्तरवैक्रिय शरीर भी हुंडसंस्थान वाला है, क्योंकि उनके भवप्रत्यय से ही हुण्डसंस्थान नामकर्म का उदय होता है / / 4 // रत्नप्रभादि सब नरकभूमियों में कोई जीव चाहे वह जघन्यस्थिति का हो या उत्कृष्टस्थिति का हो, जन्म के समय भी असाता का ही वेदन करता है / पहले के भव में मरणकाल में अनुभव किये हुए महादुःखों की अनुवृत्ति होने के कारण वह जन्म से ही असाता का वेदन करता है, उत्पत्ति के पश्चात् भी असाता का ही अनुभव करता है और पूरा नारक का भव असाता में ही पूरा करता है / सुख का लेशमात्र भी नहीं है / / 5 / / यद्यपि ऊपर की गाथा में नारकियों को सदा दुःख ही दुःख होना कहा है, परन्तु उसका थोड़ासा अपवाद भी है / वह इस छठी गाथा में बताया है-- उपपात से--कोई नारक जीव उपपात के समय में साता का वेदन करता है। जो पूर्व के भव में दाह या छेद आदि के बिना सहज रूप में मृत्यु को प्राप्त हुआ हो वह अधिक संक्लिष्ट परिणाम वाला नहीं होता है / उस समय उसके न तो पूर्वभव में बांधा हुआ प्राधिरूप (मानसिक) दुःख है और न क्षेत्रस्वभाव से होने वाली पीड़ा है और न परमाधार्मिक कृत या परस्परोदीरित वेदना ही है। इस स्थिति में दुःख का प्रभाव होने से कोई जीब साता का वेदन करता है। देवप्रभाव से--कोई जीव देव के प्रभाव से थोड़े समय के लिए साता का वेदन करता है / जैसे कृष्ण वासुदेव की वेदना के उपशम के लिए बलदेव नरक में गये थे। इसी प्रकार पूर्वसांगतिक देव के प्रभाव से थोड़े समय के लिए नैरयिकों को साता का अनुभव होता है / उसके बाद तो नियम से क्षेत्रस्वभाव से होने वाली या अन्य-अन्य वेदनाएँ उन्हें होती ही हैं। ___ अध्यवसाय से--कोई नैरयिक सम्यक्त्व उत्पत्ति के काल में अथवा उसके बाद भी कदाचित् तथाविध विशिष्ट शुभ अध्यवसाय से बाह्य क्षेत्रज आदि वेदनाओं के होते हुए भी साता का अनुभव करता है / आगम में कहा है कि सम्यक्त्व की उत्पत्ति के समय जीव को वैसा ही प्रमोद होता है जैसे किसी जन्मान्ध को नेत्रलाभ होने से होता है / इसके बाद भी तीर्थंकरों के गुणानुमोदन आदि विशिष्ट भावना भाते हुए बाह्य क्षेत्रज वेदना के सहभाव में भी वे सातोदय का अनुभव करते हैं। कर्मानुभव से तीर्थंकरों के जन्म, दीक्षा, ज्ञान तथा निर्वाण कल्याणक आदि बाह्य निमित्त को लेकर तथा तथाविध साता वेदनीयकर्म के विपाकोदय के निमित्त से नैरयिक जीव क्षणभर के लिए साता का अनुभव करते हैं // 6 // Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 262] [जीवाजीवामिगमसूत्र नैरयिक जीव कुंभियों में पकाये जाने पर तथा भाले आदि से भिद्यमान होने पर भय से त्रस्त होकर छटपटाते हुए पांच सौ योजन तक ऊपर उछलते हैं / जघन्य से एक कोस और उत्कर्ष से पांच सो योजन उछलते हैं / ऐसा भी कहीं पाठ है ' // 7 // . नरयिक जीवों को, जो रात-दिन नरकों में पचते रहते हैं, उन्हें प्रांख मूंदने जितने काल के लिए (निमेषमात्र के लिए) भी सुख नहीं है। वहाँ सदा दुःख ही दुःख है, निरन्तर दुःख है / / 8 / / . नैरयिकों के वैक्रिय शरीर के पुद्गल उन जीवों द्वारा शरीर छोड़ते ही हजारों खण्डों में छिन्नभिन्न होकर बिखर जाते हैं। इस प्रकार बिखरने वाले अन्य शरीरों का कथन भी प्रसंग से कर दिया है। तेजस कार्मण शरीर, सूक्ष्म शरीर अर्थात् सूक्ष्म नामकर्म के उदय वाले पर्याप्त और अपर्याप्त जीवों के शरीर, औदारिक शरीर, वैक्रिय और प्राहारक शरीर भी चर्मचक्षुओं द्वारा ग्राह्य न होने से सूक्ष्म है तथा अपर्याप्त जीवों के शरीर जीवों द्वारा छोड़े जाते ही बिखर जाते हैं। उनके परमाणुओं का संघात छिन्न-भिन्न हो जाता है // 9 // उन नारक जीवों को नरकों में अति शीत, अति उष्णता, अति तृषा, अति भूख, अति भय आदि सैकड़ों प्रकार के दुःख निरन्तर होते रहते हैं // 10 // उक्त दस गाथाओं के पश्चात् ग्यारहवीं गाथा में पूर्वोक्त सब गाथाओं में कही गई बातों का संकलन किया गया है जो मूलार्थ से ही स्पष्ट है। इस प्रकार नारक वर्णन का तृतीय उद्देशक पूर्ण। इसके साथ ही नैरयिकों का वर्णन भी पूरा हुआ / u 1. 'नेरइयाणुप्पामो गाउय उक्कोस पंचजोयणसयाई' इति क्वचित् पाठः / Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति तिर्यग् अधिकार तृतीय प्रतिपत्ति के नरकोद्देशक में तीन उद्देशक कहे गये हैं। उक्त तीन उद्देशकों में नरक और नारक के सम्बन्ध में विविध प्रकार की जानकारियां दी गई हैं। चार प्रकार के संसारसमापनक जीवों की प्रतिपत्ति में प्रथम भेदरूप नारक का वर्णन करने के पश्चात अब क्रमप्राप्त तिर्यञ्चों का अधिकार कहते हैंतिर्यक्योनिकों के भेद 96. [1] से कि तं तिरिक्खजोगिया? तिरिक्खजोणिया पंचविहा पण्णता, तंजहा एगिदिय-तिरिक्खजोणिया, बेईविय-तिरिक्खजोणिया, तेइंदिय-तिरिक्खजोणिया, चरिवियतिरिक्खजोणिया, पंचिदिय-तिरिक्खजोणिया। से कि सं एगिदिय-तिरिक्खजोणिया? एगिदिय-तिरिक्खजोणिया पंचविहा पण्णत्ता, तंजहापुढविकाइय-एगिदिय-तिरिक्खजोणिया जाव वणस्सइकाइय-एगिविय-तिरिक्खजोणिया / से कि तं पुढविकाइय-एगिदिय-तिरिक्खजोणिया? / पुढविकाइया दुविहा पण्णता, तिंजहा-सुहमपुढविकाइयएगिदियतिरिक्खजोणिया, बादरपुढविकाइयएगिदियतिरिक्खजोणिया य।। से कि तं सुहम पुढ विकाइय एगिविय तिरिक्खजोणिया? सुहुम पुढविकाइय एगिदिय० दुविहा पण्णत्ता, तंजहापज्जत्त सुहुम० अपज्जत सुहम पुढवि० / से तं सुहुमा। से किं तं बादर पुढविकाइय० ? बादर पुढविकाइय० दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-पज्जत्त बादर पु०, अपज्जत्त बादर पुढ विकाइय एगिदिय तिरिक्खजोणिया। से तं पुढधिकाइय एगिदिया। से कि तं आउक्काइय एगिदिय तिरिक्खजोणिया? आउक्काइय एगिदिय० दुविहा पणत्ता, एवं जहेव पुढविकाइयाणं तहेब चउक्कमो मेदो जाव वणस्सइकाइया / से तंवणस्सइकाइयएगिदिया / Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 264] [जीवाजीवाभिगमसूत्र [96] (1) तिर्यकयोनिक जीवों का क्या स्वरूप है ? तिर्यक्योनिक जीव पांच प्रकार के कहे गये हैं, यथा 1. एकेन्द्रिय तिर्यकयोनिक, 2. द्वीन्द्रिय तिर्यक्योनिक, 3. त्रीन्द्रिय तिर्यकयोनिक, 4. चतुरिन्द्रिय तिर्यक्योनिक और 5. पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक / एकेन्द्रिय तिर्यक्योनिक का क्या स्वरूप है ? एकेन्द्रिय तिर्यक्योनिक पांच प्रकार के हैं, यथापृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय ति. यावत् वनस्पतिकायिक तिर्यक्योनिक / पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय ति. का क्या स्वरूप है ? वे दो प्रकार के हैं, यथा--सूक्ष्म पृथ्वीकायिक ए. ति. और बादर पृथ्वीकायिक ए. ति. / सूक्ष्म पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय तिर्यक्योनिक क्या हैं ? वे दो प्रकार के हैं, यथा-पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक ए. ति. और अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक ए. तियंचयोनिक / यह सूक्ष्मपृथ्वीकाय का वर्णन हुआ। बादर पृथ्वीकायिक क्या हैं ? वे दो प्रकार के हैं पर्याप्त बादर पृथ्वीकायिक और अपर्याप्त बादर पृथ्वीकायिक / यह बादर पृथ्वीकायिक ए. ति. का वर्णन हुआ। यह पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय तिर्यक्योनिकों का वर्णन हुआ। अपकायिक एकेन्द्रिय तिर्यक्योनिक क्या हैं ? वे दो प्रकार के हैं, इस प्रकार पृथ्वीकायिक की तरह चार भेद कहने चाहिए। वनस्पतिकायिक एके. तिर्यक्योनिक पर्यन्त ऐसे ही भेद कहने चाहिए। यह वनस्पतिकायिक एके. तिर्यक्योनिकों का कथन हुआ। 96. [2] से किं तं बेइंदिय तिरिक्खजोणिया ? बेईदिय तिरिवखजोणिया दुविहा पण्णता, तंजहापज्जत्त बेइंदिय तिरिक्खजोणिया, अपज्जत्त बेइंदिय तिरिक्खजोणिया। से तं बेइंदिय तिरिक्खजोणिया एवं जाव चारिदिया। पंचिदिय तिरिक्खनोणिया तिविहा पण्णता, तंजहाजलयर पंचिदिय ति. थलयर पंचिदिय ति. खहयर पंचिदिय तिरिक्खजोणिया। से किं तं जलयर पंचिदिय तिरिक्खजोणिया? जलयर पंचि ति० जोणिया दुविहा पणत्ता, तनहा संमुच्छिमजलयरपंचिदिय तिरिक्खजोणिया य गम्भवपकंतियजलयरपंचिदिय तिरिक्खजोणिया या से कि तं सम्मुच्छिम जलयर पंचि० ति० जोणिया ? संमुच्छिम जलयर पंचि० ति० जोणिया दुविहा पण्णता, तंजहा Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीम प्रतिपत्ति: तिर्यम् अधिकार] [265 पज्जसगसंमुश्छिम०, अपज्जत्तसंमुच्छिम० जलयरा, से तं समुच्छिम जलयर पंचि. ति. जोणिया। से कि तं गम्भवक्कंतिय जलयर पंचिदिय तिरिक्खजोणिया ? गम्भवक्कंतिय जलयर० दुविधा पण्णसा, तंजहा पज्जत्तग गम्भवतिय०, अपज्जत्तग गम्भवक्कंतिय० / से तं गम्भवक्कंतिय जलयरा / से तं जलयर पंचिविय तिरिक्खजोणिया। से कि तं पलयर पंचिदिय तिरिक्खजोगिया ? पलयर पंचिदिय ति. जो. दुविहा पण्णता, तंजहाचउप्पयथलयरपंचिदिय०, परिसप्प यलयर पंचिदिय तिरिक्खजोणिया। से कि तं चउप्पयथलयर पंचिदिय तिरिक्खजोणिया ? चउप्पयथलयर पं० ति० जो० दुविहा पण्णत्ता, तंजहा संमुच्छिम चउप्पयथलयर पंचिदिय० गम्भवक्कंतिय चउप्पयथलयर पंचिदिय तिरिक्तजोणिया य / जहेव जलयराणं तहेव चउक्कमो मेवो, से तं चउप्पदथलयर पंचिदिय तिरिक्खजोणिया। से कि तं परिसप्प थलयर पंचिदिय तिरिक्खजीणिया ? परिसप्पयलयर० दुविहा पण्णता, तंजहा-उरगपरिसप्पथलयर पंचिदिय ति०, भुयगपरिसप्प थलयर पंचिदिय ति०। से कितं उरगपरिसप्प थल. पं० तिरिक्खजोणिया? उरगपरिसप्प० दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-जहेव जलयराणं तहेव चउक्कओ मेदो। एवं भयगपरिसप्पाण विभाणियन्वं / से तं भयग परिसप्प०, से संथलयर पंचिदिय तिरिक्खजोणिया। से कि तं खहयर पंचिदिय तिरिक्खजोगिया ? खहयर० दुविहा पण्णता, तंजहासमुच्छिम खहयर पंचिदिय तिरिक्खजोणिया, गम्भवपकतिय सहयर पंचिंदिय तिरिक्खजोणिया य / से कितं समुच्छिमखहयर ? संमुच्छिमखहयर० वुविहा पण्णत्ता, तंजहापज्जत्तग संमुच्छिम खह , अपज्जत्तग संमु० खह० य / एवं गम्भवक्कंतिया वि / खहयर चिविय तिरिक्खजोणिया णं भंते ! कहविहे जोणिसंगहे पण्णत्ते ? गोयमा ! तिविहे जोणिसंगहे पण्णत्ते, तंजहा- अंडया पोयया संमुच्छिमा। अंडया तिविहा पण्णत्ता, तंजहा-इत्थी, पुरिसा, णपुसगा। पोतया तिविहा पण्णत्ता, तंजहा-इत्थी, पुरिसा, णसगा। तत्थ णं जे ते समुच्छिमा ते सम्दे णसगा।। 66. [2] द्वीन्द्रिय तिर्यक्योनिक जीवों का स्वरूप क्या है ? Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 266] हनीवाजीवाभिगमसूत्र वे दो प्रकार के हैं, यथा-पर्याप्त द्वीन्द्रिय और अपर्याप्त द्वीन्द्रिय। यह द्वीन्द्रिय तिर्यक्योनिकों का कथन हुआ। इसी प्रकार चतुरिन्द्रियों तक कहना चाहिए। पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक क्या हैं ? वे तीन प्रकार के हैं, यथा-जलचर पंचेन्द्रिय ति., स्थलचर पंचेन्द्रिय ति. और खेचर पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक। जलचर पंचेन्द्रिय तिर्यकयोनिक क्या हैं ? वे दो प्रकार के हैं, यथा-सम्मूछिम जलचर पंचेन्द्रिय तिथंच और गर्भव्युत्क्रान्तिक जलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च / सम्मूछिम जलचर पंचे. ति. क्या हैं ? वे दो प्रकार के हैं, यथा-पर्याप्त संमूर्छिम और अपर्याप्त सम्मूछिम जलचर पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक / यह संम्मूछिम जलचरों का कथन हुआ। गर्भव्युत्क्रांतिक जलचर पंचेन्द्रिय ति. क्या हैं ? वे दो प्रकार के है, यथा--पर्याप्त गर्भव्युत्क्रान्तिक और अपर्याप्त गर्भव्युत्क्रान्तिक जलचर . पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च / यह गर्भव्युत्क्रान्तिक जलचरों का वर्णन हुआ। स्थलचरपंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक क्या हैं ? वे दो प्रकार के हैं, यथा-चतुष्पदस्थलचर पंचेन्द्रिय और परिसर्पस्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक / चतुष्पद स्थलचर पंचेन्द्रिय क्या हैं ? वे दो प्रकार के हैं, यथा-सम्मूच्छिम चतुष्पदस्थलचर पंचेन्द्रिय और गर्भव्युत्क्रांतिक चतुष्पदस्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च / जैसा जलचरों के विषय में कहा वैसे चार भेद इनके भी जानने चाहिए / यह चतुष्पदस्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंचों का कथन हुआ। परिसर्पस्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंच क्या हैं ? वे दो प्रकार के हैं, यथा-उरगपरिसर्पस्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंच और भुजगपरिसर्प स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंच / उरगपरिसर्पस्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक क्या हैं ? / वे दो प्रकार के हैं, यथा-जैसे जलचरों के चार भेद कहे वैसे यहाँ भी कहने चाहिए। इसी तरह भुजगपरिसॉं के भी चार भेद कहने चाहिए। यह भुजगपरिसों का कथन हुआ। इसके साथ ही स्थलचरपंचेन्द्रिय तिर्यंचों का कथन भी पूरा हुआ। खेचर पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक क्या हैं ? Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपति : तिर्यग् अधिकार] [267 वे दो प्रकार के हैं, यथा-सम्मूछिम खेचर पं. ति. और गर्भव्युत्क्रांतिक खेचर पं. तिर्यक्योनिक। सम्मूछिम खेचर पं. ति. क्या हैं ? वे दो प्रकार के हैं, यथा-पर्याप्तसम्मूछिम खेचर पं. ति. और अपर्याप्तसम्मूछिम खेचर पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक / इसी प्रकार गर्भव्युत्क्रान्तिकों के सम्बन्ध में भी कहना चाहिए। .. हे भगवन् ! खेचर पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिकों का योनिसंग्रह कितने प्रकार का कहा गया है ? ___ गौतम ! तीन प्रकार का योनि-संग्रह कहा गया है, यथा--अण्डज, पोतज और सम्मूछिम' / अण्डज तीन प्रकार के कहे गये हैं-स्त्री, पुरुष और नपुंसक / पोतज तीन प्रकार के हैं स्त्री, पुरुष और नपुंसक / सम्मूर्छिम सब नपुंसक होते हैं / विवेचन-तिर्यक्योनिकों के भेद पाठसिद्ध ही हैं, अतएव स्पष्टता की आवश्यकता नहीं है। केवल योनिसंग्रह की स्पष्टता इस प्रकार है __ योनिसंग्रह का अर्थ है-योनि (जन्म) को लेकर किया गया भेद / पक्षियों के जन्म तीन प्रकार के हैं अण्ड से होने वाले, यथा मोर आदि; पोत से होने वाले वागुली आदि और सम्मूछिम जन्म वाले पक्षी हैं-खजरीट आदि / वैसे सामान्यतया चार प्रकार का योनिसंग्रह है-१. जरायुज 2. अण्डज 2. पोतज और 4. सम्मूछिम / पक्षियों में जरायुज की प्रसिद्धि नहीं है। फिर भी अण्डज को छोड़कर शेष सब जरायुज अजरायुज गर्भजों का पोतज में समावेश करने पर तीन प्रकार का योनिसंग्रह संगत होता है। अण्डज तीनों प्रकार के हैं-स्त्री, पुरुष और नपुंसक / पोतज भी तीनों लिंग वाले हैं। सम्मूछिम जन्म वाले नपुंसक ही होते हैं, क्योंकि उनके नपुंसकवेद का उदय अवश्य ही होता है। द्वारप्ररूपणा 97. [1] एएसि णं भंते ! जीवाणं कतिलेसानो पण्णताओं ? / गोयमा ! छल्लेसाओ पण्णत्ताओ, तंजहा–कण्हलेसा जाव सुक्कलेसा। ते गं भंते ! जीवा किं सम्मदिट्ठी मिच्छाविट्ठी, सम्मामिच्छविट्ठी? गोयमा ! सम्मविट्ठी वि मिच्छविट्ठी वि सम्मामिच्छविट्ठी वि। ते णं भंते ! जीवा किं णाणी अण्णाणी? गोयमा ! णाणी कि, अण्णाणी वि, तिष्णि णाणाइं तिणि अण्णाणाई भयणाए। ते णं भंते ! जीवा कि मणजोगी, वइजोगी, कायजोगी ? अण्डज को छोड़कर शेष सब जरायु वाले या बिना जरायु वाले गर्भव्युत्क्रान्तिक पंचेन्द्रियों का पोतज में समावेश किया गया है। अतएव तीन प्रकार का योनिसंग्रह कहा है, चार प्रकार का नहीं। वैसे पक्षियों में जरायुज होते ही नहीं हैं, अतएव यहां तीन प्रकार का योनिसंग्रह कहा है। Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 268] [जीवाजीवाभिगमसूत्र गोयमा! तिविहा थि। ते णं भंते ! जीवा कि सागारोवउत्ता अणागारोवउत्ता? गोयमा! सागारोवउत्ता वि अणागारोबउसा वि। ते णं भंते ! जीवा कमओ उवधज्जति, कि नेरहरहितो उवषज्जति, तिरिक्सजोणिएहि उववज्जति ? पुच्छा। . गोयमा! असंखेज्ज वासाउय अकम्मभूमग अंतरदीवग वज्जेहिंतो उववज्जति / तेसि णं भंते ! जीवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णता ? गोयमा! जहणणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेज्जा भागं / तेसि णं भंते ! जीवाणं कति समुग्धाया पण्णता? गोयमा ! पंच समुग्घाया पण्णता, तंजहा-वेदणासमुग्घाए जाव तेयासमुग्याए / ते णं भंते ! जीवा मारणांतियसमुग्धाएणं कि समोहया मरंति, असमोहया मरंति ? गोयमा ! समोहया वि मरंति, असमोहया वि मरंति / ते णं भंते ! जीवा अणंतरं उव्वट्टित्ता कहि गच्छति ? कहिं उववजंति ? कि नेरइएसु उबवज्जति, तिरिक्खजोणिएसु उववज्जति / पुच्छा ? गोयमा ! एवं उज्ववट्टणा भाणियन्वा जहा बक्कंतीए तहेव / तेसिं गं भंते ! जीवाणं कइ जातिकुलकोडिजोणिपमुह सयसहस्सा पण्णता ? गोयमा ! बारस जातिकुलकोडिजोणिपमुह सयसहस्सा / [97] (1) हे भगवन् ! इन जीवों (पक्षियों) के कितनी लेश्याएँ हैं ? गौतम ! छह लेश्याएं हो सकती हैं-कृष्णलेश्या यावत् शुक्ललेश्या / (द्रव्य और भाव से छहों लेश्याओं का सम्भव है, क्योंकि वैसे परिणाम हो सकते हैं / ) हे भगवन् ! ये जीव सम्यग्दृष्टि हैं, मिथ्यादृष्टि हैं या सम्यग् मिथ्यादृष्टि हैं। गौतम ! सम्यग्दृष्टि भी हैं, मिथ्यादृष्टि भी हैं और मिश्रदृष्टि भी हैं। भगवन् ! वे जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी हैं ? गौतम ! ज्ञानी भी हैं और अज्ञानी भी हैं / जो ज्ञानी हैं वे दो या तीन ज्ञान वाले हैं और जो अज्ञानी हैं वे दो या तीन अज्ञान वाले हैं। भगवन् ! वे जीव क्या मनयोगी हैं, वचनयोगी हैं, काययोगी हैं ? गौतम ! वे तीनों योग वाले हैं। भगवन् ! वे जीव साकार-उपयोग वाले हैं या अनाकार-उपयोग वाले हैं ? गौतम ! साकार-उपयोग वाले भी हैं और अनाकार-उपयोग वाले भी हैं। भगवन् ! वे जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? क्या नैरयिकों से आते हैं या तिर्यक्योनि से पाते हैं इत्यादि प्रश्न कहना चाहिए। Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : तिर्यग् अधिकार] गौतम ! असंख्यात वर्ष की आयु वालों, अकर्मभूमिकों और अन्तर्वीपिकों को छोड़कर सब जगह से उत्पन्न होते हैं। हे भगवन् ! उन जीवों की स्थिति कितने काल की है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्महर्त और उत्कृष्ट पल्योपम का असंख्यातवां भाग-प्रमाण स्थिति है / भगवन् ! उन जीवों के कितने समुद्घात कहे गये हैं ? गौतम ! पांच समुद्घात कहे गये हैं, यथा-वेदनासमुद्घात यावत् तैजससमुद्घात / भगवन् ! वे जीव मारणांतिकसमुद्धात से समवहत होकर मरते हैं या असमवहत होकर मरते हैं ? गौतम ! समवहत होकर भी मरते हैं और असमवहत होकर भी मरते हैं / भगवन् ! वे जीव मरकर अनन्तर कहाँ उत्पन्न होते हैं ? कहाँ जाते हैं ? क्या नैरयिकों में पैदा होते हैं, तिर्यक्योनिकों में पैदा होते हैं ? आदि प्रश्न करना चाहिए। गौतम ! जैसे प्रज्ञापना के व्युत्क्रांतिपद में कहा गया है, वैसा यहाँ कहना चाहिए। (दूसरी प्रतिपत्ति में वह कहा गया है, वहाँ देखें।) हे भगवन् ! उन जीवों की कितने लाख योनिप्रमुख जातिकुलकोटि कही गई हैं ? गौतम ! बारह लाख योनिप्रमुख जातिकुलकोटि कही गई हैं / विवेचन खेचर (पक्षियों) में पाये जाने वाले लेश्या, दृष्टि, ज्ञान, योग, उपयोग आदि द्वारों की स्पष्टता मूल पाठ से ही सिद्ध है / व्युत्क्रांतिपद से उद्वर्तना समझनी चाहिए, ऐसो सूचना यहाँ की गई है। प्रज्ञापनासूत्र में व्युत्क्रांतिपद है और उसमें जो उद्वर्तना कही गई है वह यहाँ समझनी है। इसी जीवाभिगम सूत्र की द्वितीय प्रतिपत्ति में उसको बताया गया है सो जिज्ञासु वहाँ भी देख सकते हैं। इस सूत्र में खेचर की योनिप्रमुख जातिकुलकोडी बारह लाख कही है। जातिकुलयोनि का स्थूल उदाहरण पूर्वाचार्यों ने इस प्रकार बताया है-जाति से भावार्थ है तिर्यग्जाति, उसके कुल हैंकृमि, कीट, वृश्चिक आदि / ये कुल योनिप्रमुख हैं अर्थात् एक ही योनि में अनेक कुल होते हैं, जैसे छ गण योनि में कृमिकुल, कोटकुल, वृश्चिककुल आदि। अथवा 'जातिकुल' को एक पद माना जा सकता है / जातिकुल और योनि में परस्पर यह विशेषता है कि एक ही योनि में अनेक जातिकुल होते हैं-यथा एक ही छ:गण योनि में कृमिजातिकुल, कीटजातिकुल और वृश्चिकजातिकुल इत्यादि। इस प्रकार एक ही योनि में प्रवान्तर जातिभेद होने से अनेक योनिप्रमुख जातिकुल होते हैं। द्वारों के सम्बन्ध में संग्रहणी गाथा इस प्रकार है जोणीसंगह लेस्सा दिट्टी नाणे य जोग उवयोगे। उववाय ठिई समुग्धाय चयणं जाई-कुलविही उ / / पहले योनिसंग्रह, फिर लेश्या, दृष्टि, ज्ञान, योग, उपयोग, उपपात, स्थिति, समुद्धात, च्यवन, जातिकुलकोटि का इस सूत्र में प्रतिपादन किया गया है। Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 270 बीवानीवाभिगमसूत्र 97. [2] भयगपरिसप्पथलयर पंचिदिय तिरिक्खजोणियाणं भंते ! कतिविहे जोणीसंगहे पणते ? गोयमा ! तिविहे जोणिसंगहे पण्णत्ते, तंजहा-अंग्या, पोयया समुच्छिमा; एवं जहा खहयराणं तहेव; जाणत्तं जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं पुन्यकोडी / उव्यट्टित्ता दोच्छ पुढवि गच्छंति, णव जातिकुलकोडी जोणीपमुह सयसहस्सा भवंतीति मक्खायं, सेसं तहेव। उरगपरिसप्पथलयर पंचिंदिय तिरिक्खजोणियाणं भंते ! पुच्छा, जहेव भयगपरिसप्पाणं तहेव, णवरं ठिई जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पुटवकोडी, उबट्टित्ता जाव पंचमि पुढवि गच्छंति, दसजातिकुलकोडी। चउप्पयथलयर पंचिदिय तिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा! दुविहे पणत्ते, तंजहाजराउया (पोयया) य सम्मुच्छिमा य / से कि तं जराउया (पोयया) ? तिविहा पण्णता, तंजहा-इत्थी, पुरिसा, नपुंसगा। तत्थ णं जे ते संमुच्छिमा ते सम्वे नपुसया। तेसि णं भंते ! जीवाणं कति लेस्साओ पण्णसाम्रो ? से जहा परखीणं / णाणत-लिई जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं तिणि पलिनोवमाई; उव्यट्टिसा चउत्यि पुढवि गच्छंति, बस जातिकुलकोडी। जलयरपंचिदिय तिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, जहा भयगपरिसप्पाणं, गवरं उबट्टित्ता जाव अहेसत्तमं पुढवि, अद्धतेरस जातिकुलकोडी जोणिपमुहसयसहस्सा पण्णता। चरिबियाणं भंते ! कइ जातिकुलकोडी जोणीपमुहसयसहस्सा पण्णता? गोयमा ! नव जाइकुलकोडी जोणिपमुहसयसहस्सा समक्खाया। तेइंदियाणं पुच्छा, गोयमा ! अट्ठ जाइकुल जाव समक्खाया / बेइंबियाणं भंते ! कह जाइकुल पुच्छा, गोयमा ! सत्त जाइकुलकोडी जोणिपमुहसयसहस्सा, पण्णत्ता। [97] (2) हे भगवन् ! भुजपरिसर्पस्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकों का कितने प्रकार का योनिसंग्रह कहा गया है ? गौतम ! तीन प्रकार का योनिसंग्रह कहा गया है, यथा अण्डज, पोतज और सम्मूच्छिम / इस तरह जैसा खेचरों में कहा वैसा, यहाँ भी कहना चाहिए। विशेषता यह है---इनकी स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटि है / ये मरकर चारों गति में जाते हैं / नरक में जाते हैं तो दूसरी पृथ्वी तक जाते हैं / इनकी नौ लाख जातिकुलकोडी कही गई हैं / शेष पूर्ववत् / भगवन् ! उरपरिसर्पस्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिकों का योनिसंग्रह कितने प्रकार का है ? इत्यादि प्रश्न कहना चाहिए। गौतम ! जैसे भुजपरिसर्प का कथन किया, वैसा यहाँ भी कहना चाहिए / विशेषता यह है Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : गंधांग प्ररूपन] [271 कि इनकी स्थिति जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटि है। ये मरकर यदि नरक में जावें तो पांचवीं पृथ्वी तक जाते हैं / इनको दस लाख जातिकुलकोडी हैं। चतुष्पदस्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्थक्योनिकों की पृच्छा ? गौतम ! इनका योनिसंग्रह दो प्रकार का है, यथा जरायुज (पोतज) और समूच्छिम / जरायुज तीन प्रकार के हैं, यथा-स्त्री, पुरुष और नपुंसक / जो सम्मूच्छिम हैं वे सब नपुसक हैं / हे भगवन् ! उन जीवों के कितनी लेश्याएँ कही गई हैं, इत्यादि सब खेचरों की तरह कहना चाहिए। विशेषता इस प्रकार है---इनकी स्थिति जघन्य अन्तर्मुहुर्त, उत्कृष्ट तीन पल्योपम है। मरकर यदि ये नरक में जावें तो चौथी नरकपृथ्वी तक जाते हैं। इनकी दस लाख जातिकुलकोडी हैं। जलचर पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिकों की पृच्छा ? गौतम ! जैसे भुजपरिसो का कहा वैसे कहना / विशेषता यह है कि ये मरकर यदि नरक में जा तो सप्तम पृथ्वी तक जाते हैं / इनकी साढ़े बारह लाख जातिकुलकोडी कही गई हैं। हे भगवन् ! चतुरिन्द्रिय जीवों की कितनी जातिकुलकोडी कही गई हैं ? गौतम ! नौ लाख जातिकुलकोडी कही गई हैं। हे भगवन् ! श्रीन्द्रिय जीवों की कितनी जातिकुलकोडी हैं ? गौतम ! आठ लाख जातिकुलकोडी कही हैं। भगवन् ! द्वीन्द्रियों की कितनी जातिकुलकोडी हैं ? गौतम ! सात लाख जा विवेचन–अन्य सब कथन पाठसिद्ध ही.है। केवल चतुष्पदस्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यकयोनिकों का योनिसंग्रह दो प्रकार का कहा है, यथा--पोयया य सम्मुच्छिमा य / यहाँ पोतज में अण्डजों से भिन्न जितने भी जरायज या अजरायज गर्भज जीव हैं उनका समावेश कर दिया गया है। अतएव दो प्रकार का योनिसंग्रह कहा है, अन्यथा गौ आदि जरायुज हैं और सर्पादि अण्डज हैं-ये दो प्रकार और एक सम्मूच्छिम यों तीन प्रकार का योनिसंग्रह कहा जाता / लेकिन यहां दो ही प्रकार का कहा है, अतएव पोतज में जरायुज अजरायुज सब गर्भजों का समावेश समझना चाहिए। यहाँ तक योनि जातीय जातिकुलकोटि का कथन किया, अब भिन्न जातीय का अवसर प्राप्त है अतएव भिन्न जातीय गंधांगों का प्ररूपण करते हैंगंधांग प्ररूपरण 98. कह गं भंते ! गंधा पण्णता? कइ णं भंते ! गंधसया पण्णता? गोयमा ! सत्तगंधा सत्तगंधसया पणत्ता। कह गंभंते ! पुफ्फजाइ-कुलकोडोजोणिपमुह-सयसहस्सा पण्णता? गोयमा! सोलस पुप्फजातिकुलकोडी जोणीपमुहसयसहस्सा पण्णता, तंजहा-चत्तारि जलयाणं, चत्तारि थलयाणं, चत्तारि महारक्खियाणं, चत्तारि महागुम्मियाणं। पण या अजर Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 272] जीवामीवाभिगमसूत्र कह णं भंते ! वल्लीमो कह वल्लिसया पणत्ता? गोयमा! चत्तारि वल्लीमओ चत्तारि वल्लिसया पण्णत्ता। का णं भंते ! लयाओ कति लयासया पण्णता? गोयमा ! अट्ठलयामओ, अट्ठलयासया पणत्ता। कइ णं भंते ! हरियकाया हरियकायसया पण्णता? गोयमा! तओ हरियकाया तो हरियकायसया पण्णता-फलसहस्सं च विटवडाणं, फलसहस्सं य गालबद्धाणं, ते सव्वे हरितकायमेव समोमरंति / ते एवं समणुगम्ममाणा समणुगम्ममाणा एवं समणुगाहिज्जमाणा 2, एवं सममुपेहिज्जमाणा 2, एवं समचितिज्जमाणा 2, एएसु चेव दोसुकाएसु समोयरंति, तंजहा–तसकाए चेव थावरकाए चेव / एवमेव सपुठवावरेणं आजीवियविट्टतेणं चउरासीति मातिकुलकोडी जोणिपमुहसयसहस्सा भवतीति मक्खाया। [98] हे भगवन् ! गंध (गंधांग) कितने कहे गये हैं ? हे भगवन् ! गन्धशत कितने हैं ? गौतम ! सात गंध (गंधांग) हैं और सात ही गन्धशत हैं। हे भगवन् ! फूलों की कितनी लाख जातिकुलकोडी कही गई हैं ? गौतम ! फूलों की सोलह लाख जातिकुलकोडी कही गई हैं, यथा—चार लाख जलज पुष्पों की, चार लाख स्थलज पुष्पों की, चार लाख महावृक्षों के फूलों की और चार लाख महागुल्मिक फूलों की। हे भगवन् ! वल्लियों और वल्लिशत कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! वल्लियों के चार प्रकार हैं और चार वल्लिशत हैं / (वल्लियों के चार सौ अवान्तर हे भगवन् ! लताएँ कितनी हैं और लताशत कितने हैं ? गौतम ! आठ प्रकार की लताएं हैं और पाठ लताशत हैं / अर्थात् (पाठ सौ लता के अवान्तर भेद हैं / ) भगवन् ! हरितकाय कितने हैं और हरितकायशत कितने हैं ? गौतम ! हरितकाय तीन प्रकार के हैं और तीन ही हरितकायशत हैं। (अर्थात् हरितकाय की तीन सौ अवान्तर जातियां हैं / ) बिटबद्ध फल के हजार प्रकार और नालबद्ध फल के हजार प्रकार, ये सब हरितकाय में ही समाविष्ट हैं / इस प्रकार सूत्र के द्वारा स्वयं समझे जाने पर, दूसरों द्वारा सूत्र से समझाये जाने पर, अर्थालोचन द्वारा चिन्तन किये जाने पर और युक्तियों द्वारा पुनः युनः पर्यालोचन करने पर सब दो कायों में त्रसकाय और स्थावरकाय में समाविष्ट होते हैं / इस प्रकार पर्वापर विचारणा करने पर समस्त संसारी जीवों की (आजीविक दृष्टान्त से) चौरासी लाख योनिप्रमुख जातिकुलकोडी होती हैं, ऐसा जिनेश्वरों ने कहा है / विवेचन–यहाँ मूलपाठ में 'गंधा' पाठ है, यह पद के एकदेश में पदसमुदाय के उपचार से 'गंधाङ्ग' का वाचक समझना चाहिए / अर्थात् 'गंधांग' कितने हैं, यह प्रश्न का भावार्थ है / दूसरा प्रश्न है कि गन्धांग की कितनी सौ अवान्तर जातियां हैं ? Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: गंधांग प्ररूपण] [273 / भगवान ने कहा-गौतम ! सात गंधाङ्ग हैं और सातसो गन्धांग की उपजातियां हैं। मोटे रूप में सात गंधांग इस प्रकार बताये हैं-१. मूल, 2. त्वक, 3. काष्ठ, 4. निर्यास, 5. पत्र, 6. फूल और 7. फल / मुस्ता, वालुका, उसीर प्रादि 'मूल' शब्द से गृहीत हुए हैं। सुवर्ण छाल आदि त्वक् हैं। चन्दन, अगुरु आदि काष्ठ से लिये गये हैं। कपूर आदि निर्यास हैं। पत्र से जातिपत्र, तमालपत्र, का ग्रहण है। पुष्प से प्रियंगु, नागर का ग्रहण है / फल से जायफल, इलायची, लौंग आदि का ग्रहण हुआ है / ये सात मोटे रूप में गंधांग हैं / ___ इन सात गंधांगों को पांच वर्ण से गुणित करने पर पैंतीस भेद हुए। ये सुरभिगंध वाले ही हैं अत: एक से गुणित करने पर (3541=35) पैतीस ही हुए। एक-एक वर्णभेद में द्रव्यभेद से पांच रस पाये जाते हैं अतः पूर्वोक्त 35 को 5 से गुणित करने पर 175 ( 354 5 = 175) हुए / वैसे स्पर्श पाठ होते हैं किन्त यथोक्तरूप गंधांगों में प्रशस्त स्पर्शरूप मद-लघ-शीत-उष्ण ये चार स्पर्श ही व्यवहार से परिगणित होते हैं प्रतएव पूर्वोक्त 175 भेदों को 4 से गुणित करने पर 700 (1754 4 =700) गंधांगों की अवान्तर जातियां होती हैं।' इसके पश्चात् पुष्पों की कुलकोटि के विषय में प्रश्न किया गया है। उत्तर में प्रभु ने कहा कि फूलों की 16 लाख कुलकोटियां हैं / जल में उत्पन्न होने वाले कमल आदि फूलों की चार लाख कुलकोटि हैं। कोरण्ट आदि स्थलज फूलों की चार लाख कुलकोटि (उपजातियां) हैं / महुबा आदि महावृक्षों के फूलों को चार लाख कुलकोटि हैं और जाती आदि महागुल्मों के फूलों की चार लाख कुलकोटी हैं / इस प्रकार फूलों की सोलह लाख कुलकोटि गिनाई हैं। वल्लियों के चार प्रकार और चारसौ उपजातियां कही हैं। मूल रूप से वल्लियों के चार प्रकार हैं और अवान्तर जातिभेद से चारसौ प्रकार हैं। चार प्रकारों की स्पष्टता उपलब्ध नहीं है / मूल टीकाकार ने भी इनकी स्पष्टता नहीं की है। लता के मूलभेद पाठ और उपजातियां पाठसौ हैं हरितकाय के मूलतः तीन प्रकार और अवान्तर तीनसो भेद हैं। हरितकाय तीन प्रकार के हैं--जलज, स्थलज और उभयज / प्रत्येक की सौ-सौ उपजातियां हैं, इसलिए हरितकाय के तीनसो अवान्तर भेद कहे हैं। बैंगन प्रादि बीट वाले फलों के हजार प्रकार कहे हैं और नालबद्ध फलों के भी हजार प्रकार हैं। ये सब तीन सौ ही प्रकार और अन्य भी तथाप्रकार के फलादि सब हरितकाय के अन्तर्गत पाते 1. मूलतयकट्टनिज्जासपत्तपुप्फफलमेव गंधंगा। वण्णादुत्तरभेया गंधरसया मुणेयब्वा // 1 // अस्य व्याख्यानरूपं गाथाद्वयंमुत्थासुवण्णछल्ली अगुरु वाला तमालपत्तं च / तह य पियंग जाईफलं च जाईए गंधगा // 1 // गुणणाए सत्तसया पंचहिं वण्णेहिं सुरभिगंधेणं / रसपणएणं तह फासेहि य चाहिं पसत्येहि // 2 // Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 274] [जीवानीवामिगमसूत्र हैं / हरितकाय वनस्पतिकाय के अन्तर्गत और वनस्पति स्थावरकाय में और स्थावरकाय का जीवों में समावेश हो जाता है। इस प्रकार सूत्रानुसार स्वयं समझने से या दूसरों के द्वारा समझाया जाने से अर्थालोचन रूप से विचार करने से, युक्ति प्रादि द्वारा गहन चिन्तन करने से, पूर्वापर पर्यालोचन से सब संसारी जीवों का इन दो—सकाय और स्थावरकाय में समवतार होता है। इस विषय में प्राजीव दृष्टान्त समझना चाहिए / अर्थात् जिस प्रकार 'जीव' शब्द में समस्त त्रस, स्थावर, सूक्ष्म-बादर, पर्याप्त-अपर्याप्त प्रौर षट्काय आदि का समावेश होता है, उसी प्रकार इन चौरासी लाख जीवयोनियों में समस्त संसारवर्ती जीवों का समावेश समझना चाहिए। यहाँ जो चौरासी लाख योनियों का उल्लेख किया है, यह उपलक्षण है। इससे अन्यान्य भी जातिकुलकोटि समझना चाहिए। क्योंकि पक्षियों की बारह लाख, भुजपरिसर्प की नौ लाख, उरपरिसर्प की दश लाख, चतुष्पदों की दश लाख, जलचरों की साढे बारह लाख, चतुरिन्द्रियों की तो लाख, त्रीन्द्रियों की आठ लाख, द्वीन्द्रियों की सात लाख, पुष्पजाति की सोलह लाख-इनको मिलाने से साढे तिरान लाख होती हैं, अतः यहाँ जो चौरासी लाख योनियों का कथन किया गया है वह उपलक्षणमात्र है / अन्यान्य भी कुलकोटियां होती हैं। अन्यत्र कुलकोटियां इस प्रकार गिनाई हैंपृथ्वीकाय की 12 लाख, अपकाय की सात लाख, तेजस्काय की तीन लाख, वायुकाय की सात की अदावीस लाख, द्वीन्द्रिय की सात लाख, श्रीन्द्रिय की आठ लाख, चतरिन्द्रिय की नौ लाख, जलचर की साढे बारह लाख, स्थलचर की दस लाख, खेचर की बारह लाख, उरपरिसर्प की दस लाख, भुजपरिसर्प की नौ लाख, नारक की पच्चीस लाख, देवता की छब्बीस लाख, मनुष्य की बारह लाख–कुल मिलाकर एक करोड़ साढे सित्याणु लाख कुलकोटियां हैं। चौरासीलाख जीवयोनियों की परिगणना इस प्रकार भी संगत होती है, त्रस जीवों की जीवयोनियां 32 लाख हैं। वह इस प्रकार-दो लाख 32 लाख हैं। वह इस प्रकार-दो लाख द्वीन्द्रिय की, दो लाख श्रीन्द्रिय की, दो लाख चतुरिन्द्रिय की, चार लाख तिर्यपंचेन्द्रिय की, चार लाख नारक की, चार लाख देव की और चौदह लाख मनुष्यों की-ये कुल मिलाकर 32 त्रसजीवों की योनियां हैं। स्थावरजीवों की योनियां 52 लाख हैं-सात लाख पृथ्वीकाय की, सात लाख अप्काय की, 7 लाख तेजस्काय की, 7 लाख वायुकाय की, 24 लाख वनस्पति की-यों 52 लाख स्थावरजीवों की योनियां हैं। त्रस की 32 लाख और स्थावर की 52 लाख मिलकर 84 लाख जीवयोनियां हैं। विमानों के विषय में प्रश्न 99. अस्थि गं भंते ! विमाणाई' सोत्थियाणि सोत्थियावत्ताई सोत्थियपभाई सोत्थियकन्ताई, सोस्थियवन्नाइं, सोत्थियलेसाई सोत्थियज्झयाई सोत्थियसिंगाराई, सोस्थियकडाई, सोत्थियसिट्टाई सोस्थियउत्तरडिसगाई ? हंता अस्थि। 1. टीकाकार के अनुसार 'अच्चियाइं प्रच्चियावत्ताई' इत्यादि पाठ है / Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततीय प्रतिपसि : विमानों के विषय में प्रश्न] [275 ते णं विमाणा केमहालया पण्णता? गोयमा ! जावइए णं सूरिए उदेइ जावइएणं य सूरिए अत्थमइ एवइया तिण्णोवासंतराई अस्थेगइयस्स देवस्स एक्के विक्कमे सिया। से णं देवे ताए उक्किट्ठाए तुरियाए जाब विवाए देवगइए वोइवयमाणे वोइवयमाणे जाव एगाहं वा दुयाहं वा उक्कोसेणं छम्मासा वीइवएज्जा, अत्थेगइया विमाणं बोइवएज्जा अस्थगइया विमाणं नो वीइवएज्जा, एमहालया णं गोयमा / ते विमाणा पण्णत्ता। अस्थि णं भंते ! विमाणाई' अच्चीणि अच्चिरावत्ताई तहेव जाव अच्चुत्तरडिसगाई ? हंता अस्थि। ते विमाणा केमहालया पण्णता? गोयमा ! एवं जहा सोस्थियाईणि णवरं एवइयाइं पंच उवासंतराइं अत्थेगइयस्स देवस्स एगे विक्कमे सिया, सेसं तं चेव / अस्थि गं भंते ! बिमाणाई कामाई कामावत्ताई जाव कामुत्तरडिसगाई ? हंता अस्थि / ते णं भंते ! विमाणा केमहालया पण्णता? गोयमा ! जहा सोत्योणि णवरं सत्त उवासंतराइं विक्कमे, सेसं तहेव।। अस्थि णं भंते ! विमाणाई विनयाई वेजयंताई जयंताई अपराजिताइं? हंता अस्थि / ते गं भंते ! विमाणा केमहालिया पण्णता? गोयमा! जावइए सूरिए उदेह एवइयाई नव ओवासंतराई, सेसं तं चेव; नो चेव णं ते विमाणे वीइवएज्जा एमहालया णं विमाणा पण्णता, समणाउसो! तिरिक्खजोणियउद्देसो समत्तो। [99] हे भगवन् ! क्या स्वस्तिक नामवाले, स्वस्तिकावर्त नामवाले, स्वस्तिकप्रभ, स्वस्तिककान्त, स्वस्तिकवर्ण, स्वस्तिकलेश्य, स्वस्तिकध्वज, स्वस्तिकशृगार, स्वस्तिककूट, स्वस्तिकशिष्ट और स्वस्तिकोत्तरावतंसक नामक विमान हैं ? हाँ, गोतम ! हैं। भगवन् ! वे विमान कितने बड़े हैं ? गौतम ! जितनी दूरी से सूर्य उदित होता दीखता है और जितनी दूरी से सूर्य अस्त होता दीखता है (यह एक अवकाशान्तर है), ऐसे तीन अवकाशान्तरप्रमाण क्षेत्र किसी देव का एक विक्रम (पदन्यास) हो और वह देव उस उत्कृष्ट, त्वरित यावत् दिव्य देवगति से चलता हुआ यावत् एक दिन, दो दिन उत्कृष्ट छह मास तक चलता जाय तो किसी विमान का तो पार पा सकता है और किसी विमान का पार नहीं पा सकता है / हे गौतम ! इतने बड़े वे विमान कहे गये हैं / हे भगवन् ! क्या अचि, अचिरावर्त आदि यावत् अचिरुत्तरावतंसक नाम के विमान हैं ? हाँ, गौतम ! हैं। 1. टीकाकार के अनुसार 'सोत्थियाई' आदि पाठ यहां है। Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 276] [बीवानीवामिगमसूत्र भगवन् ! वे विमान कितने बड़े कहे गये हैं ? गौतम ! जैसी वक्तव्यता स्वस्तिक आदि विमानों की कही है, वैसी ही यहां कहना चाहिए / विशेषता यह है कि यहां वैसे पांच अवकाशान्तर प्रमाण क्षेत्र किसी देव का एक पदन्यास (एक विक्रम) कहना चाहिए / शेष वही कथन है / हे भगवन् ! क्या काम, कामावर्त यावत् कामोत्तरावतंसक विमान हैं ? हाँ, गौतम ! हैं। भगवन् ! वे विमान कितने बड़े हैं ? गौतम ! जैसी वक्तव्यता स्वस्तिकादि विमानों की कही है वैसी ही कहना चाहिये / विशेषता यह है कि यहाँ वैसे सात अवकाशान्तर प्रमाण क्षेत्र किसी देव का एक विक्रम (पदन्यास) कहना चाहिए / शेष सब वही कथन है / हे भगवन् ! क्या विजय, वैजयंत, जयंत और अपराजित नाम के विमान हैं ? हों, गौतम ! हैं। भगवन ! वे विमान कितने बड़े हैं ? गौतम ! वही वक्तव्यता कहनी चाहिए यावत् यहाँ नौ अवकाशान्तर प्रमाण क्षेत्र किसी एक देव का एक पदन्यास कहना चाहिए / इस तीव्र और दिव्यगति से वह देव एक दिन, दो दिन उत्कृष्ट छह मास तक चलता रहे तो किन्ही विमानों के पार पहुंच सकता है और किन्ही विमानों के पार नहीं पहुंच सकता है / हे आयुष्मन् श्रमण ! इतने बड़े विमान वे कहे गये हैं। प्रथम तिर्यक्योनिक उद्देशक पूर्ण / विवेचन--प्रस्तुत सूत्र में विशेष नाम वाले विमानों के विषय में तथा उनके विस्तार के सम्बन्ध में प्रश्नोत्तर हैं / “विमान' शब्द की व्युत्पत्ति वृत्तिकार ने इस प्रकार की है जहाँ वि-विशेषरूप से पुण्यशाली जीवों के द्वारा मन्यन्ते-तद्गत सुखों का अनुभव किया जाता है वे विमान हैं / ' विमानों के नामों में यहाँ प्रथम स्वस्तिक प्रादि नाम कहे गये हैं, जबकि वृत्तिकार मलयगिरि ने पहले अचि, अचिरावर्त आदि पाठ मानकर व्याख्या की है। उन्होंने स्वस्तिक, स्वस्तिकावर्त आदि नामों का उल्लेख दूसरे नम्बर पर किया है। इस प्रकार नाम के क्रम में अन्तर है / वक्तव्यता एक ही है। विमानों की महत्ता को बताने के लिए देव की उपमा का सहारा लिया गया है। जैसे कोई देव सर्वोत्कृष्ट दिन में जितने क्षेत्र में सूर्य उदित होता है और जितने क्षेत्र में वह अस्त होता है इतने क्षेत्र को अवकाशान्तर कहा जाता है, ऐसे तीन अवकाशान्तर जितने क्षेत्र को (वह देव) एक पदन्यास से पार कर लेता है / इस प्रकार की उत्कृष्ट, त्वरित और दिव्यगति से लगातार एक दिन, दो दिन और उत्कृष्ट छह मास तक चलता रहे तो भी वह किसी विमान के पार पहुंच जाता है और किसी विमान को पार नहीं कर सकता है। इतने बड़े वे विमान हैं। 1. विशेषतः पुण्यप्राणिभिमन्यन्ते-तदगतसौख्यानुभवनेनानुभयन्ते इति विमानानि / For Private & Personal use only Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततीय प्रतिपत्ति: विमानों के विषय में प्रश्न [277 जम्बूद्वीप में सर्वोत्कृष्ट दिन में कर्कसंक्रान्ति के प्रथम दिन में सूर्य सैंतालीस हजार दो सौ सठ योजन और एक योजन के 6 भाग (इक्कीस साठिया भाग) जितनी दूरी से उदित होता हुमा दीखता है।' 47263 10 योजन उसका उदयक्षेत्र है और इतना ही उसका अस्तक्षेत्र है। उदयक्षेत्र और अस्तक्षेत्र मिलकर 9452610 योजन क्षेत्र का परिमाण होता है। यह एक अवकाशान्तर का परिमाण है। यहां ऐसे तीन अवकाशान्तर होने से उसका परिमाण अट्ठाईस लाख तीन हजार पांच सौ अस्सी योजन और एक योजन के भाग (28,03,58060) इतना उस देव के एक पदन्यास का परिमाण होता है। इतने सामर्थ्यवाला कोई देव लगातार एक दिन, दो दिन उत्कृष्ट छह मास तक चलता रहे तो भी उन विमानों में से किन्हीं का पार पा सकता है और किन्हीं का नहीं / इतने बड़े वे विमान हैं / स्वस्तिक आदि विमानों की महत्ता के विषय में यह उपमा है / अचिः, अचिरावर्त प्रादि की महत्ता के उत्तर में वही सब जानना चाहिए-अन्तर यह है कि यहां पांच अवकाशान्तर जितना क्षेत्र उस देव के एक पदन्यास का प्रमाण समझना चाहिए / काम, कामावर्त आदि विमानों की महत्ता में भी वही सब जानना चाहिए, केवल देव के पदन्यास का प्रमाण सात अवकाशान्तर समझना चाहिए। विजय, वैजयंत, जयंत और अपराजितों के विषय में भी वही जानना चाहिए / अन्तर यह है कि यहाँ नौ अवकाशान्तर जितना क्षेत्र उस देव के एक पदन्यास का प्रमाण समझना चाहिए। हे प्रायुष्मन् श्रमण ! वे विमान इतने बड़े हैं / // प्रथम तिर्यक् उद्देशक पूर्ण / / 1. जावइ उदेइ सूरो जावइ सो अत्थमेइ अवरेणं / तियपणसत्तनवगुणं काउं पत्तेयं पत्तयं // 1 // सीयालीस सहस्सा दो य सया जोयणाण तेबट्टा / इगवीस सद्विभागा कक्खडमाइंमि पेच्छ नरा // 2 // 2. एवं दुगुणं काउं गुणिज्जए तिपणसत्तमाईहिं / मागयफलं च जं तं कमपरिमाणं बियाणाहि // 3 // चत्तारि वि सकम्मेहि, चंडाइगईहिं जंति छम्मास / तहवि य न जंति पारं केसिंचि सुरा विमाणाई॥४॥ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति तिर्यग्योनिक अधिकार का द्वितीयोद्देशक तिर्यक्योनि अधिकार में प्रथम उद्देशक कहने के बाद क्रमप्राप्त द्वितीय उद्देशक का अवसर है। उसका आदि सूत्र इस प्रकार है * [100.] कइविहाणं भंते ! संसारसमावण्णगा जीवा पण्णता? गोयमा ! छम्बिहा पण्णता, तंजहा-पुढ विकाइया जाव तसकाइया। से कि तं पुढ विकाइया? पुढविकाइया दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-सुहमपुष्टविकाइया य बावरपुढविकाइया य / से कि तं सुहमपुढविकाइया? सुहमपुढविकाइया दुविहा पण्णता, तंजहा-पज्जत्तगा य अपज्जतगा य / से तं सुहमपुढ विकाइया। से कि तं बावरपुढविक्काइया ? बावरपुढविक्काइया दुविहा पण्णता, तंजहा–पज्जसगा य अपज्जत्तगा य / एवं जहा पण्णवणापये, सहा सत्तविहा पण्णता, खरा अणेगविहा पण्णत्ता, जाव असंखेज्जा, से तं बावरपुढविकाइया / से तं पुढविकाइया। एवं जहा पण्णवणापदे तहेव निरवसेसं भाणियध्वं जाव वणप्फइकाइया, एवं जाव जत्थेको तस्थ सिया संखेज्जा सिया असंखेज्जा सिया प्रणता। से तंबावरवणफइकाइया, से तं वणस्सइकाइया / से कि तं तसकाइया? तसकाइया चउबिहा पण्णता, तंजहा–बेइंदिया, तेइंदिया, परिविया, पंचिदिया / से किं तं बेइंदिया? बेइंदिया अणेगविधा पण्णत्ता, एवं जं चेव पण्णवणापदे तं व निरवसेसं भाणियव्वं जाव सम्वसिद्धगदेवा, से तं अणुत्तरोववाइया, से तं देवा, से तं पंचेंदिया, से तं तसकाइया / [100] हे भगवन् ! संसारसमापन्नक जीव कितने प्रकार के कहे गये हैं ? गौतम ! छह प्रकार के कहे गये हैं, यथा-पृथ्वीकायिक यावत् त्रसकायिक / पृथ्वीकायिक जीव कितने प्रकार के हैं ? पृथ्वीकायिक जीव दो प्रकार के हैं-सूक्ष्मपृथ्वीकायिक और बादरपृथ्वीकायिक / सूक्ष्मपृथ्वीकायिक कितने प्रकार के हैं ? Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : पृथ्वीकायिकों के विषय में विशेष जानकारी] [279 सूक्ष्मपृथ्वीकायिक दो प्रकार के हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त / यह सूक्ष्मपृथ्वीकायिक का कथन हुआ। बादरपृथ्वीकायिक क्या हैं ? बादरपृथ्वीकायिक दो प्रकार के हैं--पर्याप्त और अपर्याप्त / इस प्रकार जैसा प्रज्ञापनापद में कहा, वैसा कहना चाहिए / श्लक्ष्ण (मृदु) पृथ्वीकायिक सात प्रकार के हैं और खरपृथ्वीकायिक अनेक प्रकार के कहे गये हैं, यावत् वे असंख्यात हैं। यह बादरपृथ्वीकायिकों का कथन हुआ। यह पृथ्वीकायिकों का कथन हुआ। इस प्रकार जैसा प्रज्ञापनापद में कहा वैसा पूरा कथन करना चाहिए। वनस्पतिकायिक तक ऐसा ही कहना चाहिए, यावत जहाँ एक वनस्पतिकायिक जीव हैं वहाँ कदाचित संख्यात, कदाचित् असंख्यात और कदाचित् अनन्त वनस्पतिकायिक जानना चाहिए। यह बादरवनस्पतिकायिकों का कथन हुा / यह बनस्पतिकायिकों का कथन हुप्रा / सकायिक जीव क्या हैं ? वे चार प्रकार के कहे गये हैं, यथा--द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय / द्वीन्द्रिय जीव क्या हैं ? वे अनेक प्रकार के कहे गये हैं। इस प्रकार जैसा प्रज्ञापनापद में कहा गया है, वह सम्पूर्ण कथन तब तक करना चाहिए जब तक सर्वार्थसिद्ध देवों का अधिकार है। यह अनुत्तरोपपातिक देवों का कथन हुआ। इसके साथ ही देवों का कथन हुआ, इसके साथ ही पंचेन्द्रियों का कथन हुप्रा और साथ ही सकाय का कथन भी पूरा हुआ। विवेचन-यहाँ छह प्रकार के संसारसमापनक जीव हैं, ऐसा प्रतिपादन करनेवाले प्राचार्यों का मन्तव्य बताया गया है। 1. पृथ्वीकाय, 2. अप्काय, 3. तेजस्काय, 4. वायुकाय, 5. वनस्पतिकाय और 6. त्रसकाय-इन छह भेदों में सब संसारी जीवों का समावेश हो जाता है / इस प्रसंग पर वही सब कहा गया है जो पहले त्रस और स्थावर की प्रतिपत्ति में कहा गया है। अतएव इनके विषय में प्रज्ञापनासूत्र के प्रथम पद में कही गई वक्तव्यता के अनुसार वक्तव्यता जाननी चाहिए, ऐसी सूचना सूत्रकार ने यहाँ प्रदान की है / जिज्ञासु जन वहाँ से विशेष जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। पृथ्वीकायिकों के विषय में विशेष जानकारी 101. काविहा गं भंते ! पुढवी पण्णता ? गोयमा ! छव्विहा पुढवी पण्णता, तं जहा—सण्हापुढवी, सुद्धपुढवी, बालयापुढवी, मणोसिलापुढवी, सक्करापुढवी, खरपुढवी।। सण्हा पुढवी णं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं एगं वाससहस्स। सुद्धपुढवीय पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं बारसवाससहस्साई। बालयापुढवीए पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहृत्तं, उक्कोसेणं चोद्दसवाससहस्साई। मणोसिलापुढवीए पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं सोलसवाससहस्साई। सक्करापुढवीए पुच्छा, गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुत्तं उक्कोसेणं अट्ठारसवाससहस्साई। Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 280] [ीवाजीवामिगमसूत्र खरपुढवीए पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहृत्तं उक्कोसेणं बावीस वाससहस्साई। नेरइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णता? गोयमा ! जहन्नेणं दसवाससहस्साई उपकोसेगं तेत्तीसं सागरोवमाई ठिई; एवं सव्वं भाणियग्वं जाव सध्यसिद्धदेवत्ति। जीवे णं भंते ! जीवे त्ति कालओ केवच्चिर होइ ? गोयमा ! सम्वद्धं। पुढ विकाइए णं भंते ! पुढविकाइएत्ति कालओ केवच्चिरं होइ ? गोयमा ! सम्वद्धं / एवं जाव तसकाहए। [101] हे भगवन् ! पृथ्वी कितने प्रकार की कही है ? गौतम ! पृथ्वी छह प्रकार की कही गई है; यथा-श्लक्ष्ण (मृदु) पृथ्वी, शुद्धपृथ्वी, बालुकापृथ्वी, मनःशिलापृथ्वी, शर्करापृथ्वी और खरपृथ्वी।। हे भगवन् ! श्लक्ष्णपृथ्वी की कितनी स्थिति है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट एकहजारवर्ष / हे भगवन् ! शुद्धपृथ्वी की स्थिति कितनी है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट बारहहजारवर्ष / भगवन् ! बालुकापृथ्वी की पृच्छा ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट चौदहहजारवर्ष / भगवन् ! मनःशिलापृथ्वी की पृच्छा ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट सोलहहजारवर्ष / भगवन् ! शर्करापृथ्वी की पृच्छा ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अठारहहजारवर्ष / भगवन् ! खरपृथ्वी की पृच्छा ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट बावीसहजारवर्ष / भगवन् ! नैरयिकों की कितनी स्थिति कही है ? गौतम ! जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की स्थिति है। इस प्रकार सर्वार्थसिद्ध के देवों तक की स्थिति (प्रज्ञापना के स्थितिपद के अनुसार) कहनी चाहिए। भगवन् ! जीव, जीव के रूप में कब तक रहता है ? गौतम ! सब काल तक जीव जीव ही रहता है। भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव पृथ्वीकायिक के रूप में कब तक रहता है ? गौतम ! (पृथ्वीकाय सामान्य की अपेक्षा) सर्वकाल तक रहता है / इस प्रकार सकाय तक कहना चाहिए। Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपति : पृथ्वीकायिकों के विषय में विशेष जानकारी [281 विवेचन -प्रस्तुत सूत्र में पृथ्वीकायिक आदि के विषय में कई विशिष्ट विषयों का उल्लेख करने के लिए पुनः पृथ्वी विषयक प्रश्न किये गये हैं / पृथ्वी के प्रकारों के सम्बन्ध में किये गये प्रश्न के उत्तर में प्रभु ने फरमाया है कि पृथ्वी छह प्रकार की है 1. श्लक्ष्णापृथ्वी-यह मृदु मुलायम मिट्टी का वाचक है। यह चूर्णित आटे के समान मुलायम होती है। 2. शुद्धपृथ्वी-पर्वतादि के मध्य में जो मिट्टी है वह शुद्धपृथ्वी है / 3. बालुकापृथ्वी-बारीक रेत बालुकापृथ्वी है। 4. मनःशिलापृथ्वी-मैनशिल आदि मनःशिलापृथ्वी है / 5. शर्करापृथ्वी-कंकर, मुरुण्ड आदि शर्करापृथ्वी है / 6. खरापृथ्वी--पाषाण रूप पृथ्वी खरापृथ्वी है।। उक्त छह प्रकार की पृथ्वी का निरूपण करने के पश्चात् उनकी कालस्थिति के विषय में प्रश्न किये गये हैं। उत्तर में कहा गया है कि --- .. 1. श्लक्ष्णापृथ्वी की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट एक हजार वर्ष है / 2. शुद्धपृथ्वी की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्ट बारह हजार वर्ष है। 3. बालुकापृथ्वी की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट चौदह हजार वर्ष है। 4. मनः शिलापृथ्वी की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट सोलह हजार वर्ष है। 5. शर्करापृथ्वी की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्ट अठारह हजार वर्ष है। 6. खरपृथ्वी की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्ट बावीस हजार वर्ष है।' पृथ्वीस्थिति यन्त्र पृथ्वी का प्रकार जघन्य उत्कृष्ट स्थिति 1. श्लक्ष्णापृथ्वी अन्तर्मुहूर्त एक हजार वर्ष 2. शुद्धपृथ्वो बारह हजार वर्ष 3. बालुकापृथ्वी चौदह हजार वर्ष 4. मनःशिलापृथ्वी सोलह हजार वर्ष 5. शर्करापृथ्वी अठारह हजार वर्ष 6. खरपृथ्वी बावीस हजार वर्ष स्थितिनिरूपण का प्रसंग होने से चौवीस दण्डक के क्रम से नैरयिकों आदि की स्थिति के विषय में प्रश्न हैं। ये प्रश्न और उनके उत्तर प्रज्ञापनापद के चतुर्थ स्थितिपद के अनुसार सर्वार्थसिद्ध के देवों तक की स्थिति तक समझ लेना चाहिए। वहाँ विस्तार के साथ स्थिति का वर्णन है / अतएव यहाँ उसका उल्लेख न करते हुए वहाँ से जान लेने की सूचना की गई है। यह भवस्थिति विषयक कथन करने के पश्चात कायस्थितिविषयक प्रश्न है कि जीव कितने समय तक जीवरूप में 1. सण्हा य सुद्ध बालुन मणोसिला सक्करा य खरपुढवी। इग बार चोदस सोलढार बावीस समसहस्सा // 1 // Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 282] [जीवाजोवाभिगमसूत्र रहता है / कायस्थिति का अर्थ है-जीव की सामान्यरूप अथवा विशेषरूप से जो विवक्षित पर्याय है उसमें स्थित रहना / भवस्थिति में वर्तमान भव की स्थिति गृहीत होती है और कायस्थिति में जब तक जीव अपने जीवनरूप पर्याय से युक्त रहता है तब तक की स्थिति विवक्षित है ! प्रकृत प्रसंग में जीव की कायस्थिति पूछी गई है। जो प्राणों को धारण करे वह जीव है। प्राण दो प्रकार के हैं-द्रव्यप्राण और भावप्राण / पांच इन्द्रियां, मन-वचन-काय ये तीन बल, प्रायु और श्वासोच्छ्वास ये दस द्रव्यप्राण हैं और ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य ये चार भावप्राण हैं / ' यहाँ दोनों प्रकार के प्राणों का ग्रहण है / अतः प्रश्न का भाव यह हुआ कि जीव प्राण धारणरूप जीवत्व की अपेक्षा से कब तक रहता है ? भगवान् ने उत्तर दिया कि सर्वकाल के लिए जीवरूप में रहता है। वह संसारी अवस्था में द्रव्य-भावप्राणों को लेकर प्रौर मुक्तावस्था में भावप्राणों को लेकर जीवित रहता है. अतएव सर्वाद्धा के जीवरूप में रहता है। एक भी क्षण ऐसा नहीं है कि जीव अपनी इस जीवनावस्था से रहित हो जाय / ___ अथवा 'जीव' पद से यहाँ किसी एक खास जीव का ग्रहण नहीं हुआ किन्तु जीव सामान्य का ग्रहण हुआ है / अतएव प्राणधारण लक्षण जीवत्व मानने में भी कोई दोष नहीं है। अर्थात् जीव जीव के रूप में गा दी। वह सदा जिया है. जीता है और जीता रहेगा। इस प्रकार जीव को लेकर सामान्य जीव की अपेक्षा कायस्थिति कही गई है। इसी प्रकार पृथ्वीकाय आदि के विषय में भी सामान्य विवक्षा ही जाननी चाहिए। पृथ्वीकाय भी पृथ्वीकायरूप में सामान्यरूप से सदैव रहेगा ही, कोई भी समय ऐसा नहीं होगा जब पृथ्वीकायिक जीव नहीं रहेंगे। इसलिए उनकी कायस्थिति सर्वाद्धा कही गई है / इस प्रकार गति, इन्द्रिय, कायादि द्वारों से जिस प्रकार प्रज्ञापना के अठारहवें 'काय स्थिति' नामक पद में कायस्थिति कही गई है, वह सब यहाँ कह लेनी चाहिए / वे द्वार बावीस हैं 1. जीव, 2. गति, 3. इन्द्रिय, 4. काय, 5. योग, 6. वेद, 7. कषाय, 8. लेश्या, 9. सम्यक्त्व, 10. ज्ञान, 11. दर्शन, 11. संयत, 13. उपयोग, 14. आहार, 15. भाषक, 16. परित्त, 17. पर्याप्त, 18. सूक्ष्म. 16. संज्ञी, 20. भवसिद्धिक, 21. अस्तिकाय और 22. चरम / इस प्रकार पृथ्वीकाय की तरह अप्, तेजस्, वायु, बनस्पति और त्रसकाय सम्बन्धी सूत्र भी समझ लेने चाहिए। निलेप सम्बन्धी कथन 101-2. पडप्पन्नपुढविकाइया णं भंते ! केवइकालस्स गिल्लेवा सिया? गोयमा ! जहण्णपदे असलेम्जाहि उस्सविणी-ओसप्पिणीहि उक्कोसपए असंखेज्जाहि उस्सप्पिणी ओसप्पिणीहि, जहन्नपदओ उक्कोसपए असंखेज्जगुणो, एवं जाव पडप्पन्नवाउक्काइया। 1. पंचेन्द्रियाणि त्रिविधं बलं च, उच्छवास-नि:श्वासमथान्यदायुः। प्राणा दशैते भगवभिरुक्तास्तेषां वियोजीकरणं तु हिंसा // 1 // 'ज्ञानादयस्तु भावप्राणा, मुक्तोऽपि जीवति स तेहिं / ' जीव गइंदिय काए जोए वेए कसाय लेस्सा य। सम्मत्त नाणदंसण संजय उवयोग आहारे // 1 // भासग परितपज्जत्त सुहुमसण्णी भवत्थि चरिमे य / एएसि तु पयाणं कायठिई होइ नायव्वा // 2 // Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : निलेप सम्बन्धी कथन] [283 पडप्पन्नवणप्फइकाइया णं भंते ! केवाइकालस्स पिल्लेवा सिया? गोयमा! पडुप्पन्नवणप्फइकाइया जहण्णपदे अपवा उक्कोसपदे अपदा, पडुप्पन्नवणप्फइकाइया णं णत्यि निल्लेवणा। पडप्पन्नतसकाइयाणं पुच्छा, जहण्णपदे सागरोक्मसयपुष्टुत्तस्स, उक्कोसपए सागरोवमसयपुहुत्तस्स, जहण्णपदा उक्कोसपए विसेसाहिया। {101-2] भगवन् ! अभिनव (तत्काल उत्पद्यमान) पृथ्वीकायिक जीव कितने काल में निर्लेप हो सकते हैं ? गौतम ! जघन्य से असंख्यात उत्सपिणी-अवसर्पिणी काल में और उत्कृष्ट से भी असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसपिणी काल में निर्लेप (खाली) हो सकते हैं। यहाँ जघन्य पद से उत्कृष्ट पद में असंख्यातगुण अधिकता जाननी चाहिए / इसी प्रकार अभिनव वायुकायिक तक की वक्तव्यता जाननी चाहिए। ___ भगवन् ! अभिनव (तत्काल उत्पद्यमान) वनस्पतिकायिक जीव कितने समय में निर्लेप हो सकते हैं ? गौतम ! प्रत्युत्पन्नवनस्पतिकायिकों के लिए जघन्य और उत्कृष्ट दोनों पदों में ऐसा नहीं कहा जा सकता कि ये इतने समय में निर्लेप हो सकते हैं। इन जीवों की निर्लेपना नहीं हो सकती। (क्योंकि ये अनन्तानन्त हैं / ) भगवन् ! प्रत्युत्पन्नवसकायिक जीव कितने काल में निर्लेप हो सकते हैं ? गौतम ! जघन्य पद में सागरोपम शतपृथक्त्व और उत्कृष्ट पद में भी सागरोपम शतपृथक्त्व काल में निर्लेप हो सकते हैं / जघन्यपद से उत्कृष्टपद में विशेषाधिकता समझनी चाहिए। विवेचन -निर्लेपता का अर्थ है-यदि प्रतिसमय एक-एक जीव का अपहार किया जाय तो कितने समय में वे जीव सबके सब अपहृत हो जायें अर्थात् वह प्राधारस्थान उन जीवों से खाली हो जाय / प्रत्युत्पन्न अर्थात् अभिनव उत्पद्यमान पृथ्वीकायिक जीवों का यदि प्रतिसमय एक-एक के मान से अपहार किया जाय तो कितने समय में वे सबके सब अपहृत हो सकेंगे, यह प्रश्न का प्राशय है। इसके उत्तर में कहा गया है कि जघन्य से अर्थात् जब एक समय में कम से कम उत्पन्न होते हैं, उस अपेक्षा से यदि प्रत्येक समय में एक-एक जीव अपहृत किया जावे तो उनके पूरे अपहरण होने में असंख्यात उत्सपिणियां और असंख्यात अवपिणियां समाप्त हो जावेंगी। इसी प्रकार उत्कृष्ट से एक ही काल में जब वे अधिक से अधिक उत्पन्न होते हैं उस अपेक्षा से भी यदि उनमें से एक-एक समय में एक-एक जीव का अपहार किया जावे तो भी उनके पूरे अपहरण में असंख्यात उत्सपिणियां और असंख्यात अवसर्पिणियां समाप्त हो जावेगी तब वे पूरे अपहृत होंगे। जघन्य पद वाले अभिनव उत्पद्यमान पृथ्वीकायिक जीवों की अपेक्षा जो उत्कृष्ट पदवी अभिनव पृथ्वीकायिक जीव उत्पन्न होते हैं वे असंख्यातगुण अधिक हैं। क्योंकि जघन्य पदोक्त असंख्यात से उत्कृष्ट पदोक्त असंख्यात असंख्यातगुण अधिक है। Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 284] [जीवाजीवाभिगमसूत्र ___ इसी तरह अभिनव अप्कायिक, तेजस्कायिक और वायुकायिक जीवों की निर्लेपना समझनी चाहिए। अभिनव वनस्पतिकायिक जीवों की निर्लेपना सम्बन्धी प्रश्न के उत्तर में कहा गया है कि उन जीवों की न तो जघन्यपद में और न उत्कृष्टपद में निर्लेपना सम्भव है। क्योंकि वे जीव अनन्तानन्त हैं / अतएव वे 'इतने समय में निर्लिप्त या अपहृत हो जावेंगे' ऐसा कहना सम्भव नहीं है / उक्त पद द्वारा वे नहीं कहे जा सकते, अतएव उन्हें 'अयद' कहा गया है। प्रत्युत्पन्न त्रसकायिक जीवों को निर्लेपना का काल जघन्यपद में सागरोपमशतपृथक्त्व है अर्थात् दो सौ सागरोपम से लेकर नौ सौ सागरोपम जितने काल में उन अभिनव प्रसकायिक जीवों का अपहार सम्भव है / उत्कृष्टपद में भी यही सागरोपमशतपृथक्त्व निर्लेपना का काल जानना चाहिए, परन्तु यह उत्कृष्टपदोक्त काल जघन्यपदोक्त काल से विशेषाधिक जानना चाहिए / अविशुद्ध-विशुद्ध लेश्या वाले अनगार का कथन 103. अविसुद्धलेस्से णं भंते ! अणगारे प्रसमोहएणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेस्सं देवं देवि अणगारं जाणइ पासइ? गोयमा ! नो इण? सम?। अविसुद्धलेस्से गं भंते ! प्रणगारे असमोहएणं अप्पाणणं विसुद्धलेस्सं देवि देवि अणगारं जाणइ पास? गोयमा ! नो इण8 सम?। अविसुद्धलेस्से गं भंते ! अणगारे समोहएणं अपाणेणं अविसुद्धलेस्सं देवं देवि अणगारं जाणइ पासइ ? गोयमा ! नो इण8 सम? / अविसुद्धलेस्से अणगारे समोहएणं अप्पाणेणं विसुद्धलेस्सं देवं देवि अणगारं जाणइ पासइ ? नो तिण? सम?। अविसुद्धलेस्से गं भंते ! अणगारे समोहयासमोहएणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेस्सं देवं देवि प्रणगारं जाणइ पासइ? नो तिण? सम?। अविसुद्धलेस्से अणगारे समोहयासमोहएणं अप्पाणेणं विसुद्धलेस्सं देवं देवि अणगारं जाणइ पासइ? नो तिण8 सम8। विसुद्धलेस्से गं भंते ! अणगारे असमोहएणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेस्सं देवं देवि अणगारं जाणा पासइ? Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : अविशुद्ध-विशुद्ध लेश्या वाले अनगार का कथन) [285 हंता, जाणइ पासइ / जहा अविसुद्धलेस्से णं आलावगा एवं विसुद्धलेस्सेणं वि छ आलावगा भाणियव्वा जाब विसुद्धलेस्से णं भंते ! अणगारे समोहयासमोहएणं अप्पाणणं विसुद्धलेस्सं देवं देविं अणगारं जाणइ पासइ? हंता! जाणइ पास। [103] हे भगवन् ! अविशुद्धलेश्या वाला अनगार वेदनादि समुद्घात से विहीन प्रात्मा द्वारा अविशुद्ध लेश्यावाले देव को, देवी को और अनगार को जानता-देखता है क्या ? हे गौतम ! यह अर्थ समर्थित नहीं है अर्थात् नहीं जानता-देखता है / भगवन् ! अविशुद्धलेश्या वाला अनगार वेदनादि विहीन प्रात्मा द्वारा विशुद्धलेश्या वाले देव को, देवी को और अनगार को जानता-देखता है क्या? गौतम ! यह अर्थ समर्थित नहीं है / भगवन् ! अविशुद्ध लेश्या वाला अनगार वेदनादि समुदघातयुक्त अात्मा द्वारा अविशुद्ध लेश्या वाले देव को, देवी को और अनगार को जानता-देखता है क्या? गौतम ! यह अर्थ समर्थित नहीं है। हे भगवन् ! अविशुद्धलेश्या वाला अनगार वेदनादि समुद्घातयुक्त प्रात्मा द्वारा अविशुद्ध लेश्या वाले देव को, देवी को और अनगार को जानता-देखता है क्या ? गौतम ! यह अर्थ ठीक नहीं है / हे भगवन् ! अविशुद्धलेश्या वाला अनगार जो वेदनादि समुद्धात से न तो पूर्णतया युक्त है और न सर्वथा विहीन है, ऐसी आत्मा द्वारा अविशुद्धलेश्या वाले देव, देवी और अनगार को जानतादेखता है क्या? गौतम ! यह अर्थ समर्थित नहीं है। भगवन् ! अविशुद्धलेश्या वाला अनगार समवहत-असमवहत प्रात्मा द्वारा विशुद्धलेश्या वाले देव, देवी और अनगार को जानता-देखता है क्या ? गौतम ! यह अर्थ समर्थित नहीं है / भगवन् ! विशुद्धलेश्या वाला अनगार वेदनादि समुद्घात द्वारा असमवहत आत्मा द्वारा अविशुद्धलेश्या वाले देव, देवी और अनगार को जानता-देखता है क्या? हाँ, गौतम ! जानता-देखता है / जैसे अविशुद्धलेश्या वाले अनगार के लिए छह पालापक कहे हैं वैसे छह पालापक विशुद्धलेश्या वाले अनगार के लिए भी कहने चाहिए यावत् हे भगवन् ! विशुद्धलेश्या वाला अनगार समवहत-असमवहत आत्मा द्वारा विशुद्धलेश्या वाले देव, देवी और अनगार को जानता-देखता है क्या ? हाँ, गौतम ! जानता-देखता है / विवेचन-पूर्व सूत्र में स्थिति तथा निर्लेपना आदि का कथन किया गया / उस कथन को विशुद्धलेश्या वाला अनगार सम्यक् रूप से समझता है तथा अविशुद्धलेश्या वाला उसे सम्यक् रूप Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 286] [जीवाजीवामिगमसूत्र से नहीं समझता है / इस सम्बन्ध से यहाँ शुद्धलेश्या वाले और अशुद्धलेश्या वाले अनगार को लेकर ज्ञान-दर्शनविषयक प्रश्न किये गये हैं। अविशुद्धलेश्या से तात्पर्य कृष्ण-नील-कापोत लेश्या से है। असमवहत का अर्थ है वेदनादि समुद्घात से रहित और समबहत का अर्थ है वेदनादि समुद्घात से युक्त / समवहत-असमवहत का मतलब है वेदनादि समुद्घात से न तो पूर्णतया युक्त और न सर्वथा विहीन / अविशुद्धलेश्या वाले अनगार के विषय में छह पालापक इस प्रकार कहे गये हैं(१) असमवहत होकर अविशुद्धलेश्या वाले देवादि को जानना, (2) असमवहत होकर विशुद्धलेश्या वाले देवादि को जानना, (3) समवहत होकर अविशुद्धलेश्या वाले देवादि को जानना, (4) समवहत होकर विशुद्धलेश्या वाले देवादि को जानना, 5) समवहत-असमवहत होकर अविशुद्धलेश्या वाले देवादि को जानना / (6) समवहत-असमवहत होकर विशुद्धलेश्या वाले देवादि को जानना / उक्त छहों आलापकों में अविशुद्धलेश्या वाले अनगार के जानने-देखने का निषेध किया गया है। क्योंकि अविशुद्धलेश्या होने से वह अनगार किसी वस्तु को सम्यक् रूप से नहीं जानता है और नहीं देखता है। विशुद्धलेश्या वाले अनगार को लेकर भी पूर्वोक्त रीति से छह पालापक कहने चाहिए और उन सब में देवादि पदार्थों को जानना-देखना कहना चाहिए। विशुद्धलेश्या वाला अनगार पदार्थों को सम्यक् रूप से जानता और देखता है / विशुद्धलेश्या वाला होने से यथावस्थित ज्ञान-दर्शन होता है अन्यथा नहीं। मूल टीकाकार ने कहा है कि विशुद्धलेश्या वाला शोभन या अशोभन वस्तु को यथार्थ रूप में जानता है / समुद्धात भी उसका प्रतिबन्धक नहीं होता / उसका समुद्घात भी अत्यन्त अशोभन नहीं होता। तात्पर्य यह है कि अविशुद्धलेश्या वाला पदार्थों को सही परिप्रेक्ष्य में नहीं जानता और नहीं देखता जबकि विशुद्धलेश्या वाला पदार्थों को सही रूप में जानता है और देखता है। सम्यग-मिथ्याक्रिया का एक साथ न होना 104. अण्णउत्थिया णं भंते ! एषमाइक्खंति एवं भासेंति, एवं पण्णवेंति एवं परूवेति-- एवं खल एगे जीवे एगेणं समएणं दो किरियाओ पकरे, तंजहा-सम्मत्तकिरियं च मिच्छत्तकिरियं च / जं समय सम्मत्तकिरियं पकरेइ तं समयं मिच्छत्तकिरियं पकरेइ, जं समयं मिच्छत्तकिरियं पकरेइ तं समयं सम्मत्तकिरियं पकरेइ / सम्मत्तकिरियापकरणताए मिच्छत्तकिरियं पकरेइ, मिच्छतकिरिया 1. शोभनमशोभनं वा वस्तु यथावद विशुद्धलेश्यो जानाति / समुद्घातोऽपि तस्याप्रतिबन्धक एव / --मूलटीकायाम् / Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : सम्यम्-मिथ्याक्रिया का एक साय न होना] [287 पकरणताए सम्मत्तकिरियं पकरे एवं खल एगे जीवे एगेणं समएणं वो किरियाओ परेइ, तं जहासम्मत्तकिरियं च मिच्छत्तकिरियं च / से कहमेयं भंते ! एवं ? गोयमा! जणं ते अन्नउस्थिया एवमाइक्खंति, एवं भासंति, एवं पण्णवेति एवं परुति एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं दो किरियाओ पकरेइ तहेव जाव सम्मत्तकिरियं च मिच्छत्तकिरियं च, जे ते एवमाहंसु तं गं मिच्छा; अहं पुण गोयमा ! एवं आइक्खामि जाय परूवेमि एवं खलु एगे जोवे एगेणं समएणं एगं किरियं पकरेई, तं जहा-सम्मत्तकिरियं वा मिच्छत्तकिरियं वा। जं समयं सम्मतकिरियं पकरेइ नो तं समयं मिच्छतकिरियं पकरेइ / तं चेव जं समयं मिच्छतकिरियं पकरेइ नो तं समयं सम्मसकिरियं पकरे / सम्मत्तकिरियापकरणयाए नो मिच्छत्तकिरियं पकरेइ, मिच्छत्तकिरियापकरणयाए नो सम्मतकिरियं पकरेइ / एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं एग किरियं पकरे, तं जहा-सम्मसकिरियं वा मिच्छत्तकिरियं वा / से तं तिरिक्खजोणिय-उद्देसओ बीमो समतो। [104] हे भगवन् ! अन्यतीथिक इस प्रकार कहते हैं, इस प्रकार बोलते हैं, इस प्रकार प्रज्ञापना करते हैं, इस प्रकार प्ररूपणा करते हैं कि 'एक जीव एक समय में दो क्रियाएँ करता है, कक्रिया और मिथ्याक्रिया / जिस समय सम्यकक्रिया करता है उसी समय मिथ्याक्रिया भी करता है, और जिस समय मिथ्याक्रिया करता है, उस समय सम्यकक्रिया भी करता है / सम्यक्क्रिया करते हुए (उसके साथ ही) मिथ्याक्रिया भी करता है और मिथ्याक्रिया करने के साथ ही सम्यक्रिया भी करता है। इस प्रकार एक जीव एक समय में दो क्रियाएँ करता है, यथा- सम्यक्क्रिया और मिथ्याक्रिया।' हे भगवन् ! उनका यह कथन कैसा है ? हे गौतम ! जो वे अन्यतीथिक ऐसा कहते हैं, ऐसा बोलते हैं, ऐसी प्रज्ञापना करते हैं और ऐसी प्ररूपणा करते हैं कि एक जीव एक समय में दो क्रियाएँ करता है-सम्यक्रिया और मिथ्याक्रिया / जो अन्यतीथिक ऐसा कहते हैं वे मिथ्या कथन करते हैं। गौतम ! मैं ऐसा कहता हैं यावत् प्ररूपणा करता हूँ कि एक जीव एक समय में एक ही क्रिया करता है, यथा सम्यकक्रिया अथवा मिथ्याक्रिया। जिस समय सम्यक्रिया करता है उस समय मिथ्याक्रिया नहीं करता और जिस समय मिथ्याक्रिया करता है उस समय सभ्यक्रिया नहीं करता है और मिथ्याक्रिया करने के साथ सम्यक्रिया नहीं करता। इस प्रकार एक जीव एक समय में एक ही क्रिया करता है, यथा-सम्यक्रिया अथवा मिथ्याक्रिया / ॥तिर्यक्योनिक अधिकार का द्वितीय उद्देशक समाप्त / / विवेचन–प्रस्तुत सूत्र में सम्यकक्रिया और मिथ्याक्रिया एक साथ एक जीव नहीं कर सकता, इस विषय को अन्यतीथिकों की मान्यता का पूर्वपक्ष के रूप में कथन करके उसका खण्डन किया गया है। अन्यतीथिक कहते हैं, विस्तार से व्यक्त करते हैं, अपनी बात दूसरों को समझाते हैं और निश्चित रूप से निरूपण करते हैं कि 'एक जीव एक समय में एक साथ सम्यक्रिया भी करता Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 288] [जीवाजीवाभिगमसूत्र है और मिथ्याक्रिया भी करता है। सुन्दर अध्यवसाय वाली क्रिया सम्यक्रिया है और असुन्दर अध्यवसाय वाली क्रिया मिथ्याक्रिया है। जिस समय जीव सम्यक्रिया करता है उसके साथ मिथ्याक्रिया भी करता है और जिस समय मिथ्याक्रिया करता है उस समय सम्यक्रिया भी करता है। क्योंकि जीव का स्वभाव उभयक्रिया करने का है। दोनों क्रियाओं को संवलित रूप में करने का जीव का स्वभाव है / अतः जीव जिस किसी भी अच्छी या बुरी क्रिया में प्रवृत्त होता है तो उसका उभयक्रिया करने का स्वभाव विद्यमान रहता है। उभयक्रिया करने का स्वभाव होने से उसकी क्रिया भी उभयरूप होती है / दूध और पानी मिला हुआ होने पर उसे उभयरूप कहना होगा, एकरूप नहीं। अतएव जिस समय जीव सम्यक्रिया कर रहा है उस समय उसके उभयक्रियाकरणस्वभाव की प्रवृत्ति भी हो रही है, अन्यथा सर्वात्मना प्रवृत्ति नहीं हो सकती। उभयकरणस्वभाव की प्रवृत्ति होने से जिस समय सम्यक्रिया हो रही है उस समय मिथ्याक्रिया भी हो रही है और जिस समय मिथ्याक्रिया हो रही है उस समय सम्यक्क्रिया भी हो रही है अतः एक जीव एक समय में एक साथ दोनों क्रियाएं कर सकता है- सम्यक्रिया भी और मिथ्याक्रिया भी।' उक्त अन्यतीथिकों की मान्यता मिथ्या है / प्रभु फरमाते हैं कि गौतम ! एक जीव एक समय में एक ही क्रिया कर सकता है-सम्यक्रिया अथवा मिथ्याक्रिया। वह इन दोनों क्रियाओं को एक साथ नहीं कर सकता क्योंकि इन दोनों में परस्परपरिहाररूप विरोध है। सम्यक्रिया हो रही है तो मिथ्याक्रिया नहीं हो सकती और मिथ्याक्रिया हो रही है तो सम्पक्क्रिया नहीं हो सकती / जीव का उभयकरणस्वभाव है ही नहीं। यदि उभयकरणस्वभाव माना जाय तो मिथ्यात्व की कभी निवृत्ति नहीं होगी और ऐसी स्थिति में मोक्ष का अभाव हो जावेगा। __ अतएव यह सिद्ध होता है कि सम्यक्रिया करते समय मिथ्याक्रिया नहीं करता और मिथ्या क्रिया करते समय सम्यक्रिया नहीं करता। सम्यक्रिया और मिथ्याक्रिया एक दूसरे को छोड़कर रहती हैं, एक साथ नहीं रह सकती / अतएव यही सहो सिद्धान्त है कि एक जीव एक समय में एक समय में एक ही क्रिया कर सकता है-सम्यक्त्वक्रिया या मिथ्याक्रिया, दोनों क्रियाएँ एक साथ कदापि सम्भव नहीं हैं। // तृतीय प्रतिपत्ति के तिर्यक्योनिक अधिकार में द्वितीय उद्देशक समाप्त // Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति मनुष्य का अधिकार तिर्यक्योनिकों का कथन करने के पश्चात् अब क्रमप्राप्त मनुष्य का अधिकार चलता है। उसका प्रादिसूत्र है 105. से कि तं मणुस्सा? मणुस्सा दुविहा पण्णता, तंजहा-समुच्छिममणुस्सा य गम्भवक्कंतियमणस्सा य / [105] हे भगवन् ! मनुष्य कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! मनुष्य दो प्रकार के हैं, यथा-१. सम्मूच्छिममनुष्य और 2. गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्य / 106. से कितं समुच्छिममगुस्सा? समुच्छिममणुस्सा एगागारा पण्णत्ता। कहिं गं भंते ! संमुच्छिममगुस्सा संमुच्छंति ? गोयमा ! अंतोमणुस्सखेत्ते जहा पण्णवणाए जाव से तं समुच्छिममणुस्सा। [106] भगवन् ! सम्मूच्छिममनुष्य कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! सम्मूच्छिममनुष्य एक ही प्रकार के कहे गये हैं। भगवन् ! ये सम्मूछिममनुष्य कहाँ पैदा होते हैं ? गौतम ! मनुष्यक्षेत्र में (14 अशुचिस्थानों में उत्पन्न होते हैं) इत्यादि जो वर्णन प्रज्ञापना— सूत्र में किया गया है, वह सम्पूर्ण यहाँ कहना चाहिए यावत् यह सम्मूच्छिममनुष्यों का कथन हुआ। विवेचन–सम्मूच्छिममनुष्यों के उत्पत्ति के 14 अशुचिस्थान तथा उनकी अन्तर्मुहूर्त मात्र प्रायु प्रादि के सम्बन्ध में प्रज्ञापनासूत्र के प्रथम पद में विस्तृत वर्णन है तथा इसी जीवाजीवाभिगमसूत्र की द्वितीय प्रतिपत्ति में पहले इनका वर्णन किया जा चुका है / जिज्ञासु वहाँ देख सकते हैं / 107. से कितं गम्भवक्कंतियमणस्सा ? गम्भवतियमणुस्सा तिविहा पण्णता, तंजहा–१. कम्ममूमगा, 2. अकम्मभूमगा, 3. अंतरदीवगा। [107] हे भगवन् ! गर्भव्युत्क्रांतिकमनुष्य कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! गर्भव्युत्क्रान्तिक मनुष्य तीन प्रकार के हैं, यथा--१. कर्मभूमिक, 2. अकर्मभूमिक और 3. प्रान्तीपिका Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 29.] [जीवाजीवाभिगमसूत्र 108. से कितं अंतरदीवगा ? अंतरदीवगा अट्ठावीसइविहा पण्णता, तंजहा-एगुरुया आभासिया साणिया गांगोली हयकण्णगा० आयंसमुहा० प्रासमुहा० आसफण्णा० उक्कामुहा० घगवंता जाव सुखदंता। [108] हे भगवन् ! प्रान्तींपिक मनुष्य कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! प्रान्तीपिक अट्ठवीस प्रकार के हैं, जैसे कि एकोरुक, आभाषिक, वैषाणिक, नांगोलिक, हयकर्ण श्रादि, आदर्शमुख आदि, अश्वमुख प्रादि, अश्वकर्ण प्रादि, उल्कामुख आदि, घनदन्त आदि यावत् शुद्धदंत। __विवेचन-प्रस्तुत सूत्रों में गर्भज मनुष्यों के तीन प्रकार कर्मभूमिक, अकर्मभूमिक और अन्तर्वीपिकों का कथन करने के पश्चात् 'अस्त्यनानुपूयंपि' अर्थात् अननुक्रम से भी कथन किया जाता है, इस न्याय से अन्तर्दीपिकों के विषय में प्रश्न और उत्तर दिये गये हैं। लवणसमुद्र के अन्दर अन्तर्-अन्तर् पर द्वीप होने से ये अन्तर्द्वीप कहलाते हैं और इनमें रहने वाले मनुष्य 'तात्स्थ्यात्तव्यपदेशः' इस न्याय से अन्त:पिक कहे जाते हैं, जैसे पंजाब में रहने वाले पुरुष पंजाबी कहे जाते हैं। प्रान्तीपिक मनुष्य अट्ठावीस प्रकार के हैं, यथा--१. एकोरुक, 2. आभाषिक, 3. वैषाणिक, 4. नांगोलिक, 5. हयकर्ण, 6. गजकर्ण, 7. गोकर्ण, 8. शष्कुलीकर्ण, 9. प्रादर्शमुख, 10. मेण्ढमुख, 11. अयोमुख, 12. गोमुख, 13. अश्वमुख, 14. हस्तिमुख, 15. सिंहमुख, 16. व्याघ्रमुख, 17. अश्वकर्ण, 18. सिंहकर्ण, 19. अकर्ण, 20. कर्णप्रावरण, 21. उल्कामुख, 22. मेघमुख, 23. विद्युत्दंत, 24. विद्युजिह्व, 25. धनदन्त, 26. लष्ट दन्त, 27. गूढदन्त और 28. शुद्धदन्त / इन द्वीपों में रहने वाले मनुष्य भी उसी नाम से जाने जाते हैं। इन प्रान्तीपिकों का आगे के सूत्र में विस्तार से वर्णन किया जा रहा है / एकोरुक मनुष्यों के एकोएकद्वीप का वर्णन 109. कहि णं भंते ! दाहिणिल्लाणं एगोल्यमणस्साणं एगोरुयवोवे णामं दोवे पण्णत्ते ? गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स वाहिणणं चुल्ल हिमवंतस्स वासघरपव्ययस्स उत्तरपुरच्छिमिल्लाओ चरिमंताओ लवणसमुदं तिनि जोयणसयाई ओगाहित्ता एत्थ गंदाहिणिल्लाणं एगो. रुयमणुस्साणं एगोव्यदीवे णामं दीवे पण्णत्ते तिनि जोयणसयाई आयाम-विक्खंभेणं गवएगणपण्णजोयणसए किंचि विसेसेण परिक्खेवेणं एगाए पउमवरवेदियाए एगेणं च वणसंडेणं सव्वको समंता संपरिक्खिते। सा णं पउमवरवेदिया अटुनोयणाई उड्ड उच्चत्तणं पंचधणुसयाई विक्खमेणं एगोरुयदीवं समंता परिक्खेवेणं पण्णत्ता / तीसेणं पउमवरवेदियाए अयमेयारवे वण्णावासे पण्णते, तंजहा-बहरामया निम्मा एवं वेदियावण्णो जहा रायपसेणइए तहा भाणियव्यो। [106] हे भगवन् ! दक्षिण दिशा के एकोरुक मनुष्यों का एकोरुक नामक द्वीप कहाँ रहा हुमा है ? Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपप्ति : एकोएकमनुष्यों के एकोस्कद्वीप का वर्णन] [291 हे गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के मेरुपर्वत के दक्षिण में क्षुल्ल (चुल्ल) हिमवंत नामक वर्षधर पर्वत के उत्तरपूर्व के चरमान्त से लवणसमुद्र में तीन सौ योजन जाने पर दक्षिणदिशा के एकोरुक मनुष्यों का एकोरुक नामक द्वीप कहा गया है। वह द्वीप तीन सौ योजन की लम्बाई-चौड़ाई वाला तथा नौ सौ उनपचास योजन से कुछ अधिक परिधि वाला है। उसके चारों ओर एक पावरवेदिका और एक वनखंड है। वह पद्मवरवेदिका पाठ योजन ऊँची, पांच सौ धनुष चौडाई वाली और एकोरुक द्वीप को सब तरफ से घेरे हुए है। उस पद्मवरवेदिका का वर्णन इस प्रकार है, यथा-उसकी नींव वज्रमय है आदि वेदिका का वर्णन राजप्रश्नीयसूत्र की तरह कहना चाहिए। विवेचन--यहां दक्षिण दिशा के एकोरुकमनुष्यों के एकोरुक द्वीप के विषय में कथन है। एकोरुकमनष्य शिखरीपर्वत पर भी हैं किन्तु वे मेरुपर्वत के उत्तर दिशा में हैं। उनका व्यवच्छद करने के लिए यहाँ 'दक्षिणदिशा के' ऐसा विशेषण दिया गया है। दक्षिणदिशा के एकोरुकमनुष्यों का एकोरुकद्वीप कहाँ है ? यह प्रश्न का भाव है। उत्तर में कहा गया है कि इसी जंबूद्वीप नामक द्वीप के मेरुपर्वत के दक्षिण में तथा चुल्लहिमवान नामक वर्षधर पर्वत के उत्तरपूर्व (ईशानकोण) के चरमान्त से लवणसमुद्र में तीन सौ योजन आगे जाने पर दक्षिणात्य एकोरुकमनुष्यों का एकोरुकद्वीप है। वह एकोरुकद्वीप तीन सौ योजन को लम्बाई-चौड़ाई वाला और नौ सौ उनपचास योजन से कुछ अधिक परिधि वाला है / उसके आसपास चारों ओर एक पद्मवरवेदिका है, उसके चारों ओर एक वनखण्ड है / वह पद्मवरवेदिका पाठ योजन ऊँची, पांच सौ धनुष चौड़ी है। उसका वर्णन राजप्रश्नीय सत्र में किये गये पावरवेदिका के समान जानना चाहिए. जैसेकि उसकी नींव वज्ररत्नों की है, आदि-आदि / पद्मवरवेदिका और वनखण्ड का वर्णन आगे स्वयं सूत्रकार द्वारा कथित जंबूद्वीप की जगती के आगे की पद्मवरवेदिका और बनखण्ड के वर्णन के समान समझना चाहिए / अतएव यहां वह वर्णन नही दिया जा रहा है। 110. सा गं पउमवरवेइया एगेणं वणसंडेणं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ता। से णं वगरे देसूणाई दो जोयणाई चक्कवालविक्खंभेणं वेड्यासमेणं परिक्खेवेणं पण्णते। ते गं वणसरे किण्हे किण्होभासे एवं जहा रायपसेणइए वणसंडवण्णओ तहेव निरवसेसं भाणियन्वं, तणाण य वाणगंधफासो सहो वावीओ उप्पायपव्यया पुढविसिलापट्टगा य भाणियव्वा जाव एस्थ णं बहवे वाणमंतरा देवा य देवीमो य आसयंति जाव विहरति / [110] वह पद्मवरवेदिका एक वनखण्ड से सब ओर से घिरी हुई है। वह वनखण्ड कुछ कम दो योजन गोलाकार विस्तार वाला और वेदिका के तुल्य परिधि वाला है। वह वनखण्ड बहुत हरा-भरा और सघन होने से काला और कालीकान्ति वाला प्रतीत होता है, इस प्रकार राजप्रश्नीयसूत्र के अनुसार वनखण्ड का सब वर्णन जान लेना चाहिए / तृणों का वर्ण, गंध, स्पर्श, शब्द तथा बावड़ियाँ, उत्पातपर्वत, पृथ्वीशिलापट्टक प्रादि का भी वर्णन कहना चाहिए। यावत् वहाँ बहुत से वानव्यन्तर देव और देवियां उठते-बैठते हैं, यावत् सुखानुभव करते हुए विचरण करते हैं। Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 292] जीवाजीवाभिमममम एकोरुकद्वीप का वर्णन 111. [1] एगोरुयदीवस्स गंभंते ! दोवस्स केरिसए आगारभावपडोयारे पण्णते? गोयमा! एगोल्यदीवस्स गं बीवस्स अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिमागे पण्णते, से जहानामए आलिंगपुक्खरेइ वा, एवं सयणिज्जे माणियब्वे नाव पुढविसिलापट्टगंसि तस्थ णं बहवे एगोल्यवीवया मणुस्सा य मणुस्सीमो य आसयंति जाव विहरति / [111] (1) हे भगवन् ! एकोषकद्वीप की भूमि आदि का स्वरूप किस प्रकार का कहा गया है ? ___ गौतम ! एकोषकद्वीप का भीतरी भूमिभाग बहुत समतल और रमणीय कहा गया है / जैसे मुरज (मृदंग विशेष) का चर्मपुट समतल होता है वैसा समतल वहां का भूमिभाग है-आदि / इसी प्रकार शय्या की मदता भी कहनी चाहिए याबत पृथ्वीशिलापद्रक का भी वर्णन करना जाहिए। उस शिलापट्टक पर बहुत से एकोरुकद्वीप के मनुष्य और स्त्रियां उठते-बैठते हैं यावत् पूर्वकृत शुभ कर्मों के फल का अनुभव करते हुए विचरते हैं / विवेचन--प्रस्तुत सूत्र में एकोषकद्वीप की भूमिरचना का वर्णन किया गया है। वहाँ का भूमिभाग एकदम समतल है। इस समतलता को बताने के लिए विविध उपमाओं का सहारा लिया गया है / सूत्र में साक्षात् रूप से 'प्रालिंगपुक्खरेइ वा' कहा गया है जिसका अर्थ है-आलिंग अर्थात् मुरज / मुरज मृदंग का ही एक प्रकार है / पुष्कर का अर्थ है-चर्मपुटक / जैसे मुरज और मृदंग का चर्मपुट एकदम समतल होता है उसी प्रकार एकोहकद्वीप का भूमिभाग एकदम समतल और रमणीय है / यावत् शब्द से अन्य निम्न उपमाओं का ग्रहण समझना चाहिए __जैसे मृदंग का मुख चिकना और समतल होता है, जैसे पानी से लबालब भरे हुए तालाब का पानी समतल होता है, जैसे हथेली का तलिया, चन्द्रमण्डल, सूर्यमण्डल, दर्पण का तल जैसे समतल होते हैं वैसे ही वहाँ का भूमिभाग समतल है / जैसे भेड़, बैल, सूपर, सिंह, व्याघ्र, वृक (भेड़िया) और चीता इनके चर्म को बड़ी-बड़ी कीलों द्वारा खींचकर अति समतल कर दिया जाता है वैसे ही वहां का भूमिभाग अति समतल और रमणीय है। वह भूमि प्रावर्त, प्रत्यावर्त, श्रेणी, प्रश्रेणी, स्वस्तिक, सोवस्तिक, पुष्यमान, वर्द्धमान, मत्स्याण्ड, मकराण्ड, जार मार पुष्पावलि, पद्मपत्र, सागरतरंग, वासन्तीलता, पद्मलता आदि नाना प्रकार के मांगलिक रूपों की रचना से चित्रित तथा सुन्दर दृश्य वाले, सुन्दर कान्ति, सुन्दर शोभा वाले, चमकती हुई उज्ज्वल किरणों वाले और प्रकाश वाले नाना प्रकार के पांच वर्णों वाले तृणों और मणियों से उपशोभित होती रहती है / वह भूमिभाग कोमलस्पर्श वाला है। उस कोमलस्पर्श को बताने के लिए शय्या का वर्णनक कहना चाहिए। तात्पर्य यह है कि प्राजिनक (मृगचर्म), रूई, बूर (वनस्पतिविशेष), मक्खन, तूल जैसे मुलायम स्पर्श वाली वह भूमि है / वह भूमिभाग रत्नमय, स्वच्छ, चिकना, घृष्ट (घिसा हुआ), मृष्ट (मंजा हुआ), रजरहित, निर्मल, निष्पंक, कंकररहित, सप्रभ, सश्रीक, उद्योतवाला प्रसाद पैदा करनेवाला दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप है। Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति मावि वर्णन] [296 वहाँ पृथ्वी शिलापट्टक भी है जिसका वर्णन प्रोपपातिकसूत्रानुसार जान लेना चाहिए / उस शिलापट्टक पर बहुत से एकोरुकद्वीपवासी स्त्री-पुरुष उठते-बैठते हैं, लेटते हैं, आराम करते हैं और पूर्वकृत शुभकर्मों के फल को भोगते हुए विचरण करते हैं। द्रुमादि वर्णन [2] एगोश्यहोवे गं वोवे तत्य तस्य देसे तहि तहिं बहवे उद्दालका कोद्दालका कयमाला णयमाला पट्टमाला सिंगमाला संखमाला दंतमाला सेलमाला णाम दुमगणा पण्णता समणाउसो! कुसविकुसविसुक्खमूला मूलमंतो कंदमंतो जाव बीयमंतो पत्तेहि य पुप्फेहि य आछनपडिच्छण्णा सिरीए अतीव मतीव उवसोमेमाणा उक्सोमेमाणा चिट्ठति / एगोरुयवीवे गं बोवे रुक्खा बहवे हेण्यालवणा मेल्यालवणा मेरुयालवणा सेरुयालवणा साल. वणा सरलवणा सत्सवण्णवणा पूयफलिवणा खज्जूरीवणा गालिएरिवणा कुसविकुसविसुद्धरुक्खमूला आव चिट्ठति। एगोल्यदीवे णं सत्य तत्थ बहवे तिलया, लवया, नग्गोहा जाव रायरक्खा मंदिरुक्खा कुसविकुस विसुखरुक्खमूला जाव चिट्ठति / एगोव्यदीवे गं तत्थ बहूओ पउमलयाओ जाव सामलयाओ णिच्चं कुसुमियानो एवं लयावण्णो जहा उववाइए जाव पडिरूवाओ। एगोव्यदीवे णं तत्थ तत्थ बहवे सेरियागुम्मा जाव महाजाइगुम्मा, ते गं गुम्मा बसवणं कुसुमं कुसुमंति विहुयग्गसाहा जेण वायविषयग्गसाला एगोव्यदीवस्स बहुसमरमणिज्जभूमिभागं मुक्कपुप्फपुंजोवयारकलियं करेंति / __ एगोक्यदीवे गं तत्थ तत्थ बहुमो वणराईओ पण्णत्ताओ, ताओ गं वणराईओ किण्हाओ किण्होभासाओ जाव रम्मामो महामेहणिकुरंबमूयाओ जाव महती गंधर्वाण मुयंतीओ पासाईयाओ। [111] (2) हे प्रायुष्मन् श्रमण ! एकोहक नामक द्वीप में स्थान-स्थान पर यहाँ-वहाँ बहुत से उद्दालक, कोद्दालक, कृतमाल, नतमाल, नृत्यमाल, शृगमाल, शंखमाल, दंतमाल और शैलमाल नामक द्रुम (वृक्ष) कहे गये हैं / वे द्रुम कुश (दर्भ) और कांस से रहित मूल वाले हैं अर्थात् उनके आसपास दर्भ और कांस नहीं है / वे प्रशस्त मूल वाले, प्रशस्त कंद वाले यावत् प्रशस्त बीज वाले हैं और पत्रों तथा पुष्पों से आच्छन्न, प्रतिछन्न हैं अर्थात् पत्रों और फूलों से लदे हुए हैं और शोभा से अतीव-अतीव शोभायमान हैं। उस एकोरुकद्वीप में जगह-जगह बहुत से वृक्ष हैं। साथ ही हेरुतालवन,' भेरुतालवन, मेरुतालवन, सेरुतालवन, सालवन, सरलवन, सप्तपर्णवन, सुपारी के वन, खजूर के वन और नारियल के वन हैं / ये वृक्ष और वन कुश और कांस से रहित यावत् शोभा से अतीव-अतीव शोभायमान हैं। उस एगोरुकद्वीप में स्थान-स्थान पर बहुत से तिलक, लवक, न्यग्रोध यावत् राजवृक्ष, नंदिवृक्ष हैं जो दर्भ और कांस से रहित हैं यावत् श्री से प्रतीव शोभायमान हैं। 1. वृक्षों के समुदाय को धन कहते हैं / Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 394] __ [जीवाणीवाभिगमसूत्र ... उस एकोषकद्वीप में जगह-जगह बहुत सी पालताएँ यावत् श्यामलताएँ हैं जो नित्य कुसुमित रहती हैं--प्रादि लता का वर्णन औपपातिकसूत्र के अनुसार कहना चाहिए यावत् वे अत्यन्त प्रसन्नता उत्पन्न करने वाली, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप हैं। ___ उस एकोषकद्वीप में जगह-जगह बहुत से सेरिकागुल्म यावत् महाजातिगुल्म हैं / (जिनका स्कंध तो छोटा हो किन्तु शाखाएँ बड़ी-बड़ी हों और पत्र-पुष्पादि से लदे रहते हैं उन्हें गुल्म कहते हैं / ) वे गुल्म पांच वर्षों के फूलों से नित्य कुसुमित रहते हैं / उनकी शाखाएँ पवन से हिलती रहती हैं जिससे उनके फूल एकोरुकद्वीप के भूमिभाग को आच्छादित करते रहते हैं / (ऐसा प्रतीत होता है मानो ये एकोरुकद्वीप के बहुसमरमणीय भूमि भाग पर फूलों की वर्षा कर रहे हों।) एकोरुकद्वीप में स्थान-स्थान पर बहुत सी वनराजियाँ हैं / वे वनराजियाँ अत्यन्त हरी-भरी होने से काली प्रतीत होती हैं, काली ही उनकी कान्ति है यावत् वे रम्य हैं और महामेघ के समुदायरूप प्रतीत होती हैं यावत् वे बहुत ही मोहक और तृप्तिकारक सुगंध छोड़ती हैं और वे अत्यन्त प्रसन्नता पैदा करने वाली दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप हैं / (वनों को पंक्तियों को वनराजि कहते मत्तांग कल्पवृक्ष का वर्णन [3] एगोख्यदीवे तत्थ तत्य वहवे मत्तंगा णाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो! जहा से चंदप्पममणि सिलागवरसीषुपवरवाणि सुजातफलपत्तपुप्फचोयणिज्जाससारबहुदवत्तिसंभारकाल संधियासवा महुमेरगरिट्ठाभदुद्धजातीपसन्नमेल्लगसयाउ खज्जरमुद्दियासारकाविसायण सुपक्कखोयरसवरसुरा वण्णरसगंधफरिसजुत्तबलवीरियपरिणामा मज्जविहित्थबहुप्पगारा तदेवं ते मतंगया वि दुमगणा अणेगबहुविविधवीससा परिणयाए मज्जविहीए उववेया फलेहिं पुण्णा विसटेंति कुसविकुसविसुद्धरुक्खमूला जाव चिट्ठति // 1 // {111] (3) हे आयुष्मन् श्रमण ! उस एकोरुकद्वीप में स्थान-स्थान पर मत्तांग नामक कल्पवृक्ष हैं। जैसे चन्द्रप्रभा, मणि-शलाका श्रेष्ठ सीधु, प्रवरवारुणी, जातिवंत फल-पत्र-पुष्प सुगंधित द्रव्यों से निकाले हुए सारभूत रस और नाना द्रव्यों से युक्त एवं उचित काल में संयोजित करके बनाये हुए पासव, मधु, मेरक, रिष्टाभ, दुग्धतुल्यस्वाद वाली प्रसन्न, मेल्लक, शतायु, खजूर और मृद्विका (दाख) के रस, कपिश (धम) वर्ण का गुड का रस, सपक्व क्षोद (काष्ठादि चों का) रस, वरसरा आदि विविध मद्य प्रकारों में जैसे वर्ण, रस, गंध और स्पर्श तथा बलवीर्य पैदा करने वाले परिणमन होते हैं, वैसे ही वे मत्तांग वृक्ष नाना प्रकार के विविध स्वाभाविक परिणाम वाली मद्यविधि से युक्त और फलों से परिपूर्ण हैं एवं विकसित हैं / वे कुश और कांस से रहित मूल वाले तथा शोभा से अतीवअतीव शोभायमान हैं // 1 // भृतांग कल्पवृक्ष का वर्णन [4] एक्कोरएबीवे तत्थ तत्थ बहवे भियंगा णाम दुमगणा पण्णता समजाउसो! जहा से कारगघडकरगकलसकरकरिपायकंचणि-उदक-वणि-सुपतिढगपारीचसकभिंगारकरोडि सरग यरग Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततीय प्रतिपत्ति त्रुटितांग कल्पवृक्ष] 293 पत्तो थाल मल्लग चवलिय दगवारक विचित्रवट्टक मणिवट्टक सुत्तिचापोणया कंचणमणिरयणभत्तिचित्ता भायणविहिए बहुप्पगारा तहेव ते भियंगा वि दुमगणा अणेग बहुगविविहवीससा परिणमाए मायणविहीए उववेया फलेहि पुग्णा विसति कुसविकुसविसुद्धएक्खमूला जाव चिट्ठति // 2 // [111] (4) हे आयुष्मन् श्रमण ! उस एकोरुक द्वीप में जहां-तहाँ बहुत से भृत्तांग नामके कल्पवृक्ष हैं। जैसे वारक (मंगलघट), घट, करक, कलश, कर्करी (गगरी), पादकंचनिका (पांव धोमे की सोने की पात्री), उदंक (उलचना), वणि (लोटा), सुप्रतिष्ठक (फूल रखने का पात्र), पारी (घीतेल का पात्र), चषक (पानपात्र-गिलास आदि), भिंगारक (झारी), करोटि (कटोरा), शरक, थरक (पात्रविशेष), पात्री, थाली, जलभरने का घड़ा, विचित्र वर्तक (भोजनकाल में घृतादि रखने के पात्रविशेष), मणियों के वर्तक, शक्ति (चन्दनादि घिसकर रखने का छोटा पात्र) अादि बर्तन जो सोने, मणिरत्नों के बने होते हैं तथा जिन पर विचित्र प्रकार की चित्रकारी की हुई होती है वैसे ही ये मृत्तांग कल्पवृक्ष भाजनविधि में नाना प्रकार के विस्रसापरिणत भाजनों से युक्त होते हैं, फलों से परिपूर्ण और विकसित होते हैं / ये कुश-कास से रहित मूल वाले यावत् शोभा से अतीव शोभायमान होते हैं / / 2 // त्रुटितांग कल्पवृक्ष [5] एपोल्यवीवे णं वोवे तत्थ तस्थ बहवे तुडियंगा णाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो! जहा से प्रालिंग-पुयंग-पणव-पडह-दद्दरग-करहिडिडिम-भंमाहोरंभ-कणियास्वरमुहि-मुगुद-संखियपरिलीवच्चग परिवाइणिवंसावेणु-वीणा सुघोस-विवंचि महति कच्छमि रगसरा तलताल कंसताल सुसंपउत्ता आतोज्ज विहिणि उणगंधव्वसमयकुसलेहि फंदिया तिढाणसुद्धा तहेव ते तडियंगा वि दुमगणा अणेग बहुविविष वीससापरिणामाए ततविततघणसुसिराए चउम्विहाए आतोज्जविहीए उववेया फलेहि पुग्णा विसट्टति कुस-विकुस विसुद्धरक्खमूला जाव चिट्ठन्ति // 3 // [111] (5) हे आयुष्मन् श्रमण ! एकोरुकद्वीप में जहां-तहाँ बहुत सारे त्रुटितांग नामक कल्पवृक्ष हैं। जैसे मुरज, मृदंग, प्रणव (छोटा ढोल), पटह (ढोल), दर्दरक (काष्ट की चौकी पर रख कर बजाया जाने वाला तथा गोधादि के चमड़े से मढा हुआ वाद्य), करटी, डिडिम, भंभा-दुक्का, होरंभ (महाढक्का), क्वणित (वीणाविशेष), खरमुखी (काहला), मुकुंद (मृदंगविशेष), शंखिका (छोटा शंख), परिली-बच्चक (घास के तृणों को गूंथकर बनाये जाने वाले वाद्यविशेष), परिवादिनी (सात तार वाली वीणा), वंश (बांसुरी), वीणा-सुघोषा-विपंची-महती कच्छपी (ये सब वीणाओं के प्रकार हैं), रिगसका (घिसकर बजाये जाने वाला वाद्य), तलताल (हाथ से बजाई जाने वाली ताली), कांस्यताल (कांसी का वाद्य जो ताल देकर बजाया जाता है) आदि वादित्र जो सम्यक् प्रकार से बजाये जाते हैं, वाद्यकला में निपुण एवं गन्धर्वशास्त्र में कुशल व्यक्तियों द्वारा जो स्पन्दित किये जाते हैं-बजाये जाते हैं, जो प्रादि-मध्य-अवसान रूप तीन स्थानों से शुद्ध हैं, वैसे ही ये त्रुटितांग कल्पवृक्ष नाना प्रकार के स्वाभाविक परिणाम से परिणत होकर तत-वितत-घन और शुषिर रूप चार प्रकार की वाद्यविधि से युक्त होते हैं / ये फलादि से लदे होते हैं, विकसित होते हैं। ये वृक्ष कुश-विकुश से रहित . मूल वाले यावत् श्री से अत्यन्त शोभायमान होते हैं / / 3 / / Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 296] [ीवानीवाभिगमसूत्र दीपशिखा नामक कल्पवृक्ष [6] एगोल्यदीवेणं दीवे तस्य तत्व बहवे दीवसिहा णाम दुमगणा पणत्ता, समणाउसो! बहा से संसाविरागसमए नवणिहिपइणो दीविया बकवालविरे पमूय वट्टिपलिसणेहे पणि उज्जालियतिमिरमवद्दए कणगनिकर कुसुमित पालि जातय वणप्पगासे कंचनमणिरयणविमल महरिह तवभिम्जुज्जल विचित्तरंगहि बीवियाहिं सहसा पज्जलियउसवियणि तेयविप्पंतविमलगहगण समप्पहाहि वितिमिरकरसूरपसरियउल्लोय चिल्लयाहि जालज्जल पहसियाभिरामेहि सोमेमाणा तहेव ते दीवसिहा वि दुमगणा अणेग बहुविविह वोससा परिणामाए उज्जोयविहीए उववेया फलेहि पुष्णा विसट्टति कुसविकुसविसुक्खमूला जाव चिट्ठति // 4 // [111] (6) हे आयुष्मन् श्रमण ! एकोरुक द्वीप में यहां-वहाँ बहुत-से दीपशिखा नामक कल्पवृक्ष हैं। जैसे यहाँ सन्ध्या के उपरान्त समय में नवनिधिपति चक्रवर्ती के यहाँ दीपिकाएं होती हैं जिनका प्रकाशमण्डल सब ओर फैला होता है तथा जिनमें बहुत सारी बत्तियाँ और भरपूर तेल भरा होता है, जो अपने घने प्रकाश से अन्धकार का मर्दन करती हैं, जिनका प्रकाश कनकनिका (स्वर्णसमूह) जैसे प्रकाश वाले कुसुमों से युक्त पारिजात (देववृक्ष) के वन के प्रकाश जैसा होता है सोना मणिरत्न से बने हुए, विमल, बहुमूल्य या महोत्सवों पर स्थापित करने योग्य, तपनीय-स्वर्ण के समान उज्ज्वल और विचित्र जिनके दण्ड हैं, जिन दण्डों पर एक साथ प्रज्वलित, बत्ती को उकेर कर अधिक प्रकाश वाली किये जाने से जिनका तेज खूब प्रदीप्त हो रहा है तथा जो निर्मल ग्रहगणों की तरह प्रभासित हैं तथा जो अन्धकार को दूर करने वाले सूर्य की फलो हुई प्रभा जैसी चमकीली हैं, जो अपनी उज्ज्वल ज्वाला (प्रभा) से मानो हँस रही हैं--ऐसी वे दीपिकाएँ शोभित हीती हैं वैसे ही वे दीपशिखा नामक वृक्ष भी अनेक और विविध प्रकार के विस्रसा परिणाम वाली उद्योतविधि से (प्रकाशों से) युक्त हैं। वे फलों से पूर्ण हैं, विकसित हैं, कुशविकुश से विशुद्ध उनके मूल हैं यावत् वे श्री से प्रतीव प्रतीव शोभायमान हैं / / 4 / / ज्योतिशिखा नामक कल्पवृक्ष [7] एगोळ्यवीवे णं दीवे तत्थ तत्थ बहवे जोतिसिहा' णाम. दुमगणा पण्णता समणाउसो! जहा से अच्चिरुग्गय सरयसूरमंडल घडत उक्कासहस्सविप्पंत विजुज्जालहुयवहनि मजलियनित षोय तत्त तवणिज्ज किसुयासोयजवाकुसुमविमुरलिय पुंज माणिरयणकिरण जच्चहिंगलय निगर. रूबाइरेकरूवा तहेव ते जोतिसिहा वि दुमगणा अणेग बहुविविह वोससा परिणयाए उज्जोयविहीए उववेया सुहलेस्सा मंवलेस्सा मंदायवलेस्सा फडाय इव ठाणठिया अन्नमन्त्रसमोगाढाहिं लेस्साए साए पभाए सपवेसे सम्बो समंता प्रोभासेंति उज्जोर्वेति पभासेंति; कुसविकुसविसुरक्खमूला जाव चिट्ठति // 5 // [111] (7) हे आयुष्मन् श्रमण ! एकोरुक द्वीप में जहां-तहां बहुत से ज्योतिशिखा(ज्योतिष्क) नाम के काल्पवृक्ष हैं। जैसे तत्काल उदित हुप्रा शरत्कालीन सूर्यमण्डल, गिरती हुई हजार उल्काएं, 1. जोइसिया- इति पाठान्तरम् Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : चित्रांग व चित्ररस नामक कल्पवृक्ष] [297 चमकती हुई बिजली, ज्वालासहित निर्धम प्रदीप्त अग्नि, अग्नि से शुद्ध हुआ तप्त तपनीय स्वर्ण, विक. सित हुए किंशुक के फूलों, अशोकपुष्पों और जपा-पुष्पों का समूह, मणिरत्न की किरणें, श्रेष्ठ हिंगलू का समुदाय अपने-अपने वर्ण एवं प्राभारूप से तेजस्वी लगते हैं, वैसे ही वे ज्योतिशिखा (ज्योतिष्क) कल्पवृक्ष अपने बहुत प्रकार के अनेक विस्रसा परिणाम से उद्योत विधि से (प्रकाशरूप से) युक्त होते हैं / उनका प्रकाश सुखकारी है, तीक्ष्ण न होकर मंद है, उनका आताप तीव्र नहीं है, जैसे पर्वत के शिखर एक स्थान पर रहते हैं, वैसे ये अपने ही स्थान पर स्थित होते हैं, एक दूसरे से मिश्रित अपने प्रकाश द्वारा ये अपने प्रदेश में रहे हुए पदार्थों को सब तरफ से प्रकाशित करते हैं, उद्योतित करते हैं, प्रभासित करते हैं। ये कल्पवृक्ष कुश-विकुश आदि से रहित मूल वाले हैं यावत् श्री से अतीव शोभायमान हैं / / 5 / / चित्रांग नामक कल्पवृक्ष [8] एगोल्यदीवेणं दौवे तत्थ तत्थ बहवे चित्तंगा णाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो ! जहा से पेच्छाघरे विचित्ते रम्मे वरकुसुमदाममालुज्जले भासंत मुक्कपुष्फपुंजोवयारकलिए विरल्लिय विचित्तमल्लसिरिदाम मल्लसिरिसमुदयप्पगन्भे गंथिम वेढिम पूरिम संघाइमेणं मल्लेणं छेयसिप्पियं विभागरइएणं सम्वतो चेव समणुबद्धे पविरललंबंतधिप्पइट्ठोहि पंचवणेहिं कुसुमदामेहिं सोभमाणेहि सोभमाणे वणमालकयगाए चेव दिपमाणे, तहेव ते चित्तंगा वि दुमगणा अणेगबहुविविहवीससापरिणयाए मल्लविहीए उववेया कुसविकुस विसुद्धरुक्खमूला नाव चिट्ठति // 6 // [111] (8) हे आयुष्मन् श्रमण ! उस एकोरुक द्वीप में यहाँ वहाँ बहुत सारे चित्रांग नाम के कल्पवृक्ष हैं / जैसे कोई प्रेक्षाघर (नाटयशाला) नाना प्रकार के चित्रों से चित्रित, रम्य, श्रेष्ठ फूलों की मालाओं से उज्ज्वल, विकसित-प्रकाशित बिखरे हुए पुष्प-पुंजों से सुन्दर, विरल-पृथक्-पृथक् रूप से स्थापित हुई एवं विविध प्रकार की गूथी हुई मालाओं की शोभा के प्रकर्ष से अतीव मनमोहक होता है, अथित-वेष्टित-पूरित-संघातिम मालाएं जो चतुर कलाकारों द्वारा गंथी गई हैं उन्हें बड़ी ही चतुराई के साथ सजाकर सब ओर रखी जाने से जिसका सौन्दर्य बढ़ गया है, अलग अलग रूप से दूर दूर लटकती हुई पांच वर्णों वाली फूलमालाओं से जो सजाया गया हो तथा अग्रभाग में लटकाई गई वनमाला से जो दीप्तिमान हो रहा हो ऐसे-प्रेक्षागृह के समान वे चित्रांग कल्पवृक्ष भी अनेक. बहुत और विविध प्रकार के विस्रसा परिणाम से माल्यविधि (मालाओं) से युक्त हैं / वे कुश-विकुश से रहित मूल वाले यावत् श्री से अतीव सुशोभित हैं // 6 // चित्ररस नामक कल्पवृक्ष [9] एगोरुयदीवे गं दीवे! तत्थ तत्थ बहवे चित्तरसा णाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो! जहा से सुगंधवरकलमसालिविसिटुणिरुवहत दुद्धरद्धे सारयघयगुडखंडमहुमेलिए अतिरसे परमाणे होज्ज उत्तमवण्णगंधमंते, रण्णो जहा वा चक्कट्टिस्स होज्ज निउणेहिं सूयपुरिसेहिं सज्जिएहि वाउकप्पसेअसित्ते इव प्रोवणे कलमसालि णिव्वत्तिए विपक्के सवप्फमिउविसयसगलसित्थे अणेगसालणगसंजुत्ते अहवा पडिपुण्ण दव्युवरखडेसु सक्कए वणगंधरसफरिसजुत्त बलवीरिय परिणामे Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जीवाजीवाभिगमसूत्र इंदियबलपुटिवद्धणे खुष्पिवासमहणे पहाण-कुथियगुलखंडमच्छंडिघय-उवणीए पमोयगे सहसमियगम्मे हवेज्ज परमइटुंगसंजुत्ते तहेव ते चित्तरसा वि वुमगणा अणेग बहुविविहवीससापरिणयाए मोयणविहीए उक्वेया कुसविकुसविसुद्धरुक्खमूला जाव चिट्ठति // 7 // [111] (9) हे आयुष्मन् श्रमण ! उस एकोरुक द्वीप में जहां-तहाँ बहुत सारे चित्ररस नाम के कल्पवृक्ष हैं। जैसे सुगन्धित श्रेष्ठ कलम जाति के चावल और विशेष प्रकार की गाय से निसृत दोष रहित शुद्ध दूध से पकाया हुआ, शरद ऋतु के घी-गुड-शक्कर और मधु से मिश्रित अति स्वादिष्ट और उत्तम वर्ण-गंध वाला परमान्न (पायस-खीर या दूधपाक) निष्पन्न किया जाता है, अथवा जैसे चक्रवर्ती राजा के कुशल सूपकारों (रसोइयों) द्वारा निष्पादित चार उकालों से (कल्पों से) सिका हमा, कलम जाति के प्रोदन जिनका एक-एक दाना वाष्प से सीझ कर मृदु हो गया है, जिसमें अनेक प्रकार के मेवा-मसाले डाले गये हैं, इलायची आदि भरपूर सुगंधित द्रव्यों से जो संस्कारित किया गया है, जो श्रेष्ठ वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श से युक्त होकर बल-वीर्य रूप में परिणत होता है, इन्द्रियों की शक्ति को बढ़ाने वाला है, भूख-प्यास को शान्त करने वाला है, प्रधानरूप से चासनी रूप बनाये हुए गुड, शक्कर या मिश्री से युक्त किया हुआ है, गर्म किया हुआ घी डाला गया है, जिसका अन्दरूनी भाग एकदम मुलायम एवं स्निग्ध हो गया है, जो अत्यन्त प्रियकारी द्रव्यों से युक्त किया गया है, ऐसा परम आनन्ददायक परमान (कल्याण भोजन) होता है, उस प्रकार की (भोजन विधि सामग्री) से युक्त वे चित्ररस नामक कल्पवृक्ष होते हैं / उन वृक्षों में यह सामग्री नाना प्रकार के विस्रसा परिणाम से होती है / वे वृक्ष कुश-काश आदि से रहित मूल वाले और श्री से अतीव सुशोभित होते हैं // 7 // मण्यंग नामक कल्पवृक्ष [10] एगोरुयदीवे णं दोवे तत्थ तत्थ बहवे मणियंगा नाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो! जहा से हारहार बट्टणग मउड-कुडल वामुत्तग हेमजाल मणिजाल कणगजालगसुत्तग उच्चिइय कटगा खुडिय एकावलि कंठसत्त मकरिय उरत्थगेवेज्ज सोणि सुत्तग चूलामणि कणग तिलगफुल्लसिद्धस्थय कण्णवालि ससिसूर उसभ चक्कग तलभंग हुडिय हत्यमालग वलक्ख दीणारमालिया चंदसूरमालिया हरिसय केयूर वलयपालंब अंगुलेज्जग कंची मेहला कलाव पयरगपायजाल घंटिय खिखिणि रयणोरजालस्थिमिय धरणेउर चलणमालिया कणगनिगरमालिया कंचनमणि रयण भत्तिचित्ता भूसणविघी बहुपगारा तहेव ते मणियंगा वि दुमगणा प्रणेगबहुविविह वोससा परिणयाए भूसणविहीए उववेया, कुसविकुसविसुद्धरक्खमूला जाव चिट्ठति // 8 // [111] (10) हे आयुष्मन् श्रमण ! एकोषक द्वीप में यहाँ-वहाँ बहुत से मण्यंग नामक कल्पवृक्ष हैं / जिस प्रकार हार (अठारह लडियों वाला) अर्धहार (नौ लडियों वाला), वेष्टनक (कर्ण का प्राभूषण), मुकुट, कुण्डल, वामोत्तक (छिद्र-जाली वाला प्राभूषण), हेमजालमणिजाल-कनकजाल (ये कान के आभूषण हैं), सूत्रक(सोने का डोरा-उपनयन), उच्चयित कटक (उठा हुआ कड़ा या चूड़ी), मुद्रिका (अंगूठी), एकावली (मणियों की एक सूत्री माला), कण्ठसूत्र, मकराकार प्राभूषण, उरः स्कन्ध प्रैवेयक (गले का आभूषण), श्रोणीसूत्र(करधनी-कदौरा), चूडामणि (मस्तक का भूषण), सोने का तिलक Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : गेहाकार कल्पवृक्ष] [299 (टोका), पुष्प के आकार का ललाट का आभरण (बिंदिया), सिद्धार्थक (सर्षप प्रमाण सोने के दानों से बना भूषण), कर्णपाली (लटकन), चन्द्र के आकार का भूषण, सूर्य के आकार का भूषण, (ये बालों में लगाये जाने वाले पिन जैसे हैं), वृषभ के आकार के, चक्र के आकार के भूषण, तल भंगक-त्रुटिक (ये भुजा के आभूषण-भुजबंद हैं), मालाकार हस्ताभूषण, वलक्ष (गले का भूषण), दीनार की आकृति की मणिमाला, चन्द्र-सूर्यमालिका, हर्षक, केयूर, वलय, प्रालम्बनक (झूमका), अंगुलीयक (मुद्रिका) काञ्ची, मेखला, कलाप, प्रतरक, प्रातिहारिक, पाँव में पहने जाने वाले घुघरू, किंकणी (बिच्छुडी), रत्नमय कन्दोरा, नूपुर, चरणमाला, कनकनिकर माला आदि सोना-मणि-रत्न आदि की रचना से चित्रित और सुन्दर प्राभूषणों के प्रकार हैं उसी तरह वे मण्यंग वृक्ष भी नाना प्रकार के बहुत से स्वाभाविक परिणाम से परिणत होकर नाना प्रकार के भूषणों से युक्त होते हैं / वे दर्भ, कास आदि से रहित मूल वाले हैं और श्री से अतीव शोभायमान हैं / / 9 / / गेहाकार कल्पवृक्ष [11] एगोरुय दीवे णं बीवे तत्थ तत्थ बहवे गेहागारा नाम दुमगणा पण्णता समणाउसो! जहा से पागाराट्टालक चरियगोपुरपासायाकासतल मंडव एगसाल विसालगतिसालग चउरंस चउसालगम्भघर मोहणघर बलभिघर चित्तसाल मालय भत्तिघर वट्टतंस चउरंस णंदियावत्त संठियायत पंडुरतल मुंडमालहम्मियं अहव णं धवलहरबद्धमागहविम्भमसेलद्धसेल संठिय कूडागारड सुविहिकोढगअणेगघर सरणलेण आवण विडंगजाल चंदणिज्जहअपवरक दोवालि चंदसालियरूव विभत्तिकलिया भवणविही बहुविकप्पा तहेव ते गेहागारा वि दुमगणा अणेगबहुविविध वीससा परिणयाए सुहालहणे सुहोत्ताराए सुहनिक्खमणप्पसाए बद्दरसोपाणपंति कलियाए पइरिक्काए सुहविहाराए मणोणुकलाए भवणविहीए उक्वेया कुसविकुसविसुद्धरुक्खमूला जाब चिट्ठति // 9 // [111] (11) हे आयुष्मन् श्रमण ! एकोरुक द्वीप में स्थान-स्थान पर बहुत से गेहाकार नाम क कल्पवृक्ष कह गये है। जैसे-प्राकार (परकोटा) अट्टालक (अटारी) चरिका (प्राकार और शहर के बीच पाठ हाथ प्रमाण मार्ग) द्वार (दरवाजा) गोपुर (प्रधानद्वार) प्रासाद (राजमहल) प्राकाशतल (अगासी) मंडप (पाण्डाल) एक खण्ड वाले मकान, दो खण्ड वाले मकान, तीन खण्ड वाले मकान, चौकोने, चार खण्ड वाले मकान गर्भगृह (भौंहरा) मोहनगृह (शयनकक्ष) वलभिघर (छज्जा वाला घर) चित्रशाला से सज्जित प्रकोष्ठ गृह, भोजनालय, गोल, तिकोने, चौरस, नंदियावर्त आकार के गृह, पाण्डुर-तलमुण्डमाल (छत रहित शुभ्र प्रांगन वाला घर) हर्म्य (शिखररहित हवेली) अथवा धघल गृह (सफेद पुते सौध) अर्धगृह-मागधगृह-विभ्रमगृह (विशिष्ट प्रकार के गृह) पहाड़ के अर्धभाग जैसे आकार के, पहाड़ जैसे आकार के गृह, पर्वत के शिखर के आकार के गृह, सुविधिकोष्टक गृह (अच्छी तरह से बनाये हुए कोठों वाला गृह) अनेक कोठों वाला गृह, शरणगृह शयनगृह आपणगृह (दुकान) विडंग (छज्जा वाले गृह) जाली वाले घर निव्यूह (दरवाजे के आगे निकला हुआ काष्ठभाग) कमरों और द्वार वाले गृह और चाँदनी आदि से युक्त जो नाना प्रकार के भवन होते हैं, उसी प्रकार वे गेहाकार वृक्ष भी विविध प्रकार के बहुत से स्वाभाविक परिणाम से परिणत भवनों और गृहों से युक्त होते हैं / उन भवनों में सुखपूर्वक चढ़ा जा सकता है और सुखपूर्वक उतरा जा सकता है, Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 300] जीवाजीवाभिगमसूत्र उनमें सुखपूर्वक प्रवेश और निष्क्रमण हो सकता है, उन भवनों के चढ़ाव के सोपान (पंक्तियां) समीपसमीप हैं, विशाल होने से उनमें सुखरूप गमनागमन होता है और वे मन के अनुकूल होते हैं। ऐसे नाना प्रकार के भवनों से युक्त वे गेहाकार वृक्ष हैं। उनके मूल कुश-विकुश से रहित हैं और वे श्री से अतीव शोभित होते हैं / 9 / / अनग्न कल्पवृक्ष _ [12] एगोरुयदीवे णं दीवे तत्थ तत्थ बहवे अणिगणा णाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउओ ! जहा से आजिणगखोम कंबल दुगुल्ल कोसेज्ज कालमिग पट्टचीणंसुय वरणातवार वणिगयतु आभरण चित्त सहिणग कल्लाणग भिगिणीलकज्जल बहुवण्ण रत्तपीत सुविकलमक्खय मिगलोम हेमरूप्पवण्णगअवरुत्तग सिंधुओस दामिल बंगलिंग नेलिण तंतुमयमत्तिचित्ता वस्थविही बहुप्पकारा हवेज्ज वरपट्टणुग्गया वण्णरागकलिया तहेव ते अणिगणावि दुमगणा अणेग बहुविविह वीससा परिणयाए वत्थविहीए उववेया कुसविकुस विसुद्धरुक्खमूला जाव चिट्ठति // 10 // [111] (12) हे आयुष्मन् श्रमण ! उस एकोरुक द्वीप में जहां-तहाँ अनग्न नाम के कल्पवृक्ष हैं / जैसे-यहाँ नाना प्रकार के प्राजिनक-चर्मवस्त्र, क्षोम-कपास के वस्त्र, कंबल-ऊन के वस्त्र, दुकूलमुलायम बारीक वस्त्र, कोशेय-रेशमी कीड़ों से निर्मित वस्त्र, काले मृग के चर्म से बने वस्त्र, चीनांशुकचीन देश में निर्मित वस्त्र, (वरणात वारवाणिगयतु-यह पाठ अशुद्ध लगता है। नाना देश प्रसिद्ध वस्त्र का वाचक होना चाहिए / ) आभूषणों के द्वारा चित्रित वस्त्र, श्लक्ष्ण-बारीक तन्तुओं से निष्पन्न वस्त्र, कल्याणक वस्त्र (महोत्सवादि पर पहनने योग्य उत्तमोत्तम वस्त्र) भंवरी नील और काजल जैसे वर्ण के वस्त्र, रंग-बिरंगे वस्त्र, लाल-पीले सफेद रंग के वस्त्र, स्निग्ध मृगरोम के वस्त्र, सोने चांदी के तारों से बना वस्त्र, ऊपर-पश्चिम देश का बना वस्त्र, उत्तर देश का बना वस्त्र, सिन्धु-ऋषमतामिल बंग-कलिंग देशों में बना हया सूक्ष्म तन्तुमय पारीक वस्त्र, इत्यादि नाना प्रकार के वस्त्र हैं जो श्रेष्ठ नगरों में कुशल कारीगरों से बनाये जाते है, सुन्दर वर्ण-रंग वाले हैं-उसी प्रकार वे अनग्न वृक्ष भी अनेक और बहुत प्रकार के स्वाभाविक परिणाम से परिणत विविध वस्त्रों से युक्त हैं। वे वृक्ष कुशकाश से रहित मूल वाले यावत् श्री से अतीव अतीव शोभायमान हैं // 10 // एकोहक द्वीप के मनुष्यों का वर्णन [13] एगोरुयदीवे णं भंते ! दीवे मणुयाणं केरिसए आगारभावपडोयारे पण्णत्ते ? गोयमा! ते णं मणुस्सा अणुक्मतरसोमचारुरूवा, भोगुत्तमगयलक्खणा भोगसस्सिरीया सुजाय सम्वंगसुदरंगा, सुपइटिय कुम्मचारुचलणा, रत्तुप्पल पत्तमय सुकुमाल कोमलतला नगनगर सागर मगर चक्कंक वरंक लक्खणंकियचलणा अणुपुष्व सुसंहतंगुलीया उन्नत तणु तंबणिद्धणखा संठिय सुसिलिटुगूढगुप्फा एणी कुरुविंदावत्तवट्टाणुपुग्वजंघा समुग्गणिमग्गगूढजाणू गयससणसुजात सण्णिभोरू वरवारणमत्ततुल्ल विक्कम विलासियगई सुजातवरतुरग गुज्झदेसा आइण्णहओग्व णिरुवलेवा, पमुइय वर तुरियसीह अतिरेग बट्टियकडी साहयसोणिद मूसल वप्पणणिगरित वरकणगच्छरुसरिस वर वइरपलिय मज्झा, उज्जुय समसहित सुजात जच्चतणकसिणणिद्ध प्रावेज्ज लडह सुकुमाल मउय रमणि Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपक्ति : एकोरुक द्वीप के पुरुषों का वर्णन] [301 ज्जरोमराई, गंगावत्त पयाहिणायल तरंग भंगुर रविकिरण तरुण बोधित अकोसायंत पउम गंभीर वियडनामी प्रसविहग सुजात पीणकुच्छी, शसोयरा सुइकरणा पम्हवियडनामा सण्णययासा संगतपासा सुजातपासा मितमाइय पीणरायपासा प्रकरुंडय गगरुयगनिम्मल सुजाय निरुवहयदेहधारी पसस्थ बत्तीस लक्खणधरा कणगसिलातलुजल पसत्य समतलोवचिय विच्छिन्न पिहलवच्छा सिरिवच्छंकिवच्छा पुरवरफलिह वट्टिय भुजा, भुयगीसर विपुलभोग आयाण फलिह उच्छुढ दोहबाहू, जुगसन्निभ पीणरइयपीवर पउट्ठसंठिय सुसिलिट्ठ विसिट घथिर सुबद्ध निगूढ पव्वसंधी रत्ततलोवइय मउयमंसल पसत्थ लक्खण सुजाय अच्छिद्दजालपाणी, पोवरवट्टिय सुजाय कोमल वरंगुलीया तंबलिन सुचिरुइरणिद्ध णक्खा चंदपाणिलेहा सूरपाणिलेहा संखपाणिलेहा, चक्कपाणिलेहा दिसासोत्थिय पाणिलेहा चंदसूरसंख चक्कदिसासोत्थिय पाणिलेहा अणेगवर लक्खणुत्तम पसत्थरइय पाणिलेहा वरमहिस वराहसीह सद्ल उसमणागवर पडिपुन्न विउल उन्नत खंधा, चउरंगुल सुष्पमाण कंबुवर सरिसगीधा अवहित सुविमत्त सुजात चित्तमंसुमंसल संठिय पसत्थ सद्दूलविपुल हणुया, ओतविय सिलप्पवाल बिबफल सनिभाहरोट्ठा पंडुरससि सगल विमल निम्मल संखगोखोरफेण वगरय मुणालिया धवल दंतसेढी अखंडदंता अफुडियवंता अविरलता सुजातवंता एगदंतसे दिव्य अगदंता हुतवह निद्धतधोत तत्तवणिज्जरत्ततलतालुजोहा गरुलायय उज्जुतुंग गासा अवदालिय पोंडरीयनयणा कोकासितधवलपत्तलच्छा आणामिय चावरुदर किण्हन्भराइय संठिय संगय आयत सुजात तणुकसिणनिद्ध भुमया अल्लीणप्पमाणजुत्त सवणा सुस्सवणा पोणमंसल कवोलदेसभागा अचिरुग्गय बालचंवसंठिय पसत्थ विच्छिन्नसमणिडाला, उडुबइपडिपुण्णसोमवदणा छत्तागारुत्तमं गदेसा, घणनिधिय सुबद्ध लक्खणुण्णय कूडागारणिपिडियसीसे वाडिमपुष्फपगास तकणिज्जसरिस निम्मल सुजाय केसंत केसमूमी सामलिय बोंड घणाणिचिय छोडियमिउविसयपसत्थ सुहुम लक्खण सुगंध सुन्दर भुययोयग भिगिणीलकज्जल पहट्ट भमरगण णिणिकुरंब निचिय. कुचियपदाहिणावत्तमुखसिरया, लक्खणवंजणगुणोववेया सुजाय सुविभत्त सुरूवगा पासाइया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिल्वा। ते णं मणुया हंसस्सरा कोंचस्सरा नंदिघोसा सीहस्सरा सोहघोसा मंजुस्सरा मंजुघोसा सुस्सरा सुस्सरनिग्घोसा छायाउज्जोतियंगमंगा वज्जरिसभनारायसंघयणा, समचउरंससंठाणसंठिया सिणिद्धछवी णिरायंका उत्तमपसत्थ अइसेसनिरुवमतणू जल्लमलकलंक सेयरयदोस वज्जियसरीरा निरुवमलेवा अणुलोमवाउवेगा कंकरगहणी कवोतपरिणामा सउणिव्व पोसचिट्ठतरोरुपरिणया विग्गहिय उन्नयकुच्छी पउमुप्पलसरिस गंधणिस्सास सुरभिवदणा अट्ठधणुसयं ऊसिया / तेसि मणयाणं चउसद्वि पिटिकरंङगा पण्णत्ता समणाउसो ! ते णं मणुया पगइभद्दगा पगतिविणोयगा पगइउवसंता पगइपयणु कोहयाणमायालोमा मिउमद्दव संपण्णा अल्लीणा भद्दगा विणीया अप्पिच्छा असंनिहिसंचया अचंडा विडिमंतरपरिवसणा जहिच्छियकामगामिणो य ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो। Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 302] [जीवाजीवाभिगमसूत्र तेसि णं भंते ! मण्याणं केवइकालस्स आहारट्ठे समुप्पज्जइ ? गोयमा ! चउत्थमत्तस्स आहारट्टे समुप्पज्जाइ / [111] (13) हे भगवन् ! एकोरुकद्वीप में मनुष्यों का प्राकार-प्रकारादि स्वरूप कैसा है ? हे गौतम ! बे मनुष्य अनुपम सौम्य और सुन्दर रूप वाले हैं / उत्तम भोगों के सूचक लक्षणों वाले हैं, भोगजन्य शोभा से युक्त हैं। उनके अंग जन्म से ही श्रेष्ठ और सर्वांग सुन्दर हैं। उनके पांव सुप्रतिष्ठित और कछुए की तरह सुन्दर (उन्नत) हैं, उनके पांवों के तल लाल और उत्पल (कमल) के पत्ते के समान मृदु, मुलायम और कोमल हैं, उनके चरणों में पर्वत, नगर, समुद्र, मगर, चक्र, चन्द्रमा आदि के चिह्न हैं, उनके चरणों की अंगुलियाँ क्रमशः बड़ी छोटो (प्रमाणोपेत) और मिली हुई हैं, उनकी अंगुलियों के नख उन्नत (उठे हुए) पतले ताम्रवर्ण के एवं स्निग्ध (कांति वाले) हैं / उनके गुल्फ (टखने) संस्थित (प्रमाणोपेत) घने और गूढ हैं, हरिणी और कुरुविंद (तृणविशेष) की तरह उनकी पिण्डलियां क्रमश: स्थूल-स्थूलतर और गोल हैं, उनके घुटने संपुट में रखे हुए की तरह गूढ (अनुपलक्ष्य) हैं, उनकी उरू --जांधे हाथी को सूंड को तरह सुन्दर, गोल और पुष्ट हैं, श्रेष्ठ मदोन्मत्त हाथी की चाल की तरह उनकी चाल है, श्रेष्ठ घोड़े की तरह उनका गुह्यदेश सुगुप्त है, प्राकीर्णक अश्व की तरह मलमूत्रादि के लेप से रहित है, उनकी कमर यौवनप्राप्त श्रेष्ठ घोड़े और सिंह की कमर जैसी पतली और गोल है, जैसे संकुचित की गई तिपाई, मूसल दर्पण का दण्डा और शुद्ध किये हुए सोने की मूठ बीच में से पतले होते हैं उसी तरह उनकी कटि (मध्यभाग) पतली है, उनकी रोमराजि सरल-सम-सघन-सुन्दर-श्रेष्ठ, पतली, काली, स्निग्ध, प्रादेय, लावण्यमय, सुकुमार, सुकोमल और रमणीय है, उनकी नाभि गंगा के प्रावर्त की तरह दक्षिणावर्त तरंग (त्रिवली) की तरह वक्र और स र सूर्य की उगती किरणों से खिले हए कमल की तरह गंभीर और विशाल है। उनकी कुक्षि (पेट के दोनों भाग) मत्स्य और पक्षी की तरह सुन्दर और पुष्ट है, उनका पेट मछली की तरह कृश है, उनकी इन्द्रियां पवित्र हैं, इनकी नाभि कमल के समान विशाल है, इनके पार्श्वभाग नीचे नमे हुए हैं, प्रमाणोपेत हैं, सुन्दर हैं, जन्म से सुन्दर हैं, परिमित मात्रा युक्त, स्थूल और आनन्द देने वाले हैं, उनकी पीठ की हड्डी मांसल होने से अनुपलक्षित होती है, उनके शरीर कञ्चन की तरह कांति वाले निर्मल सुन्दर और निरुपहत (स्वस्थ) होते हैं, वे शुभ बत्तीस लक्षणों से युक्त होते हैं, उनका वक्ष:स्थल कञ्चन की शिलातल जैसा उज्ज्वल, प्रशस्त, समतल,पुष्ट, विस्तीर्ण और मोटा होता है, उनकी छाती पर श्रीवत्स का चिह्न अंकित होता है, उनकी भुजा नगर की अर्गला के समान लम्बी होती है, इनके बाहु शेषनाग के विपुल-लम्बे शरीर तथा उठाई हुई अर्गला के समान लम्बे होते हैं / इनके हाथों की कलाइयां (प्रकोष्ठ) जूए के समान दृढ, प्रानन्द देने वाली, पुष्ट, सुस्थित, सुश्लिष्ट (सघन), विशिष्ट, घन, स्थिर, सुबद्ध और निगूढ पर्वसन्धियों वाली हैं। उनकी हथेलियां लाल वर्ण की, पुष्ट, कोमल, मांसल, प्रशस्त लक्षणयुक्त, सुन्दर और छिद्र जाल रहित अंगुलियां वाली हैं। उनके हाथों की अंगुलियां पुष्ट, गोल, सुजात और कोमल हैं। उनके नख ताम्रवर्ण के, पतले, स्वच्छ, मनोहर और स्निग्ध होते हैं। इनके हाथों में चन्द्ररेखा, सूर्यरेखा, शंखरेखा, चक्ररेखा, दक्षिणावर्त स्वस्तिकरेखा, चन्द्र-सूर्य-शंख-चक्र-दक्षिणावर्तस्वस्तिक की मिलीजुली रेखाएं होती हैं / अनेक श्रेष्ठ, लक्षण युक्त उत्तम, प्रशस्त, स्वच्छ, आनन्दप्रद रेखाओं से युक्त उनके हाथ हैं। उनके स्कंध श्रेष्ठ भंस, Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : एकोएक द्वीप के पुरुषों का वर्णन] [303 वराह, सिंह, शार्दूल (व्याघ्र), बैल और हाथी के स्कंध की तरह प्रतिपूर्ण, विपुल और उन्नत हैं। उनकी ग्रीवा चार अंगुल प्रमाण और श्रेष्ठ शंख के समान है, उनको ठुड्ढी (होठों के नीचे का भाग) अवस्थित सदा एक समान रहने वाली, सुविभक्त-अलग-अलग सुन्दररूप से उत्पन्न दाढ़ी के बालों से युक्त, मांसल, सुन्दर संस्थान युक्त, प्रशस्त और व्याघ्र की विपुल ठुड्ढी के समान है, उनके होठ परिमित शिलाप्रवाल और बिंबफल के समान लाल हैं। उनके दांत सफेद चन्द्रमा के टुकड़ों जैसे विमल-निर्मल हैं और शंख, गाय का दूध, फेन, जलकण और मृणालिका के तंतुओं के समान सफेद हैं, उनके दांत अखण्डित होते हैं, टूटे हुए नहीं होते, अलग-अलग नहीं होते, वे सुन्दर दांत वाले हैं, उनके दांत अनेक होते हुए भी एक पंक्तिबद्ध हैं। उनकी जीभ और तालु अग्नि में तपाकर धोये गये और पुनः तप्त किये गये तपनीय स्वर्ण के समान लाल हैं। उनकी नासिका गरुड़ की नासिका जैसी लम्बी, सीधी और ऊँची होती है। उनकी आँखें सूर्यकिरणों से विकसित पुण्डरीक कमल जैसी होती हैं तथा वे खिले हुए श्वेतकमल जैसी कोनों पर लाल, बीच में काली और धवल तथा पश्मपुट वाली होती हैं। उनकी भौंहें ईषत् प्रारोपित धनुष के समान वक्र, रमणीय, कृष्ण मेघराजि की तरह काली, संगत (प्रमाणोपेत), दीर्घ, सुजात, पतली, काली और स्निग्ध होती हैं। उनके कान मस्तक के भाग तक कुछ-कुछ लगे हुए और प्रमाणोपेत हैं / वे सुन्दर कानों वाले हैं अर्थात् भलीप्रकार श्रवण करने वाले हैं। उनके कपोल (गाल) पीन और मांसल होते हैं / उनका ललाट नवीन उदित बालचन्द्र (अष्टमी के चांद) जैसा प्रशस्त, विस्तीर्ण और समतल होता है / उनका मुख पूर्णिमा के चन्द्रमा जैसा सौम्य होता है / उनका मस्तक छत्राकार और उत्तम होता है। उनका सिर धन-निबिड-सुबद्ध, प्रशस्त लक्षणों वाला, कुटाकार (पर्वतशिखर) की तरह उन्नत और पाषाण की पिण्डी की तरह गोल और मजबूत होता है। उनकी खोपड़ी की चमड़ी (केशान्तभूमि) दाडिम के फूल की तरह लाल, तपनीय सोने के समान निर्मल और सुन्दर होती है। उनके मस्तक के बाल खुले किये जाने पर भी शाल्मलि के फल की तरह घने और निविड होते हैं / वे बाल मृदु, निर्मल, प्रशस्त, सूक्ष्म, लक्षणयुक्त, सुगंधित, सुन्दर, भुजभोजक (रत्नविशेष), नीलमणि (मरकतमणि), भंवरी, नील और काजल के समान काले, हर्षित भ्रमरों के समान अत्यन्त काले, स्निग्ध और निचित-जमे हुए होते हैं, वे धुंघराले और दक्षिणावर्त होते हैं। वे मनुष्य लक्षण, व्यंजन और गुणों से युक्त होते हैं। वे सुन्दर और सुविभक्त स्वरूप वाले होते हैं। वे प्रसन्नता पैदा करने वाले, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप होते हैं। ये मनुष्य हंस जैसे स्वर वाले, क्रौंच जैसे स्वर वाले, नंदी (बारह वाद्यों का समिश्रित स्वर) जैसे घोष करने वाले, सिंह के समान स्वर वाले और गर्जना करने वाले, मधुर स्वर वाले, मधुर घोष वाले, सुस्वर वाले, सुस्वर और सुघोष वाले, अंग-अंग में कान्ति वाले, वज्रऋषभनाराचसंहनन वाले, समचतुरस्रसंस्थान वाले, स्निग्धछवि वाले, रोगादि रहित, उत्तम प्रशस्त अतिशययुक्त और निरुपम शरीर वाले, स्वेद (पसीना) आदि मैल के कलंक से रहित और स्वेद-रज आदि दोषों से रहित शरीर वाले, उपलेप से रहित, अनुकूल वायु वेग वाले, कंक पक्षी की तरह निर्लेप गुदाभाग वाले, कबूतर की तरह सब पचा लेने वाले, पक्षी की तरह मलोत्सर्ग के लेप से रहित अपानदेश वाले, सुन्दर पृष्टभाग, उदर और जंघा वाले, उन्नत और मुष्टिग्राह्य कुक्षि वाले और पद्मकमल और उत्पलकमल जैसी सुगंधयुक्त श्वासोच्छ्वास से सुगंधित मुख वाले वे मनुष्य हैं। Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 304] [जीवाजीवाभिगमसूत्र __उनकी ऊँचाई पाठ सौ धनुष की होती है / हे आयुष्मन् श्रमण ! उन मनुष्यों के चौसठ पृष्ठकरंडक (पसलियां) हैं। वे मनुष्य स्वभाव से भद्र, स्वभाव से विनीत, स्वभाव से शान्त, स्वभाव से अल्प क्रोध-मान-माया, लोभ वाले, मृदुता और मार्दव से सम्पन्न होते हैं, अल्लोन (संयत चेष्टा वाले) हैं, भद्र, विनीत, अल्प इच्छा वाले, संचय-संग्रह न करने वाले, क्रूर परिणामों से रहित, वृक्षों की शाखाओं के अन्दर रहने वाले तथा इच्छानुसार विचरण करने वाले वे एकोहकद्वीप के मनुष्य हैं। हे भगवन् ! उन मनुष्यों को कितने काल के अन्तर से आहार की अभिलाषा होती है ? हे गौतम ! उन मनुष्यों को चतुर्थभक्त अर्थात् एक दिन छोड़कर दूसरे दिन आहार की अभिलाषा होती है। एकोरुकस्त्रियों का वर्णन [14] एगोरुयमणुई गं भंते ! केरिसए आगारभावपडोयारे पण्णते? गोयमा ! ताओ गं मणुईओ सुजायसवंगसुबरीनो पहाणमहिलागुणेहि जुत्ता अच्चत विसप्पमाण पउम सुमाल कुम्मसंठिय विसिट्ठ चलणाओ उज्जुमिउय पीवर निरंतर पुट्ट सोहियंगुलीआ उन्नयरइद तलिणतंबसुइणिद्धणखा रोमरहित वट्टलट्ठ संठियअजहण्ण पसत्थ लक्खण अकोप्पजंघयुगला सुम्मिय सुगूढजाणुमंडलसुबद्धसंघो कलिक्खंभातिरेग संठियणिव्वण सुकुमाल मउयकोमल अविरल समसहितसुजात वट्ट पीवरणिरंतरोरू अट्ठावयवीचिपट्टसंठिय पसत्थ विच्छिन्न पिलसोणी वदणायामप्पमाणदुगुणित विसाल मंसल सुबद्ध जहणवरधारणीओ वज्जविराइयपसत्थलक्षणगिरोदरा तिलि बलियतणुणमिय मज्झिमाओ उज्जुय समसंहित जच्चतणु कसिण णिद्धावेज्ज लडह सुविभत्त सुजात कंतसोभंत रुइल रमणिज्जरोमराई गंगावत्त पदाहिणावस्त तरंग भंगुररविकिरण तरुणबोधित अकोसायंत पउमवणगंभीरवियडनाभी अणुभाडपसत्थ पीणकुच्छी सण्णयपासा संगयपासा सुजातपासा मितमाइयपीण रइयपासा अकरंडय कणगल्यग निम्मल सुजाय गिरवहय गायलट्ठी कंचणकलससमपमाण समसंहितसुजात लट्ठ चुचुय आमेलग जमल जुगल वट्टिय अग्भण्णयरहयसंठिय पयोधराओ भुयंगणुपुवतणुयगोपुच्छ वट्ट समसंहिय णमिय आएज्ज ललिय बाहाओ तंबणहा मंसलग्नहत्था पीवरकोमल वरंगुलीओ णिद्धपाणिलेहा रविससि संख चक्कसोस्थिय सुविभत्त सुविरइय पाणिलेहा पोगुण्णय कक्खवस्थिदेसा पडिपुण्णगल्लकवोला चउरंगुलप्पमाण कंबुवर सरिसगोवा मंसलसंठिय पसस्थ हणुया दाडिमपुप्फप्पगास पोवरकुचियवराघरा सुबरोत्तरोटा वषिवगरय चंदकुद वासंतिमउल अच्छिद्दविमलदसणा रत्तप्पल पत्तमय सुकुमाल तालुपीहा कणयवरमुउल अकुडिल प्रभुग्गय उज्जुगनासा सारदनवकमलकुमुदकुवलय विमुक्कदल णिगर सरिस लक्खण अंकियकतणयणा पत्तल चवलायंततं बलोयणाओ आणामिय चावरुइलकिण्हाभराइसंठिय संगत आयय सुजाय कसिण गिद्धभमुया अल्लोण. पमाणजुत्तसवणा पीणमट्टरमणिज्ज गंडलेहा चउरंस पसत्थसमणिडाला कोमुइरयणिकरविमल Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नुतीय प्रतिपत्ति: एकोषक द्वीप के पुरुषों का वर्णन] [305 पडिपुग्नसोमवयणा छत्तन्नयउत्तिमंगा कुडिलसुसिणिद्ध वीहसिरया, छत्तज्झयजुगथूभवामिणि६.कमंडलुकलसवाविसोस्थियपडागजवमच्छकुम्भरहवरमकरसुकथालअंकुसट्टावइवीइसुपइ टकमयूरसिरिदामाभिसेयतोरणमेइणिउदधिवरभवणगिरिवरआयंसललियगयउसमसोहचमरउत्तमपसस्थबत्तीसलक्षण घराओ, हंससरिसगईओ कोइलमधुरगिरसुस्सराओ, कंता सव्वस्स अणुनयाओ, बबगतवलिपलिया, वंगदुग्दण्णवाहिदोभागसोगमुक्काओ उच्चत्तेणं य नराण थोवूणमूसियाओ समावसिंगारागारचारवेसा संगयगतहसितभाणियचेदियविलासंसलावणिउणजुत्तो क्यारकुसला सुवरथणजहणवदणकरचलणनयणमाला वण्णलावण्णजोवणविलासकलिया नंवणवण विवरचारिणीउव्व अच्छराओ अच्छेरगपेच्छणिज्जा पासाईयाओ वरिसणिज्जाओ अभिरुवाओ पडिरूवाओ। तासि णं भंते ! मणुईणि केवइकालस्स आहारठे समुप्पज्जा ? गोयमा ! चउत्थभत्तस्स प्राहारट्टे समुप्पज्जइ / [111] (14) हे भगवन् ! इस एकोरुक-द्वीप की स्त्रियों का आकार-प्रकार-भाव कैसा कहा गया है ? गौतम ! वे स्त्रियां श्रेष्ठ अवयवों द्वारा सर्वांगसुन्दर हैं, महिलाओं के श्रेष्ठ गुणों से युक्त हैं। उनके चरण अत्यन्त विकसित पद्मकमल की तरह सुकोमल और कछुए की तरह उन्नत होने से सुन्दर आकार के हैं। उनके पांवों की अंगुलियां सीधी, कोमल, स्थूल, निरन्तर, पुष्ट और मिली हुई हैं। उनके नख उन्नत, रति देने वाले, तलिन-पतले, ताम्र जैसे रक्त, स्वच्छ एवं स्निग्ध हैं / उनकी पिण्डलियां रोम रहित, गोल, सुन्दर, संस्थित, उत्कृष्ट शुभलक्षणवाली और प्रीतिकर होती हैं। उनके घुटने सुनिमित, सुगूढ और सुबद्धसंधि वाले हैं, उनकी जंघाएं कदली के स्तम्भ से भी अधिक सुन्दर, व्रणादि रहित, सुकोमल, मृदु, कोमल, पास-पास, समान प्रमाणवाली, मिली हुई, सुजात, गोल, मोटी एवं निरन्तर हैं, उनका नितम्बभाग अष्टापद धूत के पट्ट के आकार का, शुभ, विस्तीर्ण और मोटा है, (बारह अंगूल) मुखप्रमाण से दूना चोवीस अंगवप्रमाण. विशाल. मांसल एवं सबद्ध उनका जघनप्रदेश है, उनका पेट वज्र की तरह सुशोभित, शुभ लक्षणों वाला और पतला होता है, उनकी कमर त्रिवली से युक्त, पतली और लचीली होती है, उनकी रोमराजि सरल, सम, मिली हुई, जन्मजात पतली, काली, स्निग्ध, सुहावनी, सुन्दर, सुविभक्त, सुजात (जन्मदोषरहित), कांत, शोभायुक्त, रुचिर और रमणीय होती है। उनकी नाभि गंगा के प्रावर्त की तरह दक्षिणावर्त, तरंग भंगुर (त्रिवलि से विभक्त) सूर्य की किरणों से ताजे विकसित हुए कमल की तरह गंभीर और विशाल है। उनकी कुक्षि उग्रता रहित, प्रशस्त और स्थूल है। उनके पार्श्व कुछ झुके हुए हैं, प्रमाणोपेत हैं, सुन्दर हैं, जन्मजात सुन्दर त्रायुक्त स्थूल और आनन्द देने वाले हैं। उनका शरीर इतना मांसल होता है कि उसमें पीठ की हड्डी और पसलियां दिखाई नहीं देती। उनका शरीर सोने जैसी कान्तिवाला, निर्मल, जन्मजात सुन्दर और ज्वरादि उपद्रवों से रहित होता है। उनके पयोधर (स्तन) सोने के कलश के समान प्रमाणोपेत, दोनों (स्तन) बराबर मिले हुए, सुजात और सुन्दर हैं, उनके चचुक उन स्तनों पर मुकुट के समान लगते हैं। उनके दोनों स्तन एक साथ उत्पन्न होते हैं और एक साथ द्धिगत होते हैं। वे गोल उन्नत (उठे हुए) और प्राकार-प्रकार से प्रीतिकारी होते हैं। उनकी दोनों बाह Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ीवानीवाभिगमसूत्र भुजंग की तरह क्रमशः नीचे की ओर पतली गोपुच्छ की तरह गोल, आपस में समान, अपनी-अपनी संधियों से सटी हुई, नम्र और अति प्रादेय तथा सुन्दर होती हैं। उनके नख ताम्रवर्ण के होते हैं / इनका पंजा मांसल होता है, उनकी अंगुलियां पुष्ट कोमल और श्रेष्ठ होती हैं। उनके हाथ की रेखायें स्निग्ध होती हैं / उनके हाथ में सूर्य, चंद्र, शंख-चक्र-स्वस्तिक की अलग-अलग और सुविरचित रेखाएँ होती हैं। उनके कक्ष और वस्ति (नाभि के नीचे का भाग) पीन और उन्नत होता है / उनके गाल-कपोल भरे-भरे होते हैं, उनकी गर्दन चार अंगुल प्रमाण और श्रेष्ठ शंख की तरह होती है। उनकी ठुड्डो मांसल, सुन्दर प्राकार की तथा शुभ होती है। उनका नीचे का होठ दाडिम के फूल की तरह लाल और प्रकाशमान, पुष्ट और कुछ-कुछ बलित होने से अच्छा लगता है। उनका ऊपर का होठ सुन्दर होता है। उनके दांत दही, जलकण, चन्द्र, कंद, वासंतीकली के समान सफेद और छेदविहीन होते हैं, उनका तालु और जोभ लाल कमल के पत्ते के समान लाल, मृदु और कोमल होते हैं। उनकी नाक कनेर की कली की तरह सीधी, उन्नत, ऋजु और तीखी होती है। उनके नेत्र शरदऋतु के कमल और चन्द्रविकासी नीलकमल के विमुक्त पत्रदल के समान कुछ श्वेत, कुछ लाल और कुछ कालिमा लिये हुए और बीच में काली पुतलियों से अंकित होने से सुन्दर लगते हैं। उनके लोचन पश्मपुटयुक्त, चंचल, कान तक लम्बे और ईषत् रक्त (ताम्रवत्) होते हैं। उनकी भौंहें कुछ नमे हुए धनुष की तरह टेढ़ी, सुन्दर, काली और मेघराजि के समान प्रमाणोपेत, लम्बी, सुजात, काली और स्निग्ध होती हैं। उनके कान मस्तक से कुछ लगे हुए और प्रमाणयुक्त होते हैं / उनको गंडलेखा (गाल और कान के बीच का भाग) मांसल, चिकनी और रमणीय होती है। उनका ललाट चौरस, प्रशस्त और समतल होता है, उनका मुख कार्तिकपूर्णिमा के चन्द्रमा की तरह निर्मल और परिपूर्ण होता है। उनका मस्तक छत्र के समान उन्नत होता है। उनके बाल धुंघराले स्निग्ध और लम्बे होते हैं / वे निम्नांकित बत्तीस लक्षणों को धारण करने वाली हैं 1 छत्र, 2 ध्वज, 3 युग (जुआ), 4 स्तूप, 5 दामिनी (पुष्पमाला), 6 कमण्डलु, 7 कलश, 8 वापी (बावड़ी), 9 स्वस्तिक, 10 पताका, 11 यव, 12 मत्स्य, 13 कुम्भ, 14 श्रेष्ठरथ, 15 मकर, 16 शुकस्थाल (तोते को चुगाने का पात्र), 17 अंकुश, 18 अष्टापदवीचिद्यूतफलक, 19 सुप्रतिष्ठक स्थापनक, 20 मयूर, 21 श्रोदाम (मालाकार आभरण), 22 अभिषेक-लक्ष्मी का अभिषेक करते हुए हाथियों का चिह्न, 23 तोरण, 24 मेदिनीपति-राजा, 25 समुद्र, 26 भवन, 27 प्रासाद, 28 दर्पण, 29 मनोज्ञ हाथी, 30 बैल, 31 सिंह और 32 चमर / वे एकोरुक द्वीप की स्त्रियां हंस के समान चाल वाली हैं। कोयल के समान मधुर वाणी और स्वर वाली, कमनीय और सबको प्रिय लगने वाली होती हैं। उनके शरीर में झुरिया नहीं पड़ती और बाल सफेद नहीं होते। वे व्यंग्य (विकृति), वर्णविकार, व्याधि, दौर्भाग्य और शोक से मुक्त होती हैं। वे ऊँचाई में पुरुषों की अपेक्षा कुछ कम ऊँची होती हैं / वे स्वाभाविक शृगार और श्रेष्ठ वेश वाली होती हैं। वे सुन्दर चाल, हास, बोलचाल, चेष्टा, विलास, संलाप में चतुर तथा योग्य उपचार-व्यवहार में कुशल होती हैं / उनके स्तन, जघन, मुख, हाथ, पाँव और नेत्र बहुत सुन्दर होते हैं। वे सुन्दर वर्ण बाली, लावण्य वाली, यौवन वाली और विलासयुक्त होती हैं। नंदनवन में विचरण करने वाली अप्सराओं को तरह वे आश्चर्य से दर्शनीय हैं / वे स्त्रियां देखने पर प्रसन्नता उत्पन्न करती हैं, वे दर्शनीय हैं, अभिरूप हैं और प्रतिरूप हैं। Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति :एकोहक द्वीप के पुरुषों का वर्णम] [307 हे भगवन् ! उन स्त्रियों को कितने काल के अन्तर से प्राहार की अभिलाषा होती है ? गौतम ! चतुर्थभक्त अर्थात् एक दिन छोड़कर दूसरे दिन आहार की इच्छा होती है। 111. (15) ते णं भंते ! मण्या किमाहारमाहारेति ? गोयमा ! पुढविपुप्फफलाहारा ते मणयगणा पण्णत्ता, समणाउसो! तोसे णं भंते ! पुढवीए केरिसए आसाए पण्णत्ते ? गोयमा ! से जहाणामए गुलेइ वा खंडेइ वा सक्कराइ वा मच्छंडियाइ वा मिसकंदेह वा पप्पडमोयएइ वा, पुष्फउत्तराइ वा, पउमउत्तराइ वा, अकोसियाइ वा, विजयाइ वा, महाविजयाइवा, पायंसोबमाइ था, अणोवमाइ वा, चाउरक्के गोखोरे चउठाणपरिणए गुडखंडमच्छडि उवणीए मंदग्गिकडीए वणेणं उववेए जाव फासेणं, भवेयारूवे सिया ? जो इणठे समठे। तीसे णं पुढवीए एत्तो इट्टयराए चेव मणामतराए चेव आसाए णं पण्णत्ते / तेसिं गं पुप्फफलाणं केरिसए आसाए पण्णते? गोयमा ! से जहानामए चाउरंतचक्कट्टिस्स कल्लाणे पवरभोयणे सयसहस्सनिष्फन्ने वणे उववेते गंघेणं उववेते रसेण उववेते फासेणं उववेते आसाइणिज्जे वीसाइणिज्जे दीवणिज्जे विहणिज्जे बप्पणिज्जे मयणिज्जे सम्विवियगायपल्हाणिज्जे भवेयारुवे सिया? णो तिण? सम? / तेसि णं पुष्फफलाणं एसो इदुतराए चेव जाव आस्साए गं पण्णते। ते णं भंते ! मण्या तमाहारमाहारित्ता कहिं वसहि उवेंति ? गोयमा ! रुक्खगेहालया णं ते मणयगणा पग्णसा समणाउसो! ते णं भंते ! रुक्खा सिंठिया पण्णता? गोयमा ! कागारसंठिया पेच्छाघरसंठिया, छत्तागारसंठिया सयसंठिया यूमसंठिया तोरणसंठिया गोपुरवेइयवोपालगसंठिया, अट्टालकसंठिया पासासंठिया हम्मतलसंठिया गवक्खसंठिया वाल्लमपोइयसंठिया वलभिसंठिया अण्णे तत्थ बहवे वरमवणसयणासणविसिद्ध संठाणसंठिया सुहसीयलच्छाया गं ते उमगणा पण्णता समजाउसो! [111] (15) हे भगवन् ! वे मनुष्य कसा आहार करते हैं ? हे आयुष्मन् श्रमण ! वे मनुष्य पृथ्वी, पुष्प और फलों का प्राहार करते हैं / हे भगवन् ! उस पृथ्वी का स्वाद कैसा है ? गौतम ! जैसे गुड, खांड, शक्कर, मिश्री, कमलकन्द पर्पटमोदक, पुष्पविशेष से बनी शक्कर, कमलविशेष से बनी शक्कर, अकोशिता, विजया, महाविजया, आदर्शोपमा अनोपमा (ये मधुर द्रव्य विशेष हैं) का स्वाद होता है वैसा उस मिट्टी का स्वाद है / अथवा' चार बार परिणत एवं चतुःस्थान 1. पौण्ड इक्षु चरने वाली चार गायों का दूध तीन गायों को पिलाना, तीन गायों का दूध दो गायों को पिलाना, उन दो गायों का दूध एक गाय को पिलाना, उसका जो दूध है वह चार बार परिणत और चतु:स्थानक परिणत कहलाता है। Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 308] [जीवाजीवाभिगमसूत्र परिणत गाय का दूध जो गुड, शक्कर, मिश्री मिलाया हुया, मंदाग्नि पर पकाया गया तथा शुभवर्ण, शुभगंध, शुभरस और शुभस्पर्श से युक्त हो, ऐसे गोक्षीर जैसा वह स्वाद होता है क्या ? गौतम ! यह बात समर्थित नहीं है। उस पृथ्वी का स्वाद इससे भी अधिक इष्टतर यावत् मनोज्ञतर होता है / हे भगवन् ! वहां के पुष्पों और फलों का स्वाद कैसा होता है ? गौतम ! जैसे चातुरंतचक्रवर्ती का भोजन जो कल्याणभोजन के नाम से प्रसिद्ध है, जो लाख गायों से निष्पन्न होता है, जो श्रेष्ठ वर्ण से, गंध से, रस से और स्पर्श से युक्त है, प्रास्वादन के योग्य है, पुन: पुन: प्रास्वादन योग्य है, जो दीपनीय (जठराग्निवर्धक) है, वहणीय (धातुवृद्धिकारक) है, दर्पणीय (उत्साह प्रादि बढ़ाने वाला) है, मदनीय (मस्ती पैदा करने वाला) है और जो समस्त इन्द्रियों को और शरीर को आनन्ददायक होता है, क्या ऐसा उन पुष्पों और फलों का स्वाद है ? गौतम ! यह बात ठीक नहीं है। उन पुष्प-फलों का स्वाद उससे भी अधिक इष्टतर, कान्ततर, प्रियतर, मनोज्ञतर और मनामतर होता है। हे भगवन् ! उक्त प्रकार के आहार का उपभोग करके वे कैसे निवासों में रहते हैं ? आयुष्मन् गौतम ! वे मनुष्य गेहाकार परिणत वृक्षों में रहते हैं / भगवन् ! उन वृक्षों का प्राकार कैसा होता है ? गौतम ! वे पर्वत के शिखर के आकार के, नाट्यशाला के आकार के, छत्र के प्राकार के, ध्वजा के आकार के, स्तूप के आकार के, तोरण के आकार के, गोपुर जैसे, वेदिका जैसे, चोप्याल (मत्तहाथी) के आकार के, अट्टालिका के जैसे, राजमहल जैसे, हवेली जैसे, गवाक्ष जैसे, जल-प्रासाद जैसे, वल्लभी, (छज्जावाले घर) के आकार के हैं तथा हे आयुष्मन् श्रमण ! और भी वहाँ वृक्ष हैं जो विविध भवनों, शयनों, प्रासनों आदि के विशिष्ट प्राकारवाले और सुखरूप शीतल छाया वाले हैं। 111. (16) अस्थि णं भंते ! एगोरुयदीवे दोवे गेहाणि वा गेहावणाणि वा ? जो तिणठे समझें / रुक्खगेहालया णं ते मणुयगणा पण्णत्ता, समणाउसो ! अस्थि णं भंते / एगोरुयदीवे दीवे गामाइ वा नगराइ वा जाव सन्निवेसाइ वा ? णो तिणठे समझें / जहिच्छिय कामगामिणो ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो! अत्थि णं भंते ! एगोरुयदीवे दीवे असीइ वा मसीइ वा कसीइ वा पणीइ वा वणिज्जाइ वा ? नो तिणठे समझें / ववगयअसिमसिकिसिपणियवाणिज्जा णं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो। 1. पुण्ड जाति के इक्षु को चरने वाली एक लाख गायों का दूध पचास हजार गायों को पिलाया जाय, उन पचास हजार गायों का दूध पच्चीस हजार गायों को पिलाया जाय, इस तरह से आधी-प्राधी गायों को पिलाने के क्रम से वैसे दूध को पी हुई गायों में की अन्तिम गाय का जो दूध हो, उस दूध से बनाई हुई खीर जिसमें विविध मेवे आदि द्रव्य डाले गये हों वह चक्रवर्ती का कल्याणभोजन कहलाता है। Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : एकोशक द्वीप के पुरुषों का वर्णनः ] [309 अस्थि णं भंते ! एगोश्य वीवे दीवे हिरण्णेइ वा सुवण्णेह वा कसे इवा दूसेइ वा मणीइ वा मुत्तिएइ वा विपुलषणकणगरयणमणिमोत्तियसंखसिलप्पवालसंतसारसावएज्वेह वा ? हंता अस्थि, णो चेव गं तेसि मणयाणं तिब्वे ममत्तभावे समुप्पज्जति / अस्थि णं भंते ! एगोरयदीवे राया इ वा, जुवरायाइ वा ईसरे इ वा तलवरे इ वा माइंबिया इ वा कोडुबिया इ वा इम्भा इ वा सेट्ठी इ वा सेणावई इ वा सस्थवाहा इ था ? णो तिणठे समझें। ववगतइढिसक्कारा गं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो। अस्थि णं भंते ! एगोत्यदीवे दीवे दासाइ वा पेसाइ वा सिस्साह वा भयगाइ वा भाइल्लगाइ वा कम्मगरपुरिसा इ वा? तो तिणठे समठे / ववगयआभिमोगिया गं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो ! अस्थि णं भंते ! एगोरुयदीवे दीवे माया इ वा पिया इ वा भाया इ वा भइणी इ वा भज्जाइ वा पुत्ताइ वा धूयाइ वा सुण्हाइ या ? हंता मत्थि / नो चेव णं तेसि मणुयाणं तिब्वे पेमबंधो समुप्पज्जति, पयणुपेज्जबंधणा गं ते मण्यगणा पण्णता समणाउसो ! अस्थि णं भंते ! एगोरुयदीवे अरीइ वा वेरिएइ वा घायकाइ वा बहकाइ वा पतिणीयाइ वा पच्चमित्ताइ वा ? णो तिणठे समझे। ववमतवेराणुबंधा णं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो। अस्थि णं भंते ! एगोरुए दीवे मित्ताइ वा वयंसाइ वा घडियाइ वा सहोइ वा सुहियाइ वा महाभागाइ वा संगइयाइ वा / णो तिण? समढे / ववगयपेम्मा ते मणुयगणा पण्णता समणाउसो ! अस्थि णं भंते ! एगोरुय दीवे आबाहाइ वा विवाहाइ वा जग्णाइ वा सड्ढाइ वा थालिपाका वा चोलोवणयणाइ वा, सीमंतण्णयणाई वा पिइपिंडनिवेयणाइ वा ? णो तिणठे समठे / ववगताबाहविवाहजण्णसङ्कथालिपागचोलोवणयणसीमंतुण्णयण' पिपिडनिवेदणा णं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो! अस्थि णं भंते ! एगोरुयदीवे दोवे इंदमहाइ वा खंदमहाइ वा रुद्दमहाइ वा सिवमहाइ वा बेसमणमहाइ वा मुगुंदमहाइ वा णागमहाइ वा जक्खमहाइ वा भूयमहाइ वा कूवमहाइ वा तलायणईमहा इ वा वहमहाइ वा पम्वयमहाइ वा रुक्खरोवणमहाइ वा चेइयमहाइ वा थम्ममहा इवा? गो तिणठे समठे / वयगय महमहिमा गं ते मणुयगणा पण्णसा समणाउसो ! 1. मयपिंड। 2. मयपिंड Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 310] जीवाजीवाभिगमसूत्र ____ अत्यि गं भंते ! एगोरुयवीवे दीवे गंडपेच्छाइ वा गडपेच्छाइ वा नस्लपेच्छाइ वा मल्लपेच्छाइ वा मुट्टियवेच्छाइ वा विवगपेच्छाइ वा कहनपेच्छाइ वा पवगपेच्छाइ वा अक्खायगपेच्छाइ वा लासगपेच्छाइ वा लखपेच्छा इ वा मंखपेच्छा इवा, तूणइल्लपेच्छा इ वा तुंबवीणापेच्छाइया कावडवेच्छाइ वा मागहपेच्छाइ वा? णो तिणठे समठे / ववगयकोउहल्ला गं ते मण्यगणा पण्णत्ता समणाउसो। अस्थि गं भंते ! एगोरुय दोवे सगडाइ वा रहाइ वा जाणाइ वा जुग्गाइ वा गिल्ली इवा थिल्लोइ वा पिल्लोह वा पवहणाणि वा सिवियाइ वा संदमाणियाई वा ? जो तिणठे समझें ! पादचारविहारिणो गं ते मणयगणा पण्णत्ता समणाउसो। अस्थि णं भंते ! एगोव्यदीवे आसा इ वा हत्थी ति वा उट्टाइ वा गोणा वा महिसाइ वा सराइ वा घोडाइ वा अजाइ वा एला इ वा ? हंता अस्थि / नो चेव गंतेसि मणयाणं परिमोगलाए हन्धमागच्छति / अस्थि गं भंते ! एगोल्यदीवे दीवे सीहाइवा, बग्घाइ वा विगाइ वा बीवियाइ वा अच्छाइ वा परस्साइ वा तरच्छाइ वा विडालाइ वा सियालाइवा सुणगाइवा कोलसुणगाइ वा कोकंतियाइ वा ससगाइ वा चित्तलाइ वा चिलल्लगाइ वा ? हंता अस्थि / नो चेव णं ते अण्णमण्णस्स तेसि वा मणुयाणं किं चि आवाहं वा पवाहं वा उप्पायति वा छविच्छेदं वा करेंति, पगइभद्दका गं ते सावयगणा पण्णत्ता समणाउसो! अस्थि गं भंते ! एगोरुय दीवे वीवे सालोह वा वोहीइ वा गोषमाइ वा जवाइ वा तिलाइ वा इक्युत्ति वा? हंता अस्थि / नो चेव णं तेसि मणुयाणं परिमोगलाए हव्यमागच्छति / अस्थि णं भंते ! एगोरुय दीवे बोवे गसाइ वा दरीइ वा घंसाइ वा भिगूह वा उवाए इवा विसमे इवा, विज्जले इ वा धूलोइया रेणू इ वा पंके इवा चलणी इ वा ? जो तिणठे समठे। एगोरुय दोवे गं दीवे बहुसमरमणिज्जे मूमिभागे पण्णते समणाउसो! अस्थि गं भंते ! एगोरुय दोवे बोवे खाणूइ वा कंटएइ वा होरएइ वा सक्कराइ वा तणकयवराइ वा पत्तकयवरा इ वा असुईइ वा पूतियाइ वा दुम्भिगंधाइ वा अचोक्खाइ वा ? णो तिणठे समठे / ववगयखाणुकंटकहीरसक्करतणकयवरपत्तकयवरप्रसुइपूइदुग्भिगंधमचोक्ले णं एगोरुयदीवे पण्णते समणाउसो! अस्थि गं भंते ! एगोरुय दीवे बोवे साइ वा मसगाइ वा पिसुयाइ वा जयाइ वा लिक्खाइ वा ढंकुणाइ वा? णो तिण→ समठे / वबगयवंसमसगपिसुयजूयलिवखळकुणे णं एगोरुय बोवे पण्णत्ते समणाउसो। Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . तृतीन प्रतिपत्ति : एकोलक द्वीप के पुरुषों का वर्णन] [311 अस्थि णं भंते ! एगोरुय दोवे बोबे अहीइ वा, अयगराइ वा महोरगाइ वा ? हंता अस्थि / जो चेव णं ते अन्नमन्नस्स तेसि वा मणुयाणं किंचि आबाहं.वा पबाहं वा छविच्छेयं वा करेंति / पगइमद्दगा णं ते वालगगणा पण्णत्ता समगाउसो! अस्थि णं भंते ! एगोरुय वीवे गहदंडाइ वा गहमुसलाइ वा गहगज्जियाइ वा गहजुखाइ वा महसंघाडगाइ वा गहअवसधाइ वा अग्भाइ वा अम्मरुक्खाइ वा संझाइ वा गंधवणगराइ वा गज्जियाइ वा विज्जुयाइ वा उपकापाताइ वा दिसादाहाइ वा निग्यायाइ वा पंसुविट्ठीइ वा जुवगाइ वा जक्खालित्ताइ वा धूमियाइ वा महियाइ वा रउग्धायाइ वा चंवोवरागाइ वा सूरोवरागाइ वा चंदपरिवेसाइ वा सूरपरिवेसाइ वा पडिचंदाइ वा पडिसूराइ वा इवषणइ वा उदगमच्छाइ वा अमोहाइ वा कविहसियाइ वा पाईणवायाइ वा पडीणवायाइ का जाय सुखवायाइ वा गामदाहाइ वा नगरदाहाइ वा जाव सण्णिवेसदाहाइ वा पाणक्खय-जणक्खय-कुलक्खयघणवखय-बसण-भूयमणारियाइ वा ? णो तिणठे समठे। अस्थि णं भंते ! एगोरुय दोवे दीवे डिबाइ वा डमराइ वा कलहाइ वा बोलाइ वा साराइ वा वेराइ वा विरुद्धरज्जाइ का? जो तिणठे समझें / ववगडिबडमरकलहबोलखारवेरविरुद्धरज्जा णं ते मणुयगया पण्णत्ता समणाउसो! अस्थि णं मंते ! एगोरुयदीवे णं वीवे महाजुद्धाइ वा महासंगामाइ वा महासस्थनिवयणाइ वा महापुरिसबाणा इ वा महारुधिरवाणा इ वा नागवाणा इ वा खेवाणा इ वा तामसवाणाइ वा? नो इणठे समठे क्वगयवेराणुबंधा णं ते मण्या पणत्ता समणाउसो! अस्थि णं भंते ! एगोरुव दोवे दीवे दुम्मूइयाइ वा कुलरोगाइ गामरोगाइ वा गररोगाइ वा मंडलरोगाइ वा सिरोवेयणाइ वा अच्छिवेयणाइ वा कण्णवेयणाइ वा णक्फवेवणाइ वा दंतवेदणाइ वा नखवेदणाइ वा कासाइ वा सासाइ वा जराइ वा वाहाइ वा कच्छूइ वा खसराइ वा कुट्ठाइ वा कुडाइ वा दगोयराइ वा अरिसाइ वा अजीरगाइ वा भगंदराइ वा इंदग्गहाइ वा खंदग्गहाइ वा कुमारग्गहाइ वा णागग्गहाइ वा जक्खग्गहाइ वा भूतग्गहाइ वा उव्वेयग्गहाइ वा घणुग्गहाइ वा एगाहियगाहाद वा वेयाहियगहियाइ बा तेयाहियगहिया वा चाउत्थगहियाइ वा हिययसूलाइ वा मत्थगसूलाइ वा पाससूलाइ वा कुच्छिसूलाइ वा जोणिसूलाइ वा गाममारोइ वा जाव सन्निवेसमारीइ वा पाणक्खय जाव वसणभूयमणारिया इ वा ? णो तिणठे समझें / ववगयरोगायंका णं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो ! अत्यि गं भंते ! एगोरुयदोवे वोवे अइवासाइ वा मंदवासाइ वा सुट्ठीइ वा मंदबुट्ठीइ वा Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 312] [जीवाजीवाभिगमसूत्र उद्दवाहाइ वा पवाहाइ वा दगुम्मेयाइ वा दगुप्पोलाइ वा गामवाहाइ वा नाव सनिवेसवाहाइ वा पाणक्खय० जाव वसणभूयमणारियाई वा ? णो तिठे समझें। ववगयदगोवद्दवा गं ते मणुयगणा पण्णता समणाउसो ! अस्थि णं भंते ! एगोरुय दोवे दीवे अयागराइ वा तंबागराइ वा सोसागराइ वा सुवण्णागराइ वा रयणागराइ वा वइरागराइ वा वसुहाराइ वा हिरण्णवासाइ वा सुवण्णवासाइ वा रयणचासाइ वा वइरवासाइ वा आभरणवासाइ वा पत्तवासाइ वा पुष्फवासाइ वा फलवासाइ वा बीयवासाइ वा मल्लवासाइ वा गंधवासाइ वा वण्णवासाइ वा चुण्णवासाइ वा खीरखुट्टीड वा रयणवट्ठीइ वा हिरणवुट्ठीइ या सुवण्णबुट्ठीइ वा तहेव जाव चुण्णवुट्ठीइ वा सुकालाइ वा दुकालाइ वा सुभिक्खाइ वा दुम्भिक्खाइ वा अप्पग्बाइ वा महग्याइ वा कयाइ वा महाविक्कयाइ वा, सम्णिहीइ वा संचयाइ वा निधीइ वा निहाणाइ वा, चिरपोराणाइ वा पहीणसामियाइ वा पहीणसेउयाइ वा पहीणगोत्तागाराई वा जाइं इमाई गामागरणगरखेडकम्बडमसंबवोणमुहपट्टणासम. संवाहसन्निवेसेसु सन्निक्खित्ताई चिट्ठति ? नो तिणठे समझें। [111] (16) हे भगवन् ! एकोरुक द्वीप में घर और मार्ग हैं क्या ? हे गौतम ! यह अर्थ समर्थित नहीं है। हे आयुष्मन् श्रमण ! वे मनुष्य गृहाकार बने हुए वृक्षों पर रहते हैं। भगवन् ! एकोरुक द्वीप में ग्राम, नगर यावत् सन्निवेश हैं ? हे आयुष्मन् श्रमण ! वहाँ ग्राम आदि नहीं हैं / वे मनुष्य इच्छानुसार गमन करने वाले हैं। भगवन् ! एकोहक द्वीप में असि-शस्त्र, मषि (लेखनादि) कृषि, पण्य (किराना आदि) और वाणिज्य-व्यापार है ? आयुष्मन् श्रमण ! ये वहां नहीं हैं। वे मनुष्य असि, मषि, कृषि-पण्य और वाणिज्य से रहित हैं। भगवन् ! एकोषक द्वीप में हिरण्य (चांदी), स्वर्ण, कांसी, वस्त्र, मणि, मोती तथा विपुल धनसोना रत्न मणि, मोती शंख, शिला प्रवाल आदि प्रधान द्रव्य हैं ? हाँ गौतम ! हैं परन्तु उन मनुष्यों को उनमें तीव्र ममत्वभाव नहीं होता है / भगवन् ! एकोरुक द्वीप में राजा, युवराज, ईश्वर (भोगिक) तलवर (राजा द्वारा दिये गये स्वर्णपद्र को धारण करने वाला अधिकारी), मांडविक (उजडी वसति का स्वामी), कोम्बिक, इभ्य (धनिक), सेठ, सेनापति, सार्थवाह (अनेक व्यापारियों के साथ देशान्तर में व्यापार करने वाला प्रमुख व्यापारी) आदि हैं क्या? आयुष्मन् श्रमण ! ये सब वहाँ नहीं हैं / वे मनुष्य ऋद्धि और सत्कार के व्यवहार से रहित हैं अर्थात् वहाँ सब बराबर हैं, विषमता नहीं है / Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : एकोक द्वीप के पुरुषों का वर्णन] [313 हे भगवन् ! एकोरुक द्वीप में दास, प्रेष्य (नौकर), शिष्य, वेतनभोगी भृत्य, भागीदार, कर्मचारी हैं क्या ? हे आयुष्मन् श्रमण ! ये सब वहां नहीं हैं / वहाँ नौकर कर्मचारी नहीं हैं। हे भगवन् ! एकोरुक द्वीप में माता, पिता, भाई, बहिन, भार्या, पुत्र, पुत्री और पुत्रक्कू हैं क्या? हां गौतम ! हैं परन्तु उनका माता-पितादि में तीव्र प्रेमबन्धन नहीं होता है। वे मनुष्य अल्परागबन्धन वाले हैं। - हे भगवन् ! एकोरुक द्वीप में अरि, वैरी, घातक, वधक, प्रत्यनीक (विरोधी), प्रत्यमित्र (पहले मित्र रहकर अमित्र हुअा व्यक्ति या दुश्मन का सहायक) हैं क्या ? हे आयुष्मन् श्रमण ! ये सब वहां नहीं हैं / वे मनुष्य वैरभाव से रहित होते हैं। हे भगवन् ! एकोहक द्वीप में मित्र, वयस्य, प्रेमी, सखा, सुहृद, महाभाग और सांगतिक (साथी) हैं क्या? हे आयुष्मन् श्रमण ! नहीं हैं / वे मनुष्य प्रेमानुबन्ध रहित हैं। हे भगवन् ! एकोरुक द्वीप में आबाह (सगाई), विवाह (परिणय), यज्ञ, श्राद्ध, स्थालीपाक (वर-वधू भोज), चोलोपनयन (शिखाधारण संस्कार), सीमन्तोन्नयन (बाल उतारने का संस्कार), पितरों को पिण्डदान प्रादि संस्कार हैं क्या ? हे आयुष्मन् श्रमण ! ये संस्कार वहां नहीं हैं। वे मनुष्य प्राबाह-विवाह, यज्ञ-श्राद्ध, भोज, चोलोपनयन सीमन्तोन्नयन पितृ-पिण्डदान प्रादि व्यवहार से रहित हैं। हे भगवन् ! एकोरुक द्वीप में इन्द्रमहोत्सव, स्कंद (कार्तिकेय) महोत्सव, रुद्र (यक्षाधिपति) महोत्सव, शिवमहोत्सव, वेश्रमण (कुबेर) महोत्सव, मुकुन्द (कृष्ण) महोत्सव, नाग, यक्ष, भूत, कूप, तालाब, नदी, द्रह (कुण्ड) पर्वत, वृक्षारोपण, चैत्य और स्तूप महोत्सव होते हैं क्या ? हे आयुष्मन् श्रमण ! वहाँ ये महोत्सव नहीं होते। वे मनुष्य महोत्सव की महिमा से रहित होते हैं। हे भगवन् ! एकोरुक द्वीप में नटों का खेल होता है, नृत्यों का प्रायोजन होता है, डोरी पर खेलने वालों का खेल होता है, कुश्तियाँ होती हैं, मुष्टिप्रहारादि का प्रदर्शन होता है, विदूषकों, कथाकारों, उछलकूद करने वालों, शुभाशुभ फल कहने वालों, रास गाने वालों, बांस पर चढ़कर नाचने वालों, चित्रफलक हाथ में लेकर मांगने वालों, तूणा (वाद्य) बजाने वालों, वीणावादकों, कावड लेकर घूमने वालों, स्तुतिपाठकों का मेला लगता है क्या ? हे आयुष्मन् श्रमण ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / वे मनुष्य कौतूहल से रहित होते हैं / हे भगवन ! एकोरुक द्वीप में गाड़ी, रथ, यान (वाहन) युग्य (गोल्लदेशप्रसिद्ध) चतुष्कोण वेदिका वाली और दो पुरुषों द्वारा उठाई जाने वाली पालकी) गिल्लो, थिल्ली, पिपिल्ली (लाटदेश Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 314] [जीवाजीवाभिगमसूत्र प्रसिद्ध सवारी विशेष) प्रवहण (नौका-जहाज), शिबिका (पालखी), स्यन्दमानिका (छोटी पालखी) आदि वाहन हैं क्या ? __ हे आयुष्मन् श्रमण ! वहाँ उक्त वाहन (सवारियाँ) नहीं हैं। वे मनुष्य पैदल चलने वाले होते हैं। हे भगवन् ! एकोरुक द्वीप में घोड़ा, हाथी, ऊँट, बैल, भैंस-भैंसा, गधा, टटू, बकरा-बकरी और भेड़ होते हैं क्या? हाँ गौतम ! होते तो हैं परन्तु उन मनुष्यों के उपभोग के लिए नहीं होते। हे भगवन् ! एकोरुक द्वीप में सिंह, व्याघ्र, भेडिया, चीता, रीछ, गेंडा, तरक्ष (तेंदुआ) बिल्ली, सियाल, कुत्ता, सूअर, लोमड़ी, खरगोश, चित्तल (चितकबरा पशुविशेष) और चिल्लक (पशुविशेष) हैं क्या? हे आयुष्मन् श्रमण ! वे पशु हैं परन्तु वे परस्पर या वहाँ के मनुष्यों को पीडा या बाधा नहीं देते हैं और उनके अवयवों का छेदन नहीं करते हैं क्योंकि वे श्वापद स्वभाव से भद्रिक होते हैं। हे भगवन् ! एकोरुक द्वीप में शालि, व्रीहि, गेहूं, जौ, तिल और इक्षु होते हैं क्या? - हाँ गौतम ! होते हैं किन्तु उन पुरुषों के उपभोग में नहीं आते। हे भगवन् ! एकोरुक द्वीप में गड्ढे, बिल, दरारें, भृगु (पर्वतशिखर आदि ऊँचे स्थान), अवपात (गिरने की संभावना वाले स्थान), विषमस्थान, कीचड, धूल, रज, पंक-कीचड़ कादव और चलनी (पांव में चिपकने वाला कीचड) आदि हैं क्या ? हे आयुष्मन् श्रमण ! वहाँ ये गड्ढे आदि नहीं है / एकोरुक द्वीप का भू-भाग बहुत समतल और रमणीय है। हे भगवन् ! एकोहक द्वीप में स्थाणु (ठंठ) काँटे, होरक (तीखी लकड़ी का टुकडा) कंकर, तृण का कचरा, पत्तों का कचरा, अशुचि, सडांध, दुर्गन्ध और अपवित्र पदार्थ हैं क्या ? हे आयुष्मन् श्रमण ! एकोरुक द्वीप में उक्त स्थाणु आदि नहीं हैं। वह द्वीप स्थाणु-कंटकहीरक, कंकर-तृणकचरा, पत्र कचरा, अशुचि, पूति, दुर्गन्ध और अपवित्रता से रहित है। हे भगवन् ! एकोरुक द्वीप में डांस, मच्छर, पिस्सू, जूं, लीख, माकण (खटमल) आदि हैं क्या ? हे आयुष्मन् श्रमण ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। वह द्वीप डांस, मच्छर, पिस्सू, जूं, लीख, खटमल से रहित है। हे भगवन् ! एकोहक द्वीप में सर्प, अजगर और महोरग हैं क्या ? हे आयुष्मन श्रमण ! वे हैं तो सही परन्तु परस्पर या वहाँ के लोगों को बाधा-पीड़ा नहीं पहुँचाते हैं, न ही काटते हैं / वे व्यालगण (सर्पादि) स्वभाव से ही भद्रिक होते हैं। __हे भगवन ! एकोरुक द्वीप में (अनिष्टसूचक) दण्डाकार ग्रहसमुदाय, मूसलाकार ग्रहसमुदाय, ग्रहों के संचार को ध्वनि, ग्रहयुद्ध (दो ग्रहों का एक स्थान पर होना) ग्रहसंघाटक (त्रिकोणाकार ग्रह Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: एकोषक द्वीप के पुरुषों का वर्णन [315 समुदाय), ग्रहापसव (ग्रहों का वक्री होना), मेघों का उत्पन्न होना, वृक्षाकार मेघों का होना, सन्ध्यालाल-नीले बादलों का परिणमन, गन्धर्वनगर (बादलों का नगरादि रूप में परिणमन), गर्जना, बिजली चमकना, उल्कापात (बिजली गिरना), दिग्दाह (किसी एक दिशा का एकदम अग्निज्वाला जैसा भयानक दिखना), निर्घात (बिजली का कड़कना), धूलि बरसना, यूपक (सन्ध्याप्रभा और चन्द्रप्रभा का मिश्रण होने पर सन्ध्या का पता न चलना), यक्षादीप्त (आकाश में अग्निसहित पिशाच का रूप दिखना), धूमिका (धुंधर), महिका (जलकणयुक्त धुंधर), रज-उद्घात (दिशाओं में धूल भर जाना), चन्द्रग्रहण, सूर्यग्रहण चन्द्र के आसपास मण्डल का होना, सूर्य के आसपास मण्डल का होना, दो चन्द्रों का दिखना, दो सूर्यों का दिखना, इन्द्रधनुष, उदकमत्स्य (इन्द्रधनुष का टुकड़ा), अमोघ (सूर्यास्त के बाद सूर्य बिम्ब, से निकलने वाली श्यामादि वर्ण वाली रेखा), कपिहसित (आकाश में होने वाला भयंकर शब्द), पूर्ववात, पश्चिमवात यावत् शुद्धवात, ग्रामदाह, नगरदाह यावत् सन्निवेशदाह, (इनसे होने वाले) प्राणियों का क्षय, जनक्षय, कुलक्षय, धनक्षय आदि दुःख और अनार्य-उत्पात आदि वहां होते हैं क्या? हे गौतम ! उक्त सब उपद्रव वहाँ नहीं होते हैं / हे भगवन् ! एकोरुक द्वीप में डिब (स्वदेश का विप्लव), डमर (अन्य देश द्वारा किया गया उपद्रव), कलह (वाग्युद्ध), आर्तनाद, मात्सर्य, वैर, विरोधीराज्य आदि हैं क्या ? हे प्रायुष्मन् श्रमण ! ये सब नहीं हैं / वे मनुष्य डिब-डमर-कलह-बोल-क्षार-वैर और विरुद्धराज्य के उपद्रवों से रहित हैं। हे भगवन् ! एकोरुक द्वीप में महायुद्ध महासंग्राम महाशस्त्रों का निपात, महापुरुषों (चक्रवर्ती-बलदेव-वासुदेव) के बाण, महारुधिरबाण, नागबाण, आकाशबाण, तामस (अन्धकार कर देने वाला) बाण आदि हैं क्या ? हे आयुष्मन् श्रमण ! ये सब वहाँ नहीं हैं। क्योंकि वहाँ के मनुष्य वैरानुबंध से रहित होते हैं, अतएव महायुद्धादि नहीं होते हैं। हे भगवन् ! एकोरुक द्वीप में दुर्भुतिक (अशिव), कुलक्रमागतरोग, ग्रामरोग, नगररोग, मंडल (जिला) रोग, शिरोवेदना, प्रांखवेदना, कानवेदना, नाकवेदना, दांतवेदना, नखवेदना, खांसी, श्वास, ज्वर, दाह, खुजली, दाद, कोढ, कुड--डमरुवात, जलोदर, अर्श (बवासीर) अजीर्ण, भगंदर, इन्द्र के प्रावेश से होने वाला रोग, स्कन्दग्रह (कार्तिकेय के आवेश से होने वाला रोग), कुमारग्रह, नागग्रह, यक्षग्रह, भूतग्रह, उद्वेगग्रह, धनुग्रह (धनुर्वात), एकान्तर ज्वर, दो दिन छोड़कर आने वाला ज्वर, तीन दिन छोड़कर आने वाला ज्वर, चार दिन छोड़कर आने वाला ज्वर, हृदयशूल, मस्तकशूल, पावशूल (पसलियों का दर्द), कुक्षिशूल, योनिशूल, ग्राममारी यावत् सन्निवेशमारी और इनसे होनेवाला प्राणों का क्षय यावत् दुःखरूप उपद्रवादि हैं क्या? _ हे आयुष्मन् श्रमण ! ये सब उपद्रव-रोगादि वहाँ नहीं हैं। वे मनुष्य सब तरह की व्याधियों से मुक्त होते हैं। हे भगवन् ! एकोरुक द्वीप में अतिवृष्टि, अल्पवृष्टि, सुवृष्टि, दुष्टि, उद्वाह (तीव्रता से जल का बहना), प्रवाह, उदकभेद (ऊँचाई से जल गिरने से खड्डे पड़ जाना), उदकपीड़ा (जल का Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 316] [जीवानीवाभिगमसूत्र ऊपर उछलना), गांव को बहा ले जाने वाली वर्षा यावत् सनिवेश को बहा ले जाने वाली वर्षा और उससे होने वाला प्राणक्षय यावत् दुःखरूप उपद्रवादि होते हैं क्या ? हे आयुष्मन् श्रमण ! ऐसा नहीं होता। वे मनुष्य जल से होने वाले उपद्रवों से रहित होते हैं। हे भगवन् ! एकोरुक द्वीप में लोहे की खान, तांबे की खान, सीसे की खान, सोने की खान, रत्नों की खान, वज्र-हीरों की खान, वसुधारा (धन की धारा), सोने की वृष्टि, चांदी की वृष्टि, रत्नों को वृष्टि,वज्रों-हीरों की वृष्टि,आभरणों की वृष्टि, पत्र-पुष्प-फल-बीज-माल्य-गन्ध-वर्ण-चूर्ण की दृष्टि, दूध की वृष्टि, रत्नों की वर्षा, हिरण्य-सुवर्ण यावत् चूर्णों की वर्षा, सुकाल, दुष्काल, सुभिक्ष, दुर्भिक्ष, सस्तापन, मंहगापन, क्रय, विक्रय, सन्निधि, संनिचय, निधि, निधान, बहुत पुराने, जिनके स्वामी नष्ट हो गये, जिनमें नया धन डालने वाला कोई न हो। जिनके गोत्री जन सब मर चुके हों ऐसे जो गांवों में, नगर में, आकर-खेट-कर्वट-मडंब-द्रोणमुख-पट्टन, आश्रम, संबाह और सनिवेशों में रखा हुमा, शृगाटक (तिकोना मार्ग), त्रिक, चतुष्क, चत्वर, चतुर्मुख महामार्गों पर, नगर की गटरों में, श्मशान में, पहाड़ की गुफाओं में, ऊँचे पर्वतों के उपस्थान और भवनगृहों में रखा हुना-गड़ा हुआ धन है क्या ? हे गौतम ! उक्त खान प्रादि और ऐसा धन वहाँ नहीं है / एकोरुक मनुष्यों की स्थिति आदि 111. [17] एगोरुयवोवे णं भंते ! दीवे मणुयाणं केवइयं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं पलिओवमस्स असंखेज्जइमागं असंखेज्जइ भागेणं अणगं, उपकोसेणं पलिओवमस्स असंखेज्जहभाग। ते णं मणुस्सा कालमासे कालं किच्चा कहिं गच्छति कहिं उववजंति ? गोयमा! ते णं मणुया छम्मासावसेसाउया मिहुणाई पसवंति, अउणासीई राइंदियाई मिहणाई सारक्खंति संगोविति य / सारक्खित्ता संगोवित्ता उस्ससित्ता निस्ससिसा कासित्ता छोइत्ता अक्किट्ठा अम्बहिया, अपरियाविया (पलिओवमस्स असंखेज्जइ भागं परियाविय) सुहंसुहेण कालमासे कालं किच्चा अन्नयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति। देवलोयपरिग्गहा गं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो! [111] (17) हे भगवन् ! एकोरुकद्वीप के मनुष्यों की स्थिति कितनी कही है ? हे गौतम ! जघन्य से असंख्यातवां भाग कम पल्योपम का असंख्यातवां भाग और उत्कर्ष से पल्योपम का असंख्यातवां भागप्रमाण स्थिति है। हे भगवन् ! वे मनुष्य कालमास में काल करकेमरकर कहाँ जाते हैं, कहाँ उत्पन्न होते हैं ? हे गौतम ! वे मनुष्य छह मास की आयु शेष रहने पर एक मिथुनक (युगलिक) को जन्म देते हैं / उन्नयासी रात्रिदिन तक उसका संरक्षण और संगोपन करते हैं। संरक्षण और संगोपन करके ऊर्ध्वश्वास लेकर या निश्वास लेकर या खांसकर या छींककर बिना किसी कष्ट के, बिना किसी दुःख Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: एकोक मनुष्यों की स्थिति आदि) के, बिना किसी परिताप के (पल्योपम का असंख्यातवां भाग आयुष्य भोगकर) सुखपूर्वक मृत्यु के अवसर पर मरकर किसी भी देवलोक में देव के रूप में उत्पन्न होते हैं। हे आयुष्मन् श्रमण ! वे मनुष्य मरकर देवलोक में ही जाते हैं / 111. (18) कहिं णं भंते ! दाहिणिल्लाणं आभासियमणुस्साणं प्राभासियदीदे णामं बोवे पणते? गोयमा ! जंबद्दीवे दीवे मंदरस्स पब्वयस्स दाहिणणं चुल्ल हिमवंतस्स वासहरपव्वयस्स दाहिणपुरच्छिमिल्लाओ चरिमंताओ लवणसमुई तिनि नोयणसयाई ओगाहित्ता एत्य गं आभासियमणस्साणं आभासियदीवे णामं दोवे पण्णत्ते, सेसं जहा एगोल्याणं णिरवसेसं सम्वं / कहि णं भंते / बाहिणिल्लाणं गंगोलिमणुस्साणं पुच्छा ? गोयमा ! जंबुद्दीवे वीवे मंदरस्स पब्वयस्स दाहिणेणं चुल्लहिमवंतस्स वासहरपग्मयस्स उत्तरपुरच्छिमिल्लामो परिमंताओ लवणसमुई तिणि जोयणसयाई प्रोगाहित्ता सेसं जहा एगोरुयमणुस्साणं / कहिं गं भंते ! वाहिणिल्लाणं वेसानियमगुस्साणं पुच्छा। गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पस्चयस्स वाहिणणं चुल्लहिमवंतस्स वासवरपव्ययस्स वाहिणपच्चथिमिल्लाओ चरिमंताओ लवणसमुई तिणि जोयणसयाई प्रोगाहित्ता सेसं जहा एगोल्याणं। [111] (18) हे भगवन् ! दक्षिण दिशा के प्राभाषिक मनुष्यों का आभाषिक नाम का द्वीप कहाँ है ? गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के मेरुपर्वत के दक्षिण में चुल्ल हिमवान् वर्षधरपर्वत के दक्षिण-पूर्व (अग्निकोण) चरमांत से लवणसमुद्र में तीन सी योजन जाने पर वहाँ प्राभाषिक मनुष्यों का आभाषिक नामक द्वीप है / शेष समस्त वक्तव्यता एकोरुक द्वीप की तरह कहनी चाहिए। हे भगवन् ! दाक्षिणात्य लांगूलिक मनुष्यों का नंगोलिक द्वीप कहाँ है ? गौतम ! जम्बद्वीप नामक द्वीप के मेरुपर्वत के दक्षिण में और चल्लहिमवन्त वर्षधर पर्वत के उत्तर पूर्व (ईशानकोण) चरमांत से लवणसमुद्र में तीन सौ योजन जाने पर वहाँ लांगूलिक मनुष्यों का लांगलिक द्वीप है। शेष वक्तव्यता एकोरुक द्वीपवत् / हे भगवन् ! दाक्षिणात्य वैषाणिक मनुष्यों का वैषाणिक द्वीप कहाँ है ? हे गौतम! जम्बूद्वीप के मेरुपर्वत के दक्षिण में और चल्लहिमवन्त वर्षधर पर्वत के दक्षिणपश्चिम (नैऋत्यकोण) के चरमांत से तीन सौ योजन जाने पर वहां वैधाणिक मनुष्यों का वैषाणिक नामक द्वीप है। शेष वक्तव्यता एकोषकद्वीप की तरह जानना चाहिए। विवेचन–अन्तरद्वीप हिमवान और शिखरी इन दो पर्वतों की लवणसमुद्र में निकली दाढाओं पर स्थित हैं / हिमवान पर्वत की दाढा पर अट्ठाईस अन्तरद्वीप हैं और शिखरीपर्वत की दाढा पर Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 318] जीवाजीवाभिगमसूत्र अट्ठाईस अन्तद्वीप हैं-यों छप्पन अन्तर्वीप हैं। हिमवान पर्वत जम्बूद्वीप में भरत और हैमवत क्षेत्रों की सीमा करने वाला है। वह पूर्व-पश्चिम के छोरों से लवणसमुद्र का स्पर्श करता है / लवणसमुद्र के जल-स्पर्श से लेकर पूर्व-पश्चिम दिशा में दो गजदन्ताकार दाढ़ें निकली हैं। उनमें से ईशानकोण में जो दाढा निकली है उस पर हिमवान पर्वत से तीन सौ योजन की दूरी पर लवणसमुद्र में 300 योजन लम्बा-चौड़ा और 949 योजन से कुछ अधिक की परिधि वाला एकोरुक नाम का द्वीप है / जो 300 धनुष विस्तृत, दो कोस ऊँची पद्मवरवेदिका से चारों ओर से मण्डित है। उसी हिमवान पर्वत के पर्यन्त भाग से दक्षिणपूर्वकोण में तीन सौ योजन दूर लवणसमुद्र में अवगाहन करते ही दूसरी दाढा पाती है जिस पर एकोरुक द्वीप जितना ही लम्बा-चौड़ा आभाषिक नामक द्वीप है। उसो हिमवान पर्वत के पश्चिम दिशा के छोर से लेकर दक्षिण-पश्चिम दिशा (नैऋत्यकोण) में तीन सौ योजन लवणसमुद्र में अवगाहन करने के बाद एक दाढ पाती है, जिस पर उसी प्रमाण का लांगूलिक नाम का द्वीप है एवं उसी हिमवान् पर्वत के पश्चिमदिशा के छोर से लेकर पश्चिमोत्तरदिशा (वायव्यकोण) में तीन सौ योजन दूर लवणसमुद्र में एक दादा पाती है, जिस पर पूर्वोक्तप्रमाणवाला वैषाणिक द्वीप पाता है। इस प्रकार ये चारों द्वीप हिमवान पर्वत से चारों विदिशाओं में हैं और समान प्रमाण वाले हैं। इनका प्राकार, भाव, प्रत्यवतार मूलपाठानुसार स्पष्ट ही है। 112. कहिं णं भंते ! दाहिणिल्लाणं यकण्णमणुस्साणं हयकण्णवोदे णाम बोवे पण्णत्ते ? गोयमा ! एगोल्यदीवस्स उत्तरपुरच्छिमिल्लानो चरिमंताओ लवणसमुदं चत्तारि जोयणसयाई ओगाहिता एत्थ णं दाहिणिल्लाणं हयकण्णमणुस्साणं हयकण्णदीवे णामं वीवे पण्णत्ते, चत्तारि जोयणसयाई आयाभविक्खंभेणं बारस जोयणसया पन्नट्टी किचिविसेसूणा परिक्खेवणं / से णं एगाए पउमववेदि याए अवसेसं जहा एगोल्याणं / कहिं गं भंते ! दाहिणिल्लाणं गजकण्णमणुस्साणं पुच्छा। गोयमा ! आभासियदीवस्स दाहिणपुरथिमिल्लाओ चरिमंताओ लवणसमुदं चत्तारि जोयणसयाई सेसं जहा हयकण्णाणं / / एवं गोकरणमणुस्साणं पुच्छा? वेसाणियवीवस्स दाहिणपच्चथिमिल्लाओ चरिमंताओ लवणसमुदं चत्तारि जोयणसयाई सेसं जहा हयकण्णाणं। सफ्कुलिकण्णाणं पुच्छा? गोयमा ! गंगोलियदोवस्स उत्तरपच्चथिमिल्लाओ चरिमंतानो लवणसमुदं चत्तारिजोयणसयाई सेसं जहा हयकण्णाणं / आयंसमुहाणं पुच्छा ? हयकण्णदोवस्स उत्तरपुरच्छिमिल्लाओ चरिमंताओ पंच जोयणसयाई प्रोगाहिता एत्य गं वाहिणिल्लाणं आयंसमुहमणुस्साणं आयंसमुहदीवे णाम दीवे पण्णत्ते / पंचजोयणसयाई आयामविक्खंभेणं; प्रासमुहाईणं छसया आसकन्नाईणं सत्त, उक्कामुहाईणं अट्ठ, घणवंताईणं जाव नव जोयणसयाई Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: एकोहक मनुष्यों की स्थिति आदि] 1311 एगोश्य परिक्खेको नव चेव सयाई अउणपन्नाई। बारसपन्नहाई हयकण्णाईणं परिक्खेवो // 1 // आयंसमुहाईणं पन्नरसेकासीए जोयणसए किंचि विसेसाहिए परिक्खेवणं; एवं एएण कमेण उवउज्जिउण यध्या चत्तारि चत्तारि एग पमाणा / जाणत्तं ओगाहे विक्खंमे परिक्खेवे पढम-बीयतइय-चउक्काणं उग्गहो विक्खंभो परिक्खेवो मणिओ। चउत्थ चउक्के छजोयणसयाई आयामविक्खंमेणं अट्ठारसससाणउए जोयणसए परिक्खेवेणं / पंचम चउक्के सत्तजोयणसयाई आयामविक्खंभेणं बावीसं तेरसोत्तरे जोयणसए परिक्खेवेणं / छट्ठ चउक्के अट्ठजोयणसयाई आयामविक्खंभेणं पणुधीसं एगुणतीस जोयणसए परिक्खेवणं / सत्तम चउक्के नवजोयणसयाई आयामविक्खमेणं दो जोयणसहस्साइं अट्ठपणयाले जोयसणए परिक्खेवेणं / जस्स य जो विक्खंभो उग्गहो तस्स तत्तिओ चेव / पढमाइयाण परिरओ जाव सेसाण अहिओ उ // 2 // सेसा जहा एगोरुयदीवस्स जाव सुद्ध दंतदीवे देवलोकपरिग्गहा गं ते मणयगणा पण्णता . समणाउसो। कहिं गं भंते ! उत्तरिल्लाणं एगोरुयमणुस्साणं एगोरुयवीवे णामं दीवे पण्णते? गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पश्वयस्स उत्तरेणं सिहरिस्स बासधरपव्वयस्स उत्तरपुरच्छिमिल्लाओ चरिमंताओ लवणसमुई तिण्णि जोयणसयाई ओगाहित्ता एवं जहा दाहिणिल्लाणं तहा उत्तरिल्लाणं भाणियध्वं / णवरं सिहरिस्स वासहरपवयस्स विविसासु; एवं जाय सुद्धदंतदोवे त्ति जाव से तं अंतरदीवगा। / [112] हे भगवन् ! दाक्षिणात्य हयकर्ण मनुष्यों का हयकर्ण नामक द्वीप कहाँ कहा गया है ? गौतम ! एकोरुक द्वीप के उत्तरपूर्वी ( ईशानकोण के) चरमान्त से लवणसमुद्र में चार सौ योजन आगे जाने पर वहाँ दाक्षिणात्य हयकर्ण मनुष्यों का हयकर्ण नामक द्वीप कहा गया है। वह चार सौ योजनप्रमाण लम्बा-चौड़ा है और बारह सौ पैंसठ योजन से कुछ अधिक उसकी परिधि है। वह एक पावरवेदिका से मण्डित है / शेष वर्णन एकोरुक द्वीप की तरह जानना चाहिए। हे भगवन् ! दाक्षिणात्य गजकर्ण मनुष्यों का गजकर्ण द्वीप कहाँ है आदि पृच्छा ? गौतम ! प्राभाषिक द्वीप के दक्षिण-पूर्वी (आग्नेयकोण के) चरमान्त से लवणसमुद्र में चार सो योजन आगे जाने पर गजकर्ण द्वीप है / शेष वर्णन हयकर्ण मनुष्यों की तरह जानना चाहिए / इसी तरह गोकर्ण मनुष्यों की पृच्छा ? गौतम ! वैषाणिक द्वीप के दक्षिण-पश्चिमी (नैऋत्यकोण के) चरमांत से लवणसमुद्र में चार सो योजन जाने पर वहाँ गोकर्णद्वीप है। शेष वर्णन ह्यकर्ण मनुष्यों की तरह जानना चाहिए। भगवन् ! शष्कुलिकर्ण मनुष्यों की पृच्छा ? Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 320] [जोवानीवाभिगमसूत्र गौतम ! लांगूलिक द्वीप के उत्तर-पश्चिमी (वायव्यकोण के) चरमान्त से लवणसमुद्र में चार सो योजन जाने पर शकुलिकर्ण नामक द्वीप है / शेष वर्णन हयकर्ण मनुष्यों की तरह जानना चाहिए। हे भगवन् ! आदर्शमुख मनुष्यों की पृच्छा ? गौतम ! हयकर्णद्वीप के उत्तरपूर्वी चरमांत से पांच सौ योजन प्रागे जाने पर वहाँ दाक्षिणात्य प्रादर्शमुख मनुष्यों का आदर्शमुख नामक द्वीप है, वह पांच सौ योजन का लम्बा-चौड़ा है। अश्वमुख प्रादि चार द्वीप छह सौ योजन आगे जाने पर, अश्वकर्ण प्रादि चार द्वीप सात सौ योजन प्रागे जाने पर, उल्कामुख आदि चार द्वीप पाठ सो योजन प्रागे जाने पर और घनदंत प्रादि चार द्वीप नौ सौ योजन आगे जाने पर वहां स्थित हैं। एकोरुक द्वीप आदि की परिधि नौ सौ उनपचास योजन से कुछ अधिक, हयकर्ण प्रादि की परिधि बारह सौ पेंसठ योजन से कुछ अधिक जाननी चाहिए // 1 // __ आदर्शमुख प्रादि की परिधि पन्द्रह सौ इक्यासी योजन से कुछ अधिक है। इस प्रकार इस क्रम से चार-चार द्वीप एक समान प्रमाण वाले हैं / अवगाहन, विष्कंभ और परिधि में अन्तर समझना चाहिए। प्रथम-द्वितीय-तृतीय-चतुष्क का अवगाहन, विष्कंभ और परिधि का कथन कर दिया गया है / चौथे चतुष्क में छह सौ योजन का प्रायाम-विष्कंभ और 1897 योजन से कुछ अधिक परिधि है / पंचम चतुष्क में सात सौ योजन का पायाम-विष्कंभ और 2213 योजन से कुछ अधिक की परिधि है। छठे चतुष्क में आठ सौ योजन का आयाम-विष्कंभ और 2529 योजन से कुछ अधिक की परिधि है / सातवें चतुष्क में नौ सो योजन का प्रायाम-विष्कंभ और 2845 योजन से कुछ विशेष की परिधि है / जिसका जो आयाम-विष्कंभ है वही उसका अवगाहन है / (प्रथम चतुष्क से द्वितीय चतुष्क की परिधि 316 योजन अधिक, इसी क्रम से 316-316 योजन की परिधि बढ़ाना चाहिए। विशेषाधिक पद सबके साथ कहना चाहिए)।। 2 / / आयुष्मन् श्रमण ! शेष वर्णन एकोरुकद्वीप की तरह शुद्धदंतद्वीप पर्यन्त समझ लेना चाहिए यावत् वे मनुष्य देवलोक में उत्पन्न होते हैं / हे भगवन् ! उत्तरदिशा के एकोरुक मनुष्यों का एकोरुक नामक द्वीप कहाँ कहा गया है ? गौतम ! जम्बूद्वीप द्वीप के मेरुपर्वत के उत्तर में शिखरी वर्षधरपर्वत के उत्तरपूर्वी चरमान्त से लवणसमुद्र में तीन सौ योजन आगे जाने पर वहाँ उत्तरदिशा के एकोरुक द्वीप के मनुष्यों का एकोरुक नामक द्वीप है-इत्यादि सब वर्णन दक्षिणदिशा के एकोरुक द्वीप की तरह जानना चाहिए, अन्तर यह है कि यहाँ शिखरी वर्षधरपर्वत की विदिशाओं में ये स्थित हैं, ऐसा कहना चाहिए / इस प्रकार शुद्धदंतद्वीप पर्यन्त कथन करना चाहिए। यह अन्तरद्वीपक मनुष्यों का वर्णन पूरा हुआ। विवेचन-एकोरुक, प्राभाषिक, लांगुलिक और वैषाणिक इन चार अन्तर्वीपों का वर्णन इसके पूर्ववर्ती सूत्र के विवेचन में किया है। इन्हीं एकोहक प्रादि चारों द्वीपों के आगे यथाक्रम से पूर्वोत्तर आदि प्रत्येक विदिशा में चार-चार सौ योजन आगे चलने पर चार-चार सौ योजन लम्बेचौड़े और कुछ अधिक 1265 योजन की परिधि वाले पूर्वोक्त पद्मवरवेदिका और वनखण्ड से सुशोभित तथा जम्बूद्वीप को वेदिका से 400 योजन प्रमाण दूर हयकर्ण, गजकर्ण, गोकर्ण और Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: एकोहक मनुष्यों की स्थिति आदि] [321 शष्कुलिकर्ण नाम के चार द्वीप हैं / एकोहक द्वीप के आगे ह्यकर्ण है, पाभाषिक के आगे गजकर्ण, वैषाणिक के आगे गोकर्ण और लांगूलिक के आगे शकुलिकर्ण द्वीप है। इसके अनन्तर इन हयकर्ण आदि चारों द्वीपों से आगे पांच-पांच सौ योजन की दूरी पर चार द्वीप हैं जो पांच-पांच सौ योजन लम्बे-चौड़े हैं और पूर्ववत् चारों विदिशाओं में स्थित हैं / इनकी परिधि विशेषाधिक 1521 योजन को है / ये पूर्वोक्त पद्मवरवेदिका तथा वनखण्ड से सुशोभित हैं / जम्बूद्वीप को वेदिका से ये 500 योजनप्रमाण अन्तर वाले हैं। इनके नाम हैं-आदर्शमुख, मेण्ढमुख, अयोमुख और गोमुख / इनमें से हयकर्ण के आगे आदर्शमुख, गजकर्ण के प्रागे मेण्ढ मुख, गोकर्ण के आगे अयोमुख और शकूलिकण के आगे गोमुखद्वीप हैं। इन आदर्शमुख आदि चारों द्वीपों के आगे छह-छह सौ योजन की दूरी पर पूर्वोत्तरादि विदिशाओं में फिर चार द्वीप हैं-प्रश्वमुख, हस्तिमुख, सिंहमुख और व्याघ्रमुख / ये चारों द्वीप छह सो योजन लम्बे-चौड़े और 1897 योजन से कुछ अधिक परिधि वाले हैं। पूर्वोक्त पद्मवरवेदिका और वनखंड से शोभित हैं / जम्बूद्वीप की वेदिका से 600 योजन की दूरी पर स्थित हैं। इन अश्वमुख प्रादि चारों द्वीपों के आगे क्रमशः पूर्वोत्तरादि विदिशाओं में 700-700 योजन की दूरी पर 700 योजन लम्बे-चौड़े और 2213 योजन से कुछ अधिक की परिधि वाले पूर्वोक्त पद्मवरवेदिका और वनखण्ड से घिरे हुए एवं जम्बूद्वीप की वेदिका से 700 योजन के अन्तर पर अश्वकर्ण, हरिकर्ण, अकर्ण और कर्णप्रावरण नाम के चार द्वीप हैं / फिर इन्हीं अश्वकर्ण आदि चार द्वीपों के आगे यथाक्रम से पूर्वोत्तरादि विदिशाओं में 800800 योजन दूर जाने पर आठ सौ योजन लम्बे-चौड़े, 2529 योजन से कुछ अधिक परिधि वाले, पद्मवरवेदिका और बनखंड से सुशोभित, जम्बूद्वीप की वेदिका से 800 योजन दूरी पर उल्कामुख, मेघमुख, विद्युन्मुख और विद्युद्दन्त नाम के चार द्वीप हैं / तदनन्तर इन्हीं उल्कामुख आदि चारों द्वीपों के आगे क्रमशः पूर्वोत्तरादि विदिशाओं में 900900 योजन की दरी पर नौ सौयोजन लम्बे-चौडे तथा 2845 योजन से कुछ अधिक परिधि वाले, पद्मवरवेदिका और वनखण्ड से परिमंडित, जम्बूद्वीप की वेदिका से 900 योजन के अन्तर पर चार द्वीप और हैं, जिनके नाम क्रमश ये हैं-घनदन्त, लष्टदन्त, गूढदन्त और शुद्धदन्त / हिमवान् पर्वत की दाढों पर चारों विदिशात्रों में स्थित ये सब द्वीप (744-28) अट्ठाईस हैं। शिखरी पर्वत की दाढों पर भी इसी प्रकार 28 अन्तरद्वोप हैं। शिखरीपर्वत की लवणसमुद्र में गई दाढों पर, लवणासमुद्र के जलस्पर्श से लेकर पूर्वोक्त दूरी पर पूर्वोक्त प्रमाण वाले, चारों विदिशाओं में स्थित एकोरुक आदि उन्हीं नामों वाले अट्ठाईस द्वीप हैं / इनकी लम्बाई-चौड़ाई, परिधि, नाम आदि सब पूर्ववत् हैं / दोनों मिलाकर छप्पन अन्तरद्वीप हैं / इन द्वोपों में रहने वाले मनुष्य अन्तरद्वीपिक मनुष्य कहे जाते हैं। यहाँ अन्तरद्वीपिका का वर्णन पूरा होता है / 113. से कि तं अकम्मभूभगमणुस्सा ? अकम्मभूमगमणुस्सा तीसविहा पण्णत्ता, तंजहा-पंचहि हेमवएहि, एवं जहा पण्णवणापवे जाव पंचर्चाहं उत्तरकुहिं से तं अकम्मभूमगा। Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 322] जीवाणीवाभिगमसूत्र से कि तं कम्ममूमगा? कम्ममूभगा पण्णरसविहा पण्णत्ता, तं जहा--पंचहि भरहेहि, पंचहि एरवरहि, पंचहि महाविवेहेहिं / ते समासो दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-आरिया मिलेच्छा, एवं जहा पग्णवणापदे जाव से तं आरिया, से तं गम्भवक्कंतिया, से तं मणुस्सा। [113] हे भगवन् ! अकर्मभूमिक मनुष्य कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! अकर्मभूमिक मनुष्य तीस प्रकार के हैं, यथा-पांच हैमवत में (पांच हैरण्यवत, पांच हरिवर्ष, पांच रम्यकवर्ष, पांच देवकुरु और पांच उत्तरकुरु क्षेत्र में) रहने वाले मनुष्य / इस प्रकार प्रज्ञापनासूत्र के अनुसार जानना चाहिए / यह तीस प्रकार के प्रकर्मभूमिक मनुष्यों का कथन हुआ / हे भगवन् ! कर्मभूमिक मनुष्यों के कितने प्रकार हैं ? गौतम ! कर्मभूमिक मनुष्य पन्द्रह प्रकार के हैं यथा--पांच भरत, पांच ऐरवत और पांच महाविदेह के मनुष्य / वे संक्षेप से दो प्रकार के हैं, यथा-आर्य और म्लेच्छ / इस प्रकार प्रज्ञापनासूत्र के अनुसार कहना चाहिए / यावत् यह पार्यों का कथन हुअा। यह गर्भव्युत्क्रान्तिकों का कथन हुप्रा और उसके साथ ही मनुष्यों का कथन भी सम्पूर्ण हुआ। अट्ठाईस अन्तरद्वीपिकों के कोष्टक (1) प्रथम चतुष्क विदिशा अवगाहन आयाम परिधि द्वीप नाम 300 योजन 300 यो. 949 यो. विशेषाधिक मेरु के दक्षिण में क्षुद्रहिमवान के उत्तरपूर्व दक्षिणपूर्व दक्षिणपश्चिम उत्तरपश्चिम एकोरुक प्राभाषिक वैषाणिक लांगलिक (2) द्वितीय चतुष्क द्वीप नाम विदिशा अवगाहन पायाम परिधि द्वीप नाम 400 यो. एकोरुक आभाषिक वैषाणिक लांगलिक उत्तर पूर्व दक्षिण पूर्व दक्षिण पश्चिम उत्तर पश्चिम 400 यो. 1265 यो. विशेषाधिक हयकर्ण गजकर्ण गोकर्ण शष्कुलकर्ण Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिवत्ति : एकोक मनुष्यों की स्थिति आदि] [323 (3) तृतीय चतुष्क द्वीपनाम विदिशा अवगाहन आयाम परिधि द्वीपनाम . 500 यो. 500 यो. 1581 यो. विशेषाधिक प्रादर्शमुख हयकर्ण गजकर्ण गोकर्ण शष्कुलीकर्ण उत्तर पूर्व दक्षिण पूर्व दक्षिण पश्चिम उत्तर पश्चिम मेण्ढ़मुख , अयोमुख गोमुख द्वीपनाम आदर्शमुख मेण्ढमुख . अयोमुख (4) चतुर्थ चतुष्क विदिशा अवगाहन आयाम परिधि द्वीपनाम उत्तर पूर्व 600 योजन 600 यो. 1897 यो. विशेषाधिक अश्वमुख दक्षिण पूर्व , हस्तिमुख दक्षिण पश्चिम सिंहमुख उत्तर पश्चिम व्याघ्रमुख गोमुख द्वीपनाम अश्वमुख हस्तिमुख सिंहमुख व्याघ्रमुख (5) पंचम चतुष्क विदिशा अवगाहन आयाम परिधि द्वीपनाम उत्तर पूर्व 700 यो. 700 यो. 2213 यो. विशेषाधिक अश्वकर्ण दक्षिण पूर्व सिंहकर्ण दक्षिण पश्चिम अकर्ण उत्तर पश्चिम कर्णप्रावरण - द्वीपनाम प्रश्वकर्ण सिंहकर्ण प्रकर्ण कर्णप्रावरण (6) षष्ठ चतुष्क विदिशा अवगाहन आयाम परिधि द्वीपमुख उत्तर पूर्व 800 यो. 800 यो. 2529 यो. विशेषाधिक उल्कामुख दक्षिण पूर्व , मेघमुख दक्षिण पश्चिम // विद्युन्मुख उत्तर पश्चिम विद्युद्दन्त Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 324] [जीवाजीवाभिगमसूत्र (7) सप्तम चतुष्क अवगाहन अायाम द्वीपनाम विदिशा परिधि द्वीपनाम 900 यो. 2845 यो. विशेषाधिक उल्कामुख मेघमुख विद्युन्मुख विद्युद्दन्त उत्तर पूर्व 900 यो. दक्षिण पूर्व दक्षिण पश्चिम / उत्तर पश्चिम , घनदन्त लष्टदन्त गूढदन्त शुद्धदन्त देववर्णन 114. से किं तं देवा? देवा चउठिवहा पण्णता, तजहा-भवणवासी वाणमंतरा जोइसिया वेमागिया। [114] देव के कितने प्रकार हैं ? देव चार प्रकार के हैं, यथा-१. भवनवासी, 2. वानव्यंतर, 3. ज्योतिष्क और 4. वैमानिक / 115. से कि तं भवणवासी? भवणवासी दसविहा पण्णता, तंजहा-असुरकुमारा जहा पण्णवणापदे देवाणं मेओ तहा भाणियव्यो जाव अणुत्तरोववाइया पंचविहा पण्णत्ता, तंजहा-विजय वेजयंत जाव सव्वट्ठसिद्धगा, से तं अणुत्तरोषवाइया। [115] भवनवासी देवों के कितने प्रकार हैं ? भवनवासी देव दस प्रकार के हैं, यथा-असुरकुमार आदि प्रज्ञापनापद में कहे हुए देवों के भेद का कथन करना चाहिए यावत् अनुत्तरोपपातिक देव पांच प्रकार के हैं, यथा-विजय, वैजयंत, जयंत, अपराजित और सर्वार्थसिद्ध / यह अनुत्तरोपपातिक देवों का कथन हुआ। 116. कहि णं भंते ! भवणवासिदेवाणं भवणा पण्णता? कहिं गं भंते ! भवणवासी देवा परिवसंति ? गोयमा ! इमीसे रयणप्पहाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए, एवं जहा पण्णवणाए जाव भवणवासइया, तत्थ णं भवणवासीणं देवाणं सत्त भवणकोडीओ वावत्तरि भवणवाससयसहस्सा भवंति तिमक्खाया। तत्थ णं बहवे भवणवासी देवा परिवसंति-असुरा नाग सुवन्ना य जहा पण्णवणाए जाव विहरति / [116] हे भगवन् ! भवनवासी देवों के भवन कहाँ कहे गये हैं ? हे भगवन् ! वे भवनवासी देव कहाँ रहते हैं ? हे गौतम ! इस एक लाख अस्सी हजार योजन की मोटाई वाली रत्नप्रभापृथ्वी के एक हजार योजन ऊपर और एक हजार योजन नीचे के भाग को छोड़कर शेष एक लाख अठहत्तर हजार योजन Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: देववर्णन] [325 प्रमाणक्षेत्र में भवनावास कहे गये हैं प्रादि वर्णन प्रज्ञापनापद के अनुसार जानना चाहिए / वहाँ भवनवासी देवों के सात करोड़ बहत्तर लाख भवनावास कहे गये हैं। उनमें बहुत से भवनवासी देव रहते हैं, यथा-असुरकुमार, नागकुमार, सुपर्णकुमार आदि वर्णन प्रज्ञापनासूत्र के अनुसार कहना चाहिए यावत् दिव्य भोगों का उपभोग करते हुए विचरते हैं / 117. कहिं णं भंते ! असुरकुमाराणं देवाणं भवणा पण्णता? पुच्छा? एवं जहा पण्णवणाठाणपदे जाव विहरति / कति गं भंते ! दाहिणिल्लाणं असुरकुमारदेवाणं भवणा पुच्छा ? एवं जहा ठाणपदे जाव चमरे, तत्थ असुरकुमारिदे परिवसइ जाव विहरइ / _ [117] हे भगवन् ! असुरकुमार देवों के भवन कहाँ कहे गये हैं ? ___ गौतम ! जैसा प्रज्ञापना के स्थानपद में कहा गया है, वैसा ही कथन यहाँ समझना चाहिए यावत् दिव्य-भोगों को भोगते हुए वे विचरण करते हैं / हे भगवन् ! दक्षिण दिशा के असुरकुमार देवों के भवनों के संबंध में प्रश्न है ? गौतम ! जैसा स्थानपद में कहा, वैसा कथन यहां कर लेना चाहिए यावत् असुरकुमारों का इन्द्र चमर वहां दिव्य भोगों का उपभोग करता हुआ विचरता है। विवेचन—देवाधिकार का प्रारम्भ करते हुए देवों के 4 भेद बताये गये हैं---भवनवासी, वानव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक / तदनन्तर इनके अवान्तर भेदों के विषय में प्रज्ञापना के प्रथमपद के अनुसार कहने की सूचना दी गई है / प्रज्ञापना में वे भेद इस प्रकार कहे हैं भवनपति के 10 भेद हैं-१. असुरकुमार, 2. नागकुमार, 3. सुपर्णकुमार, 4. विद्युत्कुमार, 5. अग्निकुमार, 6. द्वीपकुमार, 7. उदधिकुमार, 8. दिशाकुमार, 9. पवनकुमार और 10. स्तनितकुमार / इन दस के पर्याप्तक और अपर्याप्तक के भेद से 20 भेद हुए। वानन्यन्तर के 8 भेद हैं-१. किन्नर, 2. किंपुरुष, 3. महोरग, 4. गंधर्व, 5. यक्ष, 6. राक्षस, 7. भूत, 8. पिशाच / इनके पर्याप्तक और अपर्याप्तक भेद से 16 भेद हुए। ज्योतिष्क के पांच प्रकार हैं- 1. चन्द्र, 1. सूर्य, 3. ग्रह, 4. नक्षत्र और 5. तारे। इनके पर्याप्तक और अपर्याप्तक / वैमानिक देव दो प्रकार के हैं---१. कल्पोपपन्न और 2. कल्पातीत / कल्पोपपन्न 12 प्रकार के हैं--१. सौधर्म, 2. ईशान, 3. सनत्कुमार, 4. माहेन्द्र, 5. ब्रह्मलोक, 6. लान्तक, 7. महाशुक्र, 6. सहस्रार, 9. अानत, 10. प्राणत, 11. प्रारण और 12 अच्युत / कल्पातीत दो प्रकार के हैं-वेयक और अनुत्तरोपपातिक / अवेयक के 9 भेद हैं१.अधस्तनाधस्तन, 2. अधस्तनमध्यम, 3. अधस्तनउपरितन, 4. मध्यमअधस्तन, 5. मध्यम-मध्यम, 6. मध्यमोपरितन, 7. उपरिम-अधस्तन, 8. उपरिम-मध्यम और 9. उपरितनपरितन / अनुत्तरोपपातिक पांच प्रकार के हैं---१. विजय, 2. वैजयंत, 3. जयन्त, 4. अपराजित और सर्वार्थसिद्ध / Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 326] [जीवाजीवामिगमसूत्र उपर्युक्त सब वैमानिकों के पर्याप्तक और अपर्याप्तक के रूप में दो-दो भेद हैं / उक्त रीति से भेदकथन के पश्चात् भवनवासी देवों के भवनों और उनके निवासों को लेकर प्रश्न किये गये हैं। इसके उत्तर में कहा गया है कि हम जिस पृथ्वी पर रहते हैं उस रत्नप्रभापृथ्वी का बाहल्य (मोटाई) एक लाख अस्सी हजार योजन का है / उसके एक हजार योजन के ऊपरी भाग को और एक हजार योजन के अघोवर्ती भाग को छोड़कर एक लाख अठहत्तर हजार योजन जितने भाग में भवनवासी देवों के 7 करोड़ और 72 लाख भवनावास हैं। दस प्रकार के भवनवासी देवों के भवनावासों की संख्या अलग-अलग इस प्रकार है 1. असुरकुमार के 64 लाख 2. नागकुमार के 84 लाख 3. सुपर्णकुमार के 72 लाख 4. विद्युतकुमार के 76 लाख 5. अग्निकुमार के 76 लाख 6. द्वीपकुमार के 76 लाख 7. उदधिकुमार के 76 लाख 8. दिक्कुमार के 76 लाख 9. पवनकुमार के 96 लाख 10. स्तनितकुमार के 76 लाख कुल मिलाकर भवनवासियों के सात करोड बहत्तर लाख भवनावास कहे गये हैं। वे भवन बाहर से गोल और भीतर से समचौरस तथा नीचे कमल की कणिका के आकार के हैं। उन भवनों के चारों ओर गहरी और विस्तीर्ण खाइयां और परिखाएँ खुदी हुई हैं, जिनका अन्तर स्पष्ट प्रतीत होता है / यथास्थान परकोटों, अटारियों, कपाटों, तोरणों और प्रतिद्वारों से वे सुशोभित हैं। वे भवन विविध यन्त्रों, शतनियों(महाशिलाओं या महायष्टियों, मूसलों, मुसंडियों आदि शस्त्रों से वेष्टित हैं / वे शत्रुओं द्वारा अयुध्य (युद्ध न करने योग्य) सदा जयशील, सदा सुरक्षित एवं अडतालीस कोठों से रचित, अडतालीस वनमालाओं में सुसज्जित, क्षेममय, शिवमय, किंकर देवों के दण्डों से उपरक्षित हैं। लोपने और पोतने से वे प्रशस्त हैं। उन पर गोशीर्षचन्दन और सरस रक्तचन्दन से पांचों अंगुलियों के छापे लगे हुए हैं। यथास्थान चंदन के कलश रखे हुए हैं। उनके तोरण प्रतिद्वार देश के भाग चंदन के घड़ों से सुशोभित होते हैं / वे भवन ऊपर से नीचे तक लटकती हुई लम्बी, विपुल एवं गोलाकार मालाओं से युक्त हैं तथा पंचरंग के ताजे सरस सुगंधित पुष्पों के उपचार से युक्त होते हैं। वे काले अगर, श्रेष्ठ चीड, लोबान तथा धूप की महकती हुई सुगंध से रमणीय, उत्तम सुगंधित होने से गंधबट्टी के समान लगते हैं। वे अप्सरागण के संघातों से व्याप्त, दिव्य वाद्यों के शब्दों से भली-भांति शब्दायमान, सर्वरत्नमय, स्वच्छ, स्निग्ध, कोमल, घिसे हुए, पौंछे हुए, रज से रहित, निर्मल, निष्पंक, प्रावरणरहित कान्ति वाले, प्रभायुक्त, श्रीसम्पन्न, किरणों से युक्त, उद्योत (शीतल प्रकाश) युक्त, प्रसन्न करने वाले, दर्शनीय, अभिरूप (अतिरमणीय) और प्रतिरूप (सुरूप) हैं। Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपपत्ति: देव वर्णन] [327 इन भवनों में पूर्वोक्त बहुत से भवनवासी देव रहते हैं। उन भवनवासी देवों की दस जातियां हैं-असुरकुमार यावत् स्तनितकुमार / उन दसों जातियों के देवों के मुकुट या प्राभूषणों में अंकित चिह्न क्रमशः इस प्रकार हैं 1. चूडामणि, 2. नाग का फन, 3. गरुड, 4. वज्र, 5. पूर्णकलश से अंकित मुकुट, 6. सिंह, 7. मकर, 8. होस्ति का चिह्न, 9. श्रेष्ठ अश्व और 10. वद्ध मानक (सिकोरा)। वे भवनवासी देव उक्त चिह्नों से अंकित, सुरूप, महद्धिक, महाद्युति वाले, महान् बलशाली, महायशस्वी, महान् अनुभाग (प्रभाव) व अति सुख वाले, हार से सुशोभित वक्षःस्थल वाले, कड़ों और बाजू बंदों से स्तम्भित भुजा वाले, कपोलों को छूने वाले कुण्डल अंगद, तथा कर्णपीठ के धारक, हाथों में विचित्र (नानारूप) प्राभूषण वाले, विचित्र पुष्पमाला और मस्तक पर मुकूट धारण किये हए, कल्याणकारी उत्तम वस्त्र पहने हुए, कल्याणकारी श्रेष्ठ माला और अनुलेपन के धारक, दैदीप्यमान शरीर वाले, लम्बी वनमाला के धारक तथा दिव्य वर्ण से, दिव्य गंध से, दिव्य स्पर्श से, दिव्य संहनन (शक्ति) से, दिव्य प्राकृति से, दिव्य ऋद्धि से, दिव्य द्यति से, दिव्य प्रभा से, दिव्य छाया (शोभा) से, दिव्य अचि (ज्योति) से, दिव्य तेज से एवं दिव्य लेश्या से दसों दिशाओं को प्रकाशित करते हुए, सुशोभित करते हुए वे अपने वहां अपने-अपने भवनावासों का, अपने-अपने हजारों सामानिक देवों का, अपने-अपने प्रायस्त्रिश देवों का, अपने-अपने लोकपालों का, अपनी-अपनो अग्रमहिषियों का, अपनी-अपनी परिषदाओं का, अपने-अपने सैन्यों (अनीकों) का, अपने-अपने सेनाधिपतियों का, अपने-अपने प्रात्मरक्षक देवों का तथा अन्य बहुत से भवनवासी देवों और देवियों का आधिपत्य, पौरोहित्य (महानता), आश्विरत्व (प्राज्ञा पालन कराने का प्रभुत्व) एवं सेनापतित्व आदि करतेकराते हुए तथा पालन करते-कराते हुए अहत (अव्याहत-व्याघात रहित) नृत्य, गीत, वादित्र, तंत्री, तल, ताल, त्रुटित (वाद्य) और धनमृदंग बजाने से उत्पन्न महाध्वनि के साथ दिव्य एवं उपभोग्य भोगों को भोगते हुए विचरते हैं / ___ सामान्यतया भवनवासी देवों के प्रावास-निवास सम्बन्धी प्रश्नोत्तर के बाद विशेष विवक्षा में असुरकुमारों के आवास-निवास सम्बन्धी प्रश्न किया गया है / इसके उत्तर में कहा गया है कि रत्नप्रभापृथ्वी के ऊपर व नीचे के एक-एक हजार योजन छोड़कर शेष एक लाख अठहत्तर हजार योजन के देशभाग में असुरकुमार देवों के चौसठ लाख भवनावास हैं। वे भवन बाहर से गोल, अन्दर से चौरस, नीचे से कमल को कणिका के प्राकार के हैं-आदि भवनावासों का वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए / उन भवनावासों में बहुत से असुरकुमार देव रहते हैं जो काले, लोहिताक्ष रत्न तथा बिम्बफल के समान अोठों वाले, श्वेत पुष्पों के समान दांत बाले, काले केशों वाले, बाएँ एक कुण्डल के धारक, गीले चन्दन से लिप्त शरीरवाले, शिलिन्ध्र-पुष्प के समान किंचित् रक्त तथा संक्लेश उत्पन्न न करने वाले सूक्ष्म अतीव उत्तम वस्त्र पहने हुए, प्रथम (कुमार) वय को पार किये हुए और द्वितीय वय को अप्राप्त-भद्रयौवन में वर्तमान होते हैं। वे तलभंगक (भुजा का भूषण) त्रुटित (बाहुरक्षक) एवं अन्यान्य श्रेष्ठ आभूषणों से जटित निर्मल मणियों तथा रत्नों से मण्डित भुजाओं वाले, दस मुद्रिकाओं से सुशोभित अंगुलियों वाले, चूडामणि चिह्न वाले, सुरूप, महद्धिक महाद्युतिमान, महायशस्वी, महाप्रभावयुक्त, महासुखी, हार से सुशोभित वक्षःस्थल वाले आदि पूर्ववत् वर्णन यावत् दिव्य एवं उपभोग्य भोगों का उपभोग करते हुए विचरते हैं / Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 328] [जीवाजीवाभिगमसूत्र इन्हीं स्थानों में दो असुरकुमारों के राजा चमरेन्द्र और बलीन्द्र निवास करते हैं। वे काले, महानील के समान, नील की गोली, गवल (भैसे का सींग), अलसी के फूल के समान रंगवाले, विकसित कमल के समान निर्मल, कहीं श्वेत-रक्त एवं ताम्र वर्ण के नेत्रों वाले, गरुड़ के समान ऊँची नाक वाले, पुष्ट या तेजस्वी मूंगा तथा बिम्बफल के समान अधरोष्ठ वाले, श्वेत विमल चन्द्रखण्ड, जमे हुए दही, शंख, गाय के दूध, कुन्द, जलकण और मृणालिका के समान धवल दंतपंक्ति वाले, अग्नि में तपाये और धोये हुए सोने के समान लाल तलवों, तालु तथा जिह्वा वाले, अजन तथा मेघ के समान काले रुचक रत्न के समान रमणीय एवं स्निग्ध बाल वाले, बाएं एक कान में कुण्डल के धारक आदि वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए यावत् वे दिव्य उपभोग्य भोगों को भोगते हुए विचरते हैं। दक्षिण दिशा के असुरकुमार देवों के चौंतीस लाख भवनावास हैं। असुरकुमारेन्द्र असुरकुमार राजा चमर वहाँ निवास करता है। वह 64 हजार सामानिक देवों, तेतीस त्रायस्त्रिशक देव, चार लोकपाल, सपरिवार, पांच अग्रमहिषियों तोन पर्षदा, सात अनीक, सात अनिकाधिपति, चार 64 हजार (अर्थात् दो लाख छप्पन हजार) आत्मरक्षक देव और अन्य बहुत से दक्षिण दिशा के देव-देवियों का प्राधिपत्य करता हुआ विचरता है। उत्तर दिशा के असुरकुमारों के तीस लाख भवनावास हैं। उन तीस लाख भवनावासों का, साठ हजार सामानिक देवों का, चार लोकपालों का, सपरिवार पांच अग्रमहिषियों का, तीन परिषदों का, सात सेनाओं का, सात सेनाधिपतियों का, चार साठ हजार (दो लाख चालीस हजार) आत्मरक्षक देवों का तथा अन्य बहुत से उत्तर दिशा के असुरकुमार देव-देवियों का आधिपत्य करता हुआ वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बलीन्द्र वहाँ निवास करता है / चमरेन्द्र को परिषद् का वर्णन [118.] चमरस्स गं भंते ! असुरिरदस्स असुरन्नो कइ परिसाओ पण्णताओ? गोयमा ! तओ परिसानो पण्णताओ, तं जहा–समिया, चंडा, जाया। अभितरिया समिया, मज्झिमिया चंडा बाहिरिया जाया। चमरस्स णं भंते ! असुरिक्स्स असुररन्नो अम्भितरपरिसाए कइ देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ? मज्झिमपरिसाए कई देवसाहस्सोओ पण्णत्ताओ ? बाहिरियाए परिसाए कइ देवसाहस्सोओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! चमरस्स णं असुरिंदस्स असुररन्नो अम्भितरपरिसाए चउवीसं देवसाहस्सीमो पण्णत्ताओ, मजिसमाए परिसाए अट्ठावीसं देबसाहस्सीओ पण्णताओ, बाहिरियाए परिसाए बत्तीसं देवसाहस्सीमो पण्णत्ताओ। चमरस्स णं भंते ! असुरिंदस्स असुररण्णो अम्भितरियाए परिसाए कइ देविसया पण्णता ? मज्झिमियाए परिसाए कइ देविसया पण्णता ? बाहिरियाए परिसाए कति देविसया पण्णत्ता ? __ गोयमा! चमरस्स णं असुरिंदस्स असुररण्णो अभितरियाए परिसाए अद्ध द्वा देविसया पण्णता ममिमियाए परिसाए तिन्नि देविसया पण्णत्ता बाहिरियाए अड्डाइज्जा देविसया पण्णता। Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : चमरेन्द्र की परिषद् का वर्णन] [329 चमरस्स गं भंते ! असुरिबस्स असुररणो अग्मितरियाए परिसाए देवाणं केवइयं ठिई पण्णता ? मनिलमियाए परिसाए. बाहिरियाए परिसाए देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णता? अग्मितरियाए परिसाए देवीणं केवइयं कालं ठितो पण्णता ? मज्झिमियाए परिसाए देवीणं केवइयं कालं ठितो पण्णता? बाहिरियाए परिसाए देवीणं केवइयं कालं ठिती पण्णता? ____गोयमा ! चमरस्स णं असुरिंदस्स असुररन्नो अभितरियाए परिसाए देवाणं अड्डाइज्जाई पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता, मज्झिमियाए परिसाए देवाणं दो पलिओक्माई ठिई पण्णत्ता / बाहिरियाए परिसाए देवाणं विवढं पलिपोवमं ठिई पण्णत्ता / अम्भितरियाए परिसाए देवीणं विवढं पलिओवमं ठिई पण्णत्ता, मझिमियाए परिसाए देवीणं पलिओवमं ठिई पण्णत्ता / बाहिरियाए परिसाए देवीणं अनुपलिओवमं ठिई पण्णत्ता। से केणठेणं भंते ! एवं बुच्चइ, चमरस्स असुरिक्स्स असुररन्नो तओ परिसाओ पण्णताओ, तं जहा–समिया चंडा जाया ? अम्भितरिया समिया, मजिामिया चंडा, बाहिरिया जाया? ___ गोयमा ! चमरस्स णं असुरिक्स्स असुररन्नो अम्भितरपरिसादेवा वाहिया हव्वमागच्छंति णो अग्वाहिया, मजिसमपरिसाए देवा वाहिया हव्यमामच्छंति अव्वाहिया वि, बाहिरपरिसा देवा अव्वाहिया हव्वमागच्छंति / अबुत्तरं च णं गोयमा ! चमरे असुरिने असुरराया अन्नयरेसु उच्चावएसु कज्जकोडुबेसु समुप्पन्नेसु अम्भितरियाए परिसाए सद्धि संमइसंपुच्छणाबहुले विहरइ, मज्झिमपरिसाए सद्धि पयं एवं पवंचेमाणं पवंचेमाणे विहरइ, बाहिरियाए परिसाए सद्धि पयंडेमाणे पयंडेमाणे विहरइ / से तेण?णं गोयमा ! एवं बच्चइ-चमरस्स णं असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो तो परिसाओ पण्णत्तानोसमिया चंडा जाया; अम्भितरिया समिया, मस्मिमिया चंडा, बाहिरिया जाया / [118] हे भगवन् ! असुरेन्द्र असुरराज चमर की कितनी परिषदाएँ कही गई हैं ? गौतम ! तीन पर्षदाएँ कही गई हैं, यथा-समिता, चंडा और जाता / प्राभ्यन्तर पर्षदा समिता कहलाती है / मध्यम परिषदा चंडा और बाह्य परिषदा जाया कहलाती है। हे भगवन् ! असुरेन्द्र असुरराज चमर की आभ्यन्तर पर्षदा में कितने हजार देव हैं ? मध्यम परिषदा में कितने हजार देव हैं और बाह्य परिषदा में कितने हजार देव हैं ? गौतम ! असुरेन्द्र असुरराज चमर की प्राभ्यन्तर परिषदा में चोवीस हजार देव हैं, मध्यम परिषदा में अट्ठावीस हजार देव हैं और बाह्य परिषदा में बत्तीस हजार देव हैं / हे भगवन् ! असुरेन्द्र असुरराज चमर को प्राभ्यन्तर परिषदा में कितनी देवियाँ हैं ? मध्यम परिषदा में कितनी देवियाँ हैं और बाह्य परिषदा में कितनी देवियाँ हैं ? हे गौतम ! असुरेन्द्र असुरराज चमर की प्राभ्यन्तर परिषद में साढे तीन सौ देवियाँ हैं, मध्यम परिषद् में तीन सौ और बाह्य परिषद् में ढ़ाई सौ देवियां हैं। Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 330] [जीवाजीवाभिगमसूत्र प्रसूरराज चमर की प्राभ्यन्तर परिषद के देवों की स्थिति कितनी कही गई है ? मध्यम परिषद् के देवों की स्थिति कितनी है और बाह्य परिषद् के देवों की स्थिति कितनी है ? प्राभ्यन्तर परिषद् की देवियों की, मध्यम परिषद् की देवियों की और बाह्य परिषद् की देवियों की स्थिति कितनी कही गई है ? गौतम ! असुरेन्द्र असुरराज चमर की आभ्यन्तर परिषदा के देवों की स्थिति ढ़ाई पल्योपम, मध्यम पर्षदा के देवों की दो पल्योपम और बाह्य परिषदा के देवों की डेढ़ पल्योपम की स्थिति है। प्राभ्यन्तर पर्षदा की देवियों की डेढ पल्योपम, मध्यम परिषदा की देवियों की एक पल्योपम की और बाह्य परिषद् की देवियों की स्थिति प्राधे पल्योपम की है / हे भगवन ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है कि असुरेन्द्र असुरराज चमर की तीन पर्षदा हैं—समिता, चंडा और जाता / आभ्यन्तर पर्षदा समिता कहलाती है, मध्यम पर्षदा चंडा कहलाती है और बाह्य परिषद् जाता कहलाती है ? गौतम ! असुरेन्द्र असुरराज चमर की प्राभ्यन्तर परिषदा के देव बुलाये जाने पर पाते हैं, बिना बुलाये नहीं पाते / मध्यम परिषद् के देव बुलाने पर भी आते हैं और बिना बुलाये भी आते हैं। बाह्य परिषदा के देव बिना बुलाये पाते हैं / गौतम ! दूसरा कारण यह है कि असुरेन्द्र असुरराज चमर किसी प्रकार के ऊँचे-नीचे, शोभन-अशोभन कौटुम्बिक कार्य प्रा पड़ने पर प्राभ्यन्तर परिषद् के साथ विचारणा करता है, उनकी सम्मति लेता है। मध्यम परिषदा को अपने निश्चित किये कार्य की सुचना देकर उन्हें स्पष्टता के साथ कारणादि समझाता है और बाह्य परिषदा को प्राज्ञा देता हुआ विचरता है। इस कारण हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि असुरेन्द्र असुरराज चमर की तीन परिषदाएँ हैंसमिता, चंडा और जाता। आभ्यन्तर पर्षद् समिता कहलाती है, मध्यम परिषद् चंडा कही जाती है और बाह्य परिषद् को जाता कहते है।' [119.] कहिं गं भंते ! उत्तरिल्लाणं असुरकुमाराणं भवणा पण्णता ? जहा ठाणपदे जाव बली एत्थ बहरोयणिवे बहरोयणराया परिवसह जाव विहरह।। बलिस्स गं भंते ! वयरोणिस्स बहरोयणरन्नो कह परिसाओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! तिणि परिसाओ, तं जहा–समिया चंडा जाया। अग्भितरिया समिया, मज्ममिया चंडा बाहिरिया जाया। बलिस्स णं वहरोयणिवस्स वइरोयणरन्नो अम्भितरपारिसाए कति देवसहस्सा? मज्झिमियाए परिसाए कति देवसहस्सा जाव बाहिरियाए परिसाए कति देविसया पण्णत्ता ? गोयमा ! बलिस्स णं वहरोयणिदस्स वइरोयणरन्नो अस्मितरियाए परिसाए वीसं देवसहस्सा 1. परिषद की संख्या और स्थिति बताने वाली दो संग्रहणी गाथाएँ--- चउवीस अट्टवीसा बत्तीस सहस्स देव चमरस्स, प्रद्धट्ठा तिन्नि तहा अड्ढाइज्जा य देविसया / प्रडवाइज्जा य दोषिय दिवडढपलियं कमेण देवठिई, पलियं दिवड्ढमेगं प्रद्धो देवीण परिसासु // Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: चमरेन्द्र का परिषदा की वर्णन] [331 पण्णत्ता, ममिमियाए परिसाए चउबीसं देवसहस्सा पणत्ता, बाहिरियाए परिसाए अट्ठावीसं देवसहस्सा पण्णत्ता। अम्भितरियाए परिसाए अद्धपंचमा देविसया. मज्झिमियाए परिसाए चत्तारि देविसया पण्णता, बाहिरियाए परिसाए अट्ठा देविसया पण्णत्ता। बलिस्स ठितीए पुच्छा जाव वाहिरियाए परिसाए देवीणं केवइयं कालं ठिई पण्णता? गोयमा ! बलिस्स गं वइरोणिदस्स बहरोयणरन्नो अभितरियाए परिसाए देवाणं अद्भुष्टुपलिओक्मा ठिई पण्णता, ममिमियाए परिसाए तिन्नि पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता, वाहिरियाए परिसाए देवाणं अट्ठाइज्जाइं पलिओवमाई ठिई पण्णता, अभितरियाए परिसाए देवीणं अढाइज्जाइं पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता, मज्झिमियाए परिसाए देवीणं दो पलिओवमाइं ठिई पणत्ता, बाहिरियाए परिसाए देवीणं विषड्ढं पलिश्रोवमं ठिई पण्णत्ता, सेसं जहा चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो। [119] हे भगवन् ! उत्तर दिशा के असुरकुमारों के भवन कहाँ कहे गये हैं ? गौतम ! जैसा स्थान पद में कहा गया है, वह कथन कहना चाहिए यावत् वहाँ वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बलि निवास करता है यावत् दिव्य भोगों का उपभोग करता हुआ विचरता है / हे भगवन् ! वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बलि की कितनी पर्षदा कही गई हैं ? गौतम ! तीन परिषदाएँ कही गई हैं, यथा-समिता, चण्डा और जाता / प्राभ्यन्तर परिषदा समिता कहलाती है, मध्यम परिषदा चण्डा है और बाह्य पर्षद् जाता है। हे भगवन् ! वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बलि की प्राभ्यन्तर परिषदा में कितने हजार देव हैं ? मध्यम पर्षद् में कितने हजार देव हैं यावत् बाह्य परिषदा में कितनी सौ देवियाँ हैं ? गौतम ! वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बलि की आभ्यन्तर परिषद् में बीस हजार देव हैं, मध्यम परिषदा में चौवीस हजार देव हैं और बाह्य परिषदा में अट्ठावीस हजार देव हैं। प्राभ्यन्तर परिषद् में साढ़े चार सौ देवियाँ हैं, मध्यम परिषदा में चार सो देवियाँ हैं / बाह्य परिषदा में साढ़े तीन सौ देवियाँ हैं। हे भगवन ! बलि की परिषदा की स्थिति के विषय में प्रश्न है यावत् बाह्य परिषदा की देवियों की स्थिति कितनी है ? गौतम ! वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बलि की आभ्यन्तर परिषद् के देवों की स्थिति साढ़े तीन पल्योपम की है, मध्यम परिषद् के देवों की स्थिति तीन पल्योपम की है और बाह्य परिषद् के देवों की स्थिति ढाई पल्योपम की है / प्राभ्यन्तर परिषद् की देवियों की स्थिति ढाई पल्योपम की है / मध्यम परिषद् की देवियों की स्थिति दो पल्योपम की और बाह्य परिषद् की देवियों की स्थिति डेढ़ पल्योपम की है। शेष वक्तव्यता असुरेन्द्र असुरकुमारराज चमर की तरह कहनी चाहिए।' 1. देवदेविसंख्यास्थिति विषयक संग्रहणिगाथा बीसउ चउवीस अट्ठावीस सहस्साण होन्ति देवाणं / अद्धपण चउद्धठा देविसय बलिस्स परिसासु // 1 // अट्ट तिन्नि अड्ढाइज्जाई होति पलिय देव ठिई। अड्ढाइज्जा दोणि य दिवढ देवीण ठिई कमसो // 2 // Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 332] [जीवाजीवाभिगमसूत्र नागकुमारों को वक्तव्यता [120.] कहि णं भंते ! नागकुमाराणं देवाणं भवणा पण्णता? जहा ठाणपदे जाव वाहिणिल्लावि पुच्छियव्या जाव धरणे इत्य नागकुमारि नागकुमारराया परिवसइ जाव विहरह। धरणस्स णं भंते ! नागकुमारिदस्स नागकुमाररण्णो कति परिसाओ पण्णताओ? गोयमा तिणि परिसाओ ताओ चेव जहा चमरस्स। धरणस्स णं भंते ! णागकुमारिदस्स णागकुमारनो भितरियाए परिसाए कइ वेवसहस्सा पण्णता ? जाव बाहिरियाए परिसाए कइ देवीसया पण्णता? गोयमा ! धरणस्स णं णागकुमारिदस्स नागकुमाररनो अम्भितरियाए परिसाए सट्टि देवसहस्साई, मज्झिमियाए परिसाए सरि देवसहस्साई बाहिरियाए असीति देवसहस्साई अभितरपरिसाए पग्णसतरं देविसयं पण्णत्तं, ममिमियाए परिसाए पण्णासं देविसयं पण्णतं, बाहिरियाए परिसाए पणवीसं देविसयं पण्णत्तं / धरणस्स णं रन्नो अमितरियाए परिसाए देवाणं केवइयं कालं ठिती पण्णत्ता ? ममिमियाए परिसाए देवाणं केवइयं कालं ठिती पण्णता ? बाहिरियाए परिसाए देवाणं केवइयं कालं ठिती पण्णता ? अम्भितरियाए परिसाए देवीणं केवइयं कालं ठिती पण्णत्ता? मजितमियाए परिसाए देवीणं केवइयं कालं ठिती पण्णत्ता ? बाहिरियाए परिसाए वेवीणं केवइयं कालं ठिती पण्णता ? गोयमा! धरणस्सणं रण्णो अभितरियाए परिसाए देवाणं सातिरेगं अद्धपलिभोवमं ठितीपण्णत्ता, मज्झिमियाए परिसाए देवाणं अद्धपलिओवमं ठिती पण्णत्ता, बाहिरियाए परिसाए देवाणं देसूर्ण अद्धपलिओवमं ठिती पण्णत्ता, अबिभतरियाए परिसाए देवीणं देसूर्ण अद्धपलिओवमं ठिती पण्णता, मज्झिमियाए परिसाए देवोणं सातिरेग चउम्भागपलिओवमं ठिती पण्णत्ता, बाहिरियाए परिसाए देवीणं चउभागपलिओवमं ठितो पण्णत्ता, अट्ठो जहा चमरस्स। कहि णं भंते ! उत्तरिल्लाणं णागकुमाराणं? जहा ठाणपदे जाव विहरति / भूयाणंदस्स गं भंते ! णागकुमारिदस्स गागकुमारण्णो अभितरियाए परिसाए कइ वेवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ? मझिमियाए परिसाए कति देवसाहस्सोमो पण्णताओ? बाहिरियाए परिसाए कइ वेवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ अभितरियाए परिसाए कह देविसया पण्णत्ता ? मस्मिमियाए परिसाए कह देविसया पण्णता ? बहिरियाए परिसाए कइ देविसया पण्णता? __ गोयमा ! भूयानंदस्स णं नागकुमारिवस्स नागकुमाररनो अम्भितरियाए परिसाए पन्नासं देवसहस्सा पण्णत्ता। मज्झिमियाए परिसाए सदि देवसहस्सा पण्णत्ता, बाहिरियाए परिसाए सरि देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ / अम्भितरियाए परिसाए दो पणवीसं देविसया गं पण्णता, मज्झिमियाए परिसाए दो देविसया पण्णत्ता, बाहिरियाए परिसाए पण्णत्तरं देविसयं पण्णतं / .. ? Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपति : नागकुमारों को वक्तव्यता] [333 भूयानंदस्स णं भंते ! नागकुमारिवस्स नागकुमारणो अम्भितरियाए परिसाए देवागं केवइयं कालं ठिती पण्णता ? जाव बाहिरियाए परिसाए देवीणं केवइयं कालं ठिई पण्णता ? गोयमा ! भूयानंदस्स णं अमितरियाए परिसाए देवाणं देसूर्ण पलिओवमं ठिती पणता, ममिमियाए परिसाए देवाणं साइरेगं अद्धपलिओवमं ठिती पण्णता, बाहिरियाए परिसाए देवाणं अखपलिओवमं ठिती पण्णत्ता, अम्मितरियाए परिसाए देवीणं अद्धपलिओवमं ठिती पण्णत्ता, मज्झिमियाए परिसाए देवीणं देसूणं अद्धपलिओवमं ठिती पण्णत्ता, बाहिरियाए परिसाए देवीणं साइरेगं चउम्भाग. पलिओवमं ठिती पण्णता / अत्थो जहा चमरस्स / प्रवसेसाणं वेणुदेवादीणं महाघोसपज्जवसाणागं ठाणपश्वत्तव्वया णिरवयवा भाणियब्बा, परिसामओ जहा परण-भूयानंवाणं। (सेसाणं मवणवईणं) वाहिणिल्लाणं जहा परणस्स उत्तरिल्लाणं जहा भूयाणंदस्स, परिमाणं पि ठिती वि / / [120] हे भगवन् ! नागकुमार देवों के भवन कहाँ कहे गये हैं ? गौतम ! जैसे स्थानपद में कहा है वैसी वक्तव्यता जानना चाहिए यावत् दक्षिणदिशावर्ती नागकुमारों के आवास का प्रश्न भी पूछना चाहिए यावत् वहाँ नागकुमारेन्द्र और नागकुमारराज धरण रहता है यावत् दिव्यभोगों को भोगता हुआ विचरता है। हे भगवन् ! नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज धरण की कितनी परिषदाएँ हैं ? गौतम तीन परिषदाएँ कही गई हैं / उनके नाम के ही हैं जो चमरेन्द्र की परिषदा के कहे हैं / ह भगवन् ! नागकुमारेन्द्र नागराज धरण की प्राभ्यन्तर परिषद् में कितने हजार देव हैं ? यावत् बाह्य परिषद् में कितनी सौ देवियां हैं ? गौतम ! नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज धरण की प्राभ्यन्तर परिषदा में साठ हजार देव हैं, मध्यम परिषदा में सत्तर हजार देव हैं और बाह्य परिषद् में अस्सी हजार देव हैं। प्राभ्यन्तर परिषद् में 175 देवियाँ हैं, मध्यपर्षद् में 150 और बाह्य परिषद् में 125 देवियाँ हैं। धरणेन्द्र नागराज की प्राभ्यन्तर परिषदा के देवों की कितने काल की स्थिति कही गई है ? मध्यम परिषदा के देवों की स्थिति और बाह्य परिषद् के देवों की स्थिति कितनी कही गई है ? प्राभ्यन्तर परिषद् की देवियों की स्थिति मध्यम परिषद्, की देवियों की स्थिति और ब्राह्य परिषद् की देवियों की स्थिति कितनी कही गई है ? गौतम ! नागराज धरणेन्द्र की प्राभ्यन्तर परिषद् के देवों की स्थिति कुछ मधिक आधे पल्योपम की है, मध्यम परिषद् के देवों की स्थिति प्राधे पल्योपम की है, बाह्य परिषद् के देवों की स्थिति कुछ कम प्राधे पल्योपम की है / प्राभ्यन्तर परिषद् की देवियों की स्थिति देशोन प्राधे पल्योपम की है, मध्यम परिषद् की देवियों की स्थिति कुछ अधिक पाव पल्योपम की है और बाह्य परिषद् की देवियों की स्थिति पाव पल्योपम की है। तीन प्रकार की पर्षदामों का अर्थ प्रादि कथन चमरेन्द्र की तरह जानना। Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 334] [जीवाजीवाभिगमसूत्र हे भगवन् ! उत्तर दिशा के नागकुमार देवों के भवन कहाँ कहे गये हैं प्रादि वर्णन स्थानपद के अनुसार जानना चाहिए यावत् वहाँ भूतानन्द नामक नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज रहता है यावत् भोगों का उपभोग करता हुआ विचरता है। हे भगवन् ! नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज भूतानन्द की प्राभ्यन्तर परिषद् में कितने हजार देव हैं, मध्यम परिषद् में कितने हजार देव हैं और बाह्य परिषद् में कितने हजार देव हैं ? प्राभ्यन्तर परिषद् में कितनी सौ देवियाँ हैं, मध्यम परिषद् में कितनी सौ देवियाँ हैं ? और बाह्य परिषद् में कितनी सौ देवियाँ हैं ? गौतम ! नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज भूतानन्द की आभ्यन्तर परिषद् में पचास हजार देव हैं, मध्यम परिषद् में साठ हजार देव हैं और बाह्य परिषद् में सत्तर हजार देव हैं / प्राभ्यन्तर परिषद् की देवियाँ 225 हैं, मध्यम परिषद् की देवियाँ 200 हैं तथा बाह्य परिषद् की देवियाँ 175 हैं। हे भगवन् ! नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज भूतानन्द की प्राभ्यन्तर परिषद् के देवों की स्थिति कितनी कही है ? यावत् बाह्य परिषद् की देवियों की स्थिति कितनी कही है ? गौतम! भूतानन्द के आभ्यन्तर परिषद् के देवों की स्थिति देशोन पल्योपम है, मध्यम परिषद् के देवों की स्थिति कुछ अधिक आधे पल्योपम की है और बाह्य परिषद् के देवों की स्थिति प्राधे पल्योपम की है। अभ्यन्तर परिषद् की देवियों की स्थिति प्राधे पल्योपम की है, मध्यम परिषद् की देवियों की स्थिति देशोन प्राधे पल्योपम की है और बाह्य परिषद् की देवियों की स्थिति कुछ अधिक पाव पल्योपम है। परिषदों का अर्थ आदि कथन चमरेन्द्र की तरह जानना। शेष वेणुदेव से लगाकर महाघोष पर्यन्त की वक्तव्यता स्थानपद के अनुसार पूरी-पूरी कहना चाहिए। परिषद् के विषय में भिन्नता है वह इस प्रकार है-दक्षिण दिशा के भवनपति इन्द्रों की परिषद् धरणेन्द्र की तरह और उत्तर दिशा के भवनपति इन्द्रों की परिषदा भूतानन्द की तरह कहनी चाहिए / परिषदों, देव-देवियों की संख्या तथा स्थिति भी उसी तरह जान लेनी चाहिए। विवेचन-प्रस्तुत सूत्रों में असुरकुमार और नागकुमार भवनपतिदेवों के भवन, परिषदा, परिषदा का प्रमाण और स्थिति का वर्णन किया गया है जो मूलपाठ से ही स्पष्ट है। आगे के सुपर्णकुमार आदि भवनवासियों के लिए धरणेन्द्र और भूतानन्द की तरह जानने, की सूचना है / दक्षिण दिशा के भवनपतियों का वर्णन धरणेन्द्र की तरह और उत्तर दिशा के भवनपतियों का वर्णन भूतानन्द की तरह जानना चाहिए। इन भवनपतियों में भवनों की संख्या, इन्द्रों के नाम और परिमाण आदि में भिन्नता है वह पूर्वीचार्यों ने सात गाथाओं में बताई हैं जिनका भावार्थ इस प्रकार है 1. चउसट्ठी असुराणं चुलसीइ चेव होइ नागाणं / बावत्तरि सुवन्ने वायुकुमाराण छन्नउह // 1 // (शेष अगले पृष्ठ पर) Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : नागकुमारों की वक्तव्यता] [335 असुरकुमारों के 64 लाख भवन हैं, नागकुमारों के 84 लाख, सुपर्णकुमारों के 72 लाख, वायुकुमारों के 96 लाख द्वीपकुमार, दिक्कुमार, उदधिकुमार, विद्युत्कुमार, स्तनितकुमार और अग्निकुमार इन छह भवनपतियों के प्रत्येक के 76-76 लाख भवन हैं / (1-2) / दक्षिण और उत्तर दिशाओं के भवनवासियों के भवनों की अलग-अलग संख्या इस प्रकार है दक्षिण दिशा के असुरकुमारों के 34 लाख भवन, नागकुमारों के 44 लाख, सुपर्णकुमारों के 38 लाख, वायुकुमारों के 50 लाख शेष 6 द्वीप-दिशा-उदधि, विद्युत्, स्तनित, अग्निकुमारों के प्रत्येक के 40-40 लाख भवन हैं। (3) __उत्तरदिशा के असुरकुमारों के भवन 30 लाख, नागकुमारों के 40 लाख, सुपर्णकुमारों के 34 लाख, वायुकुमारों के 46 लाख शेष छहों के प्रत्येक के 36-36 लाख भवन हैं। इस प्रकार दक्षिण और उत्तर दोनों दिशाओं के भवनपतियों के भवनों की संख्या मिलाकर कुल भवनसंख्या प्रथम और दूसरी गाथा में कही गई है। भवनपति इन्द्रों के नामों को बताने वाली गाथाओं में पहले दक्षिण दिशा के इन्द्रों के नाम बताये हैं दक्षिण दिशा के असुरकुमारों का इन्द्र चमर है। नागकुमारों का धरण, सुपर्णकुमारों का वेणुदेव, विद्युत्कुमारों का हरिकान्त, अग्निकुमारों का अग्निशिख, द्वीपकुमारों का पूर्ण, उदधिकुमारों का जलकान्त, दिक्कुमारों का अमितगति, वायुकुमारों का वेलम्ब और स्तनितकुमारों का घोष इन्द्र है। ___ उत्तरदिशा के असुरकुमारों का इन्द्र बलि है / नागकुमारों का भूतानन्द, सुपर्णकुमारों का देणुदाली, विद्युत्कुमारों का हरिस्सह, अग्निकुमारों का अग्निमाणव, द्वीपकुमारों का विशिष्ट, उदधिकुमारों का जलप्रभ, दिककुमारों का अमितवाहन, वायुकुमारों का प्रभंजन, और स्तनितकुमारों का महाघोष है। दीव दिसा उदहीणं विज्जुकुमारिंद थणियमग्गीणं / छण्हं पि जुयलयाणं छावत्तरियो सयसहस्सा // 2 // चोत्तीसा चोयाला अद्वतीसं च सयसहस्साई। पण्णा चत्तालीसा दाहिणग्रो होंति भवणाई // 3 // तीसा चत्तालीसा चोत्तीसं चेव सयसहस्साई। छायाला छत्तीसा उत्तरप्रो होंति भवणाइं // 4 // चमरे धरणे तह बेणुदेव हरिकंत अग्गिसिहे य / पुण्णे जलकते अमिए लंबे य घोसे य // 5 // बलि भूयाणंदे वेणुदालि हरिस्सह अम्गिमाणव विसिट्टे / जलप्पभ अभियवाहण पभंजणे चेव महघोसे // 6 // चउसट्ठी सट्ठी खलु छच्च सहस्सा उ असुरवज्जाणं / / सामाणिया उ एए चउग्गुणा पायरक्खा उ // 7 // -संग्रहणी गाथाएँ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 336] भवनावि-दर्शक यंत्र भवनपति नाम दक्षिण के भवन उत्तर के भवन असुरकुमार 34 लाख 30 लाख नागकुमार 44 लाख 40 लाख सुपर्णकुमार 38 , विद्युत्कुमार 40 अग्निकुमार 40 द्वीपकुमार 40 उदधिकुमार 40 , दिककुमार 40 , वायुकुमार 50 // स्तनितकुमार 40 // कुल भवन दक्षिण-उत्तर सामानिक देव आत्मरक्षक देव 64 लाख चमर बलि चमर के 64 हजार चमर के 2 लाख 84 लाख धरण भूतानंद बलि के 60 हजार छप्पन हजार 72 , वेणुदेव वेणुदालि शेष सब के बलि के 2 लाख , हरिकांत हरिस्सह 6000 चालीस हजार अग्निशिख अग्निमाणव / 24 हजार , पूर्ण विशिष्ट 76 অলকার জলসা र अमितगति अमितवाहन , 76 र वेलंब प्रभंजन , , घोष महाघोष , [जीवाजीवाभिगमसूत्र Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीया प्रतिपत्ति वानव्यन्तरों का अधिकार 121. कहिणं भंते ! वाणमंतराणं देवाणं भवणा (भोमेज्जणगरा) पण्णत्ता ? जहा ठाणपदे जाव विहरति / कहि णं भंते ! पिसायाणं देवाणं भवणा पण्णता ? जहा ठाणपक्षे जाव विहरति / कालमहाकाला य तस्य दुवे पिसायकुमाररायाणो परिवसंति जाव विहरंति / कहि णं भंते ! बाहिणिल्लाणं पिसायकुमाराणं जाय विहरंति काले य एत्य पिसायकुमारिवे पिसायकुमारराया परिवसइ महडिए जाव विहरति / कालस्स णं भंते ! पिसायकुमारिदस्स पिसायकुमाररण्णो कति परिसानो पण्णसाओ ? गोयमा ! तिणि परिसाओ पण्णताओ तं जहा-ईसा तुडिया बढरहा। अग्भितरिया ईसा, मज्झिमिया तुडिया, बाहिरिया वढरहा। कालस्स जं भंते ! पिसायकुमारिंदस्स पिसायकुमाररणो अम्भितरपरिसाए कति देवसाहस्सीओ पण्णताओ? जाव बाहिरियाए परिसाए कइ देविसया पण्णता ? गोयमा! कालस्स णं पिसायकुमारिदस्स पिसायकुमाररायस्स अम्भितरपरिसाए अट्ठ देवसाहस्सीमो पण्णताओ। मजिसमपरिसाए वस देवसाहस्सोमओ पण्णताओ बाहिरियपरिसाए बारस देव साहस्सीओ पण्णत्ताओ। अभितरपरिसाए एग देविसयं पण्णत्तं / ममिमियाए परिसाए एग देविसयं पण्णत्तं / बाहिरियाएपरिसाए एगं देविसयं पण्णत्तं / कालस्स गं भंते ! पिसायकुमारिवस्स पिसायकुमाररण्णो अम्भितरपरिसाए देवाणं केवइयं कालं ठिती पण्णता? मझिमियाए परिसाए देवाणं केवइयं कालं ठिती पण्णता ? बाहिरियाए परिसाए देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता? जाव बाहिरियाए परिसाए वेवीण केवइयं कालं ठिई पण्णता? गोयमा ! कालस्स णं पिसायकुमारिदस्स पिसायकुमाररष्णो अभिम्भतरपरिसाए देवाणं अखपलिओवमं ठिई पग्णत्ता, मज्मिमियाए परिसाए देवागं देसूर्ण अपलिमोवमं ठिई पण्णता, बाहिरियाए परिसाए देवाणं सातिरेग चउम्भाग पलिओवम ठिई पण्णता। अम्भितरपरिसाए देवीणं सातिरेगं चउम्भागपलिओवमं ठितो पण्णत्ता, मज्झिमपरिसाए देवोणं घउम्भाग पलिओवमं ठिती पण्णत्ता, बाहिरपरिसाए देवीणं देसूणं चउम्भाग पलिओवमं ठिती पण्णता / अट्ठो जो चेव चमरस्स / एवं उत्तरस्स वि एवं पिरंतरं जाव गीयजसस / Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 338] जीवाजीवाभिगमसूत्र [121] हे भगवन् ! वानव्यन्तर देवों के भवन (भौमेय नगर) कहाँ कहे गये हैं ? जैसा स्थानपद में कहा वैसा कयन कर लेना चाहिए यावत् दिव्य भोग भोगते हुए विचरते हैं। हे भगवन् ! पिशाचदेवों के भवन कहाँ कहे गये हैं ? जैसा स्थानपद में कहा वैसा कथन कर लेना चाहिए यावत् दिव्य भोगों का उपभोग करते हुए विचरते हैं / वहाँ काल और महाकाल नाम के दो पिचाशकुमारराज रहते हैं यावत् विचरते हैं / हे भगवन् दक्षिण दिशा के पिशाचकुमारों के भवन कहाँ कहे गये हैं ? इत्यादि कथन कर लेना चाहिए यावत् भोग भोगते हुए विचरते हैं। वहां महद्धिक पिशाचकुमार इन्द्र पिशाचकुमारराज रहते है यावत् भोगों का उपभोग करते हुए विचरते हैं / हे भगवन् ! पिशाचकुमारेन्द्र पिशाचकुमारराज काल की कितनी परिषदाएँ हैं ? गौतम ! तीन परिषदाएँ हैं / वे इस प्रकार हैं-ईशा, त्रुटिता और दृढरथा / प्राभ्यन्तर परिषद् ईशा कहलाती है / मध्यम परिषद् त्रुटिता है और बाह्य परिषद् दृढरथा कहलाती है। हे भगवन् ! पिशाचकुमारेन्द्र पिशाचराज काल की आभ्यन्तर परिषद् में कितने हजार देव हैं ? यावत् बाह्य परिषद् में कितनी सौ देवियाँ हैं ? गौतम ! पिशाचकुमारेन्द्र पिशाचराज काल की प्राभ्यन्तर परिषद् में आठ हजार देव हैं, मध्यम परिषद् में दस हजार देव हैं और बाह्य परिषद् में बारह हजार देव हैं। आभ्यन्तर परिषदा में एक सौ देवियाँ हैं, मध्यम परिषदा में एक सौ और बाह्य परिषदा में भी एक सौ देवियाँ हैं। हे भगवन् ! पिशाचकुमारेन्द्र पिशाचराज की आभ्यन्तर परिषद् के देवों की स्थिति कितनी है ? मध्यम परिषद् के और बाह्य परिषद् के देवों की स्थिति कितनी है ? यावत् बाह्य परिषदा की देवियों की स्थिति कितनी है ? गौतम ! पिशाचकुमारेन्द्र पिशाचराज काल की प्राभ्यन्तर परिषद् के देवों की स्थिति आधे पल्योपम की है, मध्यमपरिपद् के देवों की देशोन आधा पल्योपम और बाह्यपरिषद् के देवों की स्थिति कछ अधिक पाव पल्यापम की है। प्राभ्यन्तरपरिषद की देवियों की स्थिति पल्योपम, मध्यमपरिषद् की देवियों की स्थिति पाव पल्योपम और बाह्य परिषद् की देवियों की स्थिति देशोन पाव पल्योपम की है / परिषदों का अर्थ प्रादि कथन चमरेन्द्र की तरह कहना चाहिए। इसी प्रकार उत्तर दिशा के वानव्यन्तरों के विषय में भी कहना चाहिए। उक्त सब कथन गीतयश नामक गन्धर्व इन्द्र पर्यन्त कहना चाहिए। विवेचन:-प्रस्तुत सूत्र में वानव्यन्तरों के भौमेय नगरों के विषय में प्रश्नोत्तर हैं / प्रश्न किया गया है कि वानव्यन्तर देवों के भवन (भौमेय नगर) कहाँ हैं / उत्तर में प्रज्ञापनासूत्र के द्वितीय स्थान पद के अनुसार वक्तव्यता कहने की सूचना की गई है। संक्षेप में प्रज्ञापनासूत्र में किया गया वर्णन इस प्रकार हैं ___ इस रत्नप्रभापृथ्वी के एक हजार योजन मोटे रत्नमय काण्ड के ऊपर से एक सौ योजन अवगाहन करने के बाद तथा नीचे के भी एक सौ योजन छोड़कर बीच में आठ सौ योजन में वानव्यन्तर देवों के तिरछे असंख्यात भौमेय (भूमिगृह समान) लाखों नगरावास हैं। Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति :वानव्यन्तरों का अधिकार] [339 ___वे भौमेय नगर बाहर से गोल, अन्दर से चौरस तथा नीचे से कमल की कणिका के प्राकार से संस्थित हैं / उनके चारों ओर गहरी और विस्तीर्ण खाइयां और परिखाएँ खुदी हुई हैं। वे यथास्थान प्राकारों, अट्टालकों, कपाटों, तोरणों और प्रतिद्वारों से युक्त हैं। इत्यादि वर्णन सूत्र 117 के विवेचन के अनुसार समझ लेना चाहिए / यावत् वे भवन प्रसन्नता उत्पन्न करने वाले, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप हैं। उन नगरावासों में बहुत से पिशाच आदि वानव्यन्तर देव रहते हैं। वे देव अनवस्थित चित्त के होने से अत्यन्त चपल, क्रीडातत्पर और परिहास-प्रिय होते हैं / गंभीर हास्य, गीत और नृत्य में इनकी अनुरक्ति रहती है / वनमाला, कलंगी, मुकुट, कुण्डल तथा इच्छानुसार विकुक्ति प्राभूषणों से वे भली-भांति मण्डित रहते हैं / सभी ऋतुओं में होने वाले सुगन्धित पुष्पों से रचित, लम्बी, शोभनीय सुन्दर एवं खिलती हुई विचित्र वनमाला से उनका वक्षःस्थल सुशोभित रहता है। अपनी कामनानुसार काम-भोगों का सेवन करने वाले, इच्छानुसार रूप एवं देह के धारक, नाना प्रकार के वर्णों वाले श्रेष्ठ विचित्र चमकीले वस्त्रों के धारक, विविध देशों की वेशभूषा धारण करने वाले होते हैं / इन्हें प्रमोद, कन्दर्प (कामक्रीडा) कलह, केलि और कोलाहल प्रिय है। इनमें हास्य और बोल-चाल बहुत होता है। इनके हाथों में खड्ग, मुद्गर, शक्ति और भाले भी रहते हैं। ये अनेक मणियों और रत्नों के विविध चिह्न वाले होते हैं / वे महद्धिक, महाद्युतिमान्, महायशस्वी, महाबलवान्, महानुभाव, महासामर्थ्यशाली, महासुखी और हार से सुशोभित वक्षःस्थल वाले होते हैं / कड़े और बाजबन्द से उनकी भुजाएँ स्तब्ध रहती हैं। अंगद और कुण्डल इनके कपोलस्थल को स्पर्श किये रहते हैं / ये कानों में कर्णपीठ धारण किये रहते हैं। इनके शरीर अत्यन्त देदीप्यमान होते हैं। बे लम्बी वनमालाएँ धारण करते हैं। दिव्य वर्ण से, दिव्य गन्ध से, दिव्य स्पर्श से, दिव्य संहनन से, दिव्य संस्थान से, दिव्य ऋद्धि से, दिव्य द्युति से, दिव्य प्रभा से, दिव्य छाया (कांति) से, दिव्य अचि (ज्योति) से, दिव्य तेज से एवं दिव्य लेश्या से, दसों दिशाओं को उद्योतित एवं प्रभासित करते हुए विचरते हैं। वे अपने लाखों भौमेय नगरावासों का, अपने-अपने हजारों सामानिक देवों का, अपनी-अपनी अग्र महिषियों का, अपनी अपनी परिषदों का, अपनी अपनी सेनामों का, अपने अपने सेनाधिपति देवों का, अपने अपने प्रात्मरक्षकों और अन्य बहुत से वानव्यन्तर देवों और देवियों का आधिपत्य, पौरपत्य स्वामित्व, भर्तृत्व, महत्तरकत्व, प्राज्ञैश्वरत्व एवं सेनापतित्व करते-कराते तथा उनका पालन करतेकराते हुए, महान् उत्सव के साथ नृत्य, गीत और वीणा, तल, ताल, त्रुटित घन मृदंग प्रादि वाद्यों को बजाने से उत्पन्न महाध्वनि के साथ दिव्य उपभोग्य भोगों को भोगते हुए रहते हैं। उक्त वर्णन सामान्यरूप से वानव्यन्तरों के लिए है। विशेष विवक्षा में पिशाच आदि वानव्यन्तरों का वर्णन भी इसी प्रकार जानना चाहिए / अर्थात् उन भौमेयनगरों में पिशाचदेव अपने अपने भवन, सामानिक प्रादि देव-देवियों का आधिपत्य करते हुए विचरते हैं। इन नगराबासों में दो पिशाचेन्द्र पिशाचराज काल और महाकाल निवास करते हैं। वे महद्धिक महाद्युतिमान यावत् दिव्य भोगों को भोगते हुए विचरते हैं। दक्षिणवर्ती क्षेत्र का इन्द्र पिशाचेन्द्र पिशाचराज काल है और उत्तरवर्ती क्षेत्र का इन्द्र पिशाचेन्द्र पिशाचराज महाकाल है। वह पिशाचेन्द्र पिशाचराज काल तिरछे असंख्यात भूमिगृह जैसे लाखों नागरावासों का, चार हजार सामानिक देवों का, चार अग्रमहिषियों का, तीन परिषदों का, सात सेनाओं का, सात Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 340] [जीवाजीवाभिगमतूत्र सेनाधिपतियों का सोलह हजार प्रात्मरक्षक देवों का और बहुत से दक्षिणदिशा के वाणव्यन्तर देवों और देवियों का आधिपत्य करता हुआ विचरता है। पिशाचेन्द्र पिशाचराज काल की तीन परिषदाएं हैं-ईशा, त्रुटिता और दृढरथा / पाभ्यन्तर परिषद् को ईशा कहते हैं, मध्यम परिषद् को त्रुटिता और बाह्य परिषद् को दृढरथा कहा जाता है। आभ्यन्तर परिषद् में देवों की संख्या आठ हजार है, मध्यम परिषद् में दस हजार देव हैं और बाह्य परिषद् में बारह हजार देव हैं / तीनों परिषदों में देवियों की संख्या एक सी-एक सौ है / उनकी स्थिति इस प्रकार हैआभ्यन्तर परिषद् के देवों की स्थिति आधे पल्योपम की है। मध्यम परिषद् के देवों की स्थिति देशोन आधे पल्योपम की है। बाह्य परिषद् के देवों की स्थिति कुछ अधिक पाव पल्योपम की है / प्राभ्यन्तर परिषद की देवी की स्थिति कुछ अधिक पाव पल्योपम की है। मध्यम परिषद् की देवी को स्थिति पाव पल्योपम की है / बाह्य परिषद् की देवी की स्थिति देशोन पाव पल्योपम की है। परिषदों का अर्थ आदि वक्तव्यता जैसे चमरेन्द्र के विषय में कही गई है वही सब यहां समझना चाहिए। उत्तरवर्ती पिशाचकुमार देवों की वक्तव्यता भी दक्षिणात्य जैसी ही है / उनका इन्द्र महाकाल है। काल के समान ही महाकाल की वक्तव्यता भी है / इसी प्रकार की वक्तव्यता भूतों से लेकर गन्धर्वदेवों के इन्द्र गीतयश तक की है / इस वक्तव्यता में अपने अपने इन्द्रों को लेकर भिन्नता है। इन्द्रों की भिन्नता दो गाथाओं में इस प्रकार कही गई है। (1) पिशाचों के दो इन्द्र-काल और महाकाल (2) भूतों के दो इन्द्र-सुरूप और प्रतिरूप (3) यक्षों के दो इन्द्र–पूर्णभद्र और माणिभद्र (4) राक्षसों के दो इन्द्र-भीम और महाभीम (5) किन्नरों के दो इन्द्र–किन्नर और किंपुरुष (6) किंपुरुषों के दो इन्द्र-सत्पुरुष और महापुरुष के दो इन्द्र-अतिकाय और महाकाय (8) गन्धों के दो इन्द्र-गीतरति और गीतयश 1. काले य महाकाले सुरुव-पडिरूव पुण्णभद्दे य। अमरवइ माणिभद्दे भीमे य तहा महाभीमे / / 1 / / किन्नर किंपुरिसे खलु सप्पुरिसे खलु तहा महापुरिसे / प्रइकाय महाकाए गीयरई चेव गीतजसे // 2 // Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपति : ज्योतिष्क देवों के विमानों का वर्णन [341 उक्त दो-दो इन्द्रों में से प्रथम दक्षिणदिशावर्ती देवों का इन्द्र है और दूसरा उत्तरदिशावर्ती वानव्यन्तर देवों का इन्द्र है। यहाँ वानव्यन्तर देवों का अधिकार पूरा होता है। मागे ज्योतिष्क देवों की जानकारी दी गई है। ज्योतिष्क देवों के विमानों का वर्णन 122. कहि णं भंते ! जोइसियाणं देवाणं विमाणा पण्णता ? कहि गं भंते जोइसिया देवा परिवसंति ? गोयमा ! उप्पि दीवसमुद्दाणं इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्माओ भूमिभागाओ ससणउए जोयणसए उड्ढं उप्पइत्ता दसुत्तरसया जोयणवाहल्लेणं, तत्थ णं जोइसियाणं देवाणं तिरियमसंखेजा जोतिसियविमाणावाससयसहस्सा भवंतीतिमक्खायं / ते गं विमाणा अखकविटकसंठाणसंठिया एवं जहा ठाणपदे जाव चंदिमसूरिया य तत्थ गं जोइसिंदा जोइसरायाणो परिवसंति महिड्डिया जाव विहरति / / सूरस्स णं भंते ! जोतिसिंदस्स जोतिसरण्णो कति परिसाओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! तिणि परिसाओ पण्णसाओ, तं जहा-तुंबा, सुडिया, पेच्चा / अम्भितरिया तुंबा, ममिमिया, तुडिया, बाहिरिया पेच्चा / सेसं जहा कालस्स परिमाणं ठिई वि / अट्ठो जहा चमरस्स। चंवस्स वि एवं घेव। [122] हे भगवन् ! ज्योतिष्क देवों के विमान कहां रहे गये हैं / हे भगवन् ! ज्योतिष्क देव कहाँ रहते हैं ? __ गौतम ! द्वीपसमुद्रों से ऊपर और इस रत्नप्रभापृथ्वी के बहुत समतल एवं रमणीय भूमिभाग से सात सौ नब्बे भोजन ऊपर जाने पर एक सौ दस योजन प्रमाण ऊचाईरूप क्षेत्र में तिरछे ज्योतिष्क देवों के असंख्यात लाख विमानावास कहे गये हैं। (ऐसा मैंने और अन्य पूर्ववर्ती तीर्थंकरों ने कहा है)। वे विमान प्राधे कबीठ के आकार के हैं—इत्यादि जैसा वर्णन स्थानपद में किया है वैसा यहाँ भी कहना यावत् वहां ज्योतिष्केन्द्र ज्योतिष्कराज चन्द्र और सूर्य दो इन्द्र रहते हैं जो महद्धिक यावत् दिव्यभोगों का उपभोग करते हुए विचरते हैं। हे भगवन् ! ज्योतिष्केन्द्र ज्योतिष्कराज सूर्य की कितनी परिषदाएँ हैं ? गौतम ! तीन परिषदाएँ कही गई हैं, यथा-तुंबा, त्रुटिता और प्रेत्या / प्राभ्यन्तर परिषदा का नाम तुंबा है, मध्यम परिषदा का नाम त्रुटिता है और बाह्य परिषद् का नाम प्रेत्या है। शेष वर्णन काल इन्द्र की तरह जानना। उनका परिमाण (देव-देवी संख्या) और स्थिति भी वैसी ही जानना चाहिए / परिषद् का अर्थ चमरेन्द्र की तरह जानना चाहिए / सूर्य की वक्तव्यता के अनुसार चन्द्र की भी वक्तव्यता जाननी चाहिए। विवेचन-इस रत्नप्रभा पृथ्वी के अत्यन्त सम एवं रमणीय भूभाग से सात सौ नब्बे (790) Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जीवाजीवाभिगमसूत्र वाला के योजन की ऊँचाई पर एक सौ दस योजन के बाहल्य में एवं तिरछे असंख्यात योजन में ज्योतिष्क क्षेत्र है, जहाँ ज्योतिष्क देवों के तिरछे, असंख्यात लाख ज्योतिष्क विमानावास हैं। वे विमान प्राधे कबीठ के आकार के हैं और पूर्ण रूप से स्फटिकमय हैं। वे सामने से चारों ओर ऊपर उठे (निकले) हुए, सभी दिशाओं में फैले हुए तथा प्रभा से श्वेत हैं। विविध मणियों, स्वर्ण और रत्नों की छटा से वे चित्र विचित्र हैं, हवा से उड़ती हुई विजय-वैजयन्ती, पताका, छत्र पर छत्र (अतिछत्र) से युक्त हैं / वे बहुत ऊंचे गगनतलचुंबी शिखरों वाले हैं / उनको जालियों में रत्न जड़े हुए हैं तथा वे विमान पिंजरा (आच्छादन) हटाने पर प्रकट हुई वस्तु को तरह चमकदार हैं / वे मणियों और रत्नों की स्तूपिकाओं से युक्त हैं। उनमें शतपत्र और पुण्डरीक कमल खिले हुए हैं। तिलकों और रत्नमय अर्धचन्द्रों से वे चित्र-विचित्र हैं तथा नानामणिमय मालाओं से सुशोभित हैं। वे अन्दर और बाहर से चिकने हैं। उनके प्रस्तट सोने की रुचिर बालवाले हैं। वे सुखद स्पर्शवाले, श्री से सम्पन्न, सुरूप, प्रसन्नता पैदा करने वाले, दर्शनीय, अभिरूप (प्रतिरमणीय) और अतिरूप (बहुत सुन्दर) हैं। इन विमानों में बहुत से ज्योतिष्क देव निवास करते हैं / वे इस प्रकार हैं-वृहस्पति, चन्द्र, सूर्य, शुक्र, शनैश्चर, राहु, धूमकेतु, बुध एवं अंगारक (मंगल) / ये तपे हुए तपनीय स्वर्ण के समान वर्णवाले (किंचित् रक्त वर्ण) हैं / तथा ज्योतिष्क क्षेत्र में विचरण करने वाले ग्रह, गति में रत रहने प्रकार के नक्षत्रगण, नाना पाकारों के पांच वर्णों के तारे तथा स्थितलेश्या वाले, संचार करने वाले, अविश्रान्त मण्डलाकार गति करने वाले ये सब ज्जोतिष्कदेव इन विमानों में रहते हैं / इन सबके मुकुट में अपने अपने नाम का चिह्न होता है। ये महद्धिक होते हैं यावत् दसों दिशाओं को प्रभासित करते हुए विचरते हैं / ये ज्योतिष्क देव वहाँ अपने अपने लाखों विमानावासों का, अपने हजारों सामानिक देवों का, अपनी अग्रमहिषियों, अपनी परिषदों का, अपनी सेना और सेनाधिपति देवों का, हजारों प्रात्मरक्षक देवों का और बहुत से ज्योतिष्क देवों और देवियों का आधिपत्य करते हुए रहते हैं। इन्हीं में ज्योतिष्केन्द्र ज्योतिष्कराज चन्द्रमा और सूर्य दो इन्द्र हैं, जो महद्धिक यावत् दसों दिशाओं को प्रकाशित करते हैं। वे अपने लाखों विमानावासों का, चार हजार सामानिक देवों का, चार अग्रहिषियों का तीन परिषदों का, सात सेना और सेनाधिपतियों का सोलह हजार आत्मरक्षक देवों का तथा अन्य बहुत से ज्योतिष्क देव-देवियों का आधिपत्य करते हुए विचरते हैं। इन सूर्य और चन्द्र इन्द्रों की तीन तीन परिषदाएं हैं। उनके नाम तुंबा, त्रुटिता और प्रेत्या हैं / प्राभ्यन्तर परिषद् तुंबा कहलाती है, मध्यम परिषद् त्रुटिता है और बाह्य परिषद् प्रेत्या है / इन परिषदों में देवों और देवियों की संख्या तथा उनकी स्थिति पूर्ववणित काल इन्द्र की तरह जाननी चाहिए / परिषदों का अर्थ आदि अधिकार चमरेन्द्र के वर्णन के अनुसार जानना चाहिए। सूर्य की तरह हो चन्द्रमा का अधिकार भी समझ लेना चाहिए / Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति तिर्यक्लोक के प्रसंग में द्वीपसमुद्र वक्तव्यता] [343 तिर्यक्लोक के प्रसंग में द्वीपसमुद्र-वक्तव्यता 123. कहि णं भंते ! दोवसमुद्दा पण्णत्ता? केवइया णं मंते ! दीवसमुद्दा पण्णत्ता केमहालया णं भंते ! वोवसमुद्दा पण्णत्ता? किसंठिया णं भंते ! दीवसमुद्दा पण्णता ? किमाकारभावपडोयरा णं भंते ! वीवसमुहा पण्णता ? गोयमा ! जंबुद्दीवाइया दीवा लवणाइया समुद्दा संठाणओ एकविहविहाणा वित्थारओ मणेगविधविहाणा दुगुणा दुगुणे पड़प्पाएमाणा पड़प्पाएमाणा पवित्थरमाणा पवित्थरमाणा ओभासमाणा वीचिया बहुउप्पलपउमकुमुदलिणसुभगसोगंषियपोंडरीयमहापोंडरीयसतपत्तसहस्सपत्त पप्फुल्लकेसरोवचिया पत्तेयं पत्तेयं पउमवरवेइयापरिक्खित्ता पत्तेयं पत्तेयं वणखंडपरिक्खित्ता अस्सि तिरियलोए असंखेज्जा वीवसमुद्दा सयंभरमणपज्जवसाणा पण्णत्ता समणाउसो! [123] हे भगवन् ! द्वीप समुद्र कहां अवस्थित हैं ? भगवन् ! द्वीपसमुद्र कितने हैं ? भगवन् ! वे द्वीपसमुद्र कितने बड़े हैं ? भगवन् ! उनका प्राकार कैसा है ? भंते ! उनका प्राकारभाव प्रत्यवतार (स्वरूप) कैसा है ? गौतम ! जम्बूद्वीप से प्रारम्भ होने वाले द्वीप हैं और लवणसमुद्र से प्रारभ्भ होने वाले समुद्र हैं / वे द्वीप और समुद्र (वृत्ताकार होने से) एकरूप हैं। विस्तार की अपेक्षा से नाना प्रकार के हैं अर्थात् दूने दूने विस्तार वाले हैं, प्रकटित तरंगों वाले हैं, बहुत सारे उत्पल पद्म, कुमुद, नलिन, सुभग, सौगन्धिक, पुण्डरीक, महापुण्डरीक शतपत्र, सहस्रपत्र कमलों के विकसित पराग से सुभोभित हैं / ये प्रत्येक पद्मवरवेदिका से घिरे हुए हैं, प्रत्येक के आसपास चारों ओर वनखण्ड हैं / हे आयुष्मन् श्रमण ! इस तिर्यक्लोक में स्वयंभूरमण समुद्रपर्यन्त असंख्यात द्वीपसमुद्र कहे गये हैं / विवेचन-ज्योतिष्क देव तिर्यक्लोक में हैं, अतएव तिर्यक्लोक से सम्बन्धित द्वीपों और समुद्रों की वक्तव्यता इस सूत्र में कही गई है। श्री गौतम स्वामी ने प्रश्न किया कि द्वीप और समुद्र कहाँ स्थित हैं ? वे कितने हैं ? कितने बड़े हैं ? उनका प्राकार कैसा है और उनका प्राकार भाव प्रत्यवतार अर्थात् स्वरूप किस प्रकार का है? इस तरह अवस्थिति, संख्या, प्रमाण संस्थान और स्वरूप को लेकर द्वीप-समुद्रों की पृच्छा की गई है / भगवान् ने इन प्रश्नों का उत्तर देने के पूर्व द्वीप-समुद्रों को आदि बताई है / प्रादि के विषय में प्रश्न न होने पर भी आगे उपयोगी होने से पहले आदि बताई है। साथ ही यह भी सूचित किया है कि गुणवान् शिष्य को उसके द्वारा न पूछे जाने पर भी तत्त्वकथन करना चाहिए / प्रभु ने फरमाया कि सब द्वीपों की आदि में जम्बूद्वीप है और सब समुद्रों की प्रादि में लवणसमुद्र है। सब द्वीप और समुद्र वृत्त (गोलाकार) होने से एक प्रकार के संस्थान वाले हैं परन्तु विस्तार की भिन्नता के कारण वे अनेक प्रकार के हैं। जम्बूद्वीप एक लाख योजन विस्तार वाला है / उसको घेरे हुए दो लाख योजन का लवणसमुद्र है, उसको घेरे हुए चार लाख योजन का धातकोखण्ड द्वीप है / इस प्रकार आगे आगे का द्वीप ओर समुद्र दुगुने-दुगुने विस्तार वाला है। अर्थात् ये द्वीप और समुद्र दूने दूने विस्तार वाले होते जाते हैं। ये द्वीप और समुद्र दृश्यमान जलतंरगों से तरंगित हैं / यह विशेषण समुद्रों पर तो स्पष्टतया संगत है ही किन्तु द्वीपों पर भी संगत है क्योंकि द्वीपों में भी नदी, तालाब तथा जलाशयों में तरंगों का सद्भाव है ही। ये द्वीप-समुद्र नाना Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34] [जीवानीवाभिगमसूत्र जातियों के कमलों से शोभायमान हैं / सामान्य कमल को उत्पल कहते हैं। सूर्यविकासी कमल को पा तथा चन्द्रविकासी कमल को कुमुद, ईषद् रक्त कमल को नलिन कहते हैं। सुभग और सौगन्धिक भी कमल की जातियां है / पुण्डरीक महापुण्डरीक कमल श्वेत वर्ण के होते हैं / सौ पत्तों वाला कमल शतपत्र है और हजार पत्तों वाला कमल सहस्रपत्र है। विकसित केसरों (परागों) से वे द्वीप समुद्र अत्यन्त शोभनीय हैं। ये प्रत्येक द्वीप और समुद्र एक पद्मवरवेदिका से और एक बनखण्ड से परिमण्डित हैं (घिरे हुए हैं)। इस तिर्यक्लोक में एक द्वीप और एक समुद्र के क्रम से असंख्यात द्वीप और समुद्र हैं। सबसे अन्त में स्वयंभूरमण समुद्र है / इस प्रकार अवस्थिति, संख्या, प्रमाण और संस्थान का कथन किया। आकारभाव प्रत्यवतार का कथन अगले सूत्र में किया गया है। जम्बूद्वीप वर्णन : 224. तत्थ णं अयं जंबुद्दीवे णामं दो दीवसमुद्दाणं अभितरिए सव्वखुड्डाए बट्टे तेल्लापूयसंठाणसंठिए बट्टे, रहचक्कवालसंठाणसंठिए बट्टे, पुक्खरकण्णियासंठागसंठिए बट्टे, पडिपुन्नचंदसंठाणसंठिए एक्कं जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं तिणि जोयणसहस्साई सोलस य सहस्साई दोग्णि य सत्तावीसे जोयणसए तिण्णि य कोसे अट्ठावोसं च धणुसयं तेरस अंगुलाई असंगुलकं च किचि विसेसाहियं परिक्खेवेणं पण्णते। से णं एक्काए जगतीए सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते। सा गं जगतो अट्ठ जोयणाई उड्ढे उच्चत्तेणं, मूले वारस जोयणाई विखंभेणं मज्झे अट्ठयोजणाई विक्खंमेणं उप्पि चत्तारि जोयणाई विक्खंमेणं, मूले विच्छिण्णा मज्झे संखित्ता तणुया गोपुच्छसंठाणसंठिया सव्ववइरामई अच्छा सहा लण्हा घट्ठा मट्ठा णोरया णिम्मला णिप्पंका णिकरकंडक्छाया सप्पभा समिरीया सउज्जोया पासादीया बरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा / सा णं जगती एक्केणं जालकडएणं सध्यमो समंता संपरिक्खिता। से णं जालकडए णं अजोयणं उड्ढं उच्चत्तेणं, पंच षणुसयाई विक्खंमेणं सम्वरयणामए अच्छे सण्हे लण्हे जाव पडिरूवे। [124] उन द्वीप समुद्रों में यह जम्बूद्वीप नामक द्वीप सबसे प्राभ्यन्तर (भीतर का) है, सबसे छोटा है, गोलाकार है, तेल में तले पूए के आकार का गोल है, रथ के पहिये के समान गोल है, कमल की कणिका के आकार का गोल है, पूनम के चांद के समान गोल है। यह एक लाख योजन का लम्बा चौड़ा है। तीन लाख सोलह हजार दो सौ सत्तावीस (3,16,227) योजन, तीन कोस, एक सो अट्ठाईस धनुष, साढ़े तेरह अंगुल से कुछ अधिक परिधि वाला है। __ यह जम्बूद्वीप एक जगती से चारों ओर से घिरा हुआ है। वह जगती पाठ योजन ऊंची है। उसका विस्तार मूल में बारह योजन, मध्य में पाठ योजन और ऊपर चार योजन है / मूल में विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त और ऊपर से पतली है / वह गाय की पूंछ के आकार की है / वह पूरी तरह वधरत्न की बनी हुई है / वह स्फटिक की तरह स्वच्छ है, चिकनी है, घिसी हुई होने से मृदु है / वह घिसी हुई, मंजी हुई (पालिस की हुई) रजरहित, निर्मल, पंकरहित, निरुपघात दीप्ति वाली, प्रभा वाली, किरणों वाली, उद्योत वाली, प्रसन्नता पैदा करने वाली, दर्शनीय, सुन्दर और अति सुन्दर है / वह जगती एक Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपति : तिर्यक्लोक के प्रसंग में द्वीपसमुद्र-वक्तव्यता] [345 जालियों के समूह से सब दिशाओं में घिरी हुई है (अर्थात् उसमें सब तरफ झरोखे और रोशनदान हैं)। वह जाल-समूह प्राधा योजन ऊंचा, पांच सौ धनुष विस्तार वाला है, सर्वरत्नमय है, स्वच्छ है, मृदु है, चिकना है यावत् सुन्दर और बहुत सुन्दर है। विवेचन-तिर्यक्लोक के द्वीप-समुद्रों में हमारा यह जम्बूद्वीप सर्वप्रथम है। इससे ही द्वीपसमुद्रों की प्रादि है और स्वयंभूरमणसमुद्र में उनकी परिसमाप्ति है। अतएव यह जम्बूद्वीप सब द्वीप-समुद्रों में सबसे प्राभ्यन्तर है / सबसे अन्दर का है। यह द्वीप सबसे छोटा है क्योंकि इसके आगे के जितने भी समुद्र और द्वीप हैं वे सब दूने-दुने विस्तार वाले हैं। जम्बूद्वीप के आगे लवणसमुद्र है, वह दो लाख योजन का है। उससे आगे धातकीखण्ड है, वह चार लाख योजन का है। इस तरह दूना-दूना विस्तार प्रागे-मागे होता जाता है। यह जम्बूद्वीप गोलाकार संस्थान से स्थित है। उस गोलाई को उपमाओं द्वारा स्पष्ट किया गया है। तेल में पकाये गये मालपुए की तरह यह गोल है। घी में पकाये हुए मालपुए में वैसी गोलाई नहीं होती जैसी तेल में पकाये हुए पुए में होती है, इसलिए 'तेल्लापय विशेषण दिया गया है। दसरी उपमा है रथ के पहिये को। रथ का पहिया जैसा गोल होता है वैसा यह जम्बूद्वीप गोल है। तीसरी उपमा है कमल की कणिका की। कमल की कणिका की तरह वह गोल है। चौथी उपमा है परिपूर्ण चन्द्रमण्डल की। पूनम के चाँद की तरह यह जम्बूद्वीप गोल है / यह चूड़ी के आकार का गोल नहीं है। यह जम्बूद्वीप एक लाख योजन की लम्बाई-चौड़ाई वाला है तथा इसकी परिधि (परिक्षेपघेराव) तीन लाख सोलह हजार दो सौ सत्तावीस (316227) योजन, तीन कोस, एक सौ अट्ठावीस धनुष और साढे तेरह अंगुल से कुछ अधिक है। (आयाम-विष्कंभ से परिधि लगभग तीन गुनी होती है)। इस जम्बूद्वीप के चारों ओर एक जगती है जो किसी सुनगर के प्राकार की भांति अवस्थित है। वह जगती ऊँचाई में पाठ योजन है तथा विस्तार में मूल में बारह योजन, मध्य में और ऊपर चार योजन है अर्थात् वह ऊंची उठी हुई गोपुच्छ के आकार की है। वह सर्वात्मना वनरत्नमय है / प्राकाश और स्फटिकमणि के समान वह स्वच्छ है, चिकने स्पर्श वाले पुद्गलों से निर्मित होने से चिकने तन्तुओं से बने वस्त्र की तरह श्लक्ष्ण है, घुटे हुए वस्त्र की तरह मसृण है / सान से घिसी हुई पाषाण-प्रतिमा की तरह घृष्ट है और सुकुमार सान से रगड़ी पाषाण-प्रतिमा की तरह मृष्ट है, स्वाभाविक रज से रहित होने से नीरज है, आगन्तुक मैल से हीन होने से निर्मल है, कालिमादि कलंक से विकल होने से निष्पंक है, निरुपघात दीप्तिवाली होने के कारण निष्कंटक छायावाली है, स्वरूप की अपेक्षा प्रभाववाली है, विशिष्ट शोभा सम्पन्न होने से सश्रीक है और किरणों का जाल बाहर निकलने से समरीचि है, बहिःस्थित वस्तुओं को प्रकाशित करने से सोद्योत है, मन को प्रसन्न करने वाली है, इसे देखते-देखते न मन थकता है और न नेत्र ही थकते हैं, अतः यह दर्शनीय है। देखने वालों को इसका स्वरूप बहुत ही कमनीय लगता है। प्रतिक्षण नया जैसा ही इसका रूप रहता है, अतएव यह प्रतिरूप है। यह जगती एक जालकटक से घिरी हुई है। जैसे भवन की भित्तियों में झरोखे और रोशनदान होते हैं वैसी जालियां जगह-जगह सब ओर बनी हुई हैं। यह जालसमूह दो कोस ऊंचा और पांच सौ धनुष का विस्तार वाला है। यह प्रमाण एक जाली का है। यह जालकटक (जाल-समूह) Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जीवाजीवाभिगमसूत्र सर्वात्मना रत्नमय है, स्वच्छ है, श्लक्ष्ण है और मृदु है, यावत् यह अभिरूप और प्रतिरूप है / यहाँ यावत् पद से 'घट्ठ मट्ठ नीरए निम्मले निप्पके निक्ककडच्छाए सप्पभे समरीए सउज्जोए पासाइए दरिसणिज्जे अविरूवे पडिरूवे' का ग्रहण किया गया है। . . पद्मवरवेदिका का वर्णन 125. तीसे णं जगतीए उप्पि बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं एगा महई पउमवरवेदिया पण्णत्ता। सा ; पउमवरवेदिया अद्धजोयणं उड्ढं उच्चत्तेणं पंच धणुसयाई विक्खंभेणं (सव्वरयणामए) जगतीसमिया परिक्खेवेणं सम्वरयणामई० / तोसे गं पउमवरवेइयाए अयमेयारूवे वण्णाबासे पण्णत्ते, तं जहावइरामया नेमा रिट्टामया पट्टाणा वेरुलियमया खंभा सुवष्णरुप्पमया फलगा वइरामया संधी लोहितक्खमईओ सूईओ णाणामणिमया कलेवरा कलेवरसंघाडा णाणामणिमया रूबा नाणामणिमया रूवसंघाडा अंकामया पक्खा पक्खबाहामो जोतिरसामया वंसा सकवेलुया य रययामईओ पट्टियाओ जातरूवमईओ ओहाडणीओ वइरामईओ उवरिपुञ्छणीओ सव्वसेए रययामए छादणे। ___सा णं पउमवरवेइया एगमेगेणं हेमजालेणं एगमेगेणं गवक्खजालेणं एगमेगेणं खिखिणिजालेणं जाव मणिजालेणं (कणयजालेणं रयणजालेणं) एगमेगेणं पउमवरजालेणं सवरयणामएणं सव्यओ समंता संपरिक्खित्ता। ते गं जाला तवणिज्जलंबूसगा सुवण्णपयरगमंडिया गाणामणिरयणविविहहारद्धहारउवसोभितसमुदया ईसि अण्णमण्णमसंपत्ता पुवावरदाहिणउत्तरागएहिं वाएहिं मंदागं मंदागं एज्जमाणा एज्जमाणा कंपिज्जमाणा 2 लंबबाणा 2 पझंझमाणा 2 सद्दायमाणा 2 तेणं ओरालेणं मणुण्णेणं कण्णमणिन्वुइकरेणं सद्देणं सव्वओ समंता आपूरेमाणा सिरीए अतीव उबसोमेमाणा उसोभेमाणा चिट्ठति / तोसे णं पउमवरवेइयाए तत्थ तत्थ देसे तहिं तहिं वहवे हयसंघाडा गयसंघाडा नरसंघाडा किण्णरसंघाडा किंपुरिससंघाडा महोरगसंघाडा गंधव्यसंघाडा वसहसंघाडा सम्वरयणामया अच्छा सहा लण्हा घट्ठा मट्ठा गोरया णिम्मला णिप्पंका णिक्कंकडच्छाया सप्पमा समिरीया सउज्जोया पासाईया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा। तीसे गं पउमवरवेइयाए तत्थ तत्थ देसे तहि तहिं बहवे हयपंतीओ तहेव जाव पडिरूवाओ। एवं हयवीहीओ जाव पडिरूवाओ। एवं हयमिहुणाई जाव पडिरूवाई। तीसे णं पउमवरवेइयाए तत्थ तत्थ देसे तहि लहिं बहवे पउमलयाओ नागलयाओ एवं प्रसोग० चंपग० चूयवण. वासंति० अतिमुत्तग० कुंदलयानो सामलयाओ णिच्चं कुसुमियाओ जाव सुविहत्तपिंडमंजरिवडिसकधरीओ सव्वरयणामईओ सहाओ लण्हाओ घट्ठामो मट्ठाओ णोरयाओ णिप्पंकाओ णिक्कंकडच्छायाओ सम्पभानो समिरीयाओ सउज्जोयाओ पासाईयाओ बरिसणिज्जाओ अभिरूवानो पडिरूवाओ / [तीसे गं पउमवरवेइयाए तत्थ तस्थ वेसे तहि तहिं बहवे अक्खयसोत्थिया पणत्ता सव्वरयणामया अच्छा। Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : पप्रवरवेदिका का वर्णन] [347 से केणठे गं भंते ! एवं वुच्चइ-पउमवरवेइया पउमवरवेइया ? गोयमा ! पउमवरवेइयाए तत्थ तत्य देसे तहि तहिं वेदियासु वेदियाबाहासु वेदियासीसफलएसु वेदियापुडंतरेसु खमेसु खंभबाहासु खंभसोसेसु खंभपुडंतरेसु सूईसु सूईमुहेसु सूईफलएसु सूईपुडतरेसु पक्खेसु पक्खबाहासु पक्खपेरंतरेसु बहूई उप्पलाई पउमाई जाव सयसहस्सपत्ताई सध्वरयणामयाइं अच्छाई सहाई लण्हाई धट्ठाई मट्टाई गोरयाई णिम्मलाई निप्पंकाई निक्कंकडच्छायाई सप्पभाई समिरीयाई सउज्जोयाई पासादीयाई दरिसणिज्जाई अभिरुवाइं पडिरूवाई महया महया वासिक्कच्छत्तसमयाइं पण्णत्ताई समणाउसो ! से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ पउमवरवेइया पउमयरवेइया। पउमयरवेइया णं भंते ! कि सासया असासया ? गोयमा ! सिय सासया सिय असासया। से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ-सिय सासया सिय असासया ? गोयमा ! दब्धट्टयाए सासया; वण्णपज्जवेहि गंधपज्जवेहि रसपज्जवेहि फासपंज्जवेहि असासया से तेणटठेणं गोयमा! बुच्चइ-सिय सासया सिय असासया। पउमवरवेइया णं भंते ! कालमओ केवच्चिरं होइ ? गोयमा ! ण कयावि णासी, कयावि पत्थि, ण कयावि न भविस्सइ। भुवि च, भवइ य, भविस्सइ य / धुवा नियया सासया अक्खया अन्वया प्रवटिया णिच्चा पउमवरवेदिया // (125) उस जगती के ऊपर ठीक मध्यभाग में एक विशाल पद्मवरवेदिका कही गई है। वह पद्मवरवेदिका आधा योजन ऊंची और पांच सौ धनुष विस्तार वाली है। वह सर्वरत्नमय है। उसकी परिधि जगती के मध्यभाग की परिधि के बराबर है। यह पद्मवरवेदिका सर्वरत्नमय है, स्वच्छ है, यावत् अभिरूप, प्रतिरूप है। उस पद्मवरवेदिका का वर्णन इस प्रकार है-उसके नेम (भूमिभाग से ऊपर निकले हुए प्रदेश) वज्ररत्न के बने हुए हैं, उसके मूलपाद (मूलपाये) रिष्टरत्न के बने हुए हैं, इसके स्तम्भ वैडूर्यरत्न के हैं, उसके फलक (पटिये) सोने चांदी के हैं, उसकी संधियाँ वज्रमय हैं, लोहिताक्षरत्न की बनी उसकी सूचियाँ हैं (ये सूचियाँ पादुकातुल्य होती हैं जो पाटियों को जोड़े रखती हैं, विघटित नहीं होने देती) ! यहाँ जो मनुष्यादि शरीर के चित्र बने हैं वे अनेक प्रकार की मणियों के बने हुए हैं तथा स्त्री-पुरुष युग्म की जोड़ी के जो चित्र बने हुए हैं वे भी अनेकविध मणियों के बने हुए हैं। मनुष्यचित्रों के अतिरिक्त जो चित्र बने हैं वे सब अनेक प्रकार की मणियों के बने हुए हैं। अनेक जीवों की जोड़ी के चित्र भी विविध मणियों के बने हुए हैं। उसके पक्ष-आजू-बाजू के भाग अंकरत्नों के बने हुए हैं / बड़े बड़े पृष्ठवंश ज्योतिरत्न नामक रत्न के हैं। बड़े वंशों को स्थिर रखने के लिए उनकी दोनों ओर तिरछे रूप में लगाये गये बांस भी ज्योतिरत्न के हैं / बांसों के ऊपर छप्पर पर दी लम्बी लकड़ी की पट्टिकाएँ चाँदी की बनी हैं। कंबाओं को ढांकने के लिए उनके ऊपर जो प्रोहाडणियाँ (आच्छादन हेतु बड़ी किमडियां) हैं वे सोने की हैं और पुंछनियाँ (निबिड आच्छादन के लिए मुलायम तृणविशेष तुल्य छोटी किमडिया वजरत्न की हैं, पुञ्छनी के ऊपर और कवेल के नीचे का आच्छादन श्वेत चाँदी का बना हुआ है। Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 348]] [जीवाजीवाभिगमसूत्र वह पद्मवरवेदिका कहीं पूरी तरह सोने के लटकते हुए मालासमूह से, कहीं गवाक्ष की प्राकृति के रत्नों के लटकते मालासमूह से, कहीं किंकणी (छोटी घंटियां) और कहीं बड़ी घंटियों के आकार की मालाओं से, कहीं मोतियों की लटकती मालाओं से, कहीं मणियों की मालाओं से, कहीं सोने की मालाओं से, कहीं रत्नमय पद्म की आकृति वाली मालाओं से सब दिशा-विदिशाओं में व्याप्त है। वे मालाएँ तपे हुए स्वर्ण के लम्बूसग (पेण्डल) वाली हैं, सोने के पतरे से मंडित हैं, नाना प्रकार के मणिरत्नों के विविध हार-अर्धहारों से सुशोभित हैं, ये एक दूसरी से कुछ ही दूरी पर हैं (पास-पास है), पूर्व-पश्चिम-उत्तर-दक्षिण दिशा से आगत वायु से मन्द-मन्द रूप से हिल रही हैं, कंपित हो रही हैं, (हिलने और कंपित होने से) लम्बी-लम्बी फैल रही हैं, परस्पर टकराने से शब्दायमान हो रही हैं। उन मालाओं से निकला हुअा शब्द जोरदार होकर भी मनोज्ञ, मनोहर और श्रोताओं के कान एवं मन को सुख देने वाला होता है / वे मालाएँ मनोज्ञ शब्दों से सब दिशाओं एवं विदिशामों को आपूरित करती हुई श्री से अतीव सुशोभित हो रही हैं। उस पावरवेदिका के अलग-अलग स्थानों पर कहीं पर अनेक घोड़ों की जोड़, हाथी की जोड़, नर, किन्नर, किंपुरुष, महोरग, गन्धर्व और बैलों की जोड़ उत्कीर्ण हैं जो सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप हैं। उस पद्मवरवेदिका के अलग-अलग स्थानों पर कहीं घोड़ों की पंक्तियां (एक दिशावर्ती श्रेणियां) यावत् कहीं बैलों की पंक्तियां आदि उत्कीर्ण हैं जो सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप हैं। उस पावरवेदिका के अलग-अलग स्थानों पर कहीं घोड़ों की वीथियां (दो श्रेणीरूप) यावत् कहीं बैलों को वीथियां उत्कीर्ण हैं जो सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं, यावत् प्रतिरूप हैं। उस पावरवेदिका के अलग-अलग स्थानों पर कहीं घोड़ों के मिथुनक (स्त्री-पुरुषयुग्म) यावत् बैलों के मिथुनक उत्कीर्ण हैं जो सर्वरत्नमय यावत् प्रतिरूप हैं। उस पद्मवरवेदिका में स्थान-स्थान पर बहुत-सी पद्मलता, नागलता, अशोकलता, चम्पकलता, चूतवनलता, वासंतीलता, अतिमुक्तकलता, कुंदलता, श्यामलता नित्य कुसुमित रहती हैं यावत् सुविभक्त एवं विशिष्ट मंजरी रूप मुकुट को धारण करने वाली हैं / ये लताएँ सर्वरत्नमय हैं, श्लक्ष्ण हैं, मृदु हैं, घृष्ट हैं, मृष्ट हैं, नीरज हैं, निर्मल हैं, निष्पंक हैं, निष्कलंक छवि वाली हैं, प्रभामय हैं, किरणमय हैं, उद्योतमय हैं, प्रसन्नता पैदा करने वाली हैं, दर्शनीय हैं, अभिरूप हैं और प्रतिरूप हैं। (उस पद्मवरवेदिका में स्थान-स्थान पर बहुत से अक्षय स्वस्तिक कहे गये हैं, जो सर्वरत्नमय और स्वच्छ हैं।) हे भगवन् ! पद्मवरवेदिका को पद्मवरवेदिका क्यों कहा जाता है ? गौतम ! पद्मवरवेदिका में स्थान-स्थान पर वेदिकाओं (बैठने योग्य मत्तवारणरूप स्थानों) में, वेदिका के प्राजू-बाजू में, दो वेदिकानों के बीच के स्थानों में, स्तम्भों के आसपास, स्तम्भों के ऊपरी भाग पर, दो स्तम्भों के बीच के अन्तरों में, दो पाटियों को जोड़नेवाली सूचियों पर, सूचियों के मुखों Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : वनखण्ड-धर्मन] पर, सूचियों के नीचे और ऊपर, दो सूचियों के अन्तरों में, वेदिका के पक्षों में, पक्षों के एक देश में, दो पक्षों के अन्तराल में बहुत सारे उत्पल (कमल), पद्म (सूर्यविकासी कमल), कुमुद, (चन्द्रविकासी कमल), नलिन, सुभग, सौंगन्धिक, पुण्डरीक (श्वेतकमल), महापुण्डरीक (बड़े श्वेतकमल), शतपत्र, सहस्रपत्र आदि विविध कमल विद्यमान हैं। वे कमल सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं यावत् अभिरूप हैं, प्रतिरूप हैं / ये सब कमल वर्षाकाल के समय लगाये गये बड़े छत्रों (छतरियों) के आकार के हैं। हे आयुष्मन् श्रमण ! इस कारण से पद्मवरवेदिका को पद्मवरवेदिका कहा जाता है। हे भगवन् ! पावरवेदिका शाश्वत है या अशाश्वत है ? गौतम ! वह कथञ्चित् शाश्वत है और कथञ्चित् अशाश्वत है। - हे भगवन् ! ऐसा क्यों कहा जाता है कि पद्मवरवेदिका कथञ्चित् शाश्वत है और कञ्चित् अश्वाश्वत है ? __ गौतम ! द्रव्य की अपेक्षा शाश्वत है और वर्णपर्यायों से, रसपर्यायों से, गन्धपर्यायों से, और स्पर्शपर्यायों से प्रशाश्वत है। इसलिए हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि पद्मवरवेदिका कथञ्चित् शाश्वत है और कथञ्चित् अशाश्वत है। हे भगवन् ! पद्मवरवेदिका काल की अपेक्षा कब तक रहने वाली है ? गौतम ! वह 'कभी नहीं थी'-ऐसा नहीं है 'कभी नहीं है। ऐसा नहीं है, 'कभी नहीं रहेगी ऐसा नहीं है / वह थी, है और सदा रहेगी। वह ध्रव है, नियत है, शाश्वत है, अक्षय है, अव्यय है, अवस्थित है और नित्य है / यह पावरवेदिका का वर्णन हुआ। बनखण्ड-वर्णन 126 [1] तोसे गं जगईए उप्पि बाहि पउमवरवेदियाए एल्थ गं एगे महं वनसंडे पण्णते, वसूणाई दो जोयणाई चकवालविक्खंभेणं जगतोसमए परिक्खेवेणं, किण्हे किण्होभासे जाव [ते गं पायवा मूलवंता कंदवता खंधवंता तयावंता सालवंता पवालवंता पत्तपुप्फफलवीयवंता अणपुथ्वसुजायरुइलवट्टमावपरिणया एगखंधी अणेगसाहप्पसाहविडिमा, अणेगणरव्वामसुपसारियगेज्म-घणविउलयदृखंषा अच्छिद्दपत्ता अविरलपत्ता अवाईणपत्ता अणईइपत्ता णियजरढपंडुरपत्ता, नवहरियभिसंतपत्तंषयारगंभीरवरिसणिज्जा उवविणिग्गयणवतरुणपत्तपल्लवकोमलुज्जलचलंतकिसलयसुकुमालसोहियवरंकुरग्गसिहरा, णिच्चं कुसुमिआ णिच्चं मउलिया णिच्चं लवइया निच्चं थवइया, णिच्चं गोच्छिया निच्चं जमलिया गच्च जुलिया निच्चं विणमिया निच्चं पणमिक्षा निच्चं कुसुमिय-मउलिय-लवइय-थवइय-गुलइय-गोच्छिय-जमलिय-जुगलियविणमियपणमियसुविभत्तपडिमंजरिवडंसगधरा सुप-बरहिण-मयणसलागा-कोइल-कोरग-भिगारग-कोंडलग-जीवंजीवगगंविमुह-कविल-पिंगलक्ख-कारंडव-चक्कवाग-कलहंस-सारसाणेगसउणगणमिण विचारिय सद्दुनाइयमहरसनाइय-सुरम्मा संपिडियदप्पियभमर-महुयरीपहकरा परिलीयमाणमत्तछप्पय-कुसुमासवलोलमहुरगुमगुमायंत-गुजंतदेसभागा अग्मितरपुष्फफला बाहिरपत्तछन्ना जीरोगा अकंटगा साउफला गिद्धफला गाणाविहगुच्छगुम्ममंडवगसोहिया विचित्तसुहकेउबहुला वावी-पुक्खरिणि-दीहिया Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 350] [जीवाजीवाभिगमसूत्र सुनिवेसिय रम्यजालघरगा पिडिम, सुहसुरहिमणोहरं महया गंपद्धणि णिच्चं मुंचमाणा सुहसे उकेउ बहुला.....] अणेगसगड-रह-जाण-जुग्ग (सिविय- संदमाणिय) परिमोयणे सुरम्मे पासाईए सण्हे लण्हे घट्ट म8 नोरए निष्पके निम्मले निक्कंकडच्छाए सप्पमे समिरीए सउज्जोए पासाईए दरिसणिज्जे अभिरुवे पडिरूवे। तस्स णं वणसंडस्स अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिमाए पण्णत्ते, से जहानामए प्रालिंगपुक्खरेइ वा मुइंगपुक्खरे इ वा सरतले इ वा करतले इ वा आयसमंडले इ वा चंदमंडले इ वा सूरमंडले इवा उरम्भचम्भे इ वा, उसभचम्मे इ वा वराहचम्मे इ वा सोहचम्मे इ वा वग्घचम्मे इ वा विगचम्मे इवा अगसंकुकीलगसहस्सवितते आवड-पच्चाबड सेढीपसेढीसोत्थियसोवस्थियपूसमाण-वढमाण-मच्छंडकमकरंडक-जारमार-फुल्लावलि-पउमपत्त-सागरतरंग-वासंतिलय-पउमलयभत्तिचिहि सच्छाएहिं समिरीएहि नानाविहपंचवणेहि तणेहि य मणिहि य उवसोहिए तं जहा-किण्हेहिं जाव सुक्किलेहिं / [126] (1) उस जगती (प्राकारकल्प) के ऊपर और पद्मवरवेदिका के बाहर एक बड़ा विशाल वनखण्ड' कहा गया है। वह वनखण्ड कुछ कम दो योजन गोल विस्त उसकी परिधि जगती की परिधि के समान ही है। वह वनखण्ड खूब हराभरा होने से तथा छायाप्रधान होने से काला है और काला ही दिखाई देता है। यावत् [उस वनखण्ड के वृक्षों के मूल बहुत दूर तक जमीन के भीतर गहरे गये हुए हैं, वे प्रशस्त कंद वाले, प्रशस्त स्कन्धवाले, प्रशस्त छाल वाले, प्रशस्त शाखा वाले, प्रशस्त किशलय वाले, प्रशस्त पत्र वाले और प्रशस्त फूल-फल और बीज वाले हैं। वे सब पादप समस्त दिशाओं में और विदिशामों में अपनी-अपनी शाखाप्रशाखाओं द्वारा इस ढंग से फैले हुए हैं कि वे गोल-गोल प्रतीत होते हैं। वे मूलादि क्रम से सुन्दर, सुजात और रुचिर (सुहावने) प्रतीत होते हैं। ये वृक्ष एक-एक स्कन्ध वाले हैं। इनका गोल स्कन्ध इतना विशाल है कि अनेक पुरुष भी अपनी फैलायी हई बाहों में उसे ग्रहण नहीं कर सकते / इन वृक्षों के पत्ते छिद्ररहित हैं, अविरल हैं---इस तरह सटे हुए हैं कि अन्तराल में छेद नहीं दिखाई देता / इनके पत्त वायु से नीचे नहीं गिरते हैं, इनके पत्तों में ईति-रोग नहीं होता / इन वृक्षों के जो पत्तपुराने पड़ जाते हैं या सफेद हो जाते हैं वे हवा से गिरा दिये जाते हैं और अन्यत्र डाल दिये जाते हैं। नये और हरे दीप्तिमान पत्तों के झुरमुट से होनेवाले अन्धकार के कारण इनका मध्यभाग दिखाई न पड़ने से ये रमणीय-दर्शनीय लगते हैं / इनके अग्रशिखर निरन्तर निकलने वाले पल्लवों और कोमल-उज्जवल तथा कम्पित किशलयों से सुशोभित हैं। ये वृक्ष सदा कुसुमित रहते हैं, नित्य मुकुलित रहते हैं, नित्य पल्लवित रहते हैं, नित्य स्तबकित रहते हैं, नित्य गुल्मित रहते नित्य गुच्छित रहते हैं, नित्य यमलित रहते हैं, नित्य युगलित रहते हैं, नित्य विनमित रहते हैं, एवं नित्य प्रणमित रहते हैं / इस प्रकार नित्य कुसुमित यावत् नित्य प्रणमित बने हुए ये वृक्ष सुविभक्त प्रतिमंजरी रूप अवतंसक को धारण किये रहते हैं। इन वृक्षों के ऊपर शुक के जोड़े, मयूरों के जोड़े, मदनशलका-मैना के जोड़े, कोकिल के जोड़े, चक्रवाक के जोड़े, कलहंस के जोड़े, सारस के जोड़े इत्यादि अनेक पक्षियों के जोड़े बैठे-बैठे बहुत दूर 1. 'एगजाइएहिं रुक्खेहि वणं अणेगजाइएहि उत्तमेहिं रुक्खेहि वणसंडे'–एक सरीखे वृक्ष जहाँ हों वह वन और अनेक जाति के उत्तम वक्ष जहाँ हों वह बनखण्ड है। -वृत्ति ह Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : वनखण वर्णन ] [351 तक सुने जाने वाले उन्नत शब्दों को करते रहते हैं-चहचहाते रहते हैं, इससे इन वृक्षों की सुन्दरता में विशेषता आ जाती है। मधु का संचय करने वाले उन्मत्त भ्रमरों और भ्रमरियों का समुदाय उन पर मंडराता रहता है। अन्य स्थानों से पा-पाकर मधुपान से उन्मत्त भंवरे पुष्पपराग के पान में मस्त बनकर मधुर-मधुर गुंजारव से इन वृक्षों को गुंजाते रहते हैं। इन वृक्षों के पुष्प और फल इन्हीं के भीतर छिपे रहते हैं / ये वृक्ष बाहर से पत्रों और पुष्पों से प्राच्छादित रहते हैं / ये वृक्ष सब प्रकार के रोगों से रहित हैं, कांटों से रहित हैं / इनके फल स्वादिष्ट होते हैं और स्निग्धस्पर्श वाले होते हैं / ये वृक्ष प्रत्यासन्न नाना प्रकार के गुच्छों से गुल्मों से लतामण्डपों से सुशोभित हैं / इन पर अनेक प्रकार की ध्वजाएँ फहराती रहती हैं। इन वृक्षों को सींचने के लिए चौकोर वावडियों में, गोल पुष्करिणियों में, लम्बी दीपिकाओं में सुन्दर जालगृह बने हुए हैं। ये वृक्ष ऐसी विशिष्ट मनोहर सुगंध को छोड़ते रहते हैं कि उससे तृप्ति ही नहीं होती। इन वृक्षों की क्यारियां शुभ है और उन पर जो ध्वजाएँ हैं वे भी अनेक रूप वाली हैं।] अनेक गाड़ियां, रथ, यान, युग्य (गोल्लदेश प्रसिद्ध जम्पान), शिविका और स्यन्दमानिकाएँ उनके नीचे (छाया अधिक होने से) छोड़ी जाती हैं। वह वनखण्ड सुरम्य है, प्रसन्नता पैदा करने वाला है, श्लक्ष्ण है, स्निग्ध है, घृष्ट है, मृष्ट है, नीरज है, निष्पंक है, निर्मल है, निरुपहत कान्ति वाला है, प्रभा वाला है, किरणों वाला है, उद्योत करने वाला है, प्रासादिक है. दर्शनीय है, अभिरूप है और प्रतिरूप है। उस वनखण्ड के अन्दर अत्यन्त सम और रमणीय भूमिभाग है। वह भूमिभाग मुरुज (वाद्यविशेष) के मढे हुए चमड़े के समान समतल है, मृदंग के मढे हुए चमड़े के समान समतल है. पानी से भरे सरोवर के तल के समान, हथेली के समान, दर्पणतल के समान, चन्द्रमण्डल के समान, सूर्यमण्डल के समान, उरभ्र (धेटा) के चमड़े के समान, बैल के चमड़े के समान, वराह (सुअर) के चर्म के समान, सिंह के चर्म के समान, व्याघ्रचर्म के समान, भेडिये के चर्म के समान और चीते के चमड़े के समान समतल है। इन सब पशुओं का चमड़ा जब शंकु प्रमाण हजारों कीलों से ताड़ित होता हैखींचा जाता है तब वह बिल्कुल समतल हो जाता है (अतएव उस भूमिभाग की समतलता को बताने के लिए ये उपमाएँ हैं।) वह वनखण्ड पावर्त, प्रत्यावर्त, श्रेणी, प्रश्रेणी, स्वस्तिक, सौवस्तिक, पूष्यमाणव, वर्धमानक, मत्स्यंडक, मकरंडक, जारमारलक्षण वाली मणियों, नानाविध पंचवर्ण वाली मणियों, पुष्पावली, पद्मपत्र, सागरतरंग, वासन्तीलता, पद्मलता आदि विविध चित्रों से युक्त मणियों और तृणों से सुशोभित है। वे मणियां कान्ति वाली, किरणों वाली, उद्योत करने वाली और कृष्ण यावत शक्ल रूप पंचवर्णों वाली हैं / ऐसे पंचवर्णी मणियों और तृणों से वह वनखण्ड सुशोभित है। विवेचन--प्रस्तुत सूत्र में वनखण्ड का वर्णन किया गया है। कुछ कम दो योजन प्रमाण विस्तार वाला और जगती के समान ही परिधि वाला यह वनखण्ड खूब हराभरा होने से तथा छायाप्रधान होने से काला है और काला दिखाई देता है। इसके आगे 'यावत्' शब्द दिया गया है, उससे अन्यत्र दिये गये अन्य विशेषण इस प्रकार जानने चाहिए - हरिए हरिओभासे-कहीं-कहीं बनखण्ड हरित है और हरितरूप में ही उसका प्रतिभास होता है। नीले नीलोभासे-कहीं-कहीं यह वनखण्ड नीला है और नीला ही प्रतिभासित होता है। हरित अवस्था को पार कर कृष्ण अवस्था को नहीं प्राप्त हुए पत्र नीले कहे जाते हैं। इनके योग से उस वनखण्ड को नील और नीलावभास कहा गया है / Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 352] [नौवाजीवामिममसूत्र सीए सीओभासे-वह बनखण्ड शीत और शीतावभास है। जब पत्त बाल्यावस्था पार कर माते हैं तब वे शीतलता देने वाले हो जाते हैं। उनके योग से वह वनखण्ड भी शीतलता देने वाला है और शीतल ही प्रतीत होता है। णिद्ध णिद्धोभासे, तिब्वे तिव्योभासे-ये काले नीले हरे रंग अपने स्वरूप में उत्कट, स्निग्ध और तीव्र कहे जाते हैं। इस कारण इनके योग से वह वनखण्ड भी स्निग्ध, स्निग्धावभास, तीव, तीव्रावभास कहा गया है। अवभास भ्रान्त भी होता है / जैसे मरु-मरीचिका में जल का अवभास भ्रान्त है। प्रतएव भ्रान्त अवभास का निराकरण करते हुए अन्य विशेषण दिये गये हैं, यथा किण्हे किण्हछाये-वह वनखण्ड सबको समानरूप से काला और काली छाया वाला प्रतीत होता है। सबको समानरूप से ऐसा प्रतीत होने से उसकी अविसंवादिता प्रकट की है। जो भ्रान्त अवभास होता है, वह सबको एक सरीखा प्रतीत नहीं होता है। नीले नीलच्छाये, सीए सीयच्छाये-वह वनखण्ड नोला और नीली छाया वाला है। शीतल और शीतल छाया वाला है। यहां छाया शब्द आतप का प्रतिपक्षी वस्तुवाची समझना चाहिए। घणकरियच्छाए-इस वनखण्ड के वृक्षों की छाया मध्यभाग में प्रति धनी है क्योंकि मध्यभाग में बहुत-सी शाखा-प्रशाखाएं फैली हुई होती हैं। इससे उनकी छाया घनी होती है। रम्मे-यह वनखण्ड रमणीय है। महामेहनिकुरंबभूए-वह वनखण्ड जल से भरे हुए महामेघों के समुदाय के समान है। वनखण्ड के वृक्षों का वर्णन मूलपाठ से ही स्पष्ट है जो कोष्ठक में दिया गया है। उस वनखण्ड का भूमिभाग अत्यन्त रमणीय और समतल है। उस समतलता को बताने के लिए विविध उपमाएँ दी गई हैं / मुरज, मृदंग, सरोवर, करतल, प्रादर्शमण्डल, चन्द्रमण्डल, सूर्यमण्डल, उरभ्रचर्म, वृषभचर्म आदि विविध पशुओं के खींचे हुए चर्म के तल से उस भूभाग की समतलता की सुलना की गई है। उक्त पशुओं के चर्म को कीलों की सहायता से खींचने पर वह एकदम सलरहित होकर समतल—एकसरीखा तल वाला होता है, वैसा ही वह भूभाग ऊबड़-खाबड या ऊँचा-नीचा और विषम न होकर समतल है, अतएव अत्यन्त रमणीय है। इतना ही नहीं उस समतल भूमिभाग पर विविध भांति के चित्र चित्रित हैं। इन चित्रों में पावर्त, प्रत्यावर्त, श्रेणी, प्रश्रेणी, स्वस्तिक, सौवस्तिक, पुष्यमाणव, वर्द्ध मानक, मत्स्यंडक, मकरंडक जारमार लक्षण वाली पांच वर्ण की मणियों से निर्मित चित्र हैं। पुष्पावली, पक्षपत्र, सागरतरंग, वासन्तीलता, पद्मलता आदि के विविध चित्र पांच वर्ण वाली मणियों और तृणों से चित्रित हैं। वे मणियां पांच रंगों की हैं, कान्तिवाली, किरणोंवाली हैं। उद्योत करने वाली हैं। अगले सूत्रखण्ड में पांच वर्गों की मणियों एवं तृणों का उपमानों द्वारा वर्णन किया गया है, वह इस प्रकार है 126. [2] तत्थ णं जे ते किण्हा तणा य मणि य तेसि णं अयमेयारवे वण्णावासे पण्णत्ते, से जहाणामए जीमूएइ वा, अंजणे इ वा, खंजणे इ वा, कज्जले इवा,' मसी इवा, गुलिया इवा, गवले इ १-किन्हीं-किन्हीं प्रतियों में मसी इवा, 'गुलियावा' पाठ नहीं है। Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : वनखण्ड वर्णन] [353 वा, गवलगुलिया इ वा, भमरे इ वा, भमरावलिया इवा, भमरपत्तगयसारे इ वा, जंबूफले इ वा, अद्दारिठे इ वा, परपुढे इवा, गए इवा, गयकलमे इ वा, कण्हसप्पे इ वा, कण्हकेसरे इ वा, आगासथिग्गले इ वा, कण्हासोए इ वा, कण्हकणवीरे इ वा, कण्हबंधुजीवए इ वा, भवे एयारूवे सिया ? गोयमा ! णो तिणटठे समझें / सेसि णं कण्हाणं तणाणं मणीण य इत्तो इट्टयराए चेव कंततराए चेव पियतराए चेव मणुण्णतराए चेव मणामतराए चेव वणे णं पण्णत्ते।। [126] (2) उन तृणों और मणियों में जो काले वर्ण के तृण और मणियां हैं, उनका वर्णावास इस प्रकार कहा गया है-जैसे वर्षाकाल के प्रारम्भ में जल भरा बादल हो, सौवीर अंजन अथवा अञ्जन रत्न हो, खञ्जन (दीपमल्लिका मैल, गाड़ी का कीट) हो, काजल हो, काली स्याही हो (घुला हुया काजल), घुले हुए काजल को गोली हो, भैसे का शृग हो, भैसे के शृग से बनी गोली हो, भंवरा हो, भौरों की पंक्ति हो, भंवरों के पंखों के बीच का स्थान हो, जम्बू का फल हो, गीला अरीठा हो, कोयल हो, हाथी हो, हाथी का बच्चा हो, काला सांप हो, काला बकुल हो, बादलों से मुक्त आकाशखण्ड हो, काला अशोक, काला कनेर और काला बन्धुजीव (वृक्ष) हो / हे भगवन् ! ऐसा काला वर्ण उन तृणों और मणियों का होता है क्या? हे गौतम! ऐसा नहीं है। इनसे भी अधिक इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ और मनोहर उनका वर्ण होता है। 126.[3] तस्थ णं जे ते णीलगा तणा य मणी य तेसि णं इमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते-से जहानामए भिगे इ वा, भिंगपत्ते इबा, चासे इ वा, चासपिच्छे इ वा, सुए इ वा, सुयपिच्छे इ वा, णीली इ वा, पीलीभेए इ बा, गोलीगुलिया इवा, सामाए इ वा, उच्चसए इवा, वणराई इ वा, हलधरवसणे इ वा, मोरगीवा इ वा, पारेवयगोवा इ वा, अयसिकुसुमे इ वा, अंजणकेसिगाकुसुमे इ वा, णीलुप्पले इ वा, गोलासोए इ वा, णीलकणवीरे इ वा, गोलबंधुजीवए इ वा, भवे एयारूवे सिया? भो इणठे समझें / तेसि णं णीलगाणं तणाणं मणीण य एत्तो इद्रुतगराए चेव कंततराए चेव जाव वण्णणं पण्णत्ते। [126] (3) उन तृणों और मणियों में जो नीलो मणियां और नीले तृण हैं, उनका वर्ण इस प्रकार का है-जैसे नीला भ्रग (भिंगोडी-पंखवाला लघु जन्तु-नीला भंवरा) हो, नीले भ्रग का पंख हो, चास (पक्षीविशेष) हो, चास का पंख हो, नीले वर्ण का शुक (तोता) हो, शुक का पंख हो, नील हो, नीलखण्ड हो, नील की गुटिका हो, श्यामाक (धान्य विशेष) हो, नीला दंतराग हो, नीली वनराजि हो, बलभद्र का नीला वस्त्र हो, मयूर की ग्रीवा हो, कबूतर की ग्रीवा हो, अलसी का फूल हो, अजनकेशिका वनस्पति का फूल हो, नीलकमल हो, नीला अशोक हो, नीला कनेर हो, नीला बन्धुजीवक हो, भगवन् ! क्या ऐसा नीला उनका वर्ण होता है ? गौतम ! यह बात नहीं है / इनसे भी अधिक इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ और मनोहर उन नीले तृण-मणियों का वर्ण होता है / 126. [4] तत्थ णं जे ते लोहितगा तणा य मणी य तेसि णं अयमेयारूचे वण्णावासे पणत्तेसे जहानामए ससकरुहिरे इ वा, उरभरुहिरे इ वा, पररुहिरे इ वा, वराहरुहिरे इ वा, महिसरुहिरे इ वा, बालिदगोवए इ वा, बालविवागरे इबा, संशभरागे इ वा, गुजरागे इ वा, जातिहिंगुलुए इवा, Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 354] [जीवाजीवाभिगमसूत्र सिलप्पवाले इ का, पवालंकुरे इ वा, लोहितक्खमणी इ वा, लक्खारसए इवा, किमिरागे इ वा, रत्तकंबले इ वा, चीणपिट्ठरासी इ वा, जासुयणकुसुमे इ वा, किसुअकुसुमे इ वा, पारिजायकुसुमे इवा, रत्तप्पले इ वा, रत्तासोगे इ वा, रत्तकणयारे इ वा, रत्तबंधुजीवे इ वा, भवे एयारवे सिया ? ___ नो तिणठे समझें / तेसि णं लोहियगाणं तणाण य मणीण य एत्तो इट्ठयराए चेव जाव वणे णं पण्णत्ते। [126] (4) उन तृणों और मणियों में जो लाल वर्ण के तृण और मणियां हैं, उनका वर्ण इस प्रकार कहा गया है-जैसे खरगोश का रुधिर हो, भेड़ का खून हो, मनुष्य का रक्त हो, सूअर का रुधिर हो, भैंस का रुधिर हो, सद्यःजात इन्द्रगोप (लाल वर्ण का कीड़ा) हो, उदीयमान सूर्य हो, सन्ध्याराग हो, गुंजा का अर्धभाग हो, उत्तम जाति का हिंगुलु हो, शिलाप्रवाल (मूंगा) हो, प्रवालांकुर (नवीन प्रवाल का किशलय) हो, लोहिताक्ष मणि हो, लाख का रस हो, कृमिराग हो, लाल कंबल हो, चीन धान्य का पीसा हुमा पाटा हो, जपा का फूल हो, किंशुक का फूल हो, पारिजात का फूल हो, लाल कमल हो, लाल अशोक हो, लाल कनेर हो, लाल बन्धुजीवक हो, भगवन् ! क्या ऐसा उन तृणों, मणियों का वर्ण है ? गौतम ! यह यथार्थ नहीं है। उन लाल तृणों और मणियों का वर्ण इनसे भी अधिक इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ और मनोहर कहा गया है। 126. (5) तत्थ णं जे ते हालिद्दगा तणा य मणी य तेसि णं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते-से जहानामए चंपए इ वा, चंपगच्छल्लो इ वा, चंपगमेए इ वा, हालिद्दा इ घा, हालिद्दमेए इ बा, हालिद्दगुलिया इ वा, हरियाले इ वा हरियालमेए इवा, हरियालगुलिया इ वा, घिउरे इ वा, चिउरंगरागे इ वा, वरकणए इ वा, वरकणगनिघसे इ वा (सुवण्णसिप्पिए इ वा) वरपुरिसवसणे इ वा, सल्लइकुसुमे इ वा, चंपककुसुमे इ वा, कुहुंडियाकुसुमे इ वा, (कोरंटकदामे इ वा) तडउडाकुसुमे इ वा, घोसाडियाकुसुमे इ वा, सुवष्णजूहियाकुसुमे इ वा, सुहरिनयाकुसुमे इ वा (कोरिटवरमल्लदामे इ वा), बीयगकुसुमे इ वा, पीयासोए त्ति वा, पीयकणवीरे इ वा, पीयबंधुजीवए इवा, भवे एयारूबे सिया? नो इणठे समठे। ते णं हालिहा तणा य मणी य एत्तो इट्ठयरा चेव जाव वण्णे णं पण्णता / [126] (5) उन तृणों और मणियों में जो पीले वर्ण के तृण और मणियां हैं उनका वर्ण इस प्रकार का कहा गया है। जैसे सवर्णचम्पक का वक्ष हो, सवर्णचम्पक की छाल हो, सुवर्णचम्पक का खण्ड हो, हल्दी, हल्दी का टुकड़ा हो, हल्दी के सार की गुटिका हो, हरिताल (पृथ्वीविकार रूप द्रव्य) हो, हरिताल का टुकड़ा हो, हरिताल की गुटिका हो, चिकुर (रागद्रव्यविशेष) हो, चिकुर से बना हुया वस्त्रादि पर रंग हो, श्रेष्ठ स्वर्ण हो, कसौटी पर घिसे हुए स्वर्ण की रेखा हो, (स्वर्ण की सीप हो), वासुदेव का वस्त्र हो, सल्लकी का फूल हो, स्वर्णचम्पक का फूल हो, कूष्माण्ड का फूल हो, कोरन्टपुष्प को माला हो, तडवडा (आवली) का फूल हो, घोषातकी का फूल हो, सुवर्णयूथिका का फूल हो, सुहरण्यिका का फूल हो, बीजकवृक्ष का फूल हो, पीला अशोक हो, पीला कनेर हो, पीला बन्धुजीवक हो / भगवन् ! उन पीले तृणों और मणियों का ऐसा वर्ण है क्या? गौतम ! ऐसा नहीं है। वे पीले तृण और मणियां इनसे भी अधिक इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ और मनोहर वर्ण वाली हैं। Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : वनखण्ड वर्णन (355 126. (6) तत्थ णं जे ते सुक्किलगा तणा य मणी य तेसि णं अयमेयारवे वण्णावासे पण्णतेसे जहाणामए अंके इ वा संखे इ वा, चंदे इवा, कुवे इवा, कुमुए इवा, दयरए इ वा (वहिधणे इवा, खीरे इ वा, खोरपूरे इ वा) हंसावली इबा, कोंचावली इवा, हारावली इवा, बलायावली इवा, चंदावलो इवा, सारइयबलाहए इ वा, धंतधोयरप्पपट्टे इ वा, सालिपिरासी इवा, कुवयुप्फरासी / वा, कुमुयरासीई वा, सुक्कछिवाडी इ वा, पेहुणमिजा इ वा, बिसे इ वा, मिणालिया इवा, गयवंते इ वा, लवंगवले इ वा, पोंडरीयदले इ वा, सिंदुवारमल्लदामे इ वा, सेतासोए इवा, सेयकणवीरे इ वा, सेयबंधुजीवए इ बा, भवे एयारवे सिया? णो तिणठे समझें / तेसि गं सुविकलाणं तणाण मणीण य एतो इट्ठयराए चेव जाव वण्णेणं पण्णत्ते। [126] (6) उन तृणों और मणियों में जो सफेद वर्ण वाले तृण और मणियां हैं उनका वर्ण इस प्रकार का कहा गया है जैसे अंक रत्न हो, शंख हो, चन्द्र हो, कुंद का फूल हो, कुमुद (श्वेत कमल) हो, पानी का बिन्दु हो, (जमा हुआ दही हो, दूध हो, दूध का समूह-प्रवाह हो), हंसों की पंक्ति हो, क्रौंचपक्षियों की पंक्ति हो, मुक्ताहारों की पंक्ति हो, चांदी से बने कंकणों की पंक्ति हो, सरोवर की तरंगों में प्रतिबिम्बित चन्द्रों की पंक्ति हो, शरदऋतु के बादल हों, अग्नि में तपाकर धोया हुआ चांदी का पाट हो, चावलों का पिसा हुमा पाटा हो, कुन्द के फूलों का समुदाय हो, कुमुदों का समुदाय हो, सूखी हुई सेम की फली हो, मयूरपिच्छ की मध्यवर्ती मिजा हो, मृणाल हो, मृणालिका हो, हाथी का दांत हो, लवंग का पत्ता हो, पुण्डरीक (श्वेतकमल) की पंखुडियां हों, सिन्दुवार के फूलों की माला हो, सफेद अशोक हो, सफेद कनेर हो, सफेद बंधुजीवक हो, भगवन् ! उन सफेद तणों और मणियों का ऐसा वर्ण है क्या ? गौतम ! यह यथार्थ नहीं है / इनसे भी अधिक इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ और मनोहर उन तृणों और मणियों का वर्ण कहा गया है / 126. (7) तेसि गं भंते ! तणाण य मणीण य केरिसए गंधे पण्णत्ते ?से जहाणामए-कोटपुडाण वा, पत्तपुडाण वा, चोयपुडाण वा, तगरपुडाण वा, एलापुडाण वा' चंदणपुडाण वा कुंकुमपुडाण वा, उसीरपुडाण वा, चंपकपुडाण वा, मरुयगपुडाण वा, दमणगपुडाण वा, जातिपुडाण वा, जहियापुडाण वा, मल्लियपुडाण वा, जोमालियपुडाण वा, वासंतिपुडाण वा, केयइपुडाण वा, कप्पूरपुडाण वा, अणुवायंसि उभिज्जमाणाण य णिभिज्जमाणाण य कोटेजमाणाण वा रुविज्जमाणाण वा उधिकरिज्जमाणाण वा विकिरिज्जमाणाण वा परिभज्जमाणाण वा भंडाओ भंडसाहरिज्जमाणाणधा ओराला मणण्णा घाणमनिव्वइकरा सव्वओ समंता गंधा अभिणिस्सवंति, भवे एयारूवे सिया? जो तिणठे समझें। तेसि णं तणाणं मणीण य एत्तो उ इट्टतराए चेव जाव मणामतराए चेव गंधे पण्णत्ते। [126] (7) हे भगवन् ! उन तृणों और मगियों की गंध कैसी कही गई है ? जैसे कोष्ट(गंधद्रव्यविशेष) पुटों, पत्रपुटों, चोयपुटों (गंधद्रव्यविशेष), तगरपुटों, इलायचोपुटों, चंदनपुटों, 1. 'किरिमेरिपुडाण वा' क्वचित् पाठो दृश्यते / Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 356] [जीवाजीवाभिगमसूत्र कुंकुमपुटों उशीरपुटों (खस)चंपकपुटों, मरवापुटों दमनकपुटों, जातिपुटों (चमेली), जूहीपुटों, मल्लिकापुटों (मोगरा), नवमल्लिकापुटों, वासन्तीलतापुटों, केवडा के पुटों और कपूर के पुटों को अनुकूल वायु होने पर उघाड़े जाने पर, भेदे जाने पर, कूटे जाने पर, छोटे-छोटे खण्ड किये जाने पर, बिखेरे जाने पर, ऊपर उछाले जाने पर, इनका उपभोग-परिभोग किये जाने पर और एक बर्तन से दूसरे बर्तन में डाले जाने पर जैसी व्यापक और मनोज्ञ तथा नाक और मन को तृप्त करने वाली गंध निकलकर चारों तरफ फैल जाती है, हे भगवन् ! क्या वैसी गंध उन तणों और मणियों की है ? गौतम ! यह बात यथार्थ नहीं है। इससे भी इष्टतर, कान्ततर, प्रियतर, मनोज्ञतर और मनामतर गंध उन तृणों और मणियों की कही गई है। 126. (8) तेसि णं भंते ! तणाण य मणीण य केरिसए फासे पण्णत्ते? से जहाणामएमाईणे इ वा, रुए इ वा, बूरे इ वा, णवणोए इ वा, हंसगमतूली इवा, सिरीसकुसुमणिचए इवा, बालकुमुद पत्तरासी इ वा, भवे एयारवे सिया ? णो तिणठे समझें / तेसि णं तणाण य मणीण य एत्तो इट्टतराए चेव जाव फासे णं पण्णत्ते / [126] (8) हे भगवन् ! उन तृणों और मणियों का स्पर्श कैसा कहा गया है ? जैसेआजिनक (मृदु चर्ममय वस्त्र), रुई, बूर वनस्पति, मक्खन, हंसगर्भलिका, सिरीष फूलों का समूह, नवजात कुमुद के पत्रों की राशि का कोमल स्पर्श होता है, ऐसा उनका स्पर्श है क्या ? गौतम ! यह अर्थ यथार्थ नहीं है / उन तृणों और मणियों का स्पर्श उनसे भी अधिक इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ और मणाम (मनोहर) है / 126. (9) तेसिं गं भंते ! तणाण य मणीण य पुग्वायरदाहिणउत्तरागएहिं वाएहि मंदायं मंदायं एइयाणं वेइयाणं कंपियाणं खोभियाणं चालियाणं फंदियाणं घट्टियाणं उदीरियाणं केरिसए सद्दे पण्णत्ते ? से जहानामए–सिबियाए बा, संदमाणीयाए वा, रहवरस्स वा, सच्छत्तस्स सज्मयस्स सघंटयस्स सतोरणवरस्स सणंदिघोसस्स सखिखिणिहेमजालपेरंतपरिक्खित्तस्स हेमवयखेत्त चित्तविचित्त तिणिसकणगनिज्जुत्तदारुयागस्स सुपिणद्धारकमंडलधुरागस्स कालायससुकयणेमिजंतकम्मरस आइण्णवरतरगसुसंपउत्तस्स कुसलगरछेयसारहिसुसंपरिगहियस्स सरसयबत्तीसतोणपरिमंडियस्स सकंकडडिसगस्स सचावसरपहरणावरणभरियस्स जोहजुद्धस्स रायंगणंसि वा अंतेउरंसि वा रम्मंसि मणिकोट्टिमतलंसि अभिक्खणं अभिक्खणं अभिघट्टिज्जमाणस्स वा णियडिज्जमाणस्स वा ओराला मणुण्णा कण्णमणणिव्वुइकरा सम्वओ समंता सद्दा अभिणिस्सवंति, भवे एयारूवे सिया ? णो तिणठे समठे। से जहानामए-वेयालियाए वीणाए उत्तरमंदामुच्छिताए अंके सुपइट्टियाए चंदणसारकोणपडिघट्टियाए कुसलणरणारिसंपरिगहियाए पदोस-पच्चूसकालसमयंसि मंदं मंदं एइयाए वेइयाए खोभियाए उदोरियाए ओराला मणण्णा कण्णमणिम्वइकरा सव्वओ समंता सहा अभिणिस्सर्वति, मवे एयारूवे सिया? 1. तणाणं पुव्वा. इत्येव पाठः / Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : वनखण्ड वर्णन] जो तिणठे समझें। से जहाणामए-किण्णराण वा किंपुरिसाण वा महोरगाण वा गंधव्वाण वा भद्दसालवणगयाण या नंवणवणगयाण वा सोमणसवणगयाण वा पंडगवणगयाण वा हिमवंत-मलय-मंबर-गिरि-गुहसमण्णागयाण वा एगओ सहियाणं सम्मुहागयाणं समुविट्ठाणं सन्निविट्ठाणं पमुदियपक्कीलियाणं गीयरतिगंधवहरिसियमणाणं गेज्ज पज्जं कत्थं पयबद्धं पायबद्धं उक्खित्तयं पबत्तयं मंदायं रोचियाबसाणं सत्तसरसमण्णागयं अट्ठरससुसंपउत्तं छद्दोसविप्पमुक्कं एकारसगुणालंकार-अट्टगुणोयवेयं गुंजंतवंसकुहरोवगूढं रत्तं तित्थाणकरणसुद्धं मधुरं समं सुललियं सकुहरगुजंत-वंस-तंतीसुपउत्तं तालसुसंपउत्तं लयसुसंपउत्तं गहसुसंपउत्तं मणोहरं मउयरिभियपयसंचारं सुरई सुणइं वरचारु रूवं दिव्वं मेयं पगोयाणं, भवे एयारवे सिया? हंता गोयमा! एवंभूए सिया। [126] (9) हे भगवन् ! उन तृणों और मणियों के पूर्व-पश्चिम-दक्षिण-उत्तरदिशा से आगत वायु द्वारा मंद-मंद कम्पित होने से, विशेषरूप से कम्पित होने से, बार-बार कंपित होने से, क्षोभित, चालित और स्पंदित होने से तथा प्रेरित किये जाने पर कैसा शब्द होता है ? जैसे शिबिका (ऊपर से आच्छादित कोष्ठाकार पालखी विशेष), स्यन्दमानिका (बड़ी पालखी-पुरुष प्रमाण जम्पान विशेष) और संग्राम रथ (जिसकी फलकवेदिका पुरुष की कटि-प्रमाण होती है) जो छत्र सहित है, ध्वजा सहित है, दोनों तरफ लटकते हुए बड़े-बड़े घंटों से युक्त है, जो श्रेष्ठ तोरण से युक्त है, नन्दिघोष (बारह प्रकार के वाद्यों के शब्द) से युक्त है, जो छोटी-छोटी घंटियों (घुघरुओं) से युक्त, स्वर्ण की माला-समूहों से सब ओर से व्याप्त है, जो हिमवन् पर्वत के चित्र-विचित्र मनोहर चित्रों से युक्त तिनिश की लकड़ी से बना हुमा, सोने से खचित (मढ़ा हुआ) है, जिसके आरे बहुत ही अच्छी तरह लगे हुए हों तथा जिसकी धुरा मजबूत हो, जिसके पहियों पर लोह की पट्टी चढ़ाई गई हो, आकीर्णगुणों से युक्त श्रेष्ठ घोड़े जिसमें जुते हुए हों, कुशल एवं दक्ष सारथी से युक्त हो, प्रत्येक में सौ-सौ बाण वाले बत्तीस तूणीर जिसमें सब ओर लगे हुए हों,कवच जिसका मुकुट हो, धनुष सहित बाण और भाले आदि विविध शस्त्रों तथा उनके प्रावरणों से जो परिपूर्ण हो तथा योद्धाओं के युद्ध निमित्त जो सजाया गया हो, (ऐसा संग्राम रथ) जब राजांगण में या अन्तःपुर में या मणियों से जड़े हुए भूमितल में बारबार वेग में चलता हो, प्राता-जाता हो, तब जो उदार, मनोज्ञ और कान एवं मन को तृप्त करने वाले चौतरफा शब्द निकलते हैं, क्या उन तृणों और मणियों का ऐसा शब्द होता है ? हे गौतम ! यह अर्थ यथार्थ नहीं है। भगवन् ! जैसे ताल के अभाव में भी बजायी जाने वाली वैतालिका (मंगलपाठिका) वीणा जब (गान्धार स्वर के अन्तर्गत) उत्तरामंदा नामक मूर्छना से युक्त होती है, बजाने वाले व्यक्ति की गोद में भलीभांति विधिपूर्वक रखी हुई होती है, चन्दन के सार से निर्मित कोण (वादनदण्ड) से घर्षित की जाती है, बजाने में कुशल नर-नारी द्वारा संप्रग्रहीत हो (ऐसी वीणा को) प्रातःकाल और सन्ध्याकाल के समय मन्द-मन्द और विशेष रूप से कम्पित करने पर, बजाने पर, क्षोभित, चालित और स्पंदित, घर्षित और उदीरित (प्रेरित) करने पर जैसा उदार, मनोज्ञ, कान और मन को तृप्ति करने वाला शब्द चौतरफा निकलता है, क्या ऐसा उन तृणों और मणियों का शब्द है ? Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 358] [जीवाजीवाभिगमसूत्र गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। भगवन् ! जैसे किनर, किंपुरुष, महोरग और गन्धर्वजो भद्रशालवन, नन्दनवन, सोमनसवन और पंडकवन में स्थित हों, जो हिमवान् पर्वत, मलयपर्वत या मेरुपर्वत की गुफा में बैठे हों, एक स्थान पर एकत्रित हुए हों, एक दूसरे के सन्मुख बैठे हों, परस्पर रगड़ से रहित सुखपूर्वक प्रासीन हों, समस्थान पर स्थित हों, जो प्रमुदित और क्रीडा में मग्न हों, गीत में जिनकी रति हो और गन्धर्व नाट्य आदि करने से जिनका मन हर्षित हो रहा हो, उन गन्धर्वादि के गद्य, पद्य, कथ्य, पदबद्ध (एकाक्षरादिरूप), पादबद्ध (श्लोक का चतुर्भाग), उत्क्षिप्त (प्रथम प्रारम्भ किया हुआ), प्रवर्तक (प्रथम प्रारम्भ से ऊपर आक्षेप पूर्वक होने वाला), मंदाक (मध्यभाग में मन्द-मन्द रूप से स्वरित) इन आठ प्रकार के गेय को, रुचिकर अन्त वाले गेय को, सात स्वरों से युक्त गेय को, पाठ रसों से युक्त गेय को, छह दोषों से रहित, ग्यारह अलंकारों से युक्त, आठ गुणों से युक्त बांसुरी की सुरीली आवाज से गाये गये गेय को, राग से अनुरक्त, उर-कण्ठ-शिर ऐसे त्रिस्थान शुद्ध गेय को, मधुर, सम, सुललित, एक तरफ बांसुरी और दूसरी तरफ तन्त्रो (वीणा) बजाने पर दोनों में मेल के साथ गाया गया गेय, तालसंप्रयुक्त, लयसंप्रयुक्त, ग्रहसंप्रयुक्त (बांसुरी तन्त्री आदि के पूर्वगृहीतस्वर के अनुसार गाया जाने वाला), मनोहर, मृदु और रिभित (तन्त्री आदि के स्वर से मेल खाते हुए) पद संचार वाले, श्रोताओं को आनन्द देने वाले, अंगों के सुन्दर झुकाव वाले, श्रेष्ठ सुन्दर ऐसे दिव्य गीतों के गाने वाले उन किन्नर आदि के मुख से जो शब्द निकलते हैं, वैसे उन तृणों और मणियों का शब्द होता है क्या ? हां गौतम ! उन तृणों और मणियों के कम्पन से होने वाला शब्द इस प्रकार का होता है। विवेचन-उस वनखण्ड के भूमिभाग में जो तृण और मणियां हैं, उनके वायु द्वारा कम्पित और प्रेरित होने पर जैसा मधुर स्वर निकलता है उसका वर्णन इस सूत्रखण्ड में किया गया है। श्री गौतम स्वामी ने उस स्तर की उपमा के लिए तीन उपमानों का उल्लेख किया है। पहला उपमान है-कोई पालखी (शिबिका या जम्पान) या संग्राम रथ जिसमें विविध प्रकार के शस्त्रास्त्र सजे हुए हैं, जिसके चक्रों पर लोहे की पट्टियां जड़ी हुई हों, जो श्रेष्ठ घोड़ों और सारथी से युक्त हो, जो छत्र-ध्वजा से युक्त हो, जो दोनों ओर बड़े-बड़े धन्टों से युक्त हो, जिसमें नन्दिघोष (बारह प्रकार के वाद्यों का निनाद) हो रहा हो-ऐसा रथ या पालखी जब राजांगण में, अन्तःपुर में या मणियों से जड़े हुए आंगन में वेग से चलता है तब जो शब्द होता है क्या वैसा शब्द उन तृणों और मणियों का है ? भगवान् ने कहा-नहीं / इससे भी अधिक इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ और मनोहर वह शब्द होता है / इसके पश्चात् श्री गौतमस्वामी ने दूसरे उपमान का उल्लेख किया / वह इस प्रकार है-हे भगवन् ! प्रातःकाल अथवा सन्ध्या के समय वैतालिका (मंगलपाठिका) वीणा (जो ताल के अभाव में भी बजाई जाती है-जब गान्धार स्वर की उत्तरमन्दा नाम की सप्तमी मूर्छना से युक्त होती है, जब उस बीणा का कुशलवादक उस वीणा को अपनी गोद में अच्छे ढंग से स्थापित कर चन्दन के सार से निर्मित वादन-दण्ड से बजाता है तब उस वीणा से जो कान और मन को तृप्त करने वाला शब्द निकलता है क्या वैसा उन तृणों मणियों का शब्द है ? गान्धार स्वर की सात मूर्छनाएँ होती हैंनंदी य खुट्टिमा पूरिमा या चोत्थी असुद्धगन्धारा। उत्तरगन्धारा वि हवइ सा पंचमी मुच्छा // 1 // Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सृतीय प्रतिपत्ति : वनखण्ड वर्णन] (359 सुहमुत्तर पायामा छट्टी सा नियमसो उ बोद्धव्वा // 2 // नन्दी, क्षुद्रा, पूर्णा, शुद्धगान्धारा, उत्तरगान्धारा, सूक्ष्मोत्तर-आयामा और उत्तरमन्दा-ये सात मूर्छनाएँ हैं / ये मूर्छनाएं इसलिए सार्थक हैं कि ये गाने वाले को और सुनने वाले को अन्य-अन्य स्वरों से विशिष्ट होकर मूछित जैसा कर देती हैं / कहा है __ अन्नन्नसरविसेसं उप्पायंतस्स मुच्छणा भणिया। कन्ता वि मुच्छिनो इव कुणए मुच्छंव सो वेति // गान्धारस्वर के अन्तर्गत मूर्च्छनाओं के बीच में उत्तरमन्दा नाम की मूर्छना जब अति प्रकर्ष को प्राप्त हो जाती है तब वह श्रोताजनों को मूछित-सा बना देती है। इतना ही नहीं किन्तु स्वरविशेषों को करता हुआ गायक भी मूर्छित के समान हो जाता है। _ ऐसी उत्तरमन्दा मूर्छना से युक्त वीणा का जैसा शब्द निकलता है क्या वैसा शब्द उन तृणों और मणियों का है ? ऐसा श्री गौतमस्वामी के कहने पर भगवान कहते हैं-नहीं इस स्वर से भी अधिक इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ और मनोहर उन तृणों और मणियों का शब्द होता है। पुनः श्री गौतमस्वामी तीसरा उपमान कहते हैं-भगवन् ! जैसा किन्नरों, किंपुरुषों, महोरगों या गन्धों का, जो भद्रशालवन, नन्दनवन, सोमनसवन, पण्डकवन में स्थित हों अथवा हिमवान्पर्वत या मलयपर्वत या मन्दरपर्वत की गुफा में बैठे हों, एक स्थान पर एकत्रित हुए हों, एक दूसरे के समक्ष बैठे हुए हों, इस ढंग से बैठे हों कि किसी को दूसरे की रगड़ से बाधा न हो, स्वयं को भी किसी अपने ही अंग से बाधा न पहूँच रही हो, हर्ष जिनके शरीर पर खेल रहा हो, जो आनन्द के साथ क्रीडा करने में रत हों, गीत में जिनकी रति हो, नाटयादि द्वारा जिनका मन हर्षित हो रहा हो--(ऐसे गन्धों का) आठ प्रकार के गेय से तथा आगे उल्लिखित गेय के गुणों से सहित और दोषों से रहित ताल एवं लय से युक्त गीतों के गाने से जो स्वर निकलता है क्या वैसा उन तृण और मणियों का शब्द होता है ? गेय आठ प्रकार के हैं-१ गद्य--जो स्वर संचार से गाया जाता है, 2 पद्य-जो छन्दादिरूप हो, 3 कथ्य-कथात्मक गीत, 4 पदबद्ध-जो एकाक्षरादि रूप हो यथा-'ते', 5 पादबद्ध-श्लोक का चतुर्थ भाग रूप हो, 6 उत्क्षिप्त-जो पहले प्रारम्भ किया हुआ हो, 7 प्रवर्तक-प्रथम प्रारम्भ से ऊपर आक्षेपपूर्वक होने वाला, 8 मन्दाकं-मध्यभाग में सकल मूर्च्छनादि गुणोपेत तथा मन्द-मन्द स्वर से संचरित हो। ___ वह आठ प्रकार का गेय रोचितावसान वाला हो, अर्थात् जिस गीत का अन्त रुचिकर ढंग से शनैः शनैः होता हो तथा जो सप्तस्वरों से युक्त हो / गेय के सात स्वर इस प्रकार हैं सज्जे रिसह गन्धारे मज्झिमे पंचमे सरे / धेवए चेव नेसाए सरा सत्त वियाहिया / / षड्ज, ऋषभ, गन्धार, मध्यम, पंचम, धैवत और नैषाद, ये सात स्वर हैं / ये सात स्वर पुरुष के या स्त्री के नाभिदेश से निकलते हैं, जैसा कि कहा है-~-'सप्तसरा नाभियो' / अष्टरस-संप्रयक्त-वह गेय श्रगार आदि पाठ रसों से युक्त हो। षड्दोष-विप्रयुक्त-वह गेय छह दोषों से रहित हो / वे छह दोष इस प्रकार हैं भीयं दुयमुप्पित्थमुत्तालं च कमसो मुणेयव्वं / कागस्सरमणुणासं छद्दोसा होति गेयस्स / / Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 360] [जीवाजीवाभिगमसूत्र भीत, द्रुत, उप्पिच्छ, (आकुलतायुक्त), उत्ताल, काकस्वर और अनुनास (नाक से गाना), ये गेय के छह दोष हैं। एकादशगुणालंकार--पूर्वो के अन्तर्गत स्वरप्राभृत में गेय के ग्यारह गुणों का विस्तार से वर्णन है / वर्तमान में पूर्व विच्छिन्न हैं अतएव आंशिक रूप में पूर्वो से विनिर्गत जो भरत, विशाखिल आदि गेय शास्त्र हैं-उनसे इनका ज्ञान करना चाहिए। प्रष्टगुणोपेत-गेय के आठ गुण इस प्रकार हैं पुण्णं रत्तं च अलंकियं च वत्तं तहेव अविघुट / महुरं समं सुललियं अट्ठगुणा होति गेयस्स / / 1 पूर्ण--जो स्वर कलाओं से परिपूर्ण हो, 2 रक्त-राग से अनुरक्त होकर जो गाया जाय, 3 प्रलंकृत--परस्पर विशेषरूप स्वर से जो गाया जाय, 4 व्यक्त-जिसमें अक्षर और स्वर स्पष्ट रूप से गाये जायँ, 5 अविघुष्ट-जो विस्वर और आक्रोश युक्त न हो, 6 मधुर--जो मधुर स्वर से गाया जाय, 7 सम-- जो ताल, वंश, स्वर आदि से मेल खाता हुआ गाया जाय, 8 सुललित--जो श्रेष्ठ घोलना प्रकार से श्रोत्रेन्द्रिय को सुखद लगे, इस प्रकार गाया जाय / ये गेय के पाठ गुण हैं। गुंजत वंशकुहरम्-जो बांसुरी में तीन सुरीली आवाज से गाया गया हो, ऐसा गेय / रत्तं---राग से अनुरक्त गेय / त्रिस्थानकरणशुद्ध-जो गेय उर, कंठ और सिर इन तीन स्थानों से शुद्ध हो / अर्थात् उर और कंठ श्लेष्मवर्जित हो और सिर अव्याकुलित हो। इस तरह गाया गया गेय त्रिस्थानकरणशुद्ध होता है। सकुहरगुजंतवंसतंतोसुसंपउत्त--जिस गान में एक तरफ तो बांसुरी बजाई जा रहा हो और दूसरी ओर तंत्री (वीणा) बजाई जा रही हो, इनके स्वर से जो गान अविरुद्ध हो अर्थात इनके स्वरों से मिलता हुमा गाया जा रहा हो। तालसुसंप्रयुक्त-हाथ की तालियों से मेल खाता हुआ गाया जा रहा हो / तालसमं लयसंप्रयुक्त ग्रहसुसंप्रयुक्त ताल, लय तथा वीणादि के स्वर से मेल खाता हुआ गाया जाने वाला गेय। मणोहरं-मन को हरने वाला गेय / मदुरिभितपदसंचार-मृदु स्वर से युक्त, तंत्री आदि से ग्रहण किये गये स्वर से युक्त पदसंचार वाला गेय / सुरई-श्रोताओं को प्रानन्द देने वाला गेय / सुनति-अंगों के सुन्दर हावभाव से युक्त गेय / वरचारुरूपं-विशिष्ट सुन्दर रूप वाला गेय / उक्त विशेषणों से युक्त गेय को जब पूर्वोक्त व्यन्तर, किन्नर, किंपुरुष, महोरग, गन्धर्व प्रमुदित होकर गाते हैं तब उनसे जो शब्द निकलता है, ऐसा मनोहर शब्द उन तृणों और मणियों का है क्या ? ऐसा श्री गौतमस्वामी ने प्रश्न किया। इसके उत्तर में भगवान् ने फरमाया कि हां -गौतम ! उन तृणों और मणियों का इतना सुन्दर शब्द होता है। Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततीय प्रतिपति : वनखण्ड की वावड़ियों आदि का वर्णन] [361 सूत्र में पाये हुए भद्रशाल आदि वनों का स्पष्टीकरण इस प्रकार है। भद्रशाल आदि चार वन सुमेरु पर्वत पर हैं। इनमें भद्रशालवन मेरु पर्वत की नीचे की भूमि पर है, नन्दनवन मेरु की प्रथम मेखला पर है, दूसरी मेखला पर सौमनसवन है और चूलिका के पार्श्वभाग में चारों तरफ पण्डकवन है / महाहिमवान् हेमवत क्षेत्र की उत्तर दिशा में है। यह उसकी सीमा करने वाला होने से वर्षधर पर्वत कहलाता है। वनखण्ड की वावड़ियों आदि का वर्णन 127. (1) तस्स णं वणसंडस्स तस्य तत्थ देसे तहि तहि बहवे खुड्डा खुड्डियाओ वावीमो पुक्खरिणीओ गुजालियाओ दीहियाओ सराओ सरपंतियाओ सरसरपंतीनो बिलपंतीओ अच्छाओ सहाओ रययामयकूलाओ समतोराओ वइरामयपासाणाओ, तवणिज्जमयतलानो वेरुलियमणिफालियपडल पच्चोयडाओ गवणीयतलाओ सुवण्ण-सुज्झरयय-मणिवालुयाओ सुहोयाराओ सुउत्ताराओ, गाणामणितित्थसुबद्धाओ चउक्कोणाओ समतीराओ, आणुपुथ्वसुजायवप्पगंभीरसीयलजलाओ संछन्नपत्तभिसमुणालाओ बहुउप्पल-कुमुय-णलिण-सुभग-सोगंधिय-पोंडरीय-सयपत्त-सहस्सपत्तफुल्लकेसरोवइयानो छप्पयपरिभुज्जमाणकमलाओ अच्छविमलसलिलपुण्णाश्रो परिहत्थ भमंतमच्छकच्छम अगसउणमिणपरिचरियाओ पत्तेयं पत्तेयं वणसंडपरिक्खित्ताओ अप्पेगइयाओ आसवोदामो अप्पेगइयाओ वारुणोदाओ अप्पेगइयाओ खीरोदाओ अप्पेगइयाओ घओदाओ अप्पेगइयाओ खोदोदाओ अप्पेगइयाओ अमयरससमरसोदामो, अप्पेगइयाओ पगइएउदग (अमय) रसेणं पण्णत्ताओ, पासाइयाओ दरिसणिज्जाओ अभिरुवाओ पडिरूवाओ। [127] (1) उस वनखण्ड के मध्य में उस-उस भाग में उस उस स्थान पर बहुत-सी छोटीछोटी चौकोनी वावडियाँ हैं, गोल-गोल अथवा कमल वाली पुष्करिणियाँ हैं, जगह-जगह नहरों वाली दीधिकाएँ हैं, टेढ़ीमेढ़ी गुंजालिकाएं हैं, जगह-जगह सरोवर हैं, सरोवरों की पंक्तियां हैं, अनेक सरसर पंक्तियां (जिन तालाबों में कुएं का पानी नालियों द्वारा लाया जाता है) और बहुत से कुओं की पंक्तियाँ हैं / वे स्वच्छ हैं, मृदु पुद्गलों से निर्मित हैं। इनके तीर सम हैं, इनके किनारे चांदी के बने हैं, किनारे पर लगे पाषाण वज्रमय हैं / इनका तलभाग तपनीय (स्वर्ण) का बना हुआ है। इनके तटवर्ती अति उन्नत प्रदेश वैडूर्यमणि एवं स्फटिक के बने हैं / मक्खन के समान इनके सुकोमल तल हैं / स्वर्ण और' शुद्ध चांदी की रेत है / ये सब जलाशय सुखपूर्वक प्रवेश और निष्क्रमण योग्य हैं। नाना प्रकार की मणियों से इनके घाट मजबूत बने हुए हैं / कुएं और बावड़ियां चौकोन हैं। इनका वप्र-जलस्थान क्रमश: नीचे-नीचे गहरा होता है और उनका जल अगाध और शीतल है / इनमें जो पद्मिनी के पत्र, कन्द और पद्मनाल हैं वे जल से ढंके हुए हैं। उनमें बहुत से उत्पल, कुमुद, नलिन, सुभग, सौगन्धिक, पुण्डरीक, शतपत्र, सहस्रपत्र फूले रहते हैं और पराग से सम्पन्न हैं, ये सब कमल भ्रमरों से परिभुज्यमान हैं अर्थात् भंवरे उनका रसपान करते रहते हैं। ये सब जलाशय स्वच्छ और निर्मल जल से परिपूर्ण हैं / परिहत्थ (बहुत से) मत्स्य और कच्छप इधर-उधर घूमते रहते हैं, अनेक पक्षियों के 1. वृत्ति के अनुसार 'सुझ' का अर्थ रजत विशेष है। 2. 'परिहत्य' अर्थात बहुत सारे / Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 362] [जीवाजीनाभिगमसूत्र जोड़े भी इधर-उधर भ्रमण करते रहते हैं। इन जलाशयों में से प्रत्येक जलाशय वनखण्ड से चारों ओर से घिरा हा है और प्रत्येक जलाशय पद्मवरवेदिका से युक्त है। इन जलाशयों में से कितनेक का पानी पासव जैसे स्वाद वाला है, किन्हीं का वारुणसमुद्र के जल जैसा है, किन्ही का जल दूध जैसे स्वाद वाला है, किन्हीं का जल पी जैसे स्वाद वाला है, किन्हीं का जल इक्षुरस जैसा है, किन्हीं के जल का स्वाद अमृतरस जैसा है और किन्ही का जल स्वभावतः उदकरस जैसा है / ये सब जलाशय प्रसन्नता पैदा करने वाले हैं, दर्शनीय हैं, अभिरूप हैं और प्रतिरूप हैं / 127. (2) तासि णं खुड्डियाणं वावीणं जाव बिलपंतियाणं तत्थ तत्थ वेसे तहि तहिं जाव बहवे तिसोवाणपडिरूवगा पणत्ता / तेसि णं तिसोवाणपडिरूवगाणं अयमेयारूवे वण्णाबासे पण्णते, तं जहा-बहरामया नेमा रिट्ठामया पइट्ठाणा वेरुलियमया खंभा सुवण्णरुप्पमया फलगा वइरामया संधी लोहितक्खमईप्रो सूईओ गाणामणिमया अवलंबणा अवलंबणबाहाओ। तेसिं गं तिसोपाणपाडवगाणं पुरओ पत्तेयं तोरणा पण्णत्ता। तेणं तोरणा णाणामणिमयखंभेसु उणि विट्ठसणिविट्ठा विविहमुत्तंतरोवइया विविहतारारूयोवचिया ईहामिय-उसम-तुरग-गर-मगरविहग-वालग-किण्णर-हरु-सरभ-चमर-कुजर-बणलय-पउमलयभत्तिचित्ता खंभुग्गयवहरवेहयापरिगताभिरामा विज्जाहरजमलजुयलजंतजुत्ताविव प्राच्चिसहस्समालणीया मिसमाणा मिम्भिसमागा चक्खुल्लोयणलेसा सुहफासा सस्सिरीयरूवा पासाइया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा। तेसिं गं तोरणाणं उप्पि वहवे अट्ठमंगलगा पण्णता, सोत्थिय-सिरिवच्छ-जंबियावत्तयद्धमाण-भद्दासण-कलस-मच्छ-चप्पणा सम्वरयणामया अच्छा सण्हा जाय पडिरूवा। तेसि गं तोरणाणं उपि किण्हचामरज्झया नीलचामरज्झया लोहियचामरज्मया हारिद्दवापरज्मया सुविकलचामरज्झया अच्छा सण्हा रुप्पपडा वइरवंडा जलयामलगंधीया सुरुवा पासाइया जाव पडिरूवा। तेसि णं तोरणाणं उप्पि बहवे छत्ताइछत्ता। पडागाइपडागा घंटाजुयला चामरजुयला उप्पलहत्थया जाव सयसहस्सपत्तहत्थगा सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा / [127] (2) उन छोटी बावड़ियों यावत् कूपों में यहाँ वहाँ उन-उन भागों में बहुत से विशिष्ट स्वरूप वाले त्रिसोपान कहे गये हैं / उन विशिष्ट त्रिसोपानों का वर्णन इस प्रकार हैवज्रमय उनकी नींव है, रिष्टरत्नों के उसके पाये हैं, वैडूर्यरत्न के स्तम्भ हैं, सोने और चांदी के पटिये हैं, वज्रमय उनकी संधियां हैं, लोहिताक्ष रत्नों की सूइयां (कीलें) हैं, नाना मणियों के म्बन हैं (उतरने चढ़ने के लिए प्राजू-बाजू में लगे हुए दण्ड-समान अाधार, जिन्हें पकड़कर चढ़ना-उतरना होता है), नाना मणियों की बनी हुई पालम्बन बाहा हैं (अवलम्बन जिनके सहारे पर रहता है वे दोनों ओर के भीत समान स्थान) उन विशिष्ट त्रिसोपानों के आगे प्रत्येक के तोरण कहे गये हैं। उन तोरणों का वर्णन इस प्रकार है-वे तोरण नाना प्रकार की मणियों के बने हुए हैं। वे तोरण नाना मणियों से बने हुए स्तंभों पर स्थापित हैं, निश्चलरूप से रखे हुए हैं, अनेक प्रकार की रचनामों से युक्त मोती उनके बीच-बीच में लगे हुए हैं, नाना प्रकार के ताराओं से वे तोरण उपचित (सुशोभित) हैं। उन तोरणों Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : वनखण्ड की वावड़ियों आदि का वर्णन] [363 में ईहामृग (वृक), बैल, घोड़ा, मनुष्य, मगर, पक्षी, व्याल (सर्प), किन्नर, रुरु (मृग), सरभ (अष्टापद), हाथी, वनलता और पद्मलता के चित्र बने हुए हैं। इन तोरणों के स्तम्भों पर वज्रमयी वेदिकाएँ हैं, इस कारण ये तोरण बहुत ही सुन्दर लगते हैं / समश्रेणी विद्याधरों के युगलों के यन्त्रों (शक्तिविशेष) के प्रभाव से ये तोरण हजारों किरणों से प्रभासित हो रहे हैं / (ये तोरण इतने अधिक प्रभासमुद समदाय से यक्त हैं कि इन्हें देखकर ऐसा भासित होता है कि ये स्वभावतः नहीं किन्तु किन्हीं विशिष्ट विद्याशक्ति के धारकों के यांत्रिक प्रभाव के कारण इतने अधिक प्रभासित हो रहे हैं) ये तोरण हजारों रूपकों से युक्त हैं, दीप्यमान हैं, विशेष दीप्यमान हैं, देखने वालों के नेत्र उन्हीं पर टिक जाते हैं। उन तोरणों का स्पर्श बहुत ही शुभ है, उनका रूप बहुत ही शोभायुक्त लगता है। वे तोरण प्रासादिक, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप हैं। उन तोरणों के ऊपर बहुत से आठ-पाठ मंगल कहे गये हैं-१ स्वस्तिक, 2 श्रीवत्स, 3 नंदिकावर्त, 4 वर्धमान, 5 भद्रासन, 6 कलश, 7 मत्स्य और 8 दर्पण / ये सब पाठ मंगल सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं, सूक्ष्म पुद्गलों से निर्मित हैं, प्रासादिक हैं यावत् प्रतिरूप हैं। उन तोरणों के ऊर्वभाग में अनेकों कृष्ण कान्तिवाले चामरों से युक्त ध्वजाएँ हैं, नील वर्ण वाले चामरों से युक्त ध्वजाएं हैं, लाल वर्ण वाले चामरों से युक्त ध्वजाएँ हैं, पीले वर्ण के चामरों से युक्त हैं और सफेद वर्ण के चामरों से युक्त ध्वजाएं हैं। ये सब ध्वजाएँ स्वच्छ हैं, मृदू हैं, वनदण्ड के ऊपर का पट्ट चांदी का है, इन ध्वजाओं के दण्ड वजरत्न के हैं, इनकी गन्ध कमल के समान है, अतएव ये सुरम्य हैं, सुन्दर हैं, प्रासादिक हैं, दर्शनीय हैं, अभिरूप हैं एवं प्रतिरूप हैं। इन तोरणों के ऊपर एक छत्र के ऊपर दूसरा छत्र, दूसरे पर तीसरा छत्र-इस तरह अनेक छत्र हैं, एक पताका पर दूसरी पताका, दूसरी पर तीसरी पताका-इस तरह अनेक पताकाएँ हैं / इन तोरणों पर अनेक घंटायुगल हैं, अनेक चामरयुगल हैं और अनेक उत्पलहस्तक (कमलों के समूह) हैं यावत् शतपत्र-सहस्रपत्र कमलों के समूह हैं / ये सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप (बहुत सुन्दर) हैं। 127. (3) तासि गं खुडियाणं वावीणं जाव बिलपंतियाणं तत्थ तत्थ देसे तहि तहिं बहवे उपायपध्वया णियइपम्वया जगतिपव्वया वारुपचयगा दगमंडवगा दगमंचका दगमालका दगपासायगा ऊसहा खुल्ला खडहडगा आंदोलगा पक्खंदोलगा सम्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा। तेसु गं उप्पायपव्वएसु जाव पक्खंदोलएसु बहवे हंसासणाई कोंचासणाई गरुलासणाई उण्णयासणाई पणयासणाई दोहासणाई भद्दासणाई पक्खासणाई मगरासणाइं उसभासणाई सोहासणाई पउमासणाई विसासोवस्थियासणाई सव्वरयणामयाई अच्छाई सहाई लण्हाई घटाई मट्ठाई णोरयाई णिम्मलाई निप्पकाई निक्कंकडच्छायाई सप्पभाई समिरोयाई, सउज्जोयाई पासादीयाई दरिसणिज्जाई अमिल्वाई पडिरूवाइं। [127] (3) उन छोटी बावड़ियों यावत् कूपपंक्तियों में उन-उन स्थानों में उन-उन भागों में बहुत से उत्पातपर्वत हैं, (जहाँ व्यन्तर देव-देवियां आकर क्रीडानिमित्त उत्तरवैक्रिय की रचना करते हैं), बहुत से नियतिपर्वत हैं (जो वानव्यंतर देव-देवियों के नियतरूप से भोगने में आते हैं) जगतीपर्वत हैं, दारुपर्वत हैं (जो लकड़ी के बने हुए जैसे लगते हैं), स्फटिक के मण्डप हैं, स्फटिकरत्न Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 364] [जीवाजीवाभिगमसूत्र के मंच हैं, स्फटिक के माले हैं, स्फटिक के महल हैं जो कोई तो ऊंचे हैं, कोई छोटे हैं, कितनेक छोटे किन्तु लंबे हैं, वहाँ बहुत से प्रांदोलक (झूले) हैं, पक्षियों के आन्दोलक (झूले) हैं / ये सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं, यावत् प्रतिरूप हैं / / ___ उन उत्पातपर्वतों में यावत् पक्षियों के आन्दोलकों (झूलों) में बहुत से हंसासन (जिस प्रासन के नीचे भाग में हंस का चित्र हो), क्रौंचासन, गरुड़ासन, उन्नतासन, प्रणतासन, दीर्घासन, भद्रासन, पक्ष्यासन, मकरासन, वृषभासन, सिंहासन, पद्मासन और दिशास्वस्तिकासन हैं / ये सब सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं, मृदु हैं, स्निग्ध हैं, घृष्ट हैं, मृष्ट हैं, नीरज हैं, निर्मल हैं, निष्पक हैं, अप्रतिहत कान्ति वाले हैं, प्रभामय हैं, किरणों वाले हैं, उद्योत वाले हैं, प्रासादिक हैं, दर्शनीय हैं, अभिरूप हैं और प्रतिरूप हैं / 127. (4) तस्स णं वणसंडस्स तत्थ तत्थ देसे तहि तहिं बहवे आलिघरा मालिघरा कयलिघरा लयागरा अच्छणघरा पेच्छणघरा मज्जणधरगा पसाहणघरगा गम्भघरगा मोहणधरगा सालघरगा जालघरगा कुसुमघरगा चित्तघरगा गंधवघरगा आयंसघरगा सस्वरयणामया अच्छा सहा जाव पडिरूवा। तेसु णं आलिधरएसु जाव प्रायंसधरएसु बहूइं हंसासणाई जाय दिसासोयत्थियासणाई सव्वरयणामयाइं जाव पडिरूवाई। तस्स णं वणसंडस्स तत्थ तत्थ देसे तहि तहि बहवे जाइमंडवगा जहियामंडवगा मल्लिया. मंडवगा णवमालियामंडवगा वासंतीमंडवगा दधिवासुयामंडवगा सूरिल्लिमंडवगा, तंबोलीमंडवगा मुद्दियामंडवगा णागलयामंडवगा अतिमुत्तमंडवगा अप्फोयामंडवगा मालुयामंडवगा सामलयामंडवगा णिच्चं कुसुमिया जाय पडिरूवा। तेसु णं जातिमंडबएसु (जाय सामलयामंडवसु) बहवे पुढविसिलापट्टगा पण्णत्ता, तं महा--- हंसासणसंठिया कोंचासणसंठिया गरुलासणसंठिया उण्णयासणसंठिया पणयासणसंठिया दोहासणसंठिया भद्दासणसंठिया पक्खासणसंठिया मगरासणसंठिया उसभासणसंठिया, सीहासणसंठिया पउमासणसंठिया विसासोस्थियासणसंठिया पण्णत्ता / तत्थ बहवे वरसयणासणविसिटसंठाणसंठिया पण्णत्ता समणाउसो! आइण्णग-रूय-बूर-णवणीय-तुलफासा मउया सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा। तत्य णं बहवे वाणमंतरा देवा देवीओ य आसयंति सयंति चिट्ठति णिसीदंति तयटॅति रमंति ललंति कोलंति मोहंति पुरापोराणाणं सुचिण्णाणं सुपरिक्कंताणं सुभाणं कल्लाणाणं कडाणं कम्माणं फलवित्तिविसेसं पच्चणुब्भवमाणा विहरंति / [127] (4) उस वनखण्ड के उन-उन स्थानों और भागों में बहुत से प्रालिघर (पाली नामक वनस्पतिप्रधान घर) हैं, मालिघर (माली नामक वनस्पतिप्रधान घर) हैं, कदलीघर हैं, लताघर हैं, ठहरने के घर (धर्मशालावत्) हैं, नाटकघर हैं, स्नानघर, प्रसाधन (शृगारघर, गर्भगृह (भौंयरा), मोहनधर (वासभवन-रतिक्रीडार्थ धर) हैं, शालागृह (पट्टशाला), जालिप्रधानगृह, फूलप्रधानगृह, चित्रप्रधानगृह, गन्धर्वगृह (गीत-नृत्य के अभ्यास योग्य घर) और प्रादर्शघर (काचप्रधान गृह) हैं / ये सर्वरत्नमय, स्वच्छ यावत् बहुत सुन्दर हैं / Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: बनखण्ड की वावड़ियों आदि का वर्णन] [365 उन प्रालिघरों यावत् आदर्शधरों में बहुत से हंसासन यावत् दिशास्वस्तिकासन रखे हुए हैं, जो सर्वरत्नमय हैं यावत् सुन्दर हैं / उस वनखण्ड के उन उन स्थानों और भागों में बहुत से जाई (चमेली के फूलों से लदे हुए मण्डप (कुंज) हैं, जूही के मण्डप हैं, मल्लिका के मण्डप हैं, नवमालिका के मण्डप हैं, वासन्तीलता के मण्डप हैं, दधिवासुका नामक वनस्पति के मण्डप हैं, सूरिल्ली-वनस्पति के मण्डप हैं, तांबूलीनागवल्ली के मण्डप हैं, मुद्रिका-द्राक्षा के मण्डप है, नागलतामण्डप, प्रतिमूक्तकमण्डप, अप्फोयावनस्पति विशेष के मण्डप, मालुकामण्डप (एक गुठली वाले फलों के वृक्ष) और श्यामलतामण्डप हैं।' ये नित्य कुसुमित रहते हैं, मुकुलित रहते हैं, पल्लवित रहते हैं यावत् ये सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप हैं। ___ उन जाइमण्डपादि यावत् श्यामलतामण्डपों में बहुत से पृथ्वी शिलापट्टक हैं, जिनमें से कोई हंसासन के समान है (हंसासन की आकृति वाले हैं), कोई क्रौंचासन के समान हैं, कोई गरुड़ासन की प्राकृति के हैं, कोई उन्नतासन के समान हैं, कितनेक प्रणतासन के समान हैं, कितनेक भद्रासन के समान, कितनेक दीर्घासन के समान, कितनेक पक्ष्यासन, के समान हैं, कितनेक मकरासन, वृषभासन, सिंहासन, पद्मासन के समान हैं और कितनेक दिशा-स्वस्तिकासन के समान हैं। हे आयुष्मन् श्रमण ! वहाँ पर अनेक पृथ्वीशिलापट्टक जितने विशिष्ट चिह्न और नाम हैं तथा जितने प्रधान शयन और आसन हैं-उनके समान प्राकृति वाले हैं। उनका स्पर्श आजिनक (मृगचर्म), रुई, बूर वनस्पति, मक्खन तथा हंसतूल के समान मुलायम है, मृदु है / वे सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं, यावत् प्रतिरूप (सुन्दर) हैं। वहाँ बहुत से वानव्यन्तर देव और देवियां सुखपूर्वक विश्राम करती हैं, लेटती हैं, खड़ी रहती हैं, बैठती हैं, करवट बदलती हैं, रमण करती हैं, इच्छानुसार आचरण करती हैं, क्रीडा करती हैं, रतिक्रीडा करती हैं / इस प्रकार वे वानव्यन्तर देवियां और देव पूर्व भव में किये हुए धर्मानुष्ठानों का, तपश्चरणादि शुभ पराक्रमों का अच्छे और कल्याणकारी कर्मों के फलविपाक का अनुभव करते हुए विचरते हैं। 126. (5) तीसे णं जगतीए उप्पि अंतो पउमवरवेइयाए एत्थ णं एगे महं वणसंडे पण्णत्ते, देसूणाई दो जोयणाई विक्खंभेणं वेदिया समएणं परिक्खेवेणं किन्हे किण्होभासे वणसंडवण्णओ तणमाणिसद्दविहूणो णेयम्वो / तत्थ गं बहवे बाणमंतरा देवा देवीमो य आसयंति सयंति चिट्ठति णिसीयंति तयटॅति रमंति ललंति कोडंति मोहंति पुरा पोराणाणं सुचिण्णाणं सुपरिक्कंताणं सुभाणं कडाणं कम्माणं कल्लाणं फलवित्तिविसेसं पच्चणुभवमाणा विहरंति / उस जगती के ऊपर और पद्मवरवेदिका के अन्दर के भाग में एक बड़ा वनखंड कहा गया है, जो कुछ कम दो योजन विस्तारवाला वेदिका के परिक्षेप के समान परिधि वाला है / जो काला और 1. वृति में 'सामलयामंडवा' पाठ नहीं है। 2. क्वचित् 'मांसलसुघुटुविसिट्ठसंठाणसंठिया' पाठ भी है। वे शिलापट्टक मांसल हैं—कठोर नहीं हैं, अत्यन्त स्निग्ध हैं और विशिष्ट प्राकृति वाले हैं। 1 Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 366] [जीवाजीवाभिगमसूत्र काली कान्ति वाला है इत्यादि पूर्वोक्त वनखण्ड का वर्णन यहाँ कह लेना चाहिए। केवल यहाँ तृणों और मणियों के शब्द का वर्णन नहीं कहना चाहिए (क्योंकि यहां पद्मवरवेदिका का व्यवधान होने से तथाविध वायु का आघात न होने से शब्द नहीं होता है)। ___ यहां बहुत से वानव्यन्तर देवियां और देव स्थित होते हैं, लेटते हैं, खड़े रहते हैं, बैठते हैं, करवट बदलते हैं, रमण करते हैं, इच्छानुसार क्रियाएँ करते हैं, क्रीडा करते हैं, रतिक्रीड़ा करते हैं और अपने पूर्वभव में किये गये पुराने अच्छे धर्माचरणों का, सुपराक्रान्त तप आदि का और शुभ पुण्यों का, किये गये शुभकर्मों का कल्याणकारी फल-विपाक का अनुभव करते हुए विचरण करते हैं। विवेचन-पूर्व में पद्मवरवेदिका के बाहर के वनखण्ड का वर्णन किया गया था। इस सूत्र में पद्मवरवेदिका के पहले और जगती के ऊपर जो वनखण्ड है उसका उल्लेख किया गया है। जंबूद्वीप के द्वारों की संख्या 128. जंबुद्दीवस्स णं भंते ! दोवस्स कति दारा पण्णता ? गोयमा ! चत्तारि वारा पण्णता, तं जहा-विजए, वेजयंते, जयंते अपराजिए। [128] हे भगवन् ! जबूद्वीप नामक द्वीप के कितने द्वार हैं ? गौतम ! जंबूद्वीप के चार द्वार हैं, यथा-विजय, वैजयन्त. जयन्त और अपराजित / 129. (1) कहि णं भंते ! जंबुद्दीवस्स दीवस्स विजए णामं दारे पण्णते? गोयमा ! जंबुद्दीवे वीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरस्थिमेणं पणयालीसं जोयणसहस्साई अबाहाए जंबुद्दीवे दीवे पुरच्छिमपेरन्ते लवणसमुद्दपुरच्छिमद्धस्स पच्चत्थिमेणं सौताए महाणवीए उपि एत्थ गं नंबुद्दीवस्स दोवस्स विजए गाम दारे पण्णत्ते, अट्ठजोयणाई उड्ड उच्चत्तेणं, चत्तारि जोयणाई विक्वंमेणं, तावइयं चेव पवेसेणं, सेए वरकणयथभियागे ईहामियउसभतुरगनरमगरविहगवालगकिग्णररुरुसरम-चमरकुजर-वणलय-पउमलयभत्तिचित्ते खंभुग्गयवहरवेदियापरिगताभिरामे विज्जाहरनमलजुयलजंतजुत्ते इव अच्चिसहस्समालिणीए स्वगसहस्सकलिए भिसमाणे भिम्भिसमाणे चक्खुल्लोयणलेसे सुहफासे सस्सिरीयस्वे / वण्णो दारस्स तस्सिमो होइ, तंजहा-वरामया जिम्मा रिट्ठामया पतिद्वाणा वेरुलियमया खंभा जायरूवोवचियपवरपंचवण्णमणिरयणकोट्टिमतले, हंसगम्ममए एलए गोमेज्जमए इंदरखोले लोहितक्खमईयो वारचेडीओ जोतिरसामए उत्तरंगे वेलियामया कवाडा बइरामया संघी लोहितक्खमईओ सूईओ गाणामणिमया समुग्गगा बहरामई अग्गलाओ अग्गलपासाया वइरामई आवत्तणपेढिया अंकुत्तरपासाए णिरंतरितघणकवाडे, भित्तीसु चेव मित्तीगुलिया छप्पणणा तिणि होन्ति गोमाणसी, तत्तिया णाणामणिरयणवालरूवगलीलट्ठिय सालभंजिया, वइरामए कूडे रययामए उस्सेहे सक्तवाणिज्जमए उल्लोए णाणामणिरयणजाल पंजरमणिवंसग लोहितक्ख पडिवंसगरययभोम्मे, अंकामया पश्खबाहाओ जोतिरसामया वंसा बंसकवेल्लुगा य रययामईओ पट्टियाओ जायरूवमई मोहाडणी बइरामई उवरिपुच्छणी सबसेयरययमए छायणे अंकमयकणगडतवणिज्ज-थूभियाए सेए संखतलविमलणिम्मलवषिषण गोखीर फेणरययणिगरप्पगासे तिलग-रयणवचंदचित्ते गाणामाणि Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपति : जम्बूद्वीप के द्वारों की संख्या] [367 मयदामालंकिए अंतो य बहिं य सण्हे तवणिज्जरुइलवालयापस्थडे सुहप्फासे सस्सिरीयस्वे पासाइए ररिसणिज्जे अभिरुवे पडिल्ये। [129] (1) भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप का विजयद्वार कहाँ कहा गया है ? गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मेरुपर्वत के पूर्व में पैंतालीस हजार योजन प्रागे जाने पर तथा जंबूद्वीप के पूर्वान्त में तथा लवणसमुद्र के पूर्वार्ध के पश्चिम भाग में सीता महानदी के ऊपर जंबूद्वीप का विजयद्वार कहा गया है। यह द्वार पाठ योजन का ऊँचा, चार योजन का चौड़ा और इतना ही (चार योजन का) इसका प्रवेश है / यह द्वार श्वेतवर्ण का है, इसका शिखर श्रेष्ठ सोने का है / इस द्वार पर ईहामृग, वृषभ, घोड़ा, मनुष्य, मगर, पक्षी, सर्प, किन्नर, रुरु (मृग), सरभ (अष्टापद), चमर, हाथी, वनलता और पद्मलता के विविध चित्र बने हए हैं / इसके खंभों पर बनी हुई वज्रवेदिकामों से युक्त होने के कारण यह बहुत ही आकर्षक है / यह द्वार इतने अधिक प्रभासमुदाय से युक्त है कि यह स्वभाव से नहीं किन्तु विशिष्ट विद्याशक्ति के धारक समश्रेणी के विद्याधरों के युगलों के यंत्रप्रभाव (शक्तिविशेष) से इतना प्रभासित हो रहा है-ऐसा लगता है / यह द्वार हजारों रूपकों से युक्त है / यह दीप्तिमान है, विशेष दीप्तिमान है, देखने वालों के नेत्र इसी पर टिक जाते हैं / इस द्वार का स्पर्श बहुत ही शुभ है या सुखरूप है। इसका रूप बहुत ही शोभायुक्त लगता है / यह द्वार प्रसन्नता पैदा करने वाला, दर्शनीय, सुन्दर है और बहुत ही मनोहर है / उस द्वार का विशेष वर्णनक इस प्रकार है इसकी नींव वज्रमय है / इसके पाये रिष्ट रत्न के बने हैं / इसके स्तंभ वैडूर्यरत्न के हैं / इसका बद्धभूमितल (फर्श) स्वर्ण से उपचित (रचित) और प्रधान पांच वर्गों की मणियों और रत्नों से जटित है। इसकी देहली हंसगर्भ नामक रत्न की बनी हई है। गोमेयक रत्न का इन्द्रकील है और लोहिताक्ष रत्नों की द्वारशाखाएं हैं। इसका उत्तरंग (द्वार पर तिर्यक् रखा हुआ काष्ठ) ज्योतिरस रत्न का है। इसके किवाड वैडूर्यमणि के हैं, दो पटियों को जोड़ने वाली कीलें लोहिताक्षरस्न को हैं, वज्रमय संधियां हैं, अर्थात् सांधों में वज्ररत्न भरे हुए हैं, इनके समुद्गक (सूतिकागृह) नाना मणियों के हैं, इसकी अर्गला भोर अर्गला रखने का स्थान वज्ररत्नों का है। इसकी पावर्तनपीठिका (जहां इन्द्रकील होता है) वज्ररत्न की है।' किवाड़ों का भीतरी भाग अंकरत्न का है / इसके दोनों किवाड़ अन्तररहित और सघन हैं। उस द्वार के दोनों तरफ की भित्तियों में 168 भित्तिगुलिका (पीठक तुल्य प्रालिया) हैं और उतनी ही (168) गोमानसी (शय्याएँ) हैं / इस द्वार पर नाना मणिरत्नों के व्याल-सर्यों के चित्र बने हैं तथा लीला करती हुई पुत्तलियाँ भी नाना मणिरत्नों की बनी हुई हैं। इस द्वार का माडभाग वज्ररत्नमय है और उस माडभाग का शिखर चांदी का है। उस द्वार की छत के नीचे का भाग तपनीय स्वर्ण का है। इस द्वार के झरोखे मणिमय बांस वाले और लोहिताक्षमय प्रतिबांस वाले तथा रजतमय भूमि वाले हैं। इसके पक्ष और पक्षबाह अंकरत्न के बने हुए हैं। ज्योतिरसरत्न के बांस और बांसकवेलु (छप्पर) हैं, रजतमयी पट्टिकाएँ हैं, जातरूप स्वर्ण की अोहाडणी (विरल आच्छादन) हैं, वज्ररत्नमय ऊपर की पुंछणी (अविरल आच्छादन) हैं और सर्वश्वेत 1. वृत्ति में 'रययामयी भावत्तणपेढिया' पाठ है / अर्थात् प्रावर्तनपीठिका चांदी की है। 2. प्राह भूल टीकाकार:-कूडो-माडभागः उच्छ्यः शिखरमिति / केवलं शिखरमत्र माडभागस्य सम्बन्धि दृष्टव्यं न द्वारस्य, तस्य प्रागेव प्रोक्तात्वात् / --टीका। Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 368] [जीवाजीवाभिगमसूत्र रजतमय पाच्छादन हैं / बाहुल्य से अंकरत्नमय, कनकमय कूट तथा स्वर्णमय स्तूपिका (लघु शिखर) वाला वह विजयद्वार है / उस द्वार की सफेदी शंखतल, विमल--निर्मल जमे हुए दही, गाय के दूध, फेन और चांदी के समुदाय के समान है, तिलकरत्नों और अर्धचन्द्रों से वह नानारूप वाला है, की मणियों की माला से वह अलंकृत है. अन्दर और बाहर से कोमल-मृद् पुद्गलस्कंधों से बना हसा है, तपनीय (स्वर्ण) की रेत का जिसमें प्रस्तर-प्रस्तार है। ऐसा वह विजयद्वार सुखद और शुभस्पर्श वाला, सश्रीक रूप वाला, प्रासादीय, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप है / 129. (2) विजयस्स णं दारस्स उभओ पासि दुहनो णिसोहियाए दो दो चंदणकलसपरिवाडीओ पण्णत्ताओ। ते णं चंदणकलसा वरकमलपट्टाणा सुरमिवरवारिपडिपुण्णा चंवणकयचच्चागा, आबद्धकंठेगुणा पउमुष्पलपिहाणा सन्दरयणामया अच्छा सहा जाव पडिरूवा मया महया महिवकुभ समाणा पण्णत्ता समणाउसो! विजयस्स णं वारस्स उभो पासि बुहओ णिसीहियाए दो दो नागवंतपरिवाडीओ पण्णत्ताओ। ते णं णागदंतगा मुत्ताजालंतरुसितहेमजालगववखजालखिखिणिघंटाजालपरिक्खित्ता, प्रमुग्गया अभिनिसिट्टा तिरियं सुसंपग्गहिता अहे पण्णगद्धरूवा, पण्णगद्धसंठाणसंठिया सन्वरयणामया अच्छा भाव पडिरूवा महया महया गयदंतसमाणा पण्णत्ता समणाउसो ! तेसु णं णागदंतएसु बहवे किण्हसुत्तबद्धवग्धारियमल्लदामकलावा जाव सुक्किलसुत्तबद्धवग्धारियमल्लदामकलावा। ते णं दामा तवणिज्जलंबूसगा सुवण्णपतरकमंडिया गाणामणिरयणविविहहारद्धहारोसोभियसमुदया जाव सिरीए अतीव मतीव उवसोमेमाणा उवसोमेमाणा चिठ्ठति / तेसि णं णागदंताणं उरि अण्णाओ वो दो नागदंतपरिधाडीओ पण्णताओ। ते णं नागदंतगा मुत्ताजालंतरूसिया तहेव जाव समणाउसो ! तेसु णं नागदंतएसु बहवे रययामया सिक्कया पण्णत्ता। तेस णं रययामएस सिक्कएस बहवे वेरुलियामईओ धूवघडीओ पण्णत्ताओ। ताओ णं अवघडीओ कालागुरुपवरकुदरुक्कतुरुक्कधूवमघमघंतगंधुयाभिरामाओ सुगंधवरगंधगंधियाओ गंधवट्टिभूयाओ ओरालेणं मणुण्णणं घाणमणणिग्वइकरेणं गंघेणं तप्पएसे सव्वओ समंता आपूरेमाणीमो श्रापूरेमाणीओ अईव अईव सिरोए उषसोमेमाणा उवसोमेमाणा चिट्ठति / [129] (2) उस विजयद्वार के दोनों तरफ दो नषेधिकाएं हैं-बैठने के स्थान हैं (एक-एक दोनों तरफ हैं)। उन दो नषेधिकानों में दो-दो चन्दन के कलशों की पंक्तियां कही गई हैं। वे चन्दन के कलश श्रेष्ठ कमलों पर प्रतिष्ठित हैं, सुगन्धित और श्रेष्ठ जल से भरे हुए हैं, उन पर चन्दन का लेप किया हुआ है, उनके कंठों में मोली (लच्छा) बंधी हुई है, पद्मकमलों का उन पर ढक्कन है, वे सर्वरत्नों के बने हुए हैं, स्वच्छ हैं, श्लक्ष्ण (मृदु पुद्गलों से निर्मित) हैं यावत् बहुत सुन्दर हैं। हे आयुष्मन् श्रमण ! वे कलश बड़े-बड़े महेन्द्रकुम्भ (महाकलश) के समान हैं। उस विजयद्वार के दोनों तरफ दो नषेधिकाओं में दो-दो नागदन्तों (खूटियों) की पंक्तियाँ हैं / वे नागदन्त मुक्ताजालों के अन्दर लटकती हुई स्वर्ण की मालाओं और गवाक्ष की प्राकृति की Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सृतीय प्रतिपत्ति H जम्बूद्वीप के द्वारों की संख्या] [369 रत्नमालाओं और छोटी-छोटी घण्टिकाओं (घंघरुनों) से युक्त हैं, आगे के भाग में ये कुछ ऊँचाई लिये हुई हैं। ऊपर के भाग में आगे निकली हुई हैं और अच्छी तरह ठुकी हुई हैं, सर्प के निचले आधे भाग की तरह उनका रूप है अर्थात् अति सरल और दीर्घ हैं, इसलिए सर्प के निचले प्राधे भाग की प्राकृति वाली हैं, सर्वथा वज्ररत्नमय हैं, स्वच्छ हैं, मृदु हैं, यावत् प्रतिरूप हैं / हे आयुष्मन् श्रमण ! वे नागदन्तक बड़े बड़े गजदन्त (हाथी के दांत) के समान कहे गये हैं। उन नागदन्तकों में बहुत सी काले डोरे में पिरोयी हुई पुष्पमालाएँ लटक रही हैं, बहुत सी नीले डोरे में पिरोयी हुई पुष्पमालाएँ लटक रही हैं, यावत् शुक्ल वर्ण के डोरे में पिरोयी हुई पुष्पमालाएं लटक रही हैं। उन मालाओं में सुवर्ण का लंबूसक (पेन्डल-लटकन) है, आजूबाज वे स्वर्ण के प्रतरक से मण्डित हैं, नाना प्रकार के मणि रत्नों के विविध हार और अर्धहारों से वे मालाओं के समुदाय सुशोभित हैं यावत् वे श्री से अतीव अतीव सुशोभित हो रही हैं। उन नागदंतकों के ऊपर अन्य दो और नागदंतकों की पंक्तियां हैं / वे नागदन्तक मुक्ताजालों के अन्दर लटकती हुई स्वर्ण की मालाओं और गवाक्ष की आकृति की रत्नमालाओं और छोटी छोटी घण्टिकाओं (घुघरुओं) से युक्त हैं यावत् हे आयुष्मन् श्रमण ! वे नागदन्तक बड़े बड़े गजदन्त के समान कहे गये हैं। उन नागदन्तकों में बहुत से रजतमय छींके कहे गये हैं। उन रजतमय छींकों में वैर्यरत्न की धूपघटिकाएँ (धुपनियाँ) हैं / वे धूपघटिकाएँ काले अगर, श्रेष्ठ चीड और लोभान के धप की मघमघाती सुगन्ध के फैलाव से मनोरम हैं, शोभन गंध वाले पदार्थों की गंध जैसी सुगंध उनसे निकल रही है, वे सुगन्ध की गुटिका जैसी प्रतीत होती हैं। वे अपनी उदार (विस्तृत), मनोज्ञ और नाक एवं मन को तृप्ति देने वाली सुगंध से आसपास के प्रदेशों को व्याप्त करती हुई अतीव सुशोभित हो रही हैं। 129. (3) विजयस्स गं वारस्स उभओ पासिं दुहओ णिसीहियाए दो वो सालभंजियापरिवाडीओ पण्णत्ताओ, ताओ णं सालभंजियाओ लीलट्ठियाओ सुपइट्ठियाओ सुअलंकियाओ गाणागारवसणाओ गाणामल्लपिणद्धिमओ मुट्टिगेज्ममझाओ आमेलगजमलजुयलवट्टिअम्भुण्णयपीणरइयसंठियपओहराओ रतावंगाओ असियकेसीमो मिउविसदपसत्थलक्खणसंवेल्लितग्गसिरयानो, ईसि असोगवरपाववसमुट्ठियाओ वामहत्थगहीयग्गसालाओ ईसि अद्धच्छिकडक्ख विद्धिएहि लसेमाणीओ इव चक्खुल्लोयणलेसाहि अण्णमण्णं खिज्जमाणीओ इव पुढविपरिणामाओ सासयभावमुवगयाओ चंदाणणामओ चंदविलासिणीमो चंबद्धसमनिडालाओ चंदाहियसोमदंसणाओ उक्का इव उज्जोएमाणीको 1. किन्हीं प्रतियों में 'रयणमय' पाठ है। तदनुसार रत्नमय छींके हैं / वृत्ति में रजतमय अर्थ किया गया है। 2. वृत्ति के अनुसार सालभंजिकाओं के वर्णन का पाठ इस प्रकार है--ताप्रो णं सालभंजियानो लीलट्ठियात्री सुपयट्रियानो सुप्रलंकियामो णाणाविहरामवसणाप्रो रत्तावंगाओ असियकेसीयो मिउविसयपसत्थलक्खणसंवेल्लियम्गसिरयानो नानामल पिणद्धामो मूट्रिगेज्झमझायो पामेलगजमलवट्टियप्रभुण्णयरइयसंठियपयोहरामो ईसिं असोगवरपायवसमुट्रियायो......" Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 370] [जीवाजीवाभिगमसूत्र विज्जुघणमरीचि-सूरविप्पंततेयप्राहिययरस निकासाओ सिगारागारधारुबेसाओ पासाइयाओ दरिसणिज्जाओ अभिरुवाओ पडिरूवाओ तेयसा अतीव अतीव सोमेमाणीओ सोमेमाणीमो चिट्ठति / [129] (3) उस विजयद्वार के दोनों ओर नैषेधिकारों में दो दो सालभंजिका (पुतलियों) की पंक्तियाँ कही गई हैं / वे पुतलियाँ लीला करती हुई (सुन्दर अंगचेष्टाएँ करती हुई) चित्रित की गई हैं, सुप्रतिष्ठित–सुन्दर ढंग से स्थित की गई हैं, ये सुन्दर वेशभूषा से अलंकृत हैं, ये रंगबिरंगे कपड़ों से सज्जित हैं, अनेक मालाएँ उन्हें पहनायी गई हैं, उनकी कमर इतनी पतली है कि मुट्ठी में पा सकती है। उनके पयोधर (स्तन) समश्रेणिक चुचुकयुगल से युक्त हैं, कठिन होने से गोलाकार हैं, ये सामने की अोर उठे हए हैं, पुष्ट हैं अतएव रति-उत्पादक हैं। इन पुतलियों के नेत्रों के कोने लाल हैं, उनके बाल काले हैं तथा कोमल हैं, विशद-स्वच्छ हैं, प्रशस्त लक्षणवाले हैं और उनका अग्रभाग मुकुट से आवृत है। ये पुतलियां अशोकवृक्ष का कुछ सहारा लिये हुए खड़ी हैं / वामहस्त से इन्होंने अशोक वृक्ष की शाखा के अग्रभाग को पकड़ रखा है / ये अपने तिरछे कटाक्षों से दर्शकों के मन को मानो चुरा रही हैं। परस्पर के तिरछे अवलोकन से ऐसा प्रतीत होता है कि मानो ये (एक दूसरे के सौभाग्य को सहन न करती हुई) एक दूसरी को खिन्न कर रही हों। ये पुत्तलिकाएँ पृथ्वीकाय का परिणामरूप हैं और शाश्वत भाव को प्राप्त हैं / इन पुतलियों का मुख चन्द्रमा जैसा है। ये चन्द्रमा की भांति शोभा देती हैं, आधे चन्द्र की तरह उनका ललाट है, उनका दर्शन चन्द्रमा से भी अधिक सौम्य है, उल्का (मूल से विच्छिन्न जाज्वल्यमान अग्निपुंज-चिनगारी) के समान ये चमकीली हैं, इनका प्रकाश बिजली की प्रगाढ किरणों और अनावृत सूर्य के तेज से भी अधिक है / उनकी प्राकृति शृगार-प्रधान है और उनकी वेशभूषा बहुत ही सुहावनी है / ये प्रसन्नता पैदा करने वाली, दर्शनीया, अभिरूपा और प्रतिरूपा हैं / ये अपने तेज से अतीव अतीव सुशोभित हो रही हैं। 126. (4) विजयस्स णं दारस्स उभओ पासि दुहओ णिसीहियाए दो दो जालकडगा पण्णत्ता / ते णं जालकडगा सम्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा। विजयस्स गंदारस्स उभओ पासिं दुहओ णिसीहियाए दो दो घंटापरिवाडीओ पण्णत्ताओ। तासि गं घंटाणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तंजहाजंबूणयमईओ घंटाओ, बहरामईनो लालाओ णाणामणिमया घंटापासगा, तवणिज्जमईओ संकलाओ रययामईओ रज्जूओ। ताओ णं घंटाओ ओहस्सराओ मेहस्सरानो हंसस्सराओ कोचंस्सराओ गंदिस्सराओ गंदिघोसाओ सोहस्सराओ सोहघोसाओ मंजुस्सराओ मंजुघोसानो सुस्सराम्रो सुस्सरणिग्योसाओ ते पएसे ओरालेणं मणुण्णेणं कण्णमणनिम्वुइकरेणं सहेण जाव चिठ्ठति / विजयस्स णं दारस्स उभओ पासि दुहओ णिसीहियाए दो दो वणमालापरिवाडीओ पण्णत्ताओ। ताओ णं वणमालाओ णाणादुमलयाकिसलयपल्लवसमाउलाओ छप्पयपरिभुज्जमाणकमलसोभंतसस्सिरीयाओ पासाइयाओ० ते पएसे उरालेण जाव गंधेणं आपूरेमाणीयो जाव चिठ्ठति / [129] (4) उस विजयद्वार के दोनों तरफ दो नषेधिकारों में दो दो जालकटक (जालियों वाले रम्य स्थान) कहे गये हैं / ये जालकटक सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप हैं। Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : जम्बूद्वीप के द्वारों की संख्या] [371 उस विजयद्वार के दोनों तरफ दो नैषेधिकानों में दो घंटामों की पंक्तियां कही गई हैं। उन घंटाओं का वर्णनक इस प्रकार है-वे घंटाए सोने की बनी हुई हैं, वज्ररत्न की उनकी लालाएँ-लटकन हैं, अनेक मणियों से बने हुए घंटाओं के पार्श्वभाग हैं, तपे हुए सोने की उनकी सांकलें हैं, घंटा बजाने के लिए खींची जाने वाली रज्जु चांदी की बनी हुई है। इन घंटानों का स्वर प्रोघस्वर है--अर्थात् एक बार बजाने पर बहुत देर तक उनको ध्वनि सुनाई पड़ती है। मेघ के समान गंभीर है, हंस के स्वर के समान मधुर है, ऋोंच पक्षी के स्वर के समान कोमल है, दुन्दुभि के स्वर के तुल्य होने से नन्दिस्वर है, बारह प्रकार के वाद्यों के संघात के स्वर जैसा होने से नन्दिघोष है, सिंह को गर्जना के समान होने से सिंहस्वर है / उन घंटानों का स्वर बड़ा ही प्रिय होने से मंजुस्वर है, उनका निनाद बहुत प्यारा होता है अतएव मंजुघोष है। उन घंटानों का स्वर अत्यन्त श्रेष्ठ है, उनका स्वर और निर्घोष अत्यन्त सुहावना है। वे घंटाएँ अपने उदार, मनोज्ञ एवं कान और मन को तृप्त करने वाले शब्द से आसपास के प्रदेशों को व्याप्त करती हुई अति विशिष्ट शोभा से सम्पत्र हैं। उस विजयद्वार की दोनों ओर नषेधिकारों में दो दो वनमालाओं की कतार है / ये वनमालाएँ अनेक वक्षों और लताओं के किसलयरूप पल्लवों-कोमल कोमल पत्तों से युक्त हैं और भ्रमरों द्वारा भज्यमान कमलों से सुशोभित और सश्रीक हैं। ये वनमालाएँ प्रासादीय, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप हैं तथा अपनी उदार, मनोज्ञ और नाक तथा मन को तृप्ति देने वाली गंध से आसपास के प्रदेश को व्याप्त करती हुई अतीव अतीव शोभित होती हुई स्थित हैं / 130. विजयस्स णं दारस्स उभओ पासिं दुहओ णिसोहियाए दो दो पगंठगा पण्णता। ते णं पगंठगा चत्तारि जोयणाई आयामविक्खंमेणं दो जोयणाई बाहल्लेणं सव्ववइरामया अच्छा जाव पडिरूवा। तेसि णं पगंठगाणं उरि पत्तेयं पत्तेयं पासायडिसगा पण्णता। ते गं, पासायडिसगा चत्तारि जोयणाई उड्ढं उच्चत्तेणं दो जोयणाई आयामविक्खंभेणं अन्भुग्गयमूसियपहसिताविव विविहमणिरयणभत्तिचित्ता वाउयविजयवेजयंती पडाग-छत्ताइछत्तकलिया तुगा गगनतलमणुलिहंतसिहरा' जालंतररयणपंजरुम्मिलितव्व मणिकणगथूभियागा वियसियसयपत्तपोंडरीय-तिलक-रयणद्धचंदचित्ता णाणामणिमयदामालंकिया अंतो य बाहिं य सहा तवणिज्जरुइलवालयापत्थडगा सुहफासा सस्सिरीयरूवा पासाईया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा। तेसि णं पासायडिसगाणं उल्लोया पउमलया जाव सामलयाभत्तिचित्ता सम्वतवाणिज्जमया अच्छा जाव पडिरूवा। तेसिं णं पासायडिसगाणं पत्तेयं पत्तेयं अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते से जहाणामए आलिंगपुक्खरे इ वा जाव मणिहि उवसोभिए / मणीण गंधो पण्णो फासो य नेयव्यो। तेसि णं बहुसमरमणिज्जाणं मूमिभागाणं बहुमज्मदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं मणिपेढियामो 1. 'गगनतलमभिलंघमाणसिहरा' इत्यपि पाठः / Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 372] [जीवाजीवाभिगमसूत्र पण्णताओ / ताओ गं मणिपेढियाओ जोयणं आयामविक्वंमेणं अद्धजोयणं बाहल्लेणं सम्धरयणामईओ माव पहिलवाओ। तासि णं मणिपेठियाणं उरि पत्तेयं पत्तेयं सोहासणे पण्णत्ते / तेसि णं सोहासणाणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तंजहा-रययामया सीहा तवणिज्जमया चक्कवाला सोवणिया पावा जाणामणिमयाई पायसीसगाई जंबूणवमयाई गत्ताई वइरामया संधी नानामणिमए वेच्चे। ते गं सोहासणा ईहामिय-उसभ जाव पउमलयभत्तिचित्ता ससारसारोवइयविधिहमणिरयणपादपीढा प्रच्छरगमिउमसूरगनवतयकुसंतलिचसोहकेसर पच्चुत्थयाभिरामा उपचियखोमदुगुल्लय पडिच्छायणा सुविरइयरयत्ताणा रत्तंसुयसंवया सुरम्मा आईणगल्यबूरणवणीयतूलमउयफासा मउया पासाईया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा। तेसि णं सोहासणाणं उम्पि पत्तेयं पत्तेयं विजयदूसे पण्णत्ते / ते णं विजयदूसा सेया संखकुद. वगरयअमयमहियफेणपुजसन्निकासा सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिलया। तेसि णं विजयदूसाणं बहुमज्झदेसमाए पत्तेयं पत्तेयं वइरामया अंकुसा पण्णत्ता / तेसु गं वहरामएसु अंकुसेसु पत्तेयं पत्तेयं कुभिका मुत्तादामा पण्णता / ते णं कुभिका मुत्तादामा अन्नेहि चहि चहिं तबद्ध च्चप्पमाणमेताहि अबकु मिक्केहि मुत्तावामेहि सव्वओ समंता संपरिविखत्ता / ते णं दामा तवणिज्जलंबूसगा सुवण्णपयरगमंडिया जाव चिट्ठति / तेसि णं पासायडिसगाणं उप्पि बहवे अट्ठमंगलगा पण्णत्ता सोस्थिय तहेव जाव छत्ता। 130. उस विजयद्वार के दोनों तरफ दोनों नषेधिकाओं में दो प्रकण्ठक' (पीठविशेष) कहे गये हैं। ये प्रकण्ठक चार योजन के लम्बे-चौड़े और दो योजन की मोटाई वाले हैं। ये सर्व व्रजरस्न के हैं, स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप (मनोज्ञ) हैं। इन प्रकण्ठकों के ऊपर अलग-अलग प्रासादावतंसक (प्रासादों के बीच में मुकुटरूप प्रासाद) कहे गये हैं। ये प्रासादावतंसक चार योजन के ऊंचे और दो योजन के ये प्रासादावतंसक चारों तरफ से निकलती हई और सब दिशाओं में फैलती हई प्रभा से बँधे हुए हों ऐसे प्रतीत होते हैं अथवा चारों तरफ से निकलती हुई श्वेत प्रभापटल से हंसते हुए-से प्रतीत होते हैं / ये विविध प्रकार की मणियों और रत्नों की रचनाओं से विविध रूप वाले हैं अथवा विविध रत्नों की रचनाओं से आश्चर्य पैदा करने वाले हैं / वे वायु से कम्पित और विजय की सूचक वैजयन्ती नाम की पताका, सामान्य पताका और छत्रों पर छत्र से शोभित हैं, वे ऊंचे हैं, उनके शिखर आकाश को छू रहे हैं अथवा आसमान को लांघ रहे हैं / उनकी जालियों में रत्न जड़े हुए हैं, वे प्रावरण से बाहर निकली हुई वस्तु की तरह नये नये लगते हैं, उनके शिखर मणियों और सोने के हैं, विकसित शतपत्र, पुण्डरीक, तिलकरत्न और अर्धचन्द्र के चित्रों से चित्रित हैं, नाना प्रकार की मणियों की मालाओं से अलंकृत हैं, अन्दर और बाहर से श्लक्ष्ण-चिकने हैं, तपनीय स्वर्ण की बालुका इनके आंगन में बिछी हुई है / इनका स्पर्श अत्यन्त सुखदायक है / इनका रूप लुभावना है। ये प्रासादावतंसक प्रासादीय, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप हैं। 1. 'प्रकण्ठो पीठविशेषो' इति मूलटीकाकारः / चूर्णिकारस्तु एवमाह आदर्शवृत्तीपर्यन्तावनतप्रदेशी पीठी प्रकण्ठाविति / लम्बे-च Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : जम्बूद्वीप के द्वारों की संख्या] [373 उन प्रासादावतंसकों के ऊपरी भाग पद्मलता, अशोकलता यावत् श्यामलता के चित्रों से चित्रित हैं और वे सस्मिना स्वर्ण के हैं। वे स्वच्छ, चिकने यावत् प्रतिरूप हैं। उन प्रासादावतंसकों में अलग-अलग बहुत सम और रमणीय भूमिभाग है। वह भूमिभाग मृदंग पर चढ़े हुए चर्म के समान समतल है यावत् मणियों से उपशोभित है / यहाँ मणियों के गन्ध, वर्ण और स्पर्श का वर्णन पूर्ववत् कहना चाहिए / उन एकदम समतल और रमणीय भूमिभागों के एकदम मध्यभाग में अलग-अलग मणिपीठिकाएँ कही गई हैं / वे मणिपीठिकाएँ एक योजन की लम्बी-चौड़ी और आधे योजन की मोटाई' वाली हैं। वे सर्वरत्नमयी यावत् प्रतिरूप हैं। उन मणिपोठिकानों के ऊपर अलग-अलग सिंहासन कहे गये हैं। उन सिंहासनों का वर्णन इस प्रकार कहा गया है--उन सिंहासनों के सिंह रजतमय हैं, स्वर्ण के उनके पाये हैं, तपनीय स्वर्ण के पायों के अधःप्रदेश हैं, नाना मणियों के पायों के ऊपरी भाग हैं, जंबूनद स्वर्ण के उनके गात्र (ईसें) हैं, वचमय उनकी संधियां हैं, नाना मणियों से उनका मध्यभाग बुना गया है / वे सिंहासन ईहामृग, वृषभ, यावत् पद्मलता आदि की रचनाओं से चित्रित हैं, प्रधान-प्रधान विविध मणिरत्नों से उनके पादपीठ उपचित (शोभित) हैं, उन सिंहासनों पर मृदु स्पर्शवाले आस्तरक (माच्छादन, अस्तर) युक्त गद्दे जिनमें नवीन छालवाले मुलायम-मुलायम दर्भाग्र (दूब) और अतिकोमल केसर भरे हैं, बिछे होने से वे सुन्दर लग रहे हैं, उन गद्दों पर बेलबूटों से युक्त सूती वस्त्र की चादर (पलंगपोस) बिछी हुई है, उनके ऊपर धल न लगे इसलिए रजस्त्राण लगाया या है. वे रमणीय ला आच्छादित हैं, सुरम्य हैं, जिनक (मृगचर्म), रुई, बूर वनस्पति, मक्खन और अर्कतूल के समान मुलायम स्पर्शवाले हैं। वे सिंहासन प्रासादीय, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप हैं। उन सिंहासनों के ऊपर अलग-अलग विजयष्य (वस्त्रविशेष) कहे गये हैं। वे विजयदूष्य सफेद हैं, शंख, कुंद (मोगरे का फूल), जलबिन्दु, क्षीरोदधि के जल को मथित करने से उठने वाले फेनपुज के समान (श्वेत) हैं, सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं यावत प्रतिरूप हैं। उन विजयदूष्यों के ठीक मध्यभाग में अलग अलग वज्रमय अंकुश (हुक तुल्य) कहे गये हैं / उन वज्रमय अंकुशों में अलग अलग कुंभिका (मगधदेशप्रसिद्धप्रमाण विशेष) प्रमाण मोतियों की मालाएँ लटक रही हैं। वे कुंभिकाप्रमाण मुक्तामालाएँ अन्य उनसे प्राधो ऊँचाई वाली अर्धकुंभिका प्रमाण चार चार मोतियों की मालाओं से सब ओर से वेष्ठित हैं। उन मुक्तामालाओं में तपनीयस्वर्ण के लंबुसक (पेण्डल) हैं, वे अासपास से स्वर्ण के प्रतरक से मंडित हैं यावत् श्री से अतीव अतीव सुशोभित हैं। उन प्रासादावतंसकों के ऊपर पाठ-पाठ मंगल कहे गये हैं, यथा-स्वस्तिक यावत् छत्र / 131. (1) विजयस्स णं दारस्स उभओ पासि दुहओ णिसीहियाए दो दो तोरणा पण्णता, ते गं तोरणा णाणामणिमया तहेव जाव अट्ठमंगलका य छत्तातिछत्ता / तेसिं गं तोरणामं पुरषो दो दो 1. टीका में 'अट्ठजोयणंबाहल्लेणं' 'अष्ट योजनानि बाहल्येन' पाठ है / 2. 'वेच्चं' व्यूतं वानमित्यर्थः / आह च चूणिकृत् 'वेच्चे वाणक्कतेणं' / Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ীকালীবাণিসুষ सालभंजियाओ पण्णत्तानो, जहेव णं हेढा तहेव / तेसि गं तोरणाणं पुरओ दो दो नागदंतगा पणत्ता, ते णं गागदंतगा मुत्ताजालरुसिया तहेव / तेसु णं णागदंतएसु बहवे किण्हे सुत्तवट्टवग्घारितमल्लदामकलावा जाव चिट्ठति / तेसि णं तोरणाणं पुरओ दो दो हयसंघाडगा पण्णत्ता सव्यरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा। एवं पंतीओ, बीहीओ, मिहणगा; दो दो पउमलयाओ जाव पडिरूवाओ। तेसि णं तोरणाणं पुरओ अक्खयसोवत्थिया सम्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा / तेसि णं तोरणाणं पुरओ दो दो चंदणकलसा वरकमलपइट्ठाणा तहेव सम्वरयणामया जाव पडिरूवा समणाउसो! तेसि णं तोरणाणं पुरओ दो दो भिंगारगा पण्णत्ता, वरकमलपइट्ठाणा जाव सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा महया महया मत्तगयमुहागिइसमाणा पण्णत्ता समणाउसो! / तेसि णं तोरणाणं पुरओ दो दो आयंसगा पण्णता, तेसि णं आयंसगाणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तंजहा-तणिज्जमया पयंठगा वेरुलियमया छरुहा (थंभया), वइरामया वरंगा जाणामणिमया वलक्खा अंकमया मंडला अणोग्घर्षासनिम्मलासाए छायाए सम्बओ चेव समणुबा णिकासा महया महया अद्धकायसमाणा पण्णत्ता समणाउसो ! तेसिं गं तोरणाणं पुरओ दो दो वइरणामे थाले पण्णत्ते; ते गं थाला अच्छतिच्छडियसालितंदुलनहसंदट्ठ बहुपडिपुण्णा इव चिट्ठति सम्वजंबूणदामया अच्छा जाव पडिरूवा महयामहया रहचक्कसमाणा समणाउसो! तेसि णं तोरणाणं पुरनो दो दो पातीओ पण्णतायो / ताओ गं पातीओ अच्छोदयपडिहत्याओ गाणाविहपंचवण्णस्स फलहरितगस्स बहुपडिपुग्णाओ विव चिट्ठति सम्वरयणामईओ जाब पडिरूवाओ महया महया गोकलिंजगचक्कसमाणाओ पण्णत्ताओ समणाउसो! 1131] (1) उस विजयद्वार के दोनों ओर दोनों नैषधिकाओं में दो दो तोरण कहे गये हैं। वे तोरण नाना मणियों के बने हुए हैं इत्यादि वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए यावत् उन पर आठ-पाठ मंगलद्रव्य और छत्रातिछत्र हैं। उन तोरणों के आगे दो दो शालभंजिकाएँ (पत्तलियां) कही गई हैं। जैसा वर्णन उन शालभंजिकाओं का पूर्व में किया गया है, वैसा ही यहाँ कह लेना चाहिए / उन तोरणों के आगे दो दो नागदंतक (खुंटियां) हैं / वे नागदंतक मुक्ताजाल के अन्दर लटकती हुई मालाओं से युक्त हैं आदि वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए। उन नागदंतकों में बहुत सी काले सूत में गूंथी हुई विस्तृत पुष्पमालाओं के समुदाय हैं यावत् वे अतीव शोभा से युक्त हैं। उन तोरणों के आगे दो दो घोड़ों के जोड़े (संघाटक) कहे गये हैं जो सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं यावत प्रतिरूप हैं। इसी प्रकार यों (घोड़ों) की पंक्तियां (एक दिशा में जो कतारें होती हैं) और हयों की वीथियाँ (आजू-बाजू की कतारें) और हयों के मिथुनक (स्त्री-पुरुष के जोड़े) भी हैं। उन तोरणों के आगे दो-दो पद्मलताएँ चित्रित हैं यावत वे प्रतिरूप हैं। उन तोरणों के आगे अक्षत के स्वस्तिक चित्रित हैं जो सर्व रत्नमय हैं, स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप हैं / 1. 'वइरामए थाले' ऐसा पाठ भी कहीं कहीं है / वजरल के थाल हैं। . Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : जम्बूद्वीप के द्वारों की संख्या] [375 उन तोरणों के आगे दो-दो चन्दनकलश कहे गये हैं। वे चन्दनकलश श्रेष्ठ कमलों पर प्रतिष्ठित हैं आदि पूर्ववत् वर्णन जानना चाहिए यावत् हे आयुष्मन् श्रमण ! वे सर्व रत्नमय हैं यावत् प्रतिरूप हैं। / उन तोरणों के आगे दो-दो भगारक (झारी) कहे गये हैं। वे भंगारक श्रेष्ठ कमलों पर प्रतिष्ठित हैं यावत् सर्वरत्नमय, स्वच्छ यावत् प्रतिरूप हैं और हे प्रायुष्मन् श्रमण ! वे भृगारक बड़ेबड़े और मत्त हाथी के मुख की प्राकृति वाले हैं। उन तोरणों के आगे दो-दो प्रादर्शक (दर्पण) कहे गये हैं। उन आदर्शकों का वर्णनक इस प्रकार है-इन दर्पणों के प्रकण्ठक (पीठविशेष) तपनीय स्वर्ण के बने हुए हैं, इनके स्तम्भ (जहाँ से दर्पण मुट्ठी में पकड़ा जाता है वह स्थान) वैडूर्य रत्न के हैं, इनके वरांग (गण्ड-फेम) वज्ररत्नमय हैं, इनके वलक्ष (सांकलरूप अवलम्बन) नाना मणियों के हैं, इनके मण्डल (जहां प्रतिबिम्ब पड़ता है) अंक रत्न के हैं / ये दर्पण अनवर्षित (मांजे बिना ही--स्वाभाविक) और निर्मल छाया- कान्ति से युक्त हैं, चन्द्रमण्डल की तरह गोलाकार हैं। हे आयुष्मन् श्रमण ! ये दर्पण बड़े-बड़े और दर्शक की आधी काया के प्रमाण वाले कहे गये हैं। उन तोरणों के आगे दो-दो वज्रनाभ' स्थाल कहे गये हैं। वे स्थाल स्वच्छ, तीन बार सूप आदि से फटकार कर साफ किये हुए और मूसलादि द्वारा खंडे हुए शुद्ध स्फटिक जैसे चावलों से भरे हुए हों, ऐसे प्रतीत होते हैं / वे सर्व स्वर्णमय हैं, स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप हैं / हे आयुष्मन् श्रमण ! वे स्थाल बड़े-बड़े रथ के चक्र के समान कहे गये हैं। उन तोरणों के आगे दो-दो पात्रियां कही गई हैं। ये पात्रियां स्वच्छ जल से परिपूर्ण हैं। नानाविध पांच रंग के हरे फलों से भरी हुई हों-ऐसी प्रतीत होती हैं (साक्षात् जल या फल नहीं हैं, किन्तु वैसी प्रतीत होती हैं। वे पृथ्वीपरिणामरूप और शाश्वत हैं / केवल बैसी उपमा दी गई है।) वे स्थाल सर्वरत्नमय यावत् प्रतिरूप हैं और बड़े-बड़े गोकलिंजर (बांस का टोपला अथवा) चक्र के समान कहे गये हैं। 131. (2) तेसि गं तोरणाणं पुरनो दो दो सुपतिट्ठगा पण्णत्ता। ते णं सुपतिट्ठगा गाणाविह(पंचवण्ण) पसाहणगभंडविरचिया सम्वोसहिपडिपुण्णा सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा / तेसि णं तोरणाणं पुरओ दो दो मणोगुलियाओ पण्णत्ताओ, तासु णं मणोगुलियासु बहवे सुवण्ण-रुप्पामया फलगा पण्णत्ता / तेसु णं सुवण्णरुप्पामएसु फलएसु बहवे बइरामया णागदंतगा मुत्ताजालंतररुसिता हेम जाव गयदंत समाणा पण्णत्ता / तेसु णं वइरामएसु नागदंतएसु बहवे रययामया सिक्कया पण्णता। तेसु णं रययामएसु सिक्कएसु बहवे वायकरगा पण्णत्ता / ते गं वायकरगा किण्हसुत्तसिक्कगवत्थिया जाय सुक्किलसुत्तसिक्कगवत्थिया सव्वे वेरुलियामया अच्छा जाव पडिरूवा। तेसि गं तोरणाणं पुरओ दो-दो चित्ता रयणकरंडगा पग्णत्ता। से जहाणामए रणो चाउरंत. चक्कट्टिस्स चित्ते रयणकरंडे वेरुलियमणिफालिय पडलपच्चोयडे साए पमाए ते पएसे सव्वनो समंता 1. वृत्ति में 'वज्रनाभ स्थाल' कहा है / अन्यत्र 'वइरामए थाले' ऐसा पाठ है। Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 376] [जीवानीवाभिगमसूत्र मोभासह उज्जोवेइ तावेई पभासेइ, एवामेव ते चित्तरयणकरंडगा पण्णसा वेरुलियपडलपच्चोयाडसाए पभाए ते पएसे सव्वओ समंता ओभासेइ / तेसि णं तोरणाणं पुरओ दो वो हयकंठगा जाय दो दो उसमकंठगा पण्णता सम्वरयणामया अच्छा जाव पडिलवा / तेसु णं ह्यकंठएसु जाव उसमकंठएसु दो दो पुष्फचंगेरीओ, एवं मल्लगंषचण्णवस्थाभरणचंगेरीओ सिद्धत्थचंगेरीओ लोमहत्थचंगेरीओ सव्वरयणामईओ अच्छाओ जाय पडिरूवाओ। तेसिं गं तोरणाणं पुरओ दो दो पुष्फपडलाइं जाव लोमहत्थपडलाइं सव्वरयणामयाई जाव पडिरूवाई। तेसि णं तोरणाणं पुरमओ दो दो सोहासणाई पण्णत्ताई। तेसि गं सोहासणाणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते तहेव जाव पासाईया 4 // तेसि णं तोरणाणं पुरओ दो दो रुप्पच्छदा छत्ता पणत्ता, ते णं छत्ता वेरुलियभिसंतविमलदंडा जंबूणयकनिका बइरसंधी मुत्ताजालपरिगया अट्ठसहस्सवरकंचणसलागा बद्दरमलयसुगंधी सम्वोउअसुरभिसीयलच्छाया मंगलभत्तिचित्ता चंदागारोवमा वट्टा। तेसि गं तोरणाणं पुरओ दो दो चामराओ पण्णत्ताओ। ताओ णं चामराओ' चंदप्यमवरवेलिय-नानामणिरयणखचियदंडाओ संखक-कुद-दगरय-अमयमहिय-फेणपुज-सण्णिकासाओ सुहुमरययदीहबालाओ सध्वरयणामयाओ अच्छाओ जाव पडिरूवाओ। तेसि गं तोरणाणं पुरओ दो दो तिल्लसमुग्गा कोढसमुग्गा पत्तसमुग्गा चोयसमुग्गा तयरसमुग्गा एलासमुग्गा हरियालसमुग्गा हिंगुलयसमुग्गा मणोसिलासमुग्गा अंजणसमुग्गा सम्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा। [131] (2) उन तोरणों के आगे दो-दो सुप्रतिष्ठक (शृगारदान) कहे गये हैं। वे सुप्रतिष्ठक नाना प्रकार के पांच वर्षों की प्रसाधन-सामग्री और सर्व औषधियों से परिपूर्ण लगते हैं, वे सर्वरत्नमय, स्वच्छ यावत् प्रतिरूप हैं। उन तोरणों के आगे दो-दो मनोगुलिका (पीठिका) कही गई हैं। उन मनोगुलिकानों में बहुत-से सोने-चांदी के फलक (पटिये) हैं। उन सोने-चांदी के फलकों में बहुत से वज्रमय नागदंतक (खूटियाँ) हैं। ये नागदंतक मुक्ताजाल के अन्दर लटकती हुई मालाओं से युक्त हैं यावत् हाथी के दांत के समान कही गई हैं। उन वज्रमय नागदंतकों में बहुत से चांदी के सींके कहे गये हैं। उन चांदी के सींकों में बहत से वातकरक (जलशून्य घड़े) हैं। ये जलशून्य घड़े काले सूत्र के बने हए ढक्कन से यावत् सफेद सूत्र के बने हुए ढक्कन से आच्छादित हैं। ये सब वैडूर्यमय हैं, स्वच्छ हैं, यावत् प्रतिरूप हैं। 1. णाणामणिकणगरयणविमलमहरिहतवाणिज्जुज्जल विचित्तदंडामो चिल्लिमानो इति पाठान्तरम् / 2. मनोगुलिकपीठिकति मूलटीकायाम् / Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : जम्बूद्वीप के द्वारों की संख्या] [377 उन तोरणों के आगे दो-दो चित्रवर्ण के रत्नकरण्डक कहे गये हैं। जैसे-किसो चातुरन्त (चारों दिशाओं को पृथ्वो पर्यन्त) चक्रवर्ती का नाना मणिमय होने से नानावर्ण का अथवा आश्चर्यभूत रत्नकरण्डक जिस पर वैडूर्यमणि और स्फटिक मणियों का ढक्कन लगा हुआ है, अपनी प्रभा से उस प्रदेश को सब ओर से अवभासित करता है, उद्योतित करता है, प्रदीप्त करता है, प्रकाशित करता है, इसी तरह वे विचित्र रत्नकरंडक वैडूर्यरत्त के ढक्कन से युक्त होकर अपनी प्रभा से उस प्रदेश को सब ओर से अवभासित करते हैं। उन तोरणों के आगे दो-दो हयकंठक' (रत्नविशेष) यावत् दो-दो वृषभकंठक कहे गये हैं। वे सर्वरत्नमय, स्वच्छ यावत् प्रतिरूप हैं। उन हयकंठकों में यावत् वृषभकंठकों में दो-दो फूलों की चंगेरियाँ (छाबड़ियाँ) कही गई हैं। इसी तरह माल्यों-मालाओं, गंध, चूर्ण, वस्त्र एवं प्राभरणों की दो-दो चंगेरियां कही गई हैं / इसी तरह सिद्धार्थ (सरसों) और लोमहस्तक (मयूरपिच्छ) चंगेरियाँ भी दो-दो हैं। ये सब सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप हैं। उन तोरणों के आगे दो-दो पुष्प-पटल यावत् दो-दो लोमहस्त-पटल कहे गये हैं, जो सर्वरत्नमय हैं यावत् प्रतिरूप हैं। उन तोरणों के प्रागे दो-दो सिंहासन हैं। उन सिंहासनों का वर्णनक इस प्रकार है प्रादि वर्णन उन तोरणों के आगे चांदी के आच्छादन वाले छत्र कहे गये हैं। उन छत्रों के दण्ड वैडूर्यमणि के हैं, चमकीले और निर्मल हैं, उनकी कणिका (जहाँ तानियां तार में पिरोयी रहती हैं) स्वर्ण की है, उनकी संधियां बजरत्न से पूरित हैं, वे छत्र मोतियों की मालाओं से युक्त हैं। एक हजार पाठ शलाकाओं (तानियों) से युक्त हैं, जो श्रेष्ठ स्वर्ण की बनी हुई हैं। कपड़े से छने हुए चन्दन को गंध के समान सुगन्धित और सर्वऋतुओं में सुगन्धित रहने वाली उनकी शीतल छाया है। उन छत्रों पर नाना प्रकार के मंगल चित्रित हैं और वे चन्द्रमा के आकार के समान गोल हैं। उन तोरणों के आगे दो-दो चामर कहे गये हैं। वे चामर चन्द्रकान्तमणि, वज्रमणि, वैडूर्यमणि आदि नाना मणिरत्नों से जटित दण्ड वाले हैं। (जिनके दण्ड नाना प्रकार की मणियों, स्वर्ण, रत्नों से जटित हैं, विमल हैं, बहुमूल्य स्वर्ण के समान उज्ज्वल एवं चित्रित हैं, चमकीले हैं) वे चामर शंख, अंकरत्न कुंद (मोगरे का फूल) दगरज (जलकण) अमृत (क्षीरोदधि) के मथित फेनपुंज के समान श्वेत हैं, सूक्ष्म और रजत के लम्बे-लम्बे बाल वाले हैं, सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं, यावत् प्रतिरूप हैं। उन तोरणों के आगे दो-दो तैलसमुद्गकर (प्राधारविशेष) कोष्ट समुद्गक, पत्रसमुद्गक, चोयसमुद्गक, तगरसमुद्गक, इलायचीसमुद्गक, हरितालसमुद्गक, हिंगुलुसमुद्गक, मनःशिलासमुद्गक और अंजनसमुद्गक हैं। (ये सर्व सुगंधित द्रव्य हैं। इनके रखने के आधार को समुद्गक कहते हैं / ) ये सर्व समुद्गक सर्वरत्नमय हैं स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप हैं। 1. 'हयकण्ठो हयकण्ठप्रमाणौ रत्नविशेषो' इति मूलटीकायाम् 2. 'तैलसमुद्गको सुगंधिततलाधारविशेषो' इति वृत्तिः / 3. 'तेल्लो कोठुसमुग्गा पत्ते चोए य तगर एला य / हरियाले हिंगुलए मणोसिला अंजणसमुग्गो।' संग्रहणी गाथा। Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 378] [जीवाजीवाभिगमसूत्र 132. विजए णं दारे अनुसयं चक्कज्झयाणं अट्ठसयं मिगज्मयाणं अट्ठसयं गरुडज्मयाणं (अट्ठसयं विगायाणं) अट्ठसयं रुरुयज्झयाणं अट्ठसयं छत्तन्मयाणं अट्ठसयं पिच्छज्झयाणं अट्ठसयं सउणिज्मयाणं अदृसयं सीहायाणं अट्ठसयं उसभज्झयाणं अट्ठसयं सेयाणं घउविसाणाणं णागवरकेकणं एवामेष सपुम्वावरेणं विजयदारे य असीयं के उसहस्सं भवतीतिमक्खायं / विजये गं दारे णव भोमा पण्णता। तेसि गं मोमाणं अंतो बहुसमरमणिज्जा भूमिभागा पण्णत्ता जाव मणीणं फासो। तेसि णं मोमाणं उप्पि उल्लोया पउमलया जाव सामलताभत्तिचित्ता जाव सम्यतवणिज्जमया अच्छा जाय पडिरूवा। तेसि णं भोमाणं बहुमज्झदेसभाए जे से पंचमे भोमे तस्स णं भोमस्स बहुमज्सदेसभाए एत्थ गं एगे महं सीहासणे पण्णत्ते / सीहासणवण्णओ विजयसे जाव अंकुसे जाव वामा चिट्ठति / तस्स सीहासणस्स अवरुत्तरेणं उत्तरेणं उत्तरपुरस्थिमेणं एत्थ णं विजयस्स देवस्स चउण्हं सामाणियसहस्साणं चत्तारि भद्दासणसाहस्सीओ पण्णताओ / तस्स गं सीहासणस्स पुरच्छिमेणं एत्थ णं विजयस्स देवस्स चउण्हं अग्गहिसाणं सपरिवाराणं चत्तारि भद्दासणा पण्णता। तस्स णं सीहासणस्स दाहिणपुरस्थिमेणं एत्थ णं विजयस्स देवस्स अम्भितरियाए परिसाए अट्टहं देवसाहस्सोणं अट्टण्हं भद्दासणसाहस्सीओ पण्णत्ताओ / तस्स णं सीहासणस्स दाहिणणं विजयस्स देवस्स मज्झिमाए परिसाए बसण्हं देवसाहस्सोणं दस भद्दासणसाहस्सोओ पण्णत्ताओ। तस्स णं सोहासणस्स दाहिणपच्चस्थिमेणं एस्थ गं विजयस्स देवस्स बाहिरियाए बारसण्हं देवसाहस्सीणं बारसभद्दासणसाहस्सीओ पण्णत्ताओ। तस्स णं सीहासणस्स पच्चस्थिमेणं एस्थ णं विजयस्स देवस्स सत्ताहं अणियाहिवईणं सत्त भद्दासणा पण्णत्ता / तस्स णं सोहासणस्स पुरस्थिमेणं दाहिणणं पच्चस्थिमेणं उत्तरेणं एत्य णं विजयस्स देवस्स सोलस आयरक्खदेवसाहस्सीणं सोलस भद्दासणसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, तंजहा-पुरस्थिमेणं चत्तारि साहस्सोओ एवं चउसुवि जाव उत्तरेणं चत्तारि साहस्सीनो। अवसेसेसु भोमेसु पत्तेयं पत्तेयं भद्दासणा पण्णत्ता। 6132] उस विजयद्वार पर एक सौ आठ चक्र से अंकित ध्वजाएँ, एक सौ पाठ मृग से अंकित ध्वजाएँ, एक सौ आठ गरुड से अंकित ध्वजाएँ, (एक सौ आठ वृक' (भेडिया) से अंकित ध्वजाएँ), एक सौ आठ रुरु (मृगविशेष) से अंकित ध्वजाएँ, एक सौ पाठ छत्रांकित ध्वजाएँ, एक सौ आठ पिच्छ से अंकित ध्वजाएं, एक सौ आठ शकुनि (पक्षी) से अंकित ध्वजाएँ, एक सौ आठ सिंह से अंकित ध्वजाएँ, एक सौ पाठ वृषभ से अंकित ध्वजाएँ और एक सौ आठ सफेद चार दांत वाले हाथी से अंकित ध्वजाएँ-इस प्रकार आगे-पीछे सब मिलाकर एक हजार अस्सी ध्वजाएँ विजयद्वार पर कही गई हैं / (ऐसा मैंने और अन्य तीर्थंकरों ने कहा है / ) 1. वृत्ति में वृक से अंकित पाठ नहीं है / वहाँ रुरु से अंकित पाठ मान्य किया गण है। किन्हीं प्रतियों में 'रुरु' पाठ नहीं है। कहीं दोनों हैं / इन दोनों में से एक को स्वीकार करने से ही कुल संख्या 1080 होती है। -सम्पादक Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : जम्बूद्वीप के द्वारों की संख्या] [379 उस विजयद्वार के आगे नौ भौम (विशिष्टस्थान) कहे गये हैं। उन भौमों के अन्दर एकदम समतल और रमणीय भूमिभाग कहे गये हैं, इत्यादि वर्णन पूर्ववत् यावत् मणियों के स्पर्श तक जानना चाहिए / उन भौमों की भीतरी छत पर पद्मलता यावत् श्यामलताओं के विविध चित्र बने हुए हैं, यावत् वे स्वर्ण के हैं, स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप हैं। उन भौमों के एकदम मध्यभाग में जो पांचवां भौम है उस भौम के ठीक मध्यभाग में एक बड़ा सिंहासन कहा गया है, उस सिंहासन का वर्णन, देवदूष्प का वर्णन यावत वहाँ अंकुशों में मालाएँ लटक रही हैं, यह सब पूर्ववत् कहना चाहिए। उस सिंहासन के पश्चिम-उत्तर (वायव्यकोण) में, उत्तर में, उत्तर-पूर्व (ईशानकोण) में विजयदेव के चार हजार सामानिक देवों के चार हजार भद्रासन कहे गये हैं। उस सिंहासन के पूर्व में विजयदेव की चार सपरिवार अग्रमहिषियों के चार भद्रासन कहे गये हैं / उस सिंहासन के दक्षिण-पूर्व में (आग्नेयकोण में) विजयदेव की प्राभ्यन्तर पर्षदा के पाठ हजार देवों के आठ हजार भद्रासन कहे गये हैं। उस सिंहासन के दक्षिण में विजयदेव की मध्यम पर्षदा के दस हजार देवों के दस हजार भद्रासन कहे गये हैं / उस सिंहासन के दक्षिण-पश्चिम (नैऋत्यकोण) में विजयदेव की बाह्य-पर्षदा के बारह हजार देवों के बारह हजार भद्रासन कहे गये हैं। उस सिंहासन के पश्चिम में विजयदेव के सात अनीकाधिपतियों के सात भद्रासन कहे गये हैं। उस सिंहासन के पूर्व में, दक्षिण में, पश्चिम में और उत्तर में विजयदेव के सोलह हजार प्रात्मरक्षक देवों के सोलह हजार सिंहासन हैं। पूर्व में चार हजार, इसी तरह चारों दिशाओं में चार-चार हजार यावत् उत्तर में चार हजार सिंहासन कहे गये हैं। शेष भौमों में प्रत्येक में भद्रासन कहे गये हैं। (ये भद्रासन--सामानिकादि देव परिवारों से रहित जानने चाहिए।) 133. विजयस्स गं दारस्स उरिमागारा सोलसविहेहि रयणेहि उपसोभिता, तंजहारयहि वेरुलिएहि जाव रिट्ठहिं / विजयस्स णं दारस्स उपि बहवे अहमंगलगा पण्णत्ता, तंजहासोत्थिय-सिरिवच्छ जाव वप्पणा सत्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा। विजयस्स णं बारस्स उप्पि बहवे कण्हचामरज्या जाव सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा / विजयस्स णं वारस्स उपि बहवे छत्ताइछत्ता तहेव। [133] उस विजयद्वार का ऊपरी आकार (उत्तरांगादि) सोलह प्रकार के रत्नों से उपशोभित है। जैसे वनरत्न, वैडूर्यरत्न यावत् रिष्टरत्न / ' उस विजयद्वार पर बहुत से आठ-आठ मंगल--स्वस्तिक, श्रीवत्स यावत् दर्पण कहे गये हैं। ये सर्वरत्नमय स्वस्छ यावत् प्रतिरूप हैं। उस विजयद्वार के ऊपर बहुत से कृष्ण चामर के चिह्न से अंकित ध्वजाएँ हैं। यावत् वे ध्वजाएँ सर्वरत्नमय, स्वच्छ यावत् प्रतिरूप हैं / उस विजयद्वार के ऊपर बहुत से छत्रातिछत्र कहे गये हैं / इन सबका वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए। 1. सोलह रत्नों के नाम-१. रत्न-सामान्य कर्केतनादि, 2. वज्र, 3. वैडूर्य, 4. लोहिताक्ष, 5. मसारगल्ल, 6. हंसगर्भ, 7. पुलक, 8. सौगंधिक, 9. ज्योतिरस, 10. अंक, 11. अंजन, 12. रजत, 13. जातरूप, 14. अंजनपुलक, 15. स्फटिक, 16. रिष्ट / Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 380 [जीवाजीवाभिगमसूत्र 134. से केण→णं भंते ! एवं बुच्चइ विजए णं दारे विजए णं दारे ? गोयमा ! विजए णं दारे विजए णाम देवे महिड्ढिोए महज्जुईए जाव महाणभावे पलिग्रोवमलिईए परिवसति / से णं तत्थ चउण्हं सामाणियसाहस्सोणं, चउण्हं अगमहिसोणं सपरिवाराणं, तिहं परिसाणं, सत्तण्हं आणियाणं, सत्तण्हं आणियाहिबईणं, सोलसण्हं आयरक्खवेवसाहस्सीणं, विजयस्स णं दारस्स विजयाए रायहाणीए, अण्णेसि च बहूर्ण विजयाए रायहाणीए वत्थव्यगाणं देवाणं देवीण य आहेवच्चं नाव दिव्वाई भोगभोगाई भुजमाणे विहरइ / से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं वुच्चइविमएदारे विजएवारे। अदुत्तरं च णं गोयमा ! विजयस्स णं दारस्स सासए णामधेज्जे पण्णत्ते जं ण कयाइणासी, ण कयाए पत्थि, ण कयाविण भविस्सइ जाव अवढिए णिच्चे विजयदारे / [134] हे भगवन् ! विजयद्वार को विजयद्वार क्यों कहा जाता है ? गीतम् ! विजयद्वार में विजय नाम का मद्धिक, महाद्युति वाला यावत् महान् प्रभाव वाला और एक पल्योपम की स्थिति वाला देव रहता है / वह चार हजार सामानिक देवों, चार सपरिवार अग्रमहिषियों, तीन पर्षदाओं, सात अनीकों (सेनामों), सात अनीकाधिपतियों और सोलह हजार आत्मरक्षक देवों का, विजयद्वार का, विजय राजधानी का और अन्य बहुत सारे विजय राजधानी के निवासी देवों और देवियों का आधिपत्य करता हुआ यावत् दिव्य' भोगोपभोगों को भोगता हुमा विचरता है / इस कारण हे गौतम ! विजयद्वार को विजयद्वार कहा जाता है। हे गौतम ! विजयद्वार का यह नाम शाश्वत है। यह पहले नहीं था ऐसा नहीं, वर्तमान में नहीं-ऐसा नहीं और भविष्य में कभी नहीं होगा--ऐसा भी नहीं, यावत् यह अवस्थित और नित्य है। 135. (1) कहिं गं भंते ! विजयस्स देवस्स विजयाणाम रायहाणी पण्णता ? गोयमा! विजयस्स णं दारस्स पुरथिमेणं तिरियमसंखेज्जे दीवसमुद्दे वीइवइत्ता अण्णम्मि जंबुद्दीवे दीवे बारस जोयणसहस्साई ओगाहित्ता एत्थ णं विजयस्स देवस्स विजयाणाम रायहाणी पण्णत्ता, वारस जोयणसहस्साई आयाम-विक्खंमेणं सत्ततीसं जोयणसहस्साई नव य अडयाले जोयणसए किंचि विसेसाहिया परिक्खेवेणं पण्णत्ता / ___सा णं एगेणं पागारेणं सवओ समंता संपरिक्खित्ता। से गं पागारे सत्ततीसं जोयणाई अद्धजोयणं य उड्ढं उच्चत्तेणं, मूले अद्धतेरस जोयणाई विक्खंभेणं मज्झे सक्कोसाई जोयणाई विक्खंमेणं उपि तिण्णि सद्धकोसाई जोयणाई विक्खंभेणं, मूले वित्थिपणे मज्झे संखित्ते उप्पि तणुए वाहि वट्टे अंतो चउरसे गोपुच्छसंठाणसंठिए सवकणगामए अच्छे जाव पडिलवे। से णं पागारे गाणाविहपंचवणेहि कविसीसएहि उवसोभिए, तंजहा—किण्हेहिं जाव सुषिकलेहि / ते णं कविसोसगा अद्धकोसं आयामेणं पंचधणुसयाई विखंभेणं देसूणमद्धकोसं उड्ढे उच्चत्तेणं सध्वमणिमया अच्छा जाव पडिरूवा। 1. भोगभोगाई अति भोग योग्य शब्दादि भोगों को। Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : जम्बूद्वीप के द्वारों की संख्या] [381 [135] (1) हे भगवन् ! विजयदेव की विजया नामक राजधानी कहाँ कही है ? गौतम ! विजयद्वार के पूर्व में तिरछे असंख्य द्वीप-समुद्रों को पार करने के बाद अन्य जंबूद्वीप' नाम के द्वीप में बारह हजार योजन जाने पर विजयदेव की विजया राजधानी है जो बारह हजार योजन की लम्बी-चौडो है तथा सैतोस हजार नौ सौ अडतालीस योजन से कुछ अधिक उसकी परिधि है। वह विजया राजधानी चारों ओर से एक प्राकार (परकोटे) से घिरी हुई है। वह प्राकार साढ़े सैंतीस योजन ऊँचा है, उसका विष्कंभ (चौड़ाई) मूल में साढे बारह योजन, मध्य में छह योजन एक कोस और ऊपर तीन योजन प्राधा कोस है ; इस तरह वह मूल में विस्तृत है, मध्य में संक्षिप्त है और ऊपर तनु (कम) है। वह बाहर से गोल अन्दर से चौकोन, गाय की पूंछ के आकार का है। वह सर्व स्वर्णमय है स्वच्छ है यावत् प्रतिरूप है। वह प्राकार नाना प्रकार के पांच वर्षों के कपिशीर्षकों (कंगूरों) से सुशोभित है, यथा-कृष्ण यावत् सफेद कंगूरों से / वे कंगूरे लम्बाई में प्राधा कोस, चौड़ाई में पांच सौ धनुष, ऊंचाई में कुछ कम आधा कोस हैं / वे कंगूरे सर्व मणिमय हैं, स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप हैं। 135. (2) विजयाए णं रायहाणोए एगमेगाए बाहाए पणुवीसं पणुवीसं दारसयं भवतीति मक्खायं। ते णं दारा बाढि जोयणाई श्रद्धजोयणं च उड्ढे उच्चत्तेणं एक्कतीसं जोयणाई कोसं च विक्खमेणं तावइयं चेव पवेसेणं सेया वरकणग)भियागा ईहामिय० तहेव जहा विजएदारे जाव तवाणिज्जबालुगपत्थडा सुहफासा सस्सिरीया सरूवा पासाईया 4 / तेसि णं वाराणं उमओ पासिं दुहओ णिसीहियाए दो दो चंदणकलसपरिवाडीग्रो पण्णत्तानो तहेव माणियग्वं जाव वणमालाओ / तेसि णं दाराणं उभओ पासि दुहओ णिसोहियाए दो-दो पगंठगा पण्णत्ता / ते णं पगंठगा एक्कतीसं जोयणाई कोसं च आयामविक्खंभेणं पन्नरस जोयणाई अड्ढाइज्जे कोसे बाहल्लेणं पण्णत्ता सव्ववइरामया अच्छा जाव पडिरूवा। तेसि गं पगंढगाणं उप्पि पत्तेयं पत्तेयं पासायडिसगा पण्णत्ता। ते णं पासायडिसगा एक्कतीसं जोयणाई कोसं च उड्ढं उच्चत्तेणं पन्नरस जोयणाई अड्डाइजो य कोसे आयामविक्खंभेणं सेसं तं चेव जाव समुग्गया णवरं बहुवयणं भाणियव्यं / विजयाए गं रायहाणीए एगमेगे दारे अट्ठसयं चक्कझयाणं जाव अट्ठसयं सेयाणं चउविसाणाणं गागक्रकेऊणं एवामेव सपुष्वावरेणं विजयाए रायहाणीए एगमेगे दारे असोयं असीयं केउसहस्सं भवतीति मक्खायं / विजयाए णं रायहाणीए एगमेगे दारे (तेसि च वाराणं पुरओ) सत्तरस सत्सरस भोमा पण्णत्ता / तेसि गं भोमाणं (भूमिभागा) उल्लोया (य) पढमलया० भत्तिचित्ता। तेसि णं भोमाणं बहुमजमदेसभाए जे ते नवमनवमा भोमा तेसि णं भोमाणं बहुमज्मदेसभाए 1. जम्बूद्वीप नाम के असंख्यात द्वीप हैं। सबसे प्राभ्यन्तर जंबूद्वीप से यहाँ मतलब नहीं है। Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 382] [मीवाजीवाभिगमसूत्र पत्तेयं पत्तेयं सोहासणा पण्णत्ता। सीहासणवण्णओ जाव दामा जहा हेढा / एत्थ गं अबसेसेसु भोमेसु पत्तेयं पत्तेयं मद्दासणा पण्णता / तेसिं गं दाराणं उवरिमागारा सोलसविहेहिं रयणेहिं उवसोभिया / तं व जाव छत्ताइछत्ता / एवामेव पुज्वावरेण विजयाए रायहाणीए पंच दारसया भवतीति मक्खाया। [135] (2) विजया राजधानी की एक-एक बाहा (दिशा) में एक सौ पच्चीस, एक सौ पच्चीस द्वार कहे गये हैं। ऐसा मैंने और अन्य तीर्थंकरों ने कहा है / ये द्वार साढे बासठ योजन के ऊंचे हैं, इनकी चौडाई इकतीस योजन और एक कोस है और इतना ही इनका प्रवेश है। ये द्वार श्वेत वर्ण के हैं, श्रेष्ठ स्वर्ण की स्तूपिका (शिखर) है, उन पर ईहामृग आदि के चित्र बने हैं-इत्यादि वर्णन विजयद्वार की तरह कहना चाहिए यावत् उनके प्रस्तर (आंगन) में स्वर्णमय बालुका बिछी हुई है। उनका स्पर्श शुभ और सुखद है, वे शोभायुक्त सुन्दर प्रासादीय दर्शनीय अभिरूप और प्रतिरूप हैं। उन द्वारों के दोनों तरफ दोनों नषेधिकाओं में दो-दो चन्दन-कलश की परिपाटी कही गई हैं-- इत्यादि वनमालाओं तक का वर्णन विजयद्वार के समान कहना चाहिए / उन द्वारों के दोनों तरफ कामों में दो-दो प्रकण्ठक (पीठविशेष) कहे गये हैं। वे प्रकंटक इकतीस योजन और एक कोस लम्बाई-चौडाई वाले हैं, उनकी मोटाई पन्द्रह योजन और ढाई कोस है, वे सर्व वनमय स्वच्छ यावत् प्रतिरूप हैं। उन प्रकण्ठकों के ऊपर प्रत्येक पर अलग-अलग प्रासादावतंसक कहे गये हैं / वे प्रासादावतंसक इकतीस योजन एक कोस ऊंचे हैं, पन्द्रह योजन ढाई कोस लम्बे-चौड़े हैं / शेष वर्णन समुद्गक पर्यन्त विजयद्वार के समान ही कहना चाहिए, विशेषता यह है कि वे सब बहुवचन रूप कहने चाहिए। उस विजया राजधानी के एक-एक द्वार पर 108 चक्र से चिह्नित ध्वजाएं यावत् 108 श्वेत और चार दांत वाले हाथी से अंकित ध्वजाएँ कही गई हैं / ये सब आगे-पीछे की ध्वजाएं मिलाकर विजया राजधानी के एक-एक द्वार पर एक हजार अस्सी ध्वजाएँ कही गई हैं। विजया राजधानी के एक-एक द्वार पर (उन द्वारों के प्रागे) सत्रह भौम (विशिष्टस्थान) कहे गये हैं / उन भौमों के भूमिभाग और अन्दर की छतें पद्मलता प्रादि विविध चित्रों से चित्रित हैं। उन भौमों के बहुमध्य भाग में जो नौवें भौम हैं, उनके ठीक मध्यभाग में अलग-अलग सिंहासन कहे गये हैं। यहाँ सिंहासन का पूर्ववणित वर्णनक कहना चाहिए यावत् सिंहा लटक रही हैं। शेष भौमों में अलग-अलग भद्रासन कहे गये हैं। उन द्वारों के ऊपरी भाग सोलह प्रकार के रत्नों से शोभित हैं आदि वर्णन पूर्ववत् कहना चाहिए यावत् उन पर छत्र पर छत्र लगे हुए हैं / इस प्रकार सब मिलाकर विजया राजधानी के पांच सौ द्वार होते हैं। ऐसा मैंने और अन्य तीर्थंकरों ने कहा है। विवेचन-प्रस्तुतसूत्र में विजया राजधानी का वर्णन करते हुए अनेक स्थानों पर विजयद्वार का प्रतिदेश किया गया है / 'जहा विजयदारे' कहकर यह अतिदेश किया गया है / इस अतिदेश के पाठों में विभिन्न प्रतियों में विविध पाठ हैं। श्री मलयगिरि की वृत्ति के पढ़ने पर स्पष्ट हो जाता है कि उन प्राचार्यश्री के सम्मुख कोई दूसरी प्रति थी जो अब उपलब्ध नहीं है। क्योंकि इस सूत्र की वत्ति में प्राचार्यश्री ने उल्लेख किया है--'शेषमपि तोरणादिकं विजयद्वारवदिमाभिर्वक्ष्य Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : जम्बूद्वीप के द्वारों की संख्या) [383 माणाभिर्गाथाभिरनुगन्तव्यम्, ता एव गाथा पाह-'तोरणे, इत्यादि गाथात्रयम्' अर्थात् शेष तोरणादिक का कथन विजयद्वार की तरह इन तीन गाथानों से जानना चाहिए। वे गाथाएं इस प्रकार हैं 'तोरण' प्रादि / ' वृत्तिकार ने तीन गाथाओं की वृत्ति की है इससे सिद्ध होता है कि उनके सन्मुख जो प्रति थी उसमें उक्त तीन गाथाएँ मूल पाठ में होनी चाहिए / वर्तमान में उपलब्ध प्रतियों में ये तीन गाथाएँ नहीं मिलती हैं / वृत्ति के अनुसार उन गाथाओं का भावार्थ इस प्रकार है __उस विजया राजधानी के द्वारों में प्रत्येक नैषेधिकी में दो-दो तोरण कह गये हैं, उन तोरणों के ऊपर प्रत्येक पर आठ-पाठ मंगल हैं, उन तोरणों पर कृष्ण चामर प्रादि से अंकित ध्वजाएँ हैं। उसके बाद तोरणों के आगे शालभंजिकाएँ हैं, तदनन्तर नागदंतक हैं। नागदन्तकों में मालाएँ हैं। तदनन्तर हयसंघाटादि संघाटक हैं, तदनन्तर हयपंक्तियाँ, तदनन्तर हयवीथियाँ आदि, तदनन्तर हयमिथुनकादि, तदनन्तर पद्मलतादि लताएँ, तदनन्तर चतुर्दिक स्वस्तिक, तदनन्तर चन्दनकलश, तदनन्तर भृगारक, तदनन्तर प्रादर्शक, फिर स्थाल, फिर पात्रियाँ, फिर सुप्रतिष्ठक, तदनन्तर मनोगुलिका, उनमें जलशून्य वातकरक (घड़े), तदनन्तर रत्नकरण्डक, फिर हयकण्ठ, गजकण्ठ, नरकण्ठ, किन्नरकिंपुरुष-महोरग-गन्धर्व-वृषभ-कण्ठ क्रम से कहने चाहिये / तदनन्तर पुष्पचंगेरियां कहनी चाहिए / फिर पुष्पादि पटल, सिंहासन, छत्र, चामर, तैलसमुद्गक आदि कहने चाहिए और फिर ध्वजाएँ कहनी चाहिए / बजात्रों का चरम सूत्र है-उस विजया राजधानी के एक-एक द्वार पर एक हजार अस्सी ध्वजाएँ मैंने और अन्य तीर्थंकरों ने कही हैं। ध्वजासूत्र के बाद भौम कहने चाहिए। भौमों के भूमिभाग और उल्लोकों (भीतरी छतों) का वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए। उन भौमों के ठीक मध्यभाग में नवमे-नवमे भौम के मध्यभाग में विजयदेव के योग्य सिंहासन हैं जैसे कि विजयद्वार के पांचवें भौम में हैं किन्तु सपरिवार सिंहासन कहने चाहिए / शेष भौमों में सपरिवार भद्रासन कहने चाहिए / उन द्वारों का उपरी आकार सोलह प्रकार के रत्नों से उपशोभित हैं। सोलह रत्नों के नाम पूर्व में कहे जा चुके हैं / यावत् उन पर छत्र पर छत्र लगे हुए हैं / इस प्रकार सब मिलाकर (विजय) राजधानी के पांच सौ द्वार कहे गये हैं। 136. [1] विजयाए णं रायहाणीए चउद्दिसि पंचपंचजोयणसयाई अबाहाए, एत्थ णं चत्तारि वणसंडा पण्णत्ता, तं जहा–प्रसोगवणे सत्तिवण्णवणे चंपकवणे चूयवणे / पुरथिमेणं असोगवणे, दाहिणणं सत्तिवण्णवणे, पच्चत्थिमेणं चंपगवणे उत्तरेणं चयवणे / ते णं बणसंडा साइरेगाई दुवालसजोयणसहस्साई आयामेणं पंचजोयणसयाई विक्खंभेणं पण्णता पत्तेयं पत्तेयं पागारपरिक्खित्ता किन्हा किण्होभासा वणसंडवण्णओ भाणियब्धो जाव वहदे वाणमंतरा देवा य देवोओ य आसयंति सयंति चिट्ठति णिसोदंति तुयति रमंति ललंति कीलंति मोहंति पुरापोराणाणं सुचिण्णाणं सुपरक्कंताणं सुभाणं कम्माणं कडाणं कल्लाणाणं फलवित्तिविसेसं पच्चणभवमाणा विहरति / तेसिं णं वणसंडाणं बहुमज्झदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं पासायडिसगा पण्णत्ता, ते ण पासायवडिसगा वाटुिं जोयणाई अद्धजोयणं च उड्ढे उच्चत्तेणं, एक्कतीसं जोयणाई कोसं च आयामविक्खंभेणं अग्भग्गयमुस्सिम० तहेव जाव अंतो बहुसमरमणिज्जा भूमिभागा पण्णत्ता उल्लोया पउमलयाभत्तिचित्ता भाणियम्वा / तेसि णं पासायडिसगाणं बहुमज्मदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं सीहासणा पण्णता वण्णावासो सपरिवारा। तेसि गं पासायडिसगाणं उप्पि बहवे अट्ठमंगलगा झया छत्ताइछत्ता। Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34] [जीवाजीवाभिगमसूत्र तत्पणं चत्तारि देवा महिड्डिया जाव पलिओवमदिइया परिवसंति, तं जहाअसोए, सत्तिवणे, चंपए, चए / तस्थ णं ते साणं साणं वणसंडाणं साणं साणं पासायवडेंसयाणं साणं साणं सामाणियाणं साणं साणं अग्गमहिसोणं साणं साणं परिसाणं साणं साणं आयरक्खदेवाणं आहेवच्चं जाव विहरति / [136] (1) उस विजया राजधानी की चारों दिशाओं में पांच-पांच सौ योजन के अपान्तराल को छोड़ने के बाद चार वनखंड कहे गये हैं, यथा--- अशोकवन, 2 सप्तपर्णवन, 3 चम्पकवन और 4 आम्रवन / पूर्व दिशा में अशोकवन है, दक्षिण दिशा में सप्तपर्णवन है / पश्चिमदिशा में चंपकवन है और उत्तरदिशा में आम्रवन है। वे वनखण्ड कुछ अधिक बारह हजार योजन के लम्बे और पांच सौ योजन के चौड़े हैं। वे प्रत्येक एक-एक प्राकार से परिवेष्ठित हैं, काले हैं, काले ही प्रतिभासित होते हैं-इत्यादि वनखण्ड का वर्णनक कह लेना चाहिए यावत् वहाँ बहुत से वानव्यंतर देव और देवियाँ स्थित होती हैं, सोती हैं (लेटती हैं क्योंकि देवयोनि में निद्रा नहीं होती), ठहरती हैं, बैठती हैं, करवट बदलती हैं, रमण करती हैं, लीला करती हैं, क्रीडा करती हैं, कामक्रीडा करती हैं और अपने पूर्व जन्म में पुराने अच्छे अनुष्ठानों का, सुपराक्रान्त तप आदि का और किये हुए शुभ कर्मों का कल्याणकारी फल विपाक का अनुभव करती हुई विचरती हैं। उन वनखण्डों के ठीक मध्यभाग में अलग-अलग प्रासादावतंसक कहे गये हैं। वे प्रासादावतंसक साढे बासठ योजन ऊँचे, इकतीस योजन और एक कोस लम्बे-चौड़े हैं। ये प्रासादावतंसक चारों तरफ से निकलती हुई प्रभा से बंधे हुए हों अथवा श्वेतप्रभा पटल से हंसते हुए-से प्रतीत होते हैं, इत्यादि वर्णन जानना चाहिए यावत् उनके अन्दर बहुत समतल एवं रमणीय भूमिभाग है, भीतरी छतों पर पद्मलता आदि के विविध चित्र बने हुए हैं। उन प्रासादावतंसकों के ठीक मध्यभाग में अलग अलग सिंहासन कहे गये हैं। उनका वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए यावत् सपरिवार सिंहासन जानने चाहिए। उन प्रासादावतंसकों के ऊपर बहुत से आठ-पाठ मंगलक हैं, ध्वजाएं हैं और छत्रों पर छत्र हैं। वहाँ चार देव रहते हैं जो महद्धिक यावत् पल्योपम को स्थिति वाले हैं, उनके नाम हैं१ अशोक, 2 सप्तपर्ण, 3 चंपक और 4 पाम्र। वे अपने-अपने वनखंड का, अपने-अपने प्रासादावतंसक का, अपने-अपने सामानिक देवों का, अपनी-अपनी अग्रमहिषियों का, अपनी-अपनी पर्षदा का और अपने-अपने प्रात्मरक्षक देवों का आधिपत्य करते हुए यावत् विचरते हैं। 136. (2) विजयाए णं रायहाणीए अंतो बहुसमरमाणिज्जे भूमिभागे पण्णते जाव पंचवणेहि मणीहि उवसोभिए तणसद्दविहूणे जाव देवा य देवोओ य आसयंति जाब विहरंति / ___ तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसमाए एस्थ णं एगे महं ओवरियालेणे पण्णत्ते, बारस जोयणसयाई आयाम-विक्खंभेणं तिनि जोयणसहस्साइं सत्त य पंचाणउए जोयणसए किंचि विसेसाहिए परिवखे वेणं अद्धकोसं बाहल्लेणं सध्वजम्बूणवामए णं अच्छे जाव पडिरूवे / ___ से णं एगाए पउमवरवेइयाए, एगेणं वणसंडेणं सवओ समत्ता संपरिविखत्ते / पउमवरवेइयाएवण्णमओ, वणसंडवण्णओ, जाब विहरंति / से गं वणसंडे देसूणाई दो जोयणाईचक्कवालविक्खंभेणं ओवारियालयणसमे परिक्खेवेणं, तस्स णं ओवारियालयणस्स चद्दिसि चत्तारि तिसोवाणपडिख्वगा पण्णता, वण्णओ। तेसिणं तिसोवाणपडिरूवगाणं पुरुओ पत्तेयं पत्तेयं तोरणा पण्णत्ता छत्ताइछत्ता। Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: जम्बूद्वीप के द्वारों की संख्या] [385 तस्स णं ओवारियालयणस्स उप्पि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते जाय मणिहि उबसोभिए मणिवण्णओ, गंधरसफासो। तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्मदेसभागे एस्थ णं एगे महं मूलपासायसिए पणत्ते। से णं पासायडिसए बाटुिं जोयणाई अद्धजोयणं च उड्ड उच्चत्तेणं एक्कतीसं जोयणाई कोसं य आयाम-विक्खंभेणं अम्भुग्गयमूसियप्पहसिए तहेव / तस्स णं पासायडिसगस्स अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते जाव मणिफासे उल्लोए। तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिमागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं एगा महं मणिपेढिया पष्णता / सा च एगं जोयणमायामविक्खंभेए अद्धजोयणं बाहल्लेणं सम्वमणिमई अच्छा सोहा / तोसे गं मणिपेढियाए उरि एगे महं सीहासणे पण्णते, एवं सोहासणवण्णओ सपरिवारो। तस्स गं पासायडिसगरस उपि बहवे अट्ठमंगलगा झया, छत्ताइछत्ता / से गं पासायडिसए अण्णेहि चहि तवद्धच्चत्तप्पमाणमेत्तेहिं पासायडिसएहि सव्वओ समंता संपरिविखत्ते, ते णं पासायडिसगा एक्कतीसं जोयणाई कोसं य उ उच्चत्तण अद्धसोलसजोयणाई अद्धकोसं य आयाम-विक्स मेणं अम्भुग्गय० तहेव तेसि णं पासायडिसगाणं अंतो बहुसमरमणिज्जा भूमिभागा उल्लोया / तेसिं गं बहुसमरमणिज्जाणं भूमिभागाणं बहुमज्वेसभाए पत्तेयं पत्तयं सौहासणं पण्णत्तं, वण्णओ। तेसि परिवारसूया भद्दासणा पण्णत्ता / तेसि णं अट्ठमंगलगा, झया, छत्ताइछत्ता। ते पासायडिसगा अण्णेहि चउहिं चउहि तदद्ध च्चत्तप्पमाणमेतेहिं पासायव.सएहि सवओ समंता संपरिक्खित्ता। ते णं पासायडिसगा अद्धसोलसजोयणाई अद्धकोसं य उड्ड उच्चत्तेणं देसूणाई अट्ठजोयणाई आयाम-विक्खंभेणं अग्भुग्गय० तहेव / तेसि गं पासायवडेंसगाणं अंतो बहुसमरमणिज्जा भूमिमागा.उल्लोया / तेसि णं बहुसमरमणिज्जाणं भूमिभागाणं बहुमनभाए पत्तेयं पत्तेयं पउमासणा पण्णता / तेसिं गं पासायडिसगाणं उप्पि बहवे अट्ठमंगलगा झया छत्ताइछत्ता। ते गं पासायवडेंसगा अण्णेहि चहिं तबद्धच्चत्तप्पमाणमेहि पासायवडेंसएहि सवओ समंता संपरिक्खित्ता / ते णं पासायव.सगा देसूणाई अजोयणाई उड्ड उच्चत्तेण देसूणाई चत्तारि जोयणाई आयाम-विक्खंभेणं अबभुग्गय० तहेव भूमिभागा उल्लोया / भद्दासणाई उरि मंगलगा प्रया छत्ताइछत्ता। ते णं पासायडिसगा अणेहि चहिं तदद्ध च्चत्तप्पमाणमेतहिं पासायडिसएहि सम्वओ समंता संपरिक्खित्ता। ते णं पासायडिसगा देसूणाई चत्तारि जोयणाई उड्ड उच्चत्तेणं देसूणाई दो जोयणाई आयाम-विक्खंभेणं अग्भुगयमुस्सिय० भूमिभागा उल्लोया। पउमासणाई उरि मंगलगा प्रया छत्ताइछत्ता। [136] (2) विजय राजधानी के अन्दर बहुसमरमणीय भूमिभाग कहा गया है यावत् वह पांच वर्गों की मणियों से शोभित है। तृण-शब्दरहित मणियों का स्पर्श यावत् देव-देवियां वहाँ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 396] जिीवाजोवाभिगमसूत्र उठती-बैठती हैं यावत् पुराने कर्मों का फल भोगती हुई विचरती हैं / उस बहुसमरमणीय भूमिभाग के मध्य में एक बड़ा उपकारिकालयन'--विश्रामस्थल कहा गया है जो बारह सौ योजन का लम्बा-चौड़ा और तीन हजार सात सौ पिचानवे योजन से कुछ अधिक की उसकी परिधि है। प्राधा कोस (एक हजार धनुष) की उसकी मोटाई है / वह पूर्णतया स्वर्ण का है, स्वच्छ है यावत् प्रतिरूप है / ___ वह उपकारिकालयन एक पद्मवरवेदिका और एक वनखंड से चारों ओर से परिवेष्ठित है। पद्मवरवेदिका का वर्णनक और वनखंड का वर्णनक कहना चाहिए यावत् यहाँ वानव्यन्तर देव-देवियां कल्याणकारी पुण्यफलों का अनुभव करती हुई विचरती हैं। वह वनखण्ड कुछ कम दो योजन चक्रवाल विष्कंभ वाला (घेरे वाला) और उपकारिकालयन के परिक्षेप के तुल्य (3795 योजन से कुछ अधिक) परिक्षेप वाला है। उस उपकारिकालयन के चारों दिशाओं में चार त्रिसोपानप्रतिरूपक कहे गये हैं। उनका वर्णनक कहना चाहिए। उन त्रिसोपानप्रतिरूपकों के आगे अलग-अलग तोरण कहे गये हैं यावत् छत्रों पर छत्र हैं। उस उपकारिकालयन के ऊपर बहुसमरमणीय भूमिभाग कहा गया है यावत् वह मणियों से उपशोभित है। मणियों का वर्णनक कहना चाहिए। मणियों के गंध, रस और स्पर्श का कथन कर लेना चाहिए / उस बहुसमरमणीय भूमिभाग के ठीक मध्य में एक बड़ा मूल प्रासादावतंसक कहा गया है / वह प्रासादावतंसक साढे बासठ योजन का ऊँचा और इकतीस योजन एक कोस की लंबाई-चौड़ाई वाला है / वह सब ओर से निकलती हुई प्रभाकिरणों से हँसता हुआ-सा लगता है आदि वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए / उस प्रासादावतंसक के अन्दर बहुसमरमणीय भूमिभाग कहा है यावत् मणियों का स्पर्श और भीतों पर विविध चित्र हैं। उस बहसमरमणीय भूमिभाग के ठीक मध्यभाग में एक बड़ी मणिपीठिका कही गई है। वह एक योजन की लम्बी-चौड़ी और आधा योजन की मोटाई वाली है। वह सर्वमणिमय, स्वच्छ और मृदु है / उस मणिपीठिका के ऊपर एक बड़ा सिंहासन है / सिंहासन का सपरिवार वर्णनक कहना चाहिए / उस प्रासादावतंसक के ऊपर बहुत से आठ-आठ मंगल, ध्वजाएँ और छत्रातिछत्र हैं। वे प्रासादावतंसक अन्य उनसे आधी ऊँचाई वाले चार प्रासादावतंसकों से सब अोर से घिरे हुए हैं। वे प्रासादावतंसक इकतीस योजन एक कोस की ऊँचाई वाले साढे पन्द्रह योजन और प्राधा कोस के लम्बे-चौड़े, किरणों से युक्त आदि वैसा ही वर्णन कर लेना चाहिए। उन प्रासादावतंसकों के अन्दर बहुसमरमणीय भूमिभाग यावत् चित्रित भीतरी छत है। उन बहुसमरमणीय भूमिभाग के बहुमध्यदेशभाग में प्रत्येक में अलग-अलग सिंहासन हैं / सिंहासन का वर्णनक कहना चाहिए। उन सिंहासनों के परिवार के तुल्य वहाँ भद्रासन' कहे गये हैं। इन प्रासादावतंसकों के ऊपर पाठ-पाठ मंगल, ध्वजाएँ और छत्रातिछत्र हैं। 1. वृत्तिकार ने 'राजधानी के प्रासादावतंसकादि की पीठिका' ऐसा अर्थ करते हुए लिखा है कि अन्यत्र इसे 'उपकार्योपकारका' कहा है। कहा है-'गृहस्थानं स्मृतं राज्ञामुपकार्योपकारका' इति / 2. वृत्ति में कहा गया है कि 'नवरमा सिंहासनानां शेषाणि परिवार भूतानि न वक्तव्यानि / ' Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : सुधर्मा सभा का वर्णन] [387 वे प्रासादावतंसक उनसे आधी ऊँचाई वाले अन्य चार प्रासादावतंसकों से सब ओर से वेष्ठित हैं। वे प्रासादावतंसक साढे पन्द्रह योजन और आधे कोस के ऊँचे और कुछ कम पाठ योजन की लम्बाईचौड़ाई वाले हैं, किरणों से युक्त आदि पूर्ववत् वर्णन जानना चाहिए। उन प्रासादावतंसकों के अन्दर बहुसमरमणीय भूमिभाग हैं और चित्रित छतों के भीतरी भाग हैं / उन बहुसमरमणीय भूमिभाग के ठीक मध्य में अलग-अलग पद्मासन कहे गये हैं। उन प्रासादावतंसकों के ऊपर आठ-आठ मंगल, ध्वजाएँ और छत्रातिछत्र हैं। ___ वे प्रासादावतंसक उनसे आधी ऊँचाई वाले अन्य चार प्रासादावतंसकों से सब ओर से घिरे हुए हैं। वे प्रासादावतंसक कुछ कम पाठ योजन की ऊँचाई वाले और कुछ कम चार योजन की लम्बाई-चौड़ाई वाले हैं, किरणों से व्याप्त हैं / भूमिभाग, उल्लोक और भद्रासन का वर्णन जानना चाहिए। उन प्रासादावतंसकों पर पाठ पाठ मंगल, ध्वजा और छत्रातिछत्र हैं। _वे प्रासादावतंसक उनसे आधी ऊँचाई वाले अन्य चार प्रासादावतंसकों से चारों ओर से घिरे हुए हैं। वे प्रासादावतंसक कुछ कम चार योजन के ऊंचे और कुछ कम दो योजन के लम्बे-चौड़े हैं, किरणों से युक्त हैं आदि वर्णन कर लेना चाहिए। उन प्रासादावतंसकों के अन्दर भूमिभाग, उल्लोक, और पद्मासनादि कहने चाहिए। उन प्रासादावतंसकों के ऊपर पाठ-पाठ मंगल, ध्वजाएँ और छत्रातिछत्र हैं।' सुधर्मा सभा का वर्णन 137. (1) तस्स णं मूलपासायव.सगस्त उत्तरपुरस्थिमेणं, एस्थ णं विजयस्स देवस्स सभा सुषम्मा पग्णत्ता, अद्धतेरस जोयणाई आयामेणं छ सक्कोसाइं जोयणाई विक्खंभेणं णव जोयणाई उड्डे उच्चत्तेणं, अणेगखंभसयसग्निविट्ठा, अब्भुग्गयसुकयवइरवेवियातोरणवररइयसालभंजिया, सुसिलिटुविसिट्ठलट्ठसंठियपसस्थवेरुलियविमलखंभा जाणामणिकणगरयणखइय-उज्जल-बहुसमसुविभत्तचित्त (णिचिय)रमणिज्मकुट्टिमतला ईहामियउसभतुरगणरमगरविहगवालगकिण्णररुरुसरभचमरकुंजरवणलयपउमलयभत्तिचित्ता, थंभुग्गयवइरवेदियापरिगयाभिरामा विज्जाहरजमलजुयलजंतजुत्ताविव अच्चिसहस्समालणोया रूवगसहस्सकलिया भिसमाणी भिन्भिसमाणी चक्खुलोयणलेसा सुहफासा सस्सिरीयरूवा कंचणमणिरयणथूभियागा गाणाविहपंचवण्णघंटापडागपडिमंडितम्गसिहरा धवला मिरोइकवचं विणिम्मुयंती लाउल्लोइयमहिया गोसीससरसरत्तचंदणवदरदिन्नपंचंगुलितला उवचियचंदणकलसा चंदणघडसुकयतोरणपडिदुवारवेसमागा आसत्तोसत्तविउलवट्टवग्धारियमल्लदामफलावा पंचवण्णसरससुरभिमुक्कपुष्फपुजोवयारकलिया कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुक्कधूवमधमतगंधद्धयाभिरामा सुगंधवरगंधिया गंधट्टिभूया अच्छरगणसंघविकिन्ना दिन्वतुडियमधुरसहसंपणादिया सुरम्मा सम्वरयणामई अच्छा जाव पडिरूवा। 1. वृत्तिकार ने कहा है कि 'इस प्रकार प्रासादावतंसकों की चार परिपाटियां होती हैं। कहीं तीन ही परिपाटियां कही गई हैं। चौथी परिपाटी नहीं कही है।'--(तदेवं चतस्रः प्रासादावतंसकपरिपाट्यो भवन्ति, क्वचित्तिस्रः एव दृश्यन्ते, न चतुर्थी / ) 2. 'रमणिज्जभूभिभागा' इति वृत्ती। Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 388] [जीवामीवाभिगमसूत्र [137] (1) उस मूल प्रासादावतंसक के उत्तर-पूर्व (ईशानकोण) में विजयदेव की सुधर्मा नामक सभा है जो साढ़े बारह योजन लम्बी, छह योजन और एक कोस की चौड़ी तथा नौ योजन की ऊँची है / वह सैकड़ों खंभों पर स्थित है, दर्शकों की नजरों में चढ़ी हुई (मनोहर) और भलीभांति बनाई हुई उसकी वज्रवेदिका है, श्रेष्ठ तोरण पर रति पैदा करने वाली शालभंजिकायें (पुत्तलिकायें) लगी हुई हैं, सुसंबद्ध, प्रधान और मनोज्ञ आकृति वाले प्रशस्त वैडूर्यरत्न के निर्मल उसके स्तम्भ हैं, उसका भूमिभाग नाना प्रकार के मणि, कनक और रत्नों से खचित है, निर्मल है, समतल है, सुविभक्त, निबिड और रमणीय है / ईहामृग, बैल, घोड़ा, मनुष्य, मगर, पक्षी, सर्प, किन्नर, रुरु (मृग), सरभ (अष्टापद), चमर, हाथी, वनलता, पद्मलता, प्रादि के चित्र उस सभा में बने हए हैं. अतएव वह बहत आकर्षक है। उसके स्तम्भों पर वन की वेदिका बनी हुई होने से वह बहुत सुन्दर लगती है। समश्रेणी के विद्याधरों के युगलों के यंत्रों (शक्तिविशेष) के प्रभाव से यह सभा हजारों किरणों से प्रभासित हो रही है। यह हजारों रूपकों से युक्त है, दीप्यमान है, विशेष दीप्यमान है, देखने वालों के नेत्र उसी पर टिक जाते हैं, उसका स्पर्श बहुत ही शुभ और सुखद है, वह बहुत ही शोभायुक्त है / उसके स्तूप का अग्रभाग (शिखर) सोने से, मणियों से और रत्नों से बना हुआ है, उसके शिखर का अग्रभाग नाना प्रकार के पांच वर्षों की घंटाओं और पताकाओं से परिमंडित है, वह सभा श्वेतवर्ण की है, वह किरणों के समूह को छोड़ती हुई प्रतीत होती है, वह लिपी हुई और पुती हुई है, गोशीर्ष चन्दन और सरस लाल चन्दन से बड़े बड़े हाथ के छापे लगाये हए हैं, उसमें चन्दनकलश अथवा वन्दन (मंगल) कलश स्थापित किये हुए हैं, उसके द्वारभाग पर चन्दन के कलशों से तोरण सुशोभित किये गये हैं, ऊपर से लेकर नीचे तक विस्तृत, गोलाकार और लटकती हुई पुष्पमालाओं से वह युक्त है, पांच वर्ण के सरस-सुगंधित फूलों के पुंज से वह सुशोभित है, काला अगर, श्रेष्ठ कुन्दुरुक (गन्धद्रव्य) और तुरुष्क (लोभान) के धूप की गंध से वह महक रही है, श्रेष्ठ सुगंधित द्रव्यों की गंध से वह सुगन्धित है, सुगन्ध की गुटिका के समान सुगन्ध फैला रही है / वह सुधर्मा सभा अप्सराओं के समुदायों से व्याप्त है, दिव्यवाद्यों के शब्दों से वह निनादित हो रही है-गूंज रही है / वह सुरम्य है, सर्वरत्नमयी है, स्वच्छ है, यावत् प्रतिरूप है। 137. (2) तीसे णं सुहम्माए समाए तिदिसि तओ दारा पण्णता / ते णं दारा पत्तेयं पत्तेयं दो दो जोयणाई उड्थ उच्चत्तेणं एगं जोयणं विवखंभेणं तावइयं चेव पवेसेणं सेया वरकणगभियागा जाव वणमाला-दार-वण्णओ। तेसि णं दाराणं पुरओ मुहमंडवा पण्णत्ता। ते गं मुहमंडवा प्रद्धतेरस जोयणाई आयामेणं छ जोयणाई सक्कोसाई विक्खंभेणं साइरेगाइं दो जोयणाई उड्ड उच्चत्तण अणेगखंभसयसन्निविट्ठा भाव उल्लोया भूमिभागवण्णओ / तेसि गं मुहमंडवाणं उपरि पत्तेयं पत्तेयं अट्ट मंगलगा पण्णत्ता सोस्थिय जाव दप्पणा'। तेसि णं मुहमंडवाणं पुरो पत्तेयं पत्तेयं पेच्छाधरमंडवा पण्णता; ते णं पेच्छाधरमंडवा अखतेरसजोयणाई आयामेणं जाव दो जोयणाई उड्व उच्चत्तेणं जाव मणिफासो। तेसि णं बहुमज्मदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं वइरामयअक्खाडगा पण्णता। तेसि गं वइरामयाणं अक्खाडगाणं बहुमज्झदेसभाए पत्तेयं पत्तेसं मणिपोढिया पण्णत्ता / ताओ गं मणिपीढियाओ जोयणमेगं 1. मच्छ .1 Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : सुधर्मा सभा का वर्णन] [389 आयाम-विक्खंभेणं अद्धजोयण बाहल्लेणं सम्वमणिमईयो अच्छाओ जाव पडिरूवानो / तासि गं मणिपीढियाणं उम्पि पत्तेयं पत्तेयं सोहासणा पण्णत्ता, सोहासणवण्णओ जाव दामा परिवारो। तेसि गं पेच्छाघरमंडवाणं उप्पि अट्ठमंगलगा झया छत्ताइछत्ता / तेसि णं पेच्छाघरमंडवाणं पुरओ तिदिसि तओ मणिपेढियानो पण्णत्ताओ। ताओ णं मणिपेढियाओ दो दो जोयणाई आयामविक्खंभेणं जोयणं बाहल्लेणं सव्वमणिमईओ अच्छाओ जाव पडिरूवाओ। तासि गं मणिपेढियाणं उप्पि पत्तेयं पत्तेयं चेइयथभा पण्णत्ता / तेणं चेइयथभा दो जोयणाई आयामविक्खंभेणं सातिरेगाइं दो जोयणाई उड्डे उच्चतणं सेया संखंककुददगरयामयमहितफेणपुंजसनिकासा सव्वरयणामया अच्छा जाय पडिरूवा। तेसि णं चेइयथभाणं उप्पि अट्ठमंगलगा बहुकिण्ह चामरझया पण्णत्ता छत्ताइछत्ता। तेसि गं चेइयथभाणं चउद्दिसि पत्तेयं पत्तेयं चत्तारि मणिपेढियाओ पण्णत्ताओ / ताओ णं मणिपेढियाप्रो जोयणं आयामविक्खंभेणं अद्धजोयणं बाहल्लेणं सध्वमणिमईओ। तासि णं मणिपेढियाणं उप्पि पत्तेयं पत्तेयं चत्तारि जिणपडिमाओ जिणुस्सेहपमाणमेत्ताओ पलियंकणिसन्नानो थूभाभिमुहोओ सन्निविट्ठाओ चिट्ठति, तं जहा-उसभा बद्धमाणा चंदाणणा वारिसेणा। [137] (2) उस सुधर्मा सभा की तीन दिशाओं में तीन द्वार कहे गये हैं। वे प्रत्येक द्वार दोदो योजन के ऊँचे, एक योजन विस्तार वाले और इतने ही प्रवेश वाले हैं / वे श्वेत हैं, श्रेष्ठ स्वर्ण की स्तूपिका वाले हैं इत्यादि पूर्वोक्त द्वारवर्णन वनमाला पर्यन्त कहना चाहिए। उन द्वारों के आगे मुखमंडप कहे गये हैं / वे मुखमण्डप साढे बारह योजन लम्बे, छह योजन और एक कोस चौड़े, कुछ अधिक दो योजन ऊँचे, अनेक सैकड़ों खम्भों पर स्थित हैं यावत् उल्लोक (छत) और भूमिभाग का वर्णन कहना चाहिए / उन मुखमण्डपों के ऊपर प्रत्येक पर पाठ-पाठ मंगल-स्वस्तिक यावत् दर्पण कहे गये हैं / उन मुखमण्डपों के आगे अलग-अलग प्रेक्षाघरमण्डप कहे गये हैं / वे प्रेक्षाधरमण्डप साढ़े बारह योजन लम्बे, छह योजन एक कोस चौड़े और कुछ अधिक दो योजन ऊँचे हैं, मणियों के स्पर्श वर्णन तक प्रेक्षाघरमण्डपों और भूमिभाग का वर्णन कर लेना चाहिए। उनके ठीक मध्यभाग में अलग-अलग वज्रमय अक्षपाटक (चौक, अखाडा) कहे गये हैं। उन वज्रमय अक्षपाटकों के बहुमध्य भाग में अलग-अलग मणिपीठिकाएँ कही गई हैं। वे मणिपीठिकाएँ एक योजन लम्बी चौड़ी, प्राधा योजन मोटी हैं, सर्वमणियों की बनी हुई हैं, स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप हैं / उन मणिपीठिकाओं के ऊपर अलग-अलग सिंहासन हैं / यहाँ सिंहासन का वर्णन, मालाओं का वर्णन, परिवार का वर्णन पूर्ववत् कहना चाहिए। उन प्रेक्षाघरमण्डपों के ऊपर पाठ-पाठ मंगल, ध्वजाएँ और छत्रों पर छत्र हैं। उन प्रेक्षाधरमण्डपों के आगे तीन दिशाओं में तीन मणिपीठिकाएँ हैं। वे मणिपीठिकाएँ दो योजन लम्बी-चौड़ी और एक योजन मोटी हैं, सर्वमणिमय, स्वच्छ यावत् प्रतिरूप हैं। उन मणिपीठिकानों के ऊपर अलग-अलग चैत्यस्तूप कहे गये हैं। वे चैत्यस्तूप दो योजन लम्बे-चौड़े और कुछ अधिक दो योजन ऊँचे हैं / वे शंख, अंकरत्न, कुंद ( मोगरे का फूल), Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 390] [जीवाजीवाभिगमसूत्र दगरज (जलबिन्दु), क्षीरोदधि के मथित फेनपुंज के समान सफेद हैं, सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप हैं। उन चैत्यस्तूपों के ऊपर पाठ-आठ मंगल, बहुत-सी कृष्णचामर से अंकित ध्वजाएँ आदि और छत्रातिछत्र कहे गये हैं। उन चैत्यस्तूपों के चारों दिशाओं में अलग-अलग चार मणिपीठिकाएँ कही गई हैं। वे मणिपीठिकाएँ एक योजन लम्बी-चौड़ी और प्राधा योजन मोटो सर्वमणिमय हैं। उन मणिपीठिकानों के ऊपर अलग-अलग चार जिन-प्रतिमाएँ कही गई हैं जो जिनोत्सेधप्रमाण (उत्कृष्ट पांच सौ धनुष और जघन्य सात हाथ; यहां पांच सौ धनुष समझना चाहिए) हैं, पर्यकासन (पालथी) से बैठी हुई हैं, उनका मुख स्तूप की ओर है। इन प्रतिमाओं के नाम हैं-ऋषभ, वर्द्धमान, चन्द्रानन और वारिषेण / 137. (3) तेसि णं चेइयथभाणं पुरओ तिदिसि पत्तेयं पत्तेयं मणिपेढियानो पण्णत्ताओ। ताओ गं मणिपेढियाओ को दो जोयणाई आयामविक्खंभेणं जोयणं बाहल्लेणं सम्यमणिमईओ अच्छाओ लण्हाओ सहामो घट्ठाओ मट्ठाओ निप्पंकाओ णीरयाओ जाव पडिरूवाओ। ___ तासि णं मणिपेढियाणं उप्पि पत्तेयं पत्तेयं चेइयरुक्खा पण्णत्ता / ते णं चेइयरुक्खा अट्ठजोयणाई उड्ड उच्चत्तेणं अद्धजोयणं उव्येहेणं वो जोयणाई खंधी अद्धजोयणं विक्खंभेणं छज्जोयणाई विडिमा बहुमज्झदेसभाए अटुजोयणाई आयामविक्खंभेणं साइरेगाइं अट्ठजोयणाई सव्वग्गेणं पण्णत्ता। तेसि णं चेइयरुक्खाणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तंजहा-बहरामया मूला रययसुपइडिया विडिमा रिट्टामयविपुलकंदवेरुलियरुइलखंधा सुजातरूवपढ़मगविसालसाला नानामणिरयणविविहसाहप्पसाहवेरुलियपत्ततवणिज्जपत्तवेंटा जंबूणयरत्तमउयसुकुमालपवालपल्लवसोभंतवरंकुरग्गसिहरा विचित्तमणिरयणसुरभिकुसुमफलभरणमियसाला सच्छाया सप्पभा समिरीया सउज्जोया अमयरससमरसफला अहियं णयणमणणिव्वुइकरा पासाईया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा। ते णं चेइयरुक्खा अन्नेहिं बहूहि तिलय-लवय-छत्तोवग-सिरीस-सत्तवण्ण-दहिवण्ण-लोड-धवचंदन-नोव-कुडय-कर्यब-पणस-ताल-तमाल-पियाल-पियंगु-पारावय-रायरुक्ख-नंविरुक्खेहि सम्वओ समंता संपरिक्खित्ता। ते णं तिलया जाव नंदिरुक्खा मूलवंता कंदवंता जाव सुरम्मा / ते णं तिलया जाय नंदिरुक्खा अन्नेहि बहिं पउमलयाहिं जाव सामलयाहिं सवओ समंता संपरिक्खित्ता। ताओ णं पउमलयाओ नाव सामलयाओ णिच्चं कुसुमियाओ जाव पडिरूबाओ। तेसिं गं चेइयरुक्खाणं उप्पि बहवे अट्ठमंगलगा नया छत्ताइ छत्ता। [137] (3) उन चैत्यस्तूपों के आगे तीन दिशाओं में अलग-अलग मणिपीठिकाएँ कही गई हैं। वे मणिपीठिकाएँ दो-दो योजन की लम्बी-चौड़ी और एक योजन मोटी हैं, सर्वमणिमय हैं, स्वच्छ हैं, मृदु पुद्गलों से निर्मित हैं, चिकनी हैं, घृष्ट हैं, मृष्ट हैं, पंकरहित, रजरहित यावत् प्रतिरूप हैं। 1. वरंकुधरा इति पाठान्तरम् / Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततीय प्रतिपत्ति: सुधर्मा सभा का वर्णन] [391 उन मणिपीठिकानों के ऊपर अलग-अलग चैत्यवृक्ष कहे गये हैं। वे चैत्यवृक्ष पाठ योजन ऊँचे हैं, प्राधा योजन जमीन में हैं, दो योजन ऊँचा उनका स्कन्ध (धड़, तना) है, प्राधा योजन उस स्कन्ध का विस्तार है, मध्यभाग में ऊर्ध्व विनिर्गत शाखा (विडिमा) छह योजन ऊँची है, उस विडिमा का विस्तार अर्धयोजन का है, सब मिलाकर वे चैत्यवृक्ष पाठ योजन से कुछ अधिक ऊँचे हैं / / उन चैत्यवृक्षों का वर्णन इस प्रकार कहा है-उनके मूल वज्ररत्न के हैं, उनकी ऊर्ध्व विनिर्गत शाखाएँ रजत की हैं और सुप्रतिष्ठित हैं, उनका कन्द रिष्ट रत्नमय है, उनका स्कंध वैडूर्य रत्न का है और रुचिर है, उनकी मूलभूत विशाल शाखाएँ शुद्ध और श्रेष्ठ स्वर्ण की हैं, उनकी विविध शाखा-प्रशाखाएँ नाना मणिरत्नों की हैं, उनके पत्ते वैडूर्यरत्न के हैं, उनके पत्तों के वन्त तपनीय स्वर्ण के हैं / जम्बूनद जाति के स्वर्ण के समान लाल, मृदु, सुकुमार प्रवाल (पत्र के पूर्व की स्थिति) और पल्लव तथा प्रथम उगने वाले अंकूरों को धारण करने वाले है (अथवा उनके शिखर तथाविध प्रवालपल्लव-अंकुरों से सुशोभित हैं), उन चैत्यवृक्षों की शाखाएँ विचित्र मणिरत्नों के सुगन्धित फूल और फलों के भार से झुकी हुई हैं। वे चैत्यवृक्ष सुन्दर छाया वाले, सुन्दर कान्ति वाले, किरणों से युक्त और उद्योत करने वाले हैं / अमृतरस के समान उनके फलों का रस है / वे नेत्र और मन को अत्यन्त तृप्ति देने वाले हैं, प्रासादीय हैं, दर्शनीय हैं, अभिरूप हैं और प्रतिरूप हैं / वे चैत्यवक्ष अन्य बहुत से तिलक, लवंग, छत्रोपग, शिरीष, सप्तपर्ण, दधिपर्ण, लोध्र, धव, चन्दन, नीप, कुटज, कदम्ब, पनस, ताल, तमाल, प्रियाल, प्रियंगु, पारापत, राजवृक्ष और नन्दिवृक्षों से सब अोर से घिरे हुए हैं / वे तिलक यावत् नन्दिवृक्ष मूलवाले हैं, कन्दवाले हैं इत्यादि वृक्षों का वर्णन करना चाहिए यावत् वे सुरम्य हैं। वे तिलकवृक्ष यावत् नन्दिवृक्ष अन्य बहुत-सी पद्मलताओं यावत् श्यामलताओं से घिरे हुए हैं। वे पद्मलताएँ यावत् श्यामलताएँ नित्य कुसुमित रहती हैं। यावत् वे प्रतिरूप हैं। उन चैत्यवृक्षों के ऊपर बहुत से आठ-पाठ मंगल, ध्वजाएँ और छत्रों पर छत्र हैं। 137. (4) तेसि णं चेइयरुक्खाणं पुरओ तिदिसि तओ मणिपेढियाश्रो पण्णत्ताओ; ताओ जं मणिपेढियानो जोयणं आयामविक्खंभेणं अद्धजोयणं बाहल्लेणं सम्वमणिमईओ अच्छाओ जाव पडिरूवाओ। तासि गं मणिपेढियाणं उप्पि पत्तेयं पत्तेयं महिंदझये पण्णत्ते / ते णं महिंदज्मया अट्ठमाई जोयणाई उड्ड उच्चत्तेणं अद्धकोसं उध्वेहेणं अद्धकोसं विक्खंभेणं वइरामयवट्टलसंठियसुसिलिटुपरिघट्टमट्ठसुपइटिया' अणेगवरपंचवण्णकुडभीसहस्सपरिमंडियाभिरामा वाउछुयविजयवेजयंतीपडागा छत्ताइछत्तकलिया तुगा गगनतलमभिलंघमाणसिहरा पासादीया जाव पडिरूया। तेसि णं महिंदज्मयाणं उप्पि अट्ठमंगलगा शया छताइछत्ता। तेसि णं महिंदज्मयाणं पुरमो तिविसि तो गंवाओ पुक्खरणीओ पण्णत्ताओ। ताओ णं पुक्खरणीओ अद्धरतेरस जोयणाई आयामेणं सक्कोसाई छजोयणाई विक्खंभेणं वसओयणाई उटवेहेणं अच्छाओ सहाओ पुक्खरिणीवण्णमओ, पत्ते पत्तेयं पउभरववेइयापरिक्खित्तानो, पत्तेयं पत्तेयं वणसंडपरिक्खित्ताओ वण्णमओ जाव पडिरूवाओ। 1. क्वचित् विसिट्टा' इत्यपि दृश्यते / Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 392] [जीवाजीवाभिगमसूत्र तासि णं पुक्खरिणीणं पत्तेयं पत्तेयं तिदिसि तिसोवाणपडिरूवगा, वण्णो / तोरणा भाणियथ्या जाब छत्ताइछत्ता / सभाए णं सुहम्माए छ मणोगुलिया साहस्सोमो पण्णताओ, तं जहा-पुरस्थिमेणं दो साहस्सोओ, पच्चत्थिमेणं दो साहस्सीओ, दाहिणेणं एगा साहस्सी, उत्तरेणं एगा साहस्सी / तासु णं मणोगुलिकासु बहवे सुवण्णरुप्पामया फलगा पण्णत्ता, तेसु णं सुवण्णरुप्पामएसु फलगेसु वहवे बहरामया णागवंतगा पण्णता, तेसु णं वइरामएसु नागवंतगेसु बहवे किण्हसुत्तवट्टवग्धारियमल्लवामकलावा जाव सुविकलवट्टवग्घारियमल्लदामकलावा / ते णं दामा तवणिज्जलंबसगा जाव चिट्ठति / समाए सुहम्माए छ गोमाणसीसाहस्सोओ पण्णत्ताओ, तं जहा-पुरस्थिमेणं :दा साहस्सोमो, एवं पच्चस्थिमेणं वि दाहिणणं सहस्सं एवं उत्तरेणवि / तासु णं गोमाणसीसु बहवे सुवण्णरुप्पामया फलगा पण्णत्ता जाव तेसु णं वइरामएसु नागदंतएसु बहवे रययामया सिक्कया पण्णया / तेसुगं रययामयासिक्कएसु बहवे वेरुलियामईओ धूवडियाओ पण्णत्ताओ / ताओ णं धूवघडियाओ कालागुरुपवरकुदरुक्कतुरुक्क्क जाव घाणमणणिव्वुइकरेणं गंधेणं सव्वओ समंता आपूरेमाणीप्रो चिट्ठति / समाए णं सुधम्माए अंतो बहुसमरमाणिज्जे भूमिभाए पण्णत्ते जाव मणीणं फासे, उल्लोया पउमलयाभत्तिचित्ता जाव सम्वतपणिज्जमए अच्छे जाव पडिलवे / [137] (4) उन चैत्यवृक्षों के आगे तीन दिशाओं में तीन मणिपीठिकाएँ कही गई हैं / वे मणिपीठिकाएँ एक-एक योजन लम्बी-चौड़ी और आधे योजन की मोटी हैं / वे सर्वमणिमय हैं, स्वच्छ हैं, यावत् प्रतिरूप हैं। उन मणिपीठिकानों के ऊपर अलग-अलग महेन्द्रध्वज हैं जो साढ़े सात योजन ऊंचे, प्राधा कोम ऊंडे (जमीन के अन्दर), प्राधा कोस विस्तार वाले, बज्रमय, गोल, सुन्दर प्राकारवाले, सुसम्बद्ध, घुष्ट, मृष्ट और सुस्थिर हैं, अनेक श्रेष्ठ पांच वर्गों की लघुपताकानों से परिमण्डित होने से सुन्दर हैं, वायु से उड़ती हुईं विजय की सूचक वैजयन्ती पताकामों से युक्त हैं, छत्रों पर छत्र से युक्त हैं, ऊँची हैं, उनके शिखर प्रकाश को लांघ रहे हैं, वे प्रासादीय यावत् प्रतिरूप हैं। उन महेन्द्रध्वजों के ऊपर पाठ-पाठ मंगल हैं, ध्वजाएँ हैं और छत्रातिछत्र हैं। उन महेन्द्रध्वजों के आगे तीन दिशाओं में तीन नन्दा पुष्करिणियाँ हैं। वे नन्दा पुष्करिणियां साढे बारह योजन लम्बी हैं, छह सवा योजन को चौड़ी हैं, दस योजन ऊंडी हैं, स्वच्छ हैं, शूक्ष्ण (मृदु) हैं इत्यादि पुष्करिणी का वर्णनक कहना चाहिए। वे प्रत्येक पुष्करिणियां पद्मवरवेदिका और वनखण्ड से घिरी हुई हैं। पद्मवरवेदिका और वनखण्ड का वर्णन कर लेना चाहिए यावत् वे पुष्करिणियाँ दर्शनीय यावत् प्रतिरूप हैं। उन पुष्करिणियों की तीन दिशाओं में अलग-अलग त्रिसोपानप्रतिरूपक कहे गये हैं। उन त्रिसोपानप्रतिरूपकों का वर्णनक कहना चाहिए / तोरणों का वर्णन यावत् छत्रों पर छत्र हैं। उस सुधर्मा सभा में छह हजार मनोगुलिकाएँ (बैठक) कही गई हैं, यथा-पूर्व में दो हजार, पश्चिम में दो हजार, दक्षिण में एक हजार और उत्तर में एक हजार / उन मनोगुलिकामों में बहुत से सोने चांदी के फलक (पाटिये) हैं। उन सोने-चांदी के फलकों में बहुत से वज्रमय नागदंतक (खूटियां) Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : सुधर्मासभा का वर्णन] [393 हैं। उन वज्रमय नागदन्तकों में बहुत-सी काले सूत्र में पिरोई हुई गोल और लटकती हुई पुष्पमालाओं के समुदाय हैं यावत् सफेद डोरे में पिरोई हुई गोल और लटकती हुई पुष्पमालाओं के समुदाय हैं / वे पुष्पमालाएँ सोने के लम्बूसक (पेन्डल) वाली हैं यावत् सब दिशाओं को सुगन्ध से भरती हुई स्थित हैं। उस सुधर्मासभा में छ हजार गोमाणसियाँ (शय्यारूप स्थान) कही गई हैं, यथा-पूर्व में दो हजार, पश्चिम में दो हजार, दक्षिण में एक हजार और उत्तर में एक हजार / उन गोमाणसियों में बहुत-से सोने-चांदी के फलक हैं, उन फलकों में बहुत से वज्रमय नागदन्तक हैं, उन वज्रमय नागदन्तकों में बहुत से चांदी के सीके हैं / उन रजतमय सींकों में बहुत-सी वैडूर्य रत्न की धूपघटिकाएँ कही गई हैं। वे धूपघटिकाएँ काले अगर, श्रेष्ठ कुंदुरुक्क और लोभान के धूप की नाक और मन को तृप्ति देने वाली सुगन्ध से आसपास के क्षेत्र को भरती हुई स्थित हैं। उस सुधर्मासभा में बहुसमरमणीय भूमिभाग कहा गया है। यावत् मणियों का स्पर्श, भीतरी छत, पद्मलता आदि के विविध चित्र आदि का वर्णन करना चाहिए / यावत् वह भूमिभाग तपनीय स्वर्ण का है, स्वच्छ है और प्रतिरूप है / 138. तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं एगा मणिपीढिया पण्णत्ता / सा णं मणिपीढिया दो जोयणाई आयामविक्खंभेणं जोयणं बाहल्लेणं सध्वमणिमया। तीसे गं मणिपीढियाए उपि एस्थ णं माणथए णाम चेइयखंभे पण्णत्ते, अद्धटुमाई जोयणाई उखु उच्चत्तेणं अद्धकोसं उन्धेहेणं अद्धकोसं विखंभेणं छकोडीए छलसे छविगहिए वहरामयवट्टलट्ठसंठिए, एवं जहा महिंदज्यस्स बण्णओ जाव पासाईए / तस्स णं माणगस्स चेइयखंभस्स उरि छक्कोसे ओगाहिता हेट्ठावि छक्कोसे वज्जिता मज्झे अद्धपंचमेसु जोयणेसु एत्थ णं बहवे सुवण्णरुप्पमया फलगा पण्णता / तेसु णं सुवण्णरुप्पमएसु फलगेसु बहवे वइरामया गागदंता पणत्ता / तेसु णं वइरामएसु णागदंतएसु बहथे रययामया सिक्कगा पण्णत्ता। तेसु णं रययामएसु सिक्कएसु बहवे वइरामया गोलवट्टसमुग्गका पण्णत्ता; तेसु णं वइरामएसु गोलबट्टसमुग्गएसु बहवे जिणसफहाम्रो सन्निक्खित्ताओ चिट्ठति / जाओ णं विजयस्स देवस्स अण्णेसि च बहणं वाणमंतराणं देवाण य देवीण य अच्चणिज्जाओ बंदणिज्जाओ पूणिज्जानो सक्कारणिज्जाओ सम्माणणिज्जाओ कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासणिज्जानो। माणवगस्स गं चेइयखंभस्स उरि अट्ठमंगलगा नया छत्ताइछत्ता। __ तस्स णं माणवगस्स चेइयखंभस्स पुरच्छिमेणं एत्य गं एगा महामणिपेठिया पण्णता। सा गं मणिपेढिया दो जोयणाई प्रायामविक्खंभेणं जोयणं बाहल्लेणं सव्वमणिमई जाव पडिरूवा। तीसे गं मणिपेढियाए उप्पि एत्थ णं एगे महं सीहासणे पण्णत्ते / सीहासणवणओ। तस्स णं माणवगस्स चेइयखंभस्स पच्चस्थिमेणं एस्थ णं एगा महं मणिपेढिया पण्णत्ता, जोयणं आयामविक्खंभेणं अखजोयणं बाहल्लेणं सध्वमणिमई अच्छा। तीसे णं मणिपेढियाए उपि एत्थ णं एगे महं देवसयणिज्जे पण्णत्ते। तस्स णं देवसयणिज्जस्स अयमेयारूवे वग्णावासे पण्णसे, तंजहा Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जीवाजीवाभिगमसूत्र णाणामणिमया' पडिपाया, सोवणिया पाया, णाणामणिमया पायसीसा जंपूणवमयाई गताई वइरामया संधी जाणामणिमए विच्चे, रययामया तूली, लोहियवखमया बिग्योयणा तवणिज्जमई गंडोवहाणिया। से गं देवसयणिज्जे उभओ बिम्बोयणे बुहम्रो उपणए मज्जे गयगंभीरे सालिगणवट्टिए गंगापुलिणवालुउद्दालसारिसए ओवियक्खोमदुगुल्लपट्टपडिच्छायणे सुविरचियरयत्साणे रतंसुयसंधुए सुरम्मे आईणगख्यवरणवणीयतुलफासमउए पासाईए। तस्स गं देवसयणिज्जस्स उत्तरपुरस्थिमेणं एस्थ णं महई एगा मणिपीडिया पण्णत्ता जोयणमेणं मायामविक्खंभेणं अद्धजोयणं बाहल्लेणं सम्यमणिमई जाव प्रच्छा / तोसे गं मणिपीढियाए उप्पि एगं महं खुए महिवज्झए पण्णत्ते, अट्ठमाई जोयणाई उड्ढं उच्चत्तेणं अद्धकोसं उग्वेहेणं अद्धकोसं विक्कमेणं वेरुलियामयवट्टलटुसंठिए तहेव जाव मंगलगा झया छत्ताइछसा। तस्स णं खुड्डमहिवमयस्स पच्चस्थिमेणं एत्थ णं विजयस्स देवस्स चुप्पालए नाम पहरणकोसे पण्णते। तत्थ णं विजयस्स देवस्स फलिहरयणपामोक्खा बहवे पहरणरयणा सनिविखसा चिट्ठति, उज्जलसुनिसियसुतिक्खधारा पासाईया। तीसे गं सभाए सुहम्माए उपि बहवे अट्ठमंगलगा झया छत्ताइछत्ता। [138] उस बहुसमरमणीय भूमिभाग के ठीक मध्यभाग में एक मणिपीठिका कही गई है। वह मणिपीठिका दो योजन लम्बी-चौड़ी, एक योजन मोटी और सर्वमणिमय है / उस मणिपीठिका के ऊपर माणवक नामक चैत्यस्तम्भ कहा गया है / वह साढे सात योजन ऊँचा, प्राधा कोस ऊँडा और आधा कोस चौड़ा है / उसकी छह कोटियां हैं, छह कोण हैं और छह भाग हैं, वह वज्र का है, गोल है और सुन्दर प्राकृति वाला है, इस प्रकार महेन्द्रध्वज के समान वर्णन करना चाहिए यावत् वह प्रासादीय (यावत् प्रतिरूप) है / उस माणवक चैत्यस्तम्भ के ऊपर छह कोस ऊपर और छह कोस नीचे छोड़ कर बीच के साढे चार योजन में बहुत से सोने-चांदी के फलक कहे गये हैं। उन सोने चांदी के फलकों में बहुत से वनमय नागदन्तक हैं। उन वज्रमय नागदन्तकों में बहुत से चांदी के छींके गये हैं। उन रजतमय छींकों में बहुत-से वज़मय गोल-वर्तुल समुद्गक (मंजूषा) कहे गये हैं। उन वज्रमय गोल-वर्तुल समुद्गकों में बहुत-सी जिन-अस्थियाँ रखी हुई हैं / वे विजयदेव और अन्य बहुत से वानव्यन्तर देव और देवियों के लिए अर्चनीय, वन्दनीय, पूजनीय, सत्कारयोग्य, सन्मानयोग्य, कल्याणरूप, मंगलरूप, देवरूप, चैत्यरूप और पर्युपासनायोग्य हैं। उस माणवक चैत्यस्तम्भ के ऊपर पाठ-पाठ मंगल, ध्वजाएँ और छत्रातिछत्र हैं। उस माणवक चैत्यस्तम्भ के पूर्व में एक बड़ी मणिपीठिका है। वह मणिपीठिका दो योजन लम्बी-चौड़ी, एक योजन मोटी और सर्वमणिमय है यावत् प्रतिरूप है / उस मणिपीठिका के ऊपर एक बड़ा सिंहासन कहा गया है। उस माणवक चैत्यस्तम्भ के पश्चिम में एक बड़ी मणिपीठिका है जो एक योजन लम्बी-चौड़ी और आधा योजन मोटी है, जो सर्वमणिमय है और स्वच्छ है / उस मणिपीठिका के ऊपर एक बड़ा देवशयनीय कहा गया है / देवशयनीय का वर्णन इस प्रकार है, यथा१. 'णाणा मणिमया पायसीसा' यह पाठ वृत्ति में नहीं है। Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति सिद्धायतन-वर्णन] [395 नाना मणियों के उसके प्रतिपाद (मूलपायों को स्थिर रखने वाले पाये) हैं, उसके मूल पाये सोने के हैं, नाना मणियों के पायों के ऊपरी भाग हैं, जम्बूनद स्वर्ण की उसकी ईसें हैं, वज्रमय सन्धियाँ हैं, नाना मणियों से वह बुना (व्युत) हुआ है, चांदी की गादी है, लोहिताक्ष रत्नों के तकिये' हैं और तपनीय स्वर्ण का गलमसूरिया है / वह देवशयनीय दोनों ओर (सिर और पांव की तरफ) तकियों वाला है, शरीरप्रमाण तकियों वाला (मसनद-बड़े गोल तकिये) हैं, वह दोनों तरफ से उन्नत और मध्य में नत (नोचा) और गहरा है, गंगा नदी के किनारे की बालुका में पैर रखते ही जैसे वह अन्दर उतर जाता है वैसे ही वह शय्या उस पर सोते ही नीचे बैठ जाती है, उस पर बेल-बूटे निकाला हुआ सूती वस्त्र (पलंगपोस) बिछा हया है, उस पर रजस्त्राण लगाया हना है, लाल वस्त्र से वह ढका हा है, सुरम्य रुई, बूर वनस्पति और मक्खन के समान उसका मृदुल स्पर्श है, वह प्रासादीय यावत् प्रतिरूप है। उस देवशयनीय के उत्तर-पूर्व में (ईशानकोण में) एक बड़ी मणिपीठिका कही हुई है / वह एक योजन की लम्बी-चौड़ी और आधे योजन की मोटी तथा सर्व मणिमय यावत् स्वच्छ है / उस मणिपीठिका के ऊपर एक छोटा महेन्द्रध्वज कहा गया है जो साढे सात योजन ऊँचा, आधा कोस ऊँडा और प्राधा कोस चौड़ा है। वह वैडूर्यरत्ल का है, गोल है और सुन्दर आकार का है, इत्यादि वर्णन पूर्ववत् करना चाहिए यावत् पाठ-आठ मंगल, ध्वजाएँ और छत्रातिछत्र हैं। उस छोटे महेन्द्रध्वज के पश्चिम में विजयदेव का चौपाल नामक शस्त्रागार है / वहाँ विजय देव के परिधरत्न आदि शस्त्ररत्न रखे हुए हैं / वे शस्त्र उज्ज्वल, अति तेज और तीखी धार वाले हैं / वे प्रासादीय यावत् प्रतिरूप हैं। उस सुधर्मा सभा के ऊपर बहुत सारे पाठ-आठ मंगल, ध्वजाएं और छत्रातिछत्र हैं।' सिद्धायतन-वर्णन 136. (1) सभाए णं सुषम्माए उत्तरपुरस्थिमेणं एत्य णं एगे महं सिद्धाययणे पण्णत्ते अद्धतेरसजोयणाई मायामेणं छ जोयणाई सकोसाइं विक्खमेणं नवजोयणाई उड्ढं उच्चत्तेणं जाव गोमागसिया बत्तग्वया। जा चेव सहाए सुहम्माए वत्तम्वया सा चेव निरवसेसा भाणियव्वा तहेव दारा मुहमंडवा पेच्छाघरमंडवा प्रया। धूमा चेइयरुक्खा महिंदज्या गंवाओ पुक्खरिणीओ। तो य सुधम्माए जहा पमागं मणोगुलियाणं गोमाणसोया, धूवयघडीओ तहेव भूमिभागे उल्लोए य ाव मणिफासे / तस्स सिद्धायतणस्स बहुमजावेसभाए एत्य गं एगा महं मणिपेढिया पण्णत्ता दो जोयणाई आयामविक्वंमेणं जोयणं बाहल्लेणं सम्वमणिमयी अच्छा० / तोसे णं मणिपेढियाए उम्पि एत्थ णं एगे महं देवच्छंद एयण्णत्ते, दो जोयणाई आयामविक्खंभेणं साइरेगाइं दो जोयणाई उड्ढं उच्चत्तेणं सम्वरयणामए अच्छे / तस्थ गं देवच्छंदए अट्ठसयं जिणपडिमाणं जिणुस्सेहप्पमाणमेत्ताणं सण्णिक्खित्तं चिड्डइ / सासिगं जिणपडिमाणं अयमेयारवे वण्णावासे पणत्ते, तंजहा-तवणिज्जमया हस्थतला, अंकामयाईणक्खाइं अंतोलोहियक्सपरिसेयाई कणगमया पावा कणगामया गोष्फा कणगामईओ जंघाओ 1. "बिब्वोयणा-उपधानकानि उच्यन्ते' इति मूल टीकाकारः / 2. वृत्ति में 'यावत् बहुत से सहस्रपत्र समुदाय हैं, सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप हैं' ऐसा पाठ है / Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 396] [जीवाजीवाभिगमसूत्र कणगामया जाणू कणगामया अरु कणगामईओ गायलट्ठीओ, तवणिज्जमईओ णाभीओ रिद्वामईओ रोमराईओ, तवणिज्जमया चुरचुया तवणिज्जमया सिरिवच्छा, कणगमयाओ बाहाओ कणगमईओ पासाओ कणगमईओ गोवानो रिट्ठामए मंसु, सिलप्पवालमया उट्ठा, फलिहामया दंता, तवाणिज्जमईओ जीहाओ, तवणिज्जमया तालया कणगमईप्रो गासाओ अंतोलोहियक्खपरिसेयाओ अंकामयाई अच्छीणि, अंतोलोहितक्खपरिसेयाई (पुलगमईओ दिट्ठीओ) रिट्ठामईओ तारगाओ रिट्ठामयाई अच्छिपत्ताई रिद्वामईओ भभुहाओ कणगामया कवोला कणगामया सवणा कणगामया णिडाला वट्टा वडरामईओ सीसघडीग्रो, तवणिज्जमईओ केसंतकेसभूमीओ रिट्ठामया उवरिमुद्धजा। [139] (1) सुधर्मासभा के उत्तरपूर्व (ईशानकोण) में एक विशाल सिद्धायतन कहा गया है जो साढे बारह योजन का लम्बा, छह योजन एक कौस चौड़ा और नो योजन ऊंचा है / इस प्रकार पूर्वोक्त सुधर्मासभा का जो वर्णन किया गया है तदनुसार गोमाणसी (शय्या) पर्यन्त सारी वक्तव्यता कहनी चाहिए। वैसे ही द्वार, मुखमण्डप, प्रेक्षागृहमण्डप, ध्वजा, स्तूप, चैत्यवृक्ष, माहेन्द्रध्वज, नन्दा परिणियाँ. मनोगुलिकाओं का प्रमाण, गोमाणसी, धूपघटिकाएँ, भूमिभाग, उल्लोक (भीतरी प्रादि का वर्णन यावत् मणियों के स्पर्श आदि सुधर्मासभा के समान कहने चाहिए / उस सिद्धायतन के बहुमध्य देशभाग में एक विशाल मणिपीठिका कही गई है जो दो योजन लम्बी-चौड़ी, एक योजन मोटी है, सर्व मणियों की बनी हुई है, स्वच्छ है / उस मणिपीठिका के ऊपर एक विशाल देवच्छंदक (प्रासनविशेष) कहा गया है, जो दो योजन का लम्बा-चौडा और कछ अधिक दो योजन का ऊँचा है, सर्वात्मना रत्नमय है और स्वच्छ स्फटिक के समान है। उस देवच्छंदक में जिनोत्सेधप्रमाण (उत्कृष्ट पांच सौ धनुष, जघन्य सात हाथ) एक सौ पाठ जिन-प्रतिमाएँ रखी हुई हैं। उन जिन-प्रतिमाओं का वर्णन इस प्रकार कहा गया है-उनके हस्ततल तपनीय स्वर्ण के हैं, उनके नख अंकरत्नों के हैं और उनका मध्यभाग लोहिताक्ष रत्नों की ललाई से युक्त है, उनके पांव स्वर्ण के हैं, उनके गुल्फ (टखने) कनकमय हैं, उनकी जंघाए (पिण्डलियां) कनकमयी हैं, उनके जानु (घुटने) कनकमय हैं, उनके ऊरु (जंधाए) कनकमय हैं, उनकी गात्रयष्टि कनकमयी है, उनकी नाभियां तपनीय स्वर्ण की हैं, उनकी रोमराजि रिष्ट रत्नों की है, उनके चूचुक (स्तनों के अग्रभाग) तपनीय स्वर्ण के हैं, उनके श्रीवत्स (छाती पर अंकित चिह्न) तपनीय स्वर्ण के हैं, उनकी भुजाएँ कनकमयी हैं, उनकी पसलियां कनकमयी हैं, उनकी ग्रीवा कनकमयी है, उनकी मूछे रिष्ट रत्न की हैं, उनके होठ विद्ममय (प्रवालरत्न के) हैं, उनके दांत स्फटिकरत्न के हैं, तपनीय स्वर्ण की जिह्वाएँ हैं, तपनीय स्वर्ण के तालु हैं, कनकमयी उनकी नासिका है, जिसका मध्यभाग लोहिताक्षरत्नों की ललाई से युक्त है, उनकी आँखें अंकरत्न की हैं और उनका मध्यभाग लोहिताक्ष रत्न की ललाई से युक्त है, उनकी दष्टि पुलकित (प्रसन्न) है, उनकी आँखों की तारिका (कोकी) रिष्ट रत्नों की है, उनके अक्षिपत्र (पक्षम) रिष्टरत्नों के हैं, उनकी भौंहैं रिष्टरत्नों की हैं, उनके गाल स्वर्ण के हैं, उनके कान स्वर्ण के हैं, उनके ललाट कनकमय हैं, उनके शीर्ष गोल वज्ररत्न के हैं, केशों की भूमि तपनीय स्वर्ण की है और केश रिष्ट रत्नों के बने हुए हैं / 1. कोष्ठकान्तर्गत पाठ वृत्ति में नहीं है। Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : सिद्धार्थतन-वर्णन] [397 139. (2) तासि णं जिणयपडिमाणं पिदुओ पत्तेयं पत्तेयं छत्तधारपडिमाओ पण्णताओ। ताओ गं छत्तधारपडिमाओ हिमरययकुदुसष्पकासाई सकोरंटमल्लदामधवलाई आतपत्ताई सलोलं ओहारेमाणोओ चिट्ठति। तासि णं जिणपडिमाणं उमओ पासि पत्तेयं पत्तेयं चामरधारपडिमाओ पण्णत्ताओ। ताओ णं चामरधारपडिमाओ चंदप्पहवइरवेरुलियनानामणिकणगरयणविमलमहरिहतपिज्जुज्जलविचित्तदंडाओ चिल्लियाओ संखंककुददगरय-अमयमथिअफेणपुंजसण्णिकासाओ, सुहुमरययवीहवालाओ धवलाओ चामराओ सलोलं ओहारेमाणीओ चिट्ठति। तासि णं जिणपडिमाणं पुरओ दो दो नागपडिमाओ, दो दो जक्खपडिमाओ, दो दो भूतपडिमानो दो दो कुंडधारपडिमाओ (विणयोवणयाओ पायडियाओ पंजलिउडाओ) समिक्खित्ताओ विठंति, सम्वरयणामईओ, अच्छाओ सहामो लण्हाओ घटाओ मट्ठाओ णीरयाओ णिप्पंकाओ जाव प्रतिरुवाओ। तासि णं जिणपडिमाणं पुरओ अट्ठसयं घंटाणं, अट्ठसयं चंदणकलसाणं एवं अट्ठसयं भिगारगाणं, एवं आयंसगाणं थालाणं पातीणं सुपइटुकाणं मणगुलियाणं बातकरगाणं चित्ताणं रयणकरंडगाणं हयकंठगाणं जाव उसभकंठगाणं पुष्फचंगेरीणं जाव लोमहत्थचंगेरीणं पुप्फपडलगाणं अदुसयं तेलसमुग्गाणं जाव धूवगडुच्छुयाणं सण्णिविखत्तं चिट्ठा / तस्स णं सिद्धायतणस्स उपि बहवे अट्ठमंगलगा नया छत्ताइछत्ता उत्तिमागारा सोलसविहेहि रयणेहि उवसोभिया तंजहा-रयहिं जाव रिहिं / [139] (2) उन जिनप्रतिमानों के पीछे अलग-अलग छत्रधारिणी प्रतिमाएँ कही गई हैं। वे छत्रधारण करने वाली प्रतिमाएँ लीलापूर्वक कोरंट पुष्प की मालानों से युक्त हिम, रजत, कुन्द और - चन्द्र के समान सफेद प्रातपत्रों (छत्रों) को धारण किये हुये खड़ी हैं। उन जिनप्रतिमाओं के दोनों पार्श्वभाग में अलग-अलग चंवर धारण करने वाली प्रतिमाएँ कही गई हैं। वे चामरधारिणी प्रतिमाएँ चन्द्रकान्त मणि, वज्र, वैड्र्य आदि नाना मणिरत्नों व सोने से खचित और निर्मल बहुमूल्य तपनीय स्वर्ण के समान उज्ज्वल और विचित्र दंडों एवं शंख-अंकरन-कंद-जलकण, चांदी एवं क्षीरोदधि को मथने से उत्पन्न फेनपुंज के समान श्वेत,' सूक्ष्म और चांदी के दीर्घ बाल वाले धवल चामरों को लीलापूर्वक धारण करती हुई स्थित हैं। उन जिनप्रतिमानों के आगे दो-दो नाग प्रतिमाएँ, दो-दो यक्ष प्रतिमाएँ, दो-दो भूत प्रतिमाएँ, दो-दो कुण्डधार प्रतिमाएँ (विनययुक्त पादपतित और हाथ जोड़े हुई) रखी हुई हैं / वे सर्वात्मना रत्नमयी हैं, स्वच्छ हैं, मृदु हैं, सूक्ष्म पुद्गलों से निर्मित हैं, घृष्ट-मृष्ट, नीरजस्क, निष्पंक यावत् प्रतिरूप हैं। उन जिनप्रतिमानों के आगे एक सौ पाठ घंटा, एक सौ पाठ चन्दनकलश, एक सौ आठ कारियां तथा इसी तरह आदर्शक, स्थाल, पात्रियां, सुप्रतिष्ठक, मनोगुलिका, जलशून्य घड़े, चित्र, रत्नकरण्डक, हयकंठक यावत् वृषभकंठक, पुष्पचंगेरियां यावत् लोमहस्तचंगेरियां, पुष्पपटलक, तेल .. तर 1. कोष्टकान्तर्गत. पाठ वृत्ति में नहीं है। Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 398] [जीवाजीवाभिगमसूत्र समुद्गक यावत् धूप के कडुच्छुक-ये सब एक सौ आठ, एक सौ आठ वहां रखे हुए हैं / उस सिद्धायतन के ऊपर बहुत से आठ-आठ मंगल, ध्वजाएँ और छत्रातिछत्र हैं, जो उत्तम आकार के सोलह रत्न यावत् रिष्ट रत्नों से उपशोभित हैं।' उपपातादि सभा-वर्णन 140. तस्स गं सिद्धाययणस्स णं उत्तरपुरस्थिमेणं एस्य गं एगा महं उववायसभा पण्णता। जहा सुधम्मा तहेव जाव गोमाणसीओ। उयवायसमाए वि वारा मुहमंडवा सव्वं भूमिमागे तहेव जाव मणिफासो / (सुहम्मासभावत्तव्वया भाणियग्वा जाव मूमीए फासो।) तस्स णं बहुसमरमणिज्जस भूमिभागस्स बहुमन्सवेसभाए एस्थ गं एगा महं मणिपेढिया पण्णता जोयणं आयामविक्खंभेणं अवजोयणं बाहल्लेणं सम्यमणिमयो अच्छा / तोसे णं मणिपेटियाए उपि एत्थ णं एगे महं वेवसयणिज्जे पण्णत्ते / तस्स गं देवसयणिज्जस्स वण्णओ उववायसभाए गं उप्पि अट्ठमंगलगा नया छत्ताइछत्ता जाव उत्तिमागारा। तीसे णं उववायसभाए उत्तरपुरस्थिमेणं एत्थ गं एगे महं हरए पण्णत्ते / से णं हरए अद्धतेरस जोयणाई आयामेणं छ जोयणाई सक्कोसाई विक्खंभेणं दस जोयणाई उम्वेहेणं अच्छे सण्हे षण्णओ जहेव गंवाणं पुक्खरिणीणं जाव तोरण वण्णओ। तस्स णं हरयस्स उत्तरपुरस्थिमेणं एत्थ णं एगा महं अभिसेयसभा पण्णत्ता जहा सभा सुहम्मा तं चेव निरवसेसं जाव गोमाणसीओ भूमिभाए उल्लोए तहेव / तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमजादेसभाए एस्थ णं एगा महं मणिपेडिया पण्णत्ता, जोयणं मायामविक्खंमेणं अवजोयणं बाहल्लेणं सव्वमणिमया अच्छा। तीसे गं मणिपेढियाए अपि एस्थ णं महं एगे सीहासणे पण्णत्ते सीहासणवण्णो अपरिवारो। तत्थ णं विजयदेवस्स सुबहुअभिसेक्के भंडे सणिक्खित्ते चिट्ठति / अभिसेयसभाए उप्पि अट्ठमंगलगा नाव उत्तिमागारा सोलसविहिं रयहिं उवसोहिए। तोसे णं अमिसेयसहाए उत्तरपुरस्थिमेणं एत्थ णं एगा महं अलंकारियसमा बत्तम्बया भाणियल्या जाव गोमाणसीओ मणिपेढियाओ जहा अभिसेयसमाए उप्पि सोहासणं अपरिवारं। तस्थ णं विजयदेवस्स सुबहु अलंकारिए भंडे सन्निक्खित्ते चिटुइ / अलंकारियसभाए उपि मंगलगाया जाव छत्ताइछत्ता उत्तमागारा०। 1. अत्र संग्रहणिगाथे चंदणकलसा भिंगारगा य प्रायंसगा य थाला य / पाईओ सुपइट्टा मणगुलिया वायकरगा य // 11 // चित्ता रयणकरंडा हय-गय-नर-कंठगा य चंगेरी! पडला सीहासण-छत्त-चामरा समुग्गकजुया य // 2 // Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : उपपाताविसभा-वर्णन] [399 तीसे गं अलंकारियसहाए उत्तरपुरस्थिमेणं एस्थ णं एगा महं वधसायसभा पण्णता। अभिसेयसमावत्तवया जाव सीहासणं अपरिवारं। तस्य गं विजयस्स देवस्स एग महं पोत्ययरयणे सन्निविखते चिट्ठ। तस्स गं पोत्थयरयणस्स अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तंजहा-रिद्वामईओ कंबियाओ रययामयाई पत्तकाई रिद्वामयाई अक्खराई' तवणिज्जमए दोरे जाणामणिमए गंठी, वेरुलियमए लिप्पासणे तवणिज्जमई संकला रिट्ठमए छावने रिद्वामई मसी वइरामई लेहणी, धम्मिए सत्थे / ववसायसभाए णं उपि अट्ठमंगलगा नया छत्ताइछत्ता उत्तिमागारेति / __तोसे णं ववसायसभाए' उत्तरपुरस्थिमेणं एगे महं बलिपेढे पण्णत्ते दो जोयणाई आयामविक्खंभेणं जोयणं बाहल्लेणं सम्वरयणामए अच्छे जाव पउिरूवे / तस्स णं बलिपेढस्स उत्तरपुरस्थिमेणं एत्य णं एगा मह गंदापुक्खरणी पण्णत्ताजं चेव माणं हरयस्स तं चेव सव्वं / [140 / उस सिद्धायतन के उत्तरपूर्व दिशा (ईशानकोण) में एक बड़ी उपपातसभा कही गई है। सुधर्मा सभा की तरह गोमाणसी पर्यन्त सब वर्णन यहाँ भी कर लेना चाहिए / उपपात सभा में भी द्वार, मुखमण्डप आदि सब वर्णन, भूमिभाग, यावत् मणियों का स्पर्श आदि कह लेना चाहिए। (यहां सुधर्मासभा की वक्तव्यता भूमिभाग और मणियों के स्पर्शपर्यन्त कहनी चाहिए।) उस बहसमरमणीय भूमिभाग के मध्य में एक बड़ी मणिपीठिका कही गई है। वह एक योजन लम्बी-चौड़ी और प्राधा योजन मोटी है, सर्वरत्नमय और स्वच्छ है / उस मणिपीठिका के ऊपर एक बड़ा देवशयनीय कहा गया है। उस देवशयनीय का वर्णन पूर्ववत् कह लेना चाहिए। उस उपपातसभा के ऊपर आठ-आठ मंगल, ध्वजा और छत्रातिछत्र हैं जो उत्तम प्राकार के हैं और रत्नों से सुशोभित हैं। उस उपपातसभा के उत्तर-पूर्व में एक बड़ा सरोवर कहा गया है / वह सरोवर साढे बारह योजन लम्बा, छह योजन एक कोस चौड़ा और दस योजन ऊँड़ा है / वह स्वच्छ है, श्लक्ष्ण है आदि नन्दापुष्करिणीवत् वर्णन करना चाहिए। (वह सरोवर एक पद्मवरवेदिका और वनखण्ड से घिरा हुपा है / यहाँ पनवरवेदिका और वनखण्ड का वर्णन कर लेना चाहिए यावत् वहाँ बहुत से वानव्यन्तर देव-देवियां स्थित होती हैं यावत् पूर्वकृत पुण्यकर्मों के विपाक का अनुभव करती हुई विचरती हैं। उस हद की तीन दिशाओं में त्रिसोपानप्रतिरूपक हैं। यहाँ त्रिसोपानप्रतिरूपकों का वर्णन कहना चाहिए यावत् तोरणों का वर्णन कहना चाहिए। ऐसा वृत्ति में उल्लेख है।) उस सरोवर के उत्तर-पूर्व में एक बड़ी अभिषेकसभा कही गई है। सुधर्मासभा की तरह उसका पूरा वर्णन कर लेना चाहिए / गोमाणसी, भूमिभाग, उल्लोक आदि सब सुधर्मासभा की तरह जानना चाहिए। 1. अंकमयाइं पत्ताई इति पाठान्तरम् / 'अंकमयाई पत्ताई रिट्ठामयाई अक्खराइं, अयं पाठः 'वइरामई लेहणी' ___~इत्यस्यानन्तरं वृत्ती व्याख्यातः / 2. 'उववाय सभाए' इति वृत्तौ पाठः / 3. अत्र प्रथमं जीर्णपुस्तके नन्दापुष्करीणीविवेचनं वर्तते पश्चात् वलिपिठस्य परं च टीकायां प्रथमं बलिपीठस्य पश्चात् नंदायाः। Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 400] [जीवाजीवाभिगमसूत्र उस बहुसमरमणीय भूमिभाग के ठीक मध्यभाग में एक बड़ी मणिपीठिका कही गई है। वह एक योजन लम्बी-चौड़ी और आधा योजन मोटी है, सर्व मणिमय और स्वच्छ है / उस मणिपीठिका के ऊपर एक बड़ा सिंहासन है / यहाँ सिंहासन का वर्णन करना चाहिए, परिवार का कथन नहीं करना चाहिए। उस सिंहासन पर विजयदेव के अभिषेक के योग्य सामग्नी रखी हुई है। अभिषेकसभा के ऊपर आठ-आठ मंगल, ध्वजाएँ, छत्रातिछत्र कहने चाहिए, जो उत्तम आकार के और सोलह रत्नों से उपशोभित हैं। उस अभिषेकसभा के उत्तरपूर्व में एक विशाल अलंकारसभा है। उसकी वक्तव्यता गोमाणसी पर्यन्त अभिषेकसभा की तरह कहनी चाहिए / मणिपीठिका का वर्णन भी अभिषेकसभा की तरह जानना चाहिए। उस मणिपीठिका पर सपरिवार सिंहासन का कथन करना चाहिए / उस सिंहासन पर विजयदेव के अलंकार के योग्य बहुत-सी सामग्री रखी हुई है / उस अलंकारसभा के ऊपर आठआठ मंगल, ध्वजाएँ और छत्रातिछत्र हैं जो उत्तम आकार के और रत्नों से सुशोभित हैं। उस पालंकारिक सभा के उत्तरपूर्व में एक बड़ी व्यवसायसभा कही गई है। परिवार रहित सिंहासन पर्यन्त सब वक्तव्यता अभिषेकसभा की तरह कहनी चाहिए / उस सिंहासन पर विजयदेव का पुस्तकरन रखा हया है। उस पुस्तकरत्न का वर्णन इस प्रकार है-रिष्ट रत्न की उसकी कैबिका (पुट्ठ) हैं, चांदी के उसके पन्ने हैं, रिष्ट रत्नों के अक्षर हैं, तपनीय स्वर्ण का डोरा है (जिसमें पन्ने पिरोये हुए हैं), नानामणियों की उस डोरे की गांठ हैं (ताकि पन्ने अलग अलग न हों), वैडूर्य रत्न का मषिपात्र (दावात) है, तपनीय स्वर्ण की उस दावात की सांकल हैं, रिष्टरत्न का ढक्कन है, रिष्टरत्न की स्याही है, वज्ररत्न की लेखनी है। वह ग्रन्थ धार्मिक शास्त्र है। उस व्यवसायसभा के ऊपर पाठ-पाठ मंगल, ध्वजाएँ और छत्रातिछत्र हैं जो उत्तम प्रकार के हैं यावत् रत्नों से शोभित हैं। उस' व्यवसायसभा के उत्तर-पूर्व में एक विशाल बलिपीठ है। वह दो योजन लम्बा-चौड़ा और एक योजन मोटा है / वह सर्वरत्नमय है, स्वच्छ है यावत् प्रतिरूप है / उस बलिपीठ के उत्तरपूर्व में एक बड़ी नन्दापुष्करिणी कही गई है / उसका प्रमाण प्रादि वर्णन पूर्व वणित ह्रद के समान जानना चाहिए। विजयदेव का उपपात और उसका अभिषेक 141. (1) तेणं कालेणं तेणं समएणं विजए देवे विजयाए रायहाणीए उववातसभाए देवसयणिजंसि देवदूसंतरिए अंगुलस्स असंखेज्जइभागमेत्तीए बोंदीए विजयदेवत्ताए उववण्णे / तए णं से विजए देवे अहुणोववण्णमेत्तए चेव समाणे पंचविहाए पज्जत्तीए पज्जत्तीमा गच्छइ, तंजहा-आहारपज्जत्तीए, सरीरपज्जत्तीए, इंदियपज्जत्तीए आणापाणुपज्जत्तीए भासामणपज्जत्तीए / तए णं तस्स विजयस्स देवस्स पंचविहाए पज्जत्तीए पज्जत्तीभावं गयस्स इमेएयारूवे अज्झस्थिए चितिए पथिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था--कि मे पुव्वं सेयं कि मे पच्छा सेयं, कि मे पुग्वि करणिज्जं कि मे पच्छा 1. वृत्ति में 'उपपातसभा के' ऐसा उल्लेख है। Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपसि : विजयदेव का उपपात और उसका अभिषेक] [401 करणिज्जं कि मे पुग्वि वा पच्छा वा हियाए सुहाए खेमाए णिस्सेसाए अणुगामियत्ताए भविस्सतोति कट्ट एवं संपेहेइ। ___ तए गं तस्स विजयदेवस्स सामाणियपरिसोववण्णगा देवा विजयस्स देवस्स इमं एयारवं अज्झस्थियं चितियं पत्थियं मणोगयं संकप्पं समुप्पणं जाणित्ता जेणामेव से विजए देवे तेणामेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता विजयं देवं करतलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कट्ट जएणं विजएणं बद्धाति, जएणं विजएणं बद्धावित्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पियाणं विजयाए रायहाणीए सिद्धायतणसि अट्ठसयं जिणपडिमाणं जिणुस्सेहपमाणमेसाणं सन्निक्खित्तं चिट्ठइ, सभाए य सुषम्माए माणवए चेइयर्समे वइरामएसु गोलवट्टसमुग्गएसु बहूओ जिसकहाओ सन्निक्खित्तामओ चिट्ठति, जाओ गं देवाणुप्पियाणं अन्नेसि य बहूणं विजयराजहाणिवत्थव्वाणं देवाणं देवीण य अच्चणिज्जाओ वंदणिज्जाओ पूणिज्जाओ सरकारणिज्जाओ सम्माणणिज्जाओ कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासणिज्जाओ। एतं गं देवाणुप्पियाणं पुस्वि पि सेयं, एतं गं देवाणुप्पियाणं पच्छावि सेयं, एवं गं वेवाणुप्पियाणं पुग्वि करणिज्ज पच्छा करणिज्जं एयं णं देवाणुप्पियाणं पुग्वि वा पच्छा वा जाव आणुगामियसाए मविस्सइ ति कट्ट महया महया जयजयस पउंजंति / [141] (1) उस काल और उस समय में विजयदेव विजया राजधानी की उपपातसभा में देवशयनीय में देवदूष्य के अन्दर अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण शरीर में विजयदेव के रूप में उत्पन्न हुआ। तब वह विजयदेव उत्पत्ति के अनन्तर (उत्पन्न होते ही) पांच प्रकार की पर्याप्तियों से पूर्ण हुआ / वे पांच पर्याप्तियां इस प्रकार हैं---१ आहारपर्याप्ति, 2 शरीरपर्याप्ति, 3 इन्द्रियपर्याप्ति 4 पानप्राणपर्याप्ति और 5 भाषामनपर्याप्ति / ' ___तदनन्तर पांच पर्याप्तियों से पर्याप्त हुए विजयदेव को इस प्रकार का अध्यवसाय, चिन्तन, प्रार्थित और मनोगत संकल्प उत्पन्न हग्रा-मेरे लिए पूर्व में क्या श्रेयकर है, पश्चात् क्या श्रेयस्कर है, मुझे पहले क्या करना चाहिए, मुझे पश्चात् क्या करना चाहिए, मेरे लिए पहले और बाद में क्या हितकारी, सुखकारी, कल्याणकारी, निःश्रेयस्कारी और परलोक में साथ जाने वाला होगा। वह इस प्रकार चिन्तन करता है। तदनन्तर उस विजयदेव की सामानिक पर्षदा के देव विजयदेव के उस प्रकार के अध्यवसाय, चिन्तन, प्रार्थित और मनोगत संकल्प को उत्पन्न हुआ जानकर जिस ओर विजयदेव था उस ओर वे आते हैं और प्राकर विजयदेव को हाथ जोड़कर, मस्तक पर अंजलि लगाकर जय-विजय से बधाते हैं। बधाकर वे इस प्रकार बोले हे देवानुप्रिय ! आपकी विजया राजधानी के सिद्धायतन में जिनोत्सेधप्रमाण एक सौ पाठ जिन प्रतिमाएं रखी हुई हैं और सुधर्मासभा के माणवक चैत्यस्तम्भ पर वज्रमय गोल मंजूषाओं में बहुत-सी जिन-अस्थियां रखी हुई हैं, जो आप देवानुप्रिय के और बहुत से विजया राजधानी के रहने वाले देवों और देवियों के लिए अर्चनीय, वन्दनीय, पूजनीय, सत्कारणीय, सम्माननीय हैं, जो कल्याणरूप, मंगलरूप, देवरूप, चैत्यरूप हैं तथा पर्युपासना करने योग्य हैं / यह प्राप 1. भाषा और मनःपर्याप्ति-एक साथ पूर्ण होने के कारण उनके एकत्व की विवक्षा की गई है। Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 402] [जीवाजीवाभिगमसूत्र देवानुप्रिय के लिए पूर्व में भी श्रेयस्कर है, पश्चात् भी श्रेयस्कर है; यह प्राप देवानुप्रिय के लिए पूर्व में भी करणीय है और पश्चात् भी करणीय है; यह आप देवानुप्रिय के लिए पहले और बाद में हितकारी यावत् साथ में चलने वाला होगा, ऐसा कहकर वे जोर-जोर से जय-जयकार शब्द का प्रयोग करते हैं। 141. [2] तए णं से विजए देवे तेसि सामाणियपरिसोपवण्णगाणं देवाणं अंतिए एयमट्ठ सोच्चा णिसम्म हटतुटु जाव हियए देवसयणिज्जाओ अम्भुलैंड, अम्भुद्धिता दिव्वं देवदूसजुयलं परिहेइ, परिहेइत्ता देवसयणिज्नाओ पच्चोरुहह, पच्चोरुहिता उववायसमाओ पुरथिमेण दारेण णिग्गच्छइ, णिग्गच्छित्ता जेणेव हरए तेणेव उवागच्छइ, उवाच्छित्ता हरयं अणुपयाहिणं करेमाणे करेमाणे पुरस्थिमेणं तोरणेणं अणुप्पविसइ, अणुप्यविसित्ता पुरस्थिमेणं तिसोवाणपडिरूवएणं पच्चोरुहति, पच्चोरुहित्ता हरयं ओगाहइ, ओगाहिता जलावगाहणं करेइ, करिता जलमज्जणं करेइ, फरेत्ता जलकिड्ड करेइ, करेत्ता आयंते चोक्खे परमसुइभूए हरमाओ पच्चुत्तरइ पच्चुत्तरित्ता जेणामेव अभिसेयसभा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अमिसेयसमं पदाहिणं करेमाणे पुरस्थिमिल्लेणं बारेण अणुपविसइ, अणुपविसित्ता जेणेव सए सीहासणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सीहासणवरगए पुरच्छाभिमुहे सण्णिसण्णे। [141] (2) उन सामानिक पर्षदा के देवों से ऐसा सुनकर वह विजयदेव हृष्ट-तुष्ट हुआ यावत् उसका हृदय विकसित हुआ / वह देवशयनीय से उठता है और उठकर देवदूष्य युगल धारण करता है, धारण करके देवशयनीय से नीचे उतरता है, उतर कर उपपातसभा से पूर्व के द्वार से बाहर निकलता है और जिधर ह्रद (सरोवर) है उधर जाता है, ह्रद की प्रदक्षिणा करके पूर्व दिशा के तोरण से उसमें प्रवेश करता है और पूर्व दिशा के त्रिसोपानप्रतिरूपक से नीचे उतरता है और जल में अवगाहन करता है / जलावगाहन करके जलमज्जन (जल में डुबकी लगाना) और जलक्रीडा करता है। इस प्रकार अत्यन्त पवित्र और शुचिभूत होकर हद से बाहर निकलता है और जिधर अभिषेकसभा है उधर जाता है। अभिषेकसभा की प्रदक्षिणा करके पूर्व दिशा के द्वार से उसमें प्रवेश करता है और जिस ओर सिंहासन रखा है उधर जाता है और पूर्वदिशा की ओर मुख करके सिंहासन पर बैठ जाता है / 141. [3] तए णं तस्स विजयदेवस्स सामाणियपरिसोववण्णगा देवा आभिओगिए देवे सहावेंति सद्दावेत्ता एवं बयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! विजयस्स देवस्स महत्थं महग्धं महरिहं विपुलं इंदाभिसेयं उवट्ठवेह / तए णं ते आभिनोगिया देवा सामाणियपरिसोक्वण्णगेहिं एवं वुत्ता समाणा हट्ट तुटू जाय हियया करतलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु एवं देवा! तहत्ति आणाए विणएणं वयणं पडिसुगंति, पडिसुणित्ता उत्तरपुरस्थिमं विसिमागं अवक्कमंति, अवक्कमित्ता वेउब्धियसमुग्घाएणं समोहणंति समोहणित्ता संखेज्जाइं जोयणाई दंडं णिस्सरंति, तहाविहे रयणाणं जाव रिट्ठाणं अहाबायरे पोग्गले परिसाउंति परिसाडित्ता अहासुहमे पोग्गले परियायंति परियाइत्ता दोच्चंपि वेटिवयसमुग्धाएणं समोहणंति समोहणित्ता अट्ठसहस्सं सोणियाणं कलसाणं, अट्ठसहस्सं रुप्पामयाणं कलसाणं, Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : विजयदेव का उपपात और उसका अभिषेक] [403 अट्ठसहस्सं मणिमयाणं, अटुसहस्सं सुवण्णरूप्पामयाणं अदुसहस्सं सुबण्णमाणिमयाणं अटुसहस्संरूप्पामणिमयाणं अट्ठसहस्सं भोमेज्जाणं अटुसहस्सं भिगारागाणं एवं आयंसगाणं थालाणं पाईणं सुपतिटकाणं चित्ताणं रयणकरंडगाणं पुप्फचंगेरीणं जाव लोमहत्थचंगेरीणं पुप्फपडलगाणं जाव लोमहत्थपडलगाणं अट्ठसयं सीहासणाणं छत्ताणं चामराणं अथपडगाणं (बट्टकाणं तवसिप्पाणं खोरकाणं पीणकाणं) तेलसमुग्गकाणं अट्ठसयं धूवकडच्छुयाणं विउच्वंति, ते साभाविए विउविए य कलसे य जाव धुवकडुच्छए य गेण्हंति, गेण्हित्ता विजयाओ रायहाणीओ पडिणिक्खमंति, पडिणिक्खमित्ता ताए उक्किट्ठाए जाव उद्धयाए दिव्वाए देवगईए तिरियमसंखेज्जाणं दीवसमुद्दाणं मज्झं मज्झेणं वीयोवयमाणा बीयीवयमाणा जेणेव खोरोवे समुद्दे तेणेव उवागच्छति / तेणेव उवागच्छित्ता खीरोदयं गिहिता जाई तत्थ उम्पलाई जाव सयसहस्सपत्ताई ताई गिण्हंति, गिण्हत्ता जेणेव पुक्खरोदे समुद्दे तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता पुक्खरोदगं गेहंति, पुक्खरोदगं गिण्हित्ता जाई तत्थ उप्पलाई जाव सयसहस्सपत्ताई ताई गिण्हति गिण्हित्ता जेणेव समयखेत्ते जेणेव भरहेरवयाई बासाइं जेणेव मागधवरदामपभासाइं तित्थाई तेणेव उवागच्छंति, तेणेव उवाच्छित्ता तित्थोदगं गिण्हंति, गिव्हित्ता तित्थमट्टियं गेण्हंति, गेण्हित्ता जेणेव गंगासिंधुरतारतबईसलिला तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता सरितोदगं गेहंति, गेण्हित्ता उभयो तडमट्टियं गेण्हंति गेण्हित्ता जेणेव चुल्लहिमवंत-सिहरिवासघरपव्वया तेणेव उवागच्छंति, तेणेव उवागच्छित्ता सव्वतुवरे य सम्यपुप्फे य सम्यगंधे य सम्वमल्ले य सम्वोसहिसिद्धस्थए गिण्हंति, गिण्हित्ता जेणेव पउमद्दह–पुंडरीयद्दहा तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छिसा बहोदगं गेण्हंति, जाई तत्थ उप्पलाई जाव सयसहस्सपत्ताई ताई गेण्हंति, ताई गेण्हिता जेणेव हेमवय-हेरण्यवयाई जेणेव रोहिय-रोहितंससुवण्णकल-रुष्पकलाओ तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता सलिलोदगं गेहंति, गेण्हिता उमओ तडमट्टियं गिण्हंति गेण्हिता जेणेव सद्दावातिमालवंतपरियागा वट्टवेतड्डपब्धया तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता सम्वतूबरे य जाव सव्वोसहिसिद्धत्थए य गेण्हंति, मेण्हित्ता जेणेव महाहिमवंत-रुप्पिवास. घरपव्यया तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता सव्वतुवरे य तं चेव जेणेव महापउमद्दह-महापुडरीयहहा तेणेव उवागच्छत्ति, तेणेव उवागच्छित्ता जाइं तत्थ उप्पलाइं तं चेव, जेणेव हरिवासे रम्मावासे त्ति जेणेव हरकत-हरिकंत परकंत-नारिकताओ सलिलाओ तेणेव उवागच्छंति, उधागच्छित्ता सलिलोदगं गेण्हंति, मेण्हित्ता जेणेव वियडावइ-गंधावइ वट्टवेयपव्वया तेणेव उवागच्छंति सव्वपुप्फे य तं चेव जेणेव णिसह-नीलवंत वासहरपव्वया तेणेव उवागच्छंति, सम्वतवरे य तहेव जेणेव तिगिच्छिवहकेसरिदहा तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता जाई तत्थ उप्पलाइं तं चेव, जेणेष पुन्वविदेहावरविदेहवासाई जेणेव सोया-सोयोदामो महाणईओ अहा गईओ, जेणेव सब्वचक्कवट्टिविजया जेणेव सम्वमागह-वरवामपभासाइं तित्थाई तहेव, जेणेव सव्ववक्खारपम्वया सव्वतवरे य, जेणेष सव्वंतरणदीओ सलिलोदगं गेव्हंति तं चेव / जेणेव मंवरे पव्वए जेणेव भद्दसालवणे तेणेव उवागच्छंति, सम्बतबरे जाव सम्बोसहिसिद्धत्थए गेण्हंति, गेण्हित्ता जेणेव गंदणवणे तेणेव उवागच्छंति, सव्वतवरे 1. कोष्टकान्तर्गत पाठ वृत्ति में नहीं है / Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 404] [जीवाजीवाभिगमसूत्र जाव सम्बोसहिसिद्धत्थए य सरसं गोसीसचंदणं गिण्हंति, गिहित्ता जेणेव सोमणसवणे तेणेव उवागच्छत्ति, उवागच्छित्ता सव्वतवरे य जाव सम्वोसहिसिद्धत्थए य सरसगोसीसचंदणं दिव्वं च सुमणवामं गेण्हंति, गेण्हित्ता जेणेव पंडगवणे तेणामेव समुवागच्छति समुवागच्छित्ता सम्वतुवरे जाव सव्वोसहिसिद्धथए सरसं य गोसीसचंदणं दिध्वं च सुमणोदामं दद्दरयमलयसुगंधिए य गंधे गेण्हंति, गेण्हित्ता एगओ मिलंति, मिलित्ता जंबुद्दीवस्स पुरथिमिल्लेणं वारेणं णिग्गच्छंति, निग्गच्छित्ता ताए उक्किट्ठाए जाय दिग्वाए देवगईए तिरियमसंखेज्जाणं दीवसमुद्दाणं मसं-मज्मेणं बीयीवयमाणा वोइवयमाणा जेणेव विजया रायहाणी तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता विजयं राजहाणि अणुप्पयाहिणं करेमाणा करेमाणा जेणेव अभिसेयसभा जेणेव विजए देवे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कट्ट जएणं विजएणं वद्वाति; विजयस्स देवस्स तं महत्वं महग्धं महरिहं विउलं अभिसेयं उपट्ठति / [141] (3) तदनन्तर उस विजयदेव की सामानिक पर्षद के देवों ने अपने आभियोगिक (सेवक) देवों को बुलाया और कहा कि हे देवानुप्रियो ! शीघ्र ही विजयदेव के महार्थ (जिसमें बहुत रत्नादिक धन का उपयोग हो), महाघ (महापूजा योग्य), महार्ष (महोत्सव योग्य) और विपुल इन्द्राभिषेक की तैयारी करो। तब वे पाभियोगिक देव सामानिक पर्षदा के देवों द्वारा ऐसा कहे जाने पर हृष्ट-तुष्ट हुए यावत् उनका हृदय विकसित हुआ। हाथ जोड़कर मस्तक पर अंजलि लगाकर 'देव ! आपकी आज्ञा प्रमाण है ऐसा कहकर विनयपूर्वक उन्होंने उस प्राज्ञा को स्वीकार किया। वे उत्तरपूर्व दिशाभाग में जाते हैं और वैक्रिय-समुद्घात से समवहत होकर संख्यात योजन का दण्ड निकालते हैं (अर्थात् आत्मप्रदेशों को शरीरप्रमाण बाहल्य में संख्यात योजन तक ऊंचे-नीचे दण्डाकृति में शरीर से बाहर निकालते हैं-फैलाते हैं) रत्नों के यावत् रिष्टरत्नों के तथाविध बादर पुद्गलों को छोड़ते हैं और यथासूक्ष्म पुद्गलों को ग्रहण करते हैं / तदनन्तर दुबारा वैक्रिय समुद्घात से समवहत होते हैं और एक हजार आठ सोने के कलश, एक हजार पाठ चांदी के कलश, एक हजार आठ मणियों के कलश, एक हजार पाठ सोने-चांदी के कलश, एक हजार आठ सोने-मणियों के कलश, एक हजार पाठ चांदीमणियों के कलश, एक हजार आठ मिट्टी के कलश, एक हजार पाठ झारियां, इसी प्रकार प्रादर्शक, स्थाल, पात्री, सुप्रतिष्ठक, चित्र, रत्नकरण्डक, पुष्पचंगेरियां यावत् लोमहस्तकचंगेरियां, पुष्पपटलक यावत् लोमहस्तपटलक, एक सौ आठ सिंहासन, छत्र, चामर, ध्वजा, (वर्तक, तपःसिप्र, क्षौरक, पीनक) तेलसमुद्गक और एक सौ आठ धूप के कडुच्छुक (धूपाणिये) अपनी विक्रिया से बनाते हैं। उन स्वाभाविक और वैक्रिय से निर्मित कलशों यावत् धूपकडुच्छुकों को लेकर विजया राजधानी से निकलते हैं और उस उत्कृष्ट यावत् उद्धत (तेज) दिव्य देवगति से तिरछी दिशा में असंख्यात द्वीप समुद्रों के मध्य से गुजरते हुए जहाँ क्षीरोदसमुद्र हैं वहाँ आते हैं और वहां का क्षीरोदक लेकर वहां के उत्पल, कमल यावत् शतपत्र-सहस्रपत्रों को ग्रहण करते हैं। वहाँ से पुष्करोदसमुद्र की ओर जाते हैं और वहाँ का पुष्करोदक और वहाँ के उत्पल, कमल यावत् शतपत्र, सहस्रपत्रों को लेते हैं / वहाँ से वे समयक्षेत्र में जहाँ भरत-ऐरवत वर्ष (क्षेत्र) हैं और जहाँ मागध, वरदाम और प्रभास तीर्थ हैं वहाँ प्राकर तीर्थोदक को ग्रहण करते हैं और तीर्थों की मिट्टी लेकर जहाँ गंगा-सिन्धु, रक्ता-रक्तवती महानदियाँ हैं, वहाँ आकर उनका जल ग्रहण करते हैं और नदीतटों की मिट्टी लेकर जहाँ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : विजयदेव का उपपात और उसका अभिषेक] [405 क्षुल्ल हिमवंत और शिखरी वर्षधर पर्वत हैं ऊधर आते हैं और वहाँ से सर्व ऋतुओं के श्रेष्ठ सब जाति के फूलों, सब जाति के गंधों, सब जाति के माल्यों (गूंथी हुई मालाओं),सब प्रकार की प्रौषधियों और सिद्धार्थकों (सरसों) को लेते हैं। वहाँ से पद्मद्रह और पूण्डरीकद्रह की ओर से द्रहों का जल लेते हैं और वहाँ के उत्पल कमलों यावत् शतपत्र-सहस्रपत्र कमलों को लेते हैं / वहाँ से हेमवत और हैरण्यवत क्षेत्रों में रोहित-रोहितांशा, सुवर्णकला और रूप्यकूला महानदियों पर आते हैं और वहाँ का जल और दोनों किनारों की मिट्टी ग्रहण करते हैं / वहाँ से शब्दापाति और माल्यवंत नाम के वट्टवैताढच पर्वतों पर जाते हैं और वहां के सब ऋतुओं के श्रेष्ठ फलों यावत् सौषधि और सिद्धार्थकों को लेते हैं / वहाँ से महाहिमवंत और रुक्मि वर्षधर पर्वतों पर जाते हैं, वहां के सब ऋतुओं के पुष्पादि लेते हैं। वहां से महापद्मद्रह और महापुंडरीकद्रह पर आते हैं वहाँ के उत्पल कमलादि ग्रहण करते हैं। वहाँ से हरिवर्ष रम्यकवर्ष की हरकान्त-हरिकान्त-नरकान्तनारिकान्त नदियों पर आते हैं और वहाँ का जल ग्रहण करते हैं / वहां से विकटापाति और गंधापाति वट्ट वैताढय पर्वतों पर आते हैं और सब ऋतुओं के श्रेष्ठ फूलों को ग्रहण करते हैं। वहां से निषध और नीलवंत वर्षधर पर्वतों पर पाते हैं और सब ऋतुओं के पुष्पादि ग्रहण करते हैं / वहां से तिगिछद्रह और केसरिद्रह पर पाते हैं और वहाँ के उत्पल कमलादि ग्रहण करते हैं / वहाँ से पूर्व विदेह और पश्चिम विदेह की शीता, शीतोदा महानदियों का जल और दोनों तट की मिट्टी ग्रहण करते हैं। वहां से सब चक्रवर्ती विजयों (विजेतव्यों) के सब मागध, वरदाम, और प्रभास नामक तीर्थों पर आते हैं और तीर्थों का पानी और मिट्टी ग्रहण करते हैं / वहां से सब वक्षस्कार पर्वतों पर जाते हैं। वहाँ के सब ऋतूमों के फल आदि ग्रहण करते हैं। वहाँ से सब अन्तर नदियों पर पाकर वहाँ का जल और तटों की मिट्टी ग्रहण करते हैं / इसके बाद वे मेरुपर्वत के भद्रशालवन में आते हैं / वहाँ के सर्व ऋतुओं के फूल यावत् सौंषधि और सिद्धार्थक ग्रहण करते हैं / वहाँ से नन्दनवन में आते हैं, वहाँ के सब ऋतुओं के श्रेष्ठ फूल यावत् सौंषधियां और सिद्धार्थक तथा सरस गोशीर्ष चन्दन ग्रहण करते हैं। वहाँ से सौमनसवन में प्राते हैं और सब ऋतुओं के फूल यावत् सर्वौषधियाँ, सिद्धार्थक और सरस गोशीर्ष चन्दन तथा दिव्य फूलों की मालाएं ग्रहण करते हैं / वहाँ से पण्डकवन में आते हैं और सब ऋतुओं के फूल, सौषधियाँ, सिद्धार्थक, सरस गोशीर्ष चन्दन, दिव्य फूलों की माला और कपडछन्न किया हुमा मलय-चन्दन का चूर्ण आदि सुगन्धित द्रव्यों को ग्रहण करते हैं / तदनन्तर सब ग्राभियोगिक देव एकत्रित होकर जम्बद्रीप के पूर्व दिशा के द्वार से निकलते हैं और उस उत्कृष्ट यावत दिव्य देवगति से चलते हुए तिरछी दिशा में असंख्यात द्वीप-समुद्रों के मध्य होते हुए विजया राजधानी में पाते हैं / विजया राजधानी की प्रदक्षिणा करते हुए अभिषेकसभा में विजयदेव के पास पाते हैं और हाथ जोड़कर, मस्तक पर अंजलि लगाकर जय-विजय के शब्दों से उसे बधाते हैं / वे महार्थ, महार्घ और महार्ह विपुल अभिषेक सामग्री को उपस्थित करते हैं। 141. [4] तते गं तं विजयदेवं चत्तारि य सामाणियसाहस्सीओ चत्तारि अग्गमहिसीओ सपरिवाराओ तिणि परिसायो सत्त अणीया सत्त अणीयाहिवई सोलस आयरक्खवेवसाहस्सीओ अन्न य बहवे विजयरायहाणिवत्थस्वगा वाणमंतरा देवा य देवीओ य तेहि साभाविएहि उत्तरवेउविएहि य वरकमलपइट्ठाणेहि सुरभिवरवारिपडिपुणेहि चंदणकयचच्चाएँहि आविद्धकंठगुणेहिं पउमुप्पलपिषाणेहिं करतलसुकुमालकोमलपरिग्गहिएहिं अट्ठसहस्साणं सोवणियाणं कलसाणं रुप्पमयाणं Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 406] [जीवाजीवामिगमसूत्र जाव अट्ठसहस्साणं भोमेज्जाणं कलसाणं सम्वोदएहि सम्धमट्टियाहिं सव्वसवरेहि सध्यपुप्फेहि जाव सदोसहिसिद्धत्थएहि सब्बिड्डीए सव्वजुईए सव्वबलेणं सध्वसमुदएणं सव्वायरेणं सव्यविमूईए सम्वविभूसाए सव्यसंभमेणं (सब्बारोहेणं सव्वणाडएहिं )' सव्वपुप्फगंधमल्लालंकारविमूसाए सम्वदिव्वतुडियणिणाएणं महया इड्डीए महया जुईए महया बलेणं महया समुदएणं महया तुरियममगसमगपड़प्पवाइतरवेणं संख-पणव-पडह-मेरि-मल्लरि-खरमुहि-हुडुक्क-मुरज-मुयंग-दुदुहि निग्धोससन्निनाइयरवेणं महया महया इंदाभिसेगेणं अभिसिंचंति / [141](4) तदनन्तर चार हजार सामानिक देव, सपरिवार चार अग्रमहिषियाँ, तीन पर्षदायों के (यथाक्रम पाठ हजार, दश हजार और बारह हजार) देव, सात अनीक, सात अनीकाधिपति, सोलह हजार प्रात्मरक्षक देव और अन्य बहुत से विजया राजधानी के निवासी देव-देवियां उन स्वाभाविक और उत्तरवैक्रिय से निर्मित श्रेष्ठ कमल के आधार वाले, सुगन्धित श्रेष्ठ जल से भरे हुए, चन्दन से चर्चित, गलों में मौलि बंधे हुए, पद्मकमल के ढक्कन वाले, सुकुमार और मृदु करतलों में परिगृहीत एक हजार पाठ सोने के, एक हजार पाठ चाँदी के यावत् एक हजार आठ मिट्टी के कलशों के सर्वजल से, सर्व मिट्टी से, सर्व ऋतु के श्रेष्ठ सर्व पुष्पों से यावत् सर्वौषधि और सरसों से सम्पूर्ण परिवारादि ऋद्धि के साथ, सम्पूर्ण द्युति के साथ, सम्पूर्ण हस्ती आदि सेना के साथ, सम्पूर्ण आभियोग्य समुदय (परिवार) के साथ, समस्त प्रादर से, समस्त विभूति से, समस्त विभूषा से, समस्त संभ्रम (उत्साह) से (सर्वारोहण सर्वस्वरसामग्री से सर्व नाटकों से) समस्त पुष्प-गंध-माल्यअलंकार रूप विभूषा से, सर्व दिव्य वाद्यों की ध्वनि से, महती (बहुत बड़ी) ऋद्धि, महती द्युति, महान् बल (सैन्य) महान् समुदय (आभियोग्य परिवार), महान् एक साथ पटु पुरुषों से बजाये गये वाद्यों के शब्द से, शंख, पणव (ढोल), नगाड़ा, भेरी, झल्लरी, खरमुही (काहला), हुडुक्क (बड़ा मृदंग), मुरज, मृदंग एवं दुंदुभि के निनाद और गूज के साथ उस विजयदेव को बहुत उल्लास के साथ इन्द्राभिषेक से अभिषिक्त करते हैं। 141. [5] तए णं तस्स विजयदेवस्स महया महया इंदाभिसेगंसि वट्टमाणसि अप्पेगइया देवा गच्चोदगं णातिमट्टियं पविरलफुसियं दिग्वं सुरभि रयरेणुविणासणं गंधोवगवासं वासंति / अप्पेगइया देवा णिहतरयं णटुरयं भट्टरयं पसंतरयं उवसंतरयं करेंति, अप्पेगइया देवा विजयं रायहाणि सभितरबाहिरियं आसित्तसम्मज्जितोवलितं सित्तसुइसम्मटुरत्यंतरावणवीहियं करेंति / अप्पेगइया देवा विजयं रायहाणि मंचातिमंचलियं करेंति, अप्पेगइया देवा विजयं रायहाणि गाणाविहरागरंजियकसिय जयविजयवेजयन्तीपडागाइपडागमंडियं करेंति / अप्पेगइया देवा विजयं रायहाणिलाउल्लोइयमहियं करेंति / अप्पेगइया देवा विजयं रायहाणि मोसीससरसरत्तचंदणवदरविण्णपंचंगुलितलं करेंति, अप्पेगइया देवा विजयं रायहाणि उवचियचंदणकलसं चंदणघडसुकयतोरणपडितुवारदेसभागं करेंति / अप्पेगइया देवा विजयं रायहाणि आसत्तोसत्तविपुलवट्टवग्धारियसल्लदामकलावं करेंति, अप्पेगइया देवा विजयं रायहाणि पंचवण्णसरससुरभिमुक्कपुष्फपुंजोवयारकलियं 1. 'सव्वारोहेण सणाडएहि' पाठ वृत्ति में नहीं है। . Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपति : विजयदेव का उपपात और उसका अभिषेक] [407 करेंति, अप्पेगड्या देवा कालागुरुपवरकुदरुक्कतरुक्कघवडज्झतमघमघेतगंधद्ध याभिरामं सुगंधवरगंधियं गंधवट्टिभूयं करेंति / अप्पेगइया देवा हिरण्णवासं वासंति, अप्पेगइया देवा सुवणवासं वासंति, अप्पेगइया देवा एवं रयणवासं वइरवासं पुप्फवासं मल्लवासं गंधवासं चुण्णवासं वत्थवासं आभरणवासं / अप्पेगइया देवा हिरण्णविधि भाइंति, एवं सुवणविधि रयणविधि वइरविधि पुष्फविधि मल्लविवि चुण्णविधि गंधविधि वत्थििध आभरणविधि भाइंति / अप्पेगइया देवा दुयं गट्टविधि उवदंसंति, अप्पेगइया विलंबितं गट्टविहि उबदसेंति, अप्पेगइया देवा दुयविलंबितं पट्टविधि उवदर्सेति, अप्पेगइया देवा अंचियं नट्टविधि उवदंसेंति, अप्पेगइया देवा रिभियं गट्टविधि उवदंसेंति, अप्पेगइया देवा अंचियरिभितं णाम दिग्वं गट्टविधि उवदंसेंति / अप्पेगइया देवा आरभडं गट्टविहिं उवदंसेंति, अप्पेगइया देवा भसोलं गट्टविहिं उपर्सेति, अप्पेइया देवा आरभडभसोलं णामं दिव्वं गट्टविहिं उवदंसेंति / अप्पेगइया देवा उप्पायणिवायपवुत्तं संकुचियपसारियं रियारियं भंतसंभंतं णाम दिव्वं नट्टविधि उवदंसेंति / अप्पेगइया देवा चम्विहं वाइयं वाति, तं जहा–ततं विततं घणं झुसिरं / अप्पेगइया देवा चउठिवहं गेयं गायंति, तं जहा--उक्खित्तयं, पवत्तयं, मंदाय, रोइयावसाणं / अप्पेगइया देवा चउटिवहं अभिणयं अमिणयंति, तं जहा-दिह्रतियं, पाउंतियं सामंतोपणिवाइयं, लोगमज्झावसाणियं। अप्पेगइया देवा पीणंति, अप्पेगइया देवा बक्कारेंति, अप्पेगइया देवा तंउति अप्पेगया देवा लासेंति, अप्पेगइया देवा पीगंति बुक्कारेंति तंडवेंति लासें ति, अप्पेगइया देवा अफोडंति, अप्पेगइया देवा वग्गति, अप्पेगइया देवा तिति छिदंति, अप्पेगइया देवा अप्फोति वग्गंति तिति छिदंति, अप्पेगहया देवा हयहेसियं करेंति, अप्पेगइया देवा हत्थिगुलगुलाइयं करेंति, अप्पेगइया देवा रहघणघणाइयं करेंति, अप्पेगइया देवा हयहेसियं करेंति हत्थिगुलगुलाइयं करेंति रहघणधणाइयं करेंति, अप्पेगइया देवा उच्छोलेंति, अप्पेगइया देवा पच्छोलेंति अप्पेगइया देवा उक्किटिओ करेंति, अप्पेगइया देवा उच्छोलेंति पच्छोलेंति उक्किट्ठिओ करेंति, अप्पेगइया देवा सीहणादं करेंति अप्पेगइया देवा पादवदरयं करेंति, अप्पेगइया देवा भूमिचवे दलयंति, अप्पेगइया देवा सोहणादं पादवद्दरयं भूभिचवेउं वलयंति, अप्पेगइया देवा हक्कारेंति अप्पेगइया देवा बुक्कारेंति अप्पेगइया देवा थक्कारेंति, अप्पेगइया वेवा पुक्कारेंति, अप्पेगइया देवा नामाइं सार्वति, अप्पेगइया देवा हक्कारेंति बुक्काति थक्कारेंति पुक्कारेंति णामाई सार्वति; अप्पेगइया देवा उप्पतंति अप्पेगइया देवा णिवयंति अप्पेगइया देवा परिवयंति अप्पेगइया देवा उप्पयंति णिवयंति परिवयंति, अप्पेगइया देवा जलंति अप्पेगहया देवा तवंति अप्पेगइया देवा पतवंति अप्पेगइया देवा जलंति तवंति पतवंति, अप्पेगइया देवा गज्जेंति आप्पेगइया देवा विज्जुयायंति अप्पेगइया देवा वासंति, अप्पेगइया देवा गज्जति विज्जयायंति वासंति, अप्पेगइया देवा सनिवार्य करेंति अप्पेगइया देवा देवुक्क लियं करेंति अप्पेगइया देवा देवकहकहं करेंति अप्पेगइया देवा दुहवुहं करेंति, अप्पेगइया देवा देवसनिवार्य देवउक्कलियं देवकहकहं देववुहदुहं Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जीवाजीवामियमसूत्र करेंति / अप्पेगइया देवा देवज्जोयं करेंति अप्पेगइया दवा विज्जुयारं करेंति अप्पेगइया देवा चेलमखेवं करति अप्पेगइया देवा वेधुज्जोयं विज्जुयारं चेलक्खेवं करेंति, अप्पेगइया देवा उप्पलहत्यगया जाव सहस्सपत्तहत्थगया घंटाहत्थगया-कलसहत्यगया जाव धवकडच्छगया हद्वतद्वा जाव हरिसवसविसप्पमाणहियया विजयाए रायहाणीए सव्वमो समंता आधाति परिषावेति / [141] (5) तदनन्तर उस विजयदेव के महान् इन्द्राभिषेक के चलते हुए कोई देव दिव्य सुगन्धित जल की वर्षा इस ढंग से करते हैं जिससे न तो पानी अधिक होकर बहता है, न कीचड़ होता है अपितु विरल बूंदोंवाला छिड़काव होता है / जिससे रजकण और धूलि दब जाती है / कोई देव उस विजया राजधानी को निहतरज बाली, नष्ट रज वाली, भ्रष्ट रज वाली, प्रशान्त रज वाली, उपशान्त, रज वाली बनाते हैं। कोई देव उस विजया राजधानी को अन्दर और बाहर से जल का छिडकाव कर, सम्मान (झाड़-बुहार) कर, गोमयादि से लीपकर तथा उसकी गलियों और बाजारों को छिड़काव से शुद्ध कर साफ-सुथरा करने में लगे हुए हैं। कोई देव विजया राजधानी में मंच पर मंच बनाने में लगे हुए हैं। कोई देव अनेक प्रकार के रंगों से रंगी हुई एवं जयसूचक विजयवैजयन्ती नामक पताकाओं पर पताकाएँ लगाकर विजया राजधानी को सजाने में लगे हुए हैं, कोई देव विजया राजधानी को चूना आदि से पोतने में और चंदरवा आदि बांधने में तत्पर हैं। कोई देव गोशीर्ष चन्दन, सरस लाल चन्दन और चन्दन के चूरे के लेपों से अपने हाथों को लिप्त करके पांचों अंगुलियों के छापे लगा रहे हैं / कोई देव विजया राजधानी के घर-घर के दरवाजों पर चन्दन के कलश रख रहे हैं / कोई देव चन्दन घट और तोरणों से घर-घर के दरवाजे सजा रहे हैं, कोई देव ऊपर से नीचे तक लटकने वाली बड़ी बड़ी गोलाकार पुष्पमालाओं से उस राजधानी को सजा रहे हैं, कोई देव पांच वर्गों के श्रेष्ठ सुगन्धित पुष्पों के पुंजों से युक्त कर रहे हैं, कोई देव उस विजया राजधानी को काले अगुरु उत्तम कुन्दुरुक्क एवं लोभान जला जलाकर उससे उठती हुई सुगन्ध से उसे मघमघायमान कर रहे हैं अतएव वह राजधानी अत्यन्त सुगन्ध से अभिराम बनी हुई है और विशिष्ट गन्ध की बत्ती सी बन रही है। कोई देव स्वर्ण की वर्षा कर रहे हैं, कोई चांदी की वर्षा कर रहे हैं, कोई रत्न को कोई वज्र की वर्षा कर रहे हैं, कोई फूल बरसा रहे हैं, कोई मालाएँ बरसा रहे हैं, कोई सुगन्धित द्रव्य, कोई सुगन्धित चूर्ण, कोई वस्त्र और कोई आभरणों की वर्षा कर रहे है। कोई देव हिरण्य (चांदी) बांट रहे हैं, कोई स्वर्ण, कोई रत्न, कोई वज्र, कोई फूल, कोई माल्य, कोई चूर्ण, कोई गंध, कोई वस्त्र और कोई देव प्राभरण बांट रहे हैं / (परस्पर आदान-प्रदान कर रहे हैं / ) कोई देव द्रुत नामक नाट्यविधि का प्रदर्शन करते हैं, कोई देव विलम्बित नाट्यविधि का प्रदर्शन करते हैं, कोई देव द्रुतविलम्बित नामक नाट्यविधि का प्रदर्शन करते हैं, कोई देव अंचित नामक नाट्यविधि, कोई रिभित नाट्यविधि, कोई अंचित-रिभित नाट्यविधि, कोई प्रारभट नाट्यविधि, कोई भसोल नाट्यविधि, कोई प्रारभट-भसोल नाट्यविधि, कोई उत्पात-निपातप्रवृत्त, संकुचित-प्रसारित, रेक्करचित (गमनागमन) भ्रान्त-संभ्रान्त नामक नाट्यविधियां प्रशित करते हैं। कोई देव चार प्रकार के वादित्र बजाते हैं। वे चार प्रकार ये हैं---तत, वितत, धन और झुषिर / कोई देव चार प्रकार के गेय गाते हैं / वे चार गेय ये हैं--उत्क्षिप्त, प्रवृत्त, मंद और रोचिता Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : विजयदेव का उपपास और उसका अभिषेक] [409 वसान। कोई देव चार प्रकार के अभिनय करते हैं। वे चार प्रकार हैं--दार्टान्तिक, प्रतिश्रुतिक, सामान्यतोविनिपातिक और लोकमध्यावसान / कोई देव स्वयं को पीन (स्थूल) बना लेते हैं-फुला लेते हैं, कोई देव ताण्डवनृत्य करते हैं, कोई देव लास्यनृत्य करते हैं, कोई देव छु-छु करते हैं, कोई देव उक्त चारों क्रियाएँ करते हैं, कई देव प्रास्फोटन (भूमि पर पैर फटकारना) करते हैं, कई देव वल्गन (कदना) करते हैं, कई देव त्रिपदीछेदन (ताल ठोकना) करते हैं, कोई देव उक्त तीनों क्रियाएँ करते हैं, कोई देव घोड़े की तरह हिनहिनाते हैं, कोई हाथी की तरह गुड़गुड़ आवाज करते हैं, कोई रथ की आवाज की तरह आवाज निकालते हैं, कोई देव उक्त तीनों तरह की आवाजें निकालते हैं, कोई देव उछलते हैं, कोई देव विशेष रूप से उछलते हैं, कोई देव उत्कृष्टि अर्थात् छलांग लगाते हैं, कोई देव उक्त तीनों क्रियाएँ करते हैं, कोई देव सिंहनाद करते हैं, कोई देव भूमि पर पांव से आघात करते हैं, कोई देव भूमि पर हाथ से प्रहार करते हैं, कोई देव उक्त तीनों क्रियाएँ करते हैं। कोई देव हक्कार करते हैं, कोई देव वुक्कार करते हैं, कोई देव थक्कार करते हैं, कोई देव पूत्कार (फूफ) करते हैं, कोई देव नाम सुनाने लगते हैं, कोई देव उक्त सब क्रियाएँ करते हैं। कोई देव ऊपर उछलते हैं, कोई देव नीचे गिरते हैं, कोई देव तिरछे गिरते हैं, कोई देव ये तीनों क्रियाएँ करते हैं / कोई देब जलने लगते हैं, कोई ताप से तप्त होने लगते हैं, कोई खूब तपने लगते हैं, कोई देव जलते-तपते-विशेष तपने लगते हैं, कोई देव गर्जना करते हैं, कोई देव बिजलियां चमकाते हैं, कोई देव वर्षा करने लगते हैं, कोई देव गर्जना, बिजली चमकाना और बरसाना तीनों काम करते हैं, कोई देव देवों का सम्मेलन करते हैं, कोई देव देवों को हवा में नचाते हैं, कोई देव देवों में कहकहा मचाते हैं, कोई देव हु हु हु हु करते हुए हर्षोल्लास प्रकट करते हैं, कोई देव उक्त सभी क्रियाएं करते हैं, कोई देव देवोद्योत करते हैं, कोई देवविद्युत् का चमत्कार करते हैं, कोई देव चेलोत्क्षेप (वस्त्रों को हवा में फहराना) करते हैं। कोई देव उक्त सब क्रियाएँ करते हैं। किन्हीं देवों के हाथों में उत्पल कमल हैं यावत् किन्हीं के हाथों में सहस्रपत्र कमल हैं, किन्हीं के हाथों में घंटाएँ हैं, किन्हीं के हाथों में कलश हैं यावत् किन्हीं के हाथों में धूप के कडुच्छक हैं। इस प्रकार वे देव हृष्ट-तुष्ट हैं यावत् हर्ष के कारण उनके हृदय विकसित हो रहे हैं / वे उस विजयाराजधानी में चारों ओर इधर-उधर दौड़ रहे हैं--भाग रहे है। विवेचनः-प्रस्तुत सूत्र में कतिपय नाट्यविधियों, वाद्यविधियों, गेयों और अभिनयों का उल्लेख है। राजप्रश्नोयसूत्र में सूर्याभ देव के द्वारा भगवान् श्री महावीर स्वामी के सन्मुख बत्तीस प्रकार की नाट्यविधियों का प्रदर्शन करने का उल्लेख है / वे बत्तीस नाट्यविधियाँ इस प्रकार हैं 1. स्वस्तिकादि अष्टमंगलाकार अभिनयरूप प्रथम नाट्यविधि / 2. आवर्त प्रत्यावर्त यावत् पद्मलताभक्ति चित्राभिनयरूप द्वितीय नाट्यविधि / 3. ईहामृगवृषभतुरगनर यावत् पद्मलताभक्ति चित्रात्मक तृतीय नाट्यविधि / 4. एकताचक्र द्विधा चक्र यावत् अर्धचक्रवालाभिनय रूप। 5. चन्द्रावलिप्रविभक्ति सूर्यावलिप्रविभक्ति यावत् पुष्पावलिप्रविभक्ति रूप / 6. चन्द्रोद्गमप्रविभक्ति सूर्योद्गमप्रविभक्ति अभिनयरूप / 7. चन्द्रागमन-सूर्यागमनप्रविभक्ति अभिनयरूप / Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 410] [जीवानीवाभिगमसूत्र 8. चन्द्रावरणप्रविभक्ति सूर्यावरणप्रविभक्ति अभिनय रूप / 9. चन्द्रास्तमयनविभक्ति सूर्यास्तमयनप्रविभक्ति अभिनय / 10. चन्द्रमण्डलप्रविभक्ति सूर्यमण्डलप्रविभक्ति यावत् भूतमण्डलप्रविभक्तिरूप अभिनय / 11. ऋषभमण्डलप्रविभक्ति सिंहमण्डलप्रविभक्ति यावत् मत्तगजविलम्बित अभिनय रूप द्रुतविलम्बित नाट्य विधि। 12. सागरप्रविभक्ति नागप्रविभक्ति अभिनय रूप / 13. नन्दाप्रविभक्ति चम्पाप्रविभक्ति रूप अभिनय / 14. मत्स्याण्डकप्रविभक्ति यावत् जारमारप्रविभक्ति रूप अभिनय / 15. ककारप्रविभक्ति यावत् डकारप्रविभक्ति रूप अभिनय / 16. चकारप्रविभक्ति यावत त्रकारप्रविभक्ति रूप अभिनय / 17. टकारप्रविभक्ति यावत णकारप्रविभक्ति / 18. तकारप्रविभक्ति यावत् नकारप्रविभक्ति / 19. पकारप्रविभक्ति यावत् मकारप्रविभक्ति / 20. अशोकपल्लवप्रविभक्ति यावत् कोशाम्बपल्लवप्रविभक्ति / 21. पद्मलताप्रविभक्ति यावत् श्यामलताप्रविभक्तिरूप अभिनय / 22. द्रुत नामक नाट्यविधि / 23. विलम्बित नामक नाट्यविधि / 24. द्रुतविलम्बित नामक नाट्यविधि / 25. अंचित नामक नाट्यविधि / 26. रिभित नामक नाट्यविधि / 27. अंचित रिभित नामक नाट्यविधि / 28. प्रारभट नामक नाट्यविधि / 29. भसोल नामक नाट्यविधि / 30. प्रारभट-भसोल नामक नाट्य विधि / 31. उत्पातनिपातप्रसक्त संकुचितप्रसारित रेकरचित (रियारिय) भ्रान्त-सम्भ्रान्त नामक नाट्यविधि / 32. चरमचरमनामानिबद्धनामा-भगवान् वर्धमान स्वामी का चरम पूर्व मनुष्यभव, चरम देवलोक भव, चरम च्यवन, चरम गर्भसंहरण, चरम तीर्थकर जन्माभिषेक, चरम बालभाव, चरम यौवन, चरम निष्क्रमण, चरम तपश्चरण, चरम ज्ञानोत्पाद, चरम तीर्थप्रवर्तन, चरम परिनिर्वाण को बताने वाला अभिनय / / उक्त बत्तीस प्रकार की नाट्यविधियों में से कुछ का ही उल्लेख इस सूत्र में किया गया है / वाय चार प्रकार के हैं-(१) तत---मृदंग, पटह आदि / (2) वितत वीणा आदि। (3) घन-कंसिका आदि / (4) शुषिर-बांसुरी (काहला) आदि / Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति :विजयदेव का उपपात और उसका अभिषेक] [411 गेय चार प्रकार के हैं (1) उत्क्षिप्त-प्रथम प्रारंभिक रूप / (2) प्रवृत्त-उत्क्षिप्त अवस्था से अधिक ऊंचे स्वर से गेय / (3) मन्दाय-मध्यभाग में मूर्छनादियुक्त मंद-मंद घोलनात्मक गेय / (4) रोचितावसान-जिस गेय का अवसान यथोचित रूप से किया गया हो। अभिनेय के चार प्रकार हैं (1) दार्टान्तिक (2) प्रतिश्रुतिक (3) सामान्यतोविनिपातिक और (4) लोकमध्यावसान / इनका स्वरूप नाट्यकुशलों द्वारा जानना चाहिए। 141. [5] तए णं तं विजयं देवं चत्तारि सामाणियसाहस्सोओ चत्तारि अग्गमहिसीओ सपरिवाराप्रो जाव सोलस आयरक्खदेवसाहस्सीओ अण्णे य बहवे विजयरायहाणीवत्थव्वा वाणमंतरा देवा य देवीओ य तेहिं बरकमलपट्ठाणेहिं जाव अट्ठसएणं सोवाग्णयाणं कलसाणं तं व जाव अट्ठसएणं भोमेज्जाणं कलसाणं सम्वोदगेहिं सव्वमट्टियाहिं सव्वतबरेहि सध्यपुष्हिं जाव सम्वोसहिसिद्धत्थएहिं सम्विड्डोए जाव निग्घोसनाइयरवेणं महया महया इंदामिसेएणं अभिसिंचंति / अभिसिंचिता पत्तेयं पत्तेयं सिरसावत्तं अंजलि कट्ट एवं वयासी-जय जय नंदा! जय जय भद्दा ! जय जय नंदभट्टा! ते अजियं जिणेहि जियं पालयाहि, अजितं जिणेहि सत्तुपक्खं, जितं पालेहि मित्तपवखं, जियमजो वसाहि तं देव ! निरुवसम्गं इंवो इव देवाणं, चंदो इव ताराणं, चमरो इव असुराणं, धरणो इव नागाणं, मरहो इव मणुयाणं बहूणि पलिओषमाइं बहूइं सागरोवमाणि चउण्हं सामाणियसाहस्सोणं नाव आयरक्खदेवसाहस्सीणं (विजयस्स देवस्स) विजयाए रायहाणीए अण्णेसि च बहूणं विजयरायहाणिवत्थव्वाणं वाणमंतराणं देवाण य देवीण य आहेवच्चं जाव आणाईसर सेणावच्चं करेमाणे पालेमाणे विहराहि ति कट्ट महया महया सद्देणं जय जय सई परांजंति। [141] (5) तदनन्तर वे चार हजार सामानिक देव, परिवार सहित चार अग्र महिषियाँ यावत् सोलह हजार प्रात्मरक्षक देव तथा विजया राजधानी के निवासी बहुत से वाणव्यन्तर देव-देवियां उन श्रेष्ठ कमलों पर प्रतिष्ठित यावत् एक सौ आठ स्वर्णकलशों यावत् एक सौ आठ मिट्टी के कलशों से, सर्वोदक से, सब मिट्टियों से, सब ऋतुओं के श्रेष्ठ फूलों से यावत् सर्वोषधियों और सिद्धार्थकों से सर्व ऋद्धि के साथ यावत् वाद्यों की ध्वनि के साथ भारी उत्सवपूर्वक उस विजयदेव का इन्द्र के रूप में अभिषेक करते हैं / अभिषेक करके वे सब अलग-अलग सिर पर अंजलि लगाकर इस प्रकार कहते हैं-हे नंद ! आपकी जय हो विजय हो ! हे भद्र ! आपकी जय-विजय हो! हे नन्द ! हे भद्र! आपकी जय-विजय हो। आप नहीं जीते हों को जीतिये, जीते हुओं का पालन करिये, अजित शत्रु पक्ष को जीतिये और विजितों का पालन कीजिये, हे देव ! जितमित्र पक्ष का पालन कीजिए और उनके मध्य में रहिए / देवों में इन्द्र की तरह, असुरों में चमरेन्द्र की तरह, नागकुमारों में धरणेन्द्र की तरह, मनुष्यों में भरत चक्रवर्ती की तरह आप उपसर्ग रहित हों! बहुत से पल्योपम और बहुत से सागरोपम तक चार हजार सामानिक देवों का, यावत् सोलह हजार प्रात्मरक्षक देवों का, इस विजया राजधानी का और इस राजधानी में निवास करने वाले अन्य बहुत-से वानव्यन्तर Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 412]] [जीवाजीवाभिगमसूत्र देवों और देवियों का आधिपत्य यावत् प्राज्ञा-ऐश्वर्य प्रौर सेनाधिपत्य करते हुए, उनका पालन करते हुए आप विचरें। ऐसा कहकर बहुत जोर-जोर से जय-जय शब्दों का प्रयोग करते हैं. जय-जयकार करते हैं। 142. [1] तए णं से विजए देवे महया महया इंदाभिसेएणं अभिसिते समाण सोहासणाओ अग्भुट्ठ इ, सोहासणाओ अग्मुट्टित्ता अभिसेयसभाओ पुरस्थिमेणं दारेणं पडिनिक्खमइ, पडिनिक्स मित्ता अणामेव अलंकारियसमा तेणेव उवागच्छद, उवागच्छित्ता अलंकारियसभं अणुप्पयाहिणी करेमाणे पुरस्थिमेणं दारेण अणुपविसइ, अणुपविसित्ता जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सोहासणवरगए पुरत्याभिमुहे सन्निसण्णे। तए णं तस्स विजयस्स देवस्स सामाणियपरिसोववण्णगा देवा आभिओगिए देवे सदाति, सहावित्ता एवं वयासी-खिप्पामेव देवाणुप्पिया! विजयस्स देवस्स अलंकारियं भंड उवणेह / तहेव ते अलंकारियं भंडं जाव उवट्ठति / तए गं से विजए देवे तप्पटमयाए पम्हलसूमालाए विवाए सुरिभीए गंधकासाईए गायाई लहेइ, गायाई लहिता सरसेणं गोसीसचंदणेणं गायाई अलिपइ, अलिपित्ता (तमोऽणंतरं च गं) नासाणीसासवायवोज्नं चक्षुहरं वण्णफरिसजुत्तं हयलालापेलवातिरेगं धवलं कणगखइयंतकम्म आगासफलिहसरिसप्पभं अहयं विश्वं देवदूसजुयलं णियंसेइ णियंसेत्ता हारं पिणद्धेइ, पिणिवेत्ता एवं एकावलि पिणखेइ, एवं एएणं आमिलावेणं मुत्तावलि रयणावलि कड़गाइं तुडियाई अंगयाइं केयूराइं दसमुद्दियाणंतकं कडिसुत्तकं (तेअस्थिसुत्तग) मुरवि कंठमुरवि पालंबंसि कुंडलाइं चूडामणि चित्तरयणुक्कडं मउडं पिणद्धेइ, पिणिद्धित्ता' गंठिमवेढिमपूरिमसंघाइमेणं चउठिवहेणं मल्लेणं कप्परक्खयंपिय अप्पाणं प्रलंकिय विभूसियं करेइ, करेत्ता बद्दरमलयसुगंधगंधिएहिं गं?हं गायाई सुविकडइ, सुक्किडित्ता दिग्वं च सुमणदामं पिणद्धइ / तए गं से विजए देवे केसालंकारेण वत्थालंकारेण मल्लालंकारेण आभरणालंकारेण घउम्विहेण अलंकारेणं विभूसिए समाणे पडिपुग्णालंकारे सीहासणाप्रो अम्भुढेइ, अम्भुट्टित्ता अलंकारियसभाओ पुरथिमिल्लेणं दारेणं पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणेव ववसायसभा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता ववसायसभं अणुप्पदाहिणं करेमाणे करेमाणे पुरथिमिल्लेणं वारेणं अणुपविसह, अपविसित्ता जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सीहासणवरगए पुरस्थाभिमुहे सण्णिसणे। तए णं तस्स विजयस्स देवस्स आहिओगिया देवा पोत्थयरयणं उवणेति / तए णं से विजए देवे पोत्थयरयणं गेण्हइ, मेण्हित्ता पोत्थयरयणं मुयइ, पोत्थयरयणं मुएता पोत्थयरयणं विहाडेइ, विहाडेत्ता पोत्थयरयणं वाएइ, वाएसा घम्मियं ववसायं पगेण्हइ, पगेण्हित्ता पोत्थयरयणं पडिणिक्खवेइ, पडिणिक्खवित्ता सीहासणाओ अग्भुढेइ, अम्भुद्वित्ता ववसायसहाओ पुरथिमिल्लेणं दारेणं पडिणिक्ख१. अत्र 'दिव्वं च सुमणदामं पिणद्धई' इत्येवं पाठः दृश्यते वृत्यनुसारेण / 'गंठिम० इत्यादि यावत् प्रलंकियविभूसियं करेइ करेता परिपुण्णालंकारे सीहासणाप्रो अब्भुट्ठई' एवंभूतो पाठः संभाव्यते वृत्तिव्याख्यानुसारेण / Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति :विजयदेव का उपपात और उसका अभिषेक [413 माइ, परिणिक्लमित्ता जेणेव गंवापुक्खरिणी तेणेव उवागच्छह, उवागच्छित्ता गंदं पुक्खरिणि अणुप्पयाहिणी करेमाणे पुरथिमिल्लेणं वारेणं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता पुरथिमिल्लेणं तिसोपाणपडिरूवगेणं पच्चोल्हइ, पच्चोरहित्ता हत्थं पायं पक्खालेइ, पक्खालित्ता एगं महं रययामयं विमलसलिलपुण्णं मत्तगयमहामुहागिइसमाणं भिंगारं पगिण्हह, भिंगारं पगिणिहत्ता जाई तत्थ उप्पलाइं पउमाई नाव सयपत्तसहस्सपत्ताई ताई मिण्हइ, गिहित्ता गंदाओ पुक्खरिणीओ पच्चत्तरेइ पच्चुत्तरित्ता जेणेव सिद्वायतणे तणेव पहारेत्थ गमणाए। [142] (1) तब वह विजयदेव शानदार इन्द्राभिषेक से अभिषिक्त हो जाने पर सिंहासन से उठता है और उठकर अभिषेकसभा के पूर्व दिशा के द्वार से बाहर निकलता है और अलंकारसभा की ओर जाता है और अलंकारसभा की प्रदक्षिणा करके पूर्व दिशा के द्वार से उसमें प्रवेश करता है / प्रवेश कर जिस ओर सिंहासन था उस ओर पाकर उस श्रेष्ठ सिंहासन पर पूर्व की ओर मुख करके बैठा / तदनन्तर उस विजयदेव की सामानिकपर्षदा के देवों ने पाभियोगिक देवों को बुलाया और ऐसा कहा-'हे देवानुप्रियो ! शीघ्र ही विजयदेव का आलंकारिक भाण्ड (सिंगारदान) लामो।' वे आभियोगिक देव पालंकारिक भाण्ड लाते हैं / तब विजयदेव ने सर्वप्रथम रोएंदार सुकोमल दिव्य सुगन्धित गंध काषायिक (तौलिये) से अपने शरीर को पोंछा / शरीर पोंछ कर सरस गोशीर्ष चन्दन से शरीर पर लेप लगाया / लेप लगाने के पश्चात् श्वास की वायु से उड़ जाय ऐसा, नेत्रों को हरण करने वाला, सुन्दर रंग और मृदु स्पर्श युक्त, घोड़े की लाला (लार) से अधिक मृदु और सफेद, जिसके किनारों पर सोने के तार खचित हैं, अाकाश और स्फटिकरत्न की तरह स्वच्छ, अक्षत ऐसे दिव्य देवदूष्य-युगल को धारण किया / तदनन्तर हार पहना, और एकावली, मुक्तावली, कनकावली और रत्नावली हार पहने, कड़े, त्रुटित (भुजबंद), अंगद (बाहु का प्राभरण) केयूर दसों अंगुलियों में अंगूठियाँ, कटिसूत्र (करधनी-कंदोरा), त्रि-अस्थिसूत्र (आभरण विशेष) मुरवी, कंठमुरवी, प्रालंब (शरीर प्रमाण स्वर्णाभूषण) कुण्डल, चूडामणि और नाना प्रकार के बहुत रत्नों से जड़ा हुआ मुकुटधारण किया। ग्रन्थिम, वेष्टिम, पूरिम और संघातिम-इस प्रकार चार तरह की मालाओं से कल्पवृक्ष की तरह स्वयं को अलंकृत और विभूषित किया। फिर दर्दर मलय चन्दन की सुगंधित गंध से अपने शरीर को सुगंधित किया और दिव्य सुमनरत्न (फूलों की माला) को धारण किया। तदनन्तर वह विजयदेव केशालंकार, वस्त्रालंकार, माल्यालंकार और आभरणालंकार-ऐसे चार अलंकारों से अलंकृत होकर और परिपूर्ण अलंकारों से सज्जित होकर सिंहासन से उठा और प्रालंकारिक सभा के पूर्व के द्वार से निकलकर जिस अोर व्यवसायसभा है, उस ओर आया। व्यवसायसभा की प्रदक्षिणा करके पूर्व के द्वार से उसमें प्रविष्ट हुआ और जहाँ सिंहासन था उस ओर जाकर श्रेष्ठ सिंहासन पर पूर्वाभिमुख होकर बैठा। तदनन्तर उस विजयदेव के आभियोगिक देव पुस्तकरत्न लाकर उसे अर्पित करते हैं। तब बह विजयदेव उस पुस्तकरत्न को ग्रहण करता है, पुस्तकरत्न को अपनी गोद में लेता है, पुस्तकरत्न को खोलता है और पुस्तकरत्न का वाचन करता है / पुस्तकरत्न का वाचन करके उसके धार्मिक मर्म को ग्रहण करता है (उसमें अंकित धर्मानुगत व्यवसाय को करने की इच्छा करता है)। तदनन्तर पुस्तकरत्न को वहाँ रखकर सिंहासन से उठता है और व्यवसायसभा के पूर्ववर्ती द्वार से बाहर निकल Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 414] [जीवाजोवाभिगमसूत्र कर जहाँ नन्दापुष्करिणी है, वहां पाता है। नंदापुष्करिणी की प्रदक्षिणा करके पूर्व के द्वार से उसमें प्रवेश करता है। पूर्व के त्रिसोपानप्रतिरूपक से नीचे उतर कर हाथ-पांव धोता है और एक बड़ी श्वेत चांदी की मत्त हाथी के मुख की प्राकृति की विमलजल से भरी हुई भारी को ग्रहण करता है और वहाँ के उत्पल कमल यावत् शतपत्र-सहस्रपत्र कमलों को लेता है और नंदापुष्करिणी से बाहर निकल कर जिस ओर सिद्धायतन है उस ओर जाने का संकल्प किया (उधर जाने लगा)। 142. [2] तए णं तस्स विजयदेवस्स चत्तारि सामाणियसाहस्सीओ जाव अण्णे य बहवे वाणमंतरा देवा य देवीमो य अप्पेगइया उप्पलहस्थगया जाव (सयसहस्सपत्त) हत्थगया विजयं देवं पिट्ठओ पिट्ठओ अणुगच्छति / तए गं तस्स विजयस्स देवस्स बहवे आभिनोगिया देवा य देवीओ य कलसहत्थगया जाव धूवकडच्छयहत्थगया विजयं देवं पिट्टओ पिट्टओ अणुगच्छंति। तए णं से विजए देवे चउहि सामाणियसाहस्सीहिं जाव प्रणेहि य बहूहि वाणमंतरेहिं देवेहि य देवीहि य सद्धि संपरिक्डे सम्विड्डीए सव्वज्जुईए जाव णिग्घोसणादियरवेणं जेणेव सिद्धाययणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सिद्धायतणं अगप्पयाहिणीकरेमाणे करेमाणे पुरथिमिल्लेणं वारेणं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता जेणेव देवच्छंदए तेणेव उवागच्छाई, उवागच्छित्ता आलोए जिणपडिमाणं पणामं करेइ, करिता लोमहत्थगं मेहति लोमहत्थगं गेण्हित्ता जिणपडिमाओ लोमहत्थएणं पमज्जति, पमज्जित्ता सुरभिणा गंधोदएणं व्हाणेइ हाणित्ता विश्वाए सुरमिगंधकासाइएणं गायाई लहेइ, लहिता सरसेणं गोसीसचंदणेणं गायाई अणुलिपह, अणुलिपित्ता जिणपडिमाणं अहयाई सेयाई दिवाई देवदूसजुयलाइ णियंसेइ, णियंसित्ता अग्गेहिं वरेहि य गंहि य मल्लेहि य अच्चेइ, अच्चित्ता पुष्फाहणं गंधारहणं मल्लारहणं वण्णारुणं चुण्णाहणं आभरणारहणं करेइ, करित्ता प्रासत्तोसत्त-विउल-बट्टवाधारियमल्लवामकला वं करेइ, करित्ता अच्छेहि सहेहिं (सेएहि) रययामरहिं अच्छरसातंदुलेहि जिणपडिमाणं पुरओ अट्ठमंगलए आलिहति सोस्थिय सिखिच्छ जाव दप्पणा, आलिहिता कयग्गाहगहियकरतलपम्मविप्पमुक्केणं वसद्धवण्णेणं कुसुमेणं मुक्कपुष्फ जोवयारकलियं करेइ, करेता चंदप्पभवइरवेरुलियविमलवंडं कंचणमणिरयणभत्तिचित्तं कालागुरुपवरकुदुरुक्कतुरुक्कधूवगंधुत्तमाणुविद्धं धूमदि विणिमुयंत वेरुलियामयं कईच्छुयं पग्गहित्तु पयत्तेणं धूवं दाऊण सत्तटुपयाइं ओसरइ ओसरित्ता जिणवराणं अट्ठसयविसुद्धगंथजुत्तेहि महावितेहि अत्थजुत्तेहिं अपुणरत्तेहिं संथुणइ, संणिसा वामं जाणु अंचेह, अंचित्ता दाहिणं जाणु धरणितलंसि णिवावेइ तिक्खुत्तो मुद्धाणं घराणियलंसि णमेई, णमित्ता ईसि पच्चुण्णमइ, पच्चुण्णमित्ता कडयतुडिययंभियाओ भयानो पडिसाहरइ, पडिसाहरित्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कट्ट एवं वयासी-'णमोत्णु णं अरिहंताणं भगवंताणं जाव सिद्धिगणामधेयं ठाणं संपत्ताणं' तिकट्ठ वंदति णमंसइ, वंदित्ता गमंसित्ता जेणेव सिद्धायतणस्स बहुमजसदेसभाए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता विश्वाए उदगधाराए अम्भुक्खइ, अम्मुक्खित्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं पंचंगुलितलेणं मंडलं आलिहइ, आलिहिता चच्चए क्लयइ, चच्चए बलइत्ता कयग्गाहगहियकरतलपग्भट्ठविमुक्केणं दसवण्णेणं कुसुमेणं मुक्कपुष्फयुजोवयारकलियं करेइ, करित्ता पूवं वलयह, दलइत्ता जेणेव सिद्धायतणस्स दाहिणिल्ले वारे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता लोमहत्थयं गेण्हइ, गेण्हित्ता Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुतीय प्रतिपत्ति: विजयदेव का उपपात और उसका अभिषेक [415 दारचेडीओ य सालमंजियाओ य वालरूवए य लोमहत्थएणं पमज्जद, पमज्जित्ता बहुमज्झदेसभाए सरसेणं गोसोसचंदणेणं पंचंगुलितलेणं अणुलिपइ, अलिपित्ता चच्चइ दलयइ, दलइत्ता पुप्फारहणं जाब आभरणावहणं करेइ, करिता आसत्तोसत्तविउलवट्टयग्घारियमल्लवामकलावं करेइ, करित्ता कयग्गाहगहिय जाब पुष्फयुजोक्यारकलियं करेइ, करेत्ता धूवं दलयइ, वलइत्ता जेणेव मुहमंडवस्स बहुमजसदेसभाए तेणेव उवागच्छद, उवागच्छिसा बहुमजसदेसमाए लोमहत्थेणं पमज्जइ, पमज्जिता दिवाए उवगधाराए अम्भुक्खेइ, अम्भक्खिता सरसेण गोसीसचंदणेणं पंचंगुलितलेणं मंडलगं आलिहइ, मालिहिता चच्चए बलयह, कयग्गाह० जाव पूर्व दलयइ, दलहत्ता जेणेव मुहमंडवगस्स पच्चस्थिमिल्ले बारे तेणेव उवागच्छा। [142] (2) तदनन्तर विजयदेव के चार हजार सामानिक देव यावत् और अन्य भी बहुतसारे वानव्यन्तर देव और देवियां कोई हाथ में उत्पल कमल लेकर यावत् कोई शतपत्र सहस्रपत्र कमल हाथों में लेकर विजयदेव के पीछे-पीछे चलते हैं / उस विजयदेव के बहुत सारे आभियोगिक देव और देवियां कोई हाथ में कलश लेकर यावत् धूप का कडुच्छुक हाथ में लेकर विजयदेव के पीछे-पीछे चलते हैं। तब वह विजयदेव चार हजार सामानिक देवों के साथ यावत् अन्य बहुत-सारे वानव्यन्तर देवों और देवियों के साथ और उनसे घिरे हुए सब प्रकार की ऋद्धि और सब प्रकार की युति के साथ यावत् वाद्यों की गूजती हुई ध्वनि के बीच जिस ओर सिद्धायतन था, उस ओर पाता है और सिद्धायतन की प्रदक्षिणा करके पूर्वदिशा के द्वार से सिद्धायतन में प्रवेश करता है और जहां देवछंदक था वहाँ पाता है और जिन प्रतिमाओं को देखते ही प्रणाम करता है। फिर लोमहस्तक लेकर जिन प्रतिमाओं का प्रमार्जन करता है और सुगंधित गंधोदक से उन्हें नहलाता है, दिव्य सुगंधित गंधकाषायिक (तौलिए) से उनके अवयवों को पोंछता है, सरस गोशीर्ष चन्दन का उनके अंगों पर लेप करता है, फिर जिनप्रतिमानों को अक्षत, श्वेत और दिव्य देवदूष्य-युगल पहनाता है और श्रेष्ठ, प्रधान गंधों से, माल्यों से उन्हें पूजता है। पूजकर फूल चढ़ाता है, गंध चढ़ाता है, मालाएँ चढ़ाता है-वर्णक (केसरादि) चूर्ण और आभरण चढ़ाता है / फिर ऊपर से नीचे तक लटकती हुई, विपुल और गोल बड़ी-बड़ी मालाएँ चढ़ाता है / तत्पश्चात् स्वच्छ, सफेद, रजतमय और चमकदार चावलों से जिन माओं के आगे पाठ-पाठ मंगलों का आलेखन करता है / वे पाठ मंगल हैं-स्वस्तिक, श्रीवत्स यावत् दर्पण / पाठ मंगलों का पालेखन करके कचग्राह से गृहीत और करतल से मुक्त होकर बिखरे हुए पांच वर्षों के फूलों से पुष्पोपचार करता है (फूल पूजा करता है) / चन्द्रकान्त मणि-वज्रमणि और बैडूर्यमणि से युक्त निर्मल दण्ड वाले, कंचन-मणि और रत्नों से विविधरूपों में चित्रित, काला अगुरु श्रेष्ठ कुंदरुक्क और लोभान के धूप की उत्तम गंध से युक्त, धूप की वाती को छोड़ते हुए वैडर्यमय कडुच्छक को लेकर सावधानी के साथ धूप देकर सात आठ पांव पीछे सरक कर जिनवरों की एक सौ आठ विशुद्ध ग्रन्थ (शब्द संदर्भ) युक्त, महाछन्दों वाले, अर्थयुक्त और अपुनरुक्त स्तोत्रों से स्तुति करता है / स्तुति करके बायें घुटने को ऊंचा रखकर तथा दक्षिण (दायें) घुटने को जमीन से लगाकर तीन बार अपने मस्तक को जमीन पर नमाता है, फिर थोड़ा ऊँचा उठाकर अपनी कटक और त्रुटित (बाजुबंद) से स्तंभित भुजाओं को संकुचित कर हाथ जोड़ कर, मस्तक पर अंजलि करके इस प्रकार बोलता है-'नमस्कार हो अरिहन्त भगवन्तों को यावत जो सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त हुए Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जीवाजीवाभिगमसूत्र हैं।' ऐसा कहकर वन्दन करता है, नमस्कार करता है / वन्दन-नमस्कार करके जहाँ सिद्धायतन का मध्यभाग है वहाँ पाता है और दिव्य जल की धारा से उसका सिंचन करता है, सरस गोशीर्ष चन्दन से हाथों को लिप्तकर पांचों अंगुलियों से एक मंडल बनता है, उसकी अर्चना करता है और कचग्राह ग्रहीत और करतल से विमुक्त होकर बिखरे हुए पांच वर्षों के फूलों से उसको पुष्पोपचारयुक्त करता है और धूप देता है। धूप देकर जिधर सिद्धायतन का दक्षिण दिशा का द्वार है उधर जाता है / वहां जाकर लोमहस्तक लेकर द्वार शाखा, शालभंजिका तथा व्यालरूपक का प्रमार्जन करता है, उसके मध्यभाग को सरस गोशीर्ष चन्दन से लिप्त हाथों से लेप लगाता है, अर्चना करता है, फूल चढ़ाता है, यावत् प्राभरण चढ़ाता है, ऊपर से लेकर जमीन तक लटकती बड़ी बड़ी मालाएँ रखता है और कचग्राह ग्रहीत और करतल विप्रमुक्त फूलों से पुष्पोपचार करता है, धूप देता है और जिधर मुखमण्डप का बहुमध्यभाग है वहां जाकर लोमहस्तक से प्रमार्जन करता है, दिव्य उदकधारा से सिंचन करता है, सरस गोशीर्ष चन्दन से लिप्त पंचागुलितल से मण्डल का आलेखन करता है, अर्चना करता है, कचग्राहग्रहीत और करतलविमुक्त होकर बिखरे हुए पांचों वर्गों के फूलों का ढेर लगाता है, धूप देता है और जिधर मुखमण्डप का पश्चिम दिशा का द्वार है, उधर जाता है। 142. [3] उवागच्छित्ता लोमहत्थगं गेण्हइ, मेण्हित्ता दारचेडीओ य सालभंजियाओ य वालरूवए य लोमहत्थगेणं पमज्जइ, पमज्जित्ता दिव्वाए उदगधाराए अब्भुक्लेइ, अग्भुक्खित्ता सरसेणं गोसीसचंदणणं जाव चच्चए दलयह, दलइत्ता आसतोसत्त० कयग्गाह० धूवं इलयइ, धूवं वलइत्ता जेणेव मुहमंडवगस्स उत्तरिल्लाणं खंभपंती तेणेव उवागच्छद, उवागच्छित्ता लोमहत्थगं परामुसइ, सालभंजियाओ दिव्वाए उदगधाराए. सरसेणं गोसीसचंदणेणं पुप्फाहणं जाव आसत्तोसत्त० कयग्गाह० धूवं दलयइ, जेणेव मुहमंडवस्स पुरथिमिल्ले दारे तं चैव सव्वं भाणियव्वं जाव दारस्स अच्चणिया। जेणेव दाहिणिल्ले वारे तं चेव पेच्छाघरमंडवस्स बहुमज्झदेसभाए जेणेव वइरामए अक्खाइए जेणेव मणिपेढिया जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छद, उवागच्छित्ता लोमहत्थगं गिण्हइ, गिहिता अक्खाडगं य सोहासणं य लोमहत्थगेण पमज्जइ, पमज्जित्ता विश्वाए उदगधाराए अम्भुक्खेइ० पुप्फारहणं जाव घवं दलयइ / जेणेव पेच्छाधरमण्डवस्स पच्चस्थिमिल्ले दारे वारच्चणिया उत्तरिल्ला खंभपंती तहेव पुरस्थिमिल्ले दारे तहेव जेणेव वाहिणिल्ले वारे तहेव जेणेव चेइयथूभे तेणेव उवागच्छा, उवागच्छित्ता लोमहत्थगं गेण्हइ, गेण्हित्ता चेहयथभं लोमहत्येणं पमज्जइ, दिव्याए वगधाराए० सरसेणं० पुष्फारहणं आसत्तोसत्त० जाव धूवं दलयइ, दलयित्ता जेणेव पच्चथिमिल्ला मणिपेढिया जेणेव जिणपडिमा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता आलोए पणामं करेइ, करिता लोमहत्थं गेण्हइ, गेण्हित्ता तं चेव सव्वं जं जिगपडिमाणं जाव सिद्धगइनामधेयं ठाणं संपत्ताणं वंदति णमंसह / एवं उत्तरिल्लाए वि, एवं पुरथिमिल्लाए वि, एवं वाहिणिल्लाए वि / जेणेव चेयरुक्खा बारविही य मणिपेढिया जेणेव महिंदज्झए दारविही, जेणेव दाहिणिल्ला नंदा पुक्खरिणी तेणेव उवागच्छद, लोमहत्थगं गेण्हइ, चेइयाओ य तिसोवाणपडिरूवए य तोरणे य सालभंजियाओ य वालरूवए य लोमहत्थगेण पमज्जद्द, दिग्वाए दगवाराए सिंचइ सरसेणं गोसीसचंदणेणं अणुलिपइ, पुप्फारहणं जाव धूवं इलयइ, दलइत्ता सिद्धायतणं अणुप्पयाहिणं करेमाणे जेणेव उत्तरिल्ला गंदा पुक्खरिणी तेणेव उवागच्छद, तहेव Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततीय प्रतिपति : विजयदेव का उपपात और उसका अभिषेका [417 महिंदज्मया चेइयरुक्खो चेइयथूभो, पच्चस्थिमिल्ला मणिपेडिया जिणपडिमा उत्तरिल्ला पुरथिमिल्ला वक्खिणिल्ला पेच्छाधरमंडवस्स वि तहेव जहा दक्खिणिल्लस्स पच्चस्थिमिल्ले वारे जाव दक्खिणिल्ला णं खंभपंतो मुहमंडवस्स वि तिहं दाराणं अच्चणिया भाणिऊणं दक्खिणिल्लाणं खंभपंती उत्तरे दारे पुरच्छिमे दारे सेसं तेणेव कमेण जाव पुरथिमिल्ला गंदायुक्खरिणी जेणेव सभा सुहम्मा तेणेव पहारेत्य गमणाए। [142] (3) (मुखमण्डप के पश्चिम दिशा के द्वार पर) पाकर लोमहस्तक लेता है और द्वारशाखाओं, शालभंजिकानों और व्यालरूपक का लोमहस्तक से प्रमार्जन करता है, दिव्य उदकधारा से सिंचन करता है. सरस गोशीर्ष चन्दन का लेप करता है यावत् अर्चन करता है, ऊपर से नीचे तक लम्बी लटकती हुई बड़ी-बड़ी मालाएँ रखता है, कचग्राहग्रहीत करतलविमुक्त पांच वर्गों के फूलों से पुष्पोपचार करता है, धूप देता है। फिर मुखमंडप की उत्तर दिशा की स्तंभपंक्ति की अोर जाता है, लोमहस्तक से शालभंजिकाओं का प्रमार्जन करता है, दिव्य जलधारा से सिंचन करता है, सरस गोशीर्ष चन्दन का लेप करता है, फूल चढ़ाता है यावत् बड़ी-बड़ी मालाएँ रखता है, कचनाहग्रहीत करतलविमक्त होकर बिखरे हुए फलों से पष्पोपचार करता है. धप देता है। फिर म के द्वार को प्रोर जाता है और वह सब कथन पूर्ववत् करना चाहिए यावत् द्वार की अर्चना करता है / इसी तरह दक्षिण दिशा के द्वार में वैसा ही कथन करना चाहिए / फिर प्रेक्षाघरमण्डप के बहुमध्यभाग में जहाँ बज्रमय अखाडा है, जहां मणिपीठिका है, जहाँ सिंहासन है वहाँ पाता है, लोमहस्तक लेता है, अखाडा, मणिपीठिका और सिंहासन का प्रमार्जन करता है, उदकधारा से सिंचन करता है, फूल चढ़ाता है यावत् धूप देता है। फिर प्रेक्षाघरमण्डप के पश्चिम के द्वार में द्वारपूजा, उत्तर की खंभपंक्ति में वैसा ही कथन, पूर्व के द्वार में वैसा ही कथन, दक्षिण के द्वार में भी वही कथन करना चाहिए / फिर जहाँ चैत्यस्तूप है वहाँ पाता है, लोमहस्तक से चैत्यस्तूप का प्रमार्जन, उदकधारा से सिंचन, सरस चन्दन से लेप, पुष्प चढाना, मालाएँ रखना, धप देना आदि विधि करता है। फिर पश्चिम की मणिपीठिका और जिनप्रतिमा है वहाँ जाकर जिनप्रतिमा को देखते ही नमस्कार करता है, लोमहस्तक से प्रमार्जन करता है आदि कथन यावत् सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त अरिहन्त भगवंतों को वन्दन करता है, नमस्कार करता है / इसी तरह उत्तर की, पूर्व की और दक्षिण की मणिपीठिका और जिनप्रतिमाओं के विषय में भी कहना चाहिए / फिर जहाँ दाक्षिणात्य चैत्यवृक्ष है वहाँ जाता है, वहाँ पूर्ववत् अर्चना करता है, वहाँ से महेन्द्रध्वज के पास आकर पूर्ववत् अर्चना करता है। वहाँ से दाक्षिणात्य नंदापुष्करिणी के पास आता है, लोमहस्तक लेता है और चैत्यों, त्रिसोपानप्रतिरूपक, तोरण, शालभंजिकाओं और व्यालरूपकों का प्रमार्जन करता है, दिव्य उदकधारा से सिंचन करता है, सरस गोशीर्ष चन्दन से लेप करता है, फूल चढ़ाता है यावत् धूप देता है। तदनन्तर सिद्धायतन की प्रदक्षिणा करता हुआ जिधर उत्तर दिशा की नंदापुष्करिणी है उधर जाता है / उसी तरह महेन्द्रध्वज, चैत्यवृक्ष, चैत्यस्तूप, पश्चिम की मणिपीठिका और जिनप्रतिमा, उत्तर, पूर्व और दक्षिण की मणिपीठिका और जिनप्रतिमाओं का कथन करना चाहिए / तदनन्तर उत्तर के प्रेक्षाघरमण्डप में आता है, वहाँ दक्षिण के प्रेक्षागृहमण्डप की तरह सब कथन करना चाहिए / वहाँ से उत्तरद्वार से निकलकर उत्तर के मुखमण्डप में आता है। वहाँ दक्षिण के मुखमण्डप की भांति सब विधि करके उत्तर द्वार से निकल कर सिद्धायतन के पूर्वद्वार पर आता है। वहाँ पूर्ववत् अर्चना करके पूर्व के मुखमण्डप Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 418] [जीवानीवाभिगमसूत्र के दक्षिण, उत्तर और पूर्ववर्ती द्वारों में क्रम से पूर्वोक्त रीति से पूजा करके पूर्वद्वार से निकल कर पूर्वप्रेक्षामण्डप में आकर पूर्ववत् अर्चना करता है। फिर पूर्व रीति से क्रमश: चैत्यस्तूप, जिनप्रतिमा, चैत्यवृक्ष, माहेन्द्रध्वज और नन्दापुष्करिणी की पूजा-अर्चना करता है। वहाँ से सुधर्मा सभा की ओर आने का संकल्प करता है। 142. [4] तए णं तस्स विजयस्स देवस्स चत्तारि सामाणियसाहस्सोओ एयप्पभिई जाव सव्विड्डीए जाव गाइयरवेणं जेणेव सभा सुहम्मा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तं गं सभं सुहम्म अणुप्पयाहिणीकरेमाणे पुरथिमिल्लेणं अणुपविसइ, अनुपविसित्ता मालोए जिणसकहाणं पणाम करेइ, करित्ता जेणेव मणिपेढिया जेणेव माणवचेइयखंभे जेणेव वइरामया गोलबट्टसमुग्गका तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता लोमहस्थयं गेण्हइ, गेण्हित्ता वइरामए गोलवट्टसमुग्गए लोमहत्थएण पमज्जइ, पज्जित्ता वइरामए गोलवट्टसमुग्गए विहाडेइ, विहाडित्ता जिगसकहानो लोमहत्थेणं पमज्जइ, पमज्जित्ता सुरभिणा गंधोदगेणं तिसत्तखुत्तो जिणसकहाओ पक्खालेह, पक्खालित्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं अणुलिपइ अणुलिपित्ता अग्गेहि वरेहिं गंधेहि मल्लेहि य अस्चिणइ, अच्चिणित्ता धूवं वलया, दलइत्ता वइरामएसु गोलवट्टसमुग्गएसु पडिणिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता. माणवकं चेइयखंभं लोमहत्थएणं पमज्जइ, पमज्जित्ता दिवाए उदगधाराए अम्भुक्लेइ, अम्भुक्खिता सरसेणं गोसीसचंदणेणं चच्चए वलयइ, वलइत्ता पुष्फारहणं जाव आसत्तोसत्त० कयग्गाह० धूवं दलयइ, दलइत्ता जेणेव सभाए सुहम्माए बहुमझदेसभाए तं चेव, जेणेव सोहासणे तेणेव जहा बारच्चणिया जेणेव देवसयणिज्जे तं चेव, जेणेव खुड्डागे महिंदज्झए तं चेव, जेणेव पहरणकोसे चोप्पाले तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पत्तेयं पत्तेयं पहरणाई लोमहत्थएणं पमज्जइ, पमज्जित्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं तहेव सव्व सेसं पि दक्खिणदारं आदिकाउं तहेव गेयध्वं जाव पुरच्छिमिल्ला गंवापुक्खरिणी। सम्वाणं सभाणं जहा सुहम्माए सभाए तहा अच्चणिया उपवायसभाए गवरि देवसयणिज्जस्स अच्चणिया, सेसासु सोहासणाण अणिया, हरयस्स जहा गंदाए पुक्खरिणीए अच्चणिया, ववसायसमाए पोत्थयरयणं लोभ० दिव्वाए उदगधाराए सरसेणं गोसीसचंदणेणं अलिपइ, अग्गेहि वरेहि गंधेहि य मल्लेहिं य अच्चिणइ, अच्चिणिता सीहासणे लोमहत्थएणं पमज्जइ जाय धूवं दलयइ सेसं तं चेव, गंवाए जहा हरयस्स तहा जेणेव बलिपीढं तेणेव उवागच्छइ, उवामच्छित्ता आभिओगिए देवे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं क्यासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! विजयाए रायहाणीए सिंघाडगेसु य चउक्केसु य पच्चरेसु य चउम्मुहेसु य महापहपहेसु य पासाएसु य पागारेसु य अट्टालएसु य चरियासु य दारेसु य गोपुरेसु य तोरणेसु य वावीसु य पुक्खरिणीसु य जाब बिलपंतियासु य आरामेसु य उज्जाणेसु य काणणेसु य वणेसु य वणसंडेसु य वणराईसु य अच्चणियं करेह करिता ममेयमाणत्तियं खिप्पामेव पच्चप्पिणह / तए णं ते आभिओगिआ देवा विजएणं देवेणं एवं वृत्ता समाणा जाव हट्टतटा विणएणं पडिसुणंति, पडिसुणित्ता विजयाए रायहाणीए सिंघाडगेसु य जाव अच्चणियं करेता जेणेव विजए देवे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता एयमाणत्तियं पच्चप्पिणंति / Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : विजयदेव का उपपात और उसका अभिषेक] [419 तए गं से विजए देवे तेसिणं आभिमोगियाणं देवाणं अंतिए एयमलैं सोच्चा णिसम्म हट्टत?चित्तमाणदिए जाव हयहियए जेणेव नंदापुक्खरिणी तेणेव उवागच्छइ, उवागरिछत्ता पुरस्थिमिल्लेणं तोरणेणं जाव हत्थपायं पक्खालेइ, पक्खालित्ता आयंते चोक्खे परमसुइभूए णंदापुक्खरिणीओ पच्चत्तरइ, पच्चुत्तरित्ता जेणेव सभा सुहम्मा तेणेव पहारेस्थ गमणाए। तए णं विजए देवे चउहिं सामाणियसाहस्सीहिं जाय सोलसहि प्रायरक्खदेवसाहस्सोहिं सविडोए जाय णिग्घोसणादियरवेणं जेणेव सभा सुहम्मा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सभं सुहम्मं पुरथिमिल्लेणं दारेणं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता जेणेव मणिपेढिया तेणेव उवागच्छा, उवागच्छित्ता सोहासणवरगए पुरच्छिमाभिमुहे सण्णिसण्णे / [142] (4) तब वह विजयदेव अपने चार हजार सामानिक देवों आदि अपने समस्त परिवार के साथ, यावत् सब प्रकार की ऋद्धि के साथ वाद्यों की ध्वनि के बीच सुधर्मा सभा की ओर आता है और उसकी प्रदक्षिणा करके पूर्वदिशा के द्वार से उसमें प्रवेश करता है / प्रवेश करने पर जिन-अस्थियों को देखते ही प्रणाम करता है और जहाँ मणिपीठिका है, जहाँ माणवक चैत्यस्तंभ है और जहाँ वज्ररत्न की गोल वर्तुल मंजूषाएँ हैं, वहाँ पाता है और लोमहस्तक लेकर उन गोल-वर्तुलाकार मंजूषाओं का प्रमार्जन करता है और उनको खोलता है, उनमें रखी हुई जिन-अस्थियों का लोमहस्तक से प्रमार्जन कर सुगन्धित गन्धोदक से इक्कीस बार उनको धोता है, सरस गोशीष चन्दन कालेप करता है, प्रधान और श्रेष्ठ गंधों और मालाओं से पूजता है और धूप देता है / तदनन्तर उनको उन गोल वर्तुलाकार मंजूषाओं में रख देता है / इसके बाद माणवक चैत्यस्तंभ का लोमहस्तक से प्रमार्जन करता है, दिव्य उदकधारा से सिंचन करता है, सरस गोशीर्ष चन्दन का लेप करता है, फूल चढ़ाता है, यावत् लम्बी लटकती हुई फूलमालाएँ रखता है, कचग्राहग्रहीत और करतल से विमुक्त हुए बिखरे पांच वर्षों के फूलों से पुष्पोपचार करता है, धूप देता है / इसके बाद सुधर्मा सभा के मध्यभाग में जहाँ सिंहासन है वहाँ आकर सिंहासन का प्रमार्जन आदि पूर्ववत् अर्चना करता है। इसके बाद जहाँ मणिपीठिका और देवशयनीय है वहाँ आकर पूर्ववत् पूजा करता है। इसी प्रकार क्षुलल्क महेन्द्रध्वज की पूजा करता है / इसके बाद जहाँ चौपालक नामक प्रहरणकोष शिस्त्रागार है वहाँ पाकर शस्त्रों का लोमहस्तक से प्रमार्जन करता है, उदकधारा से सिंचन कर, चन्दन का लेप लगाकर, पुष्पादि चढ़ाकर धूप देता है / इसके पश्चात् सुधर्मा सभा के दक्षिण द्वार पर आकर पूर्ववत् पूजा करता है, फिर दक्षिण द्वार से निकलता है / इससे आगे सारी वक्तव्यता सिद्धायतन की तरह कहना चाहिए यावत् पूर्व दिशा की नंदापुष्करिणी की अर्चना करता है। सब सभाओं की पूजा का कथन सुधर्मा सभा की तरह जानना चाहिए / अन्तर यह है कि उपपात सभा में देवशयनीय की पूजा का कथन करना चाहिए और शेष सभाओं में सिंहासनों की पूजा का कथन करना चाहिए / ह्रद की पूजा का कथन नंदापुष्करिणी की तरह करना चाहिए / व्यवसायसभा में पुस्तकरत्न का लोमहस्तक से प्रमार्जन, दिव्य उदकधारा से सिंचन, सरस गोशीर्ष चन्दन से अनुलिपन, प्रधान एवं श्रेष्ठ गंधों और माल्यों से अर्चन करता है। तदनन्तर सिंहासन का प्रमार्जन यावत धप देता है। शेष सब कथन पूर्ववत चाहिए / ह्रद का कथन नंदापुष्करिणी की तरह करना चाहिए। तदनन्तर जहाँ बलिपीठ है, वहाँ जाता है और वहाँ अर्चादि करके आभियोगिक देवों को बुलाता है और उन्हें कहता है कि 'हे करना Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 420] [जीवाजीवाभिगमसूत्र देवानुप्रियो ! विजया राजधानी के शृगाटकों [त्रिकोणस्थानों] त्रिकों [जहाँ तीन रास्ते मिलते हैं। चतुष्कों [जहाँ चार रास्ते मिलते हैं] चत्वरों [बहुत से रास्ते जहाँ मिलते हैं] चतुर्मुखों [जहाँ से चारों दिशाओं में रास्ते जाते हैं] महापथों [राजपथों और सामान्य पथों में, प्रासादों में, प्राकारों में, अट्टालिकाओं में, चर्याओं [नगर और प्राकार के बीच आठ हाथ प्रमाण चौड़े अन्तराल मार्ग] में, द्वारों में, गोपुरों [प्राकार के द्वारों में, तोरणों में, बावड़ियों में, पुष्करिणीओं में, यावत् सरोवरों की पंक्तियों में, पारामों में [लतागृहों में], उद्यानों में, काननों [नगर के समीप के वनों] में, वनों में [नगर से दूर जंगलों में], वनखण्डों [अनेक जाति के वृक्षसमूहों में, वनराजियों [एकजातीय उत्तम वृक्षसमूहों में पूजा अर्चना करो और यह कार्य सम्पन्न कर मुझे मेरी आज्ञा सौंपो अर्थात् कार्यसमाप्ति की सूचना दो।' तब वे आभियोगिकदेव विजयदेव द्वारा ऐसा कहे जाने पर हृष्ट-तुष्ट हुए और उसकी प्राज्ञा को स्वीकार कर विजया राजधानी के शृगाटकों में यावत् वनखण्डों में पूजा-अर्चना करके विजयदेव के पास आकर कार्य सम्पन्न करने की सूचना देते हैं / ___ तब वह विजयदेव उन आभियोगिक देवों से यह बात सुनकर हृष्ट-तुष्ट और आनन्दित हुआ यावत् उसका हृदय विकसित हुआ / तदनन्तर वह नन्दापुष्करिणी की ओर जाता है और पूर्व के तोरण से उसमें प्रवेश करता है यावत् हाथ-पांव धोकर, आचमन करके स्वच्छ और परम शुचिभूत होकर नंदापुष्करिणी से बाहर आता है और सुधर्मा सभा की ओर जाने का संकल्प करता है। तब वह विजयदेव चार हजार सामानिक देवों के साथ यावत् सोलह हजार आत्मरक्षक देवों के साथ सर्वऋद्धिपूर्वक यावत् वाद्यों की ध्वनि के बीच सुधर्मा सभा की ओर पाता है और सुधर्मा सभा के पूर्वदिशा के द्वार से उसमें प्रवेश करता है तथा जहाँ मणिपीठिका है वहाँ जाकर श्रेष्ठ सिंहासन पर पूर्वाभिमुख होकर बैठता है / 143. तए णं तस्स विजयस्स वेवस्स चत्तारि सामाणियसाहस्सीओ अवरुत्तरेणं उत्तरेणं उत्तरपुरच्छिमेणं पत्तेयं पत्तेयं पुष्वणस्थेसु भद्दासणेसु णिसीयंति / तए णं तस्स विजयस्स वेवस्स चत्तारि अग्गर्माहसीओ पुरथिमेणं पत्तेयं पत्तेयं पुठवणत्थेसु भद्दासणेसु गिसोयंति / तए णं तस्स विजयस्स देवस्स दाहिणपुरस्थिमेणं अभितरियाए परिसाए अटु देवसाहस्सीओ पत्तेयं पत्तेयं जाव णिसीयंत्ति / एवं दक्षिणेणं मज्झिमियाए परिसाए दस देवसाहस्सीओ जाव णिसीयंति / दाहिणपच्चत्थिमेणं बाहिरियाए परिसाए बारस देवसाहस्सीओ पत्तेयं पत्तेयं जाव णिसीदंति / तए णं तस्स विजयस्स देवस्स पच्चस्थिमेणं सत्त अणियाहिवई पत्तेयं पत्तेयं जाव णिसीयंत्ति / तए णं तस्स विजयस्स देवस्स पुरस्थिमेणं दाहिणेणं पच्चस्थिमेणं उत्तरेणं सोलस आयरक्खदेवसाहस्सीओ पत्तेयं पत्तेयं पुरवणत्थेसु भद्दासणेसु णिसीयंति; तं जहा–पुरस्थिमेण चत्तारि साहस्सीमो जाव उत्तरेणं चत्तारि साहस्सीओ। ते णं आयरक्खा सन्नद्धबद्धवम्मियकवया, उप्पीलियसरासणपट्रिया पिणद्धगेवेज्जविमलवरचिघपट्टा, गहियाउहपहरणा तिणयाई तिसंधीणि वइरामया कोडीणि धणई अहिगिज्य परियाइयकंडकलावा णोलपाणिणो पीयपाणिणो रत्तपाणिणो चावपाणिणो चारुपाणिणो चम्मपाणिणो खग्गपाणिणो Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : विजयदेव का उपपात और उसका अभिषेक] [421 वंडपाणिणो पासपाणिणो णीलपोयरत्तचायचारुचम्मखग्गदंडपासवरधरा आयरक्खा रक्खोवगा गुसा गुत्तपालिया जुत्ता जुत्तपालिया पत्तेयं पत्तेयं समयओ विणयओ किंकरभूयाविव चिठ्ठति / तए णं से विजए देवे चउण्हं सामाणियसाहस्सोणं चउण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं तिण्हं परिसाणं सत्तण्हं अणियाणं सत्तण्हं अणियाहिवईणं सोलसण्हं आयरक्खदेवसाहस्सोणं विजयस्स णं वारस्स विजयाए रायहाणीए, अण्णेसि च बहूणं विजयाए रायहाणीए वत्थव्वगाणं देवाणं देवीण य आहेवच्चं पोरेवच्चं सामित्तं भट्टित्तं महत्तरगतं आणा-ईसर-सेणावच्चं कारेमाणे पालेमाणे महयाहयनट्ट- - गीय-वाइय-तंती-तल-ताल-तुडिय-धण-मुइंग-पडुप्पवाइयरवेणं दिवाइं भोग-भोगाई भुजमाणे विहरइ / विजयस्स णं भंते ! देवस्स केवतियं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! एगं पलिओवमं ठिई पण्णत्ता / विजयस्स णं देवस्स सामाणियाणं देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? एग पलिओवमं ठिती पग्णता / एवं महड्डिए एवं महज्जुई एवं महम्बले एवं महायसे एवं महासुक्खे एवं महाणुभागे विजए देवे देवे। [143] तब उस विजयदेव के चार हजार सामानिक देव पश्चिमोत्तर, उत्तर और उत्तरपूर्व में पहले से रखे हए चार हजार भद्रासनों पर अलग-अलग बैठते हैं। उस विजयदेव हिषियाँ पूर्व दिशा में पहले से रखे हुए अलग-अलग भद्रासनों पर बैठती हैं / उस विजयदेव के दक्षिणपूर्व दिशा में प्राभ्यन्तर पर्षदा के आठ हजार देव अलग-अलग पूर्व से ही रखे हुए भद्रासनों पर बैठते हैं / उस विजयदेव की दक्षिण दिशा में मध्यम पर्षदा के दस हजार देव पहले से रखे हुए अलगअलग भद्रासनों पर बैठते हैं / दक्षिण-पश्चिम की ओर बाह्य पर्षदा के बारह हजार देव पहले से रखे अलग-अलग भद्रासनों पर बैठते हैं। उस विजयदेव के पश्चिम दिशा में सात अनीकाधिपति पूर्व में रखे हुए अलग-अलग भद्रासनों पर बैठते हैं / उस विजयदेव के पूर्व में, दक्षिण में, पश्चिम में और उत्तर में सोलह हजार आत्मरक्षक देव पहले से ही रखे हुए अलग-अलग भद्रासनों पर बैठते हैं। पूर्व में चार हजार आत्मरक्षक देव, दक्षिण में चार हजार प्रात्मरक्षक देव, पश्चिम में चार हजार प्रात्मरक्षक देव और उत्तर में चार हजार आत्मरक्षक देव पहले से रखे हुए अलग-अलग भद्रासनों पर बैठते हैं / वे आत्मरक्षक देव लोहे की कीलों से युक्त कवच को शरीर पर कस कर पहने हुए हैं, धनुष की पट्टिका [मुष्ठिग्रहण स्थान] को मजबूती से पकड़े हुए हैं, उन्होंने गले में ग्रैवेयक [ग्रीवाभरण] और विमल सुभट चिह्नपट्ट को धारण कर रखा है, उन्होंने आयुधों और शस्त्रों को धारण कर रखा है, आदि मध्य और अन्त—इन तीन स्थानों में नमे हुए और तीन संधियों वाले और वज्रमय कोटि वाले धनुषों को लिये हुए हैं और उनके तूणीरों में नाना प्रकार के बाण भरे हैं। किन्हीं के हाथ में नीले बाण हैं, किन्हीं के हाथ में पीले बाण हैं, किन्हीं के हाथों में लाल बाण हैं, किन्हीं के हाथों में धनुष है, किन्हीं के हाथों में चारु [प्रहरण विशेष] है, किन्हीं के हाथों में चर्म [अंगूठों और अंगुलियों का आच्छादन रूप] है, किन्हीं के हाथों में दण्ड है, किन्हीं के हाथों में तलवार है, किन्हीं के हाथों में पाश [चाबुक है और किन्हीं के हाथों में उक्त सब शस्त्रादि हैं / वे आत्मरक्षक देव रक्षा करने में दत्तचित्त Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 422] [जीवाजीवाभिगमसूत्र हैं, गुप्त हैं [स्वामी का भेद प्रकट करने वाले नहीं हैं] उनके सेतु दूसरों के द्वारा गम्य नहीं हैं, वे युक्त हैं [सेवक गुणापेत हैं], उनके सेतु परस्पर संबद्ध हैं-बहुत दूर नहीं हैं / वे अपने आचरण और विनय से मानो किंकरभूत हैं [वे किंकर नहीं हैं, पृथक् आसन प्रदान द्वारा वे मान्य हैं किन्तु शिष्टाचारवश विनम्र हैं। तब वह विजयदेव चार हजार सामानिक देवों, सपरिवार चार अग्रमहिषियों, तीन परिपदों, सात अनीकों, सात अनीकाधिपतियों, सोलह हजार आत्मरक्षक देवों का तथा विजयद्वार, विजया राजधानी एवं विजया राजधानी के निवासी बहुत-से देवों और देवियों का आधिपत्य, पुरोवर्तित्व, स्वामित्व, भट्टित्व, महत्तरकत्व, आज्ञा-ईश्वर-सेनाधिपतित्व करता हुआ और सब का पालन करता हुअा, जोर से बजाए हुए वाद्यों, नृत्य, गीत, तंत्री, तल, ताल, त्रुटित, घन मृदंग आदि की ध्वनि के साथ दिव्य भोगोपभोग भोगता हुआ रहता है। भन्ते ! विजय देव की आयु कितने समय की कही गई है ? गौतम ! एक पल्योपम की आयु कही है। हे भगवन् ! विजयदेव के सामानिक देवों की कितने समय की स्थिति कही गई है ? गौतम ! एक पल्योपम की स्थिति कही गई है। इस प्रकार वह विजयदेव ऐसी महद्धि वाला, महाद्युति वाला, महाबल वाला, महायश वाला महासुख वाला और ऐसा महान् प्रभावशाली है। वैजयंत प्रादि द्वार 144. कहिं णं भंते ! जंबुद्दीवस्स दीवस्स वेजयंते णामं दारे पण्णते ? गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दक्खिणेणं पणयालीसं जोयणसहस्साई अबाहाए जंबुद्दीवदीवदाहिणपेरन्ते लवणसमुददाहिणद्धस्स उत्तरेणं एत्थ णं जंबुद्दोवस्स दोवस्स वेजयंते णामं दारे पण्णत्ते, अठ्ठ जोयणाई उड्न उच्चत्तेण सच्चेव सव्वा बत्तव्यया जाव णिच्चे। कहिं णं भंते ! 0 रायहाणी? दाहिणणं जाव वेजयंते वेवे देवे। कहि णं भंते ! * जंबुद्दीवस्स दोवस्स जयंते णाम वारे पण्णते? गोयमा ! जंबुद्दीवे दोवे मंदरस्स पव्वयस्स पच्चरिथमेणं पयणालीसं जोयणसहस्साई जंबुद्दीवपच्चत्थिमपेरंते लवणसमुद्दपच्चस्थिमद्धस्स पुरच्छिमेणं सीओदाए महाणईए उप्पि एत्थ णं जम्बुद्दीवस्स जयंते णामं दारे पण्णत्ते, तं चेव से पमाणे जयंते देवे पच्चत्थिमेणं से रायहाणी जाव महिथिए / कहि णं भंते ! जंबुद्दीवस्स दीवस्स अपराइए णामं वारे पण्णत्ते? गोयमा ! मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं पणयालीसंजोयणसहस्साइं अबाहाए जंबुद्दीवे दोवे उत्तरपेरंते लवणसमुदस्स उत्तरसस्स वाहिणणं एस्थ णं जंबुद्दीवे दीवे अपराइए णामं दारे पण्णत्ते। तं चेव पमाणं / रायहाणी उत्तरेणं जाव अपराइए देवे, चउण्हवि अण्णमि जंबुद्दीवे / [144] हे भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप का वैजयन्त नाम का द्वार कहाँ कहा गया है ? हे गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मेरुपर्वत के दक्षिण में पैंतालीस हजार योजन आगे जाने Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: वैजयंत आदि द्वार [423 पर उस द्वीप की दक्षिण दिशा के अन्त में तथा दक्षिण दिशा के लवणसमुद्र से उत्तर में जम्बूद्वीप नामक द्वीप का वैजयन्त द्वार कहा गया है। यह आठ योजन ऊँचा और चार योजन चौड़ा है आदि सब वक्तव्यता वही कहना चाहिए जो विजयद्वार के लिए कही गई है यावत् यह वैजयन्त द्वार नित्य है। __ भगवन् ! वैजयन्त देव की वैजयंती नाम की राजधानी कहाँ है ? गौतम ! वैजयन्त द्वार की दक्षिण दिशा में तिर्यक् असंख्येय द्वीपसमुद्रों को पार करने पर आदि वर्णन विजयद्वार के तुल्य कहना चाहिए यावत् वहाँ वैजयंत नाम का महद्धिक देव है / / हे भगवन ! जम्बूद्वीप का जयन्त नाम का द्वार कहाँ है ? गौतम ! जम्बूद्वीप के मेरुपर्वत के पश्चिम में पैंतालीस हजार योजन आगे जाने पर जम्बूद्वीप की पश्चिम दिशा के अन्त में तथा लवणसमुद्र के पश्चिमा के पूर्व में शीतोदा महानदी के आगे जम्बूद्वीप का जयन्त नाम का द्वार है / वही वक्तव्यता कहनी चाहिए यावत् वहाँ जयन्त नाम का महद्धिक देव है और उसकी राजधानी जयन्त द्वार के पश्चिम में तिर्यक् असंख्य द्वीप-समुद्रों को पार करने पर आदि वर्णन विजयद्वार के समान है। हे भगवन् ! जम्बूद्वीप का अपराजित नाम का द्वार कहाँ कहा गया है ? गौतम ! मेरुपर्वत के उत्तर में पैंतालीस हजार योजन आगे जाने पर जम्बूद्वीप की उत्तर दिशा के अन्त में तथा लवणसमुद्र के उत्तरार्ध के दक्षिण में जम्बूद्वीप का अपराजित नाम का द्वार है। उसका प्रमाण विजयद्वार के समान है / उसको राजधानी अपराजित द्वार के उत्तर में तिर्यक् असंख्यात द्वीप-समुद्रों को लांघने के बाद आदि वर्णन विजया राजधानी के समान है यावत् वहाँ अपराजित नाम का महद्धिक देव है। ये चारों राजधानियां इस प्रसिद्ध जम्बूद्वीप में न होकर दूसरे जम्बूद्वीप में हैं। 145. जंबुद्दीवस्स णं भंते ! दीवस्स दारस्स य दारस्स य एस णं केवइए अबाहाए अंतरे पण्णते? गोयमा ! प्रउणासिई जोयणसहस्साई बावण्णं च जोयणाई देसूणं च अद्धजोयणं दारस्स य बारस्स य अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। [145] हे भगवन् ! जम्बूद्वीप के इन द्वारों में एक द्वार से दूसरे द्वार का अन्तर कितना कहा गया है ? गौतम ! उन्यासी हजार बावन योजन और देशोन प्राधा योजन का अन्तर कहा गया है। [79052 योजन और देशोन प्राधा योजन] / विवेचन--एक द्वार से दूसरे द्वार का अन्तर उन्यासी हजार बावन योजन और देशोन प्राधा योजन बताया है, उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार किया गया है प्रत्येक द्वार की शाखारूप कुड्य [भीत एक एक कोस की मोटी है और प्रत्येक द्वार का विस्तार चार-चार योजन का है। इस तरह चारों द्वारों में कूड़य और द्वारप्रमाण 15 योजन का होता है। जम्बूद्वीप की परिधि तीन लाख सोलह हजार दो सौ सत्तावीस [316227] योजन तीन कोस एक सौ पाठ धनुष और साढे तेरह अंगुल से कुछ अधिक है / इसमें से चारों द्वारों और शाखाद्वारों का 18 Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 424] [जीवाजीवाभिगमसूत्र योजन प्रमाण घटाने पर परिधि का प्रमाण 316209 योजन तीन कोस एक सौ आठ धनुष और साढे तेरह अंगुल से अधिक शेष रहता है / इसके चार भाग करने पर 79052 योजन 1 कोस 1532 धनुष 3 अंगुल और 3 यव आता है। इतना एक द्वार से दूसरे द्वार का अन्तर समझना चाहिए / इसी बात को निम्न दो गाथाओं में प्रकट किया गया है कुडुदुवारपमाणं अट्ठारस जोयणाई परिहीए। सो हि य चउहिं विभत्तं इणमो दारंतरं होइ / / 1 / / अउन्नसीइं सहस्सा बावण्णा अद्धजोयणं नणं / दारस्स य दारस्स य अंतरमेयं विणिद्दिट्ठ // 2 // 146. जंबद्दीवस्स णं भंते ! दीवस्स पएसा लवणं समुदं पुट्ठा ? हंता, पुट्ठा। ते णं भंते ! कि जंबुद्दीवे बोवे लवणसमुद्दे वा ? गोयमा ! जंबुद्दोवे दोवे, नो खलु ते लवणसमुद्दे। लवणस्स णं भंते ! समुदस्स पएसा जंबुद्दीवं दोवं पुट्ठा ? हंता, पुट्ठा। ते णं भंते ! कि लवणसमुद्दे जंबुद्दीवे दीवे वा? गोयमा! लवणे णं ते समुद्दे, नो खलु ते जंबुद्दीवे दोबे // जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे जीवा उदाइत्ता उद्दाइत्ता लवणसमुद्दे पच्चायति ? गोयमा ! अत्थेगइया पच्चायंति, अत्थेगइया नो पच्चायति / लवणे णं भंते ! समुद्दे जीवा उद्दाइत्ता उद्दाइत्ता जंबद्दीवे वोवे पच्चायंति ? गोयमा ! अत्थेगइया पच्चायंति, अत्थेगइया नो पच्चायति / [146] हे भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के प्रदेश लवणसमुद्र से स्पृष्ट हैं क्या ? हाँ, गौतम ! स्पृष्ट हैं। भगवन् ! वे स्पष्ट प्रदेश जम्बूद्वीप रूप हैं या लवणसमुद्र रूप? गौतम ! वे जम्बूद्वीप रूप हैं, लवणसमुद्र रूप नहीं हैं / हे भगवन् ! लवणसमुद्र के प्रदेश जम्बूद्वीप को छुए हुए हैं क्या ? हाँ, गौतम ! छुए हुए हैं। हे भगवन् ! वे स्पृष्ट प्रदेश लवणसमुद्र रूप हैं या जम्बूद्वीप रूप ? गौतम ! वे स्पृष्ट प्रदेश लवणसमुद्र रूप हैं, जम्बूद्वीप रूप नहीं / हे भगवन् ! जम्बूद्वीप में मर कर जीव लवणसमुद्र में पैदा होते हैं क्या ? गौतम ! कोई उत्पन्न होते हैं, कोई उत्पन्न नहीं होते हैं। हे भगवन् ! लवणसमुद्र में मर कर जीव जम्बूद्वीप में पैदा होते हैं क्या ? गौतम ! कोई पैदा होते हैं, कोई पैदा नहीं होते हैं। Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : जंबूद्वीप क्यों कहलाता है ?] [425 विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में प्रश्न किया गया है कि जम्बूद्वीप के लवणसमुद्र से स्पृष्ट-छुए हुए प्रदेश जम्बूद्वीप रूप हैं या लवणसमुद्र रूप ? इसका आशय यह है कि स्वसीमागत जो चरम प्रदेश हैं वे क्या जम्बूद्वीप रूप हैं या लवणसमुद्र रूप? क्योंकि जो जिससे स्पृष्ट होता है वह किसी अपेक्षा से उस रूप में व्यपदेश वाला हो जाता है, जैसे सौराष्ट्र से संक्रान्त मगध देश सौराष्ट्र कहलाता है। किसी अपेक्षा से वैसा व्यपदेश नहीं भी होता है, जैसे तर्जनी अंगुलि से संस्पृष्ट ज्येष्ठा अंगुलि तर्जनी नहीं कही जाती है। दोनों प्रकार की स्थितियाँ होने से यहाँ उक्त प्रकार का प्रश्न किया गया है। इसके उत्तर में प्रभु ने फरमाया कि वे जम्बूद्वीप के चरम स्पृष्ट प्रदेश जम्बूद्वीप के ही हैं, लवणसमुद्र के नहीं / यही बात लवणसमुद्र के प्रदेशों के विषय में भी समझनी चाहिए। जम्बूद्वीप से मर कर लवणसमुद्र में पैदा होने और लवणसमुद्र से मर कर जम्बूद्वीप में पैदा होने संबंधी प्रश्नों के विषय में कहा गया है कि कोई-कोई जीव वहाँ पैदा होते हैं और कोई-कोई पैदा नहीं होते, क्योंकि जीव अपने किये हुए विविध कर्मों के कारण विविध गतियों में जाते हैं। जम्बूद्वीप क्यों कहलाता है ? 147. से केणछैणं भंते ! एवं वुच्चइ जंबुद्दीवे दीवे ? गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं णीलवंतस्स दाहिणणं मालवंतस्स वरखारपव्वयस्स पच्चत्थिमेणं, गंधमायणस्स वखारपब्वयस्स पुरस्थिमेण, एत्थ णं उत्तरकुरा णामं कुरा पण्णता, पाईणपडीणायता उदीणदाहिणविस्थिण्णा अद्धचंदसंठाणसंठिया एक्कारसजोयणसहस्साई अट्टबायाले जोयणसए दोण्णि य एकोणवीसइभागे जोयणस्स विक्खंभेणं / तीसे जीवा पाईणपडीणायता दुहओ बक्खारपव्ययं पुट्ठा, पुरथिमिल्लाए कोडोए पुरथिमिल्लं बक्खारपम्वयं पुट्ठा, पच्चस्थिमिल्लेणं कोडीए पच्चथिमिल्लं वक्खारपवयं पुट्ठा, तेवण्णं जोयणसहस्साई आयामेणं, तोसे धणपढें दाहिणणं सर्ट्सि जोयणसहस्साई चत्तारि य अट्ठारसुत्तरे जोयणसए दुवालस य एगूण वीसइ भाए जोयणस्स परिक्खेवेणं पण्णत्ते। उत्सरकुराए गं भंते कुराए केरिसए आगारभावपडोयारे पण्णते ? गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे मूमिभागे पण्णत्ते। से जहाणामए आलिंगपुक्खरेइ वा जाव एक्कोरयदीववत्तवया जाव देवलोगपरिग्गहा गं ते मण्यगणा पण्णत्ता समणाउसो! णवरि इमं णाणतं छघणुसहस्समूसिया दो छप्पन्ना पिटुकरंडसया अदुमभत्तस्स आहारट्ठे समुष्पज्जइ, तिणि पलिओवमाइं देसूणाई पलिओवमस्सासंखिज्जइ भागेणं ऊणगाई जहन्नेणं, तिन्नि पलिओवमाई उक्कोसेणं, एकूणपणराइंदियाइं अणुपालणा; सेसं जहा एगूरुयाणं / उत्तरकुराए णं कुराए छठिवहा मणस्सा अणुसज्जंति, तं जहा-१. पम्हगंधा, 2. मियगंधा, 3. अममा, 4. सहा, 5. तेयालीसे, 6. सणिचारी। [147] हे भगवन् ! जम्बूद्वीप, जम्बूद्वीप क्यों कहलाता है ? हे गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के मेरुपर्वत के उत्तर में, नीलवंत पर्वत के दक्षिण में, मालवंत वक्षस्कार पर्वत के पश्चिम में एवं गन्धमादन वक्षस्कार पर्वत के पूर्व में उत्तरकुरा नामक कुरा [क्षेत्र] है / वह पूर्व से पश्चिम तक लम्बा और उत्तर से दक्षिण तक चौड़ा है, अष्टमी के चाँद की Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 426] [जीवाजीवाभिगमसूत्र तरह अर्ध गोलाकार है। इसका विष्कम्भ [विस्तार-चौड़ाई] ग्यारह हजार आठ सौ बयालीस योजन और एक योजन का भाग [1184211 योजन] है / इसकी जीवा पूर्व-पश्चिम तक लम्बी है। और दोनों ओर से वक्षस्कार पर्वतों को छूती है। पूर्व दिशा के छोर से पूर्व दिशा के वक्षस्कार पर्वत और पश्चिम दिशा के छोर से पश्चिम दिशा के वक्षस्कार पर्वत को छूती है। यह जीवा तिरपन हजार [53000 योजन लम्बी है / इस उत्तरकुरा का धनुष्पृष्ठ दक्षिण दिशा में साठ हजार चार सौ अठारह योजन और है योजन [604181 योजन है / यह धनुष्पृष्ठ परिधि रूप है। हे भगवन् ! उत्तरकुरा का आकारभाव-प्रत्यवतार [स्वरूप] कैसा कहा गया है ? गौतम ! उत्तरकुरा का भूमिभाग बहुत सम और रमणीय है / वह भूमिभाग आलिंगपुष्कर [मुरज-मृदंग] के मढे हुए चमड़े के समान समतल है- इत्यादि सब वर्णन एकोरुक द्वीप की वक्तव्यता के अनुसार कहना चाहिए यावत् हे अयुष्मान श्रमण ! वे मनुष्य मर कर देवलोक में उत्पन्न होते हैं। अन्तर इतना है कि इनकी ऊँचाई छह हजार धनुष [तीन कोस] की होती है / दो सौ छप्पन इनकी पसलियां होती हैं / तीन दिन के बाद इन्हें आहार की इच्छा होती है। इनकी जघन्य स्थिति पल्योपम तवां भाग कम-देशोन तीन पल्योपम की है और उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्योपम की है। ये 49 दिन तक अपत्य की अनुपालना करते हैं / शेष एकोरुक मनुष्यों के समान जानना चाहिए। उत्तराकुरा क्षेत्र में छह प्रकार के मनुष्य पैदा होते हैं, यथा--१. पद्मगंध, 2. मृगगन्ध, 3. अमम, 4. सह, 5. तेयालीस [तेजस्वी] और 6. शनैश्चारी। विवेचन-उत्तरकुरु क्षेत्र पूर्व से पश्चिम तक लम्बा है और उत्तर से दक्षिण तक फैला हुआ [चौड़ा] है / इसका संस्थान अष्टमी के चन्द्रमा जैसा अर्ध गोलाकार है / इसका विस्तार 1184221 योजन का उत्तर-दक्षिण में है। यह इस प्रकार फलित होता है-- महाविदेह क्षेत्र में मेरु के उत्तर की ओर उत्तरकुरु नाम का क्षेत्र है। दक्षिण की ओर दक्षिणकुरु है / अत: महाविदेह क्षेत्र का जो विस्तार है उसमें से मेरुपर्वत के विस्तार को कम कर देने से जीवा का विस्तार बनता है / उसे आधा करने पर जो प्रमाण आता है वह दक्षिणकुरु और उत्तरकुरु का विस्तार होता है।' ___ महाविदेह क्षेत्र का विस्तार 33684 योजन है / इसमें मेरु का विस्तार 10000 योजन मटा देना चाहिए, तब 236843 बनते हैं / इसके दो भाग करने पर 11842% योजन होता है / यही उत्तरकुरु और दक्षिणकुरु का विस्तार है / इसकी जीवा [प्रत्यंचा] उत्तर में नील वर्षधर पर्वत के समीप तक विस्तृत है और पूर्व पश्चिम तक लम्बी है। यह अपने पूर्व दिशा के छोर से माल्यवंत वक्षस्कार पर्वत को छूती है और पश्चिम दिशा के छोर से गन्धमादन वक्षस्कार पर्वत को छूती है / यह जीवा 53000 [तिरपन हजार] योजन लम्बी है / इसकी लम्बाई का प्रमाण इस प्रकार फलित होता है-मेरुपर्वत की पूर्वदिशा और पश्चिम दिशा के भद्रशाल वनों की प्रत्येक की लम्बाई 22000 [बावीस हजार] योजन की है, दोनों की 44000 योजन हुई / इसमें मेरुपर्वत के विष्कंभ 10000 [दस हजार] योजन मिला देने से 54000 [चौपन हजार] योजन होते हैं / इस प्रमाण में से दोनों 1. 'वइदेहा विक्खंभा मंदर विखंभ सोहियपद्धतं कुरुविक्खंभं जाणसु'। 2. 'मंदरपुव्वेणायया वीससहस्स भइसालवणं दुगुणं मदरमहियं दुसेलरहियं च कुरुजीवा।' Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : जंबूद्वीप क्यों कहलाता है ? ] [427 बक्षस्कार पर्वतों का 500-500 याजन का प्रमाण घटा देने से तिरपन हजार योजन आते हैं। यही प्रमाण जीवा का है। उत्तरकुरुओं का धनुष्पृष्ठ दक्षिण में 6041813 योजन है। गन्धमादन और माल्यवन्त बक्षस्कार पर्वतों की लम्बाई का जो परिमाण है वही उत्तरकुरुषों का धनुष्पृष्ठ [परिधि] है / गंधमादन और माल्यवंत पर्वत का प्रत्येक का आयाम 30209 योजन है। दोनों का कुल प्रमाण 604181 योजन होता है। यही प्रमाण उत्तरकुरुषों के धनुष्पृष्ठ का है।' उत्तरकुरु क्षेत्र के स्वरूप के विषय में प्रश्न किये जाने पर सूत्रकार ने एकोरुक द्वीप की बक्तव्यता का अतिदेश किया है। अर्थात् पूर्वोक्त एकोरुक द्वीप के समान ही सब वक्तव्यता जाननी चाहिए। जो अन्तर है उसे सूत्रकार ने साक्षात् सूत्र द्वारा प्रकट किया है जो इस प्रकार है वे उत्तरकुरु के मनुष्य छह हजार धनुष अर्थात् तीन कोस के लम्बे हैं, 256 उनके पसलियां होती हैं, तीन दिन के अन्तर से आहार की अभिलाषा होती है, पल्योपमासंख्येय भाग कम [देशोन] तीन पल्योपम की जघन्य स्थिति और परिपूर्ण तीन पल्योपम की उत्कृष्ट प्रायु होती है और 49 दिन तक अपत्य-पालना करते हैं / शेष एकोरुक द्वीप के मनुष्यों की वक्तव्यतानुसार जानना चाहिए यावत् बे मनुष्य मर कर देवलोक में ही जाते हैं। उत्तरकुरुषों में जातिभेद को लेकर छह प्रकार के मनुष्य रहते हैं---१. पद्मगंध [पद्म जैसी गंध वाले], 2. मृगगन्ध [मृग जैसी गंध वाले], 3. अमम [ममत्वहीन], 4. सह [सहनशोल], 5. तेयालीसे [तेजस्वी] और 6. शनैश्चारी [धीरे चलने वाले] / वृत्ति के अनुसार उत्तरकुरु क्षेत्र को लेकर जो-जो विषय कहे गये हैं, उनको संकलित करने वाली तीन गाथाएँ इस प्रकार हैं उसुजीवाधणपढें भूमी गुम्मा य हेरुउद्दाला। तिलगलयावणराई रुक्खा मणुया य आहारे / / 1 / / गेहा गामा य असी हिरण्णराया य दास माया य / परिवेरिए य मित्ते विवाह मह नट्र सगडा य / / 2 / / आसा गावो सीहा साली खाणू य गड्डदंसाही / गहजुद्ध रोगठिइ उव्वट्टणा य अणुसज्जणा चेव / / 3 / / उक्त गाथाओं का भावार्थ इस प्रकार है सबसे प्रथम उत्तरकुरु के विषय में इषु, जीवा और धनुपृष्ठ का प्रतिपादन है / फिर भूमि विषयक कथन है, तदनन्तर गुल्म का वर्णन, तदनन्तर हेरुताल आदि वनों का वर्णन, फिर उद्दाल आदि द्रुमों का वर्णन, फिर तिलक आदि वृक्षों का, लताओं का और वनराजि का वर्णन है। इसके 1. 'आयामो सेलाणं दोण्हवि मिलिगो कुरुणधणु पुढे / ' 2. वृत्तिकार ने उत्तरकुरु के प्राकार-भाव-प्रत्यवतार की मूल पाठ सहित विस्तृत व्याख्या की है। इससे प्रतीत होता हैं कि उनके सामने जो मूलप्रतियां रही हैं उनमें मूलपाठ में ही पूरा वर्णन होना चाहिए। वर्तमान में उपलन्ध प्रतियों में अतिदेश वाला पाठ है। सूत्रकार ने एकोरुक द्वीप का जहाँ वर्णन किया है वहाँ वत्तिकार ने उसकी व्याख्या न करते हुए केवल यह लिखा है कि उत्तरकुरु वाली व्याख्या यहाँ समझ लेनी चाहिए। यहाँ विचारणीय यह है कि आगे प्राने वाले विषय का पहले अति देश क्यों किया है वत्तिकार ने ? Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 428] [जीवाजीवाभिगमसूत्र बाद 10 प्रकार के कल्पवृक्षों का वर्णन है, इसके बाद वहाँ के मनुष्यों, स्त्रियों और स्त्री-पुरुष दोनों का सम्मिलित वर्णन है / इसके बाद आहार विषयक सूत्र है / इसके बाद गृहाकार वृक्षों का वर्णन है / इसके पश्चात् गृह, ग्राम, असि [शस्त्रादि], हिरण्य, राजा, दास, माता, अरि-वैरी, मित्र, विवाह, उत्सव नृत्य, शकट [गाडी आदि सवारी] का वहाँ अभाव है, ऐसा कहा गया है / तदनन्तर घोड़े, गाय, सिंह आदि पशुओं का अस्तित्व तो है परन्तु मनुष्यों के परिभोग में आने वाले या उन्हें बाधा पहुँचाने वाले नहीं हैं / इसके बाद शालि आदि के उपभोग के प्रतिषेधक सूत्र हैं, स्थाणु आदि के प्रतिषेधक सूत्र हैं, गर्त-डांस-मच्छर आदि के प्रतिषेधक सूत्र हैं, तदनन्तर सर्पादि हैं परन्तु बाधा देने वाले नहीं हैं ऐसा कथन किया गया है / तदनन्तर ग्रहों सम्बन्धी अनर्थ के अभाव, युद्धों के अभाव और रोगों के अभाव का कथन किया गया है / इसके बाद स्थिति, उद्वर्तना और अनुषजन [उत्पत्ति का कथन किया गया है। 148, कहिं णं भंते ! उत्तरकुराए कुराए जमगा नाम दुवे पव्वया पण्णता ? गोयमा ! नीलवंतस्स वासहरपब्वयस्स दाहिणणं अट्टचोत्तीसे जोयणसए चत्तारि य सत्त भागे नोयणस्स अबाहाए सीताए महाणईए (पुव्व-पच्छिमेणं) उभओ कले एत्थ गं उत्तरकुराए जमगा णामं दुवे पव्वया पण्णत्ता, एगमेगं जोयणसहस्सं उड्ढं उच्चत्तणं प्रडाइज्जाइं जोयणसयाणि उम्बेहेणं, मूले एगमेगं जोयणसहस्सं आयामविक्खंभेणं मज्झे प्रद्धट्टमाई जोयणसयाई आयाम-विक्खंभेणं, उरि चजोयणसयाई आयाम-विक्खंभेण मुले तिष्णि जोयणसहस्साई एगं च बाटि जोयणसयं किचि विसेसाहियं परिक्खेवेणं, मज्झे दो जोयणसहस्साई तिणि य बावत्तरे जोयणसए किचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णसे, उरि पन्नरसं एक्कासीए जोयणसए किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णत्ते। मूले विच्छिण्णा मज्झे संखित्ता उप्पि तणुया गोपुच्छसंठाणसंठिया सबकणगमया अच्छा सहा जाव पडिरूवा / पत्तेयं पत्तेयं पउमवरवेइयापरिक्खित्ता, पत्तेयं पत्तेयं वणसंड परिक्खित्ता, वण्णओ दोण्ह वि। तेसि णं जमगपम्वयाणं उप्पि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, वण्णओ जाव प्रासयंतिः। . तेसि णं बहुसमरमाणिज्जाणं भूमिभागाणं बहमनदेसभाए पसेयं पत्तेयं पासायव.सगा पण्णत्ता। ते णं पासायवडेंसगा बाट्रि जोयणाई अद्धजोयणं च उडढं उच्चत्तणं एकत्तीसं जोयणाई कोसं य विक्खंभेणं अम्भुग्गयमूसिया वष्णओ। भूमिभागा उल्लोया दो जोयणाई मणिपेढियाओ वरसीहासणा सपरिवारा जाब जमगा चिट्ठति / से केणठेणं भंते ! एवं बुच्चइ जमगा पम्वया जमगा पव्वया ? गोयमा ! जमगेसु पव्वएसु तत्थ तत्थ देसे तहि तहिं बहुईओखुड्डाखुड्डियाओ वावीओ जाव बिलपंतियासु, तासु णं खुड्डाखुड्डियासु जाव बिलपंतियासु बहूई उप्पलाई जाव सयसहस्सपत्ताई जमगप्पमाई जमगवण्णाई, जमगा य एत्थ दो देवा महिड्डिया जाव पलिओवमट्टिईया परिवसंति / ते गं तत्थ पत्तेयं पत्तेयं चउण्हं सामाणियसहस्सीणं जाव जमगाणं पध्वयाणं जमगाण य रायधाणीणं अण्णेसि च बहणं वाणमंतराणं देवाणं य देवीणं य आहेवच्चं जाव पालेमाणा विहरंति / से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ जमग पव्वया जमग पव्वया ! अदुत्तरं च णं गोयमा ! जाव णिच्चा / कहिं गं भंते ! जमगाणं देवाणं जमगाओ णाम रायहाणीओ पण्णताओ? गोयमा ! जमगाणं पव्वयाणं उत्तरेणं तिरियमसंखेज्जे दीवसमुद्दे वोइवइत्ता अण्णम्मि जंबुद्दीवे बोवे बारसजोयणसहस्साई ओगाहित्ता एत्थ णं जमगाणं देवाणं जमगाओ णाम रायहाणीओ पण्णत्ताओ वारस जोयणसहस्साओ जहा विजयस्स जाव महिड्डिया जमगा देवा जमगा देवा / Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : जंबूद्वीप क्यों कहलाता है ?] [148] हे भगवन् ! उत्तरकुरु नामक क्षेत्र में यमक नामक दो पर्वत कहाँ पर कहे गये हैं ? गौतम ! नीलवंत वर्षधर पर्वत के दक्षिण में आठ सौ चौतीस योजन और एक योजन के भाग आगे जाने पर शीता नामक महानदी के पूर्व-पश्चिम के दोनों किनारों पर उत्तरकुरु क्षेत्र में दो यमक नाम के पर्वत कहे गये हैं / ये एक-एक हजार योजन ऊँचे हैं, 250 योजन जमीन में हैं, मूल में एक-एक हजार योजन लम्बे-चौड़े हैं, मध्य में साढे सात सौ योजन लम्बे-चौड़े हैं और ऊपर पांच सौ योजन आयाम-विष्कंभ वाले हैं। मूल में इनकी परिधि तीन हजार एक सौ बासठ योजन से कुछ अधिक है। मध्य में इनकी परिधि दो हजार तीन सौ बहत्तर योजन से कुछ अधिक है और ऊपर पन्द्रह सौ इक्यासी योजन से कुछ अधिक की परिधि है। ये मूल में विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त और ऊपर में पतले हैं / ये गोपुच्छ के आकार के हैं, सर्वात्मना कनकमय हैं, स्वच्छ हैं, श्लक्ष्ण [मृदु] हैं यावत् प्रतिरूप हैं / ये प्रत्येक पर्वत पद्मवरवेदिका से परिक्षिप्त [घिरे हुए हैं और प्रत्येक पर्वत वनखंड से युक्त हैं / दोनों का वर्णनक कहना चाहिए। उन यमक पर्वतों के ऊपर बहुसमरमणीय भूमिभाग कहा गया है। उसका वर्णन करना चाहिए यावत् वहाँ बहुत से वानव्यन्तर देव और देवियाँ ठहरती हैं, लेटती हैं यावत् पुण्य-फल का अनुभव करती हुई विचरती हैं। उन दोनों बहुसमरमणीय भूमिभागों के मध्यभाग में अलग-अलग प्रासादावतंसक कहे गये हैं। वे प्रासादावतंसक साढे बासठ योजन ऊँचे और इकतीस योजन एक कोस के चौड़े हैं, ये गगनचुम्बी और ऊँचे हैं आदि वर्णनक कहना चाहिए। इनके भूमिभागों का, ऊपरी भीतरी छतों आदि का वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए। वहाँ दो योजन की मणिपीठिका है। उस पर श्रेष्ठ सिंहासन है। ये सिंहासन सपरिवार हैं अर्थात् सामानिक आदि देवों के भद्रासनों से युक्त हैं। यावत् उन पर यमक देव बैठते हैं। हे भगवन् ! ये यमक पर्वत यमक पर्वत क्यों कहलाते हैं ? गौतम ! उन यमक पर्वतों पर जगह-जगह यहाँ-वहाँ बहुत-सी छोटी छोटी बावडियां हैं, यावत् बिलपंक्तियां हैं, उनमें बहुत से उत्पल कमल यावत् शतपत्र-सहस्रपत्र हैं जो यमक [पक्षिविशेष] के आकार के हैं, यमक के समान वर्ण वाले हैं और यावत् पल्योपम की स्थिति वाले दो महान् ऋद्धि वाले देव रहते हैं / वे देव वहाँ अपने चार हजार सामानिक देवों का यावत् यमक पर्वतों का, यमक राजधानियों का और बहुत से अन्य वानव्यन्तर देवों और देवियों का आधिपत्य करते हुए यावत् उनका पालन करते हुए विचरते हैं / इसलिए हे गौतम ! वे यमक पर्वत यमक पर्वत कहलाते हैं। दूसरी बात हे गौतम ! ऐसी है कि ये यमक पर्वत शाश्वत हैं यावत् नित्य हैं। [अर्थात् इनका 'यमक' नाम शाश्वत हैं-सदा से है, सदा रहेगा।] हे भगवन् ! इन यमक देवों की यमका नामक राजधानियां कहाँ हैं ? गौतम ! इन यमक पर्वतों के उत्तर में तिर्यक् असंख्यात द्वीप-समुद्रों को पार करने के पश्चात् प्रसिद्ध जम्बूद्वीप से भिन्न अन्य जम्बूद्वीप में बारह हजार योजन आगे जाने पर यमक देवों की यमका नाम की राजधानियां हैं जो बारह हजार योजनप्रमाण वाली हैं आदि सब वर्णन विजया राजधानीवत् कहना चाहिए यावत् यमक नाम के दो महद्धिक देव उनके अधिपति हैं / इस कारण से ये यमक देव यमक देव कहलाते हैं। Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जीवाजीवाभिगमसूत्र 149. (1) कहि णं भंते ! उत्तरकुराए कुराए नीलवंत दहे णामंदहे पण्णते ? गोयमा! जमगयव्ययाणं दाहिणणं अटुचोत्तीसे जोयणसए चत्तारि सत्तभागा जोयणस्स अबाहाए सीताए महाणईए बहुमज्मदेसभाए एत्थ णं उत्तरकुराए कुराए नीलवंतहहे णामं बहे पण्णते; उत्तरदक्षिणायए पाईणपडीविच्छिन्ने एगं जोयणसहस्सं आयामेणं पंच जोयणसयाई विक्खंभेणं दस जोयणाई उन्हेणं अच्छे सण्हे रययामयकले चउक्कोणे समतोरे जाव पडिरूवे / उभओ पासि दोहिं य पउमवरवेइयाहिं वणसंडेहिं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते, दोण्हवि वण्णो / नीलबंतदहस्स णं दहस्स तत्थ तत्थ जाव बहवे तिसोवाण पहिरवगा पण्णत्ता, वण्णओ भाणियन्वो जाय तोरण त्ति। तस्स णं नीलवंतदहस्स णं दहस्स बहुमज्मदेसभाए एस्थ णं एगे महं पउमे पण्णते, जोयणं आयाम-विक्खंभेणं तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं अद्धजोयणं बाहल्लेणं दस जोयणाई उम्वेहेणं दो कोसे ऊसिए जलंताओ, साइरेगाइं दसद्धजोयणाई सम्यग्गेणं पण्णत्ते। तस्स णं पउमस्स अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तंजहा-वइरामया मूला, रिद्वामए कंदे, वेरुलियामए नाले वेरुलियमया बाहिरपत्ता जंबूणयमया अम्भितरपत्ता तकणिज्जमया केसरा कणगामई कणिया नानामणिमया पुक्खर स्थिभुया। ___सा णं कणिया अद्धजोयणं आयामविक्खमेणं तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं कोसं बाहल्लेणं सम्वप्पणा कणगमई अच्छा सहा जाय पडिरूवा।। तीसे णं कणियाए उरि बहुसमरमणिज्जे भूमिभाए पण्णते जाव मणिहि / तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ गं एगे महं भवणे पण्णते, कोसं आयामेणं अद्धकोसं विखंमेणं देसूर्ण कोसं उड्ढंउच्चत्तेणं अणेगखंभसयसनिविद्रं जाव वण्णओ। तस्स गं भवणस्स तिदिसि तओ वारा पण्णत्ता पुरथिमेणं दाहिणणं उत्तरेणं / ते णं दारा पंचधणुसयाई उड्ढं उच्चत्तेणं अड्डाइज्जाई धणुसयाई विक्खंमेणं तावइयं चेव पवेसेणं सेया वरकणगयूभियागा जाव वणमालाओ ति। [149] (1) भगवन् ! उत्तरकुरु नामक क्षेत्र में नीलवंत द्रह नाम का द्रह कहाँ कहा गया है? ___ गौतम ! यमक पर्वतों के दक्षिण में आठ सौ चौतीस योजन और योजन आगे जाने पर सीता महानदी के ठीक मध्य में उत्तरकुरु-क्षेत्र का नीलवंत द्रह नाम का द्रह कहा गया है। यह उत्तर से दक्षिण तक लम्बा और पूर्व-पश्चिम में चौड़ा है / एक हजार योजन इसकी लम्बाई है और पांच सौ योजन की चौड़ाई है। यह दस योजन ऊँचा [गहरा] है, स्वच्छःहै, श्लक्ष्ण है, रजतमय इसके किनारे हैं, यह चतुष्कोणापौर समतीर है यावत् प्रतिरूप है / यह दोनों ओर से पद्मवरवेदिकाओं और वनखण्डों से चौतरफ घिरा हुआ है / दोनों का वर्णनक यहाँ कहना चाहिए। नीलवंतद्रह नामक द्रह में यहाँ-वहाँ बहुत से त्रिसोपानप्रतिरूपक कहे गये हैं। उनका वर्णनक तोरण पर्यन्त कहना चाहिए। उस नीलवंत नामक द्रह के मध्यभाग में एक बड़ा कमल कहा गया है / वह कमल एक योजन का लम्बा और एक योजन का चौड़ा है। उसकी परिधि इससे तिगुनी से कुछ अधिक है। इसकी Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : अंबूद्वीप क्यों कहलाता है ? ] [431 मोटाई आधा योजन है। यह दस योजन जल के अन्दर है और दो कोस [प्राधा योजन] जल से ऊपर है / दोनों मिलाकर साढे दस योजन की इसकी ऊँचाई है / उस कमल का स्वरूप-वर्णन इस प्रकार है-उसका मूल वज्रमय है, कंद रिष्ट रत्नों का है, नाल वैडूर्य रत्नों की है, बाहर के पत्ते वैडूर्यमय हैं, आभ्यन्तर पत्ते जंबूनद [स्वर्ण] के हैं, उसके केसर तपनीय स्वर्ण के हैं, स्वर्ण की कणिका है और नानामणियों की पुष्कर-स्तिबुका है। वह कणिका आधा योजन की लम्बी-चौड़ी है, इससे तिगुनी से कुछ अधिक इसकी परिधि है, एक कोस की मोटाई है, यह पूर्णरूप से कनकमयी है, स्वच्छ है, श्लक्ष्ण है यावत् प्रतिरूप है। उस कर्णिका के ऊपर एक बहसमरमणीय भूमिभाग है इसका वर्णन मणियों की स्पर्शवक्तव्यता तक कहना चाहिए। उस बहुसमरमणीय भूमिभाग के ठीक मध्य में एक विशाल भवन कहा गया है जो एक कोस लम्बा, आधा कोस चौड़ा और एक कोस से कुछ कम ऊँचा है / वह अनेक सैकड़ों स्तम्भों पर आधारित है प्रादि वर्णनक कहना चाहिए। उस भवन की तीन दिशाओं में तीन द्वार कहे गये हैं-पूर्व में, दक्षिण में और उत्तर में। वे द्वार पांच सौ धनुष ऊँचे हैं, ढाई सौ धनुष चौड़े हैं और इतना ही इनका प्रवेश है। ये श्वेत हैं, श्रेष्ठ स्वर्ण की स्तूपिका से युक्त हैं यावत् उन पर वनमालाएँ लटक रही हैं / 149. (2) तस्स णं भवणस्स अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, से जहानामएआलिंगपुक्खरेइ वा जाव मणोणं वण्णओ। तस्स गं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसमाए एत्थ णं मणिपेढिया पण्णत्ता, पंचधणसयाई प्रायामविक्खंभेणं अड्डाइज्जाइं घणुसयाई बाहल्लेणं सठवमणिमई। तीसे णं मणिपेढियाए उरि एस्थ णं एगे महं देवसयणिज्जे पण्णत्ते, देवसयणिज्जस्स वण्णओ। से पउमे अण्णणं असएणं तदद्धच्चत्तप्पमाणमेसाणं पउमाणं स एणं तबद्धच्चत्तप्पमाणमेसाणं पउमाणं सवओ समंता संपरिक्खिते। ते गं पउमा अद्धजोयणं आयामविक्खंभेणं तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं कोसं बाहल्लेणं दस जोयणाई उम्वेहेण कोसं ऊसिया जलंताओ, साइरेगाइं ते दस जोयणाई सम्बग्गेणं पण्णत्ताई। - तेसि गं पउमाणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तं जहा–वइरामया मूला जाव गाणामणिमया पुक्खरस्थिभुगा। ताओ णं कणियाओ कोसं आयामविक्खंभेणं तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं अद्धकोसं बाहल्लेणं सम्वकणगामईओ अच्छाओ जाव पडिरूवाओ / तासि कणियाणं उपि बहुसमरमणिज्जा भूमिभागा जाव मणीणं वण्णो गंधो फासो। ___ तस्स गं पउमस्स अबरुत्तरेणं उत्तरेणं उत्तरपुरच्छिमेणं नीलवंतहहस्स कुमारस्स चउण्हं सामाणियसाहस्सोणं चत्तारि पउमसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, एवं (एतेणं) सव्वो परिवारो नधरि पउमाणं भाणियव्यो। से गं पउमे अण्णेहि तिहिं पउमवरपरिक्खेवेहिं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते, तंजहाअग्मितरेणं मज्झिमेणं बाहिरएणं / अम्भितरए णं पउमपरिक्लेवे बत्तीसं पउमसयसाहस्सोप्रो पग्णत्ताओ, मजिसमए गं पउमपरिक्खेवे चत्तालोसं पउमसाहस्सोप्रोपण्णत्ताओ, बाहिरए णं पउमपरिक्खेवे अडयालीसं पउमसयसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, एवामेव सपुग्वावरेणं एगा पउमकोडी वीसं च पउमसय सहस्सा भवंतीति मक्खाया। से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ–णीलवंतहहे णीलवंतहहे ? Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 432] [जीवाजोवाभिगमसूत्र गोयमा! नीलवंतहहे णं दहे तत्य तत्य जाइं उप्पलाई जाव सयसहस्सपत्ताई नीलवंतप्पभाई नीलवंतहहकुमारे य सो चेव गमो जाव नीलवंतहहे नीलवंतहहे। [149] [2] उस भवन में बहुसमरमरणीय भूमिभाग कहा गया है। वह आलिंगपुष्कर [मुरज-मृदंग] पर चढ़े हुए चमड़े के समान समतल है आदि वर्णन करना चाहिए। यह वर्णन मणियों के वर्ण, गंध और स्पर्श पर्यन्त पूर्ववत् करना चाहिए। उस बहुसमरमणीय भूमिभाग के ठीक मध्य में एक मणिपीठिका है, जो पांच सौ धनुष की लम्बी-चौड़ी है और ढाई सौ योजन मोटी है और सर्वमणियों की बनी हुई है। उस मणिपीठिका के ऊपर एक विशाल देवशयनीय है, उसका वर्णन पूर्ववत् करना चाहिए। वह कमल दुसरे एक सौ आठ कमलों से सब ओर से घिरा हया है। वे कमल उस कमल से आधे ऊँचे प्रमाण वाले हैं। वे कमल आधा योजन लम्बे-चौड़े और इससे तिगुने से कुछ अधिक परिधि वाले हैं / उनकी मोटाई एक कोस की है / वे दस योजन पानी में ऊंडे [गहरे हैं और जलतल से एक कोस ऊँचे हैं / जलांत से लेकर ऊपर तक समग्ररूप में वे कुछ अधिक [एक कोस अधिक] दस योजन के हैं / उन कमलों का स्वरूप वर्णन इस प्रकार है-वज्ररत्नों के उनके मूल हैं, यावत् नानामणियों की पुष्करस्तिबुका है। कमल की कणिकाएँ एक कोस लम्बी-चौड़ी हैं और उससे तिगुने से अधिक उनकी परिधि है, आधा कोस की मोटाई है, सर्व कनकमयी हैं, स्वच्छ यावत् प्रतिरूप हैं। उन कणिकाओं के ऊपर बहुसमरमणीय भूमिभाग है यावत् मणियों के वर्ण, गंध और स्पर्श की वक्तव्यता कहनी चाहिए। उस कमल के पश्चिमोत्तर में, उत्तर में और उत्तरपूर्व में नीलवंतद्रह के नागकुमारेन्द्र नागकुमार राज के चार हजार सामानिक देवों के चार हजार पद्म [पद्मरूप आसन] कहे गये हैं। इसी तरह सब परिवार के योग्य पद्मों [पद्मरूप आसनों का कथन करना चाहिए। वह कमल अन्य तीन पद्मवरपरिक्षेप परिवेश] से सब ओर से घिरा हुआ है / वे परिवेश हैं-प्राभ्यन्तर, मध्यम और बाह्य / आभ्यन्तर पद्म परिवेश में बत्तीस लाख पद्म हैं, मध्यम पद्मपरिवेश में चालीस लाख पद्म हैं और बाह्य पद्मपरिवेश में अड़तालीस लाख पद हैं / इस प्रकार सब पद्मों की संख्या एक करोड़ बीस लाख कही गई हैं। हे भगवन् ! नीलवंतद्रह नीलवंतद्रह क्यों कहलाता है ? गौतम ! नीलवंतद्रह में यहाँ वहाँ स्थान स्थान पर नीलवर्ण के उत्पल कमल यावत् शतपत्रसहस्रपत्र कमल खिले हुए हैं तथा वहाँ नीलवंत नामक नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज महद्धिक देव रहता है, इस कारण नीलवंतद्रह नीलवंतद्रह कहा जाता है। [इसके पश्चात् वृत्ति के अनुसार नीलवंतकुमार की नीलवंता राजधानी विषयक सूत्र है। उसका कथन विजया राजधानी की तरह कर लेना चाहिए।' काञ्चन पर्वतों का अधिकार 150. नीलवंतद्दहस्स णं पुरथिम-पच्चरिथमेणं दस जोयणाई अबाहार एस्थ गं दस दस कंचणमपध्वया पण्णत्ता। ते णं कंचणगपम्वया एगमेगं जोयणसयं उड्ढं उच्चत्तेणं, पणवीसं पणवीसं पण्णासं जोयणाई उन्हेणं, मूले एगमेगं जोयणसयं विक्खंभेणं मज्झे पण्णरि जोयणाई विक्खंभेणं उरि 1. उपलब्ध प्रतियों में राजधानी विषयक पाठ छूठा हुआ लगता है / वृत्ति के अनुसार राजधानी विषयक पाठ होना चाहिए। Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततीय प्रतिपत्ति : जम्बूद्वीप क्या कहलाता है ?] [433 पग्णासं जोयणाई विक्कमेणं मूले तिणि सोलसे जोयणसए किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं, मझे योनि सत्ततोसे जोयणसए किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं, उरि एगं अट्ठावण्णं जोयणसयं किंचि विसेसाहिए परिक्खेवणं; मूले विच्छिण्णा, मज्झे संखित्ता उपि तणुया गोपुच्छसंठाणसठिया सम्वकंचणमया, अच्छा, पत्तेयं पत्तेयं पउमवरवेइयापरिक्खित्ता पत्तेयं पत्तेयं वणसंडपरिक्खिता। तेसि णं कंधणगपम्वयाणं उप्पि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे जाव आसयंतिः / तेसिं गं कंचणगपव्ययाण पत्तेयं पत्तेयं पासायाव.सगा सङ्घ बार्टि जोयणाई उड्ढे उच्चत्तेणं इक्कतीसं जोयणाई कोसं च विक्खंमेणं मणिपेढिया दो जोणिया सीहासणं सपरिवारं। से केणठेणं भंते ! एवं उच्चइ-कंचणगपन्वया कंचणगपव्यया ? गोयमा ! कंचणगेसु णं पन्वएसुतस्थ तत्थ वावीसु उप्पलाई जाव कंचणगवण्णाभाई कंचणगा जाव देवा महिड्डिया जाव विहरति / उत्तरेणं कंचणगाणं कंचणियाओ रायहाणोओ अण्णम्मि जम्बद्दीवे तहेव सम्वं माणियव्वं / कहिं गं भंते ! उत्तराए कुराए उत्तरकुरु(हे पण्णत्ते ? गोयमा ! नीलवंतद्दहस्स वाहिणणं अट्टचोत्तोसे जोयणसए एवं सो चेव गमो यम्यो जो णोलवंतदहस्स सव्वेसि सरिसगो वहसरि नामा य देवा, सम्वेसि पुरस्थिम-पच्चत्थिमेणं कंचणगपवया दस बस एकप्पमाणा उत्तरेणं रायहागोओ अण्णम्मि जंबद्दीवे / / कहिं णं भंते ! चंबद्दहे एरावणदहे मालवंतहहे एवं एक्केको यग्यो। [150] नीलवंत द्रह के पूर्व-पश्चिम में दस योजन आगे जाने पर दस दस काञ्चनपर्वत कहे गये हैं। [ये दक्षिण और उत्तर श्रेणी में व्यवस्थित हैं] / ये कांचन पर्वत एक सौ एक सौ योजन ऊंचे, पच्चीस पच्चीस योजन भूमि में, मूल में एक-एक सौ योजन चौड़े, मध्य में पचहत्तर योजन चौड़े और ऊपर पचास-पचास योजन चौड़े हैं। इनकी परिधि मूल में तीन सौ सोलह योजन से कुछ अधिक, मध्य में दो सौ सैंतीस योजन से कुछ अधिक और ऊपर एक सौ अट्ठावन योजन से कुछ अधिक है / ये मूल में विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त और ऊपर पतले हैं, गोपुच्छ के आकार में संस्थित हैं, ये सर्वात्मना कंचनमय हैं, स्वच्छ हैं / इनके प्रत्येक के चारों ओर पावरवेदिकाएँ और वनखण्ड हैं। उन कांचन पर्वतों के ऊपर बहुसमरमणीय भूमिभाग है, यावत् वहाँ बहुत से वानव्यन्तर देव-देवियां बैठती हैं आदि / उन प्रत्येक भूमिभागों में प्रासादातंसक कहे गये हैं। ये प्रासादावतंसक साढ़े बासठ योजन ऊँचे और इकतीस योजन एक कोस चौड़े हैं। इनमें दो योजन की मणिपीठिकाएँ हैं और सिंहासन हैं। ये सिंहासन सपरिवार हैं अर्थात् सामानिकदेव, अग्रमहिषियाँ आदि परिवार के .. भद्रासनों से युक्त हैं। हे भगवन् ! ये कांचनपर्वत कांचनपर्वत क्यों कहे जाते हैं ? गौतम ! इन कांचनपर्वतों की वाबडियों में बहुत से उत्पल कमल यावत् शतपत्र-सहस्रपत्रकमल हैं जो स्वर्ण की कान्ति और स्वर्ण-वर्ण वाले हैं यावत् वहाँ कांचनक नाम के महाद्धिक देव रहते हैं, यावत् विचरते हैं। इसलिए ये कांचनपर्वत कहे जाते हैं / इन कांचनक देवों की कांचनिका Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 434] [जीवाजीवाभिगमसूत्र राजधानियां इन कांचनक पर्वतों से उत्तर में असंख्यात द्वीप-समुद्रों को पार करने के बाद अन्य जम्बूद्वीप में कही गई हैं आदि वर्णन विजया राजधानी की तरह कहना चाहिए। हे भगवन् उत्तरकुरु क्षेत्र का उत्तरकुरुद्रह कहाँ कहा गया है ? गौतम् ! नीलवंतद्रह के दक्षिण में आठ सौ चौतीस योजन और योजन दूर उत्तरकुरुद्रह है--आदि सब वर्णन नीलवंतद्रह की तरह जानना चाहिए। सब द्रहों में उसी-उसी नाम के देव हैं / सब द्रहों के पूर्व में और पश्चिम में दस-दस कांचनक पर्वत हैं जिनका प्रमाण समान है। इनकी राजधानियां उत्तर की ओर असंख्य द्वीप-समुद्र पार करने पर अन्य जम्बूद्वीप में हैं, उनका वर्णन विजया राजधानी की तरह जानना चाहिए / ___ इसी प्रकार चन्द्रद्रह, एरावतद्रह और मालवंतद्रह के विषय में भी यही सब वक्तव्यता कहनी चाहिए। जंबूवृक्ष वक्तव्यता 151. कहिं णं भंते ! उत्तरकुराए कुराए जंबु-सुदंसणाए जंबुपेढे नाम पेढे पण्णते ? गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पब्वयस्स उत्तरपुरच्छिमेणं नीलवंतस्स वासहरपब्वयस्स दाहिणणं मालवंतस्स वक्खारपव्वयस्स पच्चस्थिमेणं, गंधमादणस्स वक्खारपव्वयस्स पुरत्थिमेणं सीताए महागईए पुरथिमिल्ले कूले एत्थ णं उत्तरकुराए कुराए जंबूपेढे नाम पेढे पंचजोयणसयाई आयामविक्खं भेणं पण्णरस एक्कासीए जोयणसए किचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं बहुमज्झदेसभागे बारस जोयणाई बाहल्लेणं तयाणंतरं च णं मायाए मायाए पएस परिहाणीए सव्वेसु चरमंतेसु दो कोसे बाहल्लेणं पण्णत्ते, सव्वजंबूणयामए अच्छे जाव पडिरूवे। __ से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते, वण्णओ दोहवि / तस्स णं जंबूपेढस्स चउद्दिसि चत्तारि तिसोवाणपडिरूवगा पण्णत्ता तं चेव जाव तोरणा जाव छत्ताइछत्ता / तस्स णं जंबूपेढस्स उप्पि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते से जहाणमए आलिंगपुक्खरे इ वा जाव मणीणं फासो। तस्स गं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं एगा महं मणिपेढिया पण्णत्ता अट्ट जोयणाई आयामविक्खंभेणं चत्तारि जोयणाई बाहल्लेणं मणिमई अच्छा सण्हा जाव पडिरूवा / तोसे णं मणिपेढियाए उरि एत्य णं महं जंबूसुदंसणा पण्णत्ता अट्ठजोयणाई उड्ढं उच्चत्तेणं अद्धजोयणं उन्वेहेणं दो जोयणाई खंधे अट्ठजोयणाई विक्खंभेणं छ जोयणाई विडिमा, बहुमज्झदेसभाए अट्ठजोयणाई विक्खंभेणं साइरेगाई अट्ठजोयणाइं सव्वग्गेण पण्णत्ता; वइरामयमूला रययसुपइट्ठियविडिमा एवं चेइयरुक्खवण्णओ सम्वो जाव रिट्ठामयविउलकंदा, वेरुलियरुइरक्खंधा सुजायवरजायरूवपढमगविसालसाला नाणामणिरयणविविहसाहप्पसाहवेरुलियपत्ततवणिज्जपत्तविटा जंबूणयरत्तमउयसुकुमालपवालपल्लवंकुरधरा विचित्तमणिरयणसुरहिकुसुमा फलभारन. मियसाला सच्छाया सप्पभा सस्सिरीया सउज्जोया अहियं मणोनिन्वुइकरा पासाईया दरिसणिज्जा अभिरुवा पडिरूवा। Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति H जम्बूवृक्ष वक्तव्यता [435 [151] हे भगवन् ! उत्तरकुरु क्षेत्र में सुदर्शना अपर नाम जम्बू का जम्बूपीठ नाम का पीठ कहाँ कहा गया है। हे गौतम ! जम्बूद्वीप के मेरुपर्वत के उत्तरपूर्व [ईशानकोण] में, नीलवंत वर्षधर पर्वत के दक्षिण में, मालवंत वक्षस्कार पर्वत के पश्चिम में, गंधमादन वक्षस्कार पर्वत के पूर्व में, शीता महानदी के पूर्वीय किनारे पर उत्तरकुरु क्षेत्र का जम्बूपीठ नामक पीठ है जो पांच सौ योजन लम्बा-चौड़ा है, पन्द्रह सौ इक्यासी योजन से कुछ अधिक उसकी परिधि है। वह मध्यभाग में बारह योजन की वाला है, उसके बाद क्रमशः प्रदेशहानि होने से थोड़ा थोड़ा कम होता होता सब चरमान्तों में दो कोस का मोटा रह जाता है / वह सर्व जम्बूनद [स्वर्ण] मय है, स्वच्छ है यावत् प्रतिरूप है। वह जम्बूपीठ एक पद्मवरवेदिका और एक वनखंड द्वारा सब ओर से घिरा हुआ है। दोनों का वर्णनक कहना चाहिए / उस जम्बूपीठ की चारों दिशाओं में चार त्रिसोपानप्रतिरूपक कहे गये हैं आदि सब वर्णन पूर्ववत् करना चाहिए / तोरणों का यावत् छत्रातिछत्रों का कथन करना चाहिए। __ उस जम्बूपीठ के ऊपर बहुसमरमणीय भूमिभाग है जो आलिंगपुष्कर [मुरज-मृदंग] के मढ़े हुए चमड़े के समान समतल है, आदि कथन मणियों के स्पर्श पर्यन्त पूर्ववत् जानना चाहिए। उस बहुसमरमणीय भूमिभाग के ठीक मध्यभाग में एक विशाल मणिपीठिका कही गई है जो आठ योजन की लम्बी-चौड़ी और चार योजन की मोटी है, मणिमय है, स्वच्छ है, श्लक्ष्ण है यावत् प्रतिरूप है। उस मणिपीठिका के ऊपर विशाल जम्बू सूदर्शना सूिदर्शना अपर नाम जम्बू] है--जम्बूवक्ष है। वह जम्बूवृक्ष पाठ योजन ऊँचा है, प्राधा योजन जमीन में है , दो योजन का उसका स्कंध [धड़] है, आठ योजन उसकी चौड़ाई है, छह योजन तक उसकी शाखाएँ फैली हुई हैं, मध्यभाग में आठ योजन चौड़ा है, [उद्वेध और बाहर की ऊँचाई] मिलाकर पाठ योजन से अधिक [साढे आठ योजन] ऊँचा है। इसके मूल वज्ररत्न के हैं, इसकी शाखाएँ रजत चांदी] की हैं और ऊँची निकली हुई हैं, इस प्रकार चैत्यवृक्ष का वर्णनक कहना चाहिए यावत् उसके कन्द विपुल और रिष्ठरत्नों के हैं, उसके स्कन्ध रुचिर [सुन्दर और वैडूर्य रत्न के हैं, इसकी मूलभूत शाखाएँ सुन्दर-श्रेष्ठ चांदी की हैं, अनेक प्रकार के रत्नों और मणियों से इसकी शाखा-प्रशाखाएँ बनी हुई हैं, वैडूर्यरत्नों के पत्ते हैं और तपनीय स्वर्ण के इसके पत्रवृन्त वीट) हैं, इसके प्रवाल और पल्लवांकुर जाम्बूनद नामक स्वर्ण के हैं, लाल हैं, सुकोमल हैं और मृदुस्पर्श वाले हैं / ' नानाप्रकार के मणिरत्नों के फूल हैं / वे फूल सुगन्धित हैं / उसकी शाखाएँ फल के भार से नमी हुई हैं / वह जम्बूवृक्ष सुन्दर छाया वाला, सुन्दर कान्ति वाला, शोभा वाला, उद्योत वाला और मन को अत्यन्त तृप्ति देने वाला है। वह प्रासादीय है, दर्शनीय है, अभिरूप है और प्रतिरूप है। 1. वृत्तिकार ने मतान्तर का उल्लेख करते हुए लिखा है-'अपरे सौवणिक्यो मूलशाखाः प्रशाखा रजतमय्यः इत्युचुः / ' अन्ये तु जम्बूनदमया अग्रप्रवाला अंकुरापरपर्याया राजता इत्याहु / इस विषयक संग्रहणी गाथाएं इस प्रकार हैं-- मूला वइरमया से कंदो खंधो य रिट्ठवेरुलियो / सोवणियसाहप्पसाह तह जायरूवा य // 1 // विडिमा रयय वेरुलिय पत्त तत्रणिज्ज पत्तविटा य / पल्लव अग्गपवाला जम्बूणय रायया तीसे // 2 // Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जीवाजीवाभिगमसूत्र 152. [1] जंबूए णं सुदंसणाए चउद्दिसि चत्तारि साला पण्णत्ता, तंजहा--पुरस्थिमेणं दक्खिणेणं पच्चत्थिमेणं उत्तरेणं / तस्थ णं जे से पुरथिमिल्ले साले एत्थ णं एगे महं भवणे पण्णत्ते, एग कोसं आयामेणं अद्धकोसं विक्खंभेणं देसूर्ण कोसं उड्ढे उच्चत्तेणं अणेगखंभसयसण्णिविट्ठे वण्णओ जाव भवणस्स दारं तं चेव पमाणं पंचधणुसयाई उड्ढं उच्चत्तेणं अड्डाइज्जाइं धणुसयाई विक्खंभेणं जाव वणमालाओ भूमिभागा उल्लोया मणिपेढिया पंचधणुसइया वेवसयाणिज्जं भाणियव्वं / तत्थ णं जे से दाहिणिल्ले साले एत्थ णं एगे महं पासायव.सए पण्णत्ते, कोसं च उड्ढं उच्चत्तेणं अद्धकोसं आयामविक्खंभेणं अग्भुग्गयमूसिय० अंतो बहुसम० उल्लोया। तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए सीहासणं सपरिवार भाणियव्वं / तत्थ णं जे से पच्चत्थिमिल्ले साले एत्थ गं पासायव.सए पणत्ते तं चेव पमाणं सोहासणं सपरिवार भाणियव्वं / तत्थ णं जे से उत्तरिल्ले साले एत्थ णं एगे महं पासायव.सए पण्णत्ते तं चेव पमाणं सीहासणं सपरिवारं। तत्थ णं जे से उवरिमविडिमे एस्थ णं एगे महं सिद्धायतणे कोसं आयामेणं अद्धकोसं विक्खंभेणं देसूर्ण कोस उड्ढं उच्चत्तेणं अणेगखंभसयसग्निविट्ठे वण्णओ। तिदिसि तओ दारा पंचधणुसया अड्डाइजधणुसयविक्खंभा मणिपेढिया पंचधणुसइया देवच्छंदओ पंचधणुसयाई आयामविक्खंभेणं साइरेगपंचधणुसयाइमुच्चत्तेणं / तत्थ णं देवच्छंदए अट्ठसयं जिणपडिमाणं जिणुस्सेहपमाणाणं, एवं सव्वा सिद्धायतण वत्तव्यया भाणियव्वा जाव धूवकडच्छुया उत्तिमागारा सोलसविहेहि रयणेहिं उबेए चेव। [152] [1] सुदर्शना अपर नाम जम्बू की चारों दिशाओं में चार-चार शाखाएँ कही गई हैं, यथा-पूर्व में, दक्षिण में, पश्चिम में और उत्तर में / उनमें से पूर्व की शाखा पर एक विशाल भवन कहा गया है जो एक कोस लम्बा, प्राधा कोस चौड़ा, देशोन एक कोस ऊँचा है, अनेक सैकड़ों खंभों पर आधारित है आदि वर्णन भवन के द्वार तक करना चाहिए। वे द्वार पाँच सौ धनुष के ऊँचे, ढाई सौ धनुष के चौड़े यावत् वनमालाओं, भूमिभागों, ऊपरीछतों और पांच सौ धनुष की मणिपीठिका और देवशयनीय का पूर्ववत् वर्णन करना चाहिए। उस जम्बू की दक्षिणी शाखा पर एक विशाल प्रासादावतंसक है, जो एक कोस ऊँचा, प्राधा कोस लम्बा-चौड़ा है, आकाश को छूता हुआ और उन्नत है। उसमें बहुसमरमणीय भूमिभाग है, भीतरी छतें चित्रित हैं आदि वर्णन जानना चाहिए। उस बहुसमरमणीय भूमिभाग के मध्य में सिंहासन हैं, वह सिंहासन सपरिवार है अर्थात् उसके आसपास अन्य सामानिक देवों आदि के भद्रासन हैं। यह सब वर्णन पूर्ववत् कहना चाहिए। उस जम्बू की पश्चिमी शाखा पर एक विशाल प्रासादावतंसक है। उसका वही प्रमाण है और सब वक्तव्यता पूर्ववत् कहनी चाहिए यावत् वहाँ सपरिवार सिंहासन कहा गया है। उस जम्बू की उत्तरी शाखा पर भी एक विशाल प्रासादावतंसक है आदि सब कथन-प्रमाण, सपरिवार सिंहासन आदि पूर्ववत् जानना चाहिए / Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : जंबूद्वीप क्या कहलाता है ?] [437 उस जम्बूवृक्ष की ऊपरी शाखा पर एक विशाल सिद्धायतन है जो एक कोस लम्बा, प्राधा कोस चौड़ा और देशोन एक कोस ऊँचा है और अनेक सौ स्तम्भों पर आधारित है आदि वर्णन करना चाहिए। उसकी तीनों दिशाओं में तीन द्वार कहे गये हैं जो पांच सौ धनुष ऊँचे, ढाई सौ धनुष चौड़े हैं / पांच सौ धनुष की मणिपीठिका है। उस पर पांच सौ धनुष चौड़ा और कुछ अधिक पांच सौ धनुष ऊँचा देवच्छंदक है / उस देवच्छंदक में जिनोत्सेध प्रमाण एक सौ आठ जिनप्रतिमाएँ हैं। इस प्रकार पूरी सिद्धायतन वक्तव्यता कहना चाहिए यावत् वहाँ धूपकडुच्छुक हैं / वह उत्तम आकार का है और सोलह प्रकार के रत्नों से युक्त है। 152. (2) जंबू णं सुदंसणा मूले बारसहिं पउमवरवेइयाहि सव्वओ समंता संपरिक्खिता। ताओ गं पउमवरवेइयाओ अद्धजोयणं उड्ढं उच्चत्तेणं पंचधणुसयाई विक्खंभेणं, वण्णओ। जंबू णं सुदंसणा अण्णणं अट्ठसएणं जंबूणं तयद्धच्चत्तप्पमाणमेत्तेणं सवओ समंता संपरिक्खिता। ताओ णं जंबूओ चत्तारि जोयणाई उड्ढं उच्चत्तेणं कोसं च उव्वेहेणं जोयणं खंधो, कोसं विक्खंभेणं तिण्णि जोयणाई विडिमा, बहुमज्झदेसभाए चत्तारि जोयणाई आयाम विक्खंभेणं साइरेगाइं चत्तारि जोयणाई सम्यग्गेणं, वइरामयमूला सो चेव चेइयरुक्खवण्णओ। जंबूए णं सुदंसणाए अवरुत्तरेणं उत्तरेणं उत्तरपुरथिमेणं एत्थ णं अणढियस्स चउण्हं सामाणियसाहस्सोणं चत्तारि जंबूसाहस्सोओ पण्णत्ताओ। जंबूए णं सुदंसणाए पुरथिमेणं एत्थ णं अणढियस्स देवस्स चउण्हं अगमहिसोणं चत्तारि जंबूओ पण्णत्ताओ। एवं परिवारो सम्वो भाणियव्यो जंबूए जाव आयरक्खाणं / जंबू णं सुदंसणा तिहि जोयणसइएहि वणसंडेहि सव्वओ समंता संपरिक्खित्ता, तंजहा-- पढमेणं दोच्चेणं तच्चेणं / जंबूए णं सुदंसणाए पुरथिमेणं पढमं वणसंड पण्णासं जोयणाइं ओगाहित्ता एत्य णं एगे महं भवणे पण्णत्ते, पुरथिमिल्ले भवणसरिसे भाणियब्वे जाव सणिज्ज। एवं वाहिणेणं पच्चत्यिमेणं उत्तरेणं। जंयूए णं सुदंसणाए उत्तरपुरत्थिमेणं पढमं बणसंडं पण्णासं जोयणाई ओगाहित्ता चत्तारि नंदापुक्खरिणीओ पण्णत्ताओ, तंजहा—पउमा पउमप्पभा चेव कुमुदा कुमयप्पभा। ताओ णं णंदापुक्खरिणीओ कोसं आयामेणं अद्धकोसं विक्खंभेणं पंचधणुसयाई उद्वेहेणं अच्छाओ सहाओ लण्हाओ घटाओ मट्ठाओ णिप्पंकाओ णोरयाओ जाव पडिरूवाओ। वण्णओ भाणियब्वो जाव तोरणत्ति / तासि णं णंदापुक्खरिणीणं बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं पासायावडेंसए पण्णत्ते कोसप्पमाणे अद्धकोसं विक्खंभो सो चेव वण्णओ जाव सीहासणं सपरिवारं। एवं दक्षिण-पुरस्थिमेण वि पण्णासं जोयणाई ओगाहित्ता चत्तारि गंदापुक्खरिणीओ उप्पलगुम्मा, नलिणा उप्पला, उप्पलुज्जला, तं चेव पमाणं तहेव पासायबडेंसगो तप्पमाणो / एवं दक्षिण-पच्चत्यिमेण वि पण्णासं जोयणाणं नवरं भिंगा भिगाणिमा चेव अंजणा कज्जलप्पभा। सेसं तं चेव / Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 438] [जीवाजोवाभिगमसूत्र ___ जंबूए णं सुदंसणाए उत्तरपुरत्थिमे पढम वणसंडं पण्णासं जोयणाई ओगाहित्ता एत्थ णं चत्तारि गंदाओ पुक्खरिणीओ पण्णताओ, तं जहा–सिरिकता सिरिमहिया सिरिचंदा चेक तह य सिरिणिलया। तं चेव पमाणं तहेव पासायडिसओ। [152] [2] यह सुदर्शना जम्बू मूल में बारह पद्मवरवेदिकाओं से चारों ओर घिरी हुई है / वे पद्मवरवेदिकाएँ अाधा योजन ऊँची, पांच सौ धनुष चौड़ी हैं / यहाँ पद्मवरवेदिका का वर्णनक कहना चाहिए। यह जम्बूसुदर्शना एक सौ आठ अन्य उससे आधी ऊँचाई वाली जंबुओं से चारों ओर घिरी हुई है। वे जम्बू चार योजन ऊँची, एक कोस जमीन में गहरी हैं, एक योजन का उनका स्कन्ध, एक योजन का विष्कंभ है, तीन योजन तक फैली हुई शाखाएँ हैं / उनका मध्यभाग में चार योजन का विष्कंभ है और चार योजन से अधिक उनकी समग्र ऊँचाई है / वज्रमय उनके मूल हैं, आदि चैत्यवृक्ष का वर्णनक यहाँ कहना चाहिए। जम्बूसुदर्शना के पश्चिमोत्तर में, उत्तर में और उत्तरपूर्व में अनाहत देव के चार हजार सामानिक देवों के चार हजार जम्बू हैं / जम्बू सुदर्शना के पूर्व में अनाहत देव की चार अग्नमहिषियों के चार जम्बू हैं, इस प्रकार समस्त परिवार यावत् आत्मरक्षकों के जंबुओं का कथन करना चाहिए। जंबू-सुदर्शना सौ-सौ योजन के तीन वनखण्डों से चारों ओर घिरी हुई हैं, यथा प्रथम वनखंड, द्वितीय वनखंड और तृतीय वनखण्ड / जंबू-सुदर्शना के पूर्वीय प्रथम वनखण्ड में पचास योजन आगे जाने पर एक विशाल भवन है; पूर्व के भवन के समान ही शयनीय पर्यन्त सब वर्णन जान लेना चाहिए। इसी प्रकार दक्षिण में, पश्चिम में और उत्तर में भी भवन समझने चाहिए। जम्बू-सुदर्शना के उत्तरपूर्व के प्रथम वनखंड में पचास योजन आगे जाने पर चार नंदापुष्करिणियां कही गई हैं, उनके नाम हैं—पद्मा, पद्मप्रभा, कुमुदा और कुमुदप्रभा / वे नंदापुष्करिणियां एक कोस लम्बी, आधा कोस चौड़ी, पांच सौ धनुष गहरी हैं / वे स्वच्छ, श्लक्ष्ण, धृष्ट, मृष्ट, निष्पंक, नीरजस्क हैं यावत प्रतिरूप हैं, इत्यादि वर्णनक तोरण पर्यन्त कहना चाहिए। उन नंदापुष्करिणियों के बहमध्यदेशभाग में प्रासादावतंसक कहा गया है जो एक कोस ऊँचा है, आधा कोस का चौड़ा है, इत्यादि वही वर्णनक सपरिवार सिंहासन तक कहना चाहिए। इसी प्रकार दक्षिण-पूर्व में भी पचास योजन जाने पर चार नंदापुष्करिणियां हैं, यथा-उत्पलगुल्मा, नलिना, उत्पला, उत्पलोज्ज्वला / उनका प्रमाण, प्रासादावतंसक और उसका प्रमाण पूर्ववत् है / इसी प्रकार दक्षिण-पश्चिम में भी पचास योजन आगे जाने पर चार पुष्करिणियां हैं, यथाभृगा, भृ गिनिया, अंजना एवं कज्जलप्रभा / शेष सब पूर्ववत् / जम्बू-सुदर्शना के उत्तर-पूर्व में प्रथम वनखंड में पचास योजन आगे जाने पर चार नंदा Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : जंबूद्वीप क्या कहलाता है ? ] पुष्करिणियां हैं, उनके नाम हैं श्रीकान्ता, श्रीमहिता, श्रीचंद्रा और श्रीनिलया / ' वही प्रमाण और प्रासादावतंसक तथा उसका प्रमाण भी वही है। 152. [3] जंबूए णं सुदंसणाए पुरथिमिल्लस्स भवणस्स उत्तरेणं उत्तरपुरस्थिमस्स पासायवडेंसगस्स दाहिणणं एत्थ णं एगे महं कूडे पण्णत्ते अट्ठ जोयणाई उड्ढे उच्चत्तेणं, मूले बारस जोयणाई विक्खंभेणं मज्झे अट्ठ जोयणाई (आयाम) विक्खंभेणं उरि चत्तारि जोयणाई (आयाम) विक्खंभेणं मूले साइरेगाइं सत्ततीसं जोयणाई परिक्खेवेणं, मज्झे साइरेगाइं पणुवीसं जोयणाई परिक्खेवेणं उरि साइरेगाइं बारसजोयणाई परिक्खेवेणं मूले विच्छिण्णे मज्झे संखित्ते उप्पि तणुए गोपुच्छसंठाणसंठिए सव्वजंबूणयामए अच्छे जाव पडिरूवे / से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेणं वणसंडेणं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते; दोण्हवि वण्णओ। तस्स णं कूडस्स उरि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते जाव आसयंतिः / तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्सदेसभाए एग सिद्धायतणं कोसप्पमाणं सव्वा सिद्धायतणवत्तवया / जंबूए णं सुदंसणाए पुरथिमस्स भवणस्स दाहिणेणं दाहिणपुरथिमिल्लस्स पासायवडेंसगस्स उत्तरेणं एत्थ णं एगे महं कूडे पण्णते तं चेव पमाणं सिद्धायतणं य / जंबूए णं सुदंसणाए दाहिणिल्लस्स भवणस्स पुरथिमेणं दाहिणपुरथिमस्स पासायवडेंसगस्स पच्चत्थिमेणं एत्थ णं एगे महं कड़े पण्णत्ते / दाहिणस्स भवणस्स परओ दाहिण पच्चस्थिमिल्लस्स पासायवडिसगस्स पुरस्थिमेणं एत्थ णं एगे महं कूडे पण्णत्ते / जंबूओ पच्चथिमिल्लस्स भवणस्स दाहिणणं दाहिणपच्चथिमिल्लस्स पासायडिसगस्स उत्तरेणं एत्थ णं एगे महं कूडे पण्णत्ते; तं चेव पमाणं सिद्धायतणं य। जंबूए पच्चत्थिमभवणउत्तरेणं उत्तरपच्चथिमिल्लस्स पासायवडेंसगस्स दाहिणणं एत्थ गं एगे महं कूडे पण्णत्ते तं चेव पमाणं सिद्धायतणं च / जंबूए उत्तरस्स भवणस्स पच्चत्थिमेणं उत्तरपच्चत्थिमस्स पासायवडेंसगस्स पुरथिमेणं एत्थ णं एगे कूडे पण्णत्ते, तं चेव। जंबूए उत्तरभवणस्स पुरथिमेणं उत्तरपुरथिमिल्लस्स पासायवडेंसगस्स पच्चत्थिमेणं एत्थ णं एगे महं कूडे पण्णत्ते तं चेव पमाणं तहेव सिद्धायतणं / 152 [3] जम्बू-सुदर्शना के पूर्वदिशा के भवन के उत्तर में और उत्तरपूर्व के प्रासादावतंसक के दक्षिण में एक विशाल कूट कहा गया है जो आठ योजन ऊंचा, मूल में बारह योजन चौड़ा, मध्य में पाठ योजन चौड़ा ऊपर चार योजन चौड़ा, मूल में कुछ अधिक सैंतीस योजन की परिधि वाला, मध्य में कुछ अधिक पच्चीस योजन की परिधि वाला और ऊपर कुछ अधिक बारह योजन की परिधि वाला—मूल में विस्तृत, मध्य में संक्षिप्त और ऊपर पतला, गोपुच्छ आकार से संस्थित है, सर्वात्मना जाम्बूनद स्वर्णमय है, स्वच्छ है यावत् प्रतिरूप है। वह कूट एक पद्मवरवेदिका 1. वृत्ति के अनुसार इनके नामों का क्रम इस प्रकार है श्रीकान्ता, श्रीचन्द्रा श्रीनिलया और श्रीमहिता / उक्तं चपउमा पउसप्पभा चेव कुमुया कुमुयप्पभा / उप्पल गुम्मा नलिणा उप्पला उप्पलुज्जला // 1 // भिंगा भिगनिभा चेव अंजण्ण कज्जलप्पभा। सिरिकता सिरिचंदा सिरिनिलया सिरिमहिया / / 2 / / Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 440] [जीवाजीवाभिगमसूत्र और एक वनखण्ड से चारों ओर से घिरा हुआ है। पद्मवरवेदिका और वनखंड--दोनों का वर्णनक कहना चाहिए। उस कूट के ऊपर बहुसमरमणीय भूमिभाग है आदि पूर्ववत् वर्णन करना चाहिए यावत् वहाँ बहुत से वानव्यन्तर देव और देवियां उठती-बैठती हैं आदि / उस बहुसमरमणीय भूमिभाग के मध्य में एक सिद्धायतन कहा गया है जो एक कोस प्रमाण वाला है आदि सब सिद्धायतन की वक्तव्यता पूर्ववत् कहनी चाहिए। उस जम्बू-सुदर्शना के पूर्वदिशा के भवन से दक्षिण में और दक्षिण-पूर्व के प्रासादावतंसक के उत्तर में एक विशाल क्रूट है / उसका प्रमाण वही है यावत् वहाँ सिद्धायतन है। उस जम्बू-सुदर्शना के दक्षिण दिशा के भवन के पूर्व में और दक्षिण-पूर्व के प्रासादावतंसक के पश्चिम में एक विशाल कूट है / इसी तरह दाक्षिणात्य भवन के पश्चिम में और दक्षिण-पश्चिम प्रासादावतंसक के पूर्व में एक विशाल कूट है। __ उस जम्बू-सुदर्शना के पश्चिमी भवन के दक्षिण में और दक्षिण-पश्चिम के प्रासादावतंसक के उत्तर में एक विशाल कूट है। उसका प्रमाण वही है यावत् वहाँ सिद्धायतन है। उस जम्बू-सुदर्शना के पश्चिमी भवन के उत्तर में और उत्तर-पश्चिम के प्रासादावतंसक के दक्षिण में एक विशाल कूट है / वही प्रमाण है यावत् वहाँ सिद्धायतन है। उस जम्बू-सुदर्शना के उत्तर दिशा के भवन के पश्चिम में और उत्तर-पश्चिम के प्रासादावतंसक के पूर्व में एक विशाल कूट है आदि वर्णन करना चाहिए यावत् वहाँ सिद्धायतन है। . उस जम्बू-सुदर्शना के उत्तर दिशा के भवन के पूर्व में और उत्तरपूर्व के प्रासादावतंसक के पश्चिम में एक महान् कूट कहा गया है / उसका वही प्रमाण है यावत् वहाँ सिद्धायतन है / 152. (4) जंबू णं सुदंसणा अर्णोहिं बहूहिं तिलएहि लउहि जाव रायरक्खेहिं हिंगुरुलेहि जाव सव्यओ समंता संपरिक्खित्ता / / जंबूए णं सुदंसणाए उरि बहवे अट्ठमंगलगा पण्णता तंजहा-सोत्थिय सिरिवच्छ० किण्हा चामरज्झया जाव छत्ताइछत्ता। जंबूए णं सुदंसणाए दुवालस णामधेज्जा पण्णत्ता, तं जहा-- सुदंसणा अमोहा य सुप्पबुद्धा जसोधरा। विदेह जंबू सोमणसा णियया णिच्चमंडिया // 1 // सुभद्दा य विसाला य सुजाया सुमणीवि य।। सुदंसणाए जंबूए नामधेज्जा दुवालस // 2 // से केणढणं भंते ! एवं वुच्चइ-जंबू सुदंसणा जंबू सुवंसणा? गोयमा ! जंबूए णं सुदंसणाए जंबूदीवाई अणाढिए णामं देवे महिड्डिए जाव पलिओवमदिईए परिवसइ / से णं तत्य चउण्हं सामाणिसाहस्सोणं जाव जंबूवोवस्स जंबूए सुदंसणाए अणाढियाए य रायहाणीए जाव विहरह। Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : जंबूद्वीप क्यों कहलाता है ?] [441 कहि णं भंते ! अणाढियस्स जाव समता वत्तव्वया रायहाणीए, महिडिए / अदुत्तरं च णं गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे तत्थ तत्थ देसे तहि तहि बहवे जंबूरुक्खा जंबूवणा जंबूवणसंडा णिच्चं कुसुमिया जाव सिरीए अईव उवसोभेमाणा उक्सोभेमाणा चिट्ठति / से तेणढेणं गोयमा ! एवं वुच्चइजंबुद्दीवे अंबुद्दीवे / अदुत्तरं च णं गोयमा ! जंबुद्दीवस्स सासए णामधेज्जे पण्णत्ते जन्न कयावि गासि जाव णिच्चे। [152-4] वह जंबू-सुदर्शना अन्य बहुत से तिलक वृक्षों, लकुट वृक्षों यावत् राय वृक्षों और हिंगु वृक्षों से सब ओर से घिरी हुई है / जबू-सुदर्शना के ऊपर बहुत से आठ-आठ मंगल-स्वस्तिक श्रीवत्स यावत् दर्पण, कृष्ण चामर ध्वज यावत् छत्रातिछत्र हैं-यह सब वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए। जंबू-सुदर्शना के बारह नाम हैं, यथा-१. सुदर्शना, 2. अमोहा, 3. सुप्रबुद्धा, 4. यशोधरा, 5. विदेहजंबू, 6. सौमनस्या, 7. नियता, 8. नित्यमंडिता, 9. सुभद्रा, 10. विशाला, 11. सुजाता, 12. सुमना / सुदर्शना जंबू के ये 12 पर्यायवाची नाम हैं। हे भगवन् ! जंबू-सुदर्शना को जंबू-सुदर्शना क्यों कहा जाता है ? गौतम ! जम्बू-सुदर्शना में जंबूद्वीप का अधिपति अनादृत नाम का महद्धिक देव रहता है। यावत् उसकी एक पल्योपम की स्थिति है / वह चार हजार सामानिक देवों यावत् जंबूद्वीप की जंबूसुदर्शना का और अनादृता राजधानी का यावत् आधिपत्य करता हुआ विचरता है / हे भगवन् ! अनादृत देव की अनादृता राजधानी कहां है ? गौतम ! पूर्व में कही हुई विजया राजधानी की पूरी वक्तव्यता यहाँ कहनी चाहिए यावत् वहां महद्धिक अनादृत देव रहता है / गौतम ! अन्य कारण यह है कि जम्बूद्वीप नामक द्वीप में यहाँ वहाँ स्थान स्थान पर जम्बूवृक्ष, जंबूवन और जंबूवनखंड हैं जो नित्य कुसुमित रहते है यावत् श्री से अतीव अतीव उपशोभित होते विद्यमान हैं। इस कारण गौतम ! जम्बूद्वीप, जम्बूद्वीप कहलाता है / अथवा यह भी कारण है कि जम्बूद्वीप यह शाश्वत नामधेय है / यह पहले नहीं था-- ऐसा नहीं, वर्तमान में नहीं है, ऐसा भी नहीं और भविष्य में नहीं होगा ऐसा नहीं, यावत् यह नित्य है। विवेचन प्रस्तुत सूत्र में जम्बू-सुदर्शना के बारह नाम बताये गये हैं। वे नाम सार्थक नाम हैं और विशेष अभिप्रायों को लिये हैं / उन नामों की सार्थकता इस प्रकार है 1. सुदर्शना-अति सुन्दर और नयन मनोहारी होने से यह सुदर्शना कही जाती है / 2. अमोधा-अपने नाम को सफल करने वाली होने से यह अमोघा कहलाती है / इसके होने से ही जम्बूद्वीप का आधिपत्य सार्थक और सफल होता है, अन्यथा नहीं। अतः यह अमोघा ऐसे सार्थक नाम वाली है। 3. सुप्रबुद्धा-मणि, कनक और रत्नों से सदा जगमगाती रहती है, अतएव यह सुप्रबुद्धाउन्निद्र है। Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 442] [जीवानीवाभिगमसूत्र 4. यशोधरा-इसके कारण ही जम्बूद्वीप का यश त्रिभुवन में व्याप्त है अतएव इसे यशोधरा कहना उचित ही है। 5. विदेहजम्बू-विदेह के अर्न्तगत जम्बूद्वीप के उत्तरकुरुक्षेत्र में होने के कारण विदेह 6. सौमनस्या-मन की प्रसन्नता का कारण होने से सौमनस्या है / 7. नियता-सर्वकाल अवस्थित होने से नियता है / 8. नित्यमंडिता-सदा भूषणों से भूषित होने से नित्यमंडिता है / 9. सुभद्रा--सदा काल कल्याण-भागिनी है। इसका अधिष्ठाता महद्धिक देव होने से यह कदापि उपद्रवग्रस्त नहीं होती। 10. विशाला--पाठ योजनप्रमाण विशाल होने से यह विशाला-विस्तृता कही जाती है। 11. सुजाता- विशुद्ध मणि, कनक, रत्न आदि से निर्मित होने से यह सुजाता है-जन्मदोष रहिता है। 12. सुमना-- जिसके कारण से मन शोभन-अच्छा होता है वह सुमना है / वत्तिकार के अनुसार इन नामों का क्रम इस प्रकार है-१. सुदर्शना, 2. अमोघा, 3. सुप्रबुद्धा, 4. यशोधरा, 5. सुभद्रा, 6. विशाला, 7. सुजाता, 8. सुमना, 9. विदेहजम्बू, 10. सौमनस्या, 11. नियता, 12. नित्यमंडिता। जम्बूद्वीप को जम्बूद्वीप कहने के कारण इस प्रकार बताये हैं--(१) जम्बूवृक्ष से उपलक्षित होने के कारण यह जम्बूद्वीप कहलाता है / (2) जम्बूद्वीप के उत्तरकुरु क्षेत्र में यहाँ वहाँ स्थान-स्थान पर बहुत से जम्बूवृक्ष, जम्बूवन और जम्बूवनखण्ड हैं इसलिए भी यह जम्बूद्वीप कहलाता है / एक जातीय वृक्षसमुदाय को वन कहते हैं और अनेक जातीय वृक्षसमूह को वनखण्ड कहते हैं / (3) जम्बू नाम शाश्वत होने से भी यह जम्बूद्वीप कहलाता है / जम्बूद्वीप में चन्द्रादि की संख्या 152. जंबुद्दीवे णं भंते ! दोवे कति चंदा पभासिसु वा पभाति वा पभासिस्संति वा ? कति सूरिया तविसु वा तवंति वा तबिस्संति वा ? कति नक्खत्ता जोयं जोयंसु वा जोयंति वा जोयस्संति वा ? कति महग्गहा चारं चारिसु वा चरिति वा चरिस्संति वा ? केवइयाओ तारागणकोडाकोडीओ सोहंसु वा सोहंति वा सोहेस्संति वा? ___ गोयमा ! जंबुद्दीवे गं दीवे दो चंदा पभासिसु वा, पभासेंति वा पभासिस्संति वा / दो सूरिया विसु वा तवेंति वा तविस्संति वा / छप्पन्नं नक्खत्ता जोगं जोएंसु वा जोएंति वा जोइस्संति वा। छावत्तरं गहसयं चारं चरिसु वा चरैति वा चरिस्संति वा। एगं च सयसहस्सं तेत्तीसं खलु भवे सहस्साई। णव य सया पन्नासा तारागणकोडकोडीणं // 1 // सोभिसु वा सोभंति वा सोभिस्संति वा / Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : जंबूद्वीप क्यों कहलाता है ? ] 153. हे भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में कितने चन्द्र चमकते थे, चमकते हैं-उद्योत करते हैं और चमकेंगे? कितने सूर्य तपते थे, तपते हैं और तपेंगे? कितने नक्षत्र (चन्द्रमा के साथ) योग करते थे, करते हैं, करेंगे? कितने महाग्रह आकाश में चलते थे, चलते हैं और चलेंगे ? कितने कोडाकोडी तारागण शोभित होते थे, शोभित होते हैं और शोभित होंगे ? __ गौतम ! जंबूद्वीप में दो चन्द्रमा उद्योत करते थे, करते हैं और करेंगे / दो सूर्य तपते थे, तपते हैं और तपेंगे। छप्पन नक्षत्र चन्द्रमा से योग करते थे, योग करते हैं और योग करेंगे / एक सौ छियत्तर महाग्रह आकाश में विचरण करते थे, करते हैं और विचरण करेंगे। एक लाख तेतीस हजार नौ सौ पचास कोडाकोडी तारागण आकाश में शोभित होते थे, शोभित होते हैं और शोभित होंगे। विवेचन-जंबूद्वीप में दो चन्द्र और दो सूर्य हैं। प्रत्येक चन्द्र के परिवार में 28 नक्षत्र, 88 ग्रह और 66975 कोडाकोडी तारागण हैं।' दो चन्द्रमा होने से 56 नक्षत्र, 176 ग्रह और 1,33,950 कोडाकोडी तारागण हैं। / / जम्बूद्वीप का वर्णन समाप्त / / 1. छावद्विसहस्साइं नव चेव सयाई पंचसयराइं। एकससीपरिवारो तारागण कोडिकोडीणं // Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनध्यायकाल [स्व० आचार्यप्रवर श्री आत्मारामजी म० द्वारा सम्पादित नन्दीसूत्र से उद्धृत] स्वाध्याय के लिए आगमों में जो समय बताया गया है, उसी समय शास्त्रों का स्वाध्याय करना चाहिए / अनध्यायकाल में स्वाध्याय वजित है। . मनुस्मृति आदि स्मृतियों में भी अनध्यायकाल का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। वैदिक लोग भी वेद के अनध्यायों का उल्लेख करते हैं / इसी प्रकार अन्य आर्ष ग्रन्थों का भी अनध्याय माना जाता है। जैनागम भी सर्वज्ञोक्त, देवाधिष्ठित तथा स्वरविद्या संयुक्त होने के कारण, इनका भी आगमों में अनध्यायकाल वर्णित किया गया है, जैसे कि दसविधे अंतलिखिते असज्झाए पण्णत्ते, तं जह-उक्कावाते, दिसिदाधे, गज्जिते, विज्जुते, निग्घाते, जुवते, जक्खालित्ते धूमिता, महिता, रयउग्घाते। दसविहे ओरालिते असज्झातिते, तं जहा---अट्ठी, मंसं, सोणिते, असुतिसामंते, सुसाणसामंते, चंदोवराते, सूरोवराते, पडने, रायवुग्गहे, उवस्सयस्स अंतो ओरालिए सरीरगे। -स्थानाङ्गसूत्र, स्थान 10 नो कप्पति निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा चरहिं महापाडिवएहिं सज्झायं करित्तए, तं जहाआसाढपाडिवए, इंदमहपाडिवए कत्तिअपाडिवए सुगिम्हपाडिवए / नो कप्पइ निग्गंथाणा वा निग्गंथीण वा, चरहिं संझाहिं सज्झायं करेत्तए, तं जहा-पढिमाते, पच्छिमाते, मज्झण्हे, अडरत्ते / कप्पई निग्गंथाणं वा, निग्गंथीण वा, चाउक्कालं सज्झायं करेत्तए, तं जहा-पुव्वण्हे अवरण्हे, पप्रोसे, पच्सूसे / -स्थानाङ्गसूत्र, स्थान 4, उद्देश 2 उपरोक्त सूत्रपाठ के अनुसार, दस आकाश से सम्बन्धित, दस औदारिक शरीर से सम्बन्धी, चार महाप्रतिपदा, चार महाप्रतिपदा की पूर्णिमा और चार सन्ध्या, इस प्रकार बत्तीस अनध्याय माने गए हैं, जिनका संक्षेप में निम्न प्रकार से वर्णन है, जैसेप्राकाश सम्बन्धी दस अनध्याय 1. उत्कापात-तारापतन-यदि महत् तारापतन हुआ है तो एक प्रहर पर्यन्त शास्त्र स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 2. दिग्दाह-जब तक दिशा रक्तवर्ण की हो अर्थात् ऐसा मालूम पड़े कि दिशा में आग सी लगी है, तब भी स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 3. गजित-बादलों के गर्जन पर एक प्रहर पर्यन्त स्वाध्याय न करे। 4. विद्युत-बिजली चमकने पर एक प्रहर पर्यन्त स्वाध्याय न करे / किन्तु गर्जन और विद्युत् का अस्वाध्याय चातुर्मास में नहीं मानना चाहिए। क्योंकि वह Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनध्यायकाल] [445 गर्जन और विद्युत् प्रायः ऋतु-स्वभाव से ही होता है। अतः प्रार्द्रा से स्वाति नक्षत्र पर्यन्त अनध्याय नहीं माना जाता। 5. निर्घात-बिना बादल के आकाश में व्यन्तरादिकृत घोर गर्जना होने पर, या बादलों सहित आकाश में कड़कने पर दो प्रहर तक अस्वाध्याय काल है। 6. यूपक-शुक्ल पक्ष में प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया को सन्ध्या की प्रभा और चन्द्रप्रभा के मिलने को यूपक कहा जाता है / इन दिनों प्रहर रात्रि पर्यन्त स्वाध्याय नहीं करना चाहिए / 7. यक्षादीप्त-कभी किसी दिशा में बिजली चमकने जैसा, थोड़े थोड़े समय पीछे जो प्रकाश होता है, वह यक्षादीप्त कहलाता है / अतः आकाश में जब तक यक्षाकार दीखता रहे तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिये / 8. धूमिका-कृष्ण-कार्तिक से लेकर माघ तक का समय मेघों का गर्भमास होता है इसमें धुम्र वर्ण की सूक्ष्म जलरूप धुध पड़ती है। वह धूमिका-कृष्ण कहलाती है। जब तक यह धुध पड़ती रहे, तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 9. मिहिकाश्वेत-शीतकाल में श्वेत वर्ण की सूक्ष्म जलरूप धुध मिहिका कहलाती है। जब तक यह गिरती रहे, तब तक अस्वाध्याय काल है। 10. रज-उद्घात-वायु के कारण आकाश में चारों और धूलि छा जाती है / जब तक यह धूलि फैली रहती है, स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। उपरोक्त दस कारण आकाश सम्बन्धी अस्वाध्याय के हैं। औदारिक शरीर सम्बन्धी दस अनध्याय 11-12-13. हड्डी, मांस और रुधिर--पंचेन्द्रिय तिर्यंच की हड्डी, मांस और रुधिर यदि सामने दिखाई दें, तो जब तक वहाँ से ये वस्तुएँ उठाई न जाएँ, तब तक अस्वाध्याय है / वृत्तिकार आस-पास के 60 हाथ तक इन वस्तुओं के होने पर अस्वाध्याय मानते हैं। इस प्रकार मनुष्य सम्बन्धी अस्थि, मांस और रुधिर का भी अनध्याय माना जाता है। विशेषता इतनी है कि इनका अस्वाध्याय सौ हाथ तक तथा एक दिन-रात का होता है। स्त्री के मासिक धर्म का अस्वाध्याय तीन दिन तक / बालक एवं बालिका के जन्म का अस्वाध्याय क्रमशः सात एवं आठ दिन पर्यन्त का माना जाता है। 14. अशुचि--मल-सूत्र सामने दिखाई देने तक अस्वाध्याय है / 15. श्मशान-श्मशानभूमि के चारों ओर सौ-सौ हाथ पर्यन्त अस्वाध्याय माना जाता है। 16. चन्द्रग्रहण-चन्द्रग्रहण होने पर जघन्य आठ, मध्यम बारह और उत्कृष्ट सोलह प्रहर पर्यन्त स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 17. सूर्यग्रहण-सूर्यग्रहण होने पर भी क्रमशः आठ, बारह और सोलह प्रहर पर्यन्त अस्वाध्यायकाल माना गया है। Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46] [अनध्यायकाल 18. पतन—किसी बड़े मान्य राजा अथवा राष्ट्रपुरुष का निधन होने पर जब तक उसका दाहसंस्कार न हो, तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए अथवा जब तक दूसरा अधिकारी सत्तारूढ न हो, तब तक शनैः शनैः स्वाध्याय करना चाहिए। 19. राजव्यग्रह-समीपस्थ राजाओं में परस्पर युद्ध होने पर जब तक शान्ति न हो जाए, तब तक और उसके पश्चात् भी एक दिन-रात्रि स्वाध्याय नहीं करें। 20. औदारिक शरीर-उपाश्रय के भीतर पंचेन्द्रिय जीव का वध हो जाने पर जब तक कलेवर पड़ा रहे, तब तक तथा 100 हाथ तक यदि निर्जीव कलेवर पड़ा हो तो स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। अस्वाध्याय के उपरोक्त 10 कारण औदारिक शरीर सम्बन्धी कहे गये हैं। 21-28. चार महोत्सव और चार महाप्रतिपदा-प्राषाढ-पूर्णिमा, आश्विन-पूर्णिमा, कार्तिकपूर्णिमा और चैत्र-पूर्णिमा ये चार महोत्सव हैं। इन पूर्णिमाओं के पश्चात् आने वाली प्रतिपदा को महाप्रतिपदा कहते हैं। इनमें स्वाध्याय करने का निषेध है। 29-32. प्रातः, सायं, मध्याह्न और अर्धरात्रि-प्रात: सूर्य उगने से एक घड़ी पहिले तथा एक घड़ी पीछे। सूर्यास्त होने से एक घड़ी पहले तथा एक घड़ी पीछे / मध्याह्न अर्थात् दोपहर में एक घड़ी आगे और एक घड़ी पीछे एवं अर्धरात्रि में भी एक घड़ी आगे तथा एक घड़ी पीछे स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। IO Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री प्रागमप्रकाशन-समिति, ब्यावर अर्थसहयोगी सदस्यों की शुभ नामावली महास्तम्भ संरक्षक 1. श्री सेठ मोहनमलजी चोरडिया, मद्रास 1. श्री बिरदीचंदजी प्रकाशचंदजी तलेसरा, पाली 2. श्री गुलाबचन्दजी मांगीलालजी सुराणा, 2. श्री ज्ञानराजजी केवलचन्दजी मूथा, पाली सिकन्दराबाद 3. श्री प्रेमराजजी जतनराजजी मेहता, मेड़ता सिटी 3. श्री पुखराजजी शिशोदिया, ब्यावर 4. श्री श० जडावमलजी माणकचन्दजी बेताला, 4. श्री सायरमलजी जेठमलजी चोरडिया, बैंगलोर बागलकोट 5. श्री प्रेमराजजी भंवरलालजी श्रीश्रीमाल, दुर्ग 5. श्री हीरालालजी पन्नालालजी चौपड़ा, ब्यावर 6. श्री एस. किशनचन्दजी चोरड़िया, मद्रास 6. श्री मोहनलालजी नेमीचन्दजी ललवाणी, 7. श्री कंवरलालजी बैताला, गोहाटी चांगाटोला 8. श्री सेठ खींवराजजी चोरडिया, मद्रास 7. श्री दीपचंदजी चन्दनमलजी चोरडिया, मद्रास 9. श्री गुमानमलजी चोरडिया, मद्रास 8. श्री पन्नालालजी भागचन्दजी बोथरा, चांगा१०. श्री एस. बादलचन्दजी चोरडिया, मद्रास टोला 11. श्री जे. दुलीचन्दजी चोरडिया, मद्रास 9. श्रीमती सिरेकुवर बाई धर्मपत्नी स्व. श्री सुगन१२. श्री एस. रतनचन्दजी चोरडिया, मद्रास चंदजी झामड़, मदुरान्तकम् 13. श्री जे. अन्नराजजी चोरडिया, मद्रास 10. श्री बस्तीमलजी मोहनलालजी बोहरा 14. श्री एस. सायरचन्दजी चोरडिया, मद्रास (K.G.F.) जाड़न 15. श्री आर. शान्तिलालजी उत्तमचन्दजी चोर- 11. श्री थानचन्दजी मेहता, जोधपुर डिया, मद्रास 12. श्री भैरुदानजी लाभचंदजी सुराणा, नागौर 16. श्री सिरेमलजो हीराचन्दजी चोरडिया, मद्रास 13. श्री खूबचन्दजी गादिया, ब्यावर 17. श्री जे. हुक्मीचन्दजी चोरडिया, मद्रास 14. श्री मिश्रीलालजी धनराजजी विनायकिया, स्तम्भ सदस्य व्यावर 1. श्री अगरचन्दजी फतेचन्दजी पारख, जोधपुर 15. श्री इन्द्रचन्दजी बैद, राजनादगाँव 2. श्री जसराजजी गणेशमलजी संचेती, जोधपुर 16. श्री रावतमलजी भीकमचन्दजी पगारिया, 3. श्री तिलोकचंदजी, सागरमलजी संचेती, मद्रास बालाघाट 4. श्री पूसालालजी किस्तूरचंदजी सुराणा, कटंगी 17. श्री गणेशमलजी धर्मीचन्दजी कांकरिया, टंगला 5. श्री आर. प्रसन्नचन्दजी चोरड़िया, मद्रास 18. श्री सुगनचन्दजी बोकड़िया, इन्दौर 6. श्री दीपचन्दजी चोरड़िया, मद्रास 19. श्री हरकचंदजी सागरमलजी बेताला, इन्दौर 7. श्री मूलचन्दजी चोरडिया, कटंगी 20. श्री रघुनाथमलजी लिखमीचंदजी लोढ़ा, चांगा८. श्री वर्द्धमान इण्डस्ट्रीज, कानपुर टोला 9. श्री मांगीलालजी मिश्रीलालजी संचेती, दुर्ग 21. श्री सिद्धकरणजी शिखरचन्दजी बैद, चांगाटोला Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 448] [सदस्य-नामावली 22. श्री सागरमलजी नोरतमलजी पींचा, मद्रास 8. श्री फूलचन्दजी गौतमचन्दजी कांठेड, पाली . 23. श्री मोहनराजजी मुकनचन्दजी बालिया, 9. श्री के. पुखराजजी बाफणा, मद्रास अहमदाबाद 10. श्री रूपराजजी जोधराजजी मूथा, दिल्ली 24. श्री केशरीमलजी जंवरीलालजी तलेसरा, पाली 11. श्री मोहनलालजी मंगलचंदजी पगारिया, रायपुर 25. श्री रतनचन्दजी उत्तमचन्दजी मोदी, ब्यावर 12. श्री नथमलजी मोहनलालजी लणिया, चण्डावल 26. श्री धर्मीचन्दजी भागचन्दजी बोहरा, झठा 13. श्री भंवरलालजी गौतमचन्दजी पगारिया, 27. श्री छोगमलजी हेमराजजी लोढ़ा डोंडीलोहारा कुशालपुरा 28. श्री गुणचंदजी दलीचंदजी कटारिया, बेल्लारी 14. श्री उत्तमचंदजी मांगीलालजी, जोधपुर 29. श्री मूलचन्दजी सुजानमलजी संचेती, जोधपुर 15. श्री मूलचन्दजी पारख, जोधपुर 30. श्री सी० अमरचन्दजी बोथरा, मद्रास 16. श्री सुमेरमलजी मेड़तिया, जोधपुर 31. श्री भंवरलालजी मूलचंदजी सुराणा, मद्रास 17. श्री गणेशमलजी नेमीचन्दजी टाटिया, जोधपुर 32. श्री बादलचंदजी जुगराजजी मेहता, इन्दौर 18. श्री उदयराजजी पुखराजजी संचेती, जोधपुर 33. श्री लालचंदजी मोहनलालजी कोठारी, गोठन 19. श्री बादरमलजो पुखराजजी बंट, कानपुर 34. श्री हीरालालजी पन्नालालजी चौपड़ा, अजमेर 20. श्रीमती सुन्दरबाई गोठी w/o श्री ताराचंदजी 35. श्री मोहनलालजी पारसमलजी पगारिया, गोठी, जोधपुर बैंगलोर 21. श्री रायचन्दजी मोहनलालजी, जोधपुर 36. श्री भंवरीमलजी चोरड़िया, मद्रास 22. श्री घेवरचन्दजी रूपराजजी, जोधपुर 37. श्री भंवरलालजी गोठी, मद्रास 23. श्री भंवरलालजी माणकचंदी सुराणा, मद्रास 38. श्री जालमचंदजी रिखबचंदजी बाफना, आगरा 24. श्री जंवरीलालजी अमरचन्दजी कोठारी, ब्यावर 39. श्री घेवरचंदजी पुखराजजी भुरट, गोहाटी 25. श्री माणकचंदजी किशनलालजी, मेड़तासिटी। 40. श्री जबरचन्दजी गेलड़ा, मद्रास 26. श्री मोहनलालजी गुलाबचन्दजी चतर, ब्यावर 41. श्री जड़ावमलजी सुगनचन्दजी, मद्रास 27.. श्री जसराजजीजवरीलालजी धारीवाल, जोधपूर 42. श्री पुखराजजी विजयराजजी, मद्रास 28. श्री मोहनलालजी चम्पालालजी गोठी, जोधपुर 43. श्री चेनमलजी सुराणा ट्रस्ट, मद्रास 29. श्री नेमीचंदजी डाकलिया मेहता, जोधपुर 44. श्री लणकरजी रिखबचंदजी लोढ़ा, मद्रास / 30. श्री ताराचंदजी केवलचंदजी कर्णावट, जोधपुर 45. श्री सूरजमलजी सज्जनराजजी महेता, कोप्पल 31. श्री पासूमल एण्ड क०, जोधपुर सहयोगी सदस्य 32. श्री पुखराजजी लोढ़ा, जोधपुर 1. श्री देवकरणजी श्रीचन्दजी डोसी, मेड़तासिटी 33. श्रीमती सुगनीबाई w/o श्री मिश्रीलालजी सांड, जोधपुर 2. श्रीमती छगनीबाई विनायकिया, ब्यावर 34. श्री बच्छराजजी सुराणा, जोधपुर 3. श्री पूनमचन्दजी नाहटा, जोधपुर 35. श्री हरकचन्दजी मेहता, जोधपुर 4. श्री भंवरलालजी विजयराजजी कांकरिया, 36. श्री देवराजजी लाभचंदजी मेड़तिया, जोधपुर विल्लीपुरम् 37. श्री कनकराजजी मदनराजजी गोलिया, 5. श्री भंवरलालजी चौपड़ा, ब्यावर जोधपुर 6. श्री विजयराजजी रतनलालजी चतर, ब्यावर 38. श्री घेवरचन्दजी पारसमलजी टांटिया, जोधपुर 7. श्री बी. गजराजजी बोकडिया, सेलम 39. श्री मांगीलालजी चोरडिया, कुचेरा Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदस्य-नामावली] [449 40. श्री सरदारमलजी सुराणा, भिलाई 69. श्री हीरालालजी हस्तीमलजी देशलहरा, भिलाई 41. श्री प्रोकचंदजी हेमराजजी सोनी, दुर्ग 70. श्री वर्द्धमान स्थानकवासी जैन श्रावकसंघ, 42. श्री सूरजकरणजी सुराणा, मद्रास दल्ली-राजहरा 43. श्री घीसूलालजी लालचंदजी पारख, दुर्ग 71. श्री चम्पालालजी बुद्धराजजी बाफणा, ब्यावर 44. श्री पुखराजजी बोहरा, (जैन ट्रान्सपोर्ट कं.) 72. श्री गंगारामजी इन्द्रचंदजी बोहरा, कुचेरा जोधपुर 73. श्री फतेहराजजी नेमोचंदजो कर्णावट, कलकत्ता 45. श्री चम्पालालजी सकलेचा, जालना 74. श्री बालचंदजी थानचन्दजी भुरट, 46. श्री प्रेमराजजी मीठालालजी कामदार, कलकत्ता बैंगलोर 75. श्री सम्पतराजजी कटारिया, जोधपुर 47. श्री भंवरलालजी मूथा एण्ड सन्स, जयपुर 76. श्री जंवरीलालजी शांतिलालजी सुराणा, 48. श्री लालचंदजी मोतीलालजी गादिया, बैंगलोर बोलारम 49. श्री भंवरलालजी नवरत्नमलजी सांखला, 77. श्री कानमलजी कोठारी, दादिया __ मेपालियम 78. श्री पन्नालालजी मोतीलालजी सुराणा, पाली 50. श्री पुखराजजी छल्लाणी, करणगुल्ली 79. श्री माणकचंदजी रतनलालजी मुणोत, टंगला 51. श्री आसकरणजी जसराजजी पारख, दुर्ग 50. श्री चिम्मनसिंहजी मोहनसिंहजी लोढ़ा, ब्यावर 52. श्री गणेशमलजी हेमराजजी सोनी, भिलाई 81. श्री रिद्धकरणजी रावतमलजी भुरट, गौहाटी 53. श्री अमृतराजजी जसवन्तराजजी मेहता, 82. श्री पारसमलजी महावीरचंदजी बाफना, गोठन मेड़तासिटी 63. श्री फकीरचंदजी कमलचंदजी श्रीश्रीमाल. 54. श्री घेवरचंदजी किशोरमल जी पारख, जोधपुर कुचेरा 55. श्री मांगीलालजी रेखचंदजी पारख, जोधपुर 84. श्री मांगीलालजी मदनलालजी चोरडिया, भैरूंदा 56. श्री मुन्नीलालजी मूलचंदजी गुलेच्छा, जोधपुर 85. श्री सोहनलालजी लूणकरणजी सुराणा, कुचेरा 57. श्री रतनलालजी लखपतराजजी, जोधपुर 86. श्री धीसूलालजी, पारसमलजी, जंवरीलालजी 58. श्री जीवराजजी पारसमलजी कोठारी, मेड़ता कोठारी, गोठन सिटी 87. श्री सरदारमलजी एण्ड कम्पनी, जोधपुर 59. श्री भंवरलालजी रिखबचंदजी नाहटा, नागौर 88. श्री चम्पालालजी होरालालजो बागरेचा, 60. श्री मांगीलालजी प्रकाशचन्दजी रूणवाल, मैसूर जोधपुर 61. श्री पुखराजजी बोहरा, पीपलिया कलां 86. श्री धुखराजजी कटारिया, जोधपुर 62. श्री हरकचंदजी जुगराजजी बाफना, बैंगलोर 90. श्री इन्द्रचन्दजी मुकनचन्दजी, इन्दौर 63. श्री चन्दनमलजी प्रेमचंदजी मोदी, भिलाई 21. श्री भंवरलालजी बाफणा, इन्दौर 64. श्री भीवराजजी बाघमार, कुचेरा 92. श्री जेठमलजी मोदी, इन्दौर। 65. श्री तिलोकचंदजी प्रेमप्रकाशजी, अजमेर . 93. श्री बालचन्दजी अमरचन्दजी मोदी, ब्यावर 66. श्री विजयलालजी प्रेमचंदजी गुलेच्छा, 94. श्री कुन्दनमलजी पारसमलजी भंडारी, बैंगलौर राजनादगांव 65. श्रीमती कमलाकंवर ललवाणी धर्मपत्नी श्री 67. श्री रावतमलजी छाजेड़, भिलाई स्व. पारसमलजी ललवाणी, गोठन 68. श्री भंवरलालजी डूंगरमलजी कांकरिया, 96. श्री अखेचंदजी लणकरणजी भण्डारी, कलकत्ता भिलाई 97. श्री सुगनचन्दजी संचेती, राजनादगाँव Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 450] [सदस्य-नामावली 98. श्री प्रकाशचंदजी जैन, नागौर 116. श्रीमती रामकुंवरबाई धर्मपत्नी श्री चांदमलजी 99. श्री कुशालचंदजी रिखबचन्दजी सुराणा, लोढ़ा, बम्बई बोलारम 117. श्री मांगीलालजी उत्तमचंदजी बाफणा, बैंगलोय 100. श्री लक्ष्मीचंदजी अशोककुमारजी श्रीश्रीमाल, 118. श्री सांचालालजी बाफणा, औरंगाबाद कुचेरा 119. श्री भीखमचन्दजी माणकचन्दजी खाबिया, 101. श्री गूदड़मलजी चम्पालालजी, गोठन (कुडालोर) मद्रास 102. श्री तेजराजजी कोठारी, मांगलियावास 120. श्रीमती अनोपकुंवर धर्मपत्नी श्री चम्पालालजी 103. सम्पतराजजी चोरडिया, मद्रास संघवी, कुचेरा 104. श्री अमरचंदजी छाजेड, पाद बड़ी 121. श्री सोहनलालजी सोजतिया, थांवला 105. श्री जुगराजजी धनराजजी बरमेचा, मद्रास 122. श्री चम्पालालजी भण्डारी, कलकत्ता 106. श्री पुखराजजी नाहरमलजी ललवाणी, मद्रास 123. श्री भीखमचन्दजी गणेशमलजी चौधरी, 107. श्रीमती कंचनदेवी व निर्मलादेवी, मद्रास धूलिया 108. श्री दुलेराजजी भंवरलालजी कोठारी, 124. श्री पुखराजजी किशनलालजी तातेड़, कुशालपुरा सिकन्दराबाद 109. श्री भवरलालजी मांगीलालजी बेताला, डेह 125. श्री मिश्रोलालजी सज्जनलालजी कटारिया 110. श्री जीवराजजी भंवरलालजी चोरडिया, सिकन्दराबाद भैरूदा 126. श्री वर्तमान स्थानकवासी जैनश्रावक संघ, 111. श्री मांगीलालजी शांतिलालजी रूणवाल, बगड़ीनगर हरसोलाव 127. श्री पुखराजजी पारसमलजी ललवाणी, 112. श्री चांदमलजी धनराजजी मोदी, अजमेर बिलाड़ा 113. श्री रामप्रसन्न ज्ञानप्रसार केन्द्र, चन्द्रपुर . 128. श्री टी. पारसमलजी चोरडिया, मद्रास 114. श्री भूरमलजी दुलीचंदजी बोकड़िया, मेड़ता 129. श्री मोतीलालजी पासूलालजी बोहरा सिटी एण्ड के., बैंगलोर 115. श्री मोहनलालजी धारीवाल, पाली 130. श्री सम्पतराजजी सुराणा, मनमाड़ 00 Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिमत डॉ. भागचन्द्र जैन एम. ए., पी-एच. डी., डी. लिट. आगम प्रकाशन समिति द्वारा प्रकाशित अठारह भाग प्राप्त हुए / धन्यवाद / इन ग्रन्थों का विहंगावलोकन करने पर यह कहने में प्रसन्नता हो रही है कि संपादकों एवं विवेचक विद्वानों ने नियुक्ति, चूणि एवं टीका का आधार लेकर आगमों की सयुक्तिक व्याख्या की है। व्याख्या का कलेवर भी ठीक है। अध्येता की दृष्टि से ये ग्रन्थ अत्यन्त उपयोगी हैं / इस सुन्दर उपक्रम के लिए एतदर्थ हमारी बधाइयाँ स्वीकारें। al Education International . Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30) 1 . 242 आगमप्रकाशन समिति द्वारा अद्यावधि प्रकाशित आगम ग्रन्यांक नाम पृष्ठ अनुवादक-सम्पादक मूल्य 1. प्राचारांगसूत्र [प्र. भाग] 426 श्रीचन्द सुराना 'सरस' 2. आचारांगसूत्र [द्वि. भाग] 508 श्रीचन्द सुराना 'सरस' 3. उपासकदशांगसूत्र 250 डॉ. छगनलाल शास्त्री 4. ज्ञाताधर्मकथांगसूत्र 640 पं० शोभाचन्द्र भारिल्ल 5. अन्तकृद्दशांगसूत्र 248 साध्वी दिव्यप्रभा 6. अनुत्तरोपपातिकसूत्र 120 माध्वी मुक्तिप्रभा 7. स्थानांगसूत्र 824 60 हीरालाल शास्त्री 8. समवायांगसूत्र 364 पं० हीरालाल शास्त्री 9. सूत्रकृतांगसूत्र [प्र. भाग] 562 श्रीचन्द सुराना 'सरस' 10. सूत्रकृतांगसूत्र [द्वि. भाग] 280 श्रीचन्द सुराना 'सरस' 25) 11. विपाकसूत्र 208 अनू. पं. रोशनलाल शास्त्री 25) सम्पा. पं. शोभाचन्द्र भारिल्ल 12. नन्दीसूत्र 252 अनु. साध्वी उमरावकुंवर 'अर्चना' / सम्पा. कमला जैन 'जीजी' एम. ए. 13. औपपातिकसूत्र डॉ. छगनलाल शास्त्री 14. व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [प्र. भाग] 568 अमरमुनि 15. राजप्रश्नीयसूत्र 284 वाणीभूषण रतनमुनि 16. प्रज्ञापनासूत्र [प्र. भाग] 568 जैनभूषण ज्ञानमुनि 17. प्रश्नव्याकरणसूत्र 356 अनु. मुनि प्रवीणऋषि सम्पा. पं. शोभाचन्द्र भारिल्ल 18. व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [द्वि. भाग] 266 अमरमुनि 19. उत्तराध्ययनसूत्र 842 राजेन्द्रमुनि शास्त्री 20. प्रज्ञापनासूत्र [द्वि. भाग] 542 जैनभूषण ज्ञानमुनि 21. निरयावलिकासूत्र 176 देवकुमार जैन 22. व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र[तृ. भाग] 836 / अमरमुनि 23. दशवकालिकसूत्र 532 महासती पुष्पवती 24. आवश्यकसूत्र 188 महासती सुप्रभा एम. ए., शास्त्री 25. व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [चतुर्थ भाग] 908 / अमरमुनि 26. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र 478 डॉ. छगनलाल शास्त्री 27. प्रज्ञापनासूत्र [तृ. भाग] जैनभूषण ज्ञानमुनि 28. अनुयोगद्वारसूत्र 502 उपा. श्री केवलमुनि 29. सूर्यप्रज्ञप्ति-चन्द्रप्रज्ञप्ति 296 मुनि श्री कन्हैयालाल 'कमल' 30. जीवाजीवाभिगमसूत्र 450 श्री राजेन्द्रमुनि [प्र. खण्ड] Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AMM स्व० पूज्य गुरुदेव श्री जोरावरमल जी महाराज की स्मृति में आयोजित संयोजक एवं प्रधान सम्पादक युवाचार्य श्री मातार मुनि जीवाजीवाभिगमसूत्र मूल अनुवाद विवेचक टिप्पण-पतिष्ठापट युक्त enting Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ अहं जिनागम-ग्रन्यमाला : प्रन्याङ्क 31 [परमश्रद्धेय गुरुदेव पूज्य श्री जोरावरमलजी महाराज की पुण्यस्मृति में आयोजित] श्रुतस्थविरप्रणीत-उपाङ्गसूत्र जीवाजीवाभिगमसूत्र [मूलपाठ, प्रस्तावना, अर्थ, विवेचन तथा परिशिष्ट प्रादि युक्त] [द्वितीय खण्ड] प्रेरणा (स्व.) उपप्रवर्तक शासनसेवी स्वामी श्री ब्रजलालजी महाराज श्राद्य संयोजक तथा प्रधान सम्पादक (स्व०) युवाचार्य श्री मिश्रीमलजी महाराज 'मधुकर' सम्पादन श्री राजेन्द्रमुनिजी एम. ए., साहित्यमहोपाध्याय प्रकाशक श्री आगमप्रकाशन समिति, न्यावर (राजस्थान) Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनागम-प्रन्यमाला : प्रन्याङ्क 31 O निर्देशन साध्वी श्री उमरावकुवर 'अर्चना' सम्पादकमण्डल अनुयोगप्रवर्तक मुनि श्री कन्हैयालालजी 'कमल' उपाचार्य श्री देवेन्द्रमुनि शास्त्री श्री रतनमुनि D सम्प्रेरक मुनि श्री विनयकुमार 'भीम' श्री महेन्द्रमुनि 'दिनकर' प्रथम संस्करण वीर निर्वाण सं० 2517 विक्रम सं० 2048 नवम्बर 1991 ई० / प्रकाशक श्री आगमप्रकाशन समिति श्री बज-मधुकर स्मृति भवन, पीपलिया बाजार, ब्यावर (राजस्थान) पिन-३०५९०१ 0 मुद्रक सतीशचन्द्र शुक्ल वैदिक यंत्रालय, केसरगंज, अजमेर-३०५००१ 0 मूल्य : 33) रुपये Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Pablished at the Holy Remembrance occasion Rev. Guru Shri Jorayarmalji Maharaj JIVAJIVABHIGAMA SUTRA ( Original Text, Hindi Version, Introduction and Appendices etc.) [PART II] Inspiring Soul (Late) Up-pravartaka Shasansevi Rev. Swami Shri Brijlalji Maharaj Coavener & Founder Editor (Late) Yuvacharya Shri Mishrimalji Maharaj 'Madhukar' Editor Shri Rajendra Muni M. A., Sahityamahopadhyay Publishers Shri Agam Prakashan Samiti Beawar (Raj.) Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jinagam Granthmala Publication No. 31 Direction Sadhwi Shri Umravkunwar 'Archana' Board of Editors Anuyoga-pravartaka Muni Shri Kanhaiyalalji 'Kamal' Upacharya Shri Devendra Muni Shastri Shri Ratan Muni O Promotor Muni Shri Vinayakumar 'Bhima' Sri Mahendra Muni 'Dipakar' 0 First Edition Vir-Nirvana Samvat 2517 Vikram Samvat 2048, Nov. 1991. Publisher Sri Agam Prakashan Samiti, Shri Brij-Madhukar Smriti Bhawan, Pipalia Bazar, Beawar (Raj.) Pin 305 901 Prister Satish Chandra Shukla Vedic Yantralaya Kesarganj, Ajmer O Price : Rs. 33/ Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण जैन आगम-दर्शनशास्त्र के प्रकाण्ड पण्डित, बहुश्रुत, श्रमणसंघ के उपाचार्यप्रवर, सद्गुरुवर्य श्रद्धय श्री देवेन्द्रमुनिजी म. को सादर विनय सभक्ति -राजेन्द्रमुनि Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय प्रागमप्रेमी जैनदर्शन के अध्येताओं के समक्ष जिनागम ग्रन्थमाला के ३१वें अंक के रूप में जीवाजीवाभिगमसूत्र का द्वितीय भाग प्रस्तुत किया जा रहा है। जीवाजीवाभिगमसूत्र में मुख्य रूप से जीव का विभिन्न स्थितियों की अपेक्षा विशद वर्णन किया गया है / जो संक्षेप में जीव की अनेकानेक अवस्थाओं का दिग्दर्शन कराने के साथ तत्सम्बन्धी सभी जिज्ञासाओं का समाधान करता है। साधारण पाठकों के लिये तो विस्तृत बोध कराने का साधन है। प्रस्तुत संस्करण में निर्धारित रूपरेखा के अनुसार मूल पाठ के साथ हिन्दी में उसका अर्थ तथा स्पष्टीकरण के लिये आवश्यक विवेचन है। इसी कारण ग्रन्थ का अधिक विस्तार हो जाने से दो भागों में प्रकाशित किया गया है। प्रथम भाग पूर्व में प्रकाशित हो गया और यह द्वितीय भाग है। ग्रन्थ का अनुवाद, विवेचन, संपादन उप-प्रवर्तक श्री राजेन्द्रमुनिजी म. एम. ए., पी-एच. डी. ने किया है। उत्तराध्ययनसूत्र का संपादन आदि प्रापने ही किया था / एतदर्थ समिति प्रापको अपना वरिष्ठ सहयोगी मानती हुई हार्दिक अभिनन्दन करती है / समग्र भागमसाहित्य को जनभोग्य बनाने के लिये जिन महामना युवाचार्य श्री मिश्रीमलजी "मधुकर" मुनिजी म. ने पवित्र अनुष्ठान प्रारम्भ किया था, अब उनका प्रत्यक्ष सान्निध्य तो नहीं रहा, यह परिताप का विषय है, किन्तु आपश्री के परोक्ष प्राशीर्वाद सदैव समिति को प्राप्त होते रहे हैं। यही कारण है कि समिति अपने कार्य में प्रगति करती रही और अब हम विश्वास के साथ यह स्पष्ट करने में समक्ष हैं कि प्रागम बत्तीसी का प्रकाशन कार्य प्रायः पूर्ण हो चुका है। अन्त में हम अपने सभी सहयोगियों के कृतज्ञ हैं कि उनकी लगन, प्रेरणा से प्रकाशन का कार्य सम्पन्न होने जा रहा है। रतनचन्द मोदी कार्यवाहक अध्यक्ष सायरमल चोरडिया महामंत्री श्री आगमप्रकाशन समिति, ब्यावर (राज.) अमरचन्द मोदी मंत्री Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर (कार्यकारिणी समिति) इन्दौर अध्यक्ष कार्यवाहक अध्यक्ष उपाध्यक्ष ब्यावर ब्यावर मद्रास जोधपुर मद्रास दुर्ग महामंत्री सहमंत्री कोषाध्यक्ष श्री सागरमलजी बेताला श्री रतनचन्दजी मोदी श्री धनराजजी विनायकिया श्री पारसमलजी चोरडिया श्री हुक्मीचन्दजी पारख श्री दुलीचन्दजी चोरडिया श्री जसराजजी सा. पारख श्री जी० सायरमलजी चोरडिया श्री अमरचन्दजी मोदी श्री ज्ञानराजजी मूथा श्री ज्ञानचन्दजी विनायकिया श्री जवरीलालजी शिशोदिया श्री प्रार, प्रसन्नचन्द्रजी चोरडिया श्री माणकचन्दजी संचेती श्री एस. सायरमलजी चोरडिया श्री मोतीचन्दजी चोरडिया श्री मूलचन्दजी सुराणा श्री तेजराजजी भण्डारी श्री भंवरलालजी गोठी श्री प्रकाशचन्दजी चोपड़ा श्री जतनराजजी मेहता श्री भंवरलालजी श्रोश्रीमाल श्री चन्दनमलजी चोरडिया श्री सुमेरमलजी मेड़तिया श्री प्रासूलालजी बोहरा परामर्शदाता कार्यकारिणी सदस्य मद्रास ब्यावर पाली ब्यावर ब्यावर मद्रास जोधपुर मद्रास मद्रास नागौर जोधपुर मद्रास ब्यावर मेडतासिटी दुर्ग मद्रास जोधपुर जोधपुर Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय सातत्य सर्वज्ञ-सर्वदर्शी बीतराग परमात्मा जिनेश्वर देवों की सुधास्यन्दिनी-मागम-वाणी न केवल विश्व के धार्मिक साहित्य की अनमोल निधि है, अपितु वह जगज्जीवों के जीवन का संरक्षण करने वाली संजीवनी है। अरिहन्तों द्वारा उपदिष्ट यह प्रवचन वह अमृतकलश है जो समस्त विषविकारों को दूर कर विश्व के समस्त प्राणियों को नवजीवन प्रदान करता है। जैनागमों का उद्भव ही जगत के जीवों के रक्षण रूप दया के लिए हुमा है।' अहिंसा, दया, करुणा, स्नेह, मैत्री ही इसका सार है / अतएव विश्व के जीवों के लिए यह सर्वाधिक हितकर, संरक्षक एवं उपकारक है। यह जैन प्रवचन जगज्जीवों के लिए त्राणरूप है, शरणरूप है, गतिरूप है और प्राधाररूप है। पूर्वाचार्यों ने इस प्रागमवाणी को सागर की उपमा से उपमित किया है। उन्होंने कहा- "यह जैनागम महान सागर के समान है, यह ज्ञान से अगाध है, श्रेष्ठ पद-समुदाय रूपी जल से लबालब भरा हुआ है, अहिंसा की अनन्त उर्मियों-लहरों से तरंगित होने से यह अपार विस्तार वाला है, चूला रूपी ज्वार इसमें उठ रहा है / गुरु की कृपा से प्राप्त होने वाली मणियों से यह भरा हुमा है। इसका पार पाना कठिन है। यह परम साररूप और मंगलरूप है। ऐसे महावीर परमात्मा के प्रागमरूपी समुद्र की भक्तिपूर्वक आराधना करनी चाहिए।' ' सचमुच जैनागम महासागर की तरह विस्तृत और गम्भीर है / तथापि गुरुकृपा और प्रयत्न से इसमें अवगाहन करके सारभूत रत्नों को प्राप्त किया जा सकता है। जिनप्रवचन का सार अहिंसा और समता है / जैसा कि सूत्रकृतांग सूत्र में कहा है-सब प्राणियों को मात्मवत् समझकर उनकी हिंसा न करना, यही धर्म का सार है, भात्मकल्याण का मार्ग है। जैनसिद्धान्त अहिंसा से प्रोतप्रोत है और आज के दावानल में सुलगते विश्व के लिए अहिंसा की अजस्र जलधारा ही हितावह है / अतः जन सिद्धान्तों का पठन-पाठन-अनुशीलन एवं उनका व्यापक प्रचार-प्रसार माज के युग की प्राथमिकता है। अहिंसा के अनुशीलन से ही विश्वशान्ति की सम्भावना है, अतएव अहिंसा से ओतप्रोत जनागमों का अध्ययन एवं अनुशीलन परम पावश्यक है। जैनागम द्वादशांगी गणिपिटक रूप है। अरिहंत तीर्थकर परमात्मा केवलज्ञान की प्राप्ति होने के पश्चात अर्थ रूप से प्रवचन का प्ररूपण करते हैं और उनके चतुर्दशपूर्वधर, विपुलबुद्धिनिधान गणधर उन्हें सूत्ररूप में निबद्ध करते हैं। इस तरह प्रवचन की परम्परा चलती रहती है। अतएव अर्थरूप प्रागम के प्रणेता श्री तीर्थंकर परमात्मा 1. सव्वजगजीवरक्खणदयट्टयाए, भगवया पावयणं कहियं / -प्रश्नव्याकरण 2. बोधागाधं सुपदपदवी नीरपुराभिरामं, जीवाहिंसाऽविरहलहरी संगमागाहदेहं / चूलावेलं गुरुगममणिसंकुलं दुरचारं, 'सारं वीरागमजलनिधि सादरं साधु सेवे / / Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है और शब्दरूप मागम के प्रणेता गणधर हैं। अनन्त काल से अरिहन्त और उनके गणधरों की परम्परा चलती मा रही है। मतएव उनके उपदेश रूप मागम की परम्परा भी अनादि काल से चली आ रही है। इसीलिए ऐसा कहा जाता है कि यह द्वादशांगी ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है, सदाकाल से है, यह कभी नहीं है, ऐसा नहीं है / यह सदा थी, है और रहेगी। भावों की अपेक्षा यह ध्र व, नित्य, शाश्वत है। द्वादशांगी में बारह अंगों का समावेश है। आचारांग,सूयगडांग, ठाणांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, जाताधर्मकथा, उपासकदशा, अन्तकृददशा, अनुत्तरोपपातिक, प्रश्नव्याकरण, विपाकसूत्र और दष्टिबाद, ये बारह अंग है। यही वादशांगी गणिपिटक है, जो साक्षात् तीर्थंकरों द्वारा उपदिष्ट है। यह अंगप्रविष्ट पागम कहे जाते हैं, इनके अतिरिक्त अनंगप्रविष्ट-अंगबाह्य आगम वे हैं जो तीर्थंकरों के वचनों से अविरुद्ध रूप में प्रशातिशय-सम्पन्न स्थविर भगवंतों द्वारा रचे गए हैं। इस प्रकार जैनागम दो भागों में विभक्त हैं-अंगप्रविष्ट और अनंगप्रविष्ट (अंगवाह्य)। प्रस्तुत जीवाजीवाभिगम शास्त्र अनंगप्रविष्ट भागम है। दूसरी विवक्षा से बारह अंगों के बारह उपांग भी कहे गए हैं। तदनुसार पीपपातिक आदि को उपांग संज्ञा दी जाती है। प्राचार्य मलयगिरि ने जिन्होंने जीवाजीवाभिगम पर विस्तृत वृत्ति लिखी है, इसे तृतीय अंग–स्थानांग का उपांग कहा है। प्रस्तुत जीवाजीवाभिगमसूत्र की प्रादि में स्थविर भगवंतों को इस अध्ययन के प्ररूपक के रूप में प्रतिपादित किया गया है--- इह खलु जिणमयं जिणाणुमयं, जिणाणुलोम, जिणप्पणीयं, जिणपरूवियं जिणक्खायं जिणाणुचिणं, जिणपण्णत्तं, जिणदेसियं, जिणपसत्थं, अणुव्वीइय, तं सद्दहमाणा, तं पत्तियमाणा, तं रोयमाणा थेरा भगवंतो जीवाजीवाभिगमणाममज्झयणं पण्णवइंसु। समस्त जिनेश्वरों द्वारा अनुमत, जिनानुलोम जिनप्रणीत, जिनप्ररूपित, जिनाख्यांत, जिनानुचीर्ण, जिनप्रशप्त और जिनदेशित इस प्रशस्त जिनमत का चिन्तन करके, इस पर श्रद्धा, विश्वास एवं रुचि करके स्थविर भगवन्तों ने जीवाजीवाभिगम नामक अध्ययन की प्ररूपणा की। उक्त कथन द्वारा यह स्पष्ट किया गया है कि प्रस्तुत सूत्र की रचना स्थविर भगवन्तों ने की है। वे स्थविर भगवन्त तीर्थंकरों के प्रवचन के सम्यग्ज्ञाता थे। उनके वचनों पर श्रद्धा, विश्वास व रुचि रखने वाले थे। इससे यह ध्वनित किया गया है कि ऐसे स्थविरों द्वारा प्ररूपित आगम भी उसी प्रकार प्रमाणरूप हैं, जिस प्रकार सर्वज्ञ सर्वदर्शी तीर्थकर परमात्मा द्वारा प्ररूपित आगम प्रमाणरूप हैं। क्योंकि स्थविरों की यह रचना तीर्थंकरों के वचनों से अविरुद्ध है। प्रस्तुत पाठ में आए हुये जिनमत के विशेषणों का स्पष्टीकरण उक्त मूलपाठ के विवेचन में किया गया है। प्रस्तुत सूत्र का नाम जीवाजीवाभिगम है, परन्तु मुख्य रूप से जीव का प्रतिपादन होने से अथवा संक्षेप दृष्टि से यह सूत्र जीवाभिगम के नाम से जाना जाता है। 1. एयं दुवालसंगं गणिपिटगं ण क यावि णासि, ण कयावि ण भवइ, ण कयाविण भबिस्सइ, घुवं णिच्चं सासयं / -नन्दीसूत्र [10] Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तत्त्वज्ञान प्रधानतया प्रात्मवादी है। जीव या प्रात्मा इसका केन्द्रबिन्दु है। वैसे तो जनसिद्धान्त ने नौ तत्त्व माने हैं अथवा पुण्य, पाप को पाश्रव, बन्ध तत्त्व में सम्मिलित करने से सात तत्व माने हैं, परन्तु वे सब जीव और अजीव कर्म-द्रव्य के सम्बन्ध या वियोग की विभिन्न अवस्था रूप ही हैं। अजीवतत्त्व का प्ररूपण जीवतत्त्व के स्वरूप को विशेष स्पष्ट करने तथा उससे उसके भिन्न स्वरूप को बताने के लिए है। पुण्य, पाप, प्राधव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष तत्त्व जीव और कर्म के संयोग-वियोग से होने वाली अवस्थाएं हैं। अतएव यह कहा जा सकता है कि जैन तत्त्वज्ञान का मूल आत्मद्रव्य (जीव) है। उसका प्रारम्भ ही पात्मविचार से होता है तथा मोक्ष उसकी अन्तिम परिणति है। प्रस्तुत सूत्र में उसी प्रात्मद्रव्य की अर्थात जीव की विस्तार के साथ चर्चा की गयी है / प्रतएव यह जीवाभिगम कहा जाता है। अभिगम का अर्थ है ज्ञान / जिसके द्वारा जीव, अजीव का ज्ञान-विज्ञान हो, वह जीवाजीवाभिगम है। अजीव तत्त्व के भेदों का सामान्य रूप से उल्लेख करने के उपरान्त प्रस्तुत सूत्र का सारा अभिधेय जीवतत्व को लेकर ही है। जीव के दो भेद-सिद्ध और संसारसमापन्नक के रूप में बताये गये हैं। तदुपरान्त संसारसमापनक जीवों के विभिन्न विवक्षाओं को लेकर किए गए भेदों के विषय में नौ प्रतिपत्तियों-मन्तव्यों का विस्तार से वर्णन किया गया है। ये नौ ही प्रतिपत्तियां भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं को लेकर प्रतिपादित हैं, अतएव भिन्न-भिन्न होने के बावजूद ये परस्पर विरोधी हैं और तथ्यपरक हैं। रागद्वेषादि विभावपरिणतियों से परिणत यह जीव संसार में कैसी-कैसी अवस्थाओं का, किन-किन रूपों का, किन-किन योनियों में जन्म-मरण आदि का अनुभव करता है, आदि विषयों का उल्लेख इन नौ प्रतिपत्तियों में किया गया है। बस स्थावर के रूप में, स्त्री-पुरुष नपुंसक के रूप में, नारक तिर्यंच देव और मनुष्य के रूप में, एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय के रूप में, पृथ्वीकाय यावत् त्रसकाय के रूप में तथा अन्य अपेक्षाओं से अन्य-अन्य रूपों में जन्म-मरण करता हुमा यह जीवात्मा जिन-जिन स्थितियों का अनुभव करता है, उनका सूक्ष्म वर्णन किया गया है। द्विविध प्रतिपत्ति में अस स्थावर के रूप में जीवों के भेद बताकर---१. शरीर, 2. अवगाहना, 3. संहनन, 4. संस्थान, 5. कषाय, 6. संज्ञा, 7. लेश्या, 8. इन्द्रिय, 9. समुद्घात, 10. संज्ञी-प्रसंज्ञी, 11. वेद, 12. पर्याप्तअपर्याप्त 13. दृष्टि, 14, दर्शन, 15. ज्ञान, 16. योग, 17. उपयोग, 18. आहार, 19. उपपात, 20. स्थिति, 21. समवहत-असभवहत, 22. च्यवन और 23 गति-प्रागति, इन 23 द्वारों से उनका निरूपण किया है, इसी प्रकार आगे की प्रतिपत्तियों में भी जीव के विभिन्न भेदों में विभिन्न द्वारों को घटित किया गया है / स्थिति, संचिट्ठणा (कायस्थिति), अन्तर और अल्पबहत्व द्वारों का यथासंभव सर्वत्र उल्लेख किया गया है। अंतिम प्रतिपत्ति में सिद्ध, संसारी भेदों की विविक्षा न करते हुए सर्वजीवों के भेदों की प्ररूपणा की गई है। प्रस्तुत सूत्र में नारक, तिर्यच, मनुष्य और देवों के प्रसंग में अधोलोक, तिर्यगलोक और ऊर्ध्वलोक का निरूपण किया गया है / तिर्यगलोक के निरूपण में द्वीप-समुद्रों की वक्तव्यता, कर्मभूमि-अकर्मभूमि को वक्तव्यता, वहाँ की भौगोलिक और सांस्कृतिक स्थितियों का विशद विवेचन भी किया गया है, जो विविध दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। इस प्रकार यह सूत्र और इसकी विषय-वस्तु जीब के सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी देती है। अतएव इसका जीवाभिगम नाम सार्थक है। यह पागम जैन तत्त्वज्ञान का महत्त्वपूर्ण अंग है। प्रस्तुत सूत्र का मूल प्रमाण 4750 (चार हजार सात सौ पचास) श्लोक ग्रन्थान है। इस पर प्राचार्य मलयागिरि ने 14,000 (चौदह हजार) ग्रन्थान प्रमाणवृत्ति लिखकर इस गम्भीर पागम के मर्म को प्रकट किया है। वृत्तिकार ने अपने बुद्धिवैभव से प्रागम के मर्म को हम साधारण लोगों के लिए उजागर कर हमें बहुत उपकृत किया है। [11] Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " सम्पावन के विषय में प्रस्तुत संस्करण के मूल पाठ का मुख्यतः प्राधार सेठ श्री देवचन्द लालभाई पुस्तकोद्धार फण्ड सरत से प्रकाशित वृत्तिसहित जीवाभिगसूत्र का मूल पाठ है। परन्तु अनेक स्थलों पर उस संस्करण में प्रकाशित मूल पाठ में वृत्तिकार द्वारा मान्य पाठ में अन्तर भी है। कई स्थलों में पाये जाने वाले इस भेद से ऐसा लगता है कि वृत्तिकार के सामने कोई अन्य प्रति (आदर्श) रही हो / अतएव अनेक स्थलों पर हमने वृत्तिकार-सम्मत पाठ अधिक संमत उसे मूलपाठ में स्थान दिया है। ऐसे पाठान्तरों का उल्लेख स्थान-स्थान पर फुटनोट (टिप्पण) में किया गया है। स्वयं वृत्तिकार ने इस बात का उल्लेख किया है कि इस प्रागम के सूत्रपाठों में कई स्थानों पर भिन्नता दृष्टिगोचर होती है। यह स्मरण रखने योग्य है कि यह भिन्नता शब्दों को लेकर है, तात्पर्य में कोई अंतर नहीं है। तात्त्विक अंतर न होकर वर्णनात्मक स्थलों में शब्दों का और उनके क्रम का अन्तर दृष्टिगोचर होता है। ऐसे स्थलों पर हमने टीकाकारसम्मत पाठ को मूल में स्थान दिया है। प्रस्तुत पागम के अनुवाद और विवेचन में भी मुख्य प्राधार आचार्य श्री मलयागिरि की वृत्ति हो रही है। हमने अधिक से अधिक यह प्रयास किया है कि इस तात्त्विक प्रागम की सैद्धान्तिक विषय-वस्तु को अधिक से अधिक स्पष्ट रूप में जिज्ञासुओं के समक्ष प्रस्तुत किया जाये। अतएव वृत्ति में स्पष्ट की गई प्रायः सभी मुख्य-मुख्य बातें हमने विवेचन में दी हैं, ताकि संस्कृत भाषा को न समझने वाले जिज्ञासुजन भी उनसे लाभान्वित हो सकें। मैं समझता हूँ कि मेरे इस प्रयास से हिन्दीभाषी जिज्ञासुओं को वे सब तात्त्विक बातें समझने को मिल सकेगी जो वृत्ति में संस्कृत भाषा में समझायी गई हैं। इस दृष्टि से इस संस्करण की उपयोगिता बहुत बढ़ जाती है। जिज्ञासुजन यदि इससे लाभान्वित होंगे तो मैं अपने प्रयास को सार्थक समझगा। अन्त में मैं स्वयं को धन्य मानता हूँ कि मुझे प्रस्तुत आगम को तैयार करने का सुअवसर मिला। प्रागम प्रकाशन समिति, ब्यावर की ओर से मुझे प्रस्तुत जीवाभिगसत्र का सम्पादन करने का दायित्व सौंपा गया। सत्र की गम्भीरता को देखते हुए मुझे अपनी योग्यता के विषय में संकोच अवश्य पैदा हुआ। परन्तु श्रुतभक्ति से प्रेरित होकर मैंने यह दायित्व स्वीकार कर लिया और उसके निष्पादन में निष्ठा के साथ जुड़ गया / जैसा भी मुझ से बन पड़ा, वह इस रूप में पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत है। कृतज्ञता ज्ञापन श्रुतसेवा के मेरे इस प्रयास में श्रद्धेय गुरुवर्य उपाध्याय--श्री पुष्कर मुनिजी म., श्रमणसंघ के उपाचार्यश्री सुप्रसिद्ध साहित्यकार गुरुवर्य श्री देवेन्द्रमुनिजी म. का मार्गदर्शन एवं पण्डित श्री रमेशमुनिजी म., श्री सुरेन्द्र मुनिजी, विदुषी महासती डॉ. श्री दिव्यप्रभाजी, श्री अनुपमाजी बी. ए. प्रादि का सहयोग प्राप्त हुआ है, जिसके फलस्वरूप में यह भगीरथ कार्यसम्पन्न करने में सफल हो सका हूँ। प्रागम सम्पादन करते समय पं. श्री वसन्तीलालजी नलवाया, रतलाम का सहयोग मिला, उसे भी विस्मृत नहीं कर सकता। यदि मेरे इस प्रयास से जिज्ञासु प्रागमरसिकों को तात्विक लाभ पहुंचेगा तो मैं अपने प्रयास को सार्थक समझगा। अन्त में मैं यह शुभ कामना करता हूँ कि जिनेश्वर देवों द्वारा प्ररूपित तत्त्वों के प्रति जन-जन के मन में श्रद्धा, विश्वास और रुचि उत्पन्न हो, ताकि वे ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूप रत्नत्रय की प्राराधना करके मुक्तिपथ के पथिक बन सकें। श्री अमर जैन आगम भण्डार ___-राजेन्द्रमुनि पीपाड़सिटी, 11 सितम्बर 91 एम. ए., पी-एच. डी. [12] Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका तृतीय प्रतिपत्ति 3-117 लवणसमुद्र की वक्तव्यता जलवृद्धि का कारण लवणशिखा की वक्तव्यता गौतमद्वीप का वर्णन जम्बूद्वीपगत चन्द्रद्वीपों का वर्णन घातकीखंडद्वीपगत चन्द्रद्वीपों का वर्णन कालोदधिसमुद्रगत चन्द्रद्वीपों का वर्णन देवद्वीपादि में विशेषता स्वयंभूरमणद्वीपगत चन्द्र-सूर्यद्वीप गोतीर्थ-प्रतिपादन घातकीखंड की वक्तव्यता कालोदसमुद्र की वक्तव्यता पुष्करवरद्वीप की वक्तव्यता मानुषोत्तरपर्वत की वक्तव्यता समयक्षेत्र (मनुष्यक्षेत्र) का वर्णन पुष्करोदसमुद्र की वक्तव्यता क्षीरवरद्वीप और क्षीरोदसमुद्र घृतबर, धृतोद, क्षोदवर, क्षोदोद की वक्तव्यता नन्दीश्वरद्वीप की वक्तव्यता अरुणद्वीप का कथन जम्बूद्वीप आदि नाम वाले द्वीपों की संख्या समुद्रों के उदकों का आस्वाद इन्द्रिय पुद्गल परिणाम देवशक्ति संबन्धी प्रश्नोत्तर ज्योतिष्क चन्द्र-सूर्याधिकार वैमानिक-वक्तव्यता परिषदों और स्थिति प्रादि का वर्णन बाहल्य आदि प्रतिपादन अवधिक्षेत्रादि प्ररूपण सामान्यतया भव स्थिति प्रादि का वर्णन Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118-123 124-144 124 126 130 चतुर्थ प्रतिपत्ति संसारसमापन्नक जीवों के पंच प्रकार मल्पबहुत्वद्वार पंचम प्रतिपत्ति संसारसमापनक जीवों के छह भेद मल्पबहुत्वद्वार बादर जीव निरूपण बादर की कायस्थिति अन्तरद्वार अल्पबहुत्वद्वार सक्ष्म बादरों के समुदित मल्पबहुत्व निगोद की वक्तव्यता निगोदों का अल्पबहुत्व षष्ठ प्रतिपसि संसारसमापन्नक जीवों के सात भेद, मल्पबहत्व सप्तम प्रतिपति 131 132 133 142 145-147 145 148-15 148 154-15 156-160 161-215 संसारसमापन्नक जीवों के पाठ प्रकार अष्टम प्रतिपत्ति संसारसमापन्नक जीवों के नौ प्रकार नवम प्रतिपत्ति संसार समापनक जीवों के दस प्रकार सर्व जीवाभिगम सर्वजीव-द्विविध वक्तव्यता सर्वजीव-त्रिविध वक्तव्यता सर्वजीव-चतुर्विध वक्तव्यता सर्वजीव-पञ्चविध वक्तव्यता सर्वजीव-षड्विध वक्तव्यता सर्वजीव-सप्तविध वक्तव्यता सर्वजीव-प्रष्टविध वक्तव्यता सर्वजीवन्नवविध वक्तव्यता सर्वजीव-दसविध वक्तव्यता 185 193 195 200 203 206 210 [14] Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाजीवाभिगमसत्तं [बिइयं खंड] जीवाजीवाभिगमसूत्र [द्वितीय खण्ड] Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति लवणसमुद्र की वक्तव्यता 154. जंबुद्दीवं णामं दीवं लवणे णामं समुद्दे पट्टे वलयागारसंठाणसंठिए सव्वो समंता संपरिक्खित्ता णं चिट्टइ। लवणे णं भंते ! समुद्दे कि समचक्कवालसंठिए विसमचक्कवालसंठिए ? गोयमा ! समचक्कवालसंठिए नो विसमचक्कवालसंठिए। लवणे गं भंते ! समुद्दे केवइयं चक्कवालविक्खंभेणं केवइयं परिक्खेवेणं पण्णते ? गोयमा ! लवणे णं समुद्दे दो जोयणसयसहस्साई चक्कवालविक्खंभेणं पण्णरस जोयणसयसहस्साई एगासीइसहस्साई सयमेगोणचत्तालोसे किंचिविसेसाहिए लवणोदहिणो चक्कवालपरिक्खेवेणं / से णं एक्काए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेण सव्वओ समंता संपरिक्खत्ते चिट्ठइ, रोहवि वण्णओ। साणं पउमवरवेदिया अद्धजोयणं उड्ड उच्चत्तेणं पंचधणुसयं विक्खंभेणं लवणसमुद्दसमियापरिक्खेवेणं, सेसे तहेव / से णं वनसंडे देसूणाई दो जोयणाई जाव वि हरई। लवणस्स णं भंते ! समुदस्स कति दारा पण्णता ? गोयमा ! चत्तारि दारा पण्णता, तं जहाविजए, वेजयंते, जयंते, अपराजिए। कहि णं भंते / लवणसमुदस्स विजए णामं दारे पण्णत्ते ? गोयमा! लवणसमुद्दस्स पुरथिमपेरते धायइखंडस्स दोवस्स पुरथिमद्धस्स पच्चत्थिमेणं सोप्रोदाए महाणईए उप्पि एत्थ णं लवणस्स समुदस्स विजए णामं दारे पण्णत्ते, अट्ठजोयणाई उड्ड उच्चत्तेणं चत्तारि जोयणाई विक्खंभेणं एवं तं चेव सव्वं जहा जम्बुद्दीवस्स विजए दारे' रायहाणी पुरथिमेणं अण्णंमि लवणसमुद्दे / / कहि णं भंते ! लवणसमुद्दे वेजयंते णामं दारे पण्णत्ते ? गोयमा! लवणसमुद्दे दाहिणपरंते धातइखंडस्स दाहिणद्धस्स उत्तरेणं सेसं तं चेव / एवं जयंते वि, णवरि सीयाए महाणईए उप्पि भाणियव्वं / एवं अपराजिए वि, गवरं दिसिभागो भाणियच्यो / लवणस्स णं भंते। समुद्दस्स दारस्स य दारस्स य एस णं केवइयं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते ? गोयमा ! तिण्णेव सयसहस्सा पंचाणउई भवे सहस्साई। दो जोयणसय असीआ कोसं दारंतरे लवणे // 1 // जाव प्रबाहाए अंतरे पण्णत्ते। 1. विजयदारसरिसमेयंपि / 2. किन्हीं प्रतियों में यहां चारों द्वारों का पूरा वर्णन मूलपाठ में दिया हुआ है, परन्तु वह पहले कहा जा चुका है और टीकानुसारी भी नहीं है, अतएव उसका उल्लेख नहीं किया गया है। Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ जीवाजीवाभिगमसूत्र लवणस्स गं भंते ! पएसा धातइखंडं दीवं पुट्ठा ? तहेव जहा जम्बूवीवे धायइखंडे वि सो चेव गमो। लवणे णं भंते / समुद्दे जीवा उद्दाइत्ता सो चेव विही, एवं धायइखंडे वि। से केणट्ठणं भंते ! एवं वुच्चइ-लवणसमुद्दे लवणसमुद्दे ? गोयमा ! लवणे णं समुद्दे उदगे आविले रइले लोणे लिदे खारए कडुए अध्येज्जे बहूणं दुपय-चउप्पय-मिय-पसु-पक्खि-सिरीसवाणं णण्णस्थ तज्जोणियाणं सत्ताणं / सोथिए एत्थ लवणाहिवई देवे महिड्डिए पलिओवमट्टिईए / से णं तत्व सामाणिय जाव लवणसमुद्दस्स सुत्थियाए रायहाणिए अण्णेसि जाव विहरइ / से एएठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ लवणे णं समुद्दे लवणे णं समुद्दे / अदुत्तरं च गं गोयमा ! लवणसमुद्दे सासए जाव णिच्चे। 154. गोल और वलय की तरह गोलाकार में संस्थित लवणसमुद्र जम्बूद्वीप नामक द्वीप को चारों ओर से घेरे हुए अवस्थित है। हे भगवन् ! लवणसमुद्र समचक्रवाल-संस्थान से संस्थित है या विषमचक्रवाल-संस्थान से संस्थित है? गौतम! लवणसमुद्र समचक्रवाल-संस्थान से संस्थित है, विषमचक्रवाल-संस्थान से संस्थित नहीं है। भगवन् ! लवणसमुद्र का चक्रवाल-विष्कंभ कितना है और उसकी परिधि कितनी है ? गौतम ! लवणसमुद्र का चक्रवाल-विष्कंभ दो लाख योजन का है और उसकी परिधि पन्द्रह लाख इक्यासी हजार एक सौ उनतालीस योजन से कुछ अधिक है।' वह लवणसमुद्र एक पद्मवरवेदिका और एक वनखण्ड से सब अोर से परिवेष्टित है। दोनों का वर्णनक कहना चाहिए। वह पयवरवेदिका आधा योजन ऊंची और पांच सौ धनुष प्रमाण चौड़ी है। लवणसमुद्र के समान ही उसकी परिधि है। शेष वर्णन जम्बूद्वीप की पद्मवरवेदिका के समान जानना चाहिए। वह वनखण्ड कुछ कम दो योजन का है, इत्यादि वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिये, यावत् वहां बहुत से वाणव्यन्तर देव-देवियां अपने पुण्यकर्म के फल को भोगते हुए विचरते हैं। हे भगवन् ! लवणसमुद्र के कितने द्वार हैं ? गौतम ! लवणसमुद्र के चार द्वार हैं-विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित / हे भगवन् ! लवणसमुद्र का विजयद्वार कहां है ? गौतम ! लवणसमुद्र के पूर्वीय पर्यन्त में और पूर्वार्ध धातकीखण्ड के पश्चिम में शीतोदा महानदी के ऊपर लवणसमुद्र का विजय नामक द्वार है / वह पाठ योजन ऊंचा और चार योजन चौड़ा है, आदि वह सब कथन करना चाहिए जो जम्बूद्वीप के विजयद्वार के लिए कहा गया है। इस विजय देव की राजधानी पूर्व में असंख्य द्वीप, समुद्र लांघने के बाद अन्य लवणसमुद्र में है। हे भगवन् ! लवणसमुद्र में वैजयन्त नामक द्वार कहां है ? गौतम ! लवणसमुद्र के दाक्षिणात्य पर्यन्त में धातकीखण्ड द्वीप के दक्षिणार्ध भाग के उत्तर में वैजयन्त नामक द्वार है। शेष वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए। इसी प्रकार जयन्तद्वार के विषय में 1. वृत्ति में 'पंचदश योजनशतसहस्राणि एकाशीति सहस्राणि शतमेकोनचत्वारिंशं च किंचिद्विशेषोन परिक्षेपेण' ऐसा उल्लेख है (कुछ कम है)। Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: लवणसमुद्र की वक्तव्यता] जानना चाहिए / विशेषता यह है कि यह शीता महानदी के ऊपर है। इसी प्रकार अपराजितद्वार के विषय में जानना चाहिए। विशेषता यह है कि यह लवणसमुद्र के उत्तरी पर्यन्त में और उत्तरार्ध धातकीखण्ड के दक्षिण में स्थित है। इसकी राजधानी अपराजितद्वार के उत्तर में असंख्य द्वीप समुद्र जाने के बाद अन्य लवणसमुद्र में है। हे भगवन् ! लवणसमुद्र के इन द्वारों का एक द्वार से दूसरे के अपान्तराल का अन्तर कितना कहा गया है ? गौतम ! तीन लाख पंचानवै हजार दो सौ अस्सी (395280) योजन और एक कोस का एक द्वार से दूसरे द्वार का अन्तर है।' हे भगवन ! लवणसमुद्र के प्रदेश धातकीखण्डद्वीप से छुए हुए हैं क्या ? हां गौतम ! छुए हुए हैं, आदि सब वर्णन वैसा ही कहना चाहिए जैसा जम्बूद्वीप के विषय में कहा गया है / धातकीखण्ड के प्रदेश लवणसमुद्र से स्पृष्ट हैं, आदि कथन भी पूर्ववत् जानना चाहिए। लवणसमुद्र से मर कर जीव धातकीखण्ड में पैदा होते हैं क्या ? आदि कथन भी पूर्ववत् जानना चाहिए। धातकीखण्ड से मरकर लवणसमुद्र में पैदा होने के विषय में भी पूर्ववत् कहना चाहिए। हे भगवन् ! लवणसमुद्र, लवणसमुद्र क्यों कहलाता है ? गौतम ! लवणसमुद्र का पानी अस्वच्छ है, रजवाला है, नमकीन है, लिन्द्र (गोबर जैसे स्वाद वाला) है, खारा है, कडुपा है, द्विपद-चतुष्पद-मृग-पशु-पक्षी-सरीसृपों के लिए वह अपेय है, केवल लवणसमुद्रयोनिक जीवों के लिए ही वह पेय है, (तद्योनिक होने से वे जीव ही उसका आहार करते हैं / ) लवणसमुद्र का अधिपति सुस्थित नामक देव है जो महद्धिक है, पल्योपम की स्थिति वाला है / वह अपने सामानिक देवों आदि अपने परिवार का और लवणसमुद्र की सुस्थिता राजधानी और अन्य बहुत से वहां के निवासी देव-देवियों का आधिपत्य करता हुमा विचरता है। इस कारण हे गौतम ! लवणसमुद्र, लवणसमुद्र कहलाता है / दूसरी बात गौतम ! यह है कि "लवणसमुद्र" यह नाम शाश्वत है यावत् नित्य है। (इसलिए यह नाम अनिमित्तिक है।) - 155. लवणे णं भंते ! समुद्दे कति चंदा पभासिसु वा पभासिति वा पभासिस्संति वा ? एवं पंचण्ह वि पुच्छा। गोयमा ! लवणसमुद्दे चत्तारि चंदा पभासिसु वा 3, चत्तारि सूरिया तर्विसु वा 3, बारसुत्तरं नक्खत्तसयं जोगं जोएंसु वा 3, तिणि बावण्णा महग्गहसया चारं चरिसुवा 3, दुण्णिसयसहस्सा सद्धिं च सहस्सा नव य सया तारागणकोडाकोडीणं सोभं सोभिंसु वा 3 / / 155. हे भगवन् ! लवणसमुद्र में कितने चन्द्र उद्योत करते थे, उद्योत करते हैं और उद्योत करेंगे? इस प्रकार चन्द्र को मिलाकर पांचों ज्योतिषकों के विषय में प्रश्न समझने चाहिए। गौतम ! लवणसमुद्र में चार चन्द्रमा उद्योत करते थे, करते हैं और करेंगे। चार सूर्य तपते थे, तपते हैं और तपेंगे, एक सौ बारह नक्षत्र चन्द्र से योग करते थे, योग करते हैं और योग करेंगे। 1. एक-एक द्वार की पृथुता चार-चार योजन की है / एक-एक द्वार में एक-एक कोस मोटी दो शाखाएं हैं। एक द्वार की पूरी पृथुता साढ़े चार योजन की है। चारों द्वारों की पृथुता 18 योजन की है / लवणसमुद्र की परिधि में 18 योजन कम करके चार का भाग देने से उक्त प्रमाण प्राता है। Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ जीवाजीवाभिगमसूत्र तीन सौ बावन महाग्रह चार चरते थे, चार चरते हैं और चार चरेंगे। दो लाख सड़सठ हजार नौ सौ कोडाकोडी तारागण शोभित होते थे, शोभित होते हैं और शोभित होंगे।' जलवृद्धि का कारण 156. कम्हा णं भंते ! लवणसमुद्दे चाउद्दसटुमुद्दिवपुण्णमासिणीसु अतिरेगं अतिरेगं वट्टति वा हायति वा ? गोयमा! जंबुद्दीवस्स णं दीवस्स चउद्दिसि बाहिरिल्लाओ वेइयंताप्रो लवणसमुई पंचाणउइं पंचाणउई जोयणसहस्साई प्रोगाहित्ता एत्थ णं चत्तारि महालिंजरसंठाणसंठिया महइमहालया महापायाला पण्णत्ता, तं जहा-वलयामुहे, केतुए, जूवे, ईसरे। ते णं महापाताला एगमेगं जोयणसयसहस्सं उव्वेहेणं, मूले दसजोयणसहस्साई विक्खंभेणं मज्झे एगपएसियाए सेढीए एगमेगं जोयणसयसहस्सं विक्खंभेणं, उरि मुहमूले दसजोयणसहस्साई विक्खंभेणं / तेसि णं महापायालाणं कुड्डा सव्वत्थ समा दसजोयणसयबाहल्ला पण्णत्ता सव्ववइरामया अच्छा नाव पडिरूवा। तत्थ णं बहवे जीवा पोग्गला य अवक्कमति विउक्कमति चयंति उवचयंति सासया णं ते कुड्डा दध्वट्ठयाए वण्णपज्जवेहि असासया। तत्थ णं चत्तारि देवा महिड्डिया जाव पलिओवमट्टिईया परिवसंति, तं जहा-काले, महाकाले, वेलंबे, पभंजणे। तेसि णं महापायालाणं तओ तिभागा पण्णता, तं जहा हेछिल्ले तिभागे, मझिल्ले तिभागे, उवरिल्ले तिभागे। ते णं तिभागा तेत्तीसं जोयणसहस्सा तिणि य तेत्तीसं जोयणसयं जोयणतिभागं च बाहल्लेणं / तत्थ णं जे से हेढिल्ले तिभागे एत्थ णं वाउकाओ संचिटुइ / तत्थ णं जे से मज्झिल्ले तिभागे एत्थ णं वाउकाए य आउकाए य संचिट्ठइ / तत्थ णं जे से उबरिल्ले तिभागे एत्थ णं अाउकाए संचिट्ठइ / अदुत्तरं च गोयमा ! लवणसमुद्दे तत्थ तत्थ देसे बहवे खुड्डालिजरसंठाणसंठिया खुड्डपायालकलसा पण्णत्ता। ते णं खुड्डापायाला एगमेगं जोयणसहस्सं उव्वेहेणं, मूले एगमेगं जोयणसयं विक्खंभेणं, मज्झे एगपएसियाए सेढीए एगमेगं जोयणसहस्सं विक्खंभेणं उप्पि मुहमूले एगमेगं जोयणसयं विक्खंभेणं / तेसि णं खुड्डागपायालाणं कुड्डा सम्वत्थ समा दस जोयणाई बाहल्लेणं पण्णत्ता, सन्यवइरामया अच्छा जाव पडिरूवा। तत्थ णं बहवे जीवा पोग्गला य जाव असासया वि / पत्तेयं पत्तेयं अद्धपलिओवमट्टिइयाहिं देवयाहिं परिग्गहिया। चत्तारि चेव चन्दा चत्तारि यसरिया लवणतोए / बारं नक्खत्तसयं गहाण तिन्नेव बावन्ना // 1 // दो चेव सयसहस्सा सत्तट्ठी खलु भवे सहस्सा य / नव य' सया लवणजले तारागणकोडिकोडीणं // 2 // लवणसमुद्र में तारागणों की संख्या अंकों में 26790000000000000000 इतनी है। Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : जलवृद्धि का कारण] तेसिं गं खुड्डगपायालाणं तओ तिभागा पण्णत्ता, तं जहा हेटिल्ले तिभागे, मज्झिल्ले तिभागे, उवरिल्ले तिभागे / ते णं तिभागा तिणि तेत्तीसे जोयणसए जोयणतिभागं च वाहल्लेणं पण्णत्ते / तत्थ णं जे से हेडिल्ले तिभागे एत्य गं बाउकाए, मझिल्ले तिभागे वाउकाए आउकाए य, उवरिल्ले आउकाए / एवामेव सपुवावरेणं लवणसमुद्दे सत्त पायालसहस्सा अट्ठ य चुलसीया पायालसया भवतीति मक्खाया। तेसिं णं महापायालाणं खुड्डुगपायालाण य हेट्ठिममज्झिमिल्लेसु तिभागेसु बहवे ओराला वाया संसेयंति संमुच्छिमंति एयंति चलंति कंपति खुम्भंति घटेंति फंदंति, तं तं भावं परिणमंति, तया णं से उदए उण्णामिज्जइ, जया णं तेसि महापायालाणं खुडुगपायालाण य हेटिल्लमज्जिमिल्लेसु तिभागेसु नो बहवे पोराला जाव तं तं भावं न परिणमंति, तया णं से उदए न उन्नामिज्जइ / अंतरा वि य णं तेवायं उदीरेंति, अंतरा वि य णं से उदगे उन्नाभिज्जइ, अंतरा वि य ते वायं नो उदीरेंति, अंतरा वि य णं से उदए नो उन्नामिज्जइ, एवं खलु गोयमा ! लवणसमुद्दे चाउद्दसट्ठमुदिठ्ठपुण्णमासिणीसु अइरेगं वड्डइ वा हायइ वा। 156. हे भगवन् ! लवणसमुद्र का पानी चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णिमा तिथियों में अतिशय बढ़ता है और फिर कम हो जाता है, इसका क्या कारण है ? हे गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप की चारों दिशाओं में बाहरी वेदिकान्त से लवणसमुद्र में पिच्यानवै हजार (95000) योजन आगे जाने पर महाकुम्भ के आकार के बहुत विशाल चार महापातालकलश हैं, जिनके नाम हैं-वलयामुख, केयूप, यूप और ईश्वर / ये पातालकलश एक लाख योजन जल में गहरे प्रविष्ट हैं, मूल में इनका विष्कम्भ दस हजार योजन है और वहां से एक-एक प्रदेश की एक-एक श्रेणी से वृद्धिंगत होते हुए मध्य में एक-एक लाख योजन चौड़े हो गये हैं। फिर एक-एक प्रदेश श्रेणी से हीन होते-होते ऊपर मुखमूल में दस हजार योजन के चौड़े हो गये हैं।' . इन पातालकलशों की भित्तियां सर्वत्र समान हैं। ये सब एक हजार योजन की मोटी हैं / ये सर्वथा वज्ररत्न की हैं, आकाश और स्फटिक के समान स्वच्छ हैं, यावत् प्रतिरूप हैं / इन कुड्यों (भित्तियों) में बहुत से जीव उत्पन्न होते हैं और निकलते हैं, बहुत से पुद्गल एकत्रित होते रहते हैं और बिखरते रहते हैं, वहां पुद्गलों का चय-अपचय होता रहता है / वे कुड्य (भित्तियां) द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से शाश्वत हैं और वर्ण-गंध-रस-स्पर्शादि पर्यायों से प्रशाश्वत हैं। उन पातालकलशों में पल्योपम की स्थिति वाले चार महद्धिक देव रहते हैं, उनके नाम हैं-काल, महाकाल, वेलंब और प्रभंजन / . उन महापातालकलशों के तीन त्रिभाग कहे गये हैं-१. निचला त्रिभाग, 2. मध्य का विभाग और 3. ऊपर का त्रिभाग / ये प्रत्येक विभाग तेतीस हजार तीन सौ तेतीस योजन और एक योजन का त्रिभाग (333333) जितने मोटे हैं। इनके निचले त्रिभाग में वायुकाय है, मध्यम त्रिभाग में 1. उक्तं च--जोयणसहस्सदसगं मूले उवरिं च होति वित्थिण्णा / मझे य सयसहस्सं तित्तियमेत्तं च प्रोगाढा / / —संग्रहणीगाथा . Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ जीवाजीवाभिगमसूत्र वायुकाय और अप्काय है और ऊपर के विभाग में केवल अप्काय है। इसके अतिरिक्त हे गौतम ! लवणसमुद्र में इन महापातालकलशों के बीच में छोटे कुम्भ की आकृति के छोटे-छोटे बहुत से छोटे पातालकलश हैं। वे छोटे पातालकलश एक-एक हजार योजन पानी में गहरे प्रविष्ट हैं, एक-एक सौ योजन की चौड़ाई वाले हैं और एक-एक प्रदेश की श्रेणी से वृद्धिंगत होते हुए मध्य में एक हजार योजन के चौड़े हो गये हैं और फिर एक-एक प्रदेश की श्रेणी से होन होते हुए मुखमूल में ऊपर एक-एक सौ योजन के चौड़े रह गये हैं।' उन छोटे पातालकलशों की भित्तियां सर्वत्र समान हैं और दस योजन की मोटी हैं, सर्वात्मना वज्रमय हैं, स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप हैं। उनमें बहुत से जीव उत्पन्न होते हैं, निकलते हैं, बहुत से पुद्गल एकत्रित होते हैं, बिखरते हैं, उन पुद्गलों का चय-अपचय होता रहता है। वे भित्तियां द्रव्याथिक नय की अपेक्षा शाश्वत हैं और वर्णादि पर्यायों की अपेक्षा अशाश्वत हैं। उन छोटे पातालकलशों में प्रत्येक में अर्धपल्योपम की स्थिति वाले देव रहते हैं। उन छोटे पातालकलशों के तीन विभाग कहे गये हैं-१. निचला त्रिभाग, 2. मध्य का विभाग और 3. ऊपर का त्रिभाग / ये त्रिभाग तीन सौ तेतीस योजन और योजन का त्रिभाग (3333) प्रमाण मोटे हैं / इनमें से निचले त्रिभाग में वायुकाय है, मझले त्रिभाग में वायुकाय और अप्काय है. और ऊपर के त्रिभाग में अप्काय है। इस प्रकार पूर्वापर सब मिलाकर लवणसमुद्र में सात हजार पाठ सौ चौरासी (7884) पातालकलश कहे गये हैं। उन महापाताल और क्षुद्रपाताल कलशों के निचले और बिचले विभागों में बहुत से उर्ध्वगमन स्वभाव वाले अथवा प्रबल शक्ति वाले वायुकाय उत्पन्न होने के अभिमुख होते हैं, संमूर्छन जन्म से प्रात्मलाभ करते हैं, कंपित होते हैं, विशेषरूप से कंपित होते हैं, जोर से चलते हैं, परस्पर में घषित होते हैं, शक्तिशाली होकर इधर-उधर और ऊपर फैलते हैं, इस प्रकार वे भिन्न-भिन्न भाव में परिणत होते हैं तब वह समुद्र का पानी उनसे क्षुभित होकर ऊपर उछाला जाता है / जब उन महापाताल और क्षुद्रपाताल कलशों के निचले और बिचले त्रिभागों में बहुत से प्रबल शक्ति वाले वायुकाय उत्पन्न नहीं होते यावत् उस-उस भाव में परिणत नहीं होते तब वह पानी नहीं उछलता है। अहोरात्र में दो बार (प्रतिनियत काल में) और पक्ष में चतुर्दशी आदि तिथियों में (तथाविध जगत्स्वभाव से) लवणसमुद्र का पानी उन वायुकाय से प्रेरित होकर विशेष रूप से उछलता है / प्रतिनियत काल को छोड़कर अन्य समय में नहीं उछलता है। इसलिए हे गौतम ! लवणसमुद्र का जल चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या -संग्रहणीगाथा 1. उक्तं च---जोयणसयवित्थिण्णा मूले उरि दससयाणि मज्झमि / प्रोगाढा य सहस्सं दसजोयणिया य से कुड्डा // 2. उक्तं च-अन्ने वि य पायाला खडालंजरगसंठिया लवणे / अट्ठसया चुलसीया सत्त सहस्सा य सब्वे वि // 1 // पायालाण विभागा सव्वाण वि तिन्नि तिन्नि विन्नेया / हेद्विमभागे वाऊ, मज्झे बाऊ य उदगं य // 2 // उरि उदगं भणियं पढमगबीएसु वाउ संखुभियो। उड्ढं वामेइ उदगं परिवड्ढइ जलनिही खुभित्रो // 3 // ---संग्रहणीगाथाएं Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : लवणशिखा की वक्तव्यता] और पूर्णिमा तिथियों में विशेष रूप से बढ़ता है और घटता है (अर्थात् लवणसमुद्र में ज्वार और भाटा का क्रम चलता है / जब उन्नामक वायुकाय का सद्भाव होता है तब जलवृद्धि और जब उन्नामक वायु का प्रभाव होता है तब जलवृद्धि का प्रभाव होता है / ) 157. लवणे णं भंते ! समुद्दे तीसाए मुहुत्ताणं कतिखुत्तो अतिरेगं अतिरेगं बड्डइ वा हायइ वा ? गोयमा ! लवणे णं समुद्दे तीसाए मुहुत्ताणं दुक्खुत्तो अतिरेगं अतिरेगं बड्डइ वा हायइ था। से केण?णं भंते ! एवं बुच्चई, लवणे णं समुद्दे तीसाए मुहुत्ताणं दुक्खुत्तो अतिरेगं अतिरेगं वड्डइ वा हायइ वा ? गोयमा ! उड्डमतेसु पायालेसु वड्डइ आपूरिएसु पायालेसु हायइ, से तेणटेणं, गोयमा ! लवणे णं समुद्दे तीसाए मुहुत्ताणं दुक्खुत्तो अतिरेगं अतिरेगं वड्डइ वा हायइ वा / 157. हे भगवन् ! लवणसमुद्र (का जल) तीस मुहूर्तों में (एक अहोरात्र में) कितनी बार विशेषरूप से बढ़ता है या घटता है ? हे गौतम ! लवणसमुद्र का जल तीस मुहूर्तों में (एक अहोरात्र में) दो बार विशेष रूप से उछलता है और घटता है / हे भगवन् ! ऐसा क्यों कहा जाता है कि लवणसमुद्र का जल तीस मुहूर्तों में दो बार विशेष रूप से उछलता है और फिर घटता है ? हे गौतम ! निचले और मध्य के विभागों में जब वायु के संक्षोभ से पातालकलशों में से पानी ऊँचा उछलता है तब समुद्र में पानी बढ़ता है और जब वे पातालकलश वायु के स्थिर होने पर जल से आपूरित बने रहते हैं, तब पानी घटता है / इसलिए हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि लवणसमुद्र तीस मुहूर्तों में दो बार विशेष रूप से उछलता है और घटता है। (तथाविध जगत्-स्वभाव होने से ऐसी स्थिति एक अहोरात्र में दो बार होती है।) लवणशिखा को वक्तव्यता 158. लवणसिहा णं भंते ! केवइयं चक्कवालविक्खंभेणं केवइयं अइरेगं बडइ वा हायइ बा ? गोयमा ! लवणसिहा गं वस जोयणसहस्साई चक्कवालविक्खंभेणं देसूणं अद्धजोयणं अइरेगं वड्डइ वा हायइ वा। लवणस्स णं भंते / समुदस्स कति गागसाहस्सोमो अभितरियं वेलं धारेंति ? कइ नागसाहस्सोओ वाहिरियं वेलं धारति ? कइ नागसाहस्सीओ अग्गोदयं धारेंति ? गोयमा ! लवणसमुहस्स बायालीसं गागसाहस्सीओ अभितरियं वेलं धारैति, बावरि गागसाहस्सीओ बाहिरियं वेलं धारेंति, सठि णागसाहस्सोनो अग्गोदयं धारेंति, एवमेव सपुव्यावरण एगा णागसयसाहस्सी चोवर च गागसहस्सा भवंतीति मक्खाया। 158. हे भगवन् ! लवणसमुद्र की शिखा चक्रवालविष्कम्भ से कितनी चौड़ी है और वह कितनी बढ़ती है और कितनी घटती है ? Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10] [जीवाजीवाभिगमसूत्र हे गौतम ! लवणसमुद्र की शिखा चक्रवालविष्कंभ की अपेक्षा दस हजार योजन चौड़ी है और कुछ कम आधे योजन तक वह बढ़ती है और घटती है। हे भगवन् ! लवणसमुद्र की प्राभ्यन्तर वेला को कितने हजार नागकुमार देव धारण करते हैं ? बाह्य वेला को कितने हजार नागकुमार देव धारण करते हैं ? कितने हजार नागकुमार देव अग्रोदक को धारण करते हैं ? गौतम ! लवणसमुद्र की आभ्यन्तर वेला को बयालीस हजार नागकुमार देव धारण करते हैं / बाह्यवेला को बहत्तर हजार नागकुमार देव धारण करते हैं / साठ हजार नागकुमार देव अग्रोदक को धारण करते हैं / इस प्रकार सब मिलाकर इन नागकुमारों की संख्या एक लाख चौहत्तर हजार कही गई है। विवेचन-लवणसमुद्र की शिखा सब ओर से चक्रवालविष्कभ से समप्रमाण वाली और दस हजार योजन चक्रवाल विस्तार वाली है। वह शिखा कुछ कम अर्धयोजन (दो कोस) प्रमाण अतिशय से बढ़ती है और उतनी ही घटती है / इसकी स्पष्टता इस प्रकार है-- लवणसमुद्र में जम्बूद्वीप से और धातकीखण्ड द्वीप से पंचानवै-पंचानवै हजार योजन तक गोतीर्थ है। गोतीर्थ का अर्थ है तडागादि में प्रवेश करने का क्रमशः नीचे-नीचे का भूप्रदेश / मध्यभाग का अवगाह दस हजार योजन का है। जम्बूद्वीप की वेदिकान्त के पास और धातकीखण्ड की वेदिका के पास अंगुल का असंख्यातवां भाग प्रमाण गोतीर्थ है। इसके आगे समतल भूभाग से लेकर क्रमश: प्रदेशहानि से तब तक उत्तरोत्तर नीचा-नीचा भूभाग समझना चाहिए, जहां तक पंचानवै हजार योजन की दूरी पा जाय / पंचानवे हजार योजन की दूरी तक समतल भूभाग की अपेक्षा एक हजार योजन की गहराई है / इसलिए जम्बूद्वीपवेदिका और धातकीखण्डवेदिका के पास उस समतल भूभाग में जलवृद्धि अंगुलासंख्येय भाग प्रमाण होती है। इससे पागे समतल भूभाग में प्रदेशवृद्धि से जलवृद्धि क्रमशः बढ़ती जाननी चाहिए, जब तक दोनों ओर 95 हजार योजन की दूरी पा जाय। यहां समतल भूभाग की अपेक्षा सात सौ योजन की जलवद्धि होती है / अर्थात् वहां समतल भूभाग से एक हजार योजन की गहराई है और उसके ऊपर सात सौ योजन की जलवृद्धि होती है। उससे आगे मध्यभाग में दस हजार योजन विस्तार में एक हजार योजन की गहराई है और जलवृद्धि सोलह हजार योजन प्रमाण है। पाताल-कलशगत वायु के क्षुभित होने से उनके ऊपर एक अहोरात्र में दो बार कुछ कम दो कोस प्रमाण अतिशय रूप में उदक की वृद्धि होती है और जब पातालकलशगत वायु उपशान्त होता है, तब वह जलवृद्धि नहीं होती है / यही बात इन गाथाओं में कही है पंचाणउयसहस्से गोतित्थं उभयनो वि लवणस्स / जोयणसयाणि सत्त उदग परिवुड्डीवि उभयो वि // 1 // दसजोयणसाहस्सा लवणसिहा चक्कवालओ रुदा / सोलससहस्स उच्चा सहस्समेगं च प्रोगाढा // 2 // देसूणमद्धजोयण लवणसिहोवरि दुर्ग दुवे कालो। प्रइरेगं अइरेगं परिवइ हायए वा वि // 3 // Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: लवणशिखा की वक्तव्यता] [11 लवणसमुद्र की प्राभ्यन्तर वेला को अर्थात् जम्बूद्वीप की ओर बढ़ती हुई शिखा को और उस पर बढ़ते हुए जल को सीमा से आगे बढ़ने से रोकने वाले भवनपतिनिकाय के अन्तर्गत आने वाले बयालीस हजार नागकुमार देव हैं। इसी तरह लवणसमुद्र की बाह्य वेला अर्थात् धातकीखण्ड की ओर अभिमुख होकर बढ़ने वाली शिखा और उसके ऊपर की अतिरेक वृद्धि को आगे बढ़ने से रोकने वाले बहत्तर हजार नागकुमार देव हैं / लवणसमुद्र के अनोदक को (देशोन अर्धयोजन से ऊपर बढ़ने वाले जल को) रोकने वाले साठ हजार मागकुमार देव हैं। ये नागकुमार देव लवणसमुद्र की वेला को मर्यादा में रखते हैं / इन सब वेलंधर नागकुमारों को संख्या एक लाख चौहत्तर हजार है। 159. (अ)—कति गं भंते ! वेलंधरा णागराया पण्णता? गोयमा ! चत्तारि वेलंधरा णागराया पण्णता, तं जहा—गोथूभे, सिवए, संखे, मणोसिलए। एतेसि णं भंते ! चउण्हं वेलंधरणागरायाणं कति आवासपम्वया पण्णत्ता ? गोयमा ! चत्तारि आवासपव्वया पण्णता, तं जहा-गोथूभे, उदगभासे, संखे, दगसीमाए। कहिणं भंते ! गोथूभस्स बेलंधरणागरायस्स गोथूभे णामं प्रावासपब्बए पण्णत्ते ? गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पुरथिमेणं लवणं समुदं बायालीसं जोयणसहस्साई ओगाहित्ता एत्थ णं गोयूभस्स वेलंधरणागरायस्स गोथूभे णामं प्रावासपव्वए पण्णत्ते सत्तरस एकवीसाई जोयणसयाई उद्धं उच्चतेणं चत्तारि तोसे जोयणसए कोसं च उन्वेणं मूले दसवावीसे जोयणसए आयामविक्खंभेणं, मज्झे सत्ततेवीसे जोयणसए उरि चत्तारि चउवोसे जोयणसए आयामविक्खंभेणं मूले तिण्णि जोयणसहस्साई दोणि य बत्तीसुत्तरे जोयणसए किंचिविसेसूणे परिक्खेवेणं, मज्से दो जोयणसहस्साई वोण्णि य छलसीए जोयणसए किंचिविसेसूणे परिक्खेवेणं, मूले विस्थिपणे मज्झे संखित्ते उपि तणुए गोपुच्छसंठाणसंठिए सव्वकणगामए अच्छे जाव पडिरूवे / से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेणं य वणसंडेणं सव्वनो समंता संपरिक्खित्ते। दोण्ह वि वण्णनो। गोथूभस्स णं प्रावासपब्वयस्स उरि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते जाव आसयंति / तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं एगे महं पाासायव.सए बावट्ठ जोयणद्धं च उड्ढं उच्चत्तेणं तं चेव पमाणं श्रद्धं पायामविक्खंभेणं वण्णओ जाव सोहासणं सपरिवारं / से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ गोथूभे आवासपव्वए गोथूभे आवासपव्वए ? गोयमा! गोथूभे णं आवासपव्यए तत्थ तत्थ देसे तहि तहिं बहुओ खुड्डाखुड्डियानो जाव गोथूभवण्णाई बहुइं उप्पलाइं तहेव जाव गोथूभे तत्थ देवे महिडिए जाव पलिओवमट्ठईए परिवसति / से णं तत्थ चउण्हं सामाणियसाहस्सीणं जाव गोथूभयस्स पावासपव्वयस्स गोथूभाए रायहाणीए जाव विहरइ / से तेणठेणं जाव णिच्चा। रायहाणी पुच्छा ? गोयमा ! गोथूभस्स प्रावासपवयस्स पुरथिमेणं तिरियमसंखेज्जे दीवसमुद्दे वोईवइत्ता अण्णम्मि लवणसमुद्दे तं चेष पमाणं तहेव सव्वं / Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12] [जीवाजीवाभिगमसूत्र 159. (अ) हे भगवन् ! वेलंधर नागराज कितने कहे गये हैं ? गौतम ! वेलंधर नागराज चार कहे गये हैं, उनके नाम हैं गोस्तूप, शिवक, शंख और मनःशिलाक।। हे भगवन् ! इन चार वेलंधर नागराजों के कितने आवासपर्वत कहे गये हैं ? गौतम ! चार आवासपर्वत कहे गये हैं / उनके नाम हैं-गोस्तूप, उदकभास, शंख और दकसीम / हे भगवन् ! गोस्तूप वेलंधर नागराज का गोस्तूप नामक प्रावासपर्वत कहां है ? गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के मेरुपर्वत के पूर्व में लवणसमुद्र में बयालीस हजार योजन आगे जाने पर गोस्तूप वेलंधर नागराज का गोस्तूप नाम का आवासपर्वत है। वह सत्रह सौ इक्कीस (1721) योजन ऊँचा, चार सौ तीस योजन एक कोस पानो में गहरा, मूल में दस सौ बाईस (1022) योजन लम्बा-चौड़ा, बीच में सात सौ तेईस (723) योजन लम्बा-चौड़ा और ऊपर चार सौ चौबीस (424) योजन लम्बा-चौड़ा है। उसकी परिधि मूल में तीन हजार दो सौ बत्तीस (3232) योजन से कुछ कम, मध्य में दो हजार दो सौ चौरासी (2284) योजन से कुछ अधिक और ऊर हजार तीन सौ इकतालीस (1341) योजन से कुछ कम है / यह मूल में विस्तीर्ण मध्य में संक्षिप्त और ऊपर पतला है, गोपुच्छ के आकार से संस्थित है, सर्वात्मना कनकमय है, स्वच्छ है यावत् प्रतिरूप है। __ वह एक पद्मवरवेदिका और एक वनखंड से चारों ओर से परिवेष्टित है। दोनों का वर्णन कहना चाहिए। गोस्तूप आवासपर्वत के ऊपर बहुसमरमणीय भूमिभाग कहा गया है, प्रादि सब वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए यावत् वहां बहुत से नागकुमार देव और देवियां स्थित होती हैं। उस बहुसमरमणीय भूमिभाग के बहुमध्य देशभाग में एक बड़ा प्रासादावतंसक है जो साढ़े बासठ योजन ऊँचा है, सवा इकतीस योजन का लम्बा-चौड़ा है, आदि वर्णन विजयदेव के प्रासादावतंसक के समान जानना चाहिए यावत् सपरिवार सिंहासन का कथन करना चाहिए। हे भगवन् ! गोस्तूप आवासपर्वत, गोस्तूप आवासपर्वत क्यों कहा जाता है ? हे गौतम ! गोस्तूप आवासपर्वत पर बहुत-सी छोटी-छोटी बावड़ियां आदि हैं, जिनमें गोस्तूप वर्ण के बहुत सारे उत्पल कमल आदि हैं यावत् वहां गोस्तूप नामक महद्धिक और एक पल्योपम की स्थितिवाला देव रहता है। वह गोस्तप देव चार हजार सामानिक देवों यावत: गोस्तुप प्रावासपर्वत और गोस्तूपा राजधानी का आधिपत्य करता हुआ विचरता है / इस कारण वह गोस्तूप आवासपर्वत कहा जाता। यावत् वह गोस्तूपा आवासपर्वत (द्रव्य से) नित्य है / अतएव उसका यह नाम अनादिकाल से चला आ रहा है। हे भगवन् ! गोस्तूप देव की गोस्तूपा राजधानी कहां है ? हे गौतम ! गोस्तूप प्रावासपर्वत के पूर्व में तिर्यदिशा में असंख्यात द्वीप-समुद्र पार करने के बाद अन्य लवणसमुद्र में गोस्तूपा राजधानी है / उसका प्रमाण आदि वर्णन विजया राजधानी की तरह कहना चाहिए / भंते ! सिवगस्स वेलंधरणागरायस्स दोभासणामे आवासपव्वए पण्णते ? 159 Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: लवणशिखा की वक्तव्यता] [13 गोयमा ! जंबुद्दीवे णं दोवे मंदरस्स पव्वयस्स दक्खिणणं लवणसमुई बायालोसं जोयणसहस्साई प्रोगाहित्ता एत्थ णं सिवगस्स वेलंधरणागरायस्स दोभासे णामं आवासपव्वए पण्णत्ते, तं चेव पमाणं जं गोथूभस्स, णवरि सव्वअंकामए अच्छे जाव पडिरूवे जाव अट्ठो भाणियव्यो / गोयमा! दोभासे णं आवासपव्वए लवणसमुद्दे अट्ठजोयणियखेत्ते दगं सम्वनो समंता प्रोभासेइ, उज्जोवेइ, तवेइ, पभासेइ, सिवए एत्थ देवे महिटिए जाव रायहाणी से दक्खिणेणं सिविगा दोभासस्स सेसं तं चेव / कहि णं भंते ! संखस्स वेलंधरणागरायस्स संखे णामं प्रावासपव्वए पण्णत्ते ? गोयमा ! जंबुद्दीवे णं दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पच्चत्थिमेणं बायालीसं जोयणसहस्साई एस्थ णं संखस्स वेलंधरणागरायस्स संखे णामं आवासपन्चए, तं चेव पमाणं, णवरं सवरयणामए अच्छे / से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेण जाव अट्ठो बहूओ खुड्डा खुड्डियानो जाव बहूइं उप्पलाई संखाभाई संखवण्णाई। संखे एत्थ देवे महिड्ढिए जाव रायहाणोए, पच्चत्थिमेणं संखस्स आवासपन्वयस्स संखा नाम रायहाणी, तं चेव पमाणं / कहि णं भंते ! मणोसिलगस्स वेलंधरणागरायस्स उदगसीमाए णामं आवासपब्धए पण्णत्ते? गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स उत्तरेणं लवणसमुई बायालीसं जोयणसहस्साई प्रोगाहिता एत्थ णं मणोसिलगस्स वेलंधरणागरायस्स उदगसीमाए णामं आवासपन्चए पण्णत्ते, तं चेव पमाणं / णवरि सव्वफलिहामए अच्छे जाव अट्ठो; गोयमा ! दगसोमंते णं आवासपटवए सीतासीतोदगाणं महाणदीणं तत्थ गए सोए पडिहम्मइ, से तेण?णं जाव णिच्चे, मणोसिलए एत्थ देवे महिडिए जाव से गं तत्थ चउण्हं सामाणियसाहस्सोणं जाव विहरइ / कहि णं भंते ! मणोसिलगस्स वेलंधरणागरायस्स मणोसिलाणामं रायहाणी? गोयमा ! दगसोमस्स आवासपव्वयस्स उत्तरेणं तिरियमसंखेज्जे दीवसमुद्दे वीईवइत्ता अण्णम्मि लवणसमुद्दे एस्थ गं मणोसिलिया णामं रायहाणी पण्णत्ता, तं चेव पमाणं जाव मणोसिलए देवे। कणगंकरयय-फालिहमया य वेलंधराणमावासा / अणुवेलंधरराईण पव्वया होति रयणमया // भगवन ! शिवक वेलंधर नागराज का दकाभास नामक प्रावास पर्वत कहां है ? गौतम ! जम्बूद्वीप के मेरुपर्वत के दक्षिण में लवणसमुद्र में बयालीस हजार योजन आगे जाने पर शिवक वेलंधर नागराज का दकाभास नामका आवासपर्वत है। जो गोस्तूप आवासपर्वत का प्रमाण है, वही इसका प्रमाण है / विशेषता यह है कि यह सर्वात्मना अंकरत्नमय है, स्वच्छ है यावत् प्रतिरूप है / यावत् यह दकाभास क्यों कहा जाता है ? गौतम ! लवणसमुद्र में द काभास नामक आवासपर्वत पाठ योजन के क्षेत्र में पानी को सब ओर अति विशुद्ध अंकरत्नमय होने से अपनी प्रभा से अवभासित करता है, (चन्द्र की तरह) उद्योतित करता है, (सूर्य की तरह) तापित करता है, (ग्रहों की तरह) चमकाता है तथा शिवक नाम का महद्धिक देव यहां रहता है, इसलिए यह दकाभास कहा जाता है। यावत् शिवका राजधानी का आधिपत्य करता हुआ विचरता है। वह शिवका राजधानी दकाभास पर्वत के दक्षिण में अन्य लवणसमुद्र में है, आदि कथन विजया राजधानी की तरह कहना चाहिए। Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14) [ जीवाजीवाभिगमसूत्र हे भगवन् ! शंख नामक वेलंधर नागराज का शंख नामक आवासपवत कहां है ? गौतम ! जम्बूद्वीप के मेरुपर्वत के पश्चिम में बयालीस हजार योजन आगे जाने पर शंख वेलंधर नागराज का शंख नामक आवासपर्वत है। उसका प्रमाण गोस्तूप की तरह है / विशेषता यह है कि यह सर्वात्मना रत्नमय है, स्वच्छ है / वह एक पद्मवरवेदिका और एक वनखंड से घिरा हुआ है यावत् यह शंख नामक प्रावासपर्वत क्यों कहा जाता है ? गौतम ! उस शंख आवासपर्वत पर छोटी छोटी बावड़ियां आदि हैं, जिनमें बहुत से कमलादि हैं। जो शंख की प्राभावाले, शंख के रंगवाले हैं और शंख की प्राकृति वाले हैं तथा वहां शंख नामक महद्धिक देव रहता है / वह शंख नामक राजधानी का आधिपत्य करता हुअा विचरता है / शंख नामक राजधानी शंख आवासपर्वत के पश्चिम में है, आदि विजया राजधानीवत् प्रमाण आदि कहना चाहिए। हे भगवन् ! मनःशिलक वेलंधर नागराज का दकसीम नामक आवासपर्वत किस स्थान पर है ? हे गौतम ! जम्बूद्वीप के मेरुपर्वत की उत्तरदिशा में लवणसमुद्र में बयालीस हजार योजन आगे जाने पर मनःशिलक वेलंधर नागराज का दकसीम नाम का प्रावासपर्वत है। उसका प्रमाण आदि पूर्ववत् कहना चाहिए। विशेषता यह है कि यह सर्वात्मना स्फटिक रत्नमय है, स्वच्छ है यावत् यह दकसीम क्यों कहा जाता है ? गौतम ! इस दकसीम आवासपर्वत से शीता-शीतोदा महानदियों का प्रवाह यहां आकर प्रतिहत हो जाता है— लौट जाता है। इसलिए यह उदक की सीमा करने वाला होने से “दकसीम" कहलाता है / यह शाश्वत (नित्य) है इसलिए यह नाम अनिमित्तक भी है / यहां मनःशिलक नाम का महद्धिक देव रहता है यावत् वह चार हजार सामानिक देवों आदि का आधिपत्य करता हुआ विचरता है / हे भगवन् ! मनःशिलक वेलंधर नागराज की मनःशिला राजधानी कहां है ? गौतम ! दकसीम प्रावासपर्वत के उत्तर में तिरछी दिशा में असंख्यात द्वीप-समुद्र पार करने पर अन्य लवणसमुद्र में मनःशिला नाम की राजधानी है। उसका प्रमाण प्रादि सब वक्तव्यता विजया राजधानी के तुल्य कहना चाहिए यावत् वहां मनःशिलक नामक देव महद्धिक और एक पल्योपम की स्थिति वाला रहता है / वेलंधर नागराजों के आवासपर्वत क्रमशः कनकमय, अंकरत्नमय, रजतमय और स्फटिकमय हैं / अनुवेलंधर नागराजों के पर्वत रत्नमय ही हैं। 160. कहि णं भंते ! अणुवेलंधरणागरायाओ पण्णत्ता ? गोयमा ! चत्तारि अणुवेलंधरणागरायाओ पण्णत्ता, तं जहा कक्कोडए, कद्दमए, केलासे, अरुणप्पभे। एतेसि भंते ! चउण्हं अणुवेलंधरणागरायाणं कति आवासपब्वया पण्णता ? गोयमा ! चत्तारि आवासपम्बया पण्णत्ता, तं जहा-कक्कोडए, कद्दमए, केलासे, अरुणप्पभे। कहि णं भंते ! कक्कोडगस्स अणुवेलंधरणागरायस्स कक्कोडए णाम प्रावासपव्वए पण्णते ? गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरपुरच्छिमेणं लवणसमुदं बायालीसं जोयणसहस्साई प्रोगाहित्ता एस्थ णं कक्कोडगस्स नागरायस्स कक्कोडए णामं प्रावासपब्वए पण्णत्ते, सत्तरस-इक्कवीसाइं . जोयणसयाई तं चेव पमाणं जं गोथूभस्स गरि सम्वरयणामए अच्छे जाव निरवसेसं जाव सपरिवार; अट्ठो से बहूई उप्पलाई कक्कोडगप्पभाई सेसं तं चेव णवरि कक्कोडगपव्ययस्स उत्तरपुरच्छिमेणं, एवं तं चेव सव्वं / Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : लवणशिखा की वक्तव्यता] [15 कद्दमस्स वि सो चेव गमो अपरिसेसिओ, णवरि दाहिणपुरत्थिमेणं प्रावासो विज्जुष्पमा रायहाणी वाहिणपुरस्थिमेणं / कइलासे वि एवं चेव णवरि दाहिणपच्चत्थिमेणं केलासा वि रायहाणी तए चेव दिसाए। __ अरुणप्पभे वि उत्तरपच्चस्थिमेणं रायहाणी वि ताए चेव दिसाए / चत्तारि वि एगप्पमाणा सव्वरयणामयाय। 160. हे भगवन् ! अनुवेलंधर नागराज (वेलंधरों की आज्ञा में चलने वाले) कितने हैं ? गौतम ! अनुवेलंधर नागराज चार हैं, उनके नाम हैं-कर्कोटक, कर्दम, कैलाश और अरुणप्रभ / हे भगवन् ! इन चार अनुवेलंधर नागराजों के कितने आवासपर्वत हैं ? गौतम ! चार आवासपर्वत हैं, यथा-कर्कोटक, कर्दम, कैलाश और अरुणप्रभ / हे भगवन् ! कर्कोटक अनुवेलंधर नागराज का कर्कोटक नाम का आवासपर्वत कहां है ? गौतम ! जंबूद्वीप के मेरुपर्वत के उत्तर-पूर्व में (ईशानकोण में) लवणसमुद्र में बयालीस हजार योजन आगे जाने पर कर्कोटक नागराज का कर्कोटक नामक आवासपर्वत है जो सत्रह सौ इकवीस (1721) योजन ऊंचा है आदि वही प्रमाण कहना चाहिए जो गोस्तूप पर्वत का है। विशेषता यह है कि यह सर्वात्मना रत्नमय है, स्वच्छ है यावत् सपरिवार सिंहासन तक सब वक्तव्यता पूर्ववत् जानना चाहिए / कर्कोटक नाम देने का कारण यह है कि यहां की बावड़ियों आदि में जो उत्पल कमल आदि हैं, वे कर्कोटक के प्राकार-प्रकार और वर्ण के हैं / शेष पूर्ववत् कहना चाहिए / यावत् उसकी राजधानी कर्कोटक पर्वत के उत्तर-पूर्व में तिरछे असंख्यात द्वीप-समुद्र पार करने पर अन्य लवणसमुद्र में है। प्रमाण आदि सब पूर्ववत् है। 1. कर्दम नामक' आवासपर्वत के विषय में भी पूरा वर्णन पूर्ववत् है। विशेषता यह है कि मेरुपर्वत के दक्षिण-पूर्व (आग्नेयकोण) में लवणसमुद्र में बयालीस हजार योजन जाने पर यह कर्दमपर्वत स्थित है। विद्युत्प्रभा इसकी राजधानी है जो इस आवासपर्वत से दक्षिण-पूर्व (आग्नेयकोण) में असंख्यात द्वीप-समुद्र पार करने पर अन्य लवणसमुद्र में है, अादि वर्णन पूर्वोक्त विजया राजधानी की तरह जानना चाहिए। कैलाश नामक प्रावासपर्वत के विषय में पूरा वर्णन पूर्ववत् है। विशेषता यह है कि यह मेरु से दक्षिण-पश्चिम (नैऋत्यकोण) में है। इसकी राजधानी कैलाशा है और वह कैलाशपर्वत के दक्षिण-पश्चिम (नैऋत्यकोण) में असंख्यात द्वीप-समुद्र पार करने पर अन्य लवणसमुद्र में है / अरुणप्रभ नामक आवासपर्वत मेरुपर्वत के उत्तर-पश्चिम (वायव्यकोण) में है। राजधानी भी अरुणप्रभ आवासपर्वत के वायव्य कोण में असंख्य द्वीप-समुद्रों के बाद अन्य लवणसमुद्र में है। शेष सब वर्णन विजया राजधानी की तरह है। ये चारों आवासपर्वत एक ही प्रमाण के हैं और सर्वात्मना रत्नमय हैं। 1. कर्दम पावासपर्वत का देव स्वभावतः यक्षकर्दमप्रिय है। यक्षकर्दम का अर्थ है-कुकुम, अगुरु,कपूर, कस्तूरी, चन्दन आदि के मिश्रण से जो सुगन्धित द्रव्य निर्मित होता है, वह यक्षकर्दम है। पूर्वपद का लोप होने से कर्दम कहा गया है। Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16] [ जीवाजीवाभिगमसूत्र गौतमद्वीप का वर्णन 161. कहिणं भंते ! सुट्टियस्स लवणाहिवइस्स गोयमदीवे णाम दीवे पण्णत्ते ? गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पच्चत्थिमेणं लवणसमुदं बारसजोयणसहस्साइं ओगाहिता एत्थ गं सुट्टियस्स लवणाहिवइस्स गोयमदीवे णामं दीवे पण्णत्ते, बारस जोयणसहस्साई प्रायामविक्खंभेणं सत्ततीसं जोयणसहस्साई नव य अडयाले जोयणसए किंचिविसेसूणे परिक्खेवेणं जंबूदोवंतेणं अद्धकोणणउए जोयणाई चत्तालीसं पंचणउट्टभागे जोयणस्स असिए जलंताओ, लवणसमुईतेणं दो कोसे ऊसिए जलंताओ। से णं एगाए य पउमवरवेइयाए एगेणं वणसंडेणं सध्वनो समंता तहेव वण्णओ दोण्ह वि। गोयमदीवस्स णं अंतो जाव बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते / से जहाणामए आलिंगयुक्खरेइ वा जाव प्रासयंति / तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभागे एत्थ णं सुट्टियस्स लवणाहिवइस्स एगे महं अइक्कीलावासे णामे भोमेज्जविहारे पण्णत्ते बाढि जोयणाई अद्धजोयणं य उड्ड उच्चत्तेणं, एकत्तीसं जोयणाई कोसं च विक्खंभेणं अणेगखंभसयसन्निविट्ठे भवणवण्णओ भाणियन्यो। अइक्कोलावासस्स णं भोमेज्जविहारस्स अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णते जाव मणीणं फासो / तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ एगा मणिपेढिया पण्णत्ता। साणं मणिपेढिया दो जोयणाई आयामविक्खंभेणं जोयणं बाहल्लेणं सव्वमणिमई अच्छा जाव पडिरूवा / तोसे णं मणिपेढियाए उरि एत्थ णं देवसयणिज्जे पण्णत्ते, वण्णओ। से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ-गोयमदीवे गोयमदीवे ? तत्थ-तत्थ तहि-तहिं बहूई उप्पलाई जाव गोयमप्पभाई से एएणठेणं गोयमा ! जाव णिच्चे। कहि णं भंते ! सुठ्ठियस्स लवणाहिवइस्त सुठियाणामं रायहाणी पण्णता? गोयमा ! गोयमदोवस्स पच्चत्थिमेणं तिरियमसंखेज्जे जाव अण्णम्मि लवणसमुद्दे, बारसजोयणसहस्साई ओगाहित्ता, एवं तहेव सन्वं णेयव्वं जाव सुट्ठिए देवे / 161. हे भगवन् ! लवणाधिपति सुस्थित देव का गौतमद्वीप कहां है ? गौतम ! जम्बूद्वीप के मेरुपर्वत के पश्चिम में लवणसमुद्र में बारह हजार योजन जाने पर लवणाधिपति सुस्थित देव का गौतमद्वीप नाम का द्वीप है / वह गौतमद्वीप बारह हजार योजन लम्बाचौड़ा और सैंतीस हजार नौ सौ अड़तालीस (37948) योजन से कुछ कम परिधि वाला है। यह जम्बूद्वीपान्त की दिशा में साढ़े अठ्यासी (883) योजन और योजन जलान्त से ऊ तथा लवणसमूद्र की ओर जलान्त से दो कोस ऊपर उठा हुया है। यह गौतमद्वीप एक पावरवेदिका और एक वनखण्ड से सब ओर से घिरा हुआ है / यहां दोनों का वर्णनक कहना चाहिए। गौतमद्वीप के अन्दर यावत् बहुसमरमणीय भूमिभाग है। उसका भूमिभाग मुरज के मढ़े हुए चमड़े की तरह समतल है, आदि सब वर्णन कहना चाहिए यावत् वहां बहत से वाणव्यन्तर देव-देवियां उठती-बैठती हैं, प्रादि उस बहसमरमणीय भूमिभाग के ठीक मध्यभाग Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: जम्बूद्वीपगत चन्द्रद्वीपों का वर्णन] [17 में लवणाधिपति सुस्थित देव का एक विशाल अतिक्रीडावास नाम का भौमेय विहार है जो साढ़े बासठ योजन ऊंचा और सवा इकतोस योजन चोड़ा है, अनेक सौ स्तम्भों पर सन्निविष्ट है, आदि भवन का वर्णनक कहना चाहिए। उस अतिक्रीडावास नामक भौमेय विहार में बहसमरमणीय भूमिभाग है, प्रादि वर्णन करना चाहिए यावत् मणियों का स्पर्श, उस बहुसमरमणीय भूमिभाग के ठीक मध्य में एक मणिपीठिका है। वह मणिपीठिका दो योजन लम्बी-चौडो.एक योजन मोटो और सर्वात्मना मणिमय है. स्वच्छ है प्रतिरूप है / उस मणिपीठिका के ऊपर एक देवशयनीय है / उसका पूर्ववत् वर्णन जानना चाहिए / हे भगवन् ! गौतमद्वीप, गौतमद्वीप क्यों कहलाता है ? गौतम ! गौतमद्वीप में यहां-वहां बहुत से उत्पल कमल आदि हैं जो गौतम (गोमेदरत्न) की आकृति और ग्राभा वाले हैं, इसलिए गौतमद्वोप कहलाता है / यह गौतमद्वीप द्रव्यापेक्षया शाश्वत है / अत: इसका नाम भी शाश्वत होने से अनिमित्तक है।' हे भगवन् ! लवणाधिपति सुस्थित देव को सुस्थिता नाम की राजधानी कहां है ? गौतम ! गौतमद्वीप के पश्चिम में तिरछे असंख्य द्वीप-समुद्रों को पार करने के बाद अन्य लवणसमुद्र में सुस्थिता राजधानी है, जो अन्य लवणसमुद्र में बारह हजार योजन आगे जाने पर पाती है, इत्यादि सब वक्तव्यता गोस्तूप राजधानीवत् जाननी चाहिए यावत् वहां सुस्थित नाम का महद्धिक देव है। जम्बूद्वीपगत चन्द्रद्वीपों का वर्णन 162. कहि णं भंते ! जंबुद्दोवगाणं चंदाणं चंददीवा णामं दीवा पणत्ता? गोयमा ! जंबुद्दीवे दोवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरथिमेणं लवणसमुदं बारसजोयणसहस्साई प्रोगाहित्ता एत्थ गं जंबुद्दीवगाणं चंदाणं चंददीवा णामं दीवा पण्णत्ता, जंबुद्दोवंतेणं अद्धकोणणउइ जोयणाई चत्तालोसं पंचाणउइं भागे जोयणस्स ऊसिया जलंतानो, लवणसमुद्देतेणं दो कोसे ऊसिया जलंताओ, बारसजोयणसहस्साई आयामविक्खंभेणं सेसं तं चेव जहा गोयमदोवस्स परिक्खेवो। पउमवरवेइया पत्तेयं-पत्तेयं वणसंडपरिक्खिता, दोहवि वण्णओ, बहुसमरमणिज्जभूमिभागा जाव जोइसिया देवा आसयंति। तेसि णं बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पासायवडेंसगा बावटि जोयणाई बहुमज्झदेसभागे मणिपेढियाओ दो जोयणाइं जाव सोहासणा सपरिवारा भाणियव्वा तहेव अट्ठो; गोयमा ! बहुसु खुडासु खुड्डियासु बहूई उप्पलाइं चंदवण्णाभाई चंदा एत्य देवा महिड्डिया जाव पलिओवमद्वितिया परिवति / ते णं तत्थ पत्तेयं पत्तेयं चउहं सामाणियसाहस्सोणं जाव चंददोवाणं चंदाण य रायहाणोणं 1. वृत्तिकार के अनुसार गौतमद्वीप नाम का कारण शाश्वत होने से अनिमित्तक है। वृत्तिकार पुस्तकान्तर का उल्लेख करते हुए "गोयमदीवे गं दीवे तत्थ-तत्थ तहि तहिं बहई उप्पलाइं जाव सहस्सपत्ताई गोयमपभाई गोयमवग्णाई गोयमवण्णाभाई" इस पाठ का होना मानते हैं। Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18] [ जीवाजीवामिगमसूत्र अन्नेसि य बहूणं जोइसियाणं देवाणं देवीण य प्राहेवच्चं जाव विहरति / से तेणोणं गोयमा ! चंबद्दीवा जाव णिच्चा। कहि णं भंते ! जंबुद्दीवगाणं चंदाणं चंदानो नाम रायहाणीओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! चंदद्दीवाणं पुरथिमेणं तिरियं जाव अण्णम्मि जंबुद्दीवे दोवे बारस जोयणसहस्साई भोगाहिता तं चेव पमाणं जाव महड्डिया चंदा देवा / कहि णं भंते ! जंबुद्दीवगाणं सूराणं सूरदीवा णामं दीवा पण्णत्ता ? गोयमा ! जंबुद्दीवे वीवे मंदरस्स पव्वयस्स पच्चस्थिमेणं लवणसमुदं बारसजोयणसहस्साई ओगाहित्ता तं चेव उच्चत्तं आयामविक्खंभेणं परिक्खेवो वेदिया, वनसंडो, भूमिभागा जाव आसयंति, पासायव.सगाणं तं चेव पमाणं मणिपेढिया सीहासणा सपरिवारा अट्ठो उष्पलाइं सूरप्पभाई सूरा एत्थ देवा जाव रायहाणीओ सगाणं दीवाणं पच्चत्थिमेणं अण्णम्मि जंबुद्दीवे दीवे सेसं तं चेव जाव सूरा देवा। 162. हे भगवन् ! जम्बूद्वीपगत दो चन्द्रमानों के दो चन्द्रद्वीप कहां पर हैं ? गौतम ! जम्बूद्वीप के मेरुपर्वत के पूर्व में लवणसमुद्र में बारह हजार योजन आगे जाने पर वहां जम्बूद्वीपगत दो चन्द्रों के दो चन्द्रद्वीप कहे गये हैं। ये द्वीप जम्बूद्वीप की दिशा में साढ़े अठासी (883) योजन और योजन पानी से ऊपर उठे हुए हैं और लवणसमुद्र की दिशा में दो कोस पानी से ऊपर उठे हुए हैं। ये बारह हजार योजन लम्बे-चौड़े हैं; शेष परिधि आदि सब वक्तव्यता गौतमद्वीप की तरह जाननी चाहिए / ये प्रत्येक पद्मवरवेदिका और वनखण्ड से परिवेष्ठित हैं। दोनों का वर्णनक कहना चाहिए / उन द्वीपों में बहुसमरमणीय भूमिभाग कहे गये हैं यावत् वहां बहुत से ज्योतिष्क देव उठते-बैठते हैं / उन बहुसमरमणीय भागों में प्रासादावतंसक हैं, जो साढ़े बासठ योजन ऊँचे हैं, आदि वर्णन गौतमद्वीप की तरह जानना चाहिए। मध्यभाग में दो योजन की लम्बी-चौड़ी, एक योजन मोटी मणिपीठिकाएं हैं, इत्यादि सपरिवार सिंहासन पर्यन्त पूर्ववत् कहना चाहिए। हे भगवन् ! ये चन्द्रद्वीप क्यों कहलाते हैं ? हे गौतम ! उन द्वीपों की बहुत-सी छोटी-छोटी बावड़ियों आदि में बहुत से उत्पलादि कमल हैं, जो चन्द्रमा के समान प्राकृति और प्राभा (वर्ण) वाले हैं और वहां चन्द्र नामक महद्धिक देव, जो पल्योपम की स्थिति वाले हैं, रहते हैं। वे वहां अलग-अलग चार हजार सामानिक देवों यावत् चन्द्रद्वीपों और चन्द्रा राजधानियों और अन्य बहुत से ज्योतिष्क देवों और देवियों का आधिपत्य करते हुए अपने पुण्यकर्मों का विपाकानुभव करते हुए विचरते हैं। इस कारण हे गौतम ! वे चन्द्रद्वीप कहलाते हैं। हे गौतम ! वे चन्द्रद्वीप द्रव्यापेक्षया नित्य हैं अतएव उनके नाम भी शाश्वत हैं। हे भगवन् ! जम्बूद्वीप के चन्द्रों की चन्द्रा नामक राजधानियां कहां हैं ? गौतम ! चन्द्रद्वीपों के पूर्व में तिर्यक् असंख्य द्वीप-समुद्रों को पार करने पर अन्य जम्बूद्वीप में बारह हजार योजन आगे जाने पर वहां ये राजधानियां हैं। उनका प्रमाण आदि पूर्वोक्त गौतमादि राजधानियों की तरह जानना चाहिए यावत् वहां चन्द्र नामक महद्धिक देव हैं। Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [19 तृतीय प्रतिपत्ति : जम्बूद्वीपगत चन्द्रद्वीपों का वर्णन] हे भगवन् ! जम्बूद्वीप के दो सूर्यों के दो सूर्यद्वीप कहां हैं ? गौतम ! जम्बूद्वीप के मेरुपर्वत के पश्चिम में लवणसमुद्र में बारह हजार योजन आगे जाने पर जम्बूद्वीप के दो सूर्यों के दो सूर्यद्वीप हैं। उनका उच्चत्व, प्रायाम-विष्कंभ, परिधि, वेदिका, वनखण्ड, भूमिभाग, वहां देव-देवियों का बैठनाउठना, प्रासादावतंसक, उनका प्रमाण, मणिपीठिका, सपरिवार सिंहासन आदि चन्द्रद्वीप की तरह कहना चाहिए। हे भगवन् ! सूर्य द्वीप, सूर्यद्वीप क्यों कहलाते हैं ? हे गौतम ! उन द्वीपों की बावड़ियों आदि में सूर्य के समान वर्ण और आकृति वाले बहुत सारे उत्पल आदि कमल हैं, इसलिए वे सूर्यद्वीप कहलाते हैं। ये सूर्यद्वीप द्रव्यपेक्षया नित्य हैं। अतएव इनका नाम भी शाश्वत है। इनमें सूर्य देव, सामानिक देव प्रादि का यावत् ज्योतिष्क देव-देवियों का आधिपत्य करते हुए विचरते हैं यावत् इनकी राजधानियां अपने-अपने द्वीपों से पश्चिम में असंख्यात द्वीप-समुद्रों को पार करने के बाद अन्य जम्बूद्वीप में बारह हजार योजन आगे जाने पर स्थित हैं। उनका प्रमाण आदि पूर्वोक्त चन्द्रादि राजधानियों की तरह मानना चाहिए यावत् वहां सूर्य नामक महद्धिक देव हैं / 163. कहि णं भंते ! अभितरलावणगाणं चंदाणं चंददीवा णामं वीवा पण्णता? गोयमा ! जंबुद्दोवे दोवे मंदरस्स पथ्वयस्स पुरत्यिमेणं लवणसमुदं बारस जोयणसहस्साई मोगाहिता एस्थ णं अग्भिंतरलावणगाणं चंदाणं चंददीवा णामं दीया पण्णत्ता। जहा जम्बुद्दीवगा चंदा तहा भाणियव्वा, गवरि रायहाणीयो अण्णमि लवणे सेसं तं चेव / एवं प्रभितरलावणगाणं सूराणवि लवणसमुदं बारस जोयणसहस्साई तहेव सव्वं जाव रायहाणीओ। कहि णं भंते ! बाहिरलावणगाणं चंदाणं चंददीवा पण्णता? गोयमा ! लवणसमुहस्स पुरथिमिल्लाओ वेदियंताओ लवणसमुई पच्चस्थिमेणं बारस जोयणमहस्साई ओगाहित्ता एत्थ णं बाहिरलावणगाणं चंददोवा णामं दोवा पण्णत्ता, धायइसंडदीवंतेणं अकोणणवतिजोयगाइं चत्तालीसं च पंचणउतिभागे जोयणस्स ऊसिया जलंतानो, लवणसमुदंतेणं दो कोसे असिया बारस जोयणसहस्साई आयाम-विक्ख भेणं पउमवरवेइया वनसंडा बहुसमरमणिज्जा भूमिभागा मणिपेढिया सोहासणा सपरिवारा सो चेव अट्ठो रायहाणोओ सगाणं दीवाणं पुरथिमेणं तिरियमसंखेज्जे दीवसमुद्दे वीईवइत्ता अण्णमि लवणसमुद्दे तहेव सव्वं / कहि णं भंते ! बाहिरलावणगाणं सूराणं सूरदोवा णामं दोबा पण्णता ? गोयमा ! लवणसमुद्दपच्चथिमिल्लानो वेदियंताओ लवणसमुई :पुरस्थिमेणं बारस जोयणसहस्साई धायइसंडदीवंतेणं अद्धकोणणउइं जोयणाई चत्तालीसं च पंचणउइभागे जोयणस्स दो कोसे ऊसिया सेसं तहेव जाव रायहाणीओ सगाणं दीवाणं पच्चत्थिमेणं तिरियमसंखेज्जे लवणे चेव बारस जोयणा तहेव सवं भाणियब्वं / 163. हे भगवन् ! लवणसमुद्र में रहकर जम्बूद्वीप की दिशा में शिखा से पहले विचरने वाले (आभ्यन्तर लावणिक) चन्द्रों के चन्द्रद्वीप नामक द्वीप कहां हैं ? Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 // [ जीवाजीवाभिगमसूत्र गौतम ! जम्बूद्वीप के मेरुपर्वत के पूर्व में लवणसमुद्र में बारह हजार योजन जाने पर प्राभ्यन्तर लावणिक चन्द्रों के चन्द्रद्वीप नामक द्वीप हैं / जैसे जम्बूद्वीप के चन्द्रद्वीपों का वर्णन किया, वैसा इनका भी कथन करना चाहिए / विशेषता यह है कि इनकी राजधानियां अन्य लवणसमुद्र में हैं, शेष पूर्ववत् कहना चाहिए। इसी तरह प्राभ्यन्तर लावणिक सूर्यों के सूर्यद्वीप लवणसमुद्र में बारह हजार योजन जाने पर वहां स्थित हैं, आदि सब वर्णन राजधानी पर्यन्त चन्द्रद्वीपों के समान जानना चाहिए। हे भगवन् ! लवणसमुद्र में रह कर शिखा से बाहर विचरण करने वाले बाह्य लावणिक चन्द्रों के चन्द्रद्वीप कहां हैं ? गौतम ! लवणसमुद्र की पूर्वीय वेदिकान्त से लवणसमुद्र के पश्चिम में बारह हजार योजन जाने पर बाह्य लावणिक चन्द्रों के चन्द्रद्वीप नामक द्वीप हैं, जो धातकीखण्डद्वीपान्त की तरफ साढ़े अठ्यासी योजन और योजन जलांत से ऊपर हैं और लवणसमुद्रान्त की तरफ जलांत से दो कोस ऊँचे हैं। ये बारह हजार योजन के लम्बे-चौड़े, पद्मवरवेदिका, वनखण्ड, बहुसमरमणीय भूमिभाग, मणिपीठिका, सपरिवार सिंहासन, नाम का प्रयोजन, राजधानियां जो अपने-अपने द्वीप के पूर्व में तिर्यक् असंख्यात द्वीप-समुद्रों को पार करने पर अन्य लवणसमुद्र में हैं, आदि सब कथन पूर्ववत जानना चाहिए। हे भगवन् ! बाह्य लावणिक सूर्यों के सूर्यद्वीप नाम के द्वीप कहां हैं ? गौतम ! लवणसमुद्र की पश्चिमी वेदिकान्त से लवणसमुद्र के पूर्व में बारह हजार योजन जाने पर बाह्य लावणिक सूर्यों के सूर्यद्वीप नामक द्वीप हैं, जो धातकीखण्ड द्वीपांत की तरफ साढे अठ्यासी योजन और योजन जलांत से ऊपर हैं और लवणसमुद्र की तरफ जलांत से दो कोस ऊँचे हैं / शेष सब वक्तव्यता राजधानी पर्यन्त पूर्ववत् कहनी चाहिए। ये राजधानियां अपने-अपने द्वीपों से पश्चिम में तिर्यक असंख्यात द्वीप-समुद्र पार करने के बाद अन्य लवण समुद्र में बारह हजार योजन के बाद स्थित हैं, आदि सब कथन करना चाहिए। धातकीखंडद्वीपगत चन्द्रद्वीपों का वर्णन 164. कहि णं भंते ! धायइसंडदीवगाणं चंदाणं चंददीवा पण्णत्ता ? गोयमा ! धायइसंडस्स दीवस्स पुरस्थिमिल्लाओ बेदियंताओ कालोयं णं समुदं बारस जोयणसहस्साई ओगाहित्ता एत्थ णं धायइसंडदीवाणं चंदाणं णामं दीवा पण्णत्ता, सवओ समंता दो कोसा ऊसिया जलंताओ बारस जोयणसहस्साई तहेव विक्खंभ-परिक्खेवो भूमिभागो पासायडिसगा मणिपेढिया सीहासणा सपरिवारा अट्ठो तहेव रायहाणीओ, सकाणं दीवाणं पुरत्थिमेणं अण्णंमि धायइसंडे दीवे सेसं तं चेव / ___ एवं सूरदीवावि / नवरं धायइसंडस्स दीवस्स पच्चथिमिल्लाओ वेदियंतानो कालोयं गं समुदं बारस जोयणसहस्साई तहेव सव्वं जाव रायहाणीओ सूराणं दीवाणं पच्चत्थिमेणं अण्णमि धायइसंडे दीवे सव्वं तहेव / Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : कालोदधिसमुद्रगत चन्द्रद्वीपों का वर्णन] [21 164. हे भगवन् ! धातकीखण्डद्वीप के चन्द्रों के चन्द्रद्वीप कहां हैं। गौतम ! धातकीखण्डद्वीप की पूर्वी वेदिकान्त से कालोदधिसमुद्र में बारह हजार योजन आगे जाने पर धातकीखण्ड के चन्द्रों के चन्द्रद्वीप हैं। (धातकीखण्ड में 12 चन्द्र हैं।) वे सब ओर से जलांत से दो कोस ऊँचे हैं / ये बारह हजार योजन के लम्बे-चौड़े हैं / इनकी परिधि, भूमिभाग, प्रासादावतंसक, मणिपीठिका, सपरिवार सिंहासन, नाम-प्रयोजन, राजधानियां आदि पूर्ववत् जानना चाहिए / वे राजधानियां अपने-अपने द्वीपों से पूर्वदिशा में अन्य धातकीखण्डद्वीप में हैं। शेष सब पूर्ववत् / इसी प्रकार धातकीखण्ड के सूर्यद्वीपों के विषय में भी कहना चाहिए। विशेषता यह है कि धातकीखण्डद्वीप को पश्चिमी वेदिकान्त से कालोदधिसमुद्र में बारह हजार योजन जाने पर ये द्वीप पाते हैं / इन सूर्यों की राजधानियां सूर्यद्वीपों के पश्चिम में असंख्य द्वीपसमुद्रों के बाद अन्य धातकीखण्डद्वीप में हैं, आदि सब वक्तव्यता पूर्ववत् जाननी चाहिए। कालोदधिसमुद्रगत चन्द्रद्वीपों का वर्णन 165. कहि णं भंते ! कालोयगाणं चंदाणं चंददीवा पण्णता ? गोयमा ! कालोयसमुहस्स पुरथिमिल्लाओ वेदियंताओ कालोयसमुई पच्चस्थिमेणं बारस जोयणसहस्साई ओगाहित्ता, एत्थ णं कालोयगचंदाणं चंददीबा पण्णत्ता सम्वनो समंता दो कोसा ऊसिया जलंतानो, सेसं तहेव जाव रायहाणीओ सगाणं दीवाणं पुरच्छिमेणं अण्णमि कालोयगसमुद्दे बारस जोयणसहस्साई तं चेव सव्वं जाव चंदा देवा देवा / एवं सूराणदि / गवरं कालोयगपच्चस्थिमिल्लाओ वेदियंताओ कालोयसमुद्दपुरस्थिमेणं बारस जोयणसहस्साइं ओगाहित्ता तहेव रायहाणीओ सगाणं दीवाणं पञ्चस्थिमेणं अपमि कालोयगसमुद्दे तहेव सव्वं / एवं पुक्खरवरगाणं चंदाणं पुक्खरवरस्स दोबस्स पुरस्थिमिल्लाओ वेदियंताओ पुक्खरसमुई बारस जोयणसहस्साई ओगाहित्ता चंददीवा अण्णम्मि पुक्खररे दीवे रायहाणीओ तहेब / एवं सूराणवि दोवा पुक्खरवरवीवस्स पच्चस्थिमिल्लाओ वेदियंताओ पुक्खरोदं समुदं बारस जोयणसहस्साइं ओगाहित्ता तहेव सवं जाव रायहाणीओ दोविल्लगाणं दोवे समुद्दगाणं समुद्दे चेव एगाणं अभितरपासे एगाणं बाहिरपासे रायहाणीओ दीविल्लगाणं दीवेसु समुद्दगाणं समुद्देसु सरिणामएसु। 165. हे भगवन् ! कालोदधिसमुद्रगत चन्द्रों के चन्द्रद्वीप कहां हैं ? हे गौतम ! कालोदधिसमुद्र के पूर्वीय बेदिकांत से कालोदधिसमुद्र के पश्चिम में बारह हजार योजन आगे जाने पर कालोदधिसमुद्र के चन्द्रों के चन्द्रद्वीप हैं। ये सब ओर से जलांत से दो कोस ऊंचे हैं / शेष सब पूर्ववत् कहना चाहिए यावत् राजधानियां अपने-अपने द्वीप के पूर्व में असंख्य द्वीप-समुद्रों के बाद अन्य कालोदधिसमुद्र में बारह हजार योजन जाने पर आती हैं, आदि सब पूर्ववत् यावत् वहां चन्द्रदेव हैं। Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22] [जीवाजीवाभिगमसूत्र __ इसी प्रकार कालोदधिसमुद्र के सूर्यद्वीपों के संबंध में भी जानना चाहिए। विशेषता यह है कि कालोदधिसमुद्र के पश्चिमी वेदिकान्त से और कालोदधिसमुद्र के पूर्व में बारह हजार योजन आगे जाने पर ये आते हैं। इसी तरह पूर्ववत जानना चाहिए यावत् इनकी राजधानियां अपने-अपने द्वीपों के पश्चिम में अन्य कालोदधि में हैं, आदि सब पूर्ववत् कहना चाहिए। इसी प्रकार पुष्करवरद्वीप के पूर्वी वेदिकान्त से पुष्करवरसमुद्र में बारह हजार योजन आगे जाने पर चन्द्रद्वीप हैं, इत्यादि पूर्ववत् / अन्य पुष्करवरद्वीप में उनकी राजधानियां हैं। राजधानियों के सम्बन्ध में सब पूर्ववत् जानना चाहिए। इसी तरह से पुष्करवरद्वीपगत सूर्यों के सूर्यद्वीप पुष्करवरद्वीप के पश्चिमी वेदिकान्त से पुष्करवरसमुद्र में बारह हजार योजन आगे जाने पर स्थित हैं, आदि पूर्ववत् जानना चाहिए यावत् राजधानियां अपने द्वीपों की पश्चिमदिशा में तिर्यक् असंख्यात द्वीप-समुद्रों को लांघने के बाद अन्य पुष्करवरद्वीप में बारह हजार योजन की दूरी पर हैं। पुष्करवरसमुद्रगत सूर्यों के सूर्यद्वीप पुष्करवरसमुद्र के पूर्वी वेदिकान्त से पश्चिमदिशा में बारह हजार योजन अागे जाने पर स्थित हैं। राजधानियां अपने द्वीपों की पूर्वदिशा में तिर्यक् असंख्यात द्वीप-समुद्रों का उल्लंघन करने पर अन्य पुष्करवरसमुद्र में बारह हजार योजन से परे हैं। इसी प्रकार शेष द्वीपगत चन्द्रों की राजधानियां चन्द्रद्वीपगत पूर्वदिशा की वेदिकान्त से मनन्तर समुद्र में बारह हजार योजन जाने पर कहनी चाहिए। शेष द्वीपगत सूर्यों के सूर्यद्वीप अपने द्वीपगत पश्चिम वेदिकान्त से अनन्तर समुद्र में हैं, चन्द्रों की राजधानियां अपने-अपने चन्द्रद्वीपों से पूर्व दिशा में अन्य अपने-अपने नाम वाले द्वीप में हैं, सूर्यों की राजधानियां अपने-अपने सूर्यद्वीपों से पश्चिम दिशा में अन्य अपने सदृश नाम वाले द्वीप में बारह हजार योजन के बाद हैं। शेष समुद्रगत चन्द्रों के चन्द्रद्वीप अपने-अपने समुद्र के पूर्व वेदिकान्त से पश्चिम दिशा में बारह हजार योजन के बाद हैं / सूर्यों के सूर्यद्वीप अपने-अपने समुद्र के पश्चिमी वेदिकांत से पूर्व दिशा में बारह हजार योजन के बाद हैं। चन्द्रों की राजधानियां अपने-अपने द्वीपों की पूर्व दिशा में अन्य अपने जैसे नाम वाले समुद्रों में हैं। सूर्यों की राजधानियां अपने-अपने द्वीपों की पश्चिम दिशा में हैं। 166. इमे णामा अणुगंतव्वा' जंबुद्दीवे लवणे धायइ-कालोद-पुक्खरे बरुणे। खीर-घय-इक्खु (वरो य) गंदी अरुणवरे कुडले रुयगे // 1 // प्राभरण-वत्थ-गंधे उप्पल-तिलए य पुढवि-णिहि-रयणे। वासहर-दह-नईओ विजयावक्खार-कप्पिदा // 2 // पुर-मंदरमावासा कूडा णक्खत्त-चंद-सूरा य / एवं भाणियव्वं / 166. असंख्यात द्वीप और समुद्रों में से कितनेक द्वीपों और समुद्रों के नाम इस प्रकार हैं जम्बूद्वीप, लवणसमुद्र, धातकीखण्डद्वीप, कालोदसमुद्र, पुष्करवरद्वीप, पुष्करवरसमुद्र, वारुणिवरद्वीप, वारुणिवरसमुद्र, क्षीरवरद्वीप, क्षीरवरसमुद्र, घृतवरद्वीप, घृतवरसमुद्र, इक्षुवरद्वीप, 1. वृत्ति में इस सूत्र की व्याख्या नहीं है, न इस सूत्र का उल्लेख ही है। Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपति : देवद्वीपावि में विशेषता] [23 इक्षुवरसमुद्र, नंदीश्वरद्वीप, नन्दीश्वरसमुद्र, अरुणवरद्वीप, अरुणवरसमुद्र, कुण्डलद्वीप, कुण्डलसमुद्र, रुचकद्वीप, रुचकसमुद्र, प्राभरणद्वीप, पाभरणसमुद्र, वस्त्रद्वीप, वस्त्रसमुद्र, गन्धद्वीप, गन्धसमुद्र, उत्पलद्वीप, उत्पलसमुद्र, तिलकद्वीप, तिलकसमुद्र, पृथ्वीद्वीप, पृथ्वीसमुद्र, निधिद्वीप, निधिसमुद्र, रत्नद्वीप, रत्नसमुद्र, वर्षधरद्वीप, वर्षधरसमुद्र, द्रहद्वीप, द्रहसमुद्र, नंदीद्वीप, नंदीसमुद्र, विजयद्वीप, विजयसमुद्र, वक्षस्कारद्वीप, वक्षस्कारसमुद्र, कपिद्वीप, कपिसमुद्र, इन्द्रद्वीप, इन्द्रसमुद्र, पुरद्वीप, पुरसमुद्र, मन्दरद्वीप, मन्दरसमुद्र, आवासद्वीप, आवाससमुद्र, कूटद्वीप, कूटसमुद्र, नक्षत्रद्वीप, नक्षत्रसमुद्र, चन्द्रद्वीप, चन्द्रसमुद्र, सूर्यद्वीप, सूर्यसमुद्र, इत्यादि अनेक नाम वाले द्वीप और समुद्र हैं / देवद्वीपादि में विशेषता 167. (अ) कहि णं भंते ! देवहीवगाणं चंदाणं चंददीवा णामं दीवा पण्णत्ता ? गोयमा ! देवदीवस्स पुरथिमिल्लाओ वेइयंताओ देवोदं समुदं बारस जोयणसहस्साई ओगाहित्ता तेणेव कमेण जाव रायहाणीओ सगाणं दीवाणं पुरस्थिमेणं देवद्दीवं समुदं असंखेज्जाइं जोयणसहस्साइं ओगाहिता एत्थ णं देववीययाणं चंदाणं चंदाओ णामं रायहाणीओ पण्णत्तायो। सेसं तं चेव / देवदीवा चंदादीवा एवं सूराणं वि / णवरं पच्चस्थिमिल्लाओ वेदियंताओ पच्चस्थिमेण च भाणियब्वा, तम्मि चेव समुद्दे / ___ कहि णं भंते ! देवसमुद्दगाणं चंदाणं चंददीवा णाम दीवा पणत्ता ? गोयमा ! देवोदगास समुद्दगस्स पुरथिमिल्लानो वेदियंतानो देवोदगं समुदं पच्चस्थिमेणं बारस जोयणसहस्साई तेणेव कमेणं जाव रायहाणीओ सगाणं दीवाणं पच्चत्थिमेणं देवोदगं समुह असंखेजाइं जोयणसहस्साइं ओगाहित्ता एत्थ णं देवोदगाणं चंदाणं चंदाओ णामं रायहाणीनो पण्णत्तायो। तं चेव सवं / एवं सूराणवि / णवरि देवोदगस्स पच्चथिमिल्लाओ वेदियंताओ देवोदगसमुदं पुरस्थिमेणं बारस जोयणसहस्साई प्रोगाहित्ता रायहाणीओ सगाणं सगाणं दीवाणं पुरथिमेणं देवोदगं समुद्दे असंखेज्जाइं जोयणसहस्साई ओगाहिता / एवं णागे जक्खे भूएवि चउण्हं दीव-समुद्दाणं / 167. (अ) हे भगवन् ! देवद्वीपगत चन्द्रों के चन्द्रद्वीप नामक द्वीप कहां हैं ? गौतम ! देवद्वीप की पूर्व दिशा के वेदिकान्त से देवोदसमुद्र में बारह हजार योजन आगे जाने पर वहां देवद्वीप चन्द्रों के चन्द्रद्वीप हैं, इत्यादि पूर्ववत राजधानी पर्यन्त कहना चाहिए। अपने ही चन्द्रद्रीयों की पश्चिमदिशा में उसी देवद्वीप में असंख्यात हजार योजन जाने पर वहां देवद्वीप के चन्द्रों की चन्द्रा नामक राजधानियां हैं। शेष वर्णन विजया राजधानीवत् कहना चाहिए। हे भगवन् ! देवद्वीप के सूर्यों के सूर्यद्वीप नामक द्वीप कहां हैं ? गौतम ! देवद्वीप के पश्चिमी वेदिकान्त से देवोदसमुद्र में बारह हजार योजन जाने पर देवद्वीप के सूर्यों के सूर्यद्वीप हैं। अपने-अपने ही सूर्यद्वीपों की पूर्व दिशा में उसी देवद्वीप में असंख्यात हजार योजन जाने पर उनकी राजधानियां हैं। हे भगवन् ! देवसमुद्रगत चन्द्रों के चन्द्रद्वीप नामक द्वीप कहां हैं ? गौतम ! देवोदकसमुद्र के पूर्वी वेदिकान्त से देवोदकसमुद्र में पश्चिमदिशा में बारह हजार योजन जाने पर यहां देवसमुद्रगत चन्द्रों के चन्द्रद्वीप हैं, आदि क्रम से राजधानी पर्यन्त कहना चाहिए। उनकी राजधानियां अपने-अपने Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24] [जीवाजीवाभिगमसूत्र द्वोपों के पश्चिम में देवोदकसमुद्र में असंख्यात हजार योजन जाने पर स्थित हैं। शेष वर्णन विजया राजधानी के समान कहना चाहिए। देवसमुद्रगत सूर्यों के विषय में भी ऐसा ही कहना चाहिए। विशेषता यह है कि देवोदकसमुद्र के पश्चिमी वेदिकान्त से देवोदक समुद्र में पूर्व दिशा में बारह हजार योजन जाने पर ये स्थित हैं। इनकी राजधानियां अपने-अपने द्वीपों के पूर्व में देवोदकसमुद्र में असंख्यात हजार योजन ागे जाने पर आती हैं / इसी प्रकार नाग, यक्ष, भूत और स्वयंभूरमण चारों द्वीपों और चारों समुद्रों के चन्द्र-सूर्यों के द्वीपों के विषय में कहना चाहिए। स्वयंभूरमणद्वीपगत चन्द्र-सूर्यद्वीप 167. (प्रा) कहि णं भंते ! सयंभूरमणदीवगाणं चंदाणं चंददीवा णाम दीवा पण्णत्ता ? सयंभूरमणस्स दीवस्स पुरथिमिल्लाओ वेइयंताओ सयंभूरमणोदगं समुदं बारस जोयणसहस्साई तहेव रायहाणीओ सगाणं सगाणं दीवाणं पुरथिमेणं संयमूरमणोदगं समुदं पुरथिमेणं असंखेज्जाई जोयणसहस्साई ओगाहित्ता तं चेव / एवं सूराणवि / सयंभूरमणस्स पच्चस्थिमिल्लाओ वेवियंताओ रायहाणीओ सगाणं सगाणं दीवाणं पच्चस्थिमिल्लाणं सयंभूरमणोदं समुदं असंखेज्जाइं जोयणसहस्साई ओगाहित्ता सेसं तं चेव / / कहि णं भंते ! सयंभूरमणसमुद्दगाणं चंदाणं चंददीवा णामं दोवा पण्णता ? सयंभूरमणस्स समुहस्स पुरथिमिल्लाओ वेइयंताओ सयंभूरमणसमुई पच्चत्थिमेणं बारस जोयणसहस्साई ओगाहित्ता, सेसं तं चेव / एवं सूराणवि / सयंभूरमणस्स पच्चथिमिल्लाओ वेइयंताओ सयंभूरमणोदं समुदं पुरस्थिमेणं बारस जोयणसहस्साइं ओगाहित्ता, रायहाणीओ सगाणं दीवाणं पुरथिमेणं सयंभूरमणं समुदं असंखेज्जाई जोयणसहस्साई ओगाहित्ता, एत्थ णं सयंभूरमणसमुद्दगाणं सूराणं जाव सूरा देवा / 167. (ग्रा) हे भगवन् ! स्वयंभूरमणद्वीपगत चन्द्रों के चन्द्रद्वीप नाम द्वीप कहां हैं ? गौतम ! स्वयंभूरमणद्वीप के पूर्वीय वेदिकान्त से स्वयंभूरमणसमुद्र में बारह हजार योजन आगे जाने पर वहां स्वयंभूरमणद्वीपगत चन्द्रों के चन्द्रद्वीप हैं / उनकी राजधानियां अपने-अपने द्वीपों के पूर्व में स्वयंभूरमणसमुद्र के पूर्वदिशा की ओर असंख्यात हजार योजन जाने पर आती हैं, आदि पूर्ववत् कथन करना चाहिए। इसी तरह सूर्यद्वीपों के विषय में भी कहना चाहिए। विशेषता यह है कि स्वयंभूरमणद्वीप के पश्चिमी वेदिकान्त से स्वयंभूरमणसमुद्र में बारह हजार योजन आगे जाने पर ये द्वीप स्थित हैं। इनको राजधानियां अपने-अपने द्वीपों के पश्चिम में स्वयंभूरमणसमुद्र में पश्चिम की ओर असंख्यात हजार योजन जाने पर आती हैं, आदि सब कथन पूर्ववत् जानना चाहिए। हे भगवन् ! स्वयंभूरमणसमुद्र के चन्द्रों के चन्द्रद्वीप कहां हैं ? गौतम ! स्वयंभूरमणसमुद्र * के पूर्वी वेदिकान्त से स्वयंभूरमणसमुद्र में पश्चिम की ओर बारह हजार योजन जाने पर ये द्वीप पाते हैं, आदि पूर्ववत् कहना चाहिए। इसी तरह स्वयंभूरमणसमुद्र के सूर्यों के विषय में समझना चाहिए। विशेषता यह है कि स्वयंभूरमणसमुद्र के पश्चिमी वेदिकान्त से स्वयंभूरमणसमुद्र में पूर्व की ओर बारह हजार योजन Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : देवद्वीपादि में विशेषता] [25 आगे जाने पर सूर्यों के सूर्यद्वीप आते हैं / इनकी राजधानियां अपने-अपने द्वीपों के पूर्व में स्वयंभूरमणसमुद्र में असंख्यात हजार योजन ागे जाने पर प्राती हैं यावत् वहां सूर्यदेव हैं।' 168. अस्थि णं भंते ! लवणसमुद्दे वेलंधराइ वा णागराया खन्नाइ वा अग्धाइ वा सीहाइ वा विजाई वा हासवुट्टीइ वा ? हंता अत्थि ! जहा णं भंते ! लवणसमुद्दे अस्थि वेलंधराइ वा णागराया अग्घा सोहा विजाई वा हासयुड्डीइ वा तहा णं बहिरेसु वि समुद्देसु अस्थि वेलंधराइ वा नागरायाइ वा अग्घाइ वा खन्नाइ वा सीहाइ वा विजाई वा हासवुड्डीइ वा ? णो तिणठे समठे। 168. हे भगवन् ! लवणसमुद्र में वेलंधर नागराज हैं क्या ? अग्घा, खन्ना, सीहा, विजाति मच्छकच्छप हैं क्या ? जल की वृद्धि और ह्रास है क्या ? गौतम ! हां हैं। हे भगवन् ! जैसे लवणसमुद्र में वेलंधर नागराज हैं, अग्घा, खन्ना, सीहा, विजाति ये मच्छकच्छप हैं ? वैसे अढ़ाई द्वीप से बाहर के समुद्रों में भी ये सब हैं क्या? हे गौतम ! बाह्य समुद्रों में ये नहीं हैं। 169. लवणे णं भंते ! कि समुद्दे ऊसिओदगे कि पत्थडोदगे किं खुभियजले कि अखुभियजले ? गोयमा ! लवणे णं समुद्दे ऊसिओदगे नो पत्थडोदगे, खुभियजले नो अक्खुभियजले। तहा णं बाहिरगा समुद्दा किं असिओदगा पत्थडोदगा खुभियजला अखभियजला? गोयमा ! बाहिरगा समुद्दा नो असिओदगा पत्थडोदगा, न खुभियजला अक्खुभियजला पुण्णा पुण्णप्पमाणा वोलट्टमाणा वोसट्टमाणा समभरघडताए चिट्ठति / अस्थि णं भंते ! लवणसमुद्दे बहवो ओराला क्लाहका संसेयंति संमुच्छंति वा वासं वासंति वा? हंता अस्थि / जहा णं भंते ! लवणसमुद्दे बहवे ओराला बलाहका संसेयंति संमुच्छति वासं वासंति वा तहा णं बाहिरएसु वि समुद्देसु बहवे अोराला बलाहका संसेयंति संमुच्छांति वासं वासंति ? णो तिणठे समठे / 1. प्राह च मूलटीकाकारो अपि-"एवं शेषद्वीपगतचन्द्रादित्यानामपि द्वीपा अनन्तरसमुद्रेष्वेवगन्तव्या, राजधान्यश्च तेषां पूर्वापरतो असंख्येयान् द्वीपसमुद्रान् गत्वा ततोऽस्मिन् सदृशनाम्नि द्वीये भवन्ति; अन्त्यानिमान् पंचद्वीपान् मुक्त्वा देव-नाग-यक्ष-भूतस्वयंभूरमणाख्यान् / न तेषु चन्द्रादित्यानां राजधान्यो अन्यस्मिन् द्वीपे, अपितु स्वस्मिन्नेव पूर्वापरतो वेदिकान्तादसंख्येयानि योजनसहस्राण्यवगाह्य भवन्तीति / " इह सूत्रेषु बहुधा पाठभेदा, परमेतावानेव सर्वत्राप्यर्थोऽनर्थभेदान्तरमित्येतद्व्याख्यानुसारेण सर्वेऽपि अनुगंतव्या न मोग्धव्यमिति / 2. प्राह य चूर्णिकृत्--"अग्पा खन्ना सीहा विजाई इति मच्छकच्छभा।" Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जीवाजीवाभिगमसूत्र से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ–बाहिरगा णं समुद्दा पुण्णा पुण्णप्पमाणा बोलट्टमाणा वोसट्टमाणा समभरघडियाए चिट्ठति ? गोयमा ! बाहिरएसु णं समुद्देसु बहवे उदगजोणिया जीवा य पोग्गला य उदगत्ताए वक्कमंति विउक्कमति चयंति उपचयंति, से तेणठेणं एवं बुच्चइ बाहिरगा समुद्दा पुण्णा पुण्णप्पमाणा जाव समभरघडताए चिट्ठति / 169. हे भगवन् ! लवणसमुद्र का जल उछलने वाला है या प्रस्तट की तरह स्थिर अर्थात् सर्वतः सम रहने वाला है ? उसका जल क्षुभित होने वाला है या अक्षुभित रहता है ? गौतम ! लवणसमुद्र का जल उछलने वाला है, स्थिर नहीं है, क्षुभित होने वाला है, अक्षुभित रहने वाला नहीं। हे भगवन् ! जैसे लवणसमुद्र का जल उछलने वाला है, स्थिर नहीं है, क्षुभित होने वाला है, अक्षुभित रहने वाला नहीं, वैसे क्या बाहर के समुद्र भी क्या उछलते जल वाले हैं या स्थिर जल वाले, क्षुभित जल वाले हैं या अक्षुभित जल वाले ? गौतम ! बाहर के समुद्र उछलते जल वाले नहीं हैं, स्थिर जल वाले हैं, क्षुभित जल वाले नहीं, अक्षुभित जल वाले हैं। वे पूर्ण हैं, पूरे-पूरे भरे हुए हैं, पूर्ण भरे होने से मानो बाहर छलकना चाहते हैं, विशेष रूप से बाहर छलकना चाहते हैं, लबालब भरे हुए घट की तरह जल से परिपूर्ण हैं / हे भगवन् ! क्या लवणसमुद्र में बहुत से बड़े मेघ सम्मूछिम जन्म के अभिमुख होते हैं, पैदा होते हैं अथवा वर्षा बरसाते हैं ? हां, गौतम ! वहां मेघ होते हैं और वर्षा बरसाते हैं / हे भगवन् ! जैसे लवणसमुद्र में बहुत से बड़े मेघ पैदा होते हैं और वर्षा बरसाते हैं, वैसे बाहर के समुद्रों में भी क्या बहुत से मेघ पैदा होते हैं और वर्षा बरसाते हैं ? हे गौतम ! ऐसा नहीं है। हे भगवन् ! ऐसा क्यों कहा जाता है कि बाहर के समुद्र पूर्ण है, पूरे-पूरे भरे हुए हैं, मानो बाहर छलकना चाहते हैं, विशेष छलकना चाहते हैं और लबालब भरे हुए घट के समान जल से परिपूर्ण हैं ? हे गौतम ! बाहर के समुद्रों में बहुत से उदकयोनि के जीव आते-जाते हैं और बहुत से पुद्गल उदक के रूप में एकत्रित होते हैं, विशेष रूप से एकत्रित होते हैं, इसलिए ऐसा कहा जाता है कि बाहर के समुद्र पूर्ण हैं, पूरे-पूरे भरे हुए हैं यावत् लबालब भरे हुए घट के समान जल से परिपूर्ण हैं। 170. लवणे णं भंते ! समुद्दे केवइयं उध्वेह-परिवुड्डीए पण्णत्ते ? गोयमा ! लवणस्स गं समुदस्स उभओ पासि पंचाणउइं-पंचाणउई बालग्गाइं पदेसे गंता पदेसउव्वेहपरिवुड्डीए पण्णत्ते। पंचाणउई-पंचाणउई बालगं गंता वालग्गं उठवेहपरिवुड्डीए पण्णत्ते। पंचागउइं-पंचाणउई लिक्खाओ गंता लिक्खाउवेहपरिवुट्टीए पण्णत्ते / पंचाणउई जवाओ जवमझे अंगुल Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: देवद्वीपादि में विशेषता [27 य-जोयण-जोयणसय-जोयणसहस्साईगंता जोयणसहस्सं उव्वेहपरिवुड्डीए। लवणे णं भंते ! समुद्दे केवइयं उस्सेह-परिवुड्डीए पण्णत्ते ? गोयमा ! लवणस्स णं समुदस्स उभओ पासि पंचाणउइं पदेसे गंता सोलसपएसे उस्सेहपरिवड्डीए पण्णत्ते। गोयमा ! लव गस्त णं समुदस्स एएणेव कमेगं जाव पंचाणउई-पंचाणउई जोयणसहस्साई गंता सोलसजोयण उत्सेह-परिवुड्डीए पण्णत्ते। 170. हे भगवन् ! लवणसमुद्र की गहराई की वृद्धि किस क्रम से है अर्थात् कितनी दूर जाने पर कितनी गहराई की वृद्धि होती है ? गौतम ! लवणसमुद्र के दोनों तरफ (जम्बूद्वीपवेदिकान्त से और लवणसमुद्रवेदिकान्त से) पंचानव-पंचानवे प्रदेश (यहां प्रदेश से प्रयोजन त्रसरेणु है) जाने पर एक प्रदेश की उद्वेध-वृद्धि (गहराई में वृद्धि) होती है, 95-95 बालाग्र जाने पर एक बालाग्र उद्वेध-वृद्धि होती है, 95-95 लिक्खा जाने पर एक लिक्खा की उद्वेध-वृद्धि होती है, 95-95 यवमध्य जाने पर एक यवमध्य की उद्वेध-वृद्धि होती है, इसी तरह 95-95 अंगुल, वितस्ति (बेत), रत्नि (हाथ), कुक्षि, धनुष, कोस, योजन, सौ योजन, हजार योजन जाने पर एक-एक अंगुल यावत् एक हजार योजन की उद्वेध-वृद्धि होती है। हे भगवन् ! लवणसमुद्र की उत्सेध-वृद्धि (ऊंचाई में वृद्धि) किस क्रम से होती है अर्थात् कितनी दूर जाने पर कितनी ऊंचाई में वृद्धि होती है ? हे गौतम ! लवणसमुद्र के दोनों तरफ 95-95 प्रदेश जाने पर सोलह प्रदेशप्रमाण उत्सेधवृद्धि होती है। हे गौतम ! इस क्रम से यावत् 95-95 हजार योजन जाने पर सोलह हजार योजन की उत्सेध-वृद्धि होती है। विवेचन-लवणसमुद्र के जम्बूद्वीप वेदिकान्त के किनारे से और लवणसमुद्र वेदिकान्त के किनारे से दोनों तरफ 95-95 प्रदेश (त्रसरेणु) जाने पर एक प्रदेश की गहराई में वृद्धि होती है / 95-95 बालाग्न जाने पर एक-एक बालाग्र की गहराई में वृद्धि होती है। इसी प्रकार लिक्षा-यवमध्यअंगुल-वितस्ति-रस्नि-कुक्षि-धनुष गव्यूत (कोस), योजन, सौ योजन, हजार योजन आदि का भी कथन करना चाहिए / अर्थात् 95-95 लिक्षाप्रमाण आगे जाने पर एक लिक्षाप्रमाण गहराई में वृद्धि होती है यावत् 95 हजार योजन जाने पर एक हजार योजन की गहराई में वृद्धि होती है। 95 हजार योजन जाने पर जब एक हजार योजन की उत्सेधवृद्धि है तो त्रैराशिक सिद्धान्त से 95 योजन पर कितनी वृद्धि होगी, यह जानने के लिए 95000/1000/95 इन तीन राशियों की स्थापना करनी चाहिए। आदि और मध्य की राशि के तीन-तीन शून्य ('शून्यं शून्येन पातयेत्' के अनुसार) हटा देने चाहिए तो 95/1/95 यह राशि रहती है। मध्यराशि एक का अन्त्यराशि 95 से गुणा करने पर 95 गुणनफल आता है, इसमें प्रथम राशि 95 का भाग देने पर एक भागफल पाता है। अर्थात् एक योजन की वृद्धि होती है, यही बात इन गाथाओं में कही है Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28] [जीवाजीवाभिगमसूत्र पंचाणउए सहस्से गंतूणं जोयणाणि उभश्रो वि। जोयणसहस्समेगं लवणे प्रोगाहओ होइ // 1 // पंचाणउईण लवणे गंतूण जोयणाणि उभओ वि / जोयणमेगं लवणे प्रोगाहेणं मुणेयन्वा // 2 // तात्पर्य यह हुआ कि 95 योजन जाने पर यदि एक योजन गहराई में वृद्धि होती है तो 95 गव्यत पर्यन्त जाने पर एक गव्यत को वद्धि,९५ धनुष पर्यन्त जाने पर एक धनुष की वद्धि होती है, यह सहज ही ज्ञात हो जाता है / यह बात गहराई को लेकर कही गई है। इसके प्रागे लवणसमुद्र की ऊंचाई की वृद्धि को लेकर प्रश्न किया गया है और उत्तर दिया गया है। प्रश्न किया गया है कि लवणसमुद्र के दोनों किनारों से प्रारम्भ करने पर कितनी-कितनी दूर जाने पर कितनी-कितनी जलवृद्धि होती है ? उत्तर में कहा गया है कि-लवणसमुद्र के पूर्वोक्त दोनों किनारों पर समतल भूभाग में जलवृद्धि अंगुल का असंख्यातवें भाग प्रमाण होती है और आगे समतल से प्रदेशवृद्धि से जलवृद्धि क्रमशः बढ़ती हुई 95 हजार योजन जाने पर सात सौ योजन की वृद्धि होती है। उससे आगे दस हजार योजन के विस्तारक्षेत्र में सोलह हजार योजन की वृद्धि होती है। तात्पर्य यह है कि लवणसमुद्र के दोनों किनारों से 95 प्रदेश (सरेणु) जाने पर 16 प्रदेश की उत्सेधवृद्धि कही गई है / 95 बालाग्र जाने पर 16 बालाग्र की उत्सेधवृद्धि होती है। इसी तरह यावत् 95 हजार योजन जाने पर 16 हजार योजन की उत्सेधवृद्धि होती है। यहां त्रैराशिक भावना यह है कि 95 हजार योजन जाने पर सोलह (16) हजार योजन की उत्सेधवृद्धि होती है तो 95 योजन जाने पर कितनी उत्सेधवृद्धि होगी ? राशित्रय की स्थापना९५०००/१६०००/९५ दोनों-प्रथम और मध्यराशि के तीन तीन शून्य हटाने पर 95/16/95 की राशि रहती है। मध्यमराशि 16 को ठतीय राशि 95 से गुणा करने पर 1520 आते हैं। इसमें प्रथम राशि 95 का भाग देने पर 16 भागफल होता है / अर्थात् 95 योजन जाने पर 16 योजन की जलवृद्धि होती है / कहा है पंचाणउइसहस्से गंदणं जोयणाणि उभनो वि / उस्सेहेणं लवणो सोलस साहिस्सओ भणिओ // 1 // पंचणउई लवणे गंतूणं जोयणाणि उभओ वि। उस्सेहेणं लवणो सोलस किल जोयणे होइ // 2 // यदि 95 योजन जाने पर 16 योजन का उत्सेध है तो 95 गव्यूत जाने पर 16 गव्यूत का, 95 धनुष जाने पर 16 धनुष का उत्सेध भी सहज ज्ञात हो जाता है। गोतीर्थ-प्रतिपादन 171. लवणस्स णं भंते ! समुदस्स केमहालए गोतित्थे पण्णत्ते ? गोयमा ! लवणस्स णं समुदस्स उभओ पासिं पंचाणउइं पंचाणउई जोयणसहस्साइं गोतित्थं पण्णत्ते। Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : गोतीर्थ-प्रतिपादन] [29 लवणस्स णं भंते ! समुदस्स केमहालए गोतित्थविरहिए खेते पण्णते ? गोयमा ! लवणस्स णं समुदस्स दसजोयणसहस्साई गोतित्यविरहिए खेत्ते पण्णत्ते। लवणस्स गं भंते ! समुदस्स केमहालए उदगमाले पण्णते? गोयमा! बस जोयणसहस्साई उदगमाले पण्णत्ते। 171. हे भगवन् ! लवणसमुद्र का' गोतीर्थ भाग कितना बड़ा है ? (क्रमशः नीचा-नीचा गहराई वाला भाग गोतीर्थ कहलाता है।) हे गौतम ! लवणसमुद्र के दोनों किनारों पर 95 हजार योजन का गोतीर्थ है। (क्रमश: नीचा-नीचा गहरा होता हुआ भाग है।) हे भगवन् ! लवणसमुद्र का कितना बड़ा भाग गोतीर्थ से विरहित कहा गया है ? हे गौतम ! लवणसमुद्र का दस हजार योजन प्रमाणक्षेत्र गोतीर्थ से विरहित है / (अर्थात् इतना दस हजार योजन प्रमाण क्षेत्र समतल है।) हे गौतम! लवणसमुद्र को उदकमाला (समपानी पर सोलह हजार योजन ऊँचाई वाली जलमाला) कितनी बड़ी है ? ___ गौतम ! उदकमाला दस हजार योजन की है। (जितना गहराई रहित भाग है, उस पर रही हुई जलराशि को उदकमाला कहते हैं / ) 172. लवणे णं भंते ! समुद्दे किसंठिए पण्णते ? गोयमा! गोतित्थसंठिए, नावासंठाणसंठिए, सिप्पिसंपुडसंठिए, आसखंधसंठिए, वलभिसंठिए घट्टे बलयागारसंठाणसंठिए पण्णत्ते। लवणे णं भंते ! समुद्दे केवइयं चक्कवालविक्खंभेणं ? केवइयं परिक्खेवेणं ? केवइयं उन्हेणं ? केवइयं उस्सेहणं ? केवइयं सव्वग्गेणं पण्णत्ते ? गोयमा! लवणे णं समुद्दे दो जोयणसयसहस्साई चक्कवालविषखंभेणं, पण्णरस जोयणसयसहस्साई एकासीइं च सहस्साई सयं च इगुकालं किंचिविसेसूणे परिक्खेवेणं, एमं जोयणसहस्सं उब्वेहेणं, सोलसजोयणसहस्साई उस्सेहेणं सत्तरसजोयणसहस्साई सम्वग्गेणं पण्णत्ते / 172. हे भगवन् ! लवणसमुद्र का संस्थान कैसा है ? गौतम ! लवणसमुद्र गोतीर्थ के प्राकार का, नाव के आकार का, सीप के पुट के आकार का, घोड़े के स्कंध के आकार का, वलभीगृह के आकार का, वर्तुल और वलयाकार संस्थान वाला है / 1. गोतीर्थमेव गोतीर्थम-क्रमेण नीचो नीचतरः प्रवेशमार्गः / 2. "पंचाणउई सहस्से गोतित्थे उभयनो वि लवणस्स।" 3. उदकमाला-समपानीयोपरिभूता षोडशयोजनसहस्रोच्छ्या प्रज्ञप्ता। Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30] [जीबाजीवाभिगमसूत्र हे भगवन् ! लवणसमुद्र का चक्रवाल-विष्कंभ कितना है, उसकी परिधि कितनी है ? उसकी गहराई कितनी है, उसको ऊँचाई कितनी है ? उसका समग्र प्रमाण कितना है ? ___ गौतम ! लवणसमुद्र चक्रवाल-विष्कंभ से दो लाख योजन का है, उसकी परिधि पन्द्रह लाख इक्यासी हजार एक सौ उनचालीस (1581139) योजन से कुछ कम है, उसकी गहराई एक हजार योजन है, उसका उत्सेध (ऊँचाई) सोलह हजार योजन का है / उद्वेध और उत्सेध दोनों मिलाकर समग्र रूप से उसका प्रमाण सत्तरह हजार योजन है। विवेचन---लवणसमुद्र का प्राकार विविध अपेक्षामों को ध्यान में रखकर विभिन्न प्रकार का बताया गया है / क्रमशः निम्न, निम्नतर गहराई बढ़ने के कारण गोतीर्थ के आकार का कहा गया है। दोनों तरफ समतल भूभाग की अपेक्षा क्रम से जलवृद्धि होने के कारण नाव के आकार का कहा है। उद्वेध का जल और जलवृद्धि का जल एकत्र मिलने की अपेक्षा से सोप के पुट के आकार का कहा है। दोनों तरफ 95 हजार योजन पर्यन्त उन्नत होने से सोलह हजार योजन प्रमाण ऊँची शिखा होने से अश्वस्कन्ध की आकृति वाला कहा गया है। दश हजार योजन प्रमाण विस्तार वाली शिखा वलभीगहाकार प्रतीत होने से वलभी (भवन की अदालिका-चांदनी) के आकार का कहा गया है। लवणसमुद्र गोल है तथा चूड़ी के आकार का है। लवणसमुद्र का चक्रवाल-विष्कंभ, परिधि, उद्वेध, उत्सेध और समग्र प्रमाण मूलार्थ से ही स्पष्ट है।' 1. यहां पूर्वाचार्यों ने लवणसमुद्र के घन और प्रतर का गणित भी निकाला है जो जिज्ञासुत्रों के लिए यहां दिया जा रहा है। प्रतरभावना इस प्रकार है- लवणसमुद्र के दो लाख योजन विस्तार में से दस हजार योजन निकाल कर शेष राशि का आधा किया जाता है—ऐसा करने से 95000 की राशि होती है। इस राशि में पहले के निकाले हुए दस हजार की राशि मिला दी जाती है तो 105000 होते हैं। इस राशि को कोटी कहा जाता है। इस कोटी से लवणसमुद्र का मध्यभागवर्ती परिरय (परिधि) 948683 का गुणा किया जाता है तो प्रतर का परिमाण निकल पाता है। वह परिमाण है---९९६११७१५००० / कहा है वित्थारामो सोहिय दस सहस्साई सेस अद्धम्मि / तं चेव पक्खिवित्ता लवणसमूहस्स सा कोडी॥१॥ लक्खं पंचसहस्सा कोडीए तीए संगुणेऊणं / लवणस्स मज्झपरिहि ताहे पयर इमं होइ // 2 // नवनउई कोडिसया एगट्ठी कोडिलक्खसत्तरसा / पन्नरस सहस्साणि य पयरं लवणस्स णिद्दिट्ठ॥३॥ घनगणित इस प्रकार है-लवणसमुद्र की 16000 योजन की शिखा और एक हजार योजन उदवेध कुल सत्तरह हजार योजन की संख्या से प्राक्तन प्रतर के परिमाण को गुणित करने से लवणसमुद्र का घन निकल आता है / वह है-१६९३३९९१५५०००००० योजन / कहा है-- जोयणसहस्स सोलह लवणसिहा अहोगया सहस्सेमं / पथरं सत्तरसहस्सगुणं लवणघणगणियं // 1 // सोलस कोडाकोडी ते णउइ कोडिसयसहस्सायो। उणयालीसहस्सा नवकोडिसया य पन्नरसा // 2 // - (मागे के पृष्ठ में) Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: गोतीर्य-प्रतिपादन] 173. जइ णं भंते ! लवणसमुद्दे दो जोयणसयसहस्साई चक्कवालविक्खंभेणं पण्णरस जोयणसयसहस्साइं एकासीइं च सहस्साई सयं इगुयालं किंचिविसेसूणा परिक्खेवेणं एगं जोयणसहस्सं उम्वेहेणं सोलस जोयणसहस्साई उस्सेहेणं सत्तरस जोयणसहस्साई सम्वग्गेणं पण्णत्ते, कम्हा णं भंते ! लवणसमुद्दे जंबुद्दोवं दोवं नो उवीलेति नो उप्पीलीलेइ नो चेव णं एक्कोदगं करेइ ? गोयमा ! जंबुद्दीवे णं दीवे भरहेरवएसु वासेसु अरहंत चक्कट्टि बलदेवा वासुदेवा चारणा विज्जाधरा समणा समणीओ सावया साधियाओ मणुया पगइभद्दया पगइविणीया पगइउवसंता पगइपयण-कोह-माण-माया-लोभा मिउमदवसंपन्ना अल्लोणा भद्दगा विणीया, तेसिणं पणिहाए लवणसमुद्दे जंबुद्दीवं दीवं नो उवोलेइ नो उप्पीलेइ नो चेव णं एगोदगं करेइ। गंगासिंधुरत्तारत्तवईसु सलिलासु देवयानो महिड्ढीयाओ जाव पलिओषट्टिईया परिवसंति, तेसि णं पणिहाय लवणसमुद्दे जाव नो चेव णं एगोदगं करेइ / चुल्लहिमवंतसिहरेसु वासहरपव्वएसु देवा महिड्ढिया तेसि णं पणिहाय हेमवतेरण्णवएसु वासेसु मणुया पगइभद्दगा०, रोहितंस-सुवण्णकूल-रूप्पकूलासु सलिलासु देवयाओ महिट्टियाओ तासि पणिहाए. सद्दावइवियडावइवट्टवेयड्डपब्वएसु देवा महिडिया जाव पलिप्रोवमट्टिईया परिवसंति, महाहिमवंतरुप्पिसु वासहरपब्वएसु देवा महिड्डिया जाव पलिओवमट्टिइया, हरियासरम्भयवासेसु मण्या पगईभद्दगा, गंधावइमालवंतपरियाएसु बट्टवेयड्डपम्वएसु देवा महिड्डिया० निसहनीलवंतेसु वासधरपब्वएसु देवा महिड्डिया० सम्वाओ दहदेवयानो भाणियव्वाओ, पउमदहतिगिच्छकेसरिदहावसाणेसु देवा महिड्डियाओ तासि पणिहाए० पुट्यविदेहावर विदेहेसु वासेसु अरहंतचक्कट्टिबलदेववासुदेवा चारणा विज्जाहरा समणा समणीओ सावगा सावियाओ मणुया पगइभद्दया तेसि पणिहाए लवण 0, सीयासीतोदगासु सलिलासु देवया महिड्डिया० देवकुरुउत्तरकुरुसु मणुया पगइभद्दगा० मंदरे पन्चए देवया महिड्डिया. पन्नाससयसहस्सा जोयणाणं भवे अणूणाई। लवणसमुद्दास्सेयं जोयणसंखाए घणगणियं // 3 // यहां यह शंका होती है कि लवणसमुद्र सब जगह सत्रह हजार योजन प्रमाण नहीं है, मध्यभाग में तो उसका विस्तार दस हजार योजन है। फिर यह धनगणित कैसे संगत होता है। यह शंका सत्य है, किन्तु जब लवणशिखा के ऊपर दोनों बेदिकान्तों के ऊपर सीधी डोरी डाली जाती है तो जो अपान्तराल में जलशून्य क्षेत्र बनता है वह भी करणगति अनुसार सजल मान लिया जाता है, इस विषय में मेरुपर्वत का उदाहरण है। वह सर्वत्र एकादशभाग परिहानिरूप कहा जाता है परन्तु सर्वत्र इतनी हानि नहीं है। कहीं कितनी है, कहीं कितनी है। केवल मूल से लेकर शिखर तक डोरी डालने पर अपान्तराल में जो प्राकाश है वह सब मेरु का गिना जाता है / ऐसा मानकर गणितज्ञों ने सर्वत्र एकादश-परिभागहानि का कथन किया है। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने भी विशेषणवती ग्रन्थ में यही बात कही है-"एवं उभयवेइयंताप्रो सोलस'-सहस्सुस्सेहस्सकन्नगईए जं लवणसमुद्दाभव जलसुन्नपि खेतं तस्स गणियं / जहा मंदरपव्ययस्स एक्कारसभागपरिहाणी कन्नगईए आगासस्स वि तदाभवंतिकाउं भणिया तहा लवणसमुहस्स वि।" इसका अर्थ पूर्व विवरण से स्पष्ट ही है। -वृत्तिकार Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32] [जीवाजीवाभिगमसूत्र जंबूए णं सुदंसणाए जंबूदीवाहिवई प्रणाढिए नामं देवे महिलिए जाव पलिओवमठिईए परिवसति, तस्स पणिहाए लवणसमुद्दे नो उवोलेइ नो उप्पीललेइ नो चेव णं एकोदगं करेइ, अवुत्तरं च णं गोयमा ! लोगट्टिई लोगाणुभावे जण्णं लवणसमुद्दे जंबुद्दीवं दीवं नो उवीलेइ नो उप्पीलेइ नो चेव णं एगोदगं करेइ। 173. हे भगवन् ! यदि लवणसमुद्र चक्रवाल-विष्कंभ से दो लाख योजन का है, पन्द्रह लाख इक्यासी हजार एक सौ उनचालीस योजन से कुछ कम उसकी परिधि है, एक हजार योजन उसकी गहराई है और सोलह हजार योजन उसकी ऊँचाई है कुल मिलाकर सत्तरह हजार योजन उसका प्रमाण है। तो भगवन् ! वह लवणसमुद्र जम्बूद्वीप नामक द्वीप को जल से प्राप्लावित क्यों नहीं करता, क्यों प्रबलता के साथ उत्पीडित नहीं करता? और क्यों उसे जलमग्न नहीं कर देता? गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में भरत-ऐरवत क्षेत्रों में अरिहंत, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, जंघाचारण आदि विद्याधर मुनि, श्रमण, श्रमणियां, श्रावक और श्राविकाएं हैं, (यह कथन तीसरेचौथे-पांचवें आरे की अपेक्षा से है।) (प्रथम आरे की अपेक्षा) वहां के मनुष्य प्रकृति से भद्र, प्रकृति से विनीत, उपशान्त, प्रकृति से मन्द क्रोध-मान-माया-लोभ वाले, मृदु-मार्दवसम्पन्न, पालीन, भद्र और विनोत हैं, उनके प्रभाव से लवणसमुद्र जंबूद्वीप को जल-प्राप्लावित, उत्पीडित और जलमग्न नहीं करता है। (छठे पारे की अपेक्षा से) गंगा-सिन्धु-रक्ता और रक्तवती नदियों में महद्धिक यावत् पल्योपम की स्थितवाली देवियां रहती हैं। उनके प्रभाव से लवणसमुद्र जंबूद्वीप को जलमग्न नहीं है क्षुल्लक हिमवंत और शिखरी वर्षधर पर्वतों में महद्धिक देव रहते हैं, उनके प्रभाव से, हेमवत-ऐरण्यवत वर्षों (क्षेत्रों) में मनुष्य प्रकृति से भद्र यावत् विनीत हैं, उनके प्रभाव से, रोहितांश, सुवर्णकूला और रूप्यकूला नदियों में जो महद्धिक देवियां हैं, उनके प्रभाव से, शब्दापाति विकटापाति वृत्तवैताढय पर्वतों में महद्धिक पल्योपम की स्थितिवाले देव रहते हैं, उनके प्रभाव से, महाहिमवंत और रुक्मि वर्षधरपर्वतों में महद्धिक यावत् पल्योपम स्थितिवाले देव रहते हैं, उनके प्रभाव से, हरिवर्ष और रम्यकवर्ष क्षेत्रों में मनुष्य प्रकृति से भद्र यावत् विनीत हैं, गंधापति और मालवंत नाम के वृत्तवैताढ्य पर्वतों में महद्धिक देव हैं, निषध और नीलवंत वर्षधरपर्वतों में महद्धिक देव है, इसी तरह सब द्रहों की देवियों का कथन करना चाहिए, पद्मद्रह तिगिछद्रह केसरिद्रह आदि द्रहों से महद्धिक देव रहते हैं, उनके प्रभाव से, पूर्वविदेहों और पश्चिमविदेहों में अरिहंत, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, जंघाचारण विद्याधर मुनि, श्रमण, श्रमणियां, श्रावक, श्राविकाएं एवं मनुष्य प्रकृति से भद्र यावत् विनीत हैं, उनके प्रभाव से, मेरुपर्वत के महद्धिक देवों के प्रभाव से, (उत्तरकुरु में) जम्बू सुदर्शना में अनाहत नामक जंबूद्वीप का अधिपति महद्धिक यावत् पल्योपम स्थिति वाला देव रहता है, उसके प्रभाव से लवणसमुद्र जंबूद्वीप को जल से प्राप्लावित, उत्पीडित और जलमग्न नहीं करता है। गौतम ! दूसरी बात यह है कि लोकस्थिति और लोकस्वभाव (लोकमर्यादा या जगत्-स्वभाव) ही ऐसा है कि लवणसमुद्र जंबूद्वीप को जल से आप्लावित, उत्पीडित और जलमग्न नहीं करता है। ॥तुतीय प्रतिपत्ति में मन्दरोद्देशक समाप्त / Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घातकीखण्ड की वक्तव्यता] धातकीखण्ड की वक्तव्यता 174. लवणसमुदं धायइसंडे णामं दोवे बट्टे वलयागारसंठाणसंठिए सन्यानो समंता संपरिक्खिवित्ताणं चिट्ठइ। धायइसंडे णं भंते ! दीवे कि समचक्कवालसंठिए विसमचक्कवालसंठिए ? गोयमा ! समचक्कवालसंठिए नो विसमचक्कघालसंठिए। धायइसंडे णं भंते ! दीवे केवइयं चक्कवालविक्खंभेणं केवइयं परिक्खेवेणं पण्णत्ते ? गोयमा ! चत्तारि जोयणसयसहस्साई चक्कवालविक्खंभेणं, एकयालीसं जोयणसयसहस्साई दसजोयणसहस्साई णवएगढ़े जोयणसए किंचिविसेसूणे परिक्खेवणं पण्णत्ते। से गं एगाए पउमवरवेइयाए एगेणं वणसंडेणं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते, दोण्ह वि वण्णओ दीयसमिया परिक्खेवणं / धायइसंडस्स णं भंते ! दीवस्स कति दारा पण्णता? गोयमा ! चत्तारि वारा पण्णत्ता-विजए, वैजयंते, जयंते, अपराजिए। कहिणं भंते ! धायइसंडस्स दीवस्स विजए णामं दारे पण्णते? गोयमा ! धायइसंडपुरथिमपेरंते कालोयसमुद्दपुरथिमद्धस्स पच्चस्थिमेणं सोयाए महाणदीए उप्पिं एस्थ णं धायइसंडस्स दीवस्स विजए णामं दारे पण्णते, तं चेव पमाणं / रायहाणीओ अण्णमि धायइसंडे दीवे / दोवस्स वत्तव्वया भाणियव्वा / एवं चत्तारिवि दारा भाणियधा। धायइसंडस्सं णं भंते ! दीवस्स दारस्स य दारस्स य एस णं केवइयं अबाहाए अंतरे पण्णते? गोयमा ! दस जोयणसयसहस्साई सत्तावीसं च जोयणसहस्साई सत्तपणतीसे जोयणसए तिनि य कोसे वारस्स य वारस्स य अबाहाए अंतरे पण्णते। धायइसंडस्स णं भंते ! दोवस्स पएसा कालोयगं समुदं पुट्ठा ? हता, पुट्ठा / ते णं भंते ! किं धायइसंडे दीवे कालोए समुद्दे ? ते धायइसंडे, नो खलु ते कालोयसमुद्दे / एवं कालोयस्सवि। धायइसंडदीवे जीवा उद्दाइत्ता उद्दाइत्ता कालोए समुद्दे पच्चायति ? गोथमा ! अत्थेगइया पच्चायति अत्यंगइया नो पच्चायति / एवं कालोएवि अत्थेगइया पच्चायति अत्यगइया नो पच्चायति / से केणद्वेण भंते ! एवं बच्चइ-धायइसंडे वीवे धायइसंडे दोघे ? गोयमा ! धायइसंडे णं दोवे तत्थ तत्थ पएसे धायहरुक्खा धायइवणा धायइवणसंडा णिच्चं Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34] [जीवाजीवाभिगमसूत्र कुसुमिया जाव उवसोभेमाणा उवसोभेमाणा चिट्ठति / धायइमहाधायइरुक्खेसु सुदंसणपियवंसणा दुवे देवा महिड्डिया जाव पलिओवमट्टिईया परिवसंति, से एएणडेणं एवं वुच्चइ-धायइसंडे दीवे धायइसंडे दीवे / अवुत्तरं च णं गोयमा ! जाय णिच्चे। धायइसंडे णं दीवे कति चंदा पभासिसु वा पभासिति वा पभासिस्संति वा? कइ सूरिया तविसु वा 3 / कइ महग्गहा चारं चरिसु वा 3 ? कइ णक्खत्ता जोगं जोइंसु वा 3 ? कह तारागणकोडाकोडीओ सोभिंसु वा 3? गोयमा ! बारस चंदा पभासिसु वा 3 एवं चउवीसं ससिरविणो णक्खत्तासता य तिनि छत्तीसा। एगं च गहसहस्सं छप्पन्नं धायइसंडे // 1 // अद्वैव सयसहस्सा तिण्णि सहस्साई सत्त य सयाई / धायइसंडे दीवे तारागण कोडिकोडीणं // 2 // सोभिसु वा सोभंति वा सोभिस्संति वा। 174. धातकीखण्ड नाम का द्वीप, जो गोल वलयाकार संस्थान से संस्थित है, लवणसमुद्र को सब ओर से घेरे हुए संस्थित है। भगवन् ! धातकीखण्डद्वीप समचक्रवाल संस्थान से संस्थित है या विषमचक्रवाल संस्थानसंस्थित है ? गौतम ! धातकीखण्ड समचक्रवाल संस्थान-संस्थित है, विषमचक्रवालसंस्थित नहीं है। भगवन् ! धातकीखण्डद्वीप चक्रवाल-विष्कंभ से कितना चौड़ा है और उसकी परिधि कितनी है ? गौतम ! वह चार लाख योजन चक्रवालविष्कंभ वाला और इकतालीस लाख दस हजार नौ सौ इकसठ योजन से कुछ कम परिधि वाला है।' वह धातकीखण्ड एक पद्मवरवेदिका और वनखण्ड से सब ओर से घिरा हुआ है। दोनों का वर्णनक कहना चाहिए / धातकीखण्डद्वीप के समान ही उनकी परिधि है। भगवन् ! धातकीखण्ड के कितने द्वार हैं ? गौतम ! धातकीखण्ड के चार द्वार हैं, यथा--विजय, वैजयंत, जयन्त और अपराजित / 1. एयालीसं लक्खा दस य सहस्साणि जोयणाणं तु / नब य सया एगट्ठा किंचूणो परिरमो तस्स / / 1 // Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति धातकीखण्ड की वक्तव्यता] [35 हे भगवन् ! धातकीखण्डद्वीप का विजयद्वार कहां पर स्थित है ? गौतम ! धातकीखण्ड के पूर्वी दिशा के अन्त में और कालोदसमुद्र के पूर्वार्ध के पश्चिमदिशा में शीता महानदी के ऊपर धातकीखण्ड का विजयद्वार है / जम्बूद्वीप के विजयद्वार की तरह ही इसका प्रमाण आदि जानना चाहिए / इसकी राजधानी अन्य धातकीखण्डद्वीप में है, इत्यादि वर्णन जंबूद्वीप की विजया राजधानी के समान जानना चाहिए। इसी प्रकार विजयद्वार सहित चारों द्वारों का वर्णन समझना चाहिए। हे भगवन् ! धातकीखण्ड के एक द्वार से दूसरे द्वार का अपान्तराल अन्तर कितना है ? गौतम ! दस लाख सत्तावीस हजार सात सौ पैंतीस (1027735) योजन भोर तीन कोस का अपान्तराल अन्तर है।' (एक-एक द्वार की द्वारशाखा सहित मोटाई साढ़े चार योजन है। चार द्वारों की मोटाई 18 योजन हुई। धातकीखण्ड की परिधि 4110961 योजन में से 18 योजन कम करने से 4110943 योजन होते हैं। इनमें चार का भाग देने से एक-एक द्वार का उक्त अन्तर निकल प्राता है।) भगवन् ! धातकीखण्डद्वीप के प्रदेश कालोदधिसमुद्र से छुए हुए हैं क्या ? हां गौतम ! छुए भगवन् ! वे प्रदेश धातकीखण्ड के हैं या कालोदसमुद्र के ? गौतम ! वे प्रदेश धातकीखण्ड के हैं, कालोदसमुद्र के नहीं। इसी तरह कालोदसमुद्र के प्रदेशों के विषय में भी कहना चाहिए। भगवन् ! धातकीखण्ड से निकलकर (मरकर) जीव कालोदसमुद्र में पैदा होते हैं क्या? गौतम ! कोई जीव पैदा होते हैं, कोई जीव नहीं पैदा होते हैं। इसी तरह कालोदसमुद्र से निकलकर धातकीखण्डद्वीप में कोई जीव पैदा होते हैं और कोई नहीं पैदा होते हैं। भगवन् ! ऐसा क्यों कहा जाता है कि धातकीखण्ड, धातकीखण्ड है ? गौतम ! धातकीखण्डद्वीप में स्थान-स्थान पर यहां वहां धातकी के वृक्ष, धातकी के वन और धातकी के वनखण्ड नित्य कुसुमित रहते हैं यावत् शोभित होते हुए स्थित हैं, धातकी महाधातकी वृक्षों पर सुदर्शन और प्रियदर्शन नाम के दो महद्धिक पल्योपम स्थितिवाले देव रहते हैं, इस कारण धातकीखण्ड, धातकीखण्ड कहलाता है। गौतम! दूसरी बात यह है कि धातकीखण्ड नाम नित्य है / (द्रव्यापेक्षया नित्य और पर्यायापेक्षया अनित्य है) अतएव शाश्वत काल से उसका यह नाम अनिमित्तक है। भगवन् ! धातकीखण्डद्वीप में कितने चन्द्र प्रभासित हुए, होते हैं और होंगे? कितने सूर्य तपित होते थे, होते हैं और होंगे? कितने महाग्रह चलते थे, चलते हैं और चलेंगे ? कितने नक्षत्र चन्द्रादि से योग करते थे, योग करते हैं और योग करेंगे? और कितने कोडाकोडी तारागण शोभित होते थे, शोभित होते हैं और शोभित होंगे? 1. पणतीसा सत्त सया सत्तावीसा सहस्स दस लक्खा / धाइयखंडे दारंतरं तु अवरं कोसतियं // 1 // Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जीवाजीवाभिगमसूत्र गौतम ! धातकीखण्डद्वीप में बारह चन्द्र उद्योत करते थे, करते हैं और करेंगे / इसी प्रकार बारह सूर्य तपते थे, तपते हैं और तपेंगे।' तीन सौ छत्तीस नक्षण चन्द्र सूर्य से योग करते थे, करते हैं एक-एक चन्द्र के परिवार में 28 नक्षत्र हैं। बारह चन्द्रों के 336 नक्षत्र हैं।) एक हजार छप्पन महाग्रह चलते थे, चलते हैं और चलेंगे। (प्रत्येक चन्द्र के परिवार में 88 महाग्रह हैं / बारह चन्द्रों के 12488=1056 महाग्रह हैं।) पाठ लाख तीन हजार सात सौ कोडाकोडी तारागण शोभित होते थे, शोभित होते हैं और शोभित होगे। कालोदसमुद्र को वक्तव्यता 175. धायइसंडं णं दीवं कालोदे णाम समुद्दे वट्टे वलयागारसंठाणसंठिए सव्वओ समंता संपरिक्खित्ता णं चिट्ठइ। कालोदे णं समुद्दे कि समचक्कवालसंठाणसंठिए विसमचषकवालसंठाणसंठिए ? गोयमा ! समचक्कवालसंठाणसंठिए नो विसमचक्कवालसंठाणसंठिए। कालोदे णं भंते ! समुद्दे केवइयं चक्कवालविक्खंभेणं केवइयं परिक्खेवेणं पण्णत्ते ? गोयमा ! अट्ठजोयणसयसहस्साई चक्कवालविक्खंभेणं एकाणउहजोयणसयसहस्साई सत्तरिसहस्साई छच्च पंचत्तरे जोयणसए किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णते। से णं एगाए पउभयरवेइयाए एगेणं वणसंडेणं, संपरिक्खित्ते, दोण्हवि वण्णओ। कालोयस्स णं भंते ! समुदस्स कति दारा पण्णत्ता ? गोयमा! चत्तारि दारा पण्णता, तं जहा-विजए, वेजयंते, जयंते, अपराजिए। कहि णं भंते ! कालोदस्स समुद्दस्स विजए णामं दारे पण्णते? गोयमा ! कालोदे समुद्दे पुरथिमपेरते पुक्खरवरदीवपुरथिमद्धस्स पच्चस्थिमेणं सोतोदाए महाणईए उप्पि एस्थ णं कालोदस्स समुहस्स विजए णामं दारे पण्णत्ते / अद्वैव जोयणाइं तं चेव पमाणं जाव रायहाणीओ। कहि णं भंते ! कालोयस्स समुहस्स वेजयंते णामं दारे पण्णत्ते ? गोयमा ! कालोयस्स समुद्दस्स दक्षिणपेरते पुक्खरवरदीवस्स दक्षिणद्धस्स उत्तरेणं, एत्य गं कालोयसमुद्दस्स वेजयंते नामं दारे पण्णत्ते। 1. 'चउवीसं ससिरविणो' का अर्थ 12 चन्द्र और 12 सूर्य समझना चाहिये। 2. उक्तं च-बारस चंदा सूरा नक्खत्तसया य तिन्नि छत्तीसा। एगं च गहसहस्सं छप्पन्न धायइसंडे // 1 // अद्वैव सयसहस्सा तिम्नि सहस्सा य सत्त य सया य / धायइसंडे दीवे तारागणकोडिकोडीयो // 2 // Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्त : कालोपसमुद्र को वक्तव्यता] कहि णं भंते ! कालोयसमुदस्स जयंते नामं दारे पण्णत्ते ? गोयमा ! कालोयसमुद्दस्स पच्चत्थिमपेरते पुक्खरवरदीवस्स पच्चत्थिमद्धस्स पुरस्थिमेणं सीताए महाणईए उपि जयंते णामं दारे पण्णते। कहिणं भंते ! कालोयसमुहस्स अपराजिए नामं दारे पण्णते ? गोयमा ! कालोयसमुदस्स उत्तरद्धपेरते पुक्खरवरदोवोत्तरद्धस्स दाहिणतो एत्थ णं कालोयसमुहस्स अपराजिए णामं दारे पण्णते / सेसं तं चेव / कालोयस्स णं भंते ! समुदस्स दारस्स य दारस्स य एस गं केवइयं केवइयं अबाहाए अंतरे पण्णते? गोयमा!-बावीससयसहस्सा बाणउइ खलु भवे सहस्साई। छच्च सया बायाला दारंतरं तिन्नि कोसा य // 1 // दारस्स य दारस्स य अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। कालोदस्स णं भंते ! समुद्दस्स पएसा पुक्खरवरदीवं पुट्ठा ? तहेव, एवं पुक्खरवरदीवस्सवि जीवा उद्दाइत्ता उदाइत्ता तहेव भाणियन्वं / से केणडेणं भंते ! एवं बुच्चइ-कालोए समुद्दे कालोए समुद्दे ? गोयमा ! कालोयस्स णं समुदस्स उदगे आसले मासले पेसले कालए मासरासिवण्णाभे पगईए उदगरसे गं पण्णत्ते, काल-महाकाला एत्थ दुवे देवा महिड्डिया जाव पलिओवमट्टिईया परिवसंति, से तेणद्वेणं गोयमा ! जाव णिच्चे। कालोए णं भंते ! समुद्दे कति चंदा पभासिसु वा 3 पुच्छा ? गोयमा ! कालोए णं समुद्दे बायालीसं चंदा पभासिसु वा 3 / बायालीसं चंदा बायालीसं य दिणयरा वित्ता। कालोदहिम्मि एते चरंति संबद्धलेसागा // 1 // णक्खत्ताण सहस्सं एगं छावत्तरं च सयमणं / छच्चसया छण्णउया महागया तिणि य सहस्सा // 2 // अट्ठावीसं कालोदहिम्मि बारस य सयसहस्साई। नव य सया पन्नासा तारागणकोडिकोडीणं // 3 // सोभिसु वा 3 // 175. गोल और वलयाकार आकृति का कालोद (कालोदधि) नाम का समुद्र धातकीखण्ड द्वीप को सब ओर से घेर कर रहा हया है। Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38] [जीवानीवाभिगमसूत्र भगवन् ! कालोदसमुद्र समचक्रवाल रूप से संस्थित है या विषमचक्रवालसंस्थान से संस्थित है ? गौतम ! कालोदसमुद्र समचक्रवाल रूप से संस्थित है, विषमचक्रवाल रूप से नहीं। भगवन् ! कालोदसमुद्र का चक्रवालविष्कंभ कितना है और उसकी परिधि कितनी है ? गौतम ! कालोदसमुद्र पाठ लाख योजन का चक्रवालविष्कंभ से है और इक्यानवै लाख सत्तर हजार छह सौ पांच योजन से कुछ अधिक उसकी परिधि है। (एक हजार योजन उसकी गहराई है।) वह एक पद्मवरवेदिका और एक वनखंड से परिवेष्टित है / दोनों का वर्णनक कहना चाहिए। भगवन् ! कालोदसमुद्र के कितने द्वार हैं ? गौतम ! कालोदसमुद्र के चार द्वार हैं---विजय, वैजयंत, जयंत और अपराजित / भगवन् ! कालोदसमुद्र का विजयद्वार कहां स्थित है ? गौतम ! कालोदसमुद्र के पूर्व दिशा के अन्त में और पुष्करवरद्वीप के पूर्वार्ध के पश्चिम में शीतोदा महानदी के ऊपर कालोदसमुद्र का विजयद्वार है / वह पाठ योजन का ऊँचा है आदि प्रमाण पूर्ववत् यावत् राजधानी पर्यन्त जानना चाहिए / भगवन् ! कालोदसमुद्र का वैजयंतद्वार कहां है ? गौतम ! कालोदसमुद्र के दक्षिण पर्यन्त में, पुष्करवरद्वीप के दक्षिणार्ध भाग के उत्तर में कालोदसमुद्र का वैजयंतद्वार है।। भगवन् ! कालोदसमुद्र का जयन्तद्वार कहां है ? गौतम ! कालोदसमुद्र के पश्चिमान्त में, पुष्करवरद्वीप के पश्चिमाई के पूर्व में शीता महानदी के ऊपर जयंत नाम का द्वार है। भगवन् ! कालोदसमुद्र का अपराजितद्वार कहां है। गौतम ! कालोदसमुद्र के उत्तरार्ध के अन्त में और पुष्करवरद्वीप के उत्तरार्ध के दक्षिण में कालोदसमुद्र का अपराजितद्वार है। शेष वर्णन पूर्वोक्त जम्बूद्वीप के अपराजितद्वार के समान जानना चाहिए / (विशेष यह है कि राजधानी कालोदसमुद्र में कहनी चाहिए।) भगवन ! कालोदसमुद्र के एक द्वार से दूसरे का अपान्तराल अन्तर कितना है ? गौतम ! बावीस लाख बानवै हजार छह सौ छियालीस योजन और तीन कोस का एक द्वार से दूसरे द्वार का अन्तर है। (चारों द्वारों की मोटाई 18 योजन कालोदसमुद्र की परिधि में से घटाने पर 1. उक्तं च-अठेव सयसहस्सा कालोमो चक्कवालयो रु'दो। जोयणसहस्समेगं प्रोगाहेण मुणयन्वो // 1 // इगनउइसयसहस्सा हवंति तह सत्तरि सहस्सा य / छच्च सया पंचहिया कालोयहिपरिरमो एसो // 2 // Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति :पुष्करवरद्वीप की वक्तव्यता] 9170587 होते हैं। इनमें 4 का भाग देने पर 2292646 योजन और तीन कोस का प्रमाण प्रा जाता है।) भगवन् ! कालोदसमुद्र के प्रदेश पुष्करवरद्वीप से छुए हुए हैं क्या ? इत्यादि कथन पूर्ववत् करना चाहिये, यावत् पुष्करवरद्वीप के जीव मरकर कालोद समुद्र में कोई उत्पन्न होते हैं और कोई नहीं। भगवन् ! कालोदसमुद्र, कालोदसमुद्र क्यों कहलाता है ? गौतम ! कालोदसमुद्र का पानी प्रास्वाध है, मांसल (भारी होने से), पेशल (मनोज्ञ स्वाद वाला) है, काला है, उड़द की राशि के वर्ण का है और स्वाभाविक उदकरस वाला है, इसलिए वह कालोद कहलाता है। वहां काल और महाकाल नाम के पल्योपम की स्थिति वाले महद्धिक दो देव रहते हैं / इसलिए वह कालोद कहलाता है / गौतम ! दूसरी बात यह है कि कालोदसमुद्र शाश्वत होने से उसका नाम भी शाश्वत और अनिमित्तक है। भगवन् ! कालोदसमुद्र में कितने चन्द्र उद्योत करते थे आदि प्रश्न पूर्ववत् जानना चाहिए? गौतम ! कालोदसमुद्र में बयालीस चन्द्र उद्योत करते थे, उद्योत करते हैं और उद्योत करेंगे / गाथा में कहा है कि कालोदधि में बयालीस चन्द्र और बयालीस सूर्य सम्बद्धलेश्या वाले विचरण करते हैं / एक हजार एक सौ छिहत्तर नक्षत्र और तीन हजार छह सौ छियानवै महाग्रह और अट्ठाईस लाख बारह हजार नौ सौ पचास कोडाकोडी तारागण शोभित हुए, शोभित होते हैं और शोभित होंगे।' पुष्करवरद्वीप की वक्तव्यता 176. (अ) कालोयं णं समुदं पुक्खरवरे णामं दीवे वट्टे वलयामारसंठाणसंठिए सम्वनो समंता संपरिक्खित्ता णं चिट्ठई, तहेब जाव समचक्कवालसंठाणसंठिए नो विसमचक्कवालसंठाणसंठिए / पुक्खरवरे णं भंते ! दीवे केवइयं चक्कवालविक्खंभेणं केवइयं परिक्खेवेणं पण्णते? गोयमा ! सोलस जोयणसयसहस्साई चक्कवालविक्खंभेणं,-- एगा जोयणकोडी बाणउई खलु भवे सयसहस्सा / अउणाणउइं अट्ठसया चउणउया य परिरओ पुक्खरवरस्स। से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं संपरिविखत्ते / दोहवि वण्णप्रो। पुक्खरवरस्स णं भंते ! कति दारा पण्णता? गोयमा ! चत्तारि दारा पण्णता, तं जहा--विजए, वेजयंते, जयंते, अपराजिए / कहि णं भंते ! पुक्खरवरदोवस्स विजए णामं दारे पण्णत्ते ? गोयमा ! पुक्खरवरदीवपुरच्छिमपेरंते पुक्खरोदसमुद्दपुरच्छिमखस्स पच्चत्थिमेणं एत्थ णं 1. प्रस्तुत पाठ में प्राई तीन गाथाएं वृत्तिकार के सामने रही हुई प्रतियों में नहीं थीं, ऐसा लगता है, इसीलिए उन्होंने "अन्यत्राप्युक्तं" ऐसा वृत्ति में लिखकर उक्त तीन गाथाएं उद्धृत की हैं। --सम्पादक Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40] [जीवाजीवामिगमसूत्र पुक्खरवरदीवस्स विजए णामं दारे पण्णत्ते, तं चेव सव्वं / एवं चत्तारिवि दारा / सीयासीओदा गस्थि माणियन्याओ। पुक्खरवरस्स णं भंते ! दीवस्स दारस्स य दारस्स य एस णं केवइयं अबाधाए अंतरे पण्णते? गोयमा! अडयाल सयसहस्सा बावीसं खलु भवे सहस्साई। अगुणत्तरा य चउरो दारंतर पुक्खरवरस्स // 1 // पएसा दोहवि पुट्ठा, जीवा दोसुवि भाणियव्वा। से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ पुक्खरवरदीवे पुक्खरवरदीवे ? गोयमा! पुक्खरवरे णं दीवे तत्थ तत्थ देसे तहि तहिं बहवे पउमरुक्खा पउमवणा पउमवणसंडा णिच्चं कुसुमित्रा जाव चिट्ठति; पउममहापउमरुवले एस्थ णं पउमपुउरीया गाम दुवे देवा महिड्डिया जाव पलिओक्म दिईया परिवसंति, से तेणठेणं गोयमा! एवं वुच्चइ पुक्खरवरदीवे पुक्खरवरसीवे जाव णिच्चे। पुक्खरवरे णं भंते ! दीवे केवइया चंदा पभासिसु वा 3 ? एवं पुच्छा-- चोयालं चंदसयं चउयालं चेव सूरियाण सयं / पुक्खरवरदीवंमि चरंति एता पभार्सेता // 1 // चत्तारि सहस्साई बत्तीसं चेव होंति णक्खता। छच्च सया बावत्तर महगगहा बारस सहस्सा // 2 // छण्णउइ सयसहस्सा चत्तालीसं भवे सहस्साई / चत्तारि सया पुक्खरवर तारागणकोडिकोडीणं // 3 // सोभिसु वा सोभन्ति वा सोभिस्संति वा / 176. (अ) गोल और वलयाकार संस्थान से संस्थित पुष्करवर नाम का द्वीप कालोदसमुद्र को सब ओर घेर कर रहा हुआ है। उसी प्रकार कहना चाहिए यावत् यह समचक्रवाल संस्थान वाला है, विषमचक्रवाल संस्थान वाला नहीं है। भगवन् ! पुष्करवरद्वीप का चक्रवालविष्कंभ कितना है और उसकी परिधि कितनी है ? गौतम ! वह सोलह लाख योजन चक्रवाल विष्कंभ वाला है और उसकी परिधि एक करोड़ बान लाख नव्यासी हजार आठ सौ चौरानवै (19289894) योजन है। वह एक पद्मवरवेदिका और एक वनखण्ड से परिवेष्ठित है। दोनों का वर्णनक कहना चाहिए। भगवन् ! पुष्करवरद्वीप के कितने द्वार हैं ? गौतम ! चार द्वार हैं-- विजय, वैजयंत, जयंत और अपराजित / Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानुषोतरपर्वत को वक्तव्यता] [41 भगवन् ! पुष्करवरद्वीप का विजयद्वार कहाँ है ? गौतम ! पुष्करवरद्वीप के पूर्वी पर्यन्त में और पुष्करोदसमुद्र के पूर्वार्ध के पश्चिम में पुष्करवरद्वीप का विजयद्वार है, अादि वर्णन जंबूद्वीप के विजयद्वार के समान कहना चाहिए। इसी प्रकार चारों द्वारों का वर्णन जानना चाहिए / लेकिन शोता शीतोदा नदियों का सद्भाव नहीं कहना चाहिये। भगवन् ! पुष्करवरद्वीप के एक द्वार से दूसरे द्वार का अन्तर कितना है ? गौतम ! अड़तालीस लाख बावीस हजार चार सौ उनहत्तर (4822469) योजन का अन्तर है। (चारों द्वारों की मोटाई 18 योजन है। पुष्करवरद्वीप की परिधि 19289894 योजन में से 18 योजन कम करने पर 19289876 योजन को राशि को 4 से भाग देने पर उक्त प्रमाण निकल आता है।) पुष्करवरद्वीप के प्रदेश पुष्करवरसमुद्र से स्पृष्ट हैं और वे प्रदेश उसी के हैं, इसी तरह पुष्करवरसमुद्र के प्रदेश पुष्करवरद्वीप से छुए हुए हैं और उसी के हैं। पुष्करवरद्वीप और पुष्करवरसमुद्र के जीव मरकर कोई कोई उनमें उत्पन्न होते हैं और कोई कोई उनमें उत्पन्न नहीं भी होते हैं। भगवन् ! पुष्करवरद्वीप पुष्करवरद्वीप क्यों कहलाता है ? गौतम ! पुष्करवरदीप में स्थान-स्थान पर यहां-वहां बहत से पद्मवक्ष. पद्मवन और पावतखण्ड नित्य कुसुमित रहते हैं तथा पद्म और महापद्म वृक्षों पर पद्म और पुंडरीक नाम के पल्योपम स्थिति वाले दो महद्धिक देव रहते हैं, इसलिए पुष्करवरद्वीप पुष्करवरद्वीप कहलाता है यावत् नित्य है। भगवन् ! पुष्करवरद्वीप में कितने चन्द्र उद्योत करते थे, करते हैं और करेंगे-इत्यादि प्रश्न करना चाहिए? गौतम ! एक सौ चवालीस चन्द्र और एक सौ चवालोस सूर्य पुष्करवरद्वीप में प्रभासित होते हुए विचरते हैं / चार हजार बत्तीस (4032) नक्षत्र और बारह हजार छह सौ बहत्तर (12672) महाग्रह हैं / छियानवै लाख चवालीस हजार चार सौ (9644400) कोडाकोडी तारागण पुष्करवरद्वीप में शोभित हुए, शोभित होते हैं और शोभित होंगे। मानुषोत्तरपर्वत की वक्तव्यता 176. (प्रा) पुक्खरवरदीवस्स णं बहुमज्झदेसभाए एत्य णं माणसुत्तरे नाम पवए पण्णते, बट्टे वलयागारसंठाणसंठिए, जे णं पुक्खरवरदीवं दुहा विभयमाणे विभयमाणे चिट्ठइ, तं जहा-अभितरपुक्खरद्धं च बाहिरपुक्खरद्धच / अभितरपुक्खरद्धे णं भंते ! केवइयं चक्कवालेणं परिक्खेवेणं पण्णते ? गोयमा ! अट्ठजोयण सयसहस्साई चक्कवालविक्खंभेणं कोडी बायालीसा तीसं दोणि य सया अगुणवण्णा। पुक्खरवद्धपरिरओ एवं च मणुस्सखेत्तस्स // 1 // से केणोणं भंते ! एवं वुच्चइ अम्भितरपुक्खरद्धे य अम्भितरपुक्खरद्धे य ? Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42] जीवाजीवाभिगमसूत्र गोयमा ! अभितरपुक्खरद्धणं माणुसुत्तरेणं पटवएणं सव्यओ समंता संपरिक्खित्ते / से एएण?णं गोयमा! अम्भितरपुक्खरद्धे य अम्भितरपुक्खरद्धे य / अदुत्तरं च णं जाव णिच्चे। भितरपुक्खरद्धे णं भंते ! केवइया चंदा पभासिसु 3, सा चेव पुच्छा जाव तारागणकोडिकोडीओ ? गोयमा ! बावरि च चंदा बावत्तरिमेव दिणकरा दित्ता। पुक्खरवरदीवड्ढे चरंति एते पभासेंता // 1 // तिषिण सया छत्तीसा छच्च सहस्सा महम्गहाणं तु / / णक्खत्ताणं तु भवे सोलाई दुवे सहस्साई // 2 // अडयाल सयसहस्सा बावीसं खलु भवे सहस्साई। दोण्णि सया पुक्खरद्धे तारागण कोडिकोडीणं // 3 // 176. (आ) पुष्करवरद्वीप के बहुमध्य भाग में मानुषोत्तर नामक पर्वत है, जो गोल है और बलयकार संस्थान से संस्थित है / वह पर्वत पुष्करवरद्वीप को दो भागों में विभाजित करता हैआभ्यन्तर पुष्करार्ध और बाह्य पुष्करार्ध / भगवन् ! आभ्यन्तर पुष्कराध का चक्रवालविष्कंभ कितना है और उसकी परिधि कितनी है? गौतम ! आठ लाख योजन का उसका चक्रवाल विष्कंभ है और उसकी परिधि एक करोड़, बयालीस लाख, तीस हजार, दो सौ उनपचास (1,42,30,249) योजन की है / मनुष्यक्षेत्र की परिधि भी यही है। भगवन् ! आभ्यन्तर पुष्करार्ध आभ्यन्तर पुष्करार्ध क्यों कहलाता है ? गौतम ! आभ्यन्तर पुष्कराध सब ओर से मानुषोत्तरपर्वत से घिरा हुआ है। इसलिये वह आभ्यन्तर पुष्करार्ध कहलाता है / दूसरी बात यह है कि वह नित्य है (अतः यह अनिमित्तक नाम है।) भगवन् ! पाभ्यन्तर पुष्करार्ध में कितने चन्द्र प्रभासित होते थे, होते हैं और होंगे, आदि वही प्रश्न तारागण कोडाकोडी पर्यन्त करना चाहिए। ___ गौतम ! बहत्तर चन्द्रमा और बहत्तर सूर्य प्रभासित होते हुए पुष्करवरद्वीपार्ध में विचरण करते हैं / / 1 // छह हजार तीन सौ छत्तीस महाग्रह और दो हजार सोलह नक्षत्र गति करते हैं और चन्द्रादि से योग करते हैं / / 2 // अड़तालीस लाख बावीस हजार दो सौ ताराओं की कोडाकोडी वहां शोभित होती थी, शोभित होती है और शोभित होगी।। 3 // विवेचन-सब जगह तारा-परिमाण में कोटी-कोटी से मतलब क्रोड (कोटि) ही समझना चाहिए / पूर्वाचार्यों ने ऐसी ही व्याख्या की है। क्योंकि क्षेत्र थोड़ा है। अन्य आचार्य उत्सेधांगुलप्रमाण से कोटिकोटि को संगति करते हैं / कहा है Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयक्षेत्र (मनुष्यक्षेत्र) का वर्णन] [43 "कोडाकोडी सन्नंतरं तु मन्नति केई थोवतया। अन्न उत्सेहांगुलमाणं काऊण ताराणं" // 1 // वृत्ति समयक्षेत्र (मनुष्यक्षेत्र) का वर्णन 177. (अ) समयखेते णं भंते ! केवइयं आयामविक्खंभेणं केवइयं परिक्खेवेणं पण्णते ? गोयमा ! पणयालीसं जोयणसयसहस्साई आयामविक्खंभेणं एगा जोयणकोडी जाव अभितर पुक्खरद्धपरिरओ से भाणियव्वो जाव प्रऊणपणे / से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ-माणुसखेत्ते माणुसखेत्ते ? गोयमा! माणुस्सखेत्तेणं तिविहा मणुस्सा परिवसंति, तं जहा-कम्मभूमगा अकम्मभूमगा अंतरदीवगा। से तेणटुणं गोयमा ! एवं वुच्चइ माणुसखेते माणुसखेते। माणुसखेत्ते णं भंते ! कति चंदा पभासिसु वा 3, कइ सूरा विसु वा 3 ? बत्तीसं चंदसयं बत्तीसं चेव सूरियाण सयं / सयलं मणुस्सलोयं चरेंति एए पभासंता // 1 // एक्कारस य सहस्सा छप्पि य सोलगमहग्गहाणं तु / छच्च सया छण्णउया णक्खत्ता तिणि य सहस्सा // 2 // अउसीइ सयसहस्सा चत्तालीस सहस्स मणुयलोगंमि / / - सत्त य सया अणूणा तारागणकोडिकोडीणं // 3 // सोभं सोभेसु वा 3 / 177. (अ) हे भगवन् ! समयक्षेत्र (मनुष्यक्षेत्र) का आयाम-विष्कंभ कितना और परिधि कितनी है ? गौतम ! समयक्षेत्र आयाम-विष्कंभ से पैंतालीस लाख योजन का है और उसकी परिधि वही है जो प्राभ्यन्तर पुष्करवरद्वीप की कही है / अर्थात् एक करोड़, बयालीस लाख, तीस हजार, दो सौ उनपचास योजन की परिधि है। हे भगवन् ! मनुष्यक्षेत्र, मनुष्यक्षेत्र क्यों कहलाता है ? गौतम ! मनुष्यक्षेत्र में तीन प्रकार के मनुष्य रहते हैं, यथा-कर्मभूमक, अकर्मभूमक और अन्तर्वीपक / इसलिए यह मनुष्यक्षेत्र कहलाता है। हे भगवन् ! मनुष्यक्षेत्र में कितने चन्द्र प्रभासित होते थे, प्रभासित होते हैं और प्रभासित होंगे? कितने सूर्य तपते थे, तपते हैं और तपेंगे ? आदि प्रश्न कर लेना चाहिए। गौतम ! समयक्षेत्र में एक सौ बत्तीस चन्द्र और एक सौ बत्तीस सूर्य प्रभासित होते हुए सकल मनुष्यक्षेत्र में विचरण करते हैं / / 1 / / Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44] जिीवाजीवाभिगमसूत्र ग्यारह हजार छह सौ सोलह महाग्रह यहां अपनी चाल चलते हैं और तीन हजार छह सौ छियानवै नक्षत्र चन्द्रादिक के साथ योग करते हैं / / 2 // अठासी लाख चालीस हजार सात सौ (8840700) कोटाकोटी तारागण मनुष्यलोक में शोभित होते थे, शोभित होते हैं और शोभित होंगे / / 3 / / 177. (प्रा) एसो तारापिडो सव्वसमासेण मणुयलोगम्मि / बहिया पुण ताराम्रो जिणेहि भणिया असंखेज्जा // 1 // एवइयं तारग्गं जं भणियं माणसम्मि लोगम्मि / चारं कलुबयापुप्फसंठियं जोइसं चरइ // 2 // रवि-ससि-गह-नक्खत्ता एवइया आहिया मणयलोए। जेसि नामागोयं न पागया पन्नवेहिति // 3 // छावटि पिडगाई चंदाइच्चा मणुयलोगम्मि / छप्पन्नं नक्खत्ता य होंति एक्केक्कए पिडए // 5 // छावट्टि पिडगाइं महग्गहाणं तु मणुयलोगम्मि / छावतरं गहसयं य होइ एक्केक्कए पिडए // 6 // चत्तारि य पंतीओ चंदाइच्चाण मणयलोगम्मि / छावट्टि य छावट्ठि य होइ य एक्केक्किया पंती // 7 // छप्पनं पंतीओ नक्खत्ताणं तु मणयलोगम्मि। छावट्ठी छावट्ठी य होइ एक्केक्किया पंती // 8 // छावत्तरं गहाणं पंतिसयं होई मण्यलोगम्मि / छावट्ठो छावट्ठी य होई एक्केक्किया पंती // 9 // ते मेरु परियडता पयाहिणावत्तमंडला सन्थे / अणवट्ठिय जोगेहिं चंदा सूरा गहगणा य॥१०॥ 177. (आ) इस प्रकार मनुष्यलोक में तारापिण्ड पूर्वोक्त संख्याप्रमाण हैं। मनुष्यलोक में बाहर तारापिण्डों का प्रमाण जिनेश्वर देवों ने असंख्यात कहा है। (असंख्यात द्वीप समुद्र होने से प्रति द्वीप में यथायोग संख्यात असंख्यात तारागण हैं / ) / / 1 // मनुष्यलोक में जो पूर्वोक्त तारागणों का प्रमाण कहा गया है वे सब ज्योतिष्क देवों के विमानरूप हैं, वे कदम्ब के फूल के आकार के (नीचे संक्षिप्त ऊपर विस्तृत उत्तानीकृत अर्धकवीठ के आकार के) हैं तथाविध जगत्-स्वभाव से गतिशील हैं / / 2 // सूर्य, चन्द्र, गृह, नक्षत्र, तारागण का प्रमाण मनुष्यलोक में इतना ही कहा गया है। इनके नाम-गोत्र (अन्वर्थयुक्त नाम) अनतिशायी सामान्य व्यक्ति कदापि नहीं कह सकते, अतएव इनको सर्वज्ञोपदिष्ट मानकर सम्यक रूप से इन पर श्रद्धा करनी चाहिए / / 3 // Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयक्षेत्र (मनुष्यक्षेत्र) का वर्णन] [45 दो चन्द्र और दो सूर्यों का एक पिटक होता है। इस मान से मनुष्यलोक में चन्द्रों और सूर्यों के 66-66 (छियासठ-छियासठ) पिटक हैं। 1 पिटक जम्बूद्वीप में, 2 पिटक लवणसमुद्र में, 6 पिटक धातकीखण्ड में, 21 पिटक कालोदधि में और 36 पिटक अर्धपुष्करवरद्वीप में, कुल मिलाकर 66 पिटक सूर्यों के और 66 पिटक चन्द्रों के हैं // 4 // मनुष्यलोक में नक्षत्रों में 66 पिटक हैं। एक-एक पिटक में छप्पन छप्पन नक्षत्र हैं / / 5 / / मनुष्यलोक में महाग्रहों के 66 पिटक हैं / एक-एक पिटक में 176-176 महाग्रह हैं // 6 // इस मनुष्यलोक में चन्द्र और सूर्यों की चार-चार पंक्तियां हैं। एक-एक पंक्ति में 66-66 चन्द्र और सूर्य हैं / / 7 // इस मनुष्यलोक में नक्षत्रों की 56 पंक्तियां हैं / प्रत्येक पंक्ति में 66-66 नक्षत्र हैं // 8 // इस मनुष्यलोक में ग्रहों की 176 पंक्तियां हैं। प्रत्येक पंक्ति में 66-66 ग्रह हैं। ये चन्द्र-सूर्यादि सब ज्योतिष्क मण्डल मेरुपर्वत के चारों ओर प्रदक्षिणा करते हैं। प्रदक्षिणा करते हुए इन चन्द्रादि के दक्षिण में ही मेरु होता है, अतएव इन्हें प्रदक्षिणावर्तमण्डल कहा है। (मनुष्यलोकवर्ती सब चन्द्रसूर्यादि प्रदक्षिणावर्तमण्डल गति से परिभ्रमण करते हैं।) चन्द्र, सूर्य और ग्रहों के मण्डल अनवस्थित हैं (क्योंकि यथायोग रूप से अन्य मण्डल पर ये परिभ्रमण करते रहते हैं।) 177. (इ) नक्खत्ततारगाणं अवडिया मंडला मुणेयव्वा / तेवि य पयाहिणा-वत्तमेव मेलं अणुचरंति // 11 // रयणियरविणयराणं उड्ढे व अहे व संकमो णस्थि / मंडलसंकमण पुण अम्भितरबाहिरं तिरिए / / 12 / / रयणियरविणयराणं नक्खत्ताणं महग्गहाणं च। चारविसेसेण भवे सुहदुक्खविही मणुस्साणं // 13 // तेसि पविसंताणं तावक्खेत्तं तु वड्डए नियमा। तेणेव कमेण पुणो परिहायई निवखमंताणं // 14 // तेसि कलंबुयापुप्फसंठिया होई तारखेत्तपहा / अंतो य संकुया बाहिं वित्थडा चंदसूराणं // 15 // केणं वड्डइ चंदो परिहाणी केण होई चंदस्स / कालो वा जोण्हो वा केण अणुभावेण चंदस्स // 16 // किण्हं राहुविमाणं निच्चं चंदेण होइ अविरहियं / चउरंगुलमप्यत्तं हिट्ठा चंदस्स तं चरइ // 17 // बाट्टि बाढि दिवसे दिवसे उ सुक्कपक्खस्स / / जं परिवड्ढेइ चंदो, खवेइ तं चेव कालेणं // 18 // Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46 जीवाजीवामिगमसूत्र पन्नारसहभागेण य चंदं पन्नरसमेव तं वरइ / पन्नरसइभागेण य पुणो वि तं चेवतिक्कम // 19 // एवं बडइ चंदो परिहाणी एव होई चंदस्स। कालो वा जोण्हा वा तेणणुभावेण चंदस्स // 20 // अंतो मणुस्सखेत्ते हवंति चारोवगा य उववण्णा। पंचविहा जोइसिया चंदा सूरा गहगणा य // 21 // तेण परं जे सेसा चंदाइच्चगहतारनक्खत्ता। नत्थि गई न वि चारो अवट्ठिया ते मुणेयब्बा // 22 // दो चंदा इह दोवे चत्तारि य सागरे लवणतोए। धायइसंडे दोवे बारस चंदा य सूरा य // 23 // दो दो जंबुद्दीवे ससिसूरा दुगुणिया भवे लवणे। लावणिगा य तिगुणिया ससिसूरा धायइसंडे // 24 // धायइसंडप्पभिई उद्दि? तिगुणिया भवे चंदा / आइल्ल चंदसहिया अणंतराणंतरे खेत्ते // 25 // रिक्खग्गहतारगं दीवसमुद्दे जहिच्छ से नाउं / तस्स ससीहिं गुणियं रिक्खग्महतारगाणं तु // 26 // चंदाओ सूरस्स य सूरा चंदस्स अंतरं होई। पन्नास सहस्साइं तु जोयणाणं अणूणाई // 27 // सूरस्स य सूरस्स य ससिणो ससिणो य अंतरं होई। बहियारो मणुस्सनगरस जोयणाणं सयसहस्सं // 28 // सूरतरिया चंदा चंदंतरिया य दिणयरा दित्ता। चित्तंतरलेसागा सुहलेसा मंदलेसा य // 29 // अट्ठासीइं च गहा अट्ठावीसं च होंति नक्खत्ता। एगससिपरिवारो एतो ताराणं वोच्छामि // 30 // छावट्ठिसहस्साइं नव चेव सयाइं पंचसयराई। एगससिपरिवारो तारागणकोडिकोडोणं // 31 // बहियाओ मणुस्सनगस्स चंदसूराण अवट्ठिया जोगा। चंदा अभीइजुत्ता सूरा पुण होंति पुस्सेहिं // 32 // 177. (इ) नक्षत्र और ताराओं के मण्डल अवस्थित हैं। अर्थात् ये नियतकाल तक एक मण्डल में रहते हैं। (किन्तु इसका मतलब यह नहीं कि ये विचरण नहीं करते), ये भी मेरुपर्वत के चारों ओर प्रदक्षिणावर्तमण्डल गति से परिभ्रमण करते हैं / / 11 // चन्द्र और सूर्य का ऊपर और नोचे संक्रम नहीं होता (क्योंकि ऐसा हो जगत् स्वभाव है।) Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयक्षेत्र (मनुष्यक्षेत्र) का वर्णन] इनका विचरण तिर्यक् दिशा में सर्वाभ्यन्तरमण्डल से सर्वबाह्यमण्डल तक और सर्वबाह्यमण्डल से सर्वप्राभ्यन्तरमण्डल तक होता रहता है / / 12 / / चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र, महाग्रह और ताराओं को गतिविशेष से मनुष्यों के सुख-दुःख प्रभावित होते हैं / / 13 // सर्वबाह्यमण्डल से आभ्यन्तरमण्डल में प्रवेश करते हुए सूर्य और चन्द्रमा का तापक्षेत्र प्रतिदिन क्रमशः नियम से पायाम की अपेक्षा बढ़ता जाता है और जिस क्रम से वह बढ़ता है उसी क्रम से सर्वाभ्यन्तरमण्डल से बाहर निकलने वाले सूर्य और चन्द्रमा का तापक्षेत्र प्रतिदिन क्रमशः घटता जाता है // 14 // उन चन्द्र-सूर्यों के तापक्षेत्र का मार्ग कदंबपुष्प के आकार जैसा है। यह मेरु की दिशा में संकुचित है और लवणसमुद्र की दिशा में विस्तृत है / / 15 // भगवन ! चन्द्रमा शक्लपक्ष में क्यों बढता है और कृष्णपक्ष में क्यों घटता है? किस कारण से कृष्णपक्ष और शुक्लपक्ष होते हैं ? // 16 // . गौतम ! कृष्ण वर्ण का राहु-विमान चन्द्रमा से सदा चार अंगुल दूर रहकर चन्द्रविमान के नीचे चलता है / (इस तरह चलता हुआ वह शुक्लपक्ष में धीरे-धीरे चन्द्रमा को प्रकट करता है और कृष्णपक्ष में धीरे-धीरे उसे ढंक लेता है / / 17 / / शुक्लपक्ष में चन्द्रमा प्रतिदिन चन्द्रविमान के 62 भाग प्रमाण बढ़ता है और कृष्णपक्ष में 62 भाग प्रमाण घटता है। [यहां 62 भाग का स्पष्टीकरण ऐसा करना चाहिए कि चन्द्रविमान के 62 भाग करने चाहिए। इनमें से ऊपर के दो भाग स्वभावत: पावार्य (श्रावृत होने योग्य) न होने से उन्हें छोड़ देना चाहिए। शेष 60 भागों को 15 से भाग देने पर चार-चार भाग प्राप्त होते हैं / ये -चार भाग ही यहां 62 भाग का अर्थ समझना चाहिए। चणिकार ने भी ऐसी ही व्याख्या की है। परम्परानुसार सूत्रव्याख्या करनी चाहिए स्व-बुद्धि से नहीं।) // 18 // चन्द्रविमान के पन्द्रहवें भाग को कृष्णपक्ष में राहुविमान अपने पन्द्रहवें भाग से ढंक लेता है और शुक्लपक्ष में उसी पन्द्रहवें भाग को मुक्त कर देता है / / 19 / / इस प्रकार चन्द्रमा की वृद्धि और हानि होती है और इसी कारण कृष्णपक्ष और शुक्लपक्ष होते हैं // 20 // मनुष्यक्षेत्र के भीतर चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र एवं तारा-ये पांच प्रकार के ज्योतिष्क गतिशील हैं / / 21 // अढ़ाई द्वीप से आगे-(बाहर) जो पांच प्रकार के चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारा हैं वे गति नहीं करते, (मण्डल गति से) विचरण नहीं करते अतएव अवस्थित (स्थित) हैं / / 22 / / ___ इस जम्बूद्वीप में दो चन्द्र और दो सूर्य हैं। लवणसमुद्र में चार चन्द्र और चार सूर्य हैं। घातकीखण्ड में बारह चन्द्र और बारह सूर्य हैं / / 23 / / जम्बूद्वीप में दो चन्द्र और दो सूर्य हैं / इनसे दुगुने लवणसमुद्र में हैं और लवणसमुद्र के चन्द्रसूर्यों के तिगुने चन्द्र-सूर्य धातकीखण्ड में हैं / / 24 / / Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ जीवाजीवाभिगमसूत्र धातकीखण्ड के आगे के समुद्र और द्वीपों में चन्द्रों और सूर्यों का प्रमाण पूर्व के द्वीप या समुद्र के प्रमाण से तिगुना करके उसमें पूर्व-पूर्व के सब चन्द्रों और सूर्यों को जोड़ देना चाहिए। (जैसे घातकीखण्ड में 12 चन्द्र और 12 सूर्य कहे हैं तो कालोदधिसमुद्र में इनसे तिगुने अर्थात् 124 3 = 36 तथा पूर्व-पूर्व के-जम्बूद्वीप के 2 और लवणसमुद्र के 4, कुल 6 जोड़ने पर 42 चन्द्र और सूर्य कालोद समुद्र में हैं / इसी विधि से आगे के द्वीप समुद्रों में चन्द्रों और सूर्यों की संख्या का प्रमाण जाना जा सकता है / / 25 // जिन द्वीपों और समुद्रों में नक्षत्र, ग्रह एवं तारा का प्रमाण जानने की इच्छा हो तो उन द्वीपों और समुद्रों के चन्द्र सूर्यों के साथ-एक-एक चन्द्र-सूर्य परिवार से गुणा करना चाहिए। (जैसे लवणसमुद्र में 4 चन्द्रमा हैं। एक-एक चन्द्र के परिवार में 28 नक्षत्र हैं तो 28 को 4 से गुणा करने पर 112 नक्षत्र लवणसमुद्र में जानने चाहिए। एक-एक चन्द्र के परिवार में 88-88 ग्रह हैं, 8844 = 352 ग्रह लवणसमुद्र में जाने चाहिए / एक चन्द्र के परिवार में छियासठ हजार नौ सौ पचहत्तर कोडाकोडी तारागण हैं तो इस राशि में चार का गुणा करने पर दो लाख सड़सठ हजार नौ सौ कोडाकोडो तारागण लवणसमुद्र में हैं / ) // 26 / / / मनुष्यक्षेत्र के बाहर जो चन्द्र और सूर्य हैं, उनका अन्तर पचास-पचास हजार योजन का है। यह अन्तर चन्द्र से सूर्य का और सूर्य से चन्द्र का जानना चाहिए / // 27 // __ सूर्य से सूर्य का और चन्द्र से चन्द्र का अन्तर मानुषोत्तरपर्वत के बाहर एक लाख योजन का है // 28 // (मनुष्यलोक से बाहर पंक्तिरूप में अवस्थित) सूर्यान्तरित चन्द्र और चन्द्रान्तरित सूर्य अपने अपने तेजःपुज से प्रकाशित होते हैं / इनका अन्तर और प्रकाशरूप लेश्या विचित्र प्रकार की है। (अर्थात् चन्द्रमा का प्रकाश शीतल है और सूर्य का प्रकाश उष्ण है / इन चन्द्र सूर्यों का प्रकाश एक दूसरे से अन्तरित होने से न तो मनुष्यलोक की तरह अति शीतल या अति उष्ण होता है किन्तु सुख-रूप होता है) // 29 // एक चन्द्रमा के परिवार में 88 ग्रह और 28 नक्षत्र होते हैं। ताराओं का प्रमाण आगे की गाथाओं में कहते हैं / / 30 // एक चन्द्र के परिवार में 66 हजार 9 सौ 75 कोडाकोडी तारे हैं // 31 // मनुष्यक्षेत्र के बाहर के चन्द्र और सूर्य अवस्थित योग वाले हैं। चन्द्र अभिजित्नक्षत्र से और सूर्य पुष्यनक्षत्र से युक्त रहते हैं / (कहीं कहीं "अवट्ठिया तेया" ऐसा पाठ है, उसके अनुसार अवस्थित तेज वाले हैं, अर्थात् वहां मनुष्यलोक की तरह कभी अतिउष्णता और कभी अतिशीतलता नहीं होती है।) // 32 // विवेचन उक्त गाथाएं स्पष्टार्थ वाली हैं। केवल १३वी गाथा में जो कहा गया है कि इन चन्द्र सूर्य नक्षत्र ग्रह और तारामों की चालविशेष से मनुष्यों के सुख-दुःख प्रभावित होते हैं, इसका स्पष्टीकरण करते हुए वृत्तिकार लिखते हैं कि--मनुष्यों के कर्म सदा दो प्रकार के होते हैं शुभवेद्य और अशुभवेद्य / कर्मों के विपाक (फल) के हेतु सामान्यतया पांच हैं-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव / कहा है Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयक्षेत्र (मनुष्यक्षेत्र) का वर्णन] उवयक्खयखओवसमोवसमा जंच कम्मणो भणिया। दव्वं खेतं कालं भावं भवं च संपप्प // 1 // अर्थात्-कर्मों के उदय, क्षय, क्षयोपशम और उपशम में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव निमित्त होते हैं। प्रायः शुभवेद्य कर्मों के विपाक में शुभ द्रव्य-क्षेत्रादि सामग्री हेतुरूप होती है और अशुभवेद्य कर्मो के विपाक में अशुभ द्रव्य-क्षेत्र आदि सामग्री कारणभूत होती है। इसलिए जब जिन व्यक्तियों के जन्मनक्षत्रादि के अनुकूल चन्द्रादि की गति होती है तब उन व्यक्तियों के प्रायः शुभवेद्य कर्म तथाविध विपाक सामग्री पाकर उदय में आते हैं, जिनके कारण शरीर नीरोगता, धनवृद्धि, वैरोपशमन, प्रियसम्प्रयोग, कार्यसिद्धि आदि होने से सुख प्राप्त होता है / अतएव परम विवेकी बुद्धिमान व्यक्ति किसी भी कार्य को शुभ तिथि नक्षत्रादि में प्रारम्भ करते हैं. चाहे जब नहीं। तीर्थंकरों की भी आज्ञा है कि प्रवाजन (दीक्षा) आदि कार्य शुभक्षेत्र में, शुभ दिशा में मुख रखकर, शुभ तिथि नक्षत्र आदि मुहूर्त में करना चाहिए, जैसा कि पंचवस्तुक ग्रन्थ में कहा है एसा जिणाण आणा खेताइया य कम्मुणो भणिया / उदयाइकारणं जं तम्हा सव्वत्थ जइयव्वं // 1 // अतएव छद्मस्थों को शुभ क्षेत्र और शुभ मुहूर्त का ध्यान रखना चाहिए। जो अतिशय ज्ञानी भगवन्त हैं वे तो अतिशय के बल से ही सविघ्नता या निर्विघ्नता को जान लेते हैं अतएव वे शुभ तिथिमुहूर्तादि की अपेक्षा नहीं रखते / छद्मस्थों के लिए वैसा करना ठीक नहीं है। जो लोग यह कहते हैं कि भगवान् ने अपने पास प्रव्रज्या के लिए आये हुए व्यक्तियों के लिए शुभ तिथि आदि नहीं देखी; उनका यह कथन ठीक नहीं है / भगवान् तो अतिशय ज्ञानी हैं। उनका अनुकरण छद्मस्थों के लिए उचित नहीं है / अतएव शुभ तिथि आदि शुभ मुहूर्त में कार्यारम्भ करना उचित है। उक्त रीति से ग्रहादि की गति मनुष्यों के सुख-दुःख में निमित्तभूत होती है। 178. (अ) माणुसुत्तरे णं भंते ! पव्वए केवइयं उड्ढे उच्चत्तेणं ? केवइयं उब्वेहेणं ? केवइयं मूले विक्खंभेणं ? केवइयं सिहरे विक्खंभेणं ? केवइयं अंतो गिरिपरिरएणं ? केवइयं वाहि गिरिपरिरएणं ? केवइयं मज्ने गिरिपरिरएणं ? केवइयं उवरि गिरिपरिरएणं? गोयमा ! माणुसुत्तरे णं पम्वए सत्तरस एक्कवीसाइं जोयणसयाई उड्ढं उच्चत्तेणं, चत्तारि तीसे जोयणसए कोसं च उन्हेणं, मूले दसबावीसे जोयणसए विक्खंभेणं, मज्झे सत्ततेवीसे जोयणसए विक्खंभेणं, उवरि चत्तारिचउवीसे जोयणसए विक्खंभेणं, अंतो गिरिपरिरएणं एगा जोयणकोडी, बायालीसं च सयसहस्साइं तीसं च सहस्साइं, दोणि य अउणापणे जोयणसए किंचि विसेसाहिए परिक्खेवणं / बाहिरगिरिपरिरएणं-एगा जोयणकोडी, बायालीसं च सयसहस्साई छत्तीसं च सहस्साई सत्तचोइसोसरे जोयणसए परिक्खेवेणं / मज्झे गिरिपरिरएणं-एगा जोयणाकोडी बायालीस च सयसहस्साई चोत्तीसं च सहस्सा अट्ठतेवीसे जोयणसए परिक्खेवेणं / उवरि गिरिपरिरएणं एगा जोयणकोडी बायालीसं च सयसहस्साई बत्तीसं च सहस्साई नव य बत्तीसे जोयणसए परिक्खेवेणं / मूले विच्छिण्णे मज्झे संखित्ते उपि तणुए अंतो सण्हे मज्झे उदग्गे बाहिं दरिसणिज्जे ईसि सण्णिसण्णे Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जीवाजीवाभिगमसूत्र सोहणिसाइ, अवद्धजवरासिसंठाणसंठिए सव्वजंबूणयामए अच्छे, सण्हे जाव पडिलवे / उमओ पासि दोहि पउमवरवेइयाहिं दोहि य वणसंडेहि सव्वओ समंता संपरिविखत्ते, वण्णओ दोण्हवि // 178. (अ) हे भगवन् ! मानुषोत्तरपर्वत की ऊँचाई कितनी है ? उसकी जमीन में गहराई कितनी है ? वह मूल में कितना चौड़ा है ? मध्य में कितना चौड़ा है और शिखर पर कितना चौड़ा है ? उसकी अन्दर की परिधि कितनी है ? उसकी बाहरी परिधि कितनी है, मध्य में उसकी परिधि कितनी है और ऊपर की परिधि कितनी है ? / गौतम ! मानुषोत्तरपर्वत 1721 योजन पृथ्वी से ऊँचा है। 430 योजन और एक कोस पृथ्वी में गहरा है / यह मूल में 1022 योजन चौड़ा है, मध्य में 723 योजन चौड़ा और ऊपर 424 योजन चौड़ा है। पृथ्वी के भीतर की इसकी परिधि एक करोड़ बयालीस लाख तीस हजार दो सौ उनपचास (1,42,30,249) योजन है। बाह्यभाग में नीचे की परिधि एक करोड़ बयालीस लाख, छत्तीस हजार सात सौ चौदह (1,42,36,714) योजन है। मध्य में एक करोड़ बयालीस लाख चौंतीस हजार आठ सौ तेईस (1,42,34,823) योजन को है। ऊपर की परिधि एक करोड़ बयालीस लाख बत्तीस हजार नौ सौ बत्तीस (1,42,32,932) योजन की है। - यह पर्वत मूल में विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त और ऊपर पतला (संकुचित) है। यह भीतर से चिकना है, मध्य में प्रधान (श्रेष्ठ) और बाहर से दर्शनीय है / यह पर्वत कुछ बैठा हुआ है अर्थात् जैसे सिंह अपने आगे के दोनों पैरों को लम्बा करके पीछे के दोनों पैरों को सिकोड़कर बैठता है, उस रीति से बैठा हुआ है। (शिरःप्रदेश में उन्नत और पिछले भाग में निम्न निम्नतर है। इसी को और स्पष्ट करते हैं कि) यह पर्वत प्राधे यव की राशि के आकार में रहा हुआ है (उर्ध्व-अधोभाग से छिन्न और मध्यभाग में उन्नत है)। यह पर्वत पूर्णरूप से जांबूनद (स्वर्ण) मय है, अाकाश और स्फटिकमणि की तरह निर्मल है, चिकना है यावत् प्रतिरूप है। इसके दोनों ओर दो पद्मवरवेदिकाएं और दो वनखण्ड इसे सब ओर से घेरे हुए स्थित हैं। दोनों का वर्णनक कहना चाहिए। 178. (आ) से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ-माणुसुत्तरे पन्वए माणुसुत्तरे पव्वए ? ___ गोयमा ! माणुसुत्तरस्स णं पव्वयस्स अन्तो मणुया उपि सुवण्णा बाहि देवा / अवुत्तरं च णं गोयमा ! माणुसुत्तरपध्वयं मणुया ण कयावि वीइवइंसु वा वीइवयंति वा वीइवइस्संति वा णण्णत्थ चारोह वा विज्जाहरेहिं वा देवकम्मुणा वा वि, से तेणठेणं गोयमा ! 0 अदुत्तरं च णं जाव णिच्चे त्ति। जावं च णं माणुसुत्तरे पब्बए तावं च णं अस्सि लोए त्ति पवुच्चइ जावं च णं वासाई वा वासधराई वा तावं च णं अस्सि लोए ति पवुच्चइ जावं च णं गेहाई वा गेहावयणाइ वा तावं च णं अस्सि लोए ति पवुच्चइ, जावं च णं गामाइ वा जाव रायहाणीइ वा तावं च णं अस्सि लोए त्ति पवुच्चइ, जावं च णं परहंता चक्कवट्टी बलदेवा वासुदेवा पडिवासुदेवा चारणा विज्जाहरा समणा समणीप्रो सावया सावियाओ मणुया पगइभद्दगा विणीया तावं च गं अस्सि लोए त्ति पवुच्चइ / जावं च णं समयाइ वा आवलियाइ वा आणपाणुइ वा थोवाइ वा लवाइ वा मुहत्ताइ वा दिवसाइ वा अहोरत्ताइ वा पक्खाइ वा मासाइ वा उऊइ वा अयणाइ वा संवच्छराइ वा जुगाइ वा वाससयाइ वा वाससहस्साइ वा वाससयसहस्साइ वा पुटवंगाइ वा पुष्योइ वा तुडियंगाइ वा Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयक्षेत्र (मनुष्यक्षेत्र) का वर्णन एवं पुग्वे तुडिए अड्डे अववे हहुकए उप्पले पउमे लिणे अच्छिनिउरे अउए पउए णउए चूलिया सीसपहेलिया जाव य सीसपहेलियंगेइ वा सोसपहेलियाइ वा पलिओवमेइ वा सागरोवमेइ वा अवसप्पिणीइ वा ओसप्पिणीइ वा तावं च णं अस्सिं लोए पवुच्चइ। 69789 जावं च णं बादरे विज्जकारे बायरे थणियसद्दे तावं च णं अस्सि लोए पवुच्चइ, जावं च णं बहवे पोराला बलाहका संसेयंति संमुच्छंति वासं वासंति तावं च णं अस्सि लोए पवुच्चइ, जावं च णं बायरे तेउकाए तावं च णं अस्सि लोए पयुच्चइ, जावं च णं आगराई वा नदीउद वा निहीइ वा तावं च णं अस्सि लोएत्ति पवुच्च; जावं च णं अगडाइ वा पईत्ति वा तावं च णं अस्सि लोए. जावं च णं चंदोवरागाइ वा सूरोवरागाइ वा चंदपरिएसाइ वा सूरपरिएसाइ वा पडिचंदाइ वा पडिसूराइ वा इंदधणूइ वा उदगमच्छेइ वा कपिहसियाइ वा तावं च णं अस्सि लोएत्ति पवुच्चइ / जावं च णं चंदिमसूरियगहणक्खत्ततारारूवाणं अभिगमण-णिग्गमण-वुडि-णिव्वुड्डि-अणवट्टियसंठाणसंठिई आघविज्ज इ तावं च णं अस्सि लोए पवृच्चइ / / 178. (आ) हे भगवन् ! यह मानुषोत्तरपर्वत क्यों कहलाता है ? गौतम ! मानुषोत्तर पर्वत के अन्दर-अन्दर मनुष्य रहते हैं, इसके ऊपर सुपर्णकुमार देव रहते हैं और इससे बाहर देव रहते हैं। गौतम ! दूसरा कारण यह है कि इस पर्वत के बाहर मनुष्य (अपनी शक्ति से ) न तो कभी गये हैं, न कभी जाते हैं और न कभी जाएंगे, केवल जंघाचारण और विद्याचारण मुनि तथा देवों द्वारा संहरण किये मनुष्य ही इस पर्वत से बाहर जा सकते हैं / इसलिए यह पर्वत मानुषोत्तरपर्वत कहलाता है / ' अथवा हे गौतम ! यह नाम शाश्वत होने से अनिमित्तिक है। जहां तक यह मानुषोत्तरपर्वत है वहीं तक यह मनुष्य-लोक है (अर्थात् मनुष्यलोक में हो वर्ष, वर्षधर, गृह आदि हैं इससे बाहर नहीं / आगे सर्वत्र ऐसा ही समझना चाहिए।) जहां तक भरतादि क्षेत्र और वर्षधर पर्वत हैं वहां तक मनुष्यलोक है। जहां तक घर या दुकान आदि हैं वहां तक मनुष्यलोक है। जहां तक ग्राम यावत् राजधानी है, वहां तक मनुष्यलोक है। जहां तक अरिहन्त, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, प्रतिवासुदेव, जंघाचारण मुनि, विद्याचारण मुनि, श्रमण, श्रमणियां, श्रावक, श्राविकाएं और प्रकृति से भद्र विनीत मनुष्य हैं, वहां तक मनुष्यलोक है / / जहां तक समय, प्रावलिका, आन-प्राण (श्वासोच्छवास), स्तोक (सात श्वासोच्छ्वास), लव (सात स्तोक), मुहूर्त, दिन, अहोरात्र, पक्ष, मास, ऋतु (दो मास), अयन (छः मास), संवत्सर (वर्ष,) युग (पांच वर्ष), सौ वर्ष, हजार वर्ष, लाख वर्ष, पूर्वांग, पूर्व, त्रुटितांग, त्रुटित, इसी क्रम से अड्ड, अवव, हूहुक, उत्पल, पद्म, नलिन, अर्थनिकुर (अच्छिणेउर), अयुत, प्रयुत, नयुत, चूलिका, शीर्षप्रहेलिका, पल्योपम, सागरोपम, अवसर्पिणी और उत्सपिणी काल है, वहां तक मनुष्यलोक है। जहां तक बादर विद्युत प्रौर बादर स्तनित (मेघगर्जन) है, जहां तक बहुत से उदार-बड़े मेघ उत्पन्न होते हैं, सम्मूछित होते हैं (बनते-बिखरते हैं), वर्षा बरसाते हैं, वहां तक मनुष्यलोक है। जहां तक बादर तेजस्काय (अग्नि) है, वहां तक मनुष्यलोक है। जहां तक खान, नदियां और निधियां हैं, कुए, तालाब आदि हैं, वहां तक मनुष्यलोक है। 1. मनुष्याणामुत्तर:--परः इति मानुषोत्तरः। -वृत्ति Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52] [जीवाजीवाभिगमसूत्र जहां तक चन्द्रग्रहण, सूर्यग्रहण, चन्द्रपरिवेष, सूर्यपरिवेष, प्रतिचन्द्र, प्रतिसूर्य, इन्द्रधनुष, उदकमत्स्य और कपिहसित आदि हैं, वहां तक मनुष्यलोक है / जहां तक चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और ताराओं का अभिगमन, निर्गमन, चन्द्र की वृद्धि-हानि तथा चन्द्रादि की सतत गतिशीलता रूप स्थिति कही जाती है, वहां तक मनुष्यलोक है। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में कहा गया है कि जहां तक भरतादि वर्ष (क्षेत्र), वर्षधर पर्वत, घर दुकान-मकान, ग्राम, नगर, राजधानी, अरिहंतादि श्लाघ्य पुरुष, प्रकृतिभद्रिक विनीत मनुष्यादि, समय आदि का व्यवहार, विद्युत, मेघगर्जन, मेघोत्पत्ति, बादर अग्नि, खान, नदियां, निधियाँ, कुएतालाब तथा आकाश में चन्द्र-सूर्यादि का गमनादि है, वहां तक मनुष्यलोक है। इसका फलितार्थ यह है कि उक्त सब का अस्तित्व मनुष्यलोक में ही है। मनुष्यलोक से बाहर उक्त सबका अस्तित्व नहीं है। मनुष्यलोक की सीमा करने वाला होने से मानुषोत्तरपर्वत, मानुषोत्तरपर्वत कहलाता है। मानुषोत्तरपर्वत से परे--बाहर की ओर उक्त सब पदार्थों और व्यवहारों का सद्भाव नहीं है / प्रस्तुत सूत्र में आये हुए कालचक्र के सम्बन्ध में स्पष्टीकरण आवश्यक है अतः उसका संक्षेप में निरूपण किया जाता है-- काल का सबसे सूक्ष्म अंश, जिसका फिर विभाग न हो सके, वह समय कहा जाता है। इसकी सूक्ष्मता को समझाने के लिए शास्त्रकारों ने एक स्थूल उदाहरण दिया है / जैसे कोई तरुण, बलवान्, हृष्टपुष्ट, स्वस्थ और निपुण कलाकुशल दर्जी का पुत्र किसी जीर्ण-शीर्ण शाटिका (साड़ी) को हाथ में लेते ही एकदम बिना हाथ फैलाये शीघ्र ही फाड़ देता है। देखने वालों को ऐसा प्रतीत होता है कि इसने पलभर में साड़ी को फाड़ दिया है, परन्तु तत्त्वदृष्टि से उस साड़ी को फाड़ने में असंख्यात समय लगे हैं। साड़ी में अगणित तन्तु है। ऊपर का तन्तु फटे बिना नीचे का तन्तु नहीं फट सकता है। यह मानना पडता है कि प्रत्येक तन्तु के फटने का काल अलग-अलग है। वह तन्तु भी कई रेशों से बना होता है / वे रेशे भी क्रम से ही फटते हैं / अतएव साड़ी के उपरितन तन्तु के उपरितन रेशे के फटने में जितना समय लगा उससे भी बहुत सूक्ष्मतर समय कहा गया है। जघन्ययुक्तासंख्यात समयों की एक प्रावलिका होती है। संख्येय आवलिकाओं का एक उच्छ्वास होता है और संख्येय प्रावलिकाओं का एक निःश्वास होता है। एक उच्छ्वास और एक निःश्वास मिलकर एक आन-प्राण होता है / तात्पर्य यह है कि एक हृष्ट और नीरोग व्यक्ति श्रम और बुभुक्षा आदि से रहित अवस्था में स्वाभाविक रूप से जो श्वासोच्छ्वास लेता है, वह एक श्वासोच्छ्वास का काल आन-प्राण कहलाता है। सात प्रान-प्राणों का एक स्तोक और सात स्तोकों का एक लव 1. हट्ठस्स प्रणवगल्लस निरूवकिट्ठस्स जन्तुणो / एगे उसासनीसासे एस पाणुत्ति वुच्चइ / / 1 / / सत्त पाणूणि से थोवे सत्त थोवाणि से लवे / लवाणं सत्तहत्तरिए एस' मुहत्ते वियाहिए।॥२॥ एगा कोडी सत्तट्ठी लक्खा सत्तत्तरी सहस्सा य / दो य सया सोलहिया प्रावलियाण मुहत्तम्मि // 3 // तिन्नि सहस्सा सत्तय सयाइं तेवत्तरिं च ऊसासा। एस मुहत्तो भणियो सव्वेहिं प्रणतणाणीहि // 4 // Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयक्षेत्र (मनुष्यक्षेत्र) का वर्णन] [53 होता है / 77 लवों का एक मुहूर्त होता है / एक मुहूर्त में एक करोड़ सड़सठ लाख सतत्तर हजार दो सौ सोलह (1,67,77,216) प्रावलिकाएं होती हैं। एक मुहूर्त में तीन हजार सात सौ तिहत्तर (3773) उच्छ्वास होते हैं / तीस मुहूतों का एक अहोरात्र, पन्द्रह अहोरात्र का एक पक्ष, दो पक्षों का एक मास, दो मास की एक ऋत होती है। जैन सिद्धान्तानुसार प्रावट, वर्षा, शरद, हेमन्त, वसन्त और ऋतुएं हैं / ' प्राषाढ और श्रावण मास प्रावृट् ऋतु है, भाद्रपद-आश्विन वर्षाऋतु, कार्तिक-मृगशिर शरद ऋतु, पौष-माध हेमन्तऋतु, फाल्गुन-चैत्र वसन्तऋतु और वैशाख-ज्येष्ठ ग्रीष्मऋतु है। तीन ऋतुओं का एक अयन, दो अयन का एक संवत्सर (वर्ष), पांच संवत्सर का एक युग, वीस युग का सौ वर्ष / पूर्वाचार्यों ने एक अहोरात्र, एक मास और एक वर्ष में जितने उच्छ्वास होते हैं, उनका संकलन इन गाथाओं में किया है एगच सयसहस्सं ऊसासाणं तु तेरस सहस्सा। मउयसएण अहिया दिवस-निसि होंति विन्नेया // 1 // मासे वि य उस्सासा लक्खा तित्तीस सहसपणनउइ। सत्त सयाई जाणसु कहियाई पूण्वसूरीहिं // 2 // चत्तारि य कोडोप्रो लक्खा सत्तेब होति नायव्वा / अडयालीस सहस्सा चार सया होंति वरिसेणं // 3 // एक लाख तेरह हजार नौ सौ (1,13,900) उच्छ्वास एक दिन में होते हैं / तेतीस लाख पंचानवै हजार सात सौ (33,95,700) उच्छ्वास एक मास में होते हैं। चार करोड़ सात लाख अडतालीस हजार चार सौ (4,07,48,400) उच्छ्वास एक वर्ष में होते हैं। दस सौ वर्ष का हजार वर्ष और सौ हजार वर्ष का एक लाख वर्ष होते हैं / 84 लाख वर्ष का एक पूर्वाग, 84 लाख पूर्वांग का एक पूर्व होता है / 84 लाख पूर्वो का एक त्रुटितांग, 84 लाख त्रुटितांगों का एक त्रुटित; 84 लाख श्रुटितों का एक अड्डांग, 84 लाख अड्डांगों का एक अड्ड, 84 लाख अड्डों का एक अवधांग 84 लाख अववांगों का एक प्रवव, 84 लाख अववों का एक हूहुकांग, 84 लाख हूहुकांगों का एक हुहुक, 84 लाख हुहुकों का एक उत्पलांग, 84 लाख उत्पलांगों का एक उत्पल, 84 लाख उत्पलों का एक पद्मांग, 1. "प्राषाढाद्या ऋतवः इतिवचनात / ये त्वभिदधति वसन्ताद्या ऋतवः तदप्रमाणमवसातव्यम जनमतोत्तीर्णत्वात्।" -इति वृत्तिः / Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54] [जीवाजीवाभिगमसूत्र 84 लाख पद्मांगों का एक पद्म, 84 लाख पनों का एक नलिनांग, 84 लाख नलिनांगों का एक अर्थनिकुरांग, 84 लाख अर्थनिकुरांगों का एक नलिन, 84 लाख नलिनों का एक अर्थनिकुर, 84 लाख अर्थनिकुरों का एक प्रयुतांग, 84 लाख अयुतांगों का एक अयुत, 84 लाख अयुतों का एक प्रयुतांग, 84 लाख प्रयुतांगों का एक प्रयुत, 84 लाख प्रयुतों का एक नयुतांग, 84 लाख नयुतांगों का एक नयुत, 84 लाख नयुतों का एक चूलिकांग, 84 लाख चूलिकांगों की एक चूलिका, 84 लाख चूलिकात्रों का एक शीर्षप्रहेलिकांग, 84 लाख शीर्षप्रहेलिकांगों की एक शीर्षप्रहेलिका / इस प्रकार समय से लगाकर शीर्षप्रहेलिकापर्यन्त काल ही गणित का विषय है। इससे आगे का काल उपमाओं से ज्ञेय होने से औपमिक है। पल्य की उपमा से ज्ञेय काल पल्योपम है और सागर की उपमा से ज्ञेय काल सागरोपम है / पल्योपम और सागरोपम का वर्णन पहले किया जा चुका है। दस कोडाकोडी पल्योपम का एक सागरोपम होता है / दस कोडाकोडी सागरोपम का एक अवसर्पिणी काल होता है। इतने ही समय का एक उत्सर्पिणी काल होता है। एक अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल अर्थात् बीस कोडाकोडी सागरोपम का एक कालचक्र होता है। उक्त कालचक्र का व्यवहार मनुष्यलोक में ही है / क्योंकि कालद्रव्य मनुष्यक्षेत्र में ही है।। वृत्तिकार ने अरिहंतादि पाठ के बाद विद्युत्काय उदार बलाहक आदि पाठ की व्याख्या की है और इसके बाद समयादि की व्याख्या की है। इससे प्रतीत होता है कि वृत्तिकार के सामने जो प्रति थी उसमें इसी क्रम से पाठ का होना संभक्ति है। किन्तु क्रम का भेद है अर्थ का भेद नहीं है। 179. अंतो गं भंते ! मणुस्सखेत्तस्स जे चंदिमसूरियगहगणनक्खत्ततारारूवा ते गं भंते ! देवा कि उड्डोववण्णगा कप्पोववण्णगा विमाणोववण्णगा चारोववण्णगा चारद्वितीया गतिरइया गइसमावण्णगा? गोयमा ! ते णं देवा जो उड्ढोषवण्णगा णो कप्पोववण्णगा विमाणोववण्णगा चारोववण्णग्गा नो चारदिईया गतिरतिया गतिसमावण्णगा उडमुहकलंबुयपुप्फसंठाणसंठिएहि जोयणसाहस्सीएहि तावखेहि साहस्सोयाहि बाहिरियाहिं वेउग्वियाहिं परिसाहिं महयाहयनट्टगीतवाइततंतोतालतुडियघणमुइंगपडुप्पवादिरवेणं दिव्वाई भोगभोगाइं भुजमाणा महया उक्किट्ठसोहणायबोलकलकलसद्देणं विउलाई भोगभोगाई भुजमाणा अच्छ य पन्धयरायं पयाहिणावत्तमंडलयार मेरु अणुपरियइंति / .. तेसि णं भंते ! देवाणं इंदे चवइ से कहमिदाणि पकरेंति ? Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयक्षेत्र (मनुष्यक्षेत्र) का वर्णन] गोयमा ! ताहे चत्तारि पंच सामाणिया तं ठाणं उवसंपज्जित्ताणं विहरंति जाव तत्थ अन्ने ईवे उववष्णे भवइ। इंवट्ठाणे णं भंते ! केवइयं कालं विरहिए उववएणं? गोयमा ! जहण्णणं एवकं समयं उक्कोसेणं छम्मासा / बहिया णं भंते ! भणुस्सखेत्तस्स जे चंदिमसूरियगहणक्खत्ततारारूवा ते गं भंते ! देवा कि उड्डोववण्णगा कप्पोववण्णगा विमाणोववाणगा चारोववण्णगा चारद्वतीया गतिरतिया गतिसमावण्णगा? गोयमा ! ते णं देवा णो उड्डोवण्णगा नो कप्पोववष्णगा विमाणोबवण्णगा, नो चारोववण्णगा चारदिईया, नो गतिरतिया नो गतिसमावण्णगा पक्किट्टगसंठाणसंठिएहि जोयणसयसाहस्सिहि तावक्खेतहिं साहस्सियाहि य बाहिराहि वेउब्वियाहिं परिसाहिं महयाहयनट्रगीयवाइयरवेणं दिव्याई भोगभोगाई भुजमाणा सुहलेस्सा सीयलेस्सा मंदलेस्सा मंदायवलेस्सा, चित्तंतरलेसागा, कूडा इव ठाणट्ठिया अण्णोण्णसमोगाढाहिं लेसाहि ते पएसे सवओ समंताओभासेंति उज्जोवेति तर्वेति पभार्सेति / जया णं भंते ! तेसि देवाणं इंदे चयइ, से कहमिदाणि पकरेंति ? गोयमा ! जाव चत्तारि पंच सामाणिया तं ठाणं उवसंपज्जित्ताणं विहरति जाव तत्थ अण्णे उववण्णे भयह। इंवट्ठाणे णं भंते ! केवइयं कालं विरहओ उववाएणं ? गोयमा ! जहण्णेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं छम्मासा। 179. भदन्त ! मनुष्यक्षेत्र के अन्दर जो चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारागण हैं, वे ज्योतिष्क देव क्या ऊर्ध्वविमानों में (बारह देवलोक से ऊपर के विमानों में) उत्पन्न हुए हैं या सौधर्म आदि कल्पों में उत्पन्न हुए हैं या (ज्योतिष्क) विमानों में उत्पन्न हुए हैं ? वे गतिशील हैं या गतिरहित हैं ? गति में रति करने वाले हैं और गति को प्राप्त हुए हैं ? ___ गौतम ! वे देव ऊर्ध्वविमानों में उत्पन्न हुए नहीं हैं, बारह देवकल्पों में उत्पन्न हुए नहीं हैं, किन्तु ज्योतिष्क विमानों में उत्पन्न हुए हैं। वे गतिशील हैं, स्थितिशील नहीं हैं, गति में उनकी रति है और वे गतिप्राप्त हैं / वे ऊर्ध्वमुख कदम्ब के फूल की तरह गोल आकृति से संस्थित हैं हजारों योजन प्रमाण उनका तापक्षेत्र है, विक्रिया द्वारा नाना रूपधारी बाह्य पर्षदा के देवों से ये युक्त हैं। जोर से बजने वाले वाद्यों, नृत्यों, गीतों, वादित्रों, तंत्री, ताल, त्रुटित, मृदंग आदि की मधुर ध्वनि के साथ दिव्य भोगों का उपभोग करते हुए, हर्ष से सिंहनाद, बोल (मुख से सीटी बजाते हुए) और कलकल ध्वनि करते हुए, स्वच्छ पर्वतराज मेरु की प्रदक्षिणावर्त मंडलगति से परिक्रमा करते रहते हैं। भगवन् ! जब उन ज्योतिष्क देवों का इन्द्र च्यवता है तब वे देव इन्द्र के विरह में क्या करते हैं ? गौतम ! चार-पांच सामानिक देव सम्मिलित रूप से उस इन्द्र के स्थान पर तब तक कार्यरत रहते हैं तब जक कि दूसरा इन्द्र वहां उत्पन्न हो। भगवन् ! इन्द्र का स्थान कितने समय तक इन्द्र की उत्पत्ति से रहित रहता है ? गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह मास तक इन्द्र का स्थान खाली रहता है। Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जीवाजोवाभिगमसूत्र भदन्त ! मनुष्यक्षेत्र से बाहर के चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारा रूप ये ज्योतिष्क देव क्या ऊवोपपन्न हैं, कल्योपपन्न हैं, विमानोपपन्न हैं, गतिशील हैं या स्थिर हैं, गति में रति करने वाले हैं और क्या गति प्राप्त हैं ? गौतम ! वे देव ऊोपपन्नक नहीं हैं, कल्पोपपन्नक नहीं हैं, किन्तु विमानोपपन्नक हैं। वे गतिशील नहीं हैं, वे स्थिर हैं, वे गति में रति करने वाले नहीं हैं, वे गति-प्राप्त नहीं हैं / वे पकी हुई ईंट के आकार के हैं, लाखों योजन का उनका तापक्षेत्र है। वे विकुर्वित हजारों बाह्य परिषद् के देवों के साथ जोर से बजने वाले वाद्यों, नृत्यों, गीतों और वादित्रों की मधुर ध्वनि के साथ दिव्य भोगोपभोगों का अनुभव करते हैं / वे शुभ प्रकाश वाले हैं, उनकी किरणें शीतल और मंद (मृदु) हैं, उनका आतप और प्रकाश उग्र नहीं है, विचित्र प्रकार का उनका प्रकाश है / कूट (शिखर) की तरह ये एक स्थान पर स्थित हैं। इन चन्द्रों और सूर्यों आदि का प्रकाश एक दूसरे से मिश्रित है। वे अपनी मिली-जुली प्रकाश किरणों से उस प्रदेश को सब अोर से अवभासित, उद्योतित, तपित और प्रभासित करते हैं। भदंत ! जब इन देवों का इन्द्र च्यवित होता है तो वे देव क्या करते हैं ? गौतम ! यावत् चार-पांच सामानिक देव उसके स्थान पर सम्मिलित रूप से तब तक कार्यरत रहते हैं जब तक कि दूसरा इन्द्र वहां उत्पन्न हो। भगवन् ! उस इन्द्र-स्थान का विरह कितने काल तक होता है ? गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह मास तक इन्द्रस्थान इन्द्रोत्पत्ति से विरहित हो सकता है। . पुष्करोदसमुद्र की व्यक्तव्यता __ 180. (अ) पुखरवरं गं दीवं पुक्खरोदे णामं समुद्दे बट्टे वलयागारसंठाणसंठिए जाव संपरिक्खित्ताणं चिट्ठइ / पुक्खरोदे णं भंते ! समुद्दे केवइयं चक्कवालविक्खंभेणं केवइयं परिक्खेवेणं पण्णते ? गोयमा ! संखेज्जाई जोयणसयसहस्साई चक्कवालविक्खंभेणं संखेज्जाई जोयणसयसहस्साई परिक्खेवेणं पण्णते। पुक्खरोदस्स णं समुद्दस्स कति दारा पण्णता? गोयमा ! चत्तारि दारा पण्णत्ता, तहेव सव्वं पुक्खरोदसमुद्दपुरस्थिमपेरंते वरुणवरदीवपुरस्थिमद्धस्स पच्चत्थिमेणं एत्थ णं पुक्खरोबस्स विजए नामं वारे पण्णत्ते, एवं सेसाणवि। दारंतरम्मि संखेन्जाइं जोयणसयसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते / पदेसा जीवा य तहेव / से केणठेणं भंते ! एवं बुच्चइ पुक्खरोदे पुक्खरोदे ? गोयमा ! पुक्खरोदस्स णं समुदस्स उदगे अच्छे पत्थे जच्चे तणुए फलिहवण्णाभे पगईए उदगरसेणं सिरिधर-सिरिप्पभा य दो देवा जाव महिड्ढिया जाव पलिओवमट्टिइया परिवसंति / से एतेणठेणं जाव णिच्चे। Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्करोदसमुद्र को व्यक्तव्यता] [57 पुक्खरोदे गं भंते ! समुद्दे केवइया चंदा पभासिसु वा 3 ? संखेज्जा चंदा पभासेंसु वा 3 जाव तारागणकोडीकोडीओ सो सु वा 3 / 180. (अ) गोल और वलयाकार संस्थान से संस्थित पुष्करोद नाम का समुद्र पुष्करवरद्वीप को सब प्रोर से घेरे हुए स्थित है। भगवन् ! पुष्करोदसमुद्र का चक्रवालविष्कंभ कितना है और उसकी परिधि कितनी है ? गौतम ! संख्यात लाख योजन का उसका चक्रवालविष्कभ है और संख्यात लाख योजन की हो उसकी परिधि है / (वह पुष्करीद एक पद्मवरवेदिका और एक वनखण्ड से सब अोर से घिरा हुआ है।) भगवन् ! पुष्करोदसमुद्र के कितने द्वार हैं ? गौतम ! चार द्वार हैं आदि पूर्ववत् कथन करना चाहिए यावत् पुष्करोदसमुद्र के पूर्वी पर्यन्त में और वरुणवरद्वीप के पूर्वार्ध के पश्चिम में पुष्करोदसमुद्र का विजयद्वार है (जम्बूद्वीप के विजयद्वार की तरह सब कथन करना चाहिए / ) यावत् राजधानी अन्य पुष्करोदसमुद्र में कह्नी चाहिए। इसी प्रकार शेष द्वारों का भो कथन कर लेना चाहिए। इन द्वारों का परस्पर अन्तर संख्यात लाख योजन का है। प्रदेशस्पर्श संबंधी तथा जीवों की उत्पत्ति का कथन भी पूर्ववत् कह लेना चाहिए। भगवन् ! पुष्करोदसमुद्र, पुष्करोदसमुद्र क्यों कहा जाता है ? गौतम ! पुष्करोदसमुद्र का पानी स्वच्छ, पथ्यकारी, जातिवंत (विजातीय नहीं), हल्का, स्फटिकरत्न को प्राभा वाला तथा स्वभाव से ही उदकरस वाला (मधुर) है। श्रीधर और श्रीप्रभ नाम के दो महद्धिक यावत् पत्योपम की स्थिति वाले देव वहां रहते हैं। इससे उसका जल वैसे ही सुशोभित होता है जैसे चन्द्र-सूर्य और ग्रह-नक्षत्रों से प्राकाश सुशोभित होता है / ) इसलिए पुष्करोद, पुष्करोद कहलाता है यावत् वह नित्य होने से अनिमित्तिक नाम वाला भी है। भगवन् ! पुष्करोदसमुद्र में कितने चन्द्र प्रभासित होते थे, होते हैं और होंगे आदि प्रश्न पूर्ववत् करना चाहिए ? गौतम ! संख्यात चन्द्र प्रभासित होते थे, होते हैं और होंगे प्रादि पूर्ववत् कथन करना चाहिए यावत् संख्यात कोटि-कोटि तारागण वहां शोभित होते थे, होते हैं और शोभित होंगे। 180, (आ) पुक्खरोदे गं समुद्दे वरुणवरेणं दीवेणं संपरिक्खित्ते वट्टे वलयागारे जाव चिट्ठइ, तहेव समचक्कवालसंठिए। केवइयं चक्कवालविक्खंभेणं ? केवइयं परिक्खेवेणं पण्णते ? गोयमा! संखेज्जाई जोयणसयसहस्साइं चक्कवालविक्खंभेणं संखेज्जाई जोयणसयसहस्साई परिक्खेवेणं पण्णत्ते, पउमवरवेइयावणसंडवण्णनो / दारंतरं, पएसा, जीवा तहेव सव्वं / से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ-वरुणवरे दीवे वरुणवरे दीवे ? Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जीवाजीवाभिगमसूत्र गोयमा ! वरुणवरे दीवे तत्थ-तत्थ देसे-देसे तहि-तहिं बहुमो खड्डा-खुड्डियागो जाव बिलपंतियाओ अच्छाप्रो पत्तेयं-पत्तेयं पउमवरवेइयावनसंडपरिक्खित्ताओ वारुणिवरोदगपडिहत्थाओ पासाईयानो 4 / तासु खुड्डा-खुड्डियासु जाव बिलपंतियासु बहवे उप्पायपव्वया जाव णं हडहडगा सन्वफलियामया अच्छा तहेव वरुणवरुणप्पभा य एत्य दो देवा महिड्डिया परिवसंति, से तेणठेणं जाव णिच्चे। जोतिसं सव्वं संखेज्जगणं जाव तारागणकोडीओ। 180. (आ) गोल और वलयाकार पुष्करोद नाम का समुद्र वरुणवरद्वीप से चारों ओर से घिरा हुआ स्थित है / पूर्ववत् कथन करना चाहिए यावत् वह समचक्रवालसंस्थान से संस्थित है। भगवन् ! उसका चक्रवालविष्कंभ और परिधि कितनी है ? गौतम ! वरुणवरद्वीप का विष्कंभ संख्यात लाख योजन का है और संख्यात लाख योजन की उसकी परिधि है / उसके सब ओर एक पद्मवरवेदिका और वनखण्ड है / पद्मवरवेदिका और वनखण्ड का वर्णन कहना चाहिए। द्वार, द्वारों का अन्तर, प्रदेश-स्पर्शना, जीवोत्पत्ति आदि सब पूर्ववत् कहना चाहिए। भगवन् ! वरुणवरद्वीप, वरुणवरद्वीप क्यों कहा जाता है ? गौतम ! वरुणवरद्वीप में स्थान-स्थान पर यहां-वहां बहुत सी छोटी-छोटी बावड़ियां यावत् बिल-पंक्तियां हैं, जो स्वच्छ हैं, प्रत्येक पद्मवरवेदिका और वनखण्ड से परिवेष्टित हैं तथा श्रेष्ठ वारुणी के समान जल से परिपूर्ण हैं यावत् प्रासादिक दर्शनीय अभिरूप और प्रतिरूप हैं। उन छोटी-छोटी बावड़ियों यावत् बिलपंक्तियों में बहुत से उत्पातपर्वत यावत् खडहडग हैं जो सर्वस्फटिकमय हैं, स्वच्छ हैं आदि वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए / वहां वरुण और वरुणप्रभ नाम के दो महद्धिक देव रहते हैं, इसलिए वह वरुणवरद्वीप कहलाता है। अथवा वह वरुणवरद्वीप शाश्वर उसका यह नाम भी नित्य और अनिमित्तिक है। वहां चन्द्र-सूर्यादि ज्योतिष्कों की संख्या संख्यातसंख्यात कहनी चाहिए यावत् वहां संख्यात कोटोकोटी तारागण सुशोभित थे, हैं और होंगे। 180. (इ) वरुणवरं णं दीवं वरुणोदे णामं समुद्दे वट्टे वलयागारसंठाणसंठिए जाव चिटुइ / समचक्कवालसंठाणसंठिए, नो विसमचक्कवालसंठाणसंठिए। तहेव सव्वं भाणियव्यं / विक्खंभपरिक्खेवो संखिज्जाई जोयणसयसहस्साई पउमवरवेइया वणसंडे दारंतरे य पएसा जीवा अट्ठो। गोयमा ! वारुणोदस्स णं समुद्दस्स उदए से जहाणामए चंदप्पभाइ वा मणिसिलागाइ वा वरसीधु-वरवारुणीइ वा पत्तासवेइ वा पुफ्फासवेइ वा चोयासवेइ वा फलासवेइ वा महुमेरएइ वा जाइप्पसन्नाइ वा खज्जूरसारेइ वा मुद्दियासारेइ वा कापिसायणाइ वा सुपक्कखोयरसेइ वा पभूयसंभारसंचिया पोसमाससतभिसयजोगवत्तिया निरुवहतमविसिदिन्नकालोवयारा सुधोया उक्कोसगमयपत्ता अट्ठपिट्ठनिट्ठिया जंबूफलकालिवरप्पसन्ना प्रासला मासला पेसला ईसीओढावलंबिणी ईसीतंबच्छिकरणी ईसीवोच्छेया कडुआ, वण्णेणं उबवेया, गंधेणं उक्वेया, रसेणं उववेया फासेणं उववेया प्रासायणिज्जा विस्सायणिज्जापोणणिज्जा दप्पणिज्जा मयणिज्जा सदिचदियगायपल्हायणिज्जा,' भवे एयारूवे सिया ? 1. प्रस्तुत पाठ में प्रतियों में बहुत पाठभेद हैं। वृत्तिकार के व्याख्यात पाठ को मान्य करते हुए हमने मूलपाठ दिया है। अन्य प्रतियों में 'अट्टपद्विणिट्टिया' के आगे ऐसा पाठ भी है [शेष अगले पृष्ठ पर Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्करोदसमुद्र की वक्तव्यता] गो इणठे समठे, वारुणस्स णं समुद्दस्स उदए एतो इट्ठतरे जाव उदए / से एएणद्वेणं एवं बुच्चइ / तत्य णं वारुणि-वारुणकंता देवा महिड्डिया जाव परिवति, से एएणठेणं जाव णिच्चे। वारुणिवरे णं दोवे कइ चंदा पभासिसु 3 ? सव्वं जोइससंखिज्जगेण णायव्वं / ' 180. (इ) वरुणोद नामक समुद्र, जो गोल और वलयाकार रूप से संस्थित है, वरुणवरद्वीप को चारों ओर से घेरकर स्थित है। वह वरुणोदसमुद्र समचक्रवालसंस्थान से संस्थित है, विषमचक्रवालसंस्थान से संस्थित नहीं है इत्यादि सब कथन पूर्ववत् कहना चाहिए / विष्कंभ और परिधि संख्यात लाख योजन की कहनी चाहिए। पद्मवरवेदिका, वनखण्ड , द्वार, द्वारान्तर, प्रदेशों की स्पर्शना, जीवोत्पत्ति और अर्थ सम्बन्धी प्रश्न पूर्ववत् कहना चाहिए। [भगवन् ! वरुणोदसमुद्र, वरुणोदसमुद्र क्यों कहलाता है ?] गौतम ! बरुणोदसमुद्र का पानी लोकप्रसिद्ध चन्द्रप्रभा नामक सुरा, मणिशलाकासुरा, श्रेष्ठ सीधुसुरा, श्रेष्ठ वारुणीसुरा, धातकीपत्रों का पासव, पुष्पासव, चोयासव, फलासव, मधु, मेरक, जातिपुष्प से वासित प्रसन्नासुरा, खजूर का सार, मृद्धीका (द्राक्षा) का सार, कापिशायनसुरा, भलीभांति पकाया हुआ इक्षु का रस, बहुत सी सामग्रियों से युक्त पौष मास में सैकड़ों वैद्यों द्वारा तैयार की गई, निरुपहत और विशिष्ट कालोपचार से निर्मित, पुनः पुनः धोकर उत्कृष्ट मादक शक्ति से युक्त, पाठ बार पिष्ट (पाटा) प्रदान से निष्पन्न, जम्बफल कालिवर प्रसन्न नामक सूरा, प्रास्वाद वाली गाढ पेशल (मनोज्ञ), अति प्रकृष्ट रसास्वाद वाली होने से शीघ्र ही अोठ को छूकर आगे बढ़ जाने वाली, नेत्रों को कुछ-कुछ लाल करने वाली, इलायची आदि से मिश्रित होने के कारण पीने के बाद थोड़ो कटुक(तीखी) लगने वाली, वर्णयुक्त, सुगन्धयुक्त, सुस्पर्शयुक्त, प्रास्वादनीय, विशेष आस्वादनीय, धातुओं को पुष्ट करने वाली, दोपनीय (जठराग्नि को दीप्त करने वाली), मदनीय (काम पैदा करने वाली) एवं सर्व इन्द्रियों और शरीर में आह्लाद उत्पन्न करने वाली सुरा आदि होती है, क्या वैसा वरुणोदसमुद्र का पानी है ? गौतम ! नहीं / वरुणोदसमुद्र का पानी इनसे भी अधिक इष्टतर, कान्ततर, प्रियतर, मनोज्ञतर और मनस्तुष्टि करने वाला है। इसलिए वह वरुणोदसमुद्र कहा जाता है। वहां वारुणि और वारुणकांत नाम के दो देव महद्धिक यावत् पल्योपम की स्थिति वाले रहते हैं। इसलिए भी वह वरुणोदसमुद्र कहा जाता है / अथवा हे गौतम ! वरुणोदसमुद्र (द्रव्यापेक्षया) नित्य है, वह सदा था, है और रहेगा इसलिए उसका यह नाम भी शाश्वत होने से अनिमित्तिक है। (अटुपिट्टपुट्ठा मुरवईतवरकिमंदिण्णकद्दमा कोपसन्ना अच्छा वरवारुणी अतिरसा जंबूफलपुटुबण्णा सुजाता ईसिउट्ठावलंबिणी अहियमधुरपेज्जा ईसीसिरतणेत्ता कोमलकवोलकरणी जाव प्रासादिया विसादिया अणिहुयसलावकरणहरिसपीइजणणी संतोसतक विबोक्क-हाव-बिब्भम-विलास-वेल्ल-हल-गमणकरणी विरणमधियसत्तजणणी य होइ संगाम देसकालेकथरणसमरपसरकरणी कढियाणविज्जुपयतिहिययाण मउयकरणी य' होइ उववेसिया समाणा गति खलावेति य सयलंमिवि सुभासवप्पालिया समरभग्गवणोसहयारसुरभिरसदीविया सुगंधा प्रासायणिज्जा विस्सायणिज्जा पीणणिज्जा दप्पणिज्जा मयणिज्जा सबिदियगायपल्हायणिज्जा / ) 1. 'सव्वं जोइससंखिज्जकेण णायब्वं वारुणवरे णं दीवे कई चंदा पभासिंसु वा 3' ऐसा प्रतियों में पाठ है। संगति की दृष्टि से उक्त पाठ दिया गया है। ---सम्पादक Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60] [जीवाजीवाभिगमसूत्र __ भगवन् ! वरुणोदसमुद्र में कितने चन्द्र प्रभासित होते थे, होते हैं और होंगे—इत्यादि प्रश्न करना चाहिए। गौतम ! वरुणोदसमुद्र में चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र, तारा आदि सब संख्यात-संख्यात कहने चाहिए। क्षीरवरद्वीप और क्षीरोदसमुद्र 181. वारुणवरं णं दीवं खीरवरे णामं दोवे वट्टे जाव चिट्ठइ / सव्वं संखेज्जगं विक्खंभो य परिक्खेवो य जाव अट्ठो। बहूओ खुड्डा-खुड्डियाओ वावीमो जाव सरसरपंतियाओ खोरोदग पडिहत्थाओ पासाईयाओ 4 / तासु णं खुड्डियासु जाव बिलपंतियासु बहवे उप्पायपन्धयगा० सम्वरयणामया जाव पडिरूवा / पुंडरोगपुक्खरवंता एस्थ दो देवा महिड्डिया जाव परिवसंति; से एएण→णं जाव णिच्चे जोतिसं सव्यं संखेज्ज। ___खीरवरं णं दीवं खीरोए णामं समुद्दे वट्टे वलयागारसंठाणसंठिए जाव परिक्खवित्ताणं चिइ समचक्कवालसंठिए नो विसमचक्कवालसंठिए, संखेज्जाई जोयणसयसहस्साई विक्खंभपरिक्खेवो तहेव सव्वं जाव अट्ठो। गोयमा ! खीरोयस्स णं समुदस्स उदगं' खंडगुडमच्छंडियोववेए रणो चाउरंतचक्कवट्टिस्स उवट्ठविए आसायणिज्जे विस्सायणिज्जे पोणणिज्जे जाव सव्विदियगायपल्हायणिज्जे जाव वणेणं उवचिए जाव फासेणं भवे एयारवे सिया? जो इणठे समझें। खीरोदस्स णं से उदए एतो इट्टयराए चेव जाव आसाएणं पण्णत्ते / विमलविमलप्पभा एत्थ दो देवा महिड्ढिया जाव परिवसंति / से तेणछैणं, संखज्ज चंदा जाव तारा। 181. वतुल और वलयाकार क्षीरवर नामक द्वीप वरुणवरसमुद्र को सब ओर से घेर कर रहा हुग्रा है / उसका विष्कंभ (विस्तार) और परिधि संख्यात लाख योजन की है आदि कथन पूर्ववत् कहना चाहिए यावत् नाम सम्बन्धी प्रश्न करना चाहिए / क्षीरवर नामक द्वीप में बहुत-सी छोटी-छोटी बावड़ियां यावत् सरसरपंक्तियां और बिलपंक्तियां हैं जो क्षीरोदक से परिपूर्ण हैं यावत् प्रतिरूप हैं / पुण्डरीक और पुष्करदन्त नाम के दो महद्धिक देव वहां रहते हैं यावत् वह शाश्वत है। उस क्षीरवर नामक द्वीप में सब ज्योतिष्कों की संख्या संख्यात-संख्यात कहनी चाहिए। उक्त क्षीरवर नामक द्वीप को क्षीरोद नामका समुद्र सब अोर से घेरे हुए स्थित है / वह वतल और वलयाकार है। वह समचक्रवालसंस्थान से संस्थित है, विषमचक्रवालसंस 1. अत्र एवंभूतोऽपि पाठः दृश्यते प्रतिषु परं टीकाकारेण न व्याख्यातं टीकामूलपाठयोर्महद्वैषम्यमत्रान्यत्रापि / "से जहाणामए-सुउसुहीमारुपण्णप्रज्जुणतरुगणसरसपत्तकोमलप्रस्थिग्गत्तणग्गपोंडगवरुच्छचारिणीण लवंगपत्तपुप्फपल्लवकक्कोलगसफल-रुक्खबहुगुच्छगुम्मकलियमलट्ठिमधुपयुरपिपपलीफलितवल्लिवरविवरचारिणीणं अप्पोदगपीतसइरस समभूमिभागणिभयसुहोसियाणं सुप्पेसियसुहात-रोगपरिवज्जिताणं णिरुवयसरीराणं कालप्पसविणीणं बितियततियसमप्पसूयाणं अंजणवरगवलवलयजलधरजच्चंणरिटूभमरपभूयसमप्पभाणं कुडदोहणाणं बद्धस्थिपत्थुयाणं रूढाणं मधुमासकाले संगहनेहो अज्जचातुरक्केव होज्ज तासिं खीरे मधुररस विवगच्छबहुदन्वसंपउत्ते पत्तेयं मंदग्मिसुकढिए पाउत्ते खंडगुड..."। Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घृतवर, घृतोद, क्षोदवर, क्षोदोद को वक्तव्यता] [61 संख्यात लाख योजन उसका विष्कंभ और परिधि है आदि सब वर्णन पूर्ववत् करना चाहिए यावत् नाम सम्बन्धी प्रश्न करना चाहिए कि क्षीरोद, क्षीरोद क्यों कहलाता है ? गौतम ! क्षीरोदसमुद्र का पानी चक्रवर्ती राजा के लिये तैयार किये गये गोक्षीर (खीर) जो चतु:स्थान-परिणाम परिणत है, शक्कर, गुड़, मिश्री आदि से अति स्वादिष्ट बताई गई है, जो मंदअग्नि पर पकायी गई है, जो आस्वादनीय, विस्वादनीय, प्रोणनीय यावत् सर्व-इन्द्रियों और शरीर को आह्लादित करने वाली है, जो वर्ण से सुन्दर है यावत् स्पर्श से मनोज्ञ है। (क्या ऐसा क्षीरोद का पानी है ?) गौतम ! नहीं, इससे भी अधिक इष्टतर यावत् मन को तृप्ति देने वाला है। विमल और विमलप्रभ नाम के दो महद्धिक देव वहां निवास करते हैं। इस कारण क्षीरोदसमुद्र क्षीरोदसमुद्र कहलाता है / उस समुद्र में सब ज्योतिष्क चन्द्र से लेकर तारागण तक संख्यात-संख्यात हैं। घृतवर, घृतोद, क्षोदवर, क्षोदोद की वक्तव्यता 182. (अ) खीरोदं गं समुदं घयवरे गामं दीवे वट्टे वलयागारसंठाणसंठिए जाव चिट्ठा समचक्कवालसंठाणसंठिए नो विसमचक्कवालसंठाणसंठिए, संखज्जविक्खंभपरिक्खेवे०पएसा जाव अट्ठो। गोयमा ! धयवरे णं दोवे तत्थ-तत्थ बहूओ खुड्डाखुड्डियानो बाबीओ जाब धयोदगपडिहत्थाओ उप्पायपव्वगा जाव खडहड० सव्वकंचणमया अच्छा जाव पडिरूवा। कणयकणयप्पभा एत्थ दो देवा महिड्डिया, चंदा संखेज्जा। घयवरं णं दीवं घयोदे णामं समुद्दे वट्टे वलयागारसंठाणसंठिए जाब चिटुइ समचक्क० तहेव दार पदेसा जीवा य अट्ठो? गोयमा ! घयोदस्स गं समुदस्स उदए-से जहाणामए पप्फुल्लसल्लइविमुक्कल कणियारसरसबसुविसुद्धकोरंटदापिडिततरस्सनिद्धगुणतेयदीवियनिरुवहयविसिद्रसुन्दरतरस्स सुजाय-दहिमथियतदिवसगहियणवणीयपडुवणावियमुक्कड्डिय उद्दावसज्जवीसंदियस्स अहियं पीवरसुरहिगंधमणहरमहरपरिणामदरिसणिज्जस्स पत्थनिम्मलसुहोवभोगस्स सरयकालम्मि होज्ज गोघयवरस्स मंडए, भवे एयारूवे सिया? णो तिणठे समठे, गोयमा ! घयोदस्स णं समुदस्स एत्तो इद्रुतरे जाव अस्साएणं पण्णते, कंतसुकता एत्थ दो देवा महिड्डिया जाय परिवसंति, सेसं तं चेव जाव तारागण कोडीकोडीओ। 182. (अ) वर्तुल और वलयाकार संस्थान-संस्थित घृतवर नामक द्वीप क्षीरोदसमुद्र को सब ओर से घेर कर स्थित है / वह समचक्रवालसंस्थान वाला है, विषमचक्रवालसंस्थान वाला नहीं है। उसका विस्तार और परिधि संख्यात लाख योजन की है। उसके प्रदेशों की स्पर्शना आदि से लेकर यह घृतवरद्वीप क्यों कहलाता है, यहां तक का वर्णन पूर्ववत् कहना चाहिए। गौतम ! घृतवरद्वीप में स्थान-स्थान पर बहुत-सी छोटी-छोटी बावड़ियां आदि हैं जो घृतोदक से भरी हुई हैं। वहां उत्पात पर्वत यावत् खडहड आदि पर्वत हैं, वे सर्बकंचनमय स्वच्छ यावत् प्रतिरूप हैं। वहां कनक और कनकप्रभ नाम के दो महद्धिक देव रहते हैं। उसके ज्योतिष्कों की संख्या संख्यात-संख्यात है। Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 62] [जीवाजीवाभिगमसूत्र उक्त घृतवरद्वीप को घृतोद नामक समुद्र चारों ओर से घेरकर स्थित है। वह गोल और वलय की प्राकृति से संस्थित है। वह समचक्रवालसंस्थान वाला है / पूर्ववत् द्वार, प्रदेशस्पर्शना, जीवोत्पत्ति और नाम का प्रयोजन सम्बन्धी प्रश्न कहने चाहिए। गौतम ! घृतोदसमुद्र का पानी गोघृत के मंड (सार) के जैसा श्रेष्ठ है।' (घी के ऊपर जमे हुए थर को मंड कहते हैं) यह गोषतमंड फूले हुए सल्लकी, कनेर के फूल, सरसों के फूल, कोरण्ट की माला की तरह पोले वर्ण का होता है, स्निग्धता के गुण से युक्त होता है, अग्निसंयोग से चमकवाला होता है, यह निरुपहत और विशिष्ट सुन्दरता से युक्त होता है, अच्छी तरह जमाये हुए दही को अच्छी तरह मथित करने पर प्राप्त मक्खन को उसी समय तपाये जाने पर, अच्छी तरह उकाले जाने पर उसे अन्यत्र न ले जाते हुए उसी स्थान पर तत्काल छानकर कचरे आदि के उपशान्त होने पर उस पर जो थर जम जाती, वह जैसे अधिक सुगन्ध से सुगन्धित, मनोहर, मधुर-परिणाम वाली और दर्शनी है, वह पथ्यरूप, निर्मल और सुखोपभोग्य होती है, ऐसे शरत्कालीन गोघृतवरमंड के समान वह घृतोद का पानी होता है क्या, यह पूछने पर भगवान् कहते हैं- गौतम! वह घृतोद का पानी इससे भी अधिक इष्टतर यावत् मन को तृप्त करने वाला है। वहां कान्त और सुकान्त नाम के दो महद्धिक देव रहते हैं / शेष सब कथन पूर्ववत् करना चाहिए यावत् वहां संख्यात तारागण-कोटिकोटि शोभित होती थी, शोभित होती है और शोभित होगी। 182. (आ) घयोदं णं समुदं खोदवरे णामं दोवे बट्टे वलयागारसंगणसंठिए जाव चिट्ठइ तहेव जाव अट्ठो। खोयवरे णं दीवे तत्य-तत्थ वेसे तहि-तहिं खुड्डा वावीमो जाव खोदोदगपडिहत्थानो, उप्पायपव्यया, सव्ववेरुलियामया जाव पडिरूवा / सुप्पभमहप्पभा य दो देवा महिड्डिया जाव परिवसंति / से एएण?णं सव्वं जोतिसं तं चेव जाव तारागणकोडिकोडोयो। खोयवरं णं वीवं खोदोदे णाम समुद्दे वट्टे वलयागारसंठाणसंठिए जाव संखेज्जाई जोयणसयसहस्साई परिक्खेवेणं जाव अट्ठो। गोयमा ! खोदोदस्स णं समुद्दस्स उदए से जहाणामए–पालस-मासल-पसत्य-वीसंत-निद्धसुकमालभूमिभागे सुच्छिन्न सुकट्ठलढविसिद्धनिरुवहयाजीयवाविते-सुकासगपयत्तनिउणपरिकम्म-अणुपालिय. सुवुड्डिवुड्डाणं सुजाताणं लवणतणवोसबज्जियाणं णयाय-परिवट्टियाणं निम्मातसुदराणं रसेणं परिणयमउपाणपोरभंगुरसुजायमहुररसपुप्फविरहियाणं उबद्दवविवज्जियाणं सोयपरिफासियाणं अभिणवतवग्गाणं अपालिताणं तिभायणिच्छोडियवाडगाणं श्रवणीतमूलाणं गंठिपरिसोहियाणं कुसलणरकप्पियाणं उब्वणं जाव पोंडियाणं बलवगणरजत्तजन्तपरिगालितमेत्ताणं खोयरसे होज्जा वत्थपरिपूए चाउज्जातगसुवासिए अहियपत्थलहुए वण्णोववेए तहेव', भवे एयारवे सिया? णो तिणठे समझें / खोयोदस्स णं समुद्दस्स उदए एत्तो इट्टतरए चेव जाव आसाएणं पण्णत्ते / 1. “घृतमण्डो घृतसारः" ---इति मूल टीकाकार 2. वृत्तिकारानुसारेण अयमेव पाठः सम्भाव्यते खोदोदस्स णं समुद्दस्स उदए से जहाणामए-वरपुडगाणं भेरण्डेक्खूणं वा कालपोराणं प्रवणीयमूलाणं तिभायणिच्छोडियवाडिगाणं गठिपरिसोहियाणं वत्थपरिपूए चाउज्जायगसूवासिए अहियपत्थलहुए वणोबवेए तहेव / Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नंदीश्वर द्वीप की वक्तव्यता) पुण्णभद्दमाणिभद्दा य (पुग्णपुण्णभद्दा य) इत्थ दुवे देवा जाव परिवसंति, सेसं तहेव / जोइस संखेज्जं चंदा०। 182. (आ) गोल और वलयाकार क्षोदवर नाम का द्वीप घृतोदसमुद्र को सब ओर से घेरे हुए स्थित है, आदि वर्णन अर्थपर्यन्त पूर्ववत् कहना चाहिए। क्षोदवरद्वीप में जगह-जगह छोटी-छोटी बावड़ियां आदि हैं जो क्षोदोदग (इक्षुरस) से परिपूर्ण हैं / वहां उत्पात पर्वत आदि हैं जो सर्ववैडूर्यरत्नमय यावत् प्रतिरूप हैं। वहां सुप्रभ और महाप्रभ नाम के दो महद्धिक देव रहते हैं / इस कारण यह क्षोदवरद्वीप कहा जाता है / यहां संख्यात-संख्यात चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारागण कोटिकोटि हैं। इस क्षोदवरद्वीप को क्षोदोद नाम का समुद्र सब ओर से घेरे हुए है। यह गोल और वलयाकार है यावत् संख्यात लाख योजन का विष्कंभ और परिधि वाला है आदि सब कथन अर्थ सम्बन्धी प्रश्न तक पूर्ववत् जानना चाहिए। अथे इस प्रकार है-हे गौतम ! क्षोदोदसमुद्र का पानी जातिवंत श्रेष्ठ इक्षरस से भी अधिक इष्ट यावत मन को तृप्ति देने वाला है। वह इक्ष रस स्वादिष्ट, गाढ, प्र विश्रान्त, स्निग्ध और सुकुमार भूमिभाग में निपुण कृषिकार द्वारा काष्ठ के सुन्दर विशिष्ट हल से जोती गई भूमि में जिस इक्षु का आरोपण किया गया है और निपुण पुरुष के द्वारा जिसका संरक्षण किया गया हो, तृणरहित भूमि में जिसकी वृद्धि हुई हो और इससे जो निर्मल एवं पककर विशेष रूप से मोटी हो गई हो और मधुररस से जो युक्त बन गई हो, शीतकाल के जन्तुओं के उपद्रव से रहित हो, ऊपर और नीचे की जड़ का भाग निकाल कर और उसकी गाँठों को भी अलग कर बलवंत बैलों द्वारा यंत्र से निकाला गया हो तथा वस्त्र से छाना गया हो और चार प्रकार के--(दालचीनी, इलायची, केशर, कालीमिर्च) सुगंधित द्रव्यों से युक्त किया गया हो, अधिक पथ्यकारी और पचने में हल्का हो तथा शुभ वर्ण गंध रस स्पर्श से समन्वित हो, ऐसे इक्षुरस के समान क्या क्षोदोद का पानी है ? गौतम ! इससे भी अधिक इष्टतर यावत् मन को तृप्ति करने वाला है। पूर्णभद्र और माणिभद्र (पूर्ण और पूर्णभद्र) नाम के दो महद्धिक देव यहां रहते हैं। इस कारण यह क्षोदोदसमुद्र कहा जाता है / शेष कथन पूर्ववत् करना चाहिए यावत् वहां संख्यात-संख्यात चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारागणकोटि-कोटि शोभित थे, शोभित हैं और शोभित होंगे। नंदीश्वरद्वीप को वक्तव्यता 183. (क) खोदोदं गं समुदं गंदीसरवरे णामं दीवे वट्टे वलयागारसंठाणसंठिए तहेव जाय परिक्खेवो / पउमवरवेविप्रावणसंडपरिक्खित्ते / दारा दारंतरपएसे जीवा तहेव / से केणठेणं भंते ? गोयमा ! तत्थ-तत्थ देसे तहि-तहि बहूमो खुड्डाओ वावीओ जाव बिलपंतियाओ खोदोदगपडिहत्थाओ उप्पायपव्यया सध्यवइरामया अच्छा जाव पडिरूवा / अदुत्तरं च णं गोयमा! गंदीसरदीवस्स चक्कवालविक्खंभस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं चउदिसि चत्तारि अंजणपन्वया पण्णत्ता / ते णं अंजणपव्वया चउरसोइजोयणसहस्साई उड्ढं उच्चत्तेणं एगमेगं जोयणसहस्सं उम्वेहेणं मूले साइरेगाइं धरणियले दसजोयणसहस्साइं आयामविक्खंभेणं, तओ अणंतरं च णं मायाए-मायाए पएसपरिहाणीए परिहायमाणा परिहायमाणा उरि एगमेगं जोयणसहस्सं Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जीवाजीवाभिगमसूत्र पायामविक्खंभेणं, मूले एक्कतीस जोयणसहस्साई छच्च तेवीसे ओयणसए कित्रिविसेसाहिया परिक्खेवेणं धरणियले एक्कतीसं जोयणसहस्साई छच्च तेवीसे जोयणसए देसूणे परिक्खेवेणं, सिहरतले तिण्णि जोयणसहस्साइं एगं च वावटें जोयणसयं किंचिविसेसाहिया परिक्खेवेणं पण्णत्ता, मूले विस्थिण्णा मझे संखित्ता उपि तणुमा, गोपुच्छसंठाणसंठिया सव्यंजणमया अच्छा जाव पत्तेयं पत्तयं पउमवरवेइयापरिक्खिता, पत्तेयं पत्तेयं वणसंडपरिक्खित्ता, वण्णयो। तेसि णं अंजणपव्ययाणं उरि पत्तेयं-पत्तेयं बहुसमरमणिज्जो भूमिभागो पग्णत्तो, से जहाणामएआलिंगपुक्खरेइ वा जाव सयंति / तेसि गं बहुसमरमणिज्जाणं भूमिभागाणं बहुमज्मदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं सिद्धायतणा एगमेगं जोयणसयं आयामेणं पण्णासं जोयणाई विक्खंभेणं वावत्तरि जोयणाई उड्ढे उच्चत्तेणं अणेगखंभसयसंनिविट्ठा, वण्णओ। 183 (क) क्षोदोदकसमुद्र को नंदीश्वर नाम का द्वीप चारों ओर से घेर कर स्थित है। यह गोल और वलयाकार है। यह नन्दीश्वरद्वीप समचऋवालविष्कंभ से युक्त है। परिधि आदि के कथन से लेकर जोवोपपाद सूत्र तक सब कथन पूर्ववत् कहना चाहिए। भगवन् ! नंदीश्वरद्वीप के नाम का क्या कारण है ? गौतम ! नंदीश्वरद्वीप में स्थान-स्थान पर बहुत-सी छोटी-छोटी बावड़ियां यावत् विलपंक्तियां हैं, जिनमें इक्षुरस जैसा जल भरा हुआ है / उसमें अनेक उत्पातपर्वत हैं जो सर्व वज्रमय हैं, स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप हैं। गौतम ! दूसरी बात यह है कि नंदीश्वरद्वीप के चक्रवालविष्कंभ के मध्यभाग में चारों दिशाओं में चार अंजनपवंत कहे गये हैं। वे अजनपवंत चौरासी हजार योजन ऊचे, एक हजार योजन गहरे, मूल में दस हजार योजन से अधिक लम्बे-चौड़े, धरणितल में दस हजार योजन लम्बे-चौड़े हैं। इसके बाद एक-एक प्रदेश कम होते-होते ऊपरी भाग में एक हजार योजन लम्बे-चौड़े हैं। इनकी परिधि मूल में इकतीस हजार छह सौ तेवीस योजन से कुछ अधिक, धरणितल में इकतीस हजार छह सौ तेवीस योजन से कुछ कम और शिखर में तीन हजार एक सौ बासठ योजन से कुछ अधिक है। ये मूल में विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त और ऊपर पतले हैं, अतः गोपुच्छ के आकार के हैं / ये सर्वात्मना अंजनरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं यावत् प्रत्येक पर्वत पद्मवरवेदिका और वनखण्ड से वेष्टित हैं / यहां पद्मवरवेदिका और वनखण्ड का वर्णनक कहना चाहिए। उन अंजनपर्वतों में से प्रत्येक पर बहुत सम और रमणीय भूमिभाग है। वह भूमिभाग मृदंग के मढ़े हुए चर्म के समान समतल है यावत् वहां बहुत से वानव्यन्तर देव-देवियां निवास करते हैं यावत् अपने पुण्य-फल का अनुभव करते हुए विचरते हैं। उन समरमणीय भूमिभागों के मध्यभाग में अलग-अलग सिद्धायतन हैं, जो एक सौ योजन लम्बे, पचास योजन चौड़े और बहत्तर योजन ऊँचे हैं, सैकड़ों स्तम्भों पर टिके हुए हैं आदि वर्णन सुधर्मसभा की तरह जानना चाहिए। 183. (ख) तेसि णं सिद्धायतणाणं पत्तेयं पत्तेय चउद्दिसि चत्तारि वारा पणत्ता-देवदारे, असुरदारे, णागदारे, सुवण्णदारे / तत्थ णं चत्तारि देवा महिड्डिया जाव पलिओवमद्वितीया परिवसंति, Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नंदीश्वरद्वीप को वक्तव्यता] [65 तं जहा-देवे, असुरे, णागे, सुवणे / ते ण दारा सोलसजोयणाई उड्ढं उच्चत्तेणं, अट्ठ जोयणाई विक्खंभेणं, तावइयं चेव पवेसेणं सेया वरकगण० वण्णो जाव वणमाला। तेसि णं वाराणं चउदिसि चत्तारि मुहमंउवा पण्णता / तेणं मुहमंडवा जोयणसयं आयामेणं पण्णासं जोयणावं विक्खंभेणं साइरेगाई सोलसजोयणाई उड्ढे उच्चत्तेणं वण्णश्रो। तेसि गं मुहमंडवाणं चउहिसि (तिदिसि) चत्तारि (तिण्णि) दारा पग्णता। ते णं दारा सोलसजोयणाई उड्ढं उच्चत्तणं, अजोयणाई विक्खंभेणं तावइयं चेव पवेसेणं सेसं तं चेव जाव वणमालाओ। एवं पेच्छाघरमंडवा वि, तं चेव पमाणं जं मुहमंडवाणं वारा वि तहेव, गरि बहुमज्मदेसे पेच्छाघरमंडवाणं अक्खाडगा मणिपेढियाओ अट्ठजोयणपमाणाओ सीहासणा अपरिवारा जाव दामा थूभाई चउद्दिसि तहेव गवरि सोलसजोयणप्पमाणा साइरेगाइं सोलसजोयणाई उच्चा सेसं तहेव जाव जिणपडिमा। चेइयरुक्खा तहेव चउद्दिसि तं चेव पमाणं जहा विजयाए रायहाणीए णवरि मणिपेढियाओ सोलसजोयणप्पमाणाओ। तेसि णं चेइयरुक्खाणं चउद्दिसि चत्तारि मणिपेढियाओ अट्ठजोयणविक्खंभाओ चउजोयणबाहल्लाओ महिंदज्झया चउसद्विजोयणुच्चा जोयणोव्वेधा जोयणविक्खंभा सेसं तं चेव। ___ एवं चउद्दिसि चत्तारि गंदापुक्खरणीओ, णवरि खोयस्स पडिपुण्णाओ जोयणसयं आयामेणं पन्नासं जोयणाई विक्खंभेणं पण्णासं जोयणाइं उन्हेणं सेसं तं चेव / मणोगुलियाणं गोमाणसीण य अडयालीसं अडयालीसं सहस्साई पुरच्छिमेणवि सोलस पच्चत्थिमेणवि सोलस दाहिणेणवि अट्ठ उत्तरेणवि अट्ठ साहस्सीओ तहेव सेसं उल्लोया भूमिभागा जाव बहुमज्झदेसभाए मणिपेढिया सोलसजोयणा आयामविक्खंभेणं अट्ठजोयणाई बाहल्लेणं तारिसं मणिपेढियाणं उपि देवच्छंदगा सोलसजोयणाई प्रायामविक्खंभेणं साइरेगाई सोलसजोयणाई उड्ढं उच्चत्तेणं सव्वरयणामया० अट्ठसयं जिणपडिमाणं सो चेव गमो जहेव वेमाणियसिद्धाययणस्स / 183. (ख) उन प्रत्येक सिद्धायतनों की चारों दिशाओं में चार द्वार कहे गये हैं; उनके नाम हैं-देवद्वार, असुरद्वार, नागद्वार और सुपर्णद्वार / उनमें महद्धिक यावत् पल्योपम की स्थिति वाले चार देव रहते हैं; उनके नाम हैं---देव, असुर, नाग और सुपर्ण / वे द्वार सोलह योजन ऊँचे, आठ योजन चौड़े और उतने ही प्रमाण के प्रवेश वाले हैं / ये सब द्वार सफेद हैं, कनकमय इनके शिखर हैं अादि वनमाला पर्यन्त सब वर्णन विजयद्वार के समान जानना चाहिए। उन द्वारों की चारों दिशाओं में चार मुखमंडप हैं / वे मुखमंडप एक सौ योजन विस्तार वाले, पचास योजन चौड़े और सोलह योजन से कुछ अधिक ऊँचे हैं / विजयद्वार के समान वर्णन कहना चाहिए। उन मुखमंडप की चारों (तीनों) दिशाओं में चार (तीन) द्वार कहे गये हैं। वे द्वार सोलह योजन ऊँचे, पाठ योजन चौड़े और पाठ योजन प्रवेश वाले हैं आदि वर्णन बनमाला पर्यन्त विजयद्वार तुल्य ही है। __इसी तरह प्रेक्षागृहमंडपों के विषय में भी जानना चाहिए / मुखमंडपों के समान ही उनका प्रमाण है। द्वार भी उसी तरह के हैं। विशेषता यह है कि बहुमध्यभाग में प्रेक्षागृहमंडपों के अखाड़े, (चौक) मणिपीठिका पाठ योजन प्रमाण, परिवार रहित सिंहासन यावत् मालाएं, स्तूप आदि चारों Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जीवाजीवाभिगमसूत्र दिशाओं में उसी प्रकार कहने चाहिए / विशेषता यह है कि वे सोलह योजन से कुछ अधिक प्रमाण वाले और कुछ अधिक सोलह योजन ऊँचे हैं / शेष उसी तरह जिनप्रतिमा पर्यन्त वर्णन करना चाहिए / चारों दिशाओं में चैत्यवृक्ष हैं / उनका प्रमाण वही है जो विजया राजधानी के चैत्यवृक्षों का है / विशेषता यह है कि मणिपीठिका सोलह योजन प्रमाण है। उन चैत्यवृक्षों को चारों दिशाओं में चार मणिपीठिकाएं हैं जो पाठ योजन चौड़ी, चार योजन मोटी हैं। उन पर चौसठ योजन ऊँची, एक योजन गहरी, एक योजन चौड़ी महेन्द्रध्वजा है। शेष पूर्ववत् / इसी तरह चारों दिशाओं में चार नंदा पुष्करिणियां हैं / विशेषता यह है कि वे इक्षुरस से भरी हुई हैं। उनकी लम्बाई सो योजन, चौड़ाई पचास योजन और गहराई पचास योजन है। शेष पूर्ववत् / उन सिद्धायतनों में प्रत्येक दिशा में-पूर्व दिशा में सोलह हजार, पश्चिम में सोलह हजार, दक्षिण में आठ हजार और उत्तर में आठ हजार-यों कुल 48 हजार मनोगुलिकाएं (पीठिकाविशेष) हैं और इतनी ही गोमानुषी (शय्यारूप स्थानविशेष) हैं। उसी तरह उल्लोक (छत, चन्देवा) और भूमिभाग का वर्णन जानना चाहिए / यावत् मध्यभाग में मणिपीठिका है जो सोलह योजन लम्बी-चौड़ी और पाठ योजन मोटी है / उन मणिपीठिकानों के ऊपर देवच्छंदक हैं जो सोलह योजन लम्बे-चौड़े, कुछ अधिक सोलह योजन ऊँचे हैं, सर्वरत्नमय हैं / इन देवच्छंदकों में 108 जिन प्रतिमाएं हैं। जिनका सब वर्णन वैमानिक की विजया राजधानी के सिद्धायतनों के समान जानना चाहिए। 183. (ग) तत्थ गंजे से पुरथिमिल्ले अंजणपन्थए, तस्स णं चउद्दिसि चत्तारि गंदाओ पुक्खरिणीनो पण्णत्ताओ, तं जहा णंदुत्तरा, य णंदा, पाणंदा गंदिवद्धणा। नंदिसेणा अमोघा य गोथभा य सुवंसणा॥ ताओ णं णंदापुक्खरिणीयो एगमेगं जोयणसयसहस्सं प्रायामविक्खंभेणं, दस जोयणाइं उन्हेणं अच्छाप्रो सहाम्रो पत्तेयं पत्तेयं पउमवरवेइयापरिक्खित्तानो पत्तेयं पत्तेयं वणसंडपरिक्खित्ताओ, तत्थ तत्थ जाव सोवाणपडिरूवगा, तोरणा। तासि णं पुक्खरिणीणं वहुमज्सदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं दहिमुहपव्वया चउसट्टि जोयणसहस्साई उड्ढे उच्चत्तेणं एगं जोयणसहस्सं उध्वेहेणं सम्वत्थ समा पल्लगसंठाणसंठिया वस जोयणसहस्साई विक्खंभेणं इक्कतीसं जोयणसहस्साई छच्च तेवीसे जोयणसए परिक्खेवेणं पण्णत्ता, सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा तहा पत्तेयं पत्तेयं पउमवरवेइया. वणसंडवण्णो / बहुसम० जाव आसयंति सयंति। सिद्धाययणं चेव पमाणं अंजणपश्वएस सच्चेव यत्तव्वया णिरवसेसं भाणियब्वं जाव प्रदम लगा। 183. (ग) उनमें जो पूर्व दिशा का अंजनपर्वत है, उसकी चारों दिशाओं में चार नंदा पुष्करिणियां हैं। उनके नाम हैं-नंदुत्तरा, नंदा, आनंदा और नंदिवर्धना। (नंदिसेना, अमोघा, गोस्तूपा और सुदर्शना-ये नाम भी कहीं-कहीं कहे गये हैं / ) ये नंदा पुष्करिणियां एक लाख योजन की लम्बी-चौड़ी हैं, इनकी गहराई दस योजन की है। ये स्वच्छ हैं, श्लक्ष्ण हैं। प्रत्येक के आसपास चारों Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नंदीश्वरद्वीप की वक्तव्यता) [67 मोर पद्मबरवेदिका और वनखंड हैं। इनमें त्रिसोपान-पंक्तियां और तोरण हैं। उन प्रत्येक पुष्करिणियों के मध्यभाग में दधिमुखपर्वत हैं जो चौसठ हजार योजन ऊँचे, एक हजार योजन जमीन में गहरे और सब जगह समान हैं। ये पल्यंक के प्राकार के हैं। दस हजार योजन की इनकी चौडाई है। इकतीस हजार छह सौ तेवीस योजन इनकी परिधि है। ये सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप हैं / इनके प्रत्येक के चारों ओर पद्मवरवेदिका और वनखण्ड हैं। यहां इनका वर्णनक कहना चाहिए / उनमें बहुसमरमणीय भूमिभाग है यावत् वहां बहुत वान-व्यन्तर देव-देवियां बैठते हैं और लेटते हैं और पुण्यफल का अनुभव करते हैं / सिद्धायतनों का प्रमाण अंजनपर्वत के सिद्धायतनों के समान जानना चाहिए, सब वक्तव्यता वैसी ही कहनी चाहिए यावत् पाठ-पाठ मंगलों का कथन करना चाहिए। 183. (घ) तत्थ गंजे से दक्खिणिल्ले अंजणपध्वए तस्स णं चउद्दिसि चत्तारि गंदाश्रो पुक्खरिणीप्रो पणत्तायो, तं जहा-- भद्दा य विसाला य कुमुया पुंडरिगिणो। नंदुत्तरा य नंदा आनंदा नंदिवद्धणा॥ तं चेव दहिमुहा पव्वया तं चेव पमाणं जाव सिद्धाययणा। तस्थ णं जे से पच्चस्थिमिल्ले अंजणपव्वए तस्स णं चउदिसि चत्तारि गंवा पुक्खरिणीम्रो पण्णत्ताओ, तं जहा णंदिसेणा अमोहा य गोथूभा य सुदंसणा। भद्दा विसाला कुमुया पुंडरिगिणी॥ तं चेव सध्वं भाणियव्वं जाव सिद्धाययणा / / तत्थ णं जे से उत्तरिल्ले अंजणपन्वए तस्स णं चउद्दिसि चत्तारि गंदा पुक्खरिणीओ तं जहाविजया, वेजयंती, जयंती, अपराजिया। सेसं तहेव जाव सिद्धाययणा / सव्वा य चिय वण्णणा णायव्वा / तत्थ णं बहवे भवणबइ-वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिया देवा चाउमासियासु पडिवयासु संवच्छरीएसु वा अण्णेसु बहुसु जिणजम्मण-निक्खमण-णाणुप्पत्ति-परिणिवाणमाइएसु सुभदेवकज्जेसु य देवसमुदएसु य देवसमिईसु य देवसमवाएसु य देवपोयणेसु य एगंतम्रो सहिया समुवागया समाणा पमुइयपक्कीलिया अट्टहियारवाओ महामहिमानो करेमाणा पालेमाणा सुहंसुहेणं विहरंति। कइलासहरिवाहणा य तत्य दुवे देवा महिड्डिया जाव पलिग्रोवमट्ठिया परिवसंति; से तेणोणं गोयमा ! जाव णिच्चा, जोइसं संखेज्ज। 183. (घ) उनमें जो दक्षिण दिशा का अंजनपर्वत है, उसकी चारों दिशाओं में चार नंदा पुष्करिणियां हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं-भद्रा, विशाला, कुमुदा और पुडरीकिणी / (अथवा नंदोत्तरा, नंदा, आनन्दा और नंदिवर्धना)। उसी तरह दधिमुख पर्वतों का वर्णन उतना ही प्रमाण आदि सिद्धायतन पर्यन्त कहना चाहिए। दक्षिण दिशा के अंजनपर्वत की चारों दिशाओं में चार नंदा पुष्करिणियां हैं। उनके नाम हैंनंदिसेना, अमोधा, गोस्तूपा और सुदर्शना / अथवा भद्रा, विशाला, कुमुदा और पुंडरीकिणी / सिद्धायतन पर्यन्त सब कथन पूर्ववत् कहना चाहिए। उत्तरदिशा के अंजनपर्वत की चारों दिशाओं में चार नंदा पुष्करिणियां हैं / उनके नाम हैंविजया, वैजयन्ती, जयन्ती और अपराजिता / शेष सब वर्णन सिद्धायतन पर्यन्त पूर्ववत् जानना चाहिए। Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जीवाजीवाभिगमसूत्र उन सिद्धायतनों में बहुत से भवनपति, वान-व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव चातुर्मासिक प्रतिपदा आदि पर्व दिनों में, सांवत्सरिक उत्सव के दिनों में तथा अन्य बहुत से जिनेश्वर देव के जन्म, दीक्षा, ज्ञानोत्पत्ति और निर्वाण कल्याणकों के अवसर पर देवकार्यों में, देव-मेलों में, देवगोष्ठियों में, देवसम्मेलनों में और देवों के जीतव्यवहार सम्बन्धी प्रयोजनों के लिए एकत्रित होते हैं, सम्मिलित होते हैं और प्रानन्द-विभोर होकर महामहिमाशाली अष्टाह्निका पर्व मनाते हुए सुखपूर्वक विचरते हैं / कैलाश और हरिवाहन नाम के दो महद्धिक यावत् पल्योपम की स्थिति वाले देव वहां रहते हैं। इस कारण हे गौतम ! इस द्वीप का नाम नंदीश्वरद्वीप है। अथवा द्रव्यापेक्षया शाश्वत होने से यह नाम शाश्वत और नित्य है / सदा से चला आ रहा है। यहां सब चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारा संख्यात-संख्यात हैं। 184. नंदीस्सरवरं णं दीवं नंदीसरोदे णाम समुद्दे बट्टे वलयागारसंठाणसंठिए जाव सव्वं तहेव अट्ठो जो खोदोदगस्स जाव सुमणसोमणसभद्दा एस्थ दो देवा महिड्डिया जाव परिवसंति, सेसं तहेव जाव तारग्गं / 184. उक्त नंदीश्वरद्वीप को चारों ओर से घेरे हुए नंदीश्वर नामक समुद्र हैं, जो गोल है एवं वलयकार संस्थित है इत्यादि सब वर्णन पूर्ववत् (क्षोदोदकवत्) कहना चाहिए। विशेषता यह है कि यहां सुमनस और सौमनसभद्र नामक दो महद्धिक देव रहते हैं / शेष सब वर्णन तारागण की संख्या पर्यन्त पूर्ववत् कहना चाहिए। अरुणद्वीप का कथन 185. (अ) नंदीसरोवं समुदं अरुणे णामं दीवे वट्टे वलयागार जाव संपरिक्खित्ताणं चिटुइ / अरुणे णं भंते ! दोवे किं समचक्कवालसंठिए विसमचक्कवालसंठिए ? गोयमा! समचक्कवालसंठिए नो विसमचक्कवालसंठिए / केवइयं समचक्कवालविक्खंभणं संठिए ? संखेज्जाई जोयणसयसहस्साइं चक्कवालविक्खंभेणं संखेज्जाई जोयणसयसहस्साई परिक्खेवेणं पण्णत्ते / पउमवरवेदिया-वणसंड-दारा-दारंतरा तहेव संखेज्जाइं जोयणसयसहस्साइं वारंतरं जाव अट्ठो वावीओ खोदोदगे पडिहत्थाओ उपायपव्ययगा सव्ववइरामया अच्छा; असोग-वीतसोगा य एत्थ दुवे देवा महिड्डिया जाव परिवसंति / से तेण?णं० जाव संखेज्जं सब्वं / 185. (अ) नंदीश्वर नामक समुद्र को चारों ओर से घेरे हुए अरुण नाम का द्वीप है जो गोल है और वलयाकार रूप से संस्थित है। हे भगवन् ! अरुणद्वीप समचक्रवालविष्कंभ वाला है या विषमचक्रवालविष्कभ वाला है ? गौतम ! वह समचक्रवालविष्कंभ वाला है, विषमचक्रवालविष्कंभ वाला नहीं है। भगवन् ! उसका चक्रवालविष्कंभ कितना है ? गौतम ! संख्यात लाख योजन उसका चक्रवालविष्कभ है और संख्यात लाख योजन उसकी परिधि है / पद्मवरवेदिका, वनखण्ड, द्वार, द्वारान्तर भी संख्यात लाख योजन प्रमाण है / इसी द्वीप का ऐसा नाम इस कारण है कि यहां पर बावड़ियां इक्षुरस जैसे पानी से भरी हुई हैं। इसमें उत्पातपर्वत Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अरणद्वीप को वक्तव्यता] हैं जो सर्ववञमय हैं और स्वच्छ हैं। यहां प्रशोक और वीतशोक नाम के दो महद्धिक देव रहते हैं / इस कारण से इसका नाम अरुणद्वीप है। यहां सब ज्योतिष्कों की संख्या संख्यात जाननी चाहिए। 185. (आ) अरुणं णं दीवं अरुणोदे णामं समुद्दे, तस्सवि तहेव परिक्खेवो अट्ठो, खोदोदगे, णवरि सुभद्दसुमणभद्दा एत्य दुवे देवा महिड्डिया सेसं तहेव / ___ अरुणोदगं समुद्नं प्रणवरे णाम दीवे वट्टे वलयागारसंठाणसंठिए तहेव संखेज्जगं सव्वं जाव खोदोगपडिहस्थानो० उपायपव्वया सव्यवहरामया अच्छा। अरुणवरभट्ट-अरुणवरमहाभदृ एत्थ दो देवा महिड्डिया० / एवं अरुणवरोदेवि समुद्दे जाव देवा अरुणवर-अरुणमहावरा य एत्थ दो देवा, सेसं तहेव। अरुणवरोदं णं समुई अरुणवरावभासे णाम वीवे वट्टे जाव देवा अरुणवरावभासभद्द-अरुणवरावभासमहाभद्दा य एस्थ दो देवा महिड्डिया। एवं अरुणवरावभासे समुद्दे णवरं देवा अरुणवरावभासवर-अरुणवरावभासमहावरा एत्थ दो देवा महिड्डिया। कुण्डले दीवे कुडलभद्द-कुडलमहाभद्दा दो देवा महिड्डिया / कुडलोदे समुद्दे चक्खसुभ-चक्खुकंता एत्थ दो देवा महिड्डिया। कुडलवरे दीवे कुण्डलवरभद्द-कुण्डलवरमहाभद्दा एत्थ णं दो देवा महिड्डिया। कुडलवरोदे समुद्दे कुण्डलवर-कुंडलवरमहावर एत्थ दो देवा महिड्डिया। कुंडलवरावभासे दीवे कुंडलवरावभालभद्द-कुडलवरावभासमहाभद्दा एत्थ दो देवा महिड्डिया / कुडलवरोभासोदे समुद्दे कुडलवरोभासवर-कुडलवरोभासमहावरा एत्थ दो देवा महिड्डिया जाव पलिप्रोवमद्विइया परिवसंति / 185. (मा) अरुणद्वीप को चारों ओर से घेरकर अरुणोद नाम का समुद्र अवस्थित है / उसका विष्कभ, परिधि, अर्थ, उसका इक्षुरस जैसा पानी आदि सब कथन पूर्ववत् जानना चाहिए। विशेषता यह है कि इसमें सुभद्र और सुमनभद्र नामक दो महद्धिक देव रहते हैं, शेष पूर्ववत् कहना चाहिए। उस अरुणोदक नामक समुद्र को अरुणवर नाम का द्वीप चारों ओर से घेरकर स्थित है। वह गोल और वलयाकार संस्थान वाला है। उसी तरह संख्यात लाख योजन का विष्कंभ, परिधि प्रादि जानना चाहिए / अर्थ के कथन में इक्षुरस जैसे जल से भरी बावड़ियां, सर्ववज्रमय एवं स्वच्छ, उत्पातपर्वत और अरुणवरभद्र एवं अरुणवरमहाभद्र नाम के दो महद्धिक देव वहां निवास का कथन करना चाहिए / इसी प्रकार अरुणवरोद नामक समुद्र का वर्णन भी जानना चाहिए यावत् वहां अरुणवर और अरुणमहावर नाम के दो महद्धिक देव रहते हैं। शेष पूर्ववत्। ___ अरुणवरोदसमुद्र को अरुणवरावभास नाम का द्वीप चारों ओर से घेर कर स्थित है / वह गोल है यावत् वहां अरुणवरावभासभद्र एवं अरुणवरावभासमहाभद्र नाम के दो महद्धिक देव रहते हैं। Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70 [जीवाजीवाभिगमसूत्र इसी तरह अरुणवरावभाससमुद्र में अरुणवरावभासवर एवं अरुणवरावभासमहावर नाम के दो महद्धिक देव वहां रहते हैं। शेष पूर्ववत् / कुण्डलद्वीप में कुण्डलभद्र एवं कुण्डलमहाभद्र नाम के दो देव रहते हैं और कुण्डलोदसमुद्र में चक्षुशुभ और चक्षुकांत नाम के दो महद्धिक देव रहते हैं / शेष वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए। कुण्डलवरद्वीप में कुण्डलवरभद्र और कुण्डलवरमहाभद्र नामक दो महद्धिक देव रहते हैं / कुण्डलवरोदसमुद्र में कुण्डलवर और कुण्डलवरमहावर नाम के दो महद्धिक देव रहते हैं। कुण्डलवरावभासद्वीप में कुण्डलवरावभासभद्र और कुण्डलवरावभासमहाभद्र नाम के दो महद्धिक देव रहते हैं / कुण्डलवरावभासोदकसमुद्र में कुण्डलवरोभासवर एवं कुण्डलवरोभासमहावर नाम के दो महद्धिक देव रहते हैं। ये देव पल्योपम की स्थिति वाले हैं प्रादि वर्णन जानना चाहिए। 185. (इ) कुण्डलवरोभासं णं समुदं रुचगे णाम दीवे वलयागार० जाव चिट्ठइ / कि समचक्कवाल० विसमचक्कवाल? गोयमा ! समचक्कवाल० नो विसमचक्कवालसंठिए / केवइयं चक्कवाल० पण्णत्ते ? सव्वट्ठमणोरमा एत्थ दो देवा, सेसं तहेब / रुयगोदे णामं समुद्दे जहा खोदोदे समुद्दे संखेज्जाई जोयणसयसहस्साई चक्कवालविवखंभेणं, संखेज्जाई जोयणसयसहस्साई परिक्खेवेणं / दारा, वारंतरं वि संखेज्जाइं, जोइस पि सव्वं सज्ज भाणियन्वं / अट्ठो वि जहेव खोदोदस्स णरि सुमण-सोमणसा एस्थ दो देवा महिड्डिया तहेव / रुयगाओ आढत्तं असंखेज्जं विक्खंभ परिक्खेवो दारा दारंतरं जोइसं च सव्वं असंखेज्जंभागियध्वं / __रुयदोगं गं समुदं स्यगवरे गं दीवे वट्टे रुयगवरभद्द-रुयगवरमहाभद्दा एत्थ दो देवा / रुयगवरोदे रुयगवर-रुयगवरमहावरा एत्थ दो देवा महिड्डिया। रुयगवराभासे दीवे रुयगवरावभासभद्द-रुयगवरावभासमहाभद्दा एथ दो देवा महिड्डिया / रुयगवरावभासे समुद्दे रुयगवरावभावसर-रुयगवरावभासमहावरा एस्थ दो देवा० / हारद्दीवे / हारभद्द-हारमहाभद्दा दो देवा / हारसमुद्दे हारवर-हारवरमहावरा एत्थ बो देवा महिड्डिया / हारवरदीवे हारवरभद्द-हारवरमहाभद्दा एत्थ दो देवा महिड्डिया। हारवरोए समुद्दे हारवर-हारवरमहावरा एत्थ दो देवा० / हारवरावभासे दीवे हारवरावभासभद्द-हारवरावभासमहाभद्दा एत्थ दो देवा० / हारवरावभासोए समुद्दे हारवरावभावर-हारवरावभासमहावरा एत्थ दो देवा महिड्डिया। एवं सम्वेवि तिपडोयारा यग्वा जाव सूरवरावभोसोदे समुद्दे। दोवेसु भहनामा वरनामा होति उदहीसु। जाव पच्छिमभावं च खोयवरादीसु सयंभूरमणपज्जन्तेसु // वावीमो खोदोदग पडिहत्थाओ पन्वया य सव्ववइरामया // 185. (इ) कुण्डलवराभाससमुद्र को चारों ओर से घेरकर रुचक नामक द्वीप अवस्थित है, जो गोल और वलयाकार है। Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अरुणद्वीप की वक्तव्यता] [71 भगवन् ! वह रुचकद्वीप समचक्रवालविष्कंभ वाला है या विषमचक्रवालविष्कंभ वाला है। गौतम ! समचक्रवालविष्कंभ वाला है, विषमचक्रवालविष्कंभ वाला नहीं है। भगवन् ! उसका चक्रवालविष्कंभ कितना है ? यहां से लगाकर सब वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिये यावत् वहां सर्वार्थ और मनोरम नाम के दो महद्धिक देव रहते हैं / शेष कथन पूर्ववत् / रुचकोदक नामक समुद्र क्षोदोद समुद्र की तरह संख्यात लाख योजन चक्रवालविष्कंभ वाला, संख्यात लाख योजन परिधि वाला और द्वार, द्वारान्तर भी संख्यात लाख योजन वाले हैं। वहां ज्योतिष्कों की संख्या भी संख्यात कहनी चाहिए। क्षोदोदसमुद्र की तरह अर्थ आदि की वक्तव्यता कहनी चाहिए। विशेषता यह है कि यहां सुमन और सौमनस नामक दो महद्धिक देव रहते हैं। शेष पूर्ववत् जानना चाहिए / ___ रुचकद्वीप समुद्र से आगे के सब द्वीप समुद्रों का विष्कंभ, परिधि, द्वार, द्वारान्तर, ज्योतिष्कों का प्रमाण-ये सब असंख्यात कहने चाहिए। रुचकोदसमुद्र को सब ओर से घेरकर रुचकवर नाम का द्वीप अवस्थित है, जो गोल है आदि कथन करना चाहिए यावत् रुचकवरभद्र और रुचकवरमहाभद्र नाम के दो महद्धिक देव रहते हैं / रुचकवरोदसमुद्र में रुचकवर और रुचकवरमहावर नाम के दो देव रहते हैं, जो महद्धिक हैं। रुचकवरावभासद्वीप में रुचकवरावभासभद्र और रुचकवरावभाससमहाभद्र नाम के दो महद्धिक देव रहते हैं / रुषकवरावभाससमुद्र में रुचकवरावभासवर और रुचकवरावभासमहावर नाम के दो महद्धिक देव हैं। हार द्वीप में हारभद्र और हारमहाभद्र नाम के दो देव हैं। हारसमुद्र में हारवर और हारवरमहावर नाम के दो महद्धिक देव हैं। हारवरद्वीप में हारवरभद्र और हारवरमहाभद्र नाम के दो महद्धिक देव हैं। हारवरोदसमुद्र में हारवर और हारवरमहावर नाम के दो महद्धिक देव हैं / हारवरावभासद्वीप में हारवरावभासभद्र और हारवरावभासमहाभद्र नाम के दो महद्धिक देव हैं / हारवरावभासोदसमुद्र में हारवरावभासवर और हारवरावभासमहावर नाम के दो मद्धिक देव रहते हैं। __ इस तरह आगे सर्वत्र त्रिप्रत्यवतार और देवों के नाम उद्भावित कर लेने चाहिए। द्वीपों के नामों के साथ भद्र और महाभद्र शब्द लगाने से एवं समुद्रों के नामों के साथ "वर" शब्द लगाने से उन द्वीपों और समुद्रों के देवों के नाम बन जाते हैं यावत् 1. सूर्यद्वीप, 2. सूर्यसमुद्र, 3. सूर्यवरद्वीप, 4. सूर्यवरसमुद्र, 5. सूर्यवराभासद्वीप और 6. सूर्यवरावभाससमुद्र में क्रमशः 1. सूर्यभद्र और सूर्यमहाभद्र, 2. सूर्यवर और सूर्यमहावर, 3. सूर्यवरभद्र और सूर्यवरमहाभद्र, 4. सूर्यवरवर और सूर्यवरमहावर, 5. सूर्यवरावभासभद्र और सूर्यवरावभासमहाभद्र, 6. सूर्यवरावभासवर और सूर्यवरावभासमहावर नाम के देव रहते हैं। -- क्षोदवरद्वीप से लेकर स्वयंभूरमण तक के द्वीप और समुद्रों में वापिकाएं यावत् बिलपंक्तियां इक्षुरस जैसे जल से भरी हुई हैं और जितने भी पर्वत हैं, वे सब सर्वात्मना वज्रमय हैं / Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72] [जीवाजीवाभिगमसूत्र 185. (ई) देवदोवे बोवे दो देवा महिडिया देवभव-देवमहाभवा एस्थ० / देवोदे समुद्दे देववर-देवमहावरा एस्थ० जाव सयंभूरमाणे दोवे सयंभूरमणभव-सयंभूरमणमहाभवा एस्थ दो देवा महिडिया। सयंभूरमणं णं दीवं सयंभूरमणोदे णामं समुद्दे वट्टे वलयागारसंठाणसंठिए जाव असंखेज्जाई जोयणसयसहस्साइं परिक्खेवेणं जाव अट्ठो? गोयमा ! सयंभूरमणोदए उदए अच्छे पत्थे जच्चे तणुए फलिहवण्णाभे पगईए उपगरसेणं पण्णत्ते / सयंभूरमणवर-सयंभूरमगमहावरा एत्थ दो देवा महिटिया सेसं तहेव असंखजानो तारागणकोडिकोडीओ सो सु वा। 185. (ई) देवद्वीप नामक द्वीप में दो महद्धिक देव रहते हैं-देवभव और देवमहाभव / देवोदसमुद्र में दो महद्धिक देव हैं-देववर और देवमहावर यावत् स्वयंभूरमणद्वोप में दो महद्धिक देव रहते हैं- स्वयंभूरमणभव और स्वयंभूरमणमहाभव / __ स्वयंभूरमणद्वीप को सब ओर से घेरे हुए स्वयंभूरमणसमुद्र अवस्थित है, जो गोल है और वलयाकार रहा हुअा है यावत् असंख्यात लाख योजन उसकी परिधि है यावत् वह स्वयंभूरमणसमुद्र क्यों कहा जाता है ? __ गौतम ! स्वयंभूरमणसमुद्र का पानी स्वच्छ है, पथ्य है, जात्य-निर्भल है, हल्का है, स्फटिकमणि की कान्ति जैसा है और स्वाभाविक जल के रस से परिपूर्ण है। यहां स्वयंभूरमणवर और स्वयंभूरमणमहावर नाम के दो महद्धिक देव रहते हैं / शेष कथन पूर्ववत् कहना चाहिए। यहां असंख्यात कोडाकोडी तारागण शोभित होते थे, होते हैं और होंगे। विवेचन-द्वीप-समुद्रों का क्रम सम्बन्धी वर्णन इस प्रकार है-पहला द्वीप जम्बूद्वीप है। इसको घेरे हुए लवणसमुद्र है / लवणसमुद्र को घेरे हुए धातकीखण्ड है / धातकीखण्ड को घेरे हुए कालोदसमुद्र है / कालोदसमुद्र को सब ओर से घेरे पुष्करवरद्वीप है। पुष्करवरद्वीप को घेरे हुए वरुणसमुद्र है। वरुणसमुद्र को घेरे हुए क्षीरवरद्वीप है / क्षीरवरद्वीप को घेरे हुए घृतोदसमुद्र है। घृतोदसमुद्र को घेरे हए क्षोदवरद्वीप है। क्षोदवरद्वीप को घेरे हुए क्षोदोदकसमुद्र है। क्षोदोदकसमुद्र को घेरे हुए नंदीश्वरद्वीप है / नंदीश्वरद्वीप के बाद नंदीश्वरोदसमुद्र हैं / उसको घेरे हुए अरण नामक द्वीप है, फिर अरुणोदसमुद्र है, फिर अरुणवरद्वीप, अरुणवरोदसमुद्र, अरुण वराभासद्वीप और अरुणवरावभाससमुद्र है / इस प्रकार अरुणद्वीप से त्रिप्रत्यवतार हुआ है। इन द्वीप समुद्रों के बाद जो शंख, ध्वज, कलश, श्रीवत्स आदि शुभ नाम हैं, उन नाम वाले द्वीप और समुद्र हैं / ये सब त्रिप्रत्यवतार वाले हैं / अपान्तराल में भुजगवर कुशवर और क्रौंचवर हैं तथा जितने भी हार-अर्धहार आदि शुभ नाम वाले आभरणों के नाम हैं, अजिन आदि जितने भी वस्तु-नाम हैं, कोष्ठ आदि जितने भी गंधद्रव्यों के नाम हैं, जलरुह, चन्द्रोद्योत आदि जितने भी कमल के नाम हैं, तिलक प्रादि जितने भी वृक्ष-नाम हैं, पृथ्वी, शर्करा-बालुका, उप्पल, शिला आदि जितने भी 36 प्रकार के पृथ्वी के नाम हैं, नौ निधियों और चौदह रत्नों के, चुल्ल हिमवान् आदि वर्षधर पर्वतों के, पद्म महापद्म आदि हृदों के, गंगा-सिंधु आदि महानदियों के, अन्तरनदियों के, 32 कच्छादि विजयों के, माल्यवन्त आदि वक्षस्कार पर्वतों के, सौधर्म आदि 12 जाति के कल्पों के, शक्र आदि दस इन्द्रों के, देवकुरु-उत्तरकुरु के, सुमेरुपर्वत के, शक्रादि सम्बन्धी आवास पर्वतों के, मेरुप्रत्यासन्न भवनपति आदि Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बुद्वीप आदि नामवाले द्वीपों की संख्या] [73 के कूटों के, चुल्लहिमवान आदि के कूटों के, कृत्तिका आदि 28 नक्षत्रों के, चन्द्रों के और सूर्यो के जितने भी नाम हैं, उन नामों वाले द्वीप और समुद्र हैं। ये सब त्रिप्रत्यवतारवाले हैं / इसके बाद देवद्वीप देवोदसमुद्र है, अन्त के स्वयंभूरमणद्वीप और स्वयंभूरमणसमुद्र है। जम्बूद्वीप आदि नामवाले द्वीपों की संख्या 186. (अ) केवइया णं भंते ! जंबुद्दीया दीवा नामधेज्जेहि पण्णत्ता ? गोयमा ! असंखेज्जा जंबुद्दीवा दीवा नामधेज्जेहि पण्णता / केवइया णं भंते ! लवणसमुद्दा समुहा नामधेज्जेहि पण्णता? गोयमा ! असंखेज्जा लवणसमुद्दा नामधेज्जेहिं पण्णत्ता / एवं धायइसंडावि / एवं जाव असंखेज्जा सूरदीवा नामधेज्जेहि य / एगे देवे दीवे पण्णत्ते / एगे देवोदे समुद्दे पण्णते। एगे नागे जक्खे भूए जाव एगे सयंभूरमणे दीवे, एगे सयंभूरमणसमुद्दे णामधेज्जेणं पण्णत्ते। 186. (अ) भगवन् जम्बूद्वीप नाम के कितने द्वीप हैं ? गौतम ! जम्बूद्वीप नाम के असंख्यात द्वीप कहे गये हैं। भगवन् ! लवणसमुद्र नाम के समुद्र कितने कहे गये हैं ? गौतम ! लवणसमुद्र नाम के असंख्यात समुद्र कहे गये हैं। इसी प्रकार धातकीखण्ड नाम के द्वीप भी असंख्यात हैं यावत् सूर्यद्वीप नाम के द्वीप असंख्यात कहे गये हैं। देवद्वीप नामक द्वीप एक ही है / देवोदसमुद्र भी एक ही है। इसी तरह नागद्वीप, यक्षद्वीप, भूतद्वीप, यावत् स्वयंभूरमणद्वीप भी एक ही है। स्वयंभूरमण नामक समुद्र भी एक है। विवेचन-पूर्ववर्ती सूत्र में द्वीप-समुद्रों के क्रम का कथन किया गया है। उसमें अरुणद्वीप से लगाकर सूर्यद्वीप तक त्रिप्रत्यवतार (अरुण, अरुणवर, अरुणवरावभास, इस तरह तीन-तीन) का कथन किया गया है / इसके पश्चात् त्रिप्रत्यवतार नहीं है। सूर्य द्वीप के बाद देवद्वीप देवोदसमुद्र, नागद्वीप नागोदसमुद्र, यक्षद्वीप यक्षोदसमुद्र, इस प्रकार से यावत् स्वयंभूरमणद्वीप और स्वयंभूरमणसमुद्र है / समुद्रों के उदकों का आस्वाद 186. (आ) लवणस्स णं भंते ! समुदस्स उदए केरिसए अस्साएणं पण्णते ? गोयमा ! लवणस्स उदए आइले, रइले, लिदे, लवणे, कडुए, * अपेज्जे बहूणं दुप्पय-चउप्पयमिग-पसु-पक्खि-सरिसवाणं णण्णत्थ तज्जोणियाणं सत्ताणं। कालोयस्स णं भंते ! समुदस्स उदए केरिसए अस्साएणं पण्णत्ते! गोयमा ! आसले पेसले कालए मासरासिवण्णाभे पगईए उदगरसेणं पण्णत्ते / पुक्खरोदस्स णं भंते ! समुदस्स उदए केरिसए पण्णत्ते ? गोयमा ! अच्छे, जच्चे, तणुए फालिहवण्णाभे पगईए उदगरसेणं पण्णत्ते। Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जीवाजीवाभिगमसूत्र वरुणोदस्स गं भंते ? गोयमा ! से जहाणामए पत्तासबेइ वा, चोयासवेइ वा, खजरसारेइ वा, सुपक्कखोयरसेइ वा, मेरएइ वा, काविसायणेइ वा, चंदप्पभाइ वा, मणसिलाइ वा, वरसोधूई वा, वरवारुणीइ वा, अट्टपिटपरिणिट्ठियाइ वा, जंबूफलकालिया वरप्पसण्णा उक्कोसमदपत्ता ईसि उद्वावलंबिणी, ईसितंबच्छिकरणो, ईसियोच्छेयकरणी, प्रासला मासला पेसला वण्णेणं उववेया जाव णो इणठे समझें, वरुणोदए इत्तो इठ्ठतरे व अस्साएणं पण्णत्ते। खोरोदस्स णं भंते ! समुदस्स उदए केरिसए अस्साएणं पण्णते ? गोयमा ! से जहाणामए चाउरंतचक्कट्टिस्स चाउरक्के गोखीरे ' पज्जत्तमंदग्गिसुकडिए पाउत्तरखण्डमच्छंडिओववेए वणेणं उबवेए जाव फासेणं उववेए, भवे एयारूवे सिया ? णो इणठे समठे, गोयमा ! खोरोयस्स० एत्तो इट्टयरे जाव अस्साएणं पण्णत्ते / . घयोदस्स णं से जहाणामए सारइयस्स गोघयवरस्स मंडे सल्लइकण्णियारपुष्फवण्णाभे सुकड्डियउदारसज्सवीसंदिए वण्णणं उववेए जाव फासेण य उववेए--भवे एयारूवे? जो इणठे समठे, एत्तो इट्ठयरो०। ___ खोदोदस्स से जहाणामए उच्छृण जच्चपुडयाण हरियालपिडिएणं भेरुडप्पणाण वा कालपेराणं तिभागनिव्वडियवाडगाणं बलवगणरजतपरिगालियसित्ताणं जे य रसे होज्जा। वत्थपरिपूए चाउज्जतग. सुवासिए अहियपत्थे लहुए वण्णेणं उववेए जाव भवे एयारूवे सिया ? जो इणठे समठे, एत्तो इट्टयरे० / एवं सेसगाणवि समुद्दाणं भेदो जाव सयंभूरमणस्स गरि अच्छे जच्चे पत्थे जहा पुक्खरोदस्स। कह णं भंते ! :समुद्दा पत्तेयरसा पण्णत्ता ? गोयमा ! चत्तारि समुद्दा पत्तेयरसा पण्णता, तं जहा-लवणोदे, वरुणोदे, खोरोदे, घओदए / कइ गं भंते ! समुद्दा पगईए उदगरसेणं पण्णता? गोयमा ! तओ समुद्दा पगईए उदगरसेणं पण्णत्ता, तं जहा-कालोए, पुक्खरोए, सयंभूरमणे / अवसेसा समुद्दा उस्सण्णं खोयरसा पण्णत्ता समणाउसो! 186. (आ) भगवन् लवणसमुद्र के पानी का स्वाद कैसा है ? गौतम ! लवणसमुद्र का पानी मलिन, रजवाला, शैवालरहित चिरसंचित जल जैसा, खारा, कडुया अतएव बहुसंख्यक द्विपद-चतुष्पद-मृग-पशु-पक्षी-सरीसृपों के लिए पीने योग्य नहीं है, किन्तु उसी जल में उत्पन्न और संवर्धित जीवों के लिये पेय है। भगवन् ! कालोदसमुद्र के जल का आस्वाद कैसा है ? गौतम ! कालोदसमुद्र के जल का आस्वाद पेशल (मनोज्ञ), मांसल (परिपुष्ट करनेवाला), काला, उड़द की राशि की कृष्णकांति जैसी कांतिवाला है और प्रकृति से अकृत्रिम रस वाला है। भगवन् ! पुष्करोदसमुद्र का जल स्वाद में कैसा है ? गौतम ! वह स्वच्छ है, उत्तम जाति का है, हल्का है और स्फटिकमणि जैसी कांतिवाला और प्रकृति से अकृत्रिम रस वाला है। भगवन् ! वरुणोदसमुद्र का जल स्वाद में कैसा है ? Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुद्रों के उदकों का आस्वाद] गौतम ! जैसे पत्रासव, त्वचासव, खजूर का सार, भली-भांति पकाया हुआ इक्षुरस होता है तथा मेरक-कापिशायन-चन्द्रप्रभा-मनः शिला-वरसीधु-वरवारुणी तथा आठ बार पीसने से तैयार की गई जम्बूफल-मिश्रित वरप्रसन्ना जाति की मदिराएं उत्कृष्ट नशा देने वाली होती हैं, पोठों पर लगते ही आनन्द देनेवाली, कुछ-कुछ आँखें लाल करनेवाली, शीघ्र नशा-उत्तेजना देने वाली होती हैं, जो प्रास्वाद्य, पुष्टिकारक एवं मनोज्ञ हैं, शुभ वर्णादि से युक्त हैं, उसके जैसा वह जल है। इस पर गौतम पूछते हैं कि क्या वह जल उक्त उपमाओं जैसा ही है ? इस पर भगवान् कहते हैं कि, "नहीं" यह बात ठीक नहीं है, इससे भी इष्टतर वह जल कहा गया है। भगवन् ! क्षीरोदसमुद्र का जल आस्वाद में कैसा है ? गौतम ! जैसे चातुरन्त चक्रवर्ती के लिए चतुःस्थान-परिणत गोक्षीर (गाय का दूध) जो मंदमंद अग्नि पर पकाया गया हो, आदि और अन्त में मिसरी मिला हुआ हो, जो वर्ण गंध रस और स्पर्श से श्रेष्ठ हो, ऐसे दूध के समान वह जल है। यह उपमामात्र है, वह जल इससे भी अधिक इष्टतर है। घृतोदसमुद्र के जल का आस्वाद शरदऋतु के गाय के घी के मंड (सार-थर) के समान है जो सल्लकी और कनेर के फूल जैसा वर्णवाला है, भली-भांति गरम किया हुआ है, तत्काल नितारा हुआ है तथा जो श्रेष्ठ वर्ण-गंध-रस-स्पर्श से युक्त है। यह केवल उपमामात्र है, इससे भी अधिक इष्ट घृतोदसमुद्र का जल है। भगवन् ! क्षोदोदसमुद्र का जल स्वाद में कैसा है ? गौतम ! जैसे भेरुण्ड देश में उत्पन्न जातिवंत उन्नत पौण्ड्रक जाति का ईख होता है जो पकने पर हरिताल के समान पीला हो जाता है, जिसके पर्व काले हैं, ऊपर और नीचे के भाग को छोड़कर केवल बिचले त्रिभाग को ही बलिष्ठ बैलों द्वारा चलाये गये यंत्र से रस निकाला गया हो, जो वस्त्र से छाना गया हो, जिसमें चतुर्जातक दालचीनी, इलायची, केसर, कालीमिर्च-मिलाये जाने से सुगन्धित हो, जो बहुत पथ्य, पाचक और शुभ वर्णादि से युक्त हो-ऐसे इक्षुरस जैसा वह जल है। यह उपमामात्र है, इससे भी अधिक इष्ट क्षोदोदसमुद्र का जल है। इसी प्रकार स्वयंभूरमणसमुद्र पर्यन्त शेष समुद्रों के जल का प्रास्वाद जानना चाहिए। विशेषता यह है कि वह जल वैसा ही स्वच्छ, जातिवंत और पथ्य है जैसा कि पुष्करोद का जल है। भगवन् ! कितने समुद्र प्रत्येक रस वाले कहे गये हैं ? गौतम ! चार समुद्र प्रत्येक रसवाले हैं अर्थात् वैसा रस अन्य किसी दूसरे समुद्र का नहीं है। वे हैं- लवण, वरुणोद, क्षीरोद और घृतोद / भगवन् ! कितने समुद्र प्रकृति से उदगरस वाले हैं ? गौतम ! तीन समुद्र प्रकृति से उदग रसवाले हैं अर्थात् इनका जल स्वाभाविक पानी जैसा ही है / वे है-कालोद, पुष्करोद और स्वयंभूरमण समुद्र / अायुष्मन् श्रमण ! शेष सब समुद्र प्रायः क्षोदरस (इक्षुरस) वाले कहे गये हैं। Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 76]] [ जीवाजीवाभिगमसूत्र 187. कइ णं भंते ! समुद्दा बहुमच्छकच्छभाइण्णा पण्णता ? गोयमा ! तो समुद्दा बहुमच्छकच्छभाइण्णा पण्णत्ता, तं जहा--लवणे, कालोए, सयंभूरमणे। अवसेसा समुद्दा अप्पमच्छकच्छभाइण्णा पण्णत्ता समणाउसो ! लवणे णं भंते ! समुद्दे कइमच्छजाइकुलजोणीपमुहसयसहस्सा पण्णत्ता ? गोयमा ! सत्त मच्छजाइकुलकोडीपमुहसयसहस्सा पण्णत्ता। कालोए णं भंते ! समुद्दे कइ मच्छजाइ पण्णता? गोयमा! नवमच्छकुलकोडीजोणोपमुहसयसहस्सा पण्णता / सयंभूरमणे णं भंते ! समुद्दे .. कइमच्छजाइ०? गोयमा ! अखतेरसमच्छजाइकुलकोडीजोणीपमुहसयसहस्सा पण्णत्ता / लवणे णं भंते ! समुद्दे मच्छाणं केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता ? गोयमा! जहन्नणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं पंचजोयणसयाई / एवं कालोए यणसयाई / संयंभूरमणे जहन्नणं अंगुलस्स असंखेज्जभार्ग उक्कोसेर्ण दस जोयणसयाई। 187. भगवन् ! कितने समुद्र बहुत मत्स्य-कच्छपों वाले हैं ? गौतम ! तीन समुद्र बहुत मत्स्य-कच्छपों वाले हैं, उनके नाम हैं-लवण, कालोद और स्वयंभूरमण समुद्र / आयुष्मन् श्रमण ! शेष सब समुद्र अल्प मत्स्य-कच्छपों वाले कहे गये हैं। भगवन् ! कालोदसमुद्र में मत्स्यों की कितनी लाख जातिप्रधान कुलकोडियों की योनियां कही गई हैं ? गौतम ! नव लाख मत्स्य-जातिकुलकोडी योनियां कही हैं। भगवन् ! स्वयंभूरमणसमुद्र में मत्स्यों की कितनी लाख जातिप्रधान कुलकोडियों की योनियां हैं ? गौतम ! साढे बारह लाख मत्स्य-जातिकुलकोडी योनियां हैं। भगवन् ! लवणसमुद्र में मत्स्यों के शरीर की अवगाहना कितनी बड़ी है ? गौतम ! जघन्य से अंगुल का असंख्यात भाग और उत्कृष्ट पांच सौ योजन की उनकी अवगाहना है। इसी तरह कालोदसमुद्र में (जघन्य अंगुल का असंख्यात भाग) उत्कृष्ट सात सौ योजन की अवगाहना है / स्वयंभूरमणसमुद्र में मत्स्यों की जघन्य अवगाहना अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट एक हजार योजन प्रमाण है। 188. केवइया णं भंते ! दीवसमुद्दा नामधेज्जेहिं पण्णता? गोयमा! जावइया लोगे सुभा णामा सुभा वण्णा जाव सुभा फासा, एबइया दोवसमुद्दा णामधेज्जेहिं पण्णत्ता। केवइया णं भंते ! दीवसमुद्दा उद्धारसमएणं पण्णत्ता ? Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रिय पुद्गल परिणाम] [77 गोयमा ! जावइया अड्डाइज्जाणं सागरोवमाणं उद्धारसमया एवइया दीवसमुद्दा उद्धारसमएणं पण्णत्ता दीवसमुद्दा णं भंते ! कि पुढविपरिणामा आउपरिणामा जीवपरिणामा पोग्गलपरिणामा ? गोयमा ! पुढवोपरिणामावि, आउपरिणामावि, जीवपरिणामावि, पोग्गलपरिणामावि / दोवसमुद्देसु णं भंते ! सव्वपाणा, सव्वभूया, सव्वजोवा सव्वसत्ता पुढविकाइयत्ताए जाव तसकाइयत्ताए उववण्णधुव्वा ? हंता गोयमा ! असइ अदुवा प्रणतखुत्तो। इति दीवसमुद्दा समत्ता। 188. भंते ! नामों की अपेक्षा द्वीप और समुद्र कितने नाम वाले हैं ? गौतम ! लोक में जितने शुभ नाम हैं, शुभ वर्ण हैं यावत् शुभ स्पर्श हैं, उतने हो नामों वाले द्वीप और समुद्र हैं। भंते ! उद्धारसमयों की अपेक्षा से द्वीप-समुद्र कितने हैं ? गौतम ! अढाई सागरोपम के जितने उद्धारसमय हैं, उतने द्वीप और सागर हैं। भगवन् ! द्वीप-समुद्र पृथ्वी के परिणाम हैं, अप के परिणाम हैं, जीव के परिणाम हैं तथा पुद्गल के परिणाम हैं ? ___ गौतम ! द्वीप-समुद्र पृथ्वीपरिणाम भी हैं, जलपरिणाम भी हैं, जीवपरिणाम भी हैं और पुद्गलपरिणाम भी हैं। भगवन् ! इन द्वीप-समुद्रों में सब प्राणी, सब भूत, सब जीव और सब सत्व पृथ्वीकाय यावत् त्रसकाय के रूप में पहले उत्पन्न हुए हैं क्या ? गोतम ! हां, कईबार अथवा अनन्तबार उत्पन्न हो चुके हैं। इस तरह द्वीप-समुद्र की वक्तव्यता पूर्ण हुई। इन्द्रिय पुद्गल परिणाम 189. कइविहे गं भंते ! इंदियविसए पोग्गलपरिणामे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे इंदियविसए पोग्गलपरिणामे पण्णत्ते, तं जहा-सोइंदियविसए जाव - फासिदियविसए। सोइंदियविसए णं भंते ! पोग्गलपरिणामे कइविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-सुन्भिसहपरिणामे य दुब्भिसद्दपरिणामे य। एवं चक्खिदियविसयादिएहिवि सुरुवपरिणामे य दुरूवपरिणामे य / एवं सुरभिगंधपरिणामे य दुरभिगंधपरिणामे य। एवं सुरसपरिणामे य दुरसपरिणामे य / एवं सुफासपरिणामे य दुफासपरिणामे य। से नणं भंते ! उच्चावएसु सहपरिणामेसु उच्चावएसु रुवपरिणामेसु एवं गंधपरिणामेसु रसपरिणामेसु फासपरिणामेसु परिणममाणा पोग्गला परिणमंतीति वत्तव्वं सिया? हंता गोयमा ! उच्चावएसु सद्दपरिणामेसु परिणममाणा पोग्गला परिणमंतीति वत्तव्वं सिया। Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 78] [जीवाजीवाभिगमसूत्र से नणं भंते ! सुभिसद्दा पोग्गला दुग्भिसहत्ताए परिणमंति, दुन्भिसहा पोग्गला सुभिसद्दत्ताए परिणमंति ? हंता गोयमा ! सुम्भिसद्दा पोग्गला दुन्भिसद्दत्ताए परिणमंति, दुभिसद्दा पोग्गला सुभिसद्दत्ताए परिणमंति। से नणं भंते ! सुरूवा पोग्गला दुरूवत्ताए परिणमंति, दुरूवा पोग्गला सुरूवत्ताए परिणमंति? हंता गोयमा! एवं सुब्भिगंधा पोग्गला दुरिभगंधत्ताए परिणमंति, दुनिभगंधा पोग्गला सुग्भिगंधत्ताए परिणमंति ? हंता गोयमा ! एवं सुफासा दुफासत्ताए ? सुरसा दुरसत्ताए ? हंता गोयमा ! 189. भगवन् ! इन्द्रियों का विषयभूत पुद्गलपरिणाम कितने प्रकार का है ? गौतम ! इन्द्रियों का विषयभूत पुद्गलपरिणाम पांच प्रकार का है, यथा-श्रोत्रेन्द्रिय का विषय यावत् स्पर्शनेन्द्रिय का विषय / भगवन् ! श्रोत्रेन्द्रिय का विषयभूत पुद्गलपरिणाम कितने प्रकार का है ? / गौतम ! दो प्रकार का है-- शुभ शब्दपरिणाम और अशुभ शब्दपरिणाम / इसी प्रकार चक्षुरिन्द्रिय आदि के विषयभूत पुद्गलपरिणाम भी दो-दो प्रकार के हैं-यथा सुरूपपरिणाम और कुरूपपरिणाम, सुरभिगंधपरिणाम और दुरभिगंधपरिणाम, सुरसपरिणाम एवं दुरसपरिणाम और सुस्पर्शपरिणाम एवं दुःस्पर्शपरिणाम / / भगवन् ! उत्तम अधम शब्दपरिणामों में, उत्तम-अधम रूपपरिणामों में, इसी तरह गंधपरिणामों में. रसपरिणामों में और स्पर्शपरिणामों में परिणत होते हुए पुदगल परिणत होते हैं- बदलते हैं—ऐसा कहा जा सकता है क्या ? (अवस्था के बदलने से वस्तु का बदलना कहा जा सकता है क्या?) हां, गौतम ! उत्तम-अधम रूप में बदलने वाले शब्दादि परिणामों के कारण पुद्गलों का बदलना कहा जा सकता है / (पर्यायों के बदलने पर द्रव्य का बदलना कहा जा सकता है।) भगवन् ! क्या उत्तम शब्द अधम शब्द के रूप में बदलते हैं ? अधम शब्द उत्तम शब्द के रूप में बदलते हैं क्या? गौतम ! उत्तम शब्द अधम शब्द के रूप में और अधम शब्द उत्तम शब्द के रूप में बदलते हैं। भगवन् ! क्या शुभ रूप वाले पुद्गल अशुभ रूप में और अशुभ रूप के पुद्गल शुभ रूप में बदलते हैं ? हां, गौतम ! बदलते हैं। इसी प्रकार सुरभिगंध के पुद्गल दुरभिगंध के रूप में और दुरभिगंध के पुद्गल सुरभिगंध के रूप में बदलते हैं। इसी प्रकार शुभस्पर्श के पुद्गल अशुभस्पर्श के रूप में और अशुभस्पर्श वाले शुभस्पर्श के रूप में तथा इसी तरह शुभरस के पुद्गल अशुभरस के रूप में और अशुभरस के पुद्गल शुभरस में परिणत हो सकते हैं। देवशक्ति सम्बन्धी प्रश्नोत्तर 190. देवे णं भंते ! महिडिए जाव महाणुभागे पुवामेव पोग्गलं खवित्ता पभू तमेव अणुपरिवट्टित्ताणं गिहित्तए ? हंता प्रभू ! से केणछैणं एवं वुच्चइ देवे णं भंते ! महिडिए जाव गिहित्तए? Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवशक्ति सम्बन्धी प्रश्नोत्तर] [79 गोयमा! पोग्गले खितेसमाणे पुष्वामेव सिग्घगई भवित्ता तो पच्छा मंदगई भवइ, देवे गं महिड्डिए जाय महाणुभागे पुवंपि पच्छावि सिग्धे सिग्धगई (तुरिए तुरियगई) चेव, से तेणोणं गोयमा ! एवं वुच्चइजाव अणुपरियत्ताणं गेण्हित्तए। __ देवे णं भंते ! महिटिए बाहिरए पोग्गले अपरियाइता पुण्यामेव बालं अच्छित्ता अभित्ता पभू गंठित्तए ? नो इणठे समझें / __देवे णं भंते ! महिडिए बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पुन्यामेव बालं अच्छित्ता अभित्ता पभू गंठित्ता? नो इणठे समढे / देवे णं भंते ! महिडिए जाव महाणभागे बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पुन्वामेव बालं अछेत्ता अभेत्ता पभू गंठित्तए ? हंता पभू। तं चेव णं गठि छउमत्थे ण जाणइ, ण पासइ, एवं सुहुमं च णं गंठिया। देवे णं भंते ! महिड्डिए पुवामेव बालं अच्छेत्ता अभेत्ता पभू दीहीकरित्तए वा हस्सीकरित्तए वा? नो इणो समठे / एवं चत्तारिवि गमा, पढमबिइयभंगेसु अपरियाइत्ता एगंतरियगा अच्छेत्ता, अभेत्ता सेसं तदेव / तं चेव सिद्धं छउमत्थे ण जाणइ, ण पासइ / एवं सुहमं च णं दोहोकरेज्ज वा हस्सीकरेज्ज वा। 190. भगवन् ! कोई महद्धिक यावत् महाप्रभावशाली देव (अपने गमन से) पहले किसी वस्तु को फेंके और फिर वह गति करता हुआ उस वस्तु को बीच में ही पकड़ना चाहे तो वह ऐसा करने में समर्थ है ? हां, गौतम ! वह ऐसा करने में समर्थ है / भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है कि वह वैसा करने में समर्थ है ? गौतम ! फेंकी गई वस्तु पहले शीघ्रगति वाली होती है और बाद में उसकी गति मन्द हो जाती है, जबकि उस महद्धिक और महाप्रभावशाली देव की गति पहले भी शीघ्र होती है और बाद में भी शीघ्र होती है, इसलिए ऐसा कहा जाता है कि वह देव उस वस्तु को पकड़ने में समर्थ है। भगवन् ! कोई महद्धिक यावत् महाप्रभावशाली देव बाह्य पुद्गलों को ग्रहण किये बिना और किसी बालक को पहले छेदे-भेदे बिना उसके शरीर को सांधने में समर्थ है क्या ? नहीं, गौतम ! ऐसा नहीं हो सकता ? भगवन् ! कोई महद्धिक यावत् महाप्रभावशाली देव बाह्य पुद्गलों को ग्रहण करके परन्तु बालक के शरीर को पहले छेदे-भेदे बिना उसे सांधने में समर्थ है क्या ? नहीं गौतम ! वह समर्थ नहीं है। Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80] [जीवाजोवाभिगमसूत्र भगवन् ! कोई महद्धिक एवं महाप्रभावशाली देव बाह्य पुद्गलों को ग्रहण कर और बालक के शरीर को पहले छेद-भेद कर फिर उसे सांधने में समर्थ है क्या? हां, गौतम ! वह ऐसा करने में समर्थ है। वह ऐसी कुशलता से उसे सांधता है कि उस संधिग्रन्थि को छद्यस्थ न देख सकता है और न जान सकता है / ऐसी सूक्ष्म ग्रन्थि वह होती है / भगवन् ! कोई महद्धिक देव (बाह्य पुद्गलों को ग्रहण किये बिना) पहले बालक को छेदे-भेदे बिना बड़ा या छोटा करने में समर्थ है क्या ? गौतम ! ऐसा नहीं हो सकता। इस प्रकार चारों भंग कहने चाहिए। प्रथम द्वितीय भंगों में बाह्य पुद्गलों का ग्रहण नहीं है और प्रथम भंग में बाल-शरीर का छेदन-भेदन भी नहीं है। द्वितीय भंग में छेदन-भेदन है। तृतीय भंग में बाह्य पुद्गलों का ग्रहण करना और बाल-शरीर का छेदन-भेदन करना नहीं है / चौथे भंग में बाह्य पुद्गलों का ग्रहण भी है और पूर्व में बाल-शरीर का छेदन-भेदन भी है। इस छोटे-बड़े करने की सिद्धि को छद्मस्थ नहीं जान सकता और नहीं देख सकता / ह्रस्वीकरण और दीर्धीकरण की यह विधि बहुत सूक्ष्म होती है। ज्योतिष्क चन्द्र-सूर्याधिकार 191. अस्थि णं भंते ! चंदिमसूरियाणं हिदिपि तारारूवा अणुपि तुल्लावि, समंपि तारारूवा अणुपितुल्लावि, उप्पिपि ताराख्वा प्रणु पि तुल्लावि ? हंता, अस्थि / से केणद्वेणं भंते ! एवं वुच्चइ--अस्थि णं चंदिमसूरियाणं जाव उप्पिंपि तारारूवा अणुपि, तुल्लावि ? गोयमा ! जहा जहा णं तेसि देवाणं तव-णियम-बंभचेर-वासाई उक्कडाई उस्सियाई भवंति तहा तहा णं तेसिं देवाणं एवं पण्णायइ अणुत्ते वा तुल्ले वा। से एएणठेणं गोयमा! अत्थि गं चंदिमसूरियाणं उप्पिपि तारारूवा अणुपि तुल्लावि० / एगमेगस्स णं चंदिम-सूरियस्स, अट्ठासीई च गहा, अट्ठावीसं च होइ नक्खत्ता। एक ससीपरिवारो एतो ताराणं वोच्छामि // 1 // छावठ्ठि सहस्साई नव चेव सयाई पंच सयराई। एक ससोपरिवारो तारागणकोडिकोडीणं // 2 // 191. भगवन् ! चन्द्र और सूर्यों के क्षेत्र की अपेक्षा नीचे रहे हुए जो तारा रूप देव हैं, वे क्या (धुति, वैभव, लेश्या आदि की अपेक्षा) हीन भी हैं और बराबर भी हैं ? चन्द्र-सूर्यों के क्षेत्र की समश्रेणी में रहे हुए तारा रूप देव, चन्द्र-सूर्यों से द्युति आदि में हीन भी हैं और बराबर भी हैं ? तथा Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्योतिष्क चन्द्र-सूर्याधिकार] 181 जो तारा रूप देव चन्द्र और सूर्यों के ऊपर अवस्थित हैं, वे धुति आदि की अपेक्षा हीन भी हैं और बराबर भी हैं ? हां, गौतम ! कोई हीन भी हैं और कोई बराबर भी हैं। भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है कि कोई तारादेव हीन भी हैं और कोई तारादेव बराबर भी हैं ? गोतम ! जैसे-जैसे उन तारा रूप देवों के पूर्वभव में किये हुए नियम और ब्रह्मचर्यादि में उत्कृष्टता या अनुत्कृष्टता होती है, उसी अनुपात में उनमें अणुत्व या तुल्यत्व होता है। इसलिए गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि चन्द्र-सूर्यों के नीचे, समश्रेणी में या ऊपर जो तारा रूप देव हैं वे हीन भी हैं और बराबर भी हैं। प्रत्येक चन्द्र और सूर्य के परिवार में (88) अठ्यासी ग्रह, अट्ठावीस (28) नक्षत्र होते हैं और ताराओं की संख्या छियासठ हजार नौ सौ पचहत्तर (66975) कोडाकोडी होती है। 192. जंबुद्दीवे णं भंते ! दोवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरथिमिल्लाप्रो चरमंताओ केवइयं अबाहाए जोइसं चारं चरइ ? / गोयमा! एक्कारसहिं एक्कवीसेहि जोयणसएहि अबाहाए जोइसं चारं चरइ; एवं दक्खिणिल्लाओ पच्चथिमिल्लानो उत्तरिल्लाओ एक्कारसहिं एकवीसेहि जोयणसएहिं अबाहाए जोइसं चारं चरइ। लोगताओ णं भंते ! केवइयं अबाहाए जोइसे पण्णते ? गोयमा ! एक्कारसहिं एक्कारेहि जोयणसएहि अबाहाए जोइसे पण्णते / इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जानो भूमिभागानो केवइयं अबाहाए सम्वहेटिल्ले ताराहवे चारं चरइ ? केवइयं अबाहाए सूरविमाणे चारं चरइ? केवइयं प्रबाहाए चंदविमाणे चारं चरइ ? केवइयं प्रबाहाए सव्वउवरिल्ले तारारूवे चारं चरइ ? गोयमा ! इमोसे णं रयणप्पभापुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ सत्तहिं णउएहि जोयणसएहिं अबाहाए जोडसं सव्वहेदिल्ले तारारूबेचारं चरह / अहि जोयणसर्ण हाए सूरविमाणे चारं चरइ / अहि असीएहि जोयणसएहिं अबाहाए चंदविमाणे चारं चरइ / नहिं जोयणसएहि प्रबाहाए सव्वउरिल्ले ताराख्ये चारं चरइ। सबहेदिमिल्लाओ णं भंते ! तारारुवानो केवइयं अबाहाए सूरबिमाणे चार चरइ ? केवइयं चंदविमाणे चारं चरइ ? केवइयं अबाहाए सव्वउवरिल्ले ताराहवे चारं चरइ ? गोयमा ! सव्वहेट्ठिल्लाओ णं दसहि जोय!ह सूरविमाणे चारं चरइ / णउइए जोयणेहि अबाहाए चंदविमाणे चारं चरइ / दसुत्तरे जोयणसए अबाहाए सव्योवरिल्ले तारारूवे चारं चरइ / सूरविमाणाओ भंते ! केवइयं अबाहाए चंदविमाणे चारं चरइ ? केवइयं सव्वउवरिल्ले ताराहवे चारं चरइ ? Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82] [जीवाजोवाभिगमसूत्र गोयमा ! सूरविमाणानो णं असीए जोयणेहि चंदविमाणे चारं चरइ। जोयणसए प्रबाहाए सव्वोवरिल्ले तारारूवे चारं चरइ। चंदविमाणाओ णं भंते ! केवइयं अबाहाए सव्वउवरिल्ले तारारूवे चारं चरइ ? गोयमा! चंदविमाणाओ गं वीसाए जोयणेहि अबाहाए सव्वउवरिल्ले तारारूवे चारं चरद / एवामेव सपुष्वावरेणं दसुत्तरसयजोयणबाहल्ले तिरियमसंखेज्जे जोइसविसए पण्णत्ते। जंबद्दीवे णं भंते ! दीवे कयरे णक्खत्ते सब्भितरिल्लं चारं चरति ? कयरे णक्खत्ते सव्वबाहिरिल्लं चार चरइ ? कयरे णक्खत्ते सव्वउवरिल्लं चारं चरइ ? कयरे णक्खते सभितरिल्लं चारं चरइ? गोयमा ! जंबुद्दीवे णं दीवे अभीइनक्खत्ते सभितरिल्लं चारं चरइ, मूले नक्खत्ते सव्वबाहिरिल्लं चारं चरइ, साइणक्खत्ते सव्योवरिल्लं चारं चरइ, भरणीनक्खत्ते सव्वहेटिल्लं चारं चरइ / 192. भगवन् ! जम्बूद्वीप में मेरुपर्वत के पूर्व चरमान्त से ज्योतिष्कदेव कितनी दूर रहकर उसकी प्रदक्षिणा करते हैं ? गौतम ! ग्यारह सौ इक्कीस (1121) योजन दूरी से प्रदक्षिणा करते हैं। इसी तरह दक्षिण चरमान्त से, पश्चिम चरमान्त से और उत्तर चरमान्त से भी ग्यारह सौ इक्कीस योजन दूरी से प्रदक्षिणा करते हैं। भगवन् ! लोकान्त से कितनी दूरी पर ज्योतिष्कचक्र कहा गया है ? गौतम ! ग्यारह सौ ग्यारह (1111) योजन पर ज्योतिष्कचक्र है / भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के बहुसमरमणीय भूमिभाग से कितनी दूरी पर सबसे निचला तारारूप गति करता है ? कितनी दूरी पर सूर्यविमान गति करता है? कितनी दूरी पर चन्द्रविमान चलता है ? कितनी दूरी पर सबसे ऊपरवर्ती तारा चलता है ? गौतम ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के बहुसमरमणीय भूमिभाग से 790 योजन दूरी पर सबसे निचला तारा गति करता है / आठ सौ (800) योजन दूरी पर सूर्यविमान चलता है। आठ सौ प्रस्सी (880) योजन पर चन्द्रविमान चलता है। नौ सौ (900) योजन दूरी पर सबसे ऊपरवर्ती तारा गति करता है। ___ भगवन् ! सबसे निचले तारा से कितनी दूर सूर्य का विमान चलता है ? कितनी दूरी पर चन्द्र का विमान चलता है ? कितनी दूरी पर सबसे ऊपर का तारा चलता है ? गौतम ! सबसे निचले तारा से दस योजन दूरी पर सूर्यविमान चलता है, नब्बै योजन दूरी पर चन्द्रविमान चलता है / एक सौ दस योजन दूरी पर सबसे ऊपर का तारा चलता है। __ भगवन् ! सूर्यविमान से कितनी दूरी पर चन्द्रविमान चलता है ? कितनी दूरी पर सर्वोपरि तारा चलता है ? __गौतम ! सूर्यविमान से अस्सो योजन की दूरी पर चन्द्रविमान चलता है और एक सौ योजन ऊपर सर्वोपरि तारा चलता है / Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्योतिष्क चन्द्र-सूर्याधिकार] [83 भगवन् ! चन्द्रविमान से कितनी दूरी पर सबसे उपर का तारा गति करता है ? गौतम ! चन्द्र विमान से बीस योजन दूरी पर सबसे ऊपर का तारा चलता है। इस प्रकार सब मिलाकर एक सौ दस योजन के बाहल्य (मोटाई) में तिर्यदिशा में असंख्यात योजन पर्यन्त ज्योतिष्कचक्र कहा गया है। भगवन ! जम्बूद्वीप में कौन-सा नक्षत्र सब नक्षत्रों के भीतर, बाहर मण्डलगति से तथा ऊपर, नीचे विचरण करता है ? गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में अभिजित् नक्षत्र सबसे भीतर रहकर मण्डलगति से परिभ्रमण करता है। मूल नक्षत्र सब नक्षत्रों से बाहर रहकर मण्डलगति से परिभ्रमण करता है / स्वाति नक्षत्र सब नक्षत्रों से ऊपर रहकर चलता है और भरणी नक्षत्र सबसे नीचे मण्डलगति से विचरण करता है।' 193. चंदविमाणे णं भंते ! किसंठिए पण्णते ? गोयमा! अद्धकविटुगसंठाणसंठिए सटवफालियामए अन्भुग्गयमूसियपहसिए वण्णओ / एवं सूरविमाणेवि गहविमाणेवि नक्खत्तविमाणेवि ताराविमाणेवि अद्धकविट्ठसंठाणसंठिए। चंदविमाणे णं भंते ! केवइयं प्रायाम-विक्खंभेणं केवइयं परिक्खेवेणं ? केवइयं बाहरूलेणं पण्णत्ते ? गोयमा ! छप्पन्ने एकसट्ठिभागे जोयणस्स आयामविक्ख भेणं, तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं, अट्ठावीसं एगसट्ठिभागे जोयणस्स बाहल्लेणं पण्णते / सूरविमाणस्स सच्चेव पुच्छा? गोयमा ! अडयालीसं एकसट्ठिभागे जोयणस्स आयामविक्ख भेणं, तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं, चउवीसं एकसट्ठिभागे जोयणस्स बाहल्लेणं पण्णत्ते / एवं गहविमाणेवि अद्धजोयणं प्रायामविक्खंभेणं, तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं कोसं बाहल्लेणं पण्णत्ते। ___ नक्खत्तविमाणे णं कोसं पायामविक्खभेणं, तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं अद्धकोसं बाहल्लेणं पण्णत्ते। ताराविमाने अद्धकोसं आयामविक्खंभेणं, तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं पंचधणुसयाई बाहल्लेणं पण्णत्ते। 193. भगवन् ! चन्द्रमा का विमान किस आकार का है ? गौतम ! चन्द्रविमान अर्धकबीठ के आकार का है / वह चन्द्रविमान सर्वात्मना स्फटिकमय है, इसकी कान्ति सब दिशा-विदिशा में फैलती है, जिससे यह श्वेत, प्रभासित है (मानो अन्य का उपहास कर रहा हो) इत्यादि विशेषणों का वर्णन करना चाहिए। इसी प्रकार सूर्यविमान भी, ग्रह विमान भी और ताराविमान भी अर्धकबीठ प्राकार के हैं। सव्वभितराऽभीई, मूलो पुण सव्व बाहिरो होई। सव्वोपरि तु साई भरणी पुण सव्व हेट्ठिलिया // 1 // Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54] [जीवाजीवाभिगमसूत्र भगवन् ! चन्द्रविमान का प्रायाम-विष्कंभ कितना है ? परिधि कितनी है? और बाहल्य (मोटाई) कितना है ? गौतम ! चन्द्रविमान का आयाम-विष्कंभ (लम्बाई-चौड़ाई) एक योजन के 61 भागों में से 56 भाग (11) प्रमाण है। इससे तीन गुणी से कुछ अधिक उसकी परिधि है। एक योजन के 61 भागों में से 28 भाग (16) प्रमाण उसकी मोटाई है। सूर्यविमान के विषय में भी वैसा ही प्रश्न किया है। गौतम ! सूर्यविमान एक योजन के 61 भागों में से 48 भाग प्रमाण लम्बा-चौड़ा, इससे तीन गुणो से कुछ अधिक उसकी परिधि और एक योजन के 61 भागों में से 24 भाग (34) प्रमाण उसकी मोटाई है। ग्रहविमान प्राधा योजन लम्बा-चौड़ा, इससे तीन गुणी से कुछ अधिक परिधि वाला और एक कोस की मोटाई वाला है / नक्षत्रविमान एक कोस लम्बा-चौड़ा, इससे तीन गुणी से कुछ अधिक परिधि वाला और प्राधे कोस की मोटाई वाला है। ताराविमान प्राधे कोस की लम्बाई-चौड़ाई वाला, इससे तिगुनी से कुछ अधिक परिधि वाला और पांच सौ धनुष की मोटाई वाला है / विवेचन इस सूत्र में चन्द्रादि विमानों का आकार आधे कबीठ के प्राकार के समान बतलाया गया है। यहां यह शंका हो सकती है कि जब चन्द्रादि का आकार अर्धकबीठ जैसा हो तो उदय के समय, पौर्णमासी के समय जब वह तिर्यक् गमन करता है तब उस आकार का क्यों नहीं दिखाई देता है ? इसका समाधान करते हुए कहा गया है कि-यहां रहने वाले पुरुषों द्वारा अर्धकपित्थाकार वाले चन्द्रविमान की केवल गोल पोठ ही देखी जाती है; हस्तामलक की तरह उसका समतल भाग नहीं देखा जाता / उस पीठ के ऊपर चन्द्रदेव का महाप्रासाद है जो दूर रहने के कारण चर्मचक्षुओं द्वारा साफ-साफ दिखाई नहीं देता।' 194. (अ) चंदविमाणं णं भंते ! कइ देवसाहस्सीओ परिवहति ? गोयमा ! (सोलस देवसाहस्सीओ परिवहति) चंदविमाणस्स णं पुरच्छिमेणं सेयाणं सुभगाणं सुप्पभाणं संखतलविमलनिम्मल-दहियणगोखीर-फेणरययनिरप्पगासाणं महुगुलियपिंगलक्खाणं थिरलट्ठपऊवट्टपोवरसुसिलिट्ठसुविसिटुतिक्खदाढाविडंबियमुहाणं रत्तुप्पलपत्तमउयसुकुमालतालुजीहाणं (पसत्थसत्यविरुलियभिसंतकक्कडनहाणं) विसालपोवरोरु-पडिपुण्णविउल-खंधाणं मिउविसय-पसत्थसहुमलक्खण-विच्छिण्ण-केसरसडोवसोभियाणं चंकमियालयपुलितधवलगवियगईणं उस्सिय 1. अद्धकविट्रागारा उदयत्थमणम्मि कहं न दीसंति ? ससिसुराण विमाणा तिरियखेत्तट्रियाणं च // उत्ताणद्धकविट्ठागारं पीठं तदुवरिं च पासायो। वट्टालेखेण ततो समवटें दूरभावाप्रो / / Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्योतिष्क चन्द्र-सूर्याधिकार] [ 5 सुणिम्मियसुजाय-अप्फोडिय-णंगूलाणं वइरामयणक्खाणं वइरामयदंताणं वइरामयदाढाणं तवणिज्जजोहाणं तवणिज्जतालुयाणं तवणिज्जजोत्तगसुजोइयाणं कामगमाणं पीइगमाणं मणोगमाणं मणोरमार्ण मणोहराणं अमियगईणं प्रमियबलविरियपुरिसकारपरकम्माणं महया अप्फोडिय-सोहनाइय-बोलकलकलरवेणं महुरेणं मणहरेण य पूरिता अंबरं दिसाओ य सोभयंता चत्तारि देवसाहस्तीनो सीहरूवधारिणं देवाणं पुरच्छिमिल्लं बाहं परिबहंति / 194. (अ) भगवन् ! चन्द्रविमान को कितने हजार देव वहन करते हैं ? गौतम ! सोलह हजार देव चन्द्रविमान को वहन करते हैं। उनमें से चार हजार देव सिंह का रूप धारण कर पूर्व दिशा से उठाते हैं। उन सिंहों का रूपवर्णन इस प्रकार है-वे श्वेत हैं. सन्दर श्रेष्ठ कांति वाले हैं, शंख के तल के समान विमल और निर्मल तथा जमे हुए दही, गाय का दूध, फेन चांदी के निकर (समूह) के समान श्वेत प्रभा वाले हैं, उनकी आंखें शहद की गोली के समान पीली हैं, उनके मुख में स्थित सुन्दर प्रकोष्ठों से युक्त गोल, मोटी, परस्पर जुड़ी हुई विशिष्ट और तीखी दाढ़ाएं हैं, उनके तालु और जीभ लाल कमल के पत्ते के समान मृदु एवं सुकोमल हैं, उनके नख प्रशस्त और शुभ वैडूर्यमणि की तरह चमकते हुए और कर्कश हैं, उनके उरु विशाल और मोटे हैं, उनके कंधे पूर्ण और विपुल हैं, उनके गले को केसर-सटा मृदु विशद (स्वच्छ) प्रशस्त सूक्ष्म लक्षणयुक्त और विस्तीर्ण है, उनकी गति चंक्रमणों-लीलाओं और उछलने-कदने से गर्वभरी (मस्तानी) और साफसुथरी होती है, उनकी पूछे ऊँची उठी हुईं, सुनिमित-सुजात और फटकारयुक्त होती हैं / उनके नख वज्र के समान कठोर हैं, उनके दांत बज्र के समान मजबूत हैं, उनकी दाढ़ाएं बज्र के समान सुदृढ़ हैं, तपे हुए सोने के समान उनकी जीभ है, तपनीय सोने की तरह उनके तालु हैं, सोने के जोतों से वे जोते हुए हैं / ये इच्छानुसार चलने वाले हैं, इनकी गति प्रीतिपूर्वक होती है, ये मन को रुचिकर लगने वाले हैं, मनोरम हैं, मनोहर हैं, इनकी गति अमित-अवर्णनीय है (चलते-चलते थकते नहीं), इनका बल-वीर्यपुरुषकारपराक्रम अपरिमित है। ये जोर-जोर से सिंहनाद करते हुए और उस सिंहनाद से आकाश और दिशाओं को गुजाते हुए और सुशोभित करते हुए चलते रहते हैं / (इस प्रकार चार हजार देव सिंह का रूप धारण कर चन्द्रविमान को पूर्व दिशा की ओर से वहन करते चलते हैं / ) 194. (आ) चंदविमाणस्स णं दक्खिणेणं सेयाणं सुभगाणं सुप्पभाणं संखतलविमलनिम्मलदधिघणगोखोरफेणरययणियरप्पगासाणं वइरामयकु भजुयलसुट्टियपीवरवरवइरसोडवट्टियदित्तसुरत्तपउमप्पगासाणं अब्भुण्णयमुहाणं तवणिज्जविसालचंचल-चलंतचवलकण्णविमलुज्जलाणं मधुवण्णभिसंतणिपिंगलपत्तलतिवण्णमणिरयणलोयणाणं अन्भुग्गयमउलमल्लियाणं धवल-सरिससंठिय-णिव्वणवढकसिण-फालियामयसुजायदंत-मुसलोवसोभियाणं कंचणकोसीपविट्ठदंतग्गविमलमणिरयणरुइरपेरंतचित्तरूवगविरायाणं तवणिज्ज-विसालतिलगपमुहपरिमंडियाणं जाणामणिरयणमुद्धगेवेज्जबद्ध-गलयवर-भूसणाणं वेरुलियविचित्त-दंडणिम्मलवइरामयतिक्खलढुअंकुसकु भजुयलंतरोदियाणं तवणिज्जसुबद्धकच्छदप्पियबलुद्धराणं जंबूणयविमलघणमंडलवइरामयलालाललिय-ताल-णाणामणिरयणघंटपासगरययामय-रज्जुबद्धलंबितघंटाजुयलमहुरसरमणहराणं अल्लीण-पमाण जुत्त बट्टियसुजायलक्खण-पसत्यतवणिज्जबालगत्तपरिपुच्छणाणं उवचिय-पडिपुण्ण-कुम्भ-चलण-लहु-विक्कमाणं अंकामयणक्खाणं तवणिज्जतालुयाणं तवणिज्जजीहाणं तवणिज्जजोत्तगसुजोइयाणं कामगमाणं Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जीवाजीवाभिगमसूत्र पीइगमाणं मणोगमाणं मणोरमाणं मणोहराणं अमियगईणं अमियबलवोरिय-पुरिसकार-परक्कमाणं महया गंभोरगुलगुलाइरवेणं महुरेणं मणहरेणं पूरेता अंबरं दिसाम्रो य सोमयंता चत्तारि देवसाहस्सीओ गयरूवधारीणं देवाणं दक्खिणिल्लं वाहं परिवहति / / 194 (मा) उस चन्द्रविमान को दक्षिण की तरफ से चार हजार देव हाथी का रूप धारण कर उठाते वहन करते हैं। उन हाथियों का वर्णन इस प्रकार है-वे हाथी श्वेत हैं, सुन्दर हैं, सुप्रभा वाले हैं। उनकी कांति शंखतल के समान विमल-निर्मल है, जमे हुए दही की तरह, गाय के दूध, फेन और चाँदी के निकर की तरह उनकी कान्ति श्वेत है। उनके वज्रमय कुम्भ-युगल के नीचे रही हुई सुन्दर मोटी सूड में जिन्होंने क्रोडार्थ रक्तपद्मों के प्रकाश को ग्रहण किया हुआ है (कहीं-कहीं ऐसा देखा जाता है कि जब हाथी युवावस्था में वर्तमान रहता है तो उसके कुभस्थल से लेकर शुण्डादण्ड तक स्वतः ही पद्मप्रकाश के समान बिन्दु उत्पन्न हो जाया करते हैं--उसका यहां उल्लेख है) उनके मुख ऊंचे उठे हुए हैं, वे तपनीय स्वर्ण के विशाल, चंचल और चपल हिलते हुए विमल कानों से सुशोभित हैं, शहद वर्ण के चमकते हुए स्निग्ध पीले और पक्ष्मयुक्त तथा मणिरत्न की तरह त्रिवर्ण श्वेत कृष्ण पीत वर्ण वाले उनके नेत्र हैं, अतएव वे नेत्र उन्नत मृदुल मल्लिका के कोरक जैसे प्रतीत होते हैं, उनके दांत सफेद, एक सरीखे, मजबूत, परिणत अवस्था वाले, सुदृढ, सम्पूर्ण एवं स्फटिकमय होने से सुजात हैं और मूसल की उपमा से शोभित हैं, इनके दांतों के अग्रभाग पर स्वर्ण के वलय पहनाये गये हैं अतएव ये दांत ऐसे मालूम होते हैं मानो विमल मणियों के बीच चांदी का ढेर हों। इनके मस्तक पर तपनीय स्वर्ण के विशाल तिलक आदि आभूषण पहनाये हुए हैं, नाना मणियों से निमित ऊर्ध्व ग्रैवेयक आदि कंठ के प्राभरण गले में पहनाये हुए हैं। जिनके गण्डस्थलों के मध्य में वैडूर्यरत्न के विचित्र दण्ड वाले निर्मल वज्रमय तीक्ष्ण एवं सुन्दर अंकुश स्थापित किये हुए हैं / तपनीय स्वर्ण की रस्सी से पीठ का आस्तरण-झूले बहुत ही अच्छी तरह सजाकर एवं कसकर बांधा गया है अतएव ये दर्प से युक्त और बल से उद्धत बने हुए हैं, जम्बूनद स्वर्ण के बने घनमंडल वाले और वज्रमय लाला से ताडित तथा आसपास नाना मणिरत्नों की छोटी-छोटी घंटिकाओं से युक्त रत्नमयी रज्जु में लटके दो बड़े घंटों के मधुर स्वर से वे मनोहर लगते हैं। उनकी पूछे चरणों तक लटकती हुई हैं, गोल हैं तथा उनमें सुजात और प्रशस्त लक्षण वाले बाल हैं जिनसे वे हाथी अपने शरीर को पोंछते रहते हैं। मांसल अवयवों के कारण परिपूर्ण कच्छप की तरह उनके पांव होते हुए भी वे शीघ्र गति वाले हैं। अंकरत्न के उनके नख हैं, तपनीय स्वर्ण के जोतों द्वारा वे जोते हए है। वे इच्छानुसार ग हैं, प्रीतिपूर्वक गति करने वाले हैं, मन को अच्छे लगने वाले हैं, मनोरम हैं, मनोहर हैं, अपरिमित गति वाले हैं, अपरिमित बल-वीर्य-पुरुषकार-पराक्रम वाले हैं। अपने बहुत गंभीर एवं मनोहर गुलगुलाने की ध्वनि से आकाश को पूरित करते हैं और दिशाओं को सुभोभित करते हैं। (इस प्रकार चार हजार हाथी रूपधारी देव चन्द्रविमान को दक्षिण दिशा से उठाकर गति करते रहते हैं।) 194. (इ) चंदविमाणस्स णं पच्चत्थिमेणं सेयाणं सुभगाणं सुप्पभाणं चंकमियललियपुलियचलचवलककुदसालीणं सण्णयपासाणं संगतपासाणं सुजायपासाणं मियमाइयपीणरइइपासाणं झसविहगसजायकच्छीणं पसत्थणिद्धमधगलियभिसंतपिंगलक्खाणं विसालपीवरोरुपडिपुण्णविउलखंधाणं वद्रपडिपुण्णविउलकबोलकलियाणं घणणितियसुबद्धलक्खणुण्णतइसिआणयवसभोढाणं चंकमियललियपुलियचक्कवालचवलगन्धियगईणं पीनपीवरवट्टियसुसंठियकडीणं ओलंबपलंबलक्खणपमाणजुत्तपसत्थरमणिज्ज Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्योतिष्क चन्द्र-सूर्याधिकार] [87 वालगंडाणं समखुरवालधाणोणं समलिहियतिक्खग्गसिंगाणं तणुसुहमसुजायणिद्धलोमच्छविधराणं उचियमंसलविसालपडिपुण्णखुद्दपमुहपुडराणं (खंधपएसे सुंदराणं) वेरुलियभिसंतकडक्खसुनिरिक्खणाणं जुत्तप्यमाणप्पहाणलक्खणपसत्थरमणिज्जगग्गरगलसोभियाणं घग्घरगसुबद्धकंठपरिमंडियाणं नानामणिकणगरयणघंटवेयच्छगसुकयरइयमालियाणं वरघंटागलगलियसोभंतसस्सिरीयाणं पउमुष्पलसगलसुरभिमालाविभूसियाणं वइरख राणं विविहख राणं फलियामयदंताणं तवणिज्जजीहाणं तवणिज्जतालुयाणं तवणिज्जजोत्तगसजोइयाणं कामगमाणं पीइगमाणं मणोगमाणं मणोरमाणं मणोहराणं अमियगईणं अमियबलवीरियपुरिसकारपरक्कमाणं महया गंभीरगज्जियरवेणं महुरेणं मणहरेण य पूरता अंबरं दिसाओ य सोभयंता चत्तारि देवसाहस्सीओ वसभरूवधारीणं देवाणं पच्चथिमिल्लं बाहं परिवहति। 194. (इ) उस चन्द्रविमान को पश्चिमदिशा की ओर से चार हजार बैलरूपधारी देव उठाते हैं / उन बैलों का वर्णन इस प्रकार है __वे श्वेत हैं, सुन्दर लगते हैं, उनकी कांति अच्छी है, उनके ककुद (स्कंध पर उठा हुआ भाग) कुछ कुछ कुटिल हैं, ललित (विलासयुक्त) और पुष्ट हैं तथा दोलायमान हैं, उनके दोनों पार्श्वभाग सम्यग् नीचे की ओर झुके हुए हैं, सुजात हैं, श्रेष्ठ हैं, प्रमाणोपेत हैं, परिमित मात्रा में ही मोटे होने से सुहावने लगने वाले हैं, मछली और पक्षी के समान पतली कुक्षि वाले हैं, इनके नेत्र प्रशस्त, स्निग्ध, शहद की गोली के समान चमकते पोले वर्ण के हैं, इनकी जंधाएं विशाल, मोटी और मांसल हैं, इनके स्कंध विपुल और परिपूर्ण हैं, इनके कपोल गोल और विपुल हैं, इनके ओष्ठ धन के समान निचित (मांसयुक्त) और जबड़ों से अच्छी तरह संबद्ध हैं, लक्षणोपेत उन्नत एवं अल्प झुके हुए हैं / वे चंक्रमित (बांकी) ललित (विलासयुक्त) पुलित (उछलती हुई) और चक्रवाल की तरह चपल गति से गर्वित हैं, मोटी स्थूल वर्तित (गोल) और सुसंस्थित उनकी कटि है / उनके दोनों कपोलों के बाल ऊपर से नीचे तक अच्छी तरह लटकते हुए हैं, लक्षण और प्रमाणयुक्त, प्रशस्त और रमणीय हैं / उनके खुर और पूछ एक समान हैं, उनके सींग एक समान पतले और तीक्ष्ण अग्रभाग वाले हैं। उनकी रोमराशि पतली सूक्ष्म सुन्दर और स्निग्ध है। इनके स्कंधप्रदेश उपचित परिपुष्ट मांसल और विशाल होने से सुन्दर हैं, इनको चितवन वैडूर्यमणि जैसे चमकीले कटाक्षों से युक्त अतएव प्रशस्त और रमणीय गर्गर नामक प्राभूषणों से शोभित हैं, घग्घर नामक आभूषण से उनका कंठ परिमंडित है, अनेक मणियों स्वर्ण और रत्नों से निर्मित छोटी-छोटी घंटियों की मालाएं उनके उर पर तिरछे रूप में पहनायी गई हैं। उनके गले में श्रेष्ठ घंटियों की मालाएं पहनायी गई हैं। उनसे निकलने वाली कांति से उनको शोभा में वृद्धि हो रही है / ये पद्मकमल की परिपूर्ण सुगंधियुक्त मालाओं से सुगन्धित हैं / इनके खुर वज्र जैसे हैं, इनके खुर विविध प्रकार के हैं अर्थात् विविध विशिष्टता वाले हैं। उनके दांत स्फटिक रत्नमय हैं, तपनीय स्वर्ण जैसी उनकी जिह्वा है, तपनीय स्वर्णसम उनके तालु हैं, तपनीय स्वर्ण के जोतों से वे जुते हुए हैं। वे इच्छानुसार चलने वाले हैं, प्रीतिपूर्वक चलनेवाले हैं, मन को लुभानेवाले हैं, मनोहर और मनोरम हैं, उनकी गति अपरिमित है, अपरिमित बल-वीर्य-पुरुषकारपराक्रम वाले हैं। वे जोरदार गंभीर गर्जना के मधुर एवं मनोहर स्वर से आकाश को गुजाते हुए और दिशाओं को शोभित करते हुए गति करते हैं। (इस प्रकार चार हजार वृषभरूपधारी देव चन्द्रविमान को पश्चिम दिशा से उठाते हैं।) Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88] [जीवाजीवाभिगमसूत्र 194. (ई) चंदविमाणस्स णं उत्तरेणं सेयाणं सुभगाणं सुप्पभाणं जच्चाणं तरमल्लिहायणाणं हरिमेलामउलमल्लियच्छाणं घणणिचियसुबद्धलक्षणुग्णयचंकमिय-(चंचुरिय) ललियपुलियचलचवलचंचलगईणं लंघणवग्गणधावणधारणतिवइजइणसिक्खियगईणं ललंतलामगलायवरभूसणाणं सण्णयपासाणं संगयपासाणं सुजायपासाणं मियमाइयपीणरइयपासाणं शसविहगसुजायकुच्छीणं पीणपोवरवट्टियसुसंठियकडीणं ओलंबपलबलक्खणपमाणजुत्तपसत्थरमणिज्जबालगंडाणं तणुसहुमसुजायणिलोमच्छविधराणं मिउविसयपसत्थसुहमलक्खणविकिण्णकेसरवालिधराणं ललियसविलासगइललंतथासगललाडवरभूसणाणं मुहमंडगोचलचमरथासगपरिमंडयकडीणं तवणिज्जखराणं तवणिज्जजीहाणं तवणिज्जतालुयाणं तवणिज्जजोत्तगसुजोइयाणं कामगमाणं पीइगमाणं मणोगमाणं मणोहराणं अमियगईणं अमियबलवीरियपुरिसकारपरक्कमाणं महयायहेसियकिलकिलाइयरवेणं महुरेणं मणहरेण य पूरता अंबरं दिसायो य सोभयंता चत्तारि देवसाहस्सोमो हयरूवधारीणं देवाणं उत्तरिल्लं बाहं परिवहति / 194. (ई) उस चन्द्रविमान को उत्तर की ओर से चार हजार अश्वरूपधारी देव उठाते हैं। वे अश्व इन विशेषणों वाले हैं-वे श्वेत हैं, सुन्दर हैं, सुप्रभावाले हैं, उत्तम जाति के हैं, पूर्ण बल और वेग प्रकट होने की (तरुण) वय वाले हैं, हरिमेलकवृक्ष की कोमल कली के समान धवल प्रांख वाले हैं, वे अयोधन की तरह दृढीकृत, सुबद्ध, लक्षणोन्नत कुटिल (बांकी) ललित उछलती चंचल और चपल चाल वाले है, लांघना, उछलना, दौड़ना, स्वामी को धारण किये रखना त्रिपदी (लगाम) के चलाने के अनुसार चलना, इन सब बातों की शिक्षा के अनुसार ही वे गति करने वाले हैं। हिलते हए रमणीय आभूषण उनके गले में धारण किये हुए हैं, उनके पार्श्वभाग सम्यक् प्रकार से झुके हुए हैं, संगतप्रमाणापेत हैं, सुन्दर हैं, यथोचित मात्रा में मोटे और रति पैदा करने वाले हैं, मछली और पक्षी के समान उनकी कुक्षि है, पोन-पीवर और गोल सुन्दर प्राकार वाली उनकी कटि है, दोनों कपोलों के बाल ऊपर से नीचे तक अच्छी तरह से लटकते हुए हैं, लक्षण और प्रमाण से युक्त हैं, प्रशस्त हैं, रमणीय हैं। उनकी रोमराशि पतली, सूक्ष्म, सुजात और स्निग्ध है। उनकी गर्दन के बाल मृदु, विशद, प्रशस्त, सूक्ष्म और सुलक्षणोपेत हैं और सुलझे हुए हैं / सुन्दर और विलासपूर्ण गति से हिलते हुए दर्पणाकार स्थासक-प्राभूषणों से उनके ललाट भूषित हैं, मुखमण्डप, अवचूल, चमर-स्थासक आदि प्राभूषणों से उनकी कटि परिमंडित है, तपनीय स्वर्ण के उनके खुर हैं, तपनीय स्वर्ण की जिह्ना है, तपनीय स्वर्ण के तालु हैं, तपनीय स्वर्ण के जोतों से वे भलीभांति जुते हुए हैं। वे इच्छापूर्वक गमन करने वाले हैं, प्रीतिपूर्वक चलने वाले हैं, मन को लुभावने लगते हैं, मनोहर हैं / वे अपरिमित गति वाले हैं, अपरिमित बल-वीर्य-पुरुषाकार-पराक्रम वाले हैं। वे जोरदार हिनहिनाने की मधुर और मनोहर ध्वनि से आकाश को गुजाते हुए, दिशाओं को शोभित करते हुए चन्द्रविमान को उत्तरदिशा की ओर से उठाते हैं।' 1. चन्द्रादि विमानानि जमतः स्वभावात निरालम्बानि, तथापि कियन्तो विनोदिनोऽनेकरूपधराः अभियोगिकादेवा: सततवहनशीलेषु विमानेषु अधः स्थित्वा परिवहन्ति कौतहलादिति / -बत्ति Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्योतिष्क चन्द्र-सूर्याधिकार] [89 194. (उ) एवं सूरविमाणस्सवि पुच्छा ? गोयमा ! सोलस देवसाहस्सीओ परिवहंति पुश्वकमेणं / एवं गहविमाणस्सवि पुच्छा ? गोयमा ! प्रदु देवसाहस्सीनो परिवहंति पुष्बकमेणं / दो देवाणं साहस्सोओ पुरथिमिल्लं बाहं परिवहंति, दो देवाणं साहस्सोओ दक्खिणिल्लं०, दो देवाणं साहस्सीओ पच्चत्थिमं, दो देवसाहस्सोश्रो उत्तरिल्लं बाहं परिवहति / एवं गक्खत्तविमाणस्स वि पुच्छा? गोयमा ! चत्तारि देवसाहस्सीओ परिवहंति सीहरूबधारीणं देवाणं दस देवसया पुरथिमिल्लं बाहं परिवहंति एवं चउद्दिसि / एवं तारगाणपि गवरं दो देवसाहस्सीओ परिवहंति, सीहरूबधारोणं देवाणं पंचदेवसया पुरथिमिल्लं बाहं परिवहंति एबं चउद्दिसि / 194. (उ) सूर्य के विमान के विषय में भी यही प्रश्न करना चाहिए। गौतम ! सोलह हजार देव पूर्वक्रम के अनुसार सूर्यविमान को वहन करते हैं / इसी प्रकार ग्रह विमान के विषय में प्रश्न करने पर भगवान् ने कहा-गौतम ! आठ हजार देव ग्रहविमान को वहन करते हैं। दो हजार देव पूर्व की तरफ से, दो हजार देव दक्षिणदिशा से, दो हजार देव पश्चिमदिशा से और दो हजार देव उत्तर की दिशा से ग्रहविमान को उठाते हैं / नक्षत्रविमान की पृच्छा होने पर भगवान् ने कहागौतम ! चार हजार देव नक्षत्रविमान को वहन करते हैं। एक हजार देव सिंह का रूप धारण कर पूर्वदिशा की ओर से वहन करते हैं। इसी तरह चारों दिशाओं से चार हजार देव नक्षत्रविमान को वहन करते हैं। इसी प्रकार ताराविमान को दो हजार देव वहन करते हैं। पांच सौ-पांच सौ देव चारों दिशाओं से ताराविमान को वहन करते हैं / 195. एएसि णं भंते ! चंदिमसूरियगहणक्खत्तताराख्वाणं कयरे कयरेहितो सिग्घगई वा मंदगई वा? गोयमा ! चंदेहितो सूरा सिग्घगई, सूरेहितो गहा सिग्घगई, गहेहितो नक्खत्ता सिग्घगई, णक्खत्तेहितो तारा सिग्धगई / सन्वष्पगइ चंदा सम्वसिग्घगइओ तारारूवे / एएसि णं भंते ! चंदिम जाव तारारूवाणं कयरे कयरेहितो अप्पिडिया वा महिड्डिया वा? गोयमा ! तारास्वहितो नक्खत्ता महिड्डिया, नक्खतेहित्तो गहा महिटिया, गहेहितो सूरा महिडिया, सूरेहितो चंदा महिड्डिया / सवप्पिड्डिया तारारूवा सव्व महिड्डिया चंदा। 195. भगवन् ! इन चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और ताराओं में कौन किससे शीघ्रगति वाले हैं और कौन मंदगति वाले हैं ? गौतम ! चन्द्र से सूर्य तेजगति वाले हैं, सूर्य से ग्रह शीघ्रगति वाले हैं, ग्रह से नक्षत्र शीघ्रगति वाले हैं और नक्षत्रों से तारा शीघ्रगति वाले हैं। सबसे मन्दगति चन्द्रों की है और सबसे तीव्रगति ताराओं की है। भगवन् ! इन चन्द्र यावत् तारारूप में कौन किससे अल्प ऋद्धि वाले हैं और कौन महाऋद्धि वाले हैं ? गौतम ! तारारूप से नक्षत्र महद्धिक हैं, नक्षत्र से ग्रह महद्धिक हैं, ग्रहों से सूर्य महद्धिक हैं और सूर्यों से चन्द्रमा महद्धिक हैं। सबसे अल्पऋद्धि वाले तारारूप हैं और सबसे महद्धिक चन्द्र हैं / Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90] [जीवाजीवाभिगमसूत्र . 196. (अ) जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे तारारुवस्स तारारुवस्स एस णं केवइए अबाहाए अंतरे पण्णत्ते? गोयमा ! दुविहे अंतरे पण्णत्ते, तं जहा-वाघाइमे य निवाघाइमे य / तत्थ णं जे से वाघाइमे से जहन्नेणं दोग्णि या छावठे जोयणसए उक्कोसेणं बारस जोयणसहस्साइं दोषिण य बायाले जोयणसए तारारुवस्स तारारुवस्स य अबाहाए अंतरे पण्णत्ते / तत्थ णं जे से निव्वाधाइमे से जहन्नेणं पंचधणुसयाई उक्कोसणं दो गाउयाइं तारास्वस्स तारारुवस्स अंतरे पण्णत्ते। चंदस्स णं भंते ! जोइसिंदस्स जोइसरन्नो कइ अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णताओ, तं जहा--चंदप्पभा दोसिणाभा अच्चिमाली पभंकरा / एत्थ णं एगमेगाए देवीए चत्तारि देविसाहस्सीओ परिवारे य / पभू णं तओ एगमेगा देवी अण्णाइं चत्तारि चत्तारि देविसहस्साई परिवारं विउवित्तए / एवामेव सपुव्वावरेणं सोलस देविसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, से तं तुडिए। 196. (अ) भगवन् ! जम्बूद्वीप में एक तारा का दूसरे तारे से कितना अंतर कहा गया है ? गौतम ! अन्तर दो प्रकार का है, यथा-व्याघातिम (कृत्रिम) और निाघातिम (स्वाभाविक)। व्याघातिम अन्तर जघन्य दो सौ छियासठ (266) योजन का और उत्कृष्ट बारह हजार दो सौ बयालीस (12242) योजन का कहा गया है। जो निर्व्याघातिम अन्तर है वह जघन्य पांच सौ धनुष और उत्कृष्ट दो कोस का जानना चाहिए। (निषध व नीलवंत पर्वत के कूट ऊपर से 250 योजन लम्बे-चौड़े हैं / कूट को दोनों ओर से आठ-आठ योजन को छोड़कर तारामंडल चलता है, अतः 250 में 16 जोड़ देने से 266 योजन का अन्तर निकल आता है / उत्कृष्ट अन्तर मेरु की अपक्षा से है। मेरु को चौड़ाई दस हजार योजन की है और दोनों प्रोर के 1120 योजन पटेता छोड़कर तारामण्डल चलता है। इस तरह 10 हजार योजन में 2242 मिलाने से उत्कृष्ट अन्तर पा जाता है।) भगवन् ! ज्योतिष्केन्द्र ज्योतिषराज चन्द्र की कितनी अग्रमहिषियां हैं ? गौतम ! चार अग्रमहिषियां हैं, यथा---चन्द्रप्रभा, ज्योत्स्नाभा, अचिमाली और प्रभंकरा / इनमें से प्रत्येक अग्रमहिषी अन्य चार हजार देवियों को विकुर्वणा कर सकती है। इस प्रकार कुल मिलाकर सोलह हजार देवियों का परिवार हो जाता है। यह चन्द्रदेव के "तुटिक' अन्तःपुर का कथन हुआ। 196. (आ) पभू णं भंते ! चंदे जोइसिंदे जोइसराया चंद डिसए विमाणे सभाए सुहम्माए चंदंसि सीहासंणसि तुडिएण सद्धि दिव्वाइं भोगभोगाई भुंजमाणे विहरित्तए ? णो इणठे समढें / से केणठेणं भंते ! एवं बुच्चइ नो पभू चंदे जोइसराया चंदवडेंसए विमाणे सभाए सुहम्माए चंदंसि सीहासणंसि तुडिएणं सद्धि दिव्याई भोगभोगाइं भुजमाणे विहरित्तए ? गोयमा ! चंदस्स जोइसिंदस्स जोइसरण्णो चंदडिसए विमाणे सभाए सुहम्माए माणवगंसि चेइयखंभंसि वइरामएसु गोलवट्टसमुग्गएसु बहुयायो जिणसकहानो सण्णिक्खित्ताओ चिट्ठति जानो णं Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्योतिष्क चन्द्र-सूर्याधिकार] [91 चंदस्स जोइसिदस्स जोइसरण्णो अन्नेसि च बहणं जोइसियाणं देवाण य देवीण य अच्चणिज्जासो जाव पज्जुवासणिज्जाओ। तासि पणिहाय नो पभू चंदे जोइसराया चंदडिसए जाव चंदंसि सीहासणंसि जाव भुजमाणे विहरित्तए / से एएणठेणं गोयमा! नो पभू चंदे जोइसराया चंदवडेंसए विमाणे सभाए सुहम्माए चंदसि सीहासणंसि तुडिएण सद्धि दिव्वाइं भोगभोगाई भुजमाणे विहरित्तए। अत्तरं च णं गोयमा ? पभू चंदे जोइसराया चंदडिसए विमाणे सभाए सुहम्माए चंदेसि सीहासणंसि चहि सामाणियसाहस्सोहिं जाव सोलसहि आयरक्खदेवाणं साहस्सोहिं अन्नेहि बहूहि जोइसिएहि देवेहि देवीहि य सद्धि संपरिवुडे महया हयणट्टगीयवाइयतंतीतलतालतुडियघणमुइंगपडुप्पाइयरवेणं दिव्वाई भोगभोगाइं भुजमाणे विहरित्तए, केवलं परियारतुडिएण सद्धि भोगभोगाई बुद्धिए नो चेव णं मेहुणवत्तियं। 196. (आ) भगवन् ! ज्योतिष्केन्द्र ज्योतिषराज चन्द्र चन्द्रावतंसक विमान में सुधर्मा सभा में चन्द्र नामक सिंहासन पर अपने अन्तःपुर के साथ दिव्य भोगोपभोग भोगने में समर्थ है क्या ? गौतम ! नहीं / वह समर्थ नहीं है। भगवन् ! ऐसा क्यों कहा जाता है कि ज्योतिषराज चन्द्र चन्द्रावतंसक विमान में सुधर्मा सभा में चन्द्र नामक सिंहासन पर अन्त:पुर के साथ दिव्य भोगोषभोग भोगने में समर्थ नहीं है ? गौतम ! ज्योतिष्केन्द्र ज्योतिषराज चन्द्र के चन्द्रावतंसक विमान में सुधर्मा सभा में माणवक चैत्यस्तंभ में वजमय गोल मंजूषानों में बहुत-सी जिनदेव की अस्थियां रखी हुई हैं, जो ज्योतिष्केन्द्र ज्योतिषराज चन्द्र और अन्य बहुत-से ज्योतिषी देवों और देवियों के लिए अर्चनीय यावत् पर्युपासनीय हैं / उनके कारण ज्योतिषराज चन्द्र चन्द्रावतंसक विमान में यावत् चन्द्रसिंहासन पर यावत् भोगोपभोग भोगने में समर्थ नहीं है। इसलिए ऐसा कहा गया है कि ज्योतिषराज चन्द्र चन्द्रावतंसक विमान में सुधर्मा सभा में चन्द्र सिंहासन पर अपने अन्तःपुर के साथ दिव्य भोगोपभोग भोगने में समर्थ नहीं है। गौतम ! दूसरी बात यह है कि ज्योतिषराज चन्द्र चन्द्रावतंसक विमान में सुधर्मा सभा में चन्द्र सिंहासन पर अपने चार हजार सामानिक देवों यावत् सोलह हजार आत्मरक्षक देवों तथा अन्य बहुत से ज्योतिषी देवों और देवियों के साथ घिरा हुआ होकर जोर-जोर से बजाये गये नृत्य में, गीत में, वादित्रों के, तन्त्री के, तल के, ताल के, त्रुटित के, धन के, मृदंग के बजाये जाने से उत्पन्न शब्दों से दिव्य भोगोपभोगों को भोग सकने में समर्थ है। किन्तु अपने अन्तःपुर के साथ मैथुनबुद्धि से भोग भोगने में वह समर्थ नहीं है। 196. (इ) सूरस्स णं भंते ! जोइसिदस्स जोइसरन्नो कइ अग्गम हिसीओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहा—सूरप्पभा, प्रायवाभा, अच्चिमाली, पभंकरा / एवं अवसेसं जहा चंदस्स गरि सूरडिसए विमाणे सूरंसि सीहासणंसि तहेब सव्वेसि गहाईणं चत्तारि अग्गमाहिसीओ, तं जहा-विजया वेजयंती जयंती अपराइया तेसि पि तहेव / 196. (इ) भगवन् ! ज्योति केन्द्र ज्योतिषराज सूर्य की कितनी अग्रमहिषियां हैं ? गौतम ! चार अग्रहिषियां हैं, जिनके नाम हैं-सूर्यप्रभा, पातपाभा, अचिमाली और Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 92] [जीवाजीवाभिगमसूत्र प्रभंकरा / शेष वक्तव्यता चन्द्र के समान कहनी चाहिए। विशेषता यह है कि यहां सूर्यावतंसक विमान में सूर्यसिंहासन पर कहना चाहिए। उसी तरह ग्रहादि की भी चार अनमहिषियां हैं-विजया, वेजयंती, जयंति और अपराजिता / इनके सम्बन्ध में भी पूर्ववत् कथन करना चाहिए। 197. चंदविमाणे णं भंते ! देवाणं केवइयं कालं ठिइ पण्णत्ता? एवं जहा ठिईपए तहा भाणियव्वा जाव ताराणं / एएसि णं भंते ! चंदिमसूरियगहणक्खत्ततारारूवाणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा, वहुया वा, तुल्ला वा, विसेसाहिया वा? गोयमा ! चंदिमसूरिया एए णं दोण्णिवि तुल्ला सम्वत्थोवा / संखेज्जगुणा णक्खत्ता, संखेज्जगुणा गहा, संखेज्जगुणाप्रो ताराओ / जोइसुद्देसनो समत्तो। 197. भगवन् ! चन्द्रविमान में देवों की कितनी स्थिति कही गई है ? इस प्रकार प्रज्ञापना में स्थितिपद के अनुसार तारारूप पर्यन्त स्थिति का कथन करना चाहिए। भगवन् ! इन चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारागों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! चन्द्र और सूर्य दोनों तुल्य हैं और सबसे थोड़े हैं। उनसे संख्यातगुण नक्षत्र हैं। उनसे संख्यातगुण ग्रह हैं, उनसे संख्यातगुण तारागण हैं / ज्योतिष्क उद्देशक पूरा हुआ। विवेचन–प्रस्तुत सूत्र में स्थिति के सम्बन्ध में प्रज्ञापना के स्थितिपद की सूचना की गई है। वह इस प्रकार है चन्द्र विमान में चन्द्र, सामानिक देव तथा आत्मरक्षक देवों की जघन्य स्थिति पल्योपम के चतुर्थ भाग प्रमाण और उत्कृष्ट स्थिति एक हजार वर्ष अधिक एक पल्योपम की है। यहाँ देवियों की स्थिति जघन्य पल्योपम के चतुर्थ भाग प्रमाण और उत्कृष्ट पांच सौ वर्ष अधिक प्राधे पल्योपम की है। सूर्यविमान में देवों की जघन्य स्थिति 1 पल्योपम और उत्कृष्ट स्थिति एक हजार वर्ष अधिक एक पल्योपम की है। यहां देवियों की स्थिति जघन्य है पल्योपम और उत्कृष्ट पांच सौ वर्ष अधिक आधा पल्योपम की है। ग्रह विमानगत देवों की जघन्य स्थिति पल्योपम और उत्कृष्ट एक पल्योपम की है। यहां देवियों की स्थिति जघन्य पल्योपम का चतुर्थभाग और उत्कृष्ट आधा पल्योपम है / __ नक्षत्रविमान में देवों की जधन्य स्थिति 3 पल्योपम और उत्कृष्ट एक पल्योपम की है। यहां दवियों को जघन्य स्थिति पल्योपम और उत्कृष्ट कुछ अधिक है पल्योपम की है। ताराविमान में देवों की जघन्य स्थिति पल्योपम की और उत्कृष्ट 3 पल्योपम है / देवियों की स्थिति जघन्य ई पल्योपम और उत्कृष्ट कुछ अधिक पल्योपम का भाग प्रमाण है। ॥ज्योतिष्क उद्देशक समाप्त॥ Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैमानिक उद्देशक वैमानिक-वक्तव्यता 198. कहि णं भंते ! बेमाणियाणं विमाणा पण्णता, कहि णं भंते ! वेमाणिया देवा परिवसंति ? जहा ठाणपए सव्व भाणियन्वं नवरं परिसाओ भाणियवाओ जाव अच्चुए, अन्नेसि च बहूणं सोहम्मकप्पवासीणं देवाण य देवीण य जाव विहरति / 198. भगवन् ! वैमानिक देवों के विमान कहां कहे गये हैं ? भगवान् ! वैमानिक देव कहां रहते हैं ? इत्यादि वर्णन जैसा प्रज्ञापनासूत्र के स्थानपद में कहा है, वैसा यहां कहना चाहिए। विशेष रूप में यहां अच्युत विमान तक परिषदाओं का कथन भी करना चाहिए यावत् बहुत से सौधर्मकल्पवासी देव और देवियों का आधिपत्य करते हुए सुखपूर्वक विचरण करते हैं। विवेचन–प्रस्तुत सूत्र में प्रज्ञापनासूत्र के स्थानपद की सूचना की गई है। विषय की स्पष्टता के लिए उसे यहां देना आवश्यक है / वह इस प्रकार है ___ "इस रत्नप्रभापृथ्वी के बहुसमरमणीय भूभाग से ऊपर चन्द्र-सूर्य-ग्रह-नक्षत्र तथा तारारूप ज्योतिष्कों के अनेक सो योजन, अनेक हजार योजन, अनेक लाख योजन, अनेक करोड़ योजन और बहुत कोटाकोटी योजन ऊपर दूर जाकर सौधर्म-ईशान-सनत्कुमार-माहेन्द्र-ब्रह्मलोक-लान्तक-महाशुक्रसहस्रार-प्राणत-पारण-अच्युत-ग्रैवेयक और अनुत्तर विमानों में वैमानिक देवों के चौरासी लाख सत्तानवै हजार तेवीस विमान एवं विमानावास हैं / वे विमान सर्वरत्नमय स्फटिक के समान स्वच्छ, चिकने, कोमल, घिसे हुए, चिकने बनाये हुए, रजरहित, निर्मल, पंकरहित, निरावरण कांतिवाले, प्रभायूक्त, श्रीसम्पन्न, उद्योतसहित प्रसन्नता उत्पन्न करने वाले, दर्शनीय, रमणीय, रूप अप्रतिम सुन्दर हैं। उनमें बहुत से वैमानिक देव निवास करते हैं। वे इस प्रकार हैं--सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लान्तक, महाशुक्र, सहस्रार, प्रानत, प्राणत, पारण, अच्युत, नौ अवेयक और पांच अनुत्तरोपपातिक देव / वे सौधर्म से अच्युत तक के देव क्रमश: 1. मृग, 2. महिष, 3. वराह, 4. सिंह, 5. बकरा (छगल), 6. दर, 7. हय, 8. गजराज 9. भजंग, 10. खडग (गेंडा), 11. वषभ और 12. के प्रकट चिह्न से युक्त मुकुट वाले, शिथिल और श्रेष्ठ मुकुट और किरीट के धारक, श्रेष्ठ कुण्डलों से उद्योतित मुख वाले, मुकुट के कारण शोभयुक्त, रक्त-भाभा युक्त, कमल-पत्र के समान गोरे, श्वेत, सुखद वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श वाले, उत्तम वैक्रिय-शरीरधारी, प्रवर वस्त्र-गन्ध-माल्य-अनुलेपन के धारक, महद्धिक, महाद्युतिमान्, महायशस्वी, महाबली, महानुभाग, महासुखी, हार से सुशोभित वक्षस्थल वाले हैं। कड़े और बाजूबंदों से मानो भुजाओं को उन्होंने स्तब्ध कर रखी हैं, अंगद, कुण्डल आदि आभूषण उनके कपोल को सहला रहे हैं, कानों में कर्णफूल और हाथों में विचित्र करभूषण धारण किये हुए हैं / विचित्र पुष्पमालाएं मस्तक पर शोभायमान हैं। वे कल्याणकारी उत्तम वस्त्र पहने हुए हैं तथा Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 94] [जीवाजीवाभिगमसूत्र कल्याणकारी श्रेष्ठमाला और अनुलेपन धारण किये हुए हैं। उनका शरीर देदीप्यमान होता है। वे लम्बी वनमाला धारण किये हुए होते हैं। दिव्य वर्ण से, दिव्य गंध से, दिव्य स्पर्श से, दिव्य संहनन और दिव्य संस्थान से, दिव्य ऋद्धि, दिव्य द्युति, दिव्य प्रभा, दिव्य छाया, दिव्य अचि, दिव्य तेज और दिव्य लेश्या से दसों दिशाओं को उद्योतित एवं प्रभासित करते हुए वे वहां अपने-अपने लाखों विमानावासों का, अपने-अपने हजारों सामानिक देवों का, अपने-अपने त्रायस्त्रिशक देवों का, अपनेअपने लोकपालों का, अपनी-अपनी सपरिवार अग्रमहिषियों का, अपनी-अपनी परिषदों का, अपनीअपनी सेनामों का, अपने-अपने सेनाधिपति देवों का, अपने-अपने हजारों प्रात्मरक्षक देवों का तथा बहत से वैमानिक देवों और देवियों का प्राधिपत्य परोवतित्व (अग्रेरसत्व). स्वामित्व. भर्त महत्तरकत्व, आज्ञैश्वर्यत्व तथा सेनापतित्व करते-कराते और पालते-पलाते हुए निरन्तर होने वाले महान् नाट्य, गीत तथा कुशलवादकों द्वारा बजाये जाते हुए वीणा, तल, ताल, त्रुटित, घनमृदंग प्रादि वाद्यों की समुत्पन्न ध्वनि के साथ दिव्य शब्दादि कामभोगों को भोगते हुए विचरण करते हैं / ___ जंबूद्वीप के सुमेरु पर्वत के दक्षिण के इस रत्नप्रभापृथ्वी के बहुसमरमणीय भूभाग से ऊपर ज्योतिषकों से अनेक कोटा-कोटी योजन ऊपर जाने पर सौधर्म नामक कल्प है। यह लम्बा, उत्तर-दक्षिण में विस्तीर्ण, अर्धचन्द्र के आकार में संस्थित अचिमाला और दीप्तियों की राशि के समान कांतिवाला, असंख्यात कोटा-कोटी योजन की लम्बाई-चौड़ाई और परिधि वाला तथा सर्वरत्नमय है। इस सौधर्मविमान में बत्तीस लाख विमानावास हैं। इन विमानों के मध्यदेशभाग में पांच अवतंसक कहे गये हैं--- 1. अशोकावतंसक, 2, सप्तपर्णावतंसक, 3. चंपकावतंसक, 4. चूतावतंसक और इन चारों के मध्य में है 5. सौधर्मावतंसक / ये अवतंसक रत्नमय हैं, स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप हैं। इन सब बत्तीस लाख विमानों में सौधर्मकल्प के देव रहते हैं जो महद्धिक है यावत् दसों दिशाओं को उद्योतित करते हुए प्रानन्द से सुखोपभोग करते हैं और अपने सामानिक प्रादि देवों का अधिपत्य करते हुए रहते हैं। परिषदों और स्थिति आदि का वर्णन 199. (अ) सक्कस्स णं भंते ! देविंदस्स देवरन्नो कइ परिसाओ पण्णत्तानो ? गोयमा! तओ परिसानो पण्णत्ताओ-तं जहा, समिया चंडा जाया। अभितरिया समिया, मज्झमिया चंडा, बाहिरिया जाया। सक्कस्स णं भंते ! देविवस्स देवरन्नो अभितरियाए परिसाए कई देवसाहस्सीओ पण्णत्ताप्रो ? मज्झिमियाए परिसाए० तहेव बाहिरियाए पुच्छा ? गोयमा ! सक्कस्स देविदस्स देवरनो अभितरियाए परिसाए बारस देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, मज्झिमियाए परिसाए चउद्दस देयसाहस्सीओ पण्णताओ, बाहिरियाए परिसाए सोलस देवसाहस्सीग्रो पण्णत्ताओ, तहा-अभितरियाए परिसाए सत्त देवीसयाणि, मज्झिमियाए छच्च देवीसयाणि, बाहिरियाए पंच देवीसयाणि पण्णत्ताई। सक्कस्स णं भंते ! देविदस्स देवरन्नो अभितरियाए परिसाए देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? एवं मज्झिमियाए बाहिरियाएवि पुच्छा ? Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिषदों और स्थिति आदि का वर्णन] [95 गोयमा! सक्कस्स देविदस्स देघरम्रो प्रभितरियाए परिसाए देवाणं पचंपलिप्रोवमाई ठिई पण्णत्ता, मज्झिमिया परिसाए चत्तारि पलिनोवमाई ठिई पण्णत्ता, बाहिरियाए परिसाए देवाणं तिण्णि पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता / देवीणं ठिइ अभितरियाए परिसाए देवीणं तिन्नि पलिओवमाई ठिई पण्णता, मज्झिमियाए दुन्नि पलिओवमाई ठिई पण्णता, बाहिरियाए परिसाए एगं पलिओवमं ठिई पण्णत्ता। अट्ठो सो चेव जहा भवणवासीणं / 199 (अ) भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शक्र की कितनी पर्षदाएं कही गई हैं ? गौतम ! तीन पर्षदाएं कही गई हैं-समिता, चण्डा और जाया। आभ्यंतर पर्षदा को समिता कहते हैं, मध्य पर्षदा को चण्डा और बाह्य पर्षदा को जाया कहते हैं। भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शक्र की आभ्यंतर परिषद् में कितने हजार देव हैं, मध्य परिषद् और बाह्य परिषद् में कितने -कितने हजार देव हैं ? __गौतम ! देवेन्द्र देवराज शक की आभ्यन्तर परिषद् में बारह-हजार देव, मध्यम परिषद् में चौदह हजार देव और बाह्य परिषद् में सोलह हजार देव हैं / आभ्यन्तर परिषद् में सात सौ देवियां मध्य परिषद् में छह सौ और बाह्य परिषद् में पांच सौ देवियां हैं / भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शक्र की प्राभ्यन्तर परिषद् के देवों की स्थिति कितनी कही गई है ? इसी प्रकार मध्यम और बाह्य परिषद् के देवों की स्थिति कितनी कितनी है ? गौतम ! देवेन्द्र देवराज शक्र की प्राभ्यन्तर परिषद् के देवों की स्थिति पांच पत्योपम की है, मध्यम परिषद् के देवों की स्थिति चार पल्योपम की है और बाह्य परिषद् के देवों की स्थिति तीन पल्योपम की है। प्राभ्यन्तर परिषद की देवियों की स्थिति तीन पल्योपम, मध्यम परिषद की देवियों की स्थिति दो पल्योपम और बाह्य परिषद की देवियों की स्थिति एक पल्योपम की है। सभिता, चण्डा और जाया परिषद् का अर्थ वही है जो भवनवासी देवों के चमरेन्द्र के प्रसंग में कहा गया है। 199 (प्रा) कहि णं भंते ! ईसाणकाणं देवाणं विमाणा पण्णता ? तहेव सव्वं जाव ईसाणे एत्थ देविदे देवराया जाव विहरइ / ईसाणस्स भंते ! देविंदस्स देवरन्नो कई परिसाओ पण्णत्ताओ? ___ गोयमा ! तओ परिसासो पण्णताओ, तं जहा-समिया, चंडा, जाया। तहेव सव्वं, गवरं अभितरियाए परिसाए दस देवसाहस्सीओ पण्णताओ, मज्झिमियाए परिसाए वारस देवसाहस्सीयो पण्णत्तानो, बाहिरियाए चउद्दस देवसाहस्सीओ / देवोणं पुच्छा ? अभितरियाए नव देवीसया पण्णत्ता, मज्झिमियाएपरिसाए अट्टदेवीसया पण्णत्ता, बाहिरियाएपरिसाए सत्त दीवसया पण्णत्ता। देवाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णता ? अभितरियाए परिसाए देवाणं सत्त पलिनोवमाई ठिई पण्णता / मज्झिमियाए छ पलिओवमाई, बाहिरियाए परिसाए पंच पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता। देवीणं पुच्छा ?अभितरियाए साइरेगाइं पंच पलिनोवमाई मज्झिमियाए परिसाए चत्तारि पलिग्रोवमाई ठिई पण्णत्ता, बाहिरियाए परिसाए तिण्णि पलिनोवमाई ठिई पण्णत्ता / अट्ठो तहेव भाणियव्यो। 199 (प्रा) भगवन् ! ईशानकल्प के देवों के विमान कहां से कहे गये हैं आदि सब कथन Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 96] [जीवाजीवाभिगमसूत्र सौधर्मकल्प की तरह जानना चाहिए। विशेषता यह है कि वहां ईशान नामक देवेन्द्र देवराज आधिपत्य करता हुआ विचरता है। भगवन् ! देवेन्द्र देवराज की कितनी पर्षदाएं हैं ? गोतम तीन पर्षदाएं कही गई हैं—समिता, चंडा और जाया। शेष कथन पूर्ववत् कहना चाहिए / विशेषता यह है कि ग्राभ्यन्तर पर्षदा में दस हजार देव, मध्यम में बारह हज बाह्य पर्षदा में चौदह हजार देव हैं। आभ्यन्तर पर्षदा में नौ सौ, मध्यम परिषदा में आठ सौ और बाह्य पर्षदा में सात सौ देवियां हैं। भगवन् ! ईशानकल्प के देवों की स्थिति कितनी कही गई है ? गौतम ! आभ्यन्तर पर्षदा के देवों की स्थिति सात पल्योपम, मध्यम पर्षदा के देवों की स्थिति छह पल्योपम और बाह्य पर्षदा के देवों की स्थिति पांच पल्योपम की है। देवियों की स्थिति की पृच्छा ? प्राभ्यन्तर पर्षदा की देवियों की स्थिति कुछ अधिक पांच पर्षदा की देवियों की स्थिति चार पल्योपम और बाह्य पर्षदा की देवियों की स्थिति तीन पल्योपम की है। तीन प्रकार की पर्षदाओं का अर्थ आदि कथन चमरेन्द्र की तरह कहना चाहिए। 199 (इ) सणंकुमाराणं पुच्छा ? तहेव ठाणपदगमेणं जाय सर्णकुमारस्स तो परिसाओ समियाइ तहेव / नवरं अभितरियाए परिसाए अट्ठ देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, मज्झिमियाए परिसाए दस देवसाहस्सीनो पण्णत्ताओ / बहिरियाए परिसाए बारस देवसाहस्सीओ पण्णताओ। अभितरियाए परिसाए देवाणं अद्धपंचमाइं सागरोवमाइं पंचपलिनोवमाइं ठिई पण्णत्ता, मज्झिमियाए परिसाए अद्धपंचमाई सागरोवमाइं चत्तारि पलिनोवमाई ठिई पण्णत्ता, बाहिरियाए परिसाए अद्धपंचमाई सागरोवमाई तिण्णि पलियोवमाइं ठिई पण्णत्ता / अट्ठो सो चेव। __ एवं माहिंदस्सवि तहेव / तओ परिसाओ, णवरं अभितरियाए परिसाए छ देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, मज्झिमियाए परिसाए अट्ठ देवसाहस्सीनो पण्णत्ताओ, बाहिरियाए दस देवसाहस्सोमो पण्णत्तायो। ठिई देवाणं अभितरियाए परिसाए श्रद्धपंचमाइं सागरोवमाइं सत्त य पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता, मज्झिमियाए परिसाए अद्धपंचमाइं सागरोबमाई छच्च पलिनोवमाई, बाहिरियाए परिसाए अद्धपंचमाई सागरोवमाई पंच य पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता। तहेव सव्वेसि इंदाणं ठाणपदगमेणं विमाणाणि वुच्चा तो पच्छा परिसाओ पत्तेयं पत्तेयं वुच्चइ / 199 (इ) सनत्कुमार देवों के विमानों के विषय में प्रश्न करने पर कहा गया है कि प्रज्ञापना के स्थानपद के अनुसार कथन करना चाहिए यावत् वहां सनत्कुमार देवेन्द्र देवराज हैं / उसकी तीन पर्षदा हैं-समिता, चंडा और जाया / प्राभ्यन्तर परिषदा में आठ हजार, मध्यम परिषदा में दस हजार और बाह्य परिषदा में बारह हजार देव हैं। प्राभ्यन्तर पर्षद के देवों की स्थिति साढ़े चार सागरोपम और पांच पल्योपम है, मध्यम पर्षद के देवों की स्थिति साढ़े चार सागरोपम और चार पल्योपम है, बाह्य पर्षद् के देवों की स्थिति साढ़े चार सागरोपम और तीन पल्योपम की है। पर्षदों का अर्थ पूर्व चमरेन्द्र के प्रसंगानुसार जानना चाहिए। (सनत्कुमार में और आगे के देवलोक में देवियां नहीं हैं। अतएव देवियों का कथन नहीं किया गया है।) Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिषदों और स्थिति आदि का वर्णन] [97 इसी प्रकार माहेन्द्र देवलोक के विमानों और माहेन्द्र देवराज देवेन्द्र का कथन करना चाहिए। वैसी ही तीन पर्षदा कहनी चाहिए। विशेषता यह है कि ग्राभ्यन्तर पर्षद में छह हजार, मध्य पर्षद में प्राट हजार और बाह्य पर्षद में दस हजार देव हैं। प्राभ्यन्तर पर्षद के देवों की स्थिति साढ़े चार सागरोपम और सात पल्योपम की है। मध्य पर्षद के देवों की स्थिति साढ़े चार सागरोपम और छह पल्योपम की है और बाह्य पर्षद के देवों की स्थिति साढ़े चार सागरोपम और पांच पल्योपम की है। इसी प्रकार स्थानपद के अनुसार पहले सब इन्द्रों के विमानों का कथन करने के पश्चात् प्रत्येक की पर्षदात्रों का कथन करना चाहिए। 199 (ई) बंभस्सवि तो परिसाम्रो पण्णत्तानो / अभितरियाए चत्तारि देवसाहस्सीओ, मज्झिमियाए छ देवसाहस्सोओ, बाहिरियाए अट्ठ देवसाहस्सीओ। देवाणं ठिई-अभितरियाए परिसाए अद्धणवमाइं सागरोवमाइं पंच य पलिओवमाइं, मज्झिमियाए परिसाए अद्धनवमाई सागरोवमाई चत्तारि पलिओवमाई, बाहिरियाए परिसाए अद्धनवमाई सागरोवमाई तिग्णि य पलिओवमाई / अट्ठो सो चेव / लंतगस्सवि जाव तओ परिसाओ जाव अभितरियाए परिसाए दो देवसाहस्सोमो, मज्झिमियाए चत्तारि देवसाहस्सीओ, बाहिरियाए छ देवसाहस्सीमो पण्णत्तानो / ठिई भाणियव्वा / अभितरियाए परिसाए बारस सागरोवमाई सत्तपलिओवमाइं ठिई पण्णता, मज्झिमियाए परिसाए बारस सागरोवमाई छच्चपलिओवमाई ठिई पण्णत्ता, बाहिरियाए परिसाए बारस सागरोवमाइं पंच पलिग्रोवमाई ठिई पण्णत्ता। महासुक्कस्सवि जाव तओ परिसाओ जाव अभितरियाए एगं देवसहस्सं, मज्झिमियाए दो देवसाहस्सीओ पण्णत्तामो, बाहिरियाए चत्तारि देवसाहस्सीओ पण्णत्तायो / अभितरियाए परिसाए अद्धसोलस सागरोवमाइं पंच य पलिमोबमाई, मज्झिमियाए अद्धसोलस सागरोवमाइं चत्तारि पलिओवमाई, बाहिरियाए प्रद्धसोलस सागरोवमाइं तिणि पलिओवमाइं पण्णत्ता / अट्ठो सो चेव / सहस्सारे पुच्छा जाव अभितरियाए परिसाए पंच देवसया, मज्झिमिया परिसाए एगा देवसाहस्सो, बाहिरियाए परिसाए दो देवसाहस्सीओ पण्णत्तायो। ठिई-अभितरियाए परिसाए अट्ठारस सागरोबमाई सत्त पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता, एवं मज्झिमिझाए अट्ठारस सागरोवमाई छ पलियोवमाई, बाहिरियाए अद्धट्ठारस सागरोवमाई पंच पलिपोयमाई / अट्ठो सो चेव / 199. (ई) ब्रह्म इन्द्र की भी तीन पर्षदाएं हैं / आभ्यन्तर परिषद् में चार हजार देव, मध्यम परिषद् में छह हजार देव और बाह्य परिषद् में आठ हजार देव हैं। प्राभ्यन्तर परिषद् के देवों की स्थिति साढ़े आठ सागरोपम और पांच पल्योपम है / मध्यम परिषद् के देवों की स्थिति साढ़े आठ सागरोपम और चार पल्योपम की है / बाह्य परिषद् के देवों की स्थिति साढ़े आठ सागरोपम और तीन पल्योपम की है। परिषदों का अर्थ पूर्वोक्त ही है। लन्तक इन्द्र की भी तीन परिषद् हैं यावत् प्राभ्यन्तर परिषद् में दो हजार देव, मध्यम परिषद् में चार हजार देव और बाह्य परिषद् में छह हजार देव हैं / प्राभ्यन्तर परिषद् के देवों की स्थिति बारह सागरोपम और सात पल्योपम की है, मध्यम परिषद् के देवों की स्थिति बारह Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 98] [जीवाजीवाभिगमसूत्र 4-4 दि सागरोपम और छह पल्योपम की, बाह्य परिषद् के देवों की स्थिति बारह सागरोपम और पांच पल्योपम की है। __ महाशुक्र इन्द्र की भी तीन परिषद् हैं। प्राभ्यन्तर परिषद् में एक हजार देव, मध्यम परिषद् में दो हजार देव और बाह्य परिषद् में चार हजार देव हैं। आभ्यन्तर परिषद् के देवों की स्थिति साढ़े पन्द्रह सागरोपम और पांच पल्योपम की है। मध्यम परिषद के देवों की स्थिति साढे पन्द्रह सागरोपम और चार पल्योपम की और बाह के देवों की स्थिति साढ़े पन्द्रह सागरोपम और तीन पल्योपम की है। परिषदों का अर्थ पूर्ववत् कहना चाहिए। ___ सहस्रार इन्द्र की प्राभ्यन्तर पर्षद में पांच सौ देव, मध्यम पर्षद में एक हजार देव और बाह्य पर्षद में दो हजार देव हैं। प्राभ्यन्तर पर्षद के देवों की स्थिति साढ़े सत्रह सागरोपम और सात पल्योपम की है, मध्यम पर्षद के देवों को स्थिति साढ़े सत्रह सागरोपम और छह पल्योपम की है, बाह्य पर्षद के देवों की स्थिति साढ़े सत्रह सागरोपम और पांच पल्योपम की है। 199. (उ) आणयपाणयस्सवि पुच्छा जाव तनो परिसाओ नवरं अभितरियाए अड्डाइज्जा देवसया, मज्झिमियाए पंच देवसया, बाहिरियाए एगा देवसाहस्सी। ठिई -अभितरियाए एगूणवीसं सागरोवमाइं पंच य पलिओवमाई, एवं मज्झिमियाए एगूणवीसं सागरोवमाइं चत्तारि य पलिप्रोवमाई, बाहिरियाए परिसाए एगूणवीसं सागरोवमाइं तिण्णि य पलिओवमाई ठिई / अट्ठो सो चेव / कहि णं भंते ! आरण-अच्चुयाणं देवाणं तहेव अच्चुए सपरिवारे जाव विहरई / अच्चुयस्स णं देविदस्स तयो परिसाओ पण्णत्ताओ / अभितरियाए देवाणं पणवीस सयं, मज्झिमपरिसाए अड्डाइज्जासया, बाहिरियपरिसाए पंचसया। अभितरियाए एकवीसं सागरोवमाइं सत्त य पलिओवमाइं, मज्झिमाए एक्कवीसं सागरोवमाइं छप्पलिओवमाई, बाहिरियाए एक्कवीसं सागरोवमाइं पंच य पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता। कहि णं भंते ! हेट्ठिम गेवेज्जगागं देवाणं विमाणा पण्णता ? कहि णं भंते ! हेट्ठिमगेवेज्जगा देवा परिवसंति ? जहेव ठाणपदे तहेव; एवं मज्झिमगेवज्जगा उवरिमगेवेज्जगा अणुत्तरा य जाव अहमिदा नाम ते देवा पण्णत्ता समणाउसो! 199 (उप्रानत-प्राणत देवलोक विषयक प्रश्न के उत्तर में कहा गया है कि प्राणत देव की तीन पर्षदाएं हैं / प्राभ्यन्तर पर्षद में अढाई सौ देव हैं, मध्यम पर्षद में पांच सौ देव और बाह्य पर्षद में एक हजार देव हैं, आभ्यन्तर पर्षद के देवों को स्थिति उन्नीस सागरोपम और पांच पल्योपम है, मध्यम पर्षद के देवों स्थिति उन्नीस सागरोपम और चार पल्योपम की है, बाह्य पर्षद के देवों की स्थिति उन्नीस सागरोपम और तीन पल्योपम की है। पर्षदा का अर्थ पहले की तरह करना चाहिए / भगवन् ! पारण-अच्युत देवों के विमान कहां कहे गये हैं. इत्यादि कथन करना चाहिए यावत् वहां अच्युत नाम का देवेन्द्र देवराज सपरिवार विचरण करता है। देवेन्द्र देवराज अच्युत की तीन पर्षदाएं हैं / आभ्यन्तर पर्षद में एक सौ पच्चीस देव, मध्य पर्षद में दो सौ पचास देव और बाह्य पर्षद में पांच सौ देव हैं / प्राभ्यन्तर पर्षद के देवों की स्थिति इक्कीस सागरोपम और सात पल्योपम Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिषदों और स्थिति आदि का वर्णन] की है, मध्य पर्षद के देवों की स्थिति इक्कीस सागरोपम और छह पल्योपम की है, बाह्य पर्षद के देवों की स्थिति इक्कीस सागरोपम और पांच पल्योपम की है। भगवन् ! अधस्तन-प्रेवेयक देवों के विमान कहां कहे गये हैं ? भगवन् ! अधस्तन-बेयक देव कहाँ रहते हैं ? जैसा स्थानपद में कहा है वैसा ही कथन यहां करना चाहिए / इसी तरह मध्यमग्रेवेयक, उपरितन-प्रैवेयक और अनुत्तर विमान के देवों का कथन करना चाहिए / यावत् हे आयुष्मन् श्रमण ! ये सब अहमिन्द्र हैं- वहां कोई छोटे-बड़े का भेद नहीं है। विवेचन—प्रस्तुत सूत्र में वर्णित विषय को निम्न कोष्टक से समझने में सुविधा रहेगी-- कल्पों के नाम स्थिति देवों की संख्या देवी संख्या देव देवी 1. सौधर्म आभ्यन्तर पर्षद मध्यम पर्षद बाह्य पर्षद 12,000 14,000 16,000 700 600 5 पल्यो . 4 पल्यो . 3 पल्यो . 2. ईशान आभ्यन्तर पर्षद 10,000 7 पल्यो . ५प. से कुछ अधिक 4 प. 800 मध्यम पर्षद बाह्य पर्षद 12,000 14,000 6 पल्यो . 5 पल्यो . 39. 3. सनत्कुमार प्राभ्यन्तर पर्षद मध्यम पर्षद बाह्य पर्षद 8,000 10,000 12,000 देवियां नहीं देवियां नहीं देवियां नहीं साढ़े चार सागरो. 5 प. साढ़े चार सा. 4 प. साढ़े चार सा. 3 प. 4. माहेन्द्र प्राभ्य. पर्षद मध्यम पर्षद बाह्य पर्षद 8,000 10,000 देवियां नहीं देवियां नहीं देवियां नहीं साढ़े चार सा. 7 प. साढ़े चार सा. 6 प. साढ़े चार सा. 55. 4,000 आभ्य. पर्षद मध्यम पर्षद बाह्य पर्षद 6,000 देवियां नहीं देवियां नहीं देवियां नहीं साढ़ेआठ सा. 5 प. नहीं है साढ़ेसाठ सा.४ प. नहीं साढ़ेआठ सा. 3 प. नहीं है sho no to 8,000 Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1.0] [जीवाजीवाभिगमसूत्र कल्पों के नाम देवों की संख्या देवी संख्या स्थिति देवी नहीं है 2,000 4,000 देवियां नहीं देवियां नहीं देवियां नहीं 12 सागरो. 7 प. 12 सागरो.६ प. 12 सागरो. 5 प. dic and do 6. लांतक आभ्य. पर्षद मध्यम पर्षद बाह्य पर्षद महाशुक आभ्य पर्षद मध्यम पर्षद बाह्य पर्षद stic 1,000 2,000 4,000 देवियां नहीं देवियां नहीं देवियां नहीं साढ़े 15 सा. 5 पल्यो. साढ़े 15 सा. 4 पल्यो. साढ़े 15 सा. 3 पल्यो. नहीं है नहीं है नहीं है 500 1,000 2,000 देवियां नहीं देवियां नहीं देवियां नहीं साढ़े 17 सा. 7 पल्यो. साढ़े 17 सा. 6 पल्यो. साढ़े 17 सा. 5 पल्यो. नहीं है नहीं है 8. सहस्त्रार आभ्य. पर्षद मध्यम पर्षद बाह्य पर्षद 9-10. मानत-प्राणत प्राभ्य. पर्षद मध्यम पर्षद बाह्य पर्षद नहीं है 250 500 1,000 देवियां नहीं देवियां नहीं देवियां नहीं 19 सा. ५पल्यो. 19 सा. 4 पल्यो. 19 सा. 3 पल्यो . नहीं है the aheate नहीं है 11-12. आरण-अच्युत प्राभ्य. पर्षद मध्यम पर्षद बाह्य पर्षद 125 250 देवियां नहीं देवियां नहीं देवियां नहीं 21 सा. ७पल्यो. 21 सा. 6 पल्यो. 21 सा. 5 पल्यो. नहीं है नहीं है नहीं है अधस्तन-वेयक मध्यम-ग्रैवेयक उपरितन-वेयक अनुत्तर विमान अहमिन्द्र होने से पर्षद नहीं हैं अहमिन्द्र होने से पर्षद नहीं हैं अहमिन्द्र होने से पर्षद नहीं हैं अहमिन्द्र होने से पर्षद नहीं हैं Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिषदों और स्थिति आदि का वर्णन ] 1101 विमानावासों की संग्रह-गाथाओं का अर्थ--' 1. सौधर्म देवलोक में 32 लाख विमानावास हैं 2. ईशान देवलोक में 28 लाख विमानावास हैं 3. सनत्कुमार में 12 लाख विमानावास हैं 4. माहेन्द्र में 8 लाख विमानावास हैं 5. ब्रह्मलोक में 4 लाख विमानावास हैं 6. लान्तक में 50 हजार विमानावास हैं 7. महाशुक्र में 40 हजार विमानावास हैं 8. सहस्रार में 6 हजार विमानावास हैं 9-10. आनत-प्राणत 400 विमानावास हैं 11-12. प्रारण-अच्युत 300 विमानावास हैं नवग्रंवेयक 318 विमानावास हैं (प्रथमत्रिक में 111) (द्वितीयत्रिक में 107) (तृतीय त्रिक में 100) अनुत्तरविमान 5 विमानावास हैं चौरासी लाख सत्तानवै हजार तेईस 84,97,023 (कुल) विमानावास हैं / प्रथम कल्प में 84 हजार सामानिक देव हैं / दूसरे में 80,000, तीसरे में 72,000, चौथे में 70 हजार, पांचवें में 60,000, छठे में 50,000, सातवें में 40,000, आठवें में 30,000, नौवेंदसवें में 20,000, ग्यारहवें-बारहवें कल्प में 10,000 सामानिक देव हैं। // प्रथम वैमानिक उद्देशक पूर्ण / 1. बत्तीस अट्ठावीसा बारस अट्र चउरो सयसहस्सा / पन्ना चत्तालीसा छच्च सहस्सा सहस्सारे // 1 // प्राणय-पाणय कप्पे चत्तारि सया प्रारण-अच्चए तिष्णि / सत्त विमाणसयाइं चउसुबि एसु कप्पेसु / / 2 / / सामानिक संग्रह गाथा चउरासीइ असीइ बावत्तरी सत्तरिय सट्ठी य / पण्णा चत्तालीसा तीसा बीसा दस सहस्सा // 1 // Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102] [जीवाजीवाभिगमसूत्र 200. सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु विमाणपुढवी किंपइट्ठिया पणता? गोयमा ! घणोदहिपइट्ठिया / सणंकुमारमाहिदेसु कप्पेसु विमाणपुढवी किपइडिया पण्णता? गोयमा! घणवायपईडिया पण्णत्ता / बंभलोए णं कप्पे विमाणपुढवी णं पुच्छा ? घणवायपइट्ठिया पण्णता / लंतए णं भंते पुच्छा? गोयमा तदुभयपइट्ठिया / महासुक्कसहस्सारेसुवि तदुभय पट्ठिया। आणय जाव अच्चुएसु णं भंते ! कप्पेसु पुच्छा ? ओवासंतरपइटिया। गेवेज्जविमाणपुढवी णं पुच्छा ? गोयमा ! प्रोवासंतरपट्टिया। अणुत्तरोबवाइयपुच्छा ? ओवासंतरपइट्टिया। 200. भगवन् ! सौधर्म और ईशान कल्प की विमानपृथ्वी किसके आधार पर रही हुई है ? गौतम ! घनोदधि के आधार पर रही हुई है। सनत्कुमार और माहेन्द्र की विमानपृथ्वी किस पर टिकी हुई है ? गौतम ! धनवात पर प्रतिष्ठित है। ब्रह्मलोक विमान-पृथ्वी किसके आधार पर है ? गौतम ! घनवात पर प्रतिष्ठित है। लान्तक विमानपृथ्वी का प्रश्न ? गौतम ! लान्तक विमानपृथ्वी घनोदधि और घनवात दोनों के प्राधार पर रही हुई है। महाशुक्र और सहस्रार विमान पृथ्वी भी घनोदधि-घनवात पर प्रतिष्ठित है / प्रानत यावत् अच्युत विमानपृथ्वी (9 से 12 देवलोक) किस पर आधारित है ? गौतम ये चारों कल्प आकाश पर प्रतिष्ठित हैं। ग्रैवेयकविमान और अनुत्तरविमान भी आकाश-प्रतिष्ठित हैं। (संग्रहणी गाथा में कहा है-प्रथम, द्वितीय कल्प घनोदधि पर, तीसरा, चौथा, पांचवा कल्प धनवात पर, छठा-सातवां-पाठवां कल्प उभय प्रतिष्ठित है, आगे नोवां, दसवां, ग्यारहवां, बारहवां कल्प और नौ ग्रेवेयक, अनुत्तर विमान आकाश प्रतिष्ठित हैं।' बाहल्य आदि प्रतिपादन ___ 201. (अ) सोहम्मीसाणकप्पेसु विमाणपुढवी केवइयं बाहल्लेणं पण्णता ? गोयमा ! सत्तावीसं जोयणसयाई बाहल्लेणं पण्णत्ता / एवं पुच्छा ? सणंकुमारमाहिदेसु छध्वीसं जोयणसयाई, बंभलंतए वीस, महासुक्क-सहस्सारेसु चउवीस, प्राणय-पाणय-आरणाच्चुएस तेवीसं सयाई। गेविज्जविमाणपुढवी बावोसं, अणुत्तरविमणापुढवी एक्कवीसं जोयणसयाई बाहल्लेणं / / सोहम्मीसाणेसु णं भंते / कप्पेसु विमाणा केवइयं उड्ढे उच्चत्तेणं ? गोयमा ! पंच जोयणसयाई उड्ढं उच्चत्तेणं / सणंकुमार-माहिदेस छ जोयणसयाई, बंभलंतएस सत्त, महासुक्कसहस्सारेसु अट्ट, आणय-पाणयारणाच्चुएसु णव, गेवेज्जयिमाणा णं भंते ! केवइयं उड्ढं उच्चत्तणं ? गोयमा ! दस जोयणसयाई / अणुत्तरविमाणा णं एक्कारस जोयणसयाई उड्ढे उच्चत्तेणं / 201. (अ) भगवन् ! सौधर्म और ईशान कल्प में विमानपृथ्वी कितनी मोटी है ? गौतम ! सत्ताईससी योजन मोटी है। इसी प्रकार सबकी प्रश्न पृच्छा करनी चाहिए। सनत्कुमार और माहेन्द्र 1. धणोदहिपइट्ठाणा सुरभवणा दोसु कप्पेसु / तिसु बायपइट्ठाणा तदुभय पइट्टिया तिसु / / 1 / / तेण परं उवरिमगा आगासंतर-पइट्ठिया सव्वे / एस पइट्ठाण विही उड्ढं लोए विभाणाणं // 2 // Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाहल्य आदि प्रतिपादन] में विमानपृथ्वी छन्वीससी योजन मोटी है। ब्रह्मलोक और लांतक में पच्चीससौ योजन मोटी है। महाशुक्र और सहस्रार में चौवीससौ योजन मोटी है। आणत प्राणत पारण और अच्युत कल्प में विमानपृथ्वी तेईससी योजन मोटी है / अवेयकों में विमानपृथ्वी बाईससौ योजन मोटी है / अनुत्तर विमानों में विमानपृथ्वी इक्कीससौ योजन मोटी है। भगवन् ! सौधर्म-ईशानकल्प में विमान कितने ऊंचे हैं ? गौतम ! पांचसो योजन ऊंचे हैं / सनत्कुमार और माहेन्द्र में छहसो योजन, ब्रह्मलोक और लान्तक में सातसौ योजन, महाशुक्र और सहस्रार में पाठसौ योजन, प्राणत प्राणत आरण और अच्युत में नौसौ योजन, ग्रैवेयकविमान में दससी योजन और अनुत्तरविमान ग्यारहसौ योजन ऊंचे कहे गये हैं। 201 (आ) सोहम्भीसाणेसु णं भंते ! कप्पेसु विमाणा किसंठिया पण्णता? गोयमा ! दुविहा पण्णता, तं जहा--आवलिया-पविट्ठा य बाहिरा य / तत्थ णं जे ते आवलिया. पविट्ठा ते तिविहा पण्णत्ता, तं जहा--वट्टा, तंसा, चउरंसा। तत्थ णं जे आवलिया-बाहिरा ते णं णाणासंठिया पण्णता / एवं जाव गेवेज्जविमाणा / अणुत्तरोववाइयाविमाणा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-बट्टे य तंसा य / सोहम्मीसाणेसु भंते ! विमाणा केवइयं पायाम-विक्खंभेणं, केवइयं परिक्खेवेणं पण्णता? गोयमा! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-संखेज्जवित्थडा य असंखेज्जवित्थडा य / जहा परगा तहा जाव अणुत्तरोबवाइया संखेज्जवित्थडा य असंखेज्जवित्थडा य / तत्थ णं जे से संखेज्जवित्थडे से जंबुद्दीवप्पमाणे; असंखेज्जवित्थडा असंखेज्जाइं जोयणसयाई जाव परिक्खेवेणं पण्णत्ता। ___ सोहम्मीसाणेसु णं भंते ! विमाणा कइवण्णा पण्णत्ता ? गोयमा ! पंचवण्णा पण्णत्ता, तं जहाकिण्हा, नीला, लोहिया, हालिद्दा, सुक्किला। सणंकुमारमाहिदेसु चउवण्णा नीला जाव सुविकला। बंभलोगलतएसु तिवण्णा पण्णत्ता, लोहिया जाव सुक्किला। महासुक्कसहस्सारेसु दुवण्णा हालिद्दा य सुविकला य / प्राणत-पाणतारणाच्चुएसु सुक्किला, गेवेज्जविमाणा सुक्किला, अणुत्तरोववाइयविमाणा परमसुविकला वण्णेणं पण्णत्ता। सोहम्मीसाणेसू गं भंते ! कप्पेसु विमाणा केरिसया पभाए पण्णत्ता ? गोधमा ! णिच्चालोया, णिच्चुज्जोया सयंपभाए पण्णत्ता जाव अणुत्तरोयवाइयविमाणा णिच्चालोया णिच्चुज्जोया सयंपभाए पण्णत्ता। सोहम्मोसाणेसु णं भंते ! कप्पेसु विमाणा केरिसया गंधेणं पण्णत्ता ? गोयमा ! से जहाणामए कोट्ठपुडाण वा जाव गंधेण पण्णता, एवं जाव एत्तो इट्टतरगा चेव जाव अणुत्तरविमाणा। सोहम्मीसाणस विमाणा केरिसया फासेणं पण्णत्ता ? से जहाणामए पाइणेइ वा रूएइ वा सन्चो फासो भाणियध्यो जाव अणुत्तरोववाइयविमाणा। 201 (आ) भगवन् ! सौधर्म-ईशानकल्प में विमानों का आकार कसा कहा गया है ? गौतम ! वे विमान दो तरह के हैं--१. आवलिका-प्रविष्ट और 2. प्रावलिका बाह्य / जो Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जीवाजीवाभिगमसूत्र प्रावलिका-प्रविष्ट (पंक्तिबद्ध) विमान हैं, वे तीन प्रकार के हैं-१. गोल, 2. त्रिकोण और 3. चतुष्कोण / जो आवलिका-बाह्य हैं वे नाना प्रकार के हैं। इसी तरह का कथन वेयकविमानों पर्यन्त कहना चाहिए / अनुत्तरोपपातिक विमान दो प्रकार के हैं—गोल और त्रिकोण / भगवन् ! सौधर्म-ईशानकल्प में विमानों की लम्बाई-चौड़ाई कितनी है ? उनकी परिधि कितनी है ? गौतम ! वे विमान दो तरह के हैं-संख्यात योजन विस्तार वाले और असंख्यात योजन विस्तार वाले / जैसे नरकों का कथन किया गया है वैसा ही कथन यहां करना चाहिए; यावत् अनुत्तरोपपातिकविमान दो प्रकार के हैं-संख्यात योजन विस्तार वाले और असंख्यात योजन विस्तार वाले / जो संख्यात योजन विस्तार वाले हैं वे जम्बूद्वीप प्रमाण हैं और जो असंख्यात योजन विस्तार वाले हैं वे असंख्यात हजार योजन विस्तार और परिधि वाले कहे गये हैं / भगवन् ! सौधर्म-ईशानकल्प में विमान कितने रंग के हैं ? गौतम पांचों वर्ण के विमान हैं, यथा कृष्ण, नील, लाल, पीले और सफेद / सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्प में विमान चार वर्ण के हैंनील यावत् शुक्ल / ब्रह्मलोक एवं लान्तक कल्पों में विमान तीन वर्ण के हैं लाल यावत् शुक्ल / महाशक एवं सहस्रार कल्प में विमान दो रंग के हैं--पीले और सफेद / पानत प्राणत पारण और अच्युत कल्पों में विमान सफेद वर्ण के हैं / वेयकविमान भी सफेद हैं। अनुत्तरोपपातिकविमान परम-शुक्ल वर्ण के हैं। भगवन् ! सौधर्म-ईशानकल्प में विमानों की प्रभा कैसी है ? गौतम ! वे विमान नित्य स्वयं की प्रभा से प्रकाशमान और नित्य उद्योत वाले हैं यावत् अनुत्तरोपपातिकविमान भी स्वयं की प्रभा से नित्यालोक और नित्योद्योत वाले कहे गये हैं। भगवन् ! सौधर्म-ईशानकल्प में विमानों की गंध कैसी कही गई हैं ? गौतम ! जैसे कोष्ठपुढादि सुगंधित पदार्थों की गंध होती है उससे भी इष्टतर उनकी गंध है, अनुत्तरविमान पर्यन्त ऐसा ही कथन करना चाहिए। भगवन् ! सौधर्म-ईशानकल्प में विमानों का स्पर्श कैसा कहा गया है ? गौतम ! जैसे अजिन चर्म, रूई आदि का मृदुल स्पर्श होता है, वैसा स्पर्श करना चाहिए, अनुत्तरोपपातिकविमान पर्यन्त ऐसा ही कहना चाहिए। 201 (इ) सोहम्मीसाणेसु णं भंते ! कप्पेसु बिमाणा केमहालया पण्णत्ता? गोयमा! अयण्णं जंबुद्दीवे दोवे सव्वदोवे-समुद्दाणं सो चेव गमो जाव छम्मासे वीइवएज्जा जाव अत्थेगइया विमाणावासा नो वीइवएज्जा जाव अणुत्तरोक्वाइयविमाणा, अत्थेगइयं विमाणं वोइवएज्जा, अत्थेगइए णो वीइवएज्जा। सोहम्मीसाणेसु णं भंते ! कप्पेसु विमाणा किमया पण्णत्ता ? गोयमा ! सव्वरयणामया पण्णत्ता / तत्थ णं बहवे जीवा य पोग्गला य वक्कमंति, विउक्कमति चयंति उवचयंति / सासया णं ते विमाणा दन्वट्ठयाए जाव फासपज्जवेहि असासया जाव अणुत्तरोववाइयाविमाणा। सोहम्मीसाणेसु णं भंते ! कप्पेसु देवा कओहितो उवधज्जति ? उववाओ णेयध्वो जहा वक्तीए तिरियमणुएसु पंचिदिएसु सम्मुच्छिमवज्जिएसु, उववाओ वक्कतिगमेणं जाव अणुत्तरोववाइया। Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाहल्य आदि प्रतिपादन] [105 सोहम्मीसाणेसु देवा एगसमए णं केवइया उववज्जति ? गोयमा ! जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा वा असंखेज्जा वा उववज्जंति, एवं जाव सहस्सारे। प्राणयादिगेवेज्जा अणुत्तरा य एक्को वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं संखेज्जा वा उववज्जति / सोहम्मीसाणेसु णं भंते ! कप्पेसु देवा समए समए अवहीरमाणा प्रवहीरमाणा केवइएणं कालेणं अवहिया सिया? गोयमा! ते णं असंखेज्जा समए समए अवहीरमाणा प्रवहीरमाणा असंखिज्जाहि उस्सप्पिणी-प्रोसप्पिणीहिं प्रवहीरंति नो चेव णं अवहिया सिया जाव सहस्सारे। प्राणतादिसु चउसु वि / गेवेज्जेसु अणुत्तरेसु य समए समए जाव केवइयं कालेणं अवहिया सिया ? गोयमा! ते णं असंखेज्जा समए समए अवहीरमाणा पलिओवमस्स असंखेज्जइ भागमेत्तेणं अवहोरंति नो चेव णं अवहिया सिया। 201. (इ) भगवन् ! सौधर्म-ईशानकल्प में विमान कितने बड़े हैं ? गौतम ! कोइ देव जो चुटकी बजाते ही इस एक लाख योजन के लम्बे-चौड़े और तीन लाख योजन से अधिक की परिधि वाले जम्बूद्वीप की 21 बार प्रदक्षिणा कर आवे, ऐसी शीघ्रतादि विशेषणों वाली गति से निरन्तर छह मास चलता रहे, तब वह कितनेक विमानों के पास पहुंच सकता है, उन्हें लांघ सकता है और कितनेक उन विमानों को नहीं लांध सकता है, इतने बड़े वे विमान कहे गये हैं / इसी प्रकार का कथन क के लिए समझना चाहिए कि कितनेक विमानों को लांध स कितनेक विमानों को नहीं लांघ सकता है। भगवन् ! सौधर्म-ईशानकल्प के विमान किसके बने हुए हैं ? गौतम ! वे सर्वरत्नमय हैं / उनमें बहुत से जीव और पुद्गल पैदा होते हैं, च्यवित होते हैं, इक्ट्ठे होते हैं और वृद्धि को प्राप्त करते हैं। वे विमान द्रव्याथिकनय की अपेक्षा से शाश्वत हैं और स्पर्श आदि पर्यायों की अपेक्षा अशाश्वत हैं / ऐसा ही कथन अनुत्तरोपपातिक विमानों तक समझना चाहिए। भगवन ! सौधर्म-ईशानकल्प में देव कहां से आकर उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! सम्मूछिम जीवों को छोड़कर शेष पंचेन्द्रिय तिर्यंचों और मनुष्यों में से प्राकर जीव सौधर्म और ईशान में देवरूप से उत्पन्न होते हैं / इस प्रकार प्रज्ञापना के छठे व्युत्क्रान्तिपद में जैसा उत्पाद कहा है वैसा यहां कह लेना चाहिए / (सहस्रार देवलोक तक उक्त रीति से तथा आगे केवल मनुष्यों से पाकर उत्पन्न होते हैं / ) अनुत्तरोपपातिक विमानों तक व्युत्क्रान्तिपद के अनुसार कहना चाहिए। भगवन् ! सौधर्म-ईशानकल्प में एक समय में कितने देव उत्पन्न होते हैं ? गौतम! जघन्य एक, दो, तीन और उत्कृष्ट संख्यात और असंख्यात जीव उत्पन्न होते हैं। यह कथन सहस्रार देवलोक तक कहना चाहिए / प्रानत आदि चार कल्पों में, नवग्रैवेयकों में और अनुत्तरविमानों में जघन्य एक, दो, तीन यावत् उत्कृष्ट संख्यात जीव उत्पन्न होते हैं। भगवन् ! सौधर्म-ईशानकल्प के देवों में से यदि प्रत्येक समय में एक-एक का अपहार किया जाये-निकाला जाये तो कितने काल में वे खाली हो सकेंगे? गौतम ! वे देव असंख्यात हैं अतः यदि एक समय में एक देव का अपहार किया जाये तो असंख्यात उत्सपिणियों अवपिणियों तक अपहार का यह क्रम चलता रहे तो भी वे कल्प खाली नहीं हो सकते। उक्त कथन सहस्रार देवलोक तक करना चाहिए। आगे के पानतादि चार कल्पों में, अवेयकों में तथा अनुत्तर विमानों के देवों के अपहार Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जीवाजीचाभिगमन सम्बन्धी प्रश्न के उत्तर में कहना चाहिए कि वे असंख्यात हैं अतः समय-समय में एक-एक का अपहार करने का क्रम पल्योपम के असंख्यातवें भाग तक चलता रहे तो भी उनका अपहार पूरा नहीं हो सकता / (यह अपहार कभी हुअा नहीं, होगा नहीं, केवल संख्या बताने के लिए कल्पनामात्र है।) 201. (ई) सोहम्मीसाणेसु णं भंते ! कप्पेस देवाणं के महालिया सरीरोगाहणा पण्णता? गोयमा ! विहा सरीरा पण्णत्ता, तं जहा-भवधारणिज्जा य उत्तरखेउम्बिया य / तत्थ णं जे से भवधारणिज्जे से जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागो, उक्कोसेणं सत्तरयणीओ। तत्थ णं जे से उत्तरवेउम्बिए से जहन्नेणं अंगुलस्स संखेज्जइ भागो, उक्कोसेणं जोयणसयसहस्सं / एवं एक्केक्का ओसारेत्ताणं जाव अणुत्तराणं एक्का रयणी। गेवेज्जणुत्तराणं एगे भवधारणिज्जे सरीरे उत्तरवेउब्धिया णत्थि / सोहम्मीसाणेस णं भंते ! देवाणं सरीरगा कि संघयणी पण्णता? गोयमा ! छहं संघयणाणं प्रसंघयणी पण्णत्ता / नेवट्ठि नेव छिरा वि हारू णेव संघयणमस्थि; जे पोग्गला इट्ठा कंता जाव एएसि संघायत्ताए परिणमंति जाव अणुसरोववाइया / सोहम्मीसाणेस णं भंते ! देवाणं सरीरगा किसंठिया पण्णता ? गोयमा ! दुविहा सरीरा, भवधारणिज्जा य उत्तरवेउब्विया य। तत्थ णं जे से भवधारणिज्जा ते समचउरंससंठाणसंठिया पण्णता / तत्थ गंजे से उत्तरवेउब्बिया ते णाणासंठाणसंठिया पण्णत्ता जाव अच्चुनो। अवेउविया गेवेज्जणुत्तरा भवधारणिज्जा समचउरंससंठाणसंठिया, उत्तरवेउब्विया णस्थि / सोहम्मीसाणेसु देवा केरिसया वणेणं पण्णता ? गोयमा ! कणगत्तयरत्तामा वण्णणं पण्णत्ता। सणंकुमारमाहिदेसु णं पउमपम्हगोरा वण्णणं पण्णत्ता। बंभलोए णं भंते !* गोयमा ! अल्लमधुगवण्णाभा / एवं जाव गेवेज्जा / अणुत्तरोववाइया परमसुक्किल्ला वणेणं पण्णत्ता। सोहम्मीसाणेसु णं भंते ! कप्पेसु देवाणं सरीरगा केरिसया गंधेणं पण्णता ? गोयमा ! से जहाणामए कोटपुडाण वा तहेव सव्वं मणामतरगा चेव गंधेणं पण्णत्ता। जाव अणुतरोववाइया / सोहम्मीसाणेसु णं भंते ! देवाणं सरीरगा केरिसया फासेणं पण्णत्ता? बोपमा ! थिरमउयणिसुकुमालछवि फासेणं पण्णत्ता, एवं जाव अणुत्तरोववाइया / सोहम्मीसाणदेवाणं केरिसया पोग्गला उस्सासत्ताए परिणमंति ? गोयमा ! जे पोग्गला इट्ठा कता जाव एएसि उस्सासत्ताए परिणमंति जाव अनुत्तरोषवाइया; एवं प्राहारत्ताएवि जाव पतरोववाइया। सोहम्मीसाणदेवाणं कइ लेस्साओ? गोयमा! एगा तेउलेस्सा पण्णत्ता। सणंकुमारमाहिदेसु एगा पम्हलेस्सा। एवं बंभलोएवि पम्हा, सेसेसु एक्का सुक्कलेस्सा; अणुत्तरोववाइयाणं एक्का परमसुक्कलेस्सा। सोहम्मीसाणदेवा कि सम्भट्ठिी, मिच्छादिट्ठी, सम्मामिच्छाविट्ठी ? तिण्णिवि, जाप अंतिमगेवेज्जादेवा सम्मविट्ठीवि मिच्छाविट्ठीवि सम्मामिच्छाविट्ठीवि / अणुत्तरोववाइया सम्मविट्ठी, नो मिच्छादिट्ठी नो सम्मामिच्छादिट्ठी। Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाहल्य आदि प्रतिपादन] [107 सोहम्मीसाणादेवा कि णाणी अण्णाणी ? गोयमा ! दोवि तिणि जाणा, तिणि अण्णाणा णियमा जाव गेवेज्जा। अणुत्तरोबवाइया नाणी, गो अण्णाणी। तिणि णाणा तिण्णि अण्णाणा णियमा जाव गेवेज्जा / अणुत्तरोवधाइया गाणी, नो अण्णाणी, तिण्णि णाणा णियमा।तिविहे जोगे, दुविहे उवओगे, सब्वेसि जाव अणुत्तरा / 201. (ई) भगवन् ! सौधर्म और ईशान कल्प में देवों के शरीर की अवगाहना कितनी है ? गौतम ! उनके दो प्रकार के शरीर होते हैं -भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय, उनमें भवधारणीय शरीर को अवगाहना जघन्य से अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट से सात हाथ है। उत्तरवैक्रिय शरीर की अपेक्षा से जघन्य अंगुल का संख्यातवां भाग और उत्कृष्ट एक लाख योजन है। इस प्रकार आगे-आगे के कल्पों में एक-एक हाथ कम करते जाना चाहिए, यावत् अनुत्तरोपपातिक देवों की एक हाथ की अवगाहना रह जाती है / (जैसे सनत्कुमार-माहेन्द्र कल्प में उत्कृष्ट भवधारणीय शरीर की अवगाहना छह हाथ प्रमाण, ब्रह्मलोक-लान्तक में पांच हाथ, महाशुक्र-सहस्रार में चार हाथ, प्रानत-प्राणत-पारण-अच्यूत में तीन हाथ, नवग्रैवेयक में दो हाथ और अनत्तर विमानों में एक हाथ प्रमाण अवगाहना है।) ग्रैवेयकों और अनुत्तर विमानों में केवल भवधारणीय शरीर होता है / वे देव उत्तरविक्रिया नहीं करते / भगवन् ! सौधर्म-ईशानकल्प में देवों के शरीर का संहनन कौनसा है ? गौतम ! छह संहननों में से एक भी संहनन उनमें नहीं होता; क्योंकि उनके शरीर में न हड्डी होती है, न शिराएं होती हैं और न नसें ही होती हैं। अतः वे असंहननी हैं। जो पुद्गल इष्ट, कान्त यावत् मनोज्ञ-मनाम होते हैं, वे उनके शरीर रूप में एकत्रित होकर तथारूप में परिणत होते हैं / यही कथन अनुत्तरोपपातिक देवों तक कहना चाहिए। भगवन् ! सौधर्म-ईशानकल्प में देवों के शरीर का संस्थान कैसा है ? गौतम ! उनके शरीर दो प्रकार के हैं- भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय / जो भवधारणीय शरीर है, उसका समचतुरस्रसंस्थान है और जो उत्तरवक्रिय शरीर है, उनका संस्थान (आकार) नाना प्रकार का होता है। यह कथन अच्युत देवलोक तक कहना चाहिए। प्रैवेयक और अनुत्तर विमानों के देव उत्तर-विकुर्वणा नहीं करते / उनका भवधारणीय शरीर समचतुरस्रसंस्थान वाला है। उत्तरविक्रिया वहां नहीं है। भगवन् ! सौधर्म-ईशान के देवों के शरीर का वर्ण कैसा है ? गौतम ! तपे हुए स्वर्ण के समान लाल आभायुक्त उनका वर्ण है। सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्प के देवों का वर्ण पद्म, कमल के पराग (केशर) के समान गौर है। ब्रह्मलोक के देव गीले महुए के वर्ण वाले (सफेद) हैं / इसी प्रकार ग्रैवेयक देवों तक सफेद वर्ण कहना चाहिए / अनुत्तरोपपातिक देवों के शरीर का वर्ण परमशुक्ल है।। भगवन् ! सौधर्म-ईशान कल्पों के देवों के शरीर की गंध कैसी है ? गौतम ! जैसे कोष्ठपुट आदि सुगंधित द्रव्यों की सुगंध होती है, उससे भी अधिक इष्ट, कान्त यावत् मनाम उनके शरीर की गंध होती है। अनुत्तरोपपातिक देवों पर्यन्त ऐसा ही कथन करना चाहिए। Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10] [जीवाजीवाभिगमसूत्र भगवन् ! सौधर्म-ईशान कल्पों के देवों के शरीर का स्पर्श कैसा कहा गया है ? गौतम ! उनके शरीर का स्पर्श स्थिर रूप से मृदु, स्निग्ध और मुलायम छवि वाला कहा गया है / इसी प्रकार अनुत्तरोपपातिकदेवों पर्यन्त कहना चाहिए। भगवन् ! सौधर्म-ईशान देवों के श्वास के रूप में कैसे पुद्गल परिणत होते हैं ? गौतम ! जो पुद्गल इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ और मनाम होते हैं, वे उनके श्वास के रूप में परिणत होते हैं। यही कथन अनुत्तरोपपातिकदेवों तक कहना चाहिए तथा यही बात उनके प्राहार रूप में परिणत होने वाले पुद्गलों के सम्बन्ध में जाननी चाहिए। यही कथन अनुत्तरोपपातिकदेवों पर्यन्त समझना चाहिए। भगवन् ! सौधर्म-ईशान देवलोक के देवों के कितनी लेश्याएं होती हैं ? गौतम ! उनके मात्र एक तेजोलेश्या होती है। सनत्कुमार और माहेन्द्र में एक पद्मलेश्या होती है, ब्रह्मलोक में भी पालेश्या होती है। शेष सब में केवल शुक्ललेश्या होती है / अनुत्तरोपपातिकदेवों में परमशुक्ललेश्या होती है।' भगवन् ! सौधर्म-ईशान कल्प के देव सम्यग्दृष्टि हैं, मिथ्यादृष्टि हैं या सम्यग्मिध्यादृष्टि हैं ? ___ गौतम ! तीनों प्रकार के हैं / अवेयक विमानों तक के देव सम्यग्दृष्टि-मिथ्यादृष्टि-मिश्रदृष्टि तीनों प्रकार के हैं / अनुत्तर विमानों के देव सम्यग्दृष्टि ही होते हैं, मिथ्यादृष्टि और मिश्रदृष्टि वाले नहीं होते। भगवन् ! सौधर्म-ईशान कल्प के देव ज्ञानी हैं या अज्ञानी ? गौतम ! दोनों प्रकार के हैं / जो ज्ञानी हैं वे नियम से तीन ज्ञान वाले हैं और जो अज्ञानी हैं वे नियम से तीन अज्ञान वाले हैं। यह कथन ग्रेवेयकविमान तक करना चाहिए। अनुत्तरोपपातिकदेव ज्ञानी ही हैं-अज्ञानी नहीं। इस प्रकार अवेयकदेवों तक तीन ज्ञान और तीन अज्ञान की नियमा है। अनुत्तरोपपातिकदेव ज्ञानी ही हैं-अज्ञानी नहीं / इस प्रकार अवेयकदेवों तक तीन ज्ञान और तीन अज्ञान की नियमा है। अनुत्तरोपपातिकदेव ज्ञानी ही हैं, अज्ञानी नहीं। उनमें तीन ज्ञान नियमत: होते ही हैं। इसी प्रकार उन देवों में तीन योग और दो उपयोग भी कहने चाहिए। सौधर्म-ईशान से लगाकर अनुत्तरोपपातिक पर्यन्त सब देवों में तीन योग और दो उपयोग पाये जाते हैं। अवधिक्षेत्रादि प्ररूपण 202. सोहम्मीसाणेसु देवा प्रोहिणा केवइयं खेत्तं जाणंति पासंति ? गोयमा ! जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जहभागं, उक्कोसेणं अहे जाव रयणप्पभापुढवी, उड्ढं जाव साई विमाणाई, तिरियं जाव असंखेज्जा दीवसमुद्दा एवं१. किण्हा नीला काऊ तेउलेस्सा य भवणवंतरिया। जोइस' सोहम्मीसाण तेउलेस्सा मुणेयव्वा // 1 // कप्पेसणंकूमारे माहिंदे व बंभलोए या एएस पम्हलेस्सा तेण परं सुक्कलेस्सा य // 2 // Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवधिक्षेत्रादि प्ररूपण]] [109 सक्कीसाणा पढम दोच्चं च सणंकुमारमाहिंदा / तच्चं च बंभलंतक सुक्कसहस्सारगा चउत्थि // 1 // प्राणयपाणयकप्पे देवा पासंति पंचमि पृढवीं। तं चेव आरणच्चय ओहिनाणेण पासंति // 2 // छट्टि हेटिममझिमगेवेज्जा सतमि च उवरिल्ला / संभिण्णलोगनालिं पासंति अणुत्तरा देवा / / 3 / / 202. भगवन् ! सौधर्म-ईशान कल्प के देव अवधिज्ञान के द्वारा कितने क्षेत्र को जानते हैं-देखते हैं ? गौतम ! जघन्यतः अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्र को और उत्कृष्ट से नीची दिशा में रत्नप्रभापृथ्वी तक, ऊर्ध्व दिशा में अपने-अपने विमानों के ऊपरी भाग ध्वजा-पताका तक और तिरछोदिशा में असख्यात द्वीप-समुद्रों को जानते-देखते हैं। (इस विषय को तीन गाथाओं में कहा है-) शक्र और ईशान प्रथम रत्नप्रभा नरकपृथ्वी के चरमान्त तक, सनत्कुमार और माहेन्द्र दूसरी पृथ्वी शर्कराप्रभा के चरमान्त तक, ब्रह्म और लांतक तीसरी पृथ्वी तक, शुक्र और सहस्रार चौथी पृथ्वी तक, प्राणत-प्राणत-पारण-अच्यूत कल्प के देव पांचवीं पृथ्वी तक अवधिज्ञान के द्वारा जानते-देखते हैं / अधस्तनप्रैवेयक, मध्यमवेयक देव छठी नरक पृथ्वी के चरमान्त तक देखते हैं और उपरितनग्रैवेयक देव सातवीं नरकपृथ्वी तक देखते हैं। अनुत्तरविमानवासी देव सम्पूर्ण चौदह रज्जू प्रमाण लोकनाली को अवधिज्ञान के द्वारा जानते-देखते हैं। विवेचन यहां सौधर्म-ईशान कल्प के देवों का अवधिज्ञान जघन्यतः अंगुल का असंख्यातवां भाग प्रमाण क्षेत्र बताया है। यहां ऐसी शंका होती है कि अंगुल का असंख्यातवां भागप्रमाण क्षेत्र वाला जघन्य अवधिज्ञान तो मनुष्य और तिर्यचों में ही होता है। देवों में तो मध्यम अवधिज्ञान होता है। तो यहां सौधर्म ईशान में जघन्य अवधिज्ञान कैसे कहा गया है ? इसका समाधान इस प्रकार है कि यहां जिस जघन्य अवधिज्ञान का देवों में होना बताया है, वह उन सौधर्मादि देवों के उपपातकाल में पारभविक अवधिज्ञान को लेकर बतलाया गया है। तद्भवज अवधिज्ञान को लेकर नहीं।' प्रज्ञापना में उत्कृष्ट अवधिज्ञान को लेकर जो कथन किया गया है-वही यहां निर्दिष्ट है। ऊपर मूल में दी गई तीन गाथाओं और उनके अर्थ से वह स्पष्ट ही है। 203. सोहम्मीसाणेसु णं भंते ! देवाणं कइ समुग्घाया पण्णत्ता ? गोयमा ! पंच समुग्घाया पण्णता, तं जहा---वेयणासमुग्घाए, कसायसमुग्घाए, मारणंतियसमुग्घाए, वेउव्वियसमुग्याए, तेजससमुग्धाए / एवं जाव अच्चुए। गेवेज्जाणं आदिल्ला तिण्णिसमुग्घाया पणत्ता। - सोहम्मीसाणदेवा भंते ! केरिसयं खुहपिवासं पच्चणुभवमाणा विहरंति ? गोयमा ! पत्थि खुहपिवासं पच्चणुभवमाणा विहरंति जाव अणुत्तरोषवाइया। 1. वेमाणियाणमंगुलभागमसंखं जहन्नो ओही। उववाए परभवितो तभवप्रो होइ तो पच्छा / / 1 // Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 150 / जीवाजीवाभिगमसूत्र सोहम्मोसाणेसु णं भंते ! देवा एगत्तं पभू विउटिवत्तए, पुहुत्तं पभू विउवित्तए ? हंतापभूः एगत्तं विउब्वेमाणा एगिदियरूवं वा जाव पंचिंदियरूवं वा, पुहुत्तं विउव्वेमाणा एगिदियख्वाणि वा जाव पंचिदियरूवाणि वा; ताई संखेज्जाइंपि असंखेज्जाइपि सरिसाइंपि असरिसाइंपि संबद्धाइंपि असंबद्धाइंपि रूवाई विउध्वंति, विउवित्ता अप्पणा जहिच्छियाई कज्जाइं करेंति जाव अच्चुओ।। गेविज्जणुत्तरोवधाइयादेवा कि एगत्तं पभू विउस्वित्तए, पुहत्तं पभू विउवित्तए ? गोयमा ! एगत्तंपि पुहुत्तंपि / नो चेव णं संपत्तीए विउविसु वा विउच्वंति वा विउविस्संति वा / सोहम्मीसाणदेवा केरिसयं सायासोक्खं पच्चणुब्भवमाणा विहरति ? गोयमा ! मणुग्णा सद्दा जाव मणुण्णा फासा जाय गेविज्जा / अणुत्तरोववाइया अणुत्तरा सद्दा जाव फासा / सोहम्मीसाणेसु देवाणं केरिसया इड्ढी पण्णत्ता? गोयमा ! महड्ढिया महिज्जुइया जाव महाणुभागा इड्ढीए पण्णत्ता जाव अच्च प्रो। गेविज्जणुत्तरा य सव्वे महिड्डिया जाव सम्वे महाणुभागा अणिदा जाव अहमिदा णामं णामं ते देवगणा पण्णत्ता समणाउसो! 203. भगवन् ! सौधर्म-ईशानकल्पों में देवों में कितने समुद्घात कहे हैं ? गौतम ! पांच समुद्धात होते हैं—१. वेदनासमुद्घात, 2. कषायसमुद्घात, 3. मारणान्तिकसमुद्घात, 4. वैक्रियसमुद्घात और 5. तेजससमुद्घात / इसी प्रकार अच्युतदेवलोक तक पांच समुद्घात कहने चाहिए / अवेयकदेवों के आदि के तीन समुद्घात कहे गये हैं-- वेदना, कषाय और मारणान्तिक समुद्घात / भगवन् ! सौधर्म-ईशान देवलोक के देव कैसी भूख-प्यास का अनुभव करते हुए विचरते हैं ? गौतम ! यह शंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि उन देवों को भूख-प्यास की वेदना होती ही नहीं है / अनुत्तरोपपातिकदेवों पर्यन्त इसी प्रकार का कथन करना चाहिए। भगवन् ! सौधर्म-ईशानकल्पों के देव एकरूप की विकुर्वणा करने में समर्थ हैं या बहुत सारे रूपों की विकुर्वणा करने में समर्थ हैं ? गौतम ! दोनों प्रकार की विकुर्वणा करने में समर्थ हैं। एक की विकुर्वणा करते हुए वे एकेन्द्रिय का रूप यावत् पंचेन्द्रिय का रूप बना सकते हैं और बहुरूप की विकुर्वणा करते हुए वे बहुत सारे एकेन्द्रिय रूपों की यावत् पंचेन्द्रिय रूपों को विकुर्वणा कर सकते हैं / वे संख्यात अथवा असंख्यात सरीखे या भिन्न-भिन्न और संबद्ध (प्रात्मप्रदेशों से समवेत) असंबद्ध (प्रात्मप्रदेशों से भिन्न) नाना रूप बनाकर इच्छानुसार कार्य करते हैं / ऐसा कथन अच्युतदेवों पर्यन्त कहना चाहिए। - भगवन् ! ग्रैवेयकदेव और अनुत्तर विमानों के देव एक रूप बनाने में समर्थ हैं या बहुत सारे रूप बनाने में समर्थ हैं ? गौतम ! बे एकरूप भी बना सकते हैं और बहुत सारे रूप भी बना सकते हैं। लेकिन उन्होंने ऐसी विकुर्वणा न तो पहले कभी की है, न वर्तमान में करते हैं और न भविष्य में कभी करेंगे। (क्योंकि वे उत्तरविक्रिया करने की शक्ति से सम्पन्न होने पर भी प्रयोजन के प्रभाव तथा प्रकृति की उपशान्तता से विक्रिया नहीं करते।) ___ भगवन् ! सौधर्म-ईशानकल्प के देव किस प्रकार का साता-सौख्य अनुभव करते हुए विचरते हैं ? Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनधिक्षेत्रादि प्ररूपण] [111 गौतम ! मनोज्ञ शब्द यावत् मनोज्ञ स्पर्शों द्वारा सुख का अनुभव करते हुए विचरते हैं। यह कथन |वेयकदेवों तक समझना चाहिए। अनुत्तरोपपातिकदेव अनुत्तर (सर्वश्रेष्ठ) शब्दजन्य यावत् अनुत्तर स्पर्शजन्य सुखों का अनुभव करते हैं। भगवन् ! सौधर्म-ईशान देवों की ऋद्धि कैसी है ? गौतम ! वे महान् ऋद्धिवाले, महाद्युतिवाले यावत् महाप्रभावशाली ऋद्धि से युक्त हैं / अच्युतविमान पर्यन्त ऐसा कहना चाहिए। ग्रैवेयकविमानों और अनुत्तरविमानों में सब देव महान् ऋद्धिवाले यावत् महाप्रभावशाली हैं। वहां कोई इन्द्र नहीं है / सब "अहमिन्द्र" हैं, वहां छोटे-बड़े का भेद नहीं है / हे आयुष्मन् श्रमण ! वे देव अहमिन्द्र कहलाते हैं। 204. सोहम्मीसाणा वेवा केरिसया विभूसाए पण्णत्ता? गोयमा ! कुविहा पण्णत्ता, तं जहा-वेउध्वियसरीरा य, अवेउन्विय-सरोरा य / तत्थ णं जे से देउब्जियसरीरा ते हारविराइयवच्छा जाव दस दिसाम्रो उज्जोवेमाणा पभासेमाणा जाव पडिरूवा / तत्थ णं जे से अवे उब्वियसरीरा ते णं आभरणवसणरहिआ पगहत्था विभूसाए पण्णत्ता।। सोहम्मीसाणेसु णं भंते ! कप्पेसु देवीमो केरिसयाओ विभूसाए पण्णताओ? गोयमा ! दुविहाओ पण्णत्ताओ तं जहा-वेउब्वियसरीराओय प्रवेउब्वियसरीरानो य / तत्थ णं जाओ वेउम्वियसरीरामो तानो सुवण्णसद्दालाओ सुवण्णसहालाई वत्थाई पवर परिहियानो चंदाणणाम्रो चंदविलासिणीओ चदद्धसमणिडालाप्रो सिंगारागारचारुवेसाओ संगय जाव पासाइनो जाव पडिरूवाओ। तत्थ णं जाओ अवेउब्वियसरीरामो ताओ णं आभरणवसणरहियाओ पगइत्थानो विभूसाए पण्णत्ताओ। सेसेसु देवीप्रो पत्थि जाव अच्चओ। गेवेज्जगदेवा केरिसया विभूसाए पण्णता? गोयमा ! प्राभरणवसणरहिया एवं देवी त्थि भाणियव्वं / पगइत्था विभूसाए पण्णता एवं अणुत्तरावि / सोहम्मोसाणेसु देवा केरिसए कामभोगे पच्चणुभवमाणा विहरंति ? गोयमा ! इट्ठा सद्दा इट्ठा रूवा जाव फासा / एवं जाव गेवेज्जा / अणुत्तरोववाइयाणं अणुत्तरा सदा जाव अणुत्तरा फासा / ठिई सम्वेसि भाणियन्वा / अणंतरं चयंति, चइत्ता जे जहिं गच्छति तं भाणियव्वं / 204. भगवन् ! सौधर्म-ईशान कल्प के देव विभूषा की दृष्टि से कैसे हैं ? गौतम वे देव दो प्रकार के हैं. वैक्रियशरीर वाले और अवैक्रियशरीर वाले। उनमें जो वैक्रियशरीर (उत्तरवैक्रिय) वाले हैं वे हारों से सुशोभित वक्षस्थल वाले यावत् दसों दिशाओं को उद्योतित करने वाले, प्रभासित करने वाले यावत् प्रतिरूप हैं / जो अवैक्रियशरीर (भवधारणीयशरीर) वाले हैं वे आभरण और वस्त्रों से रहित हैं और स्वाभाविक विभूषण से सम्पन्न हैं। भगवन् ! सौधर्म-ईशान कल्पों में देवियां विभूषा की दृष्टि से कैसी हैं ? गौतम ! वे दो प्रकार की हैं-उत्तरवैक्रियशरीर वाली और अवैक्रियशरीर (भवधारणीयशरीर) वाली। इनमें जो उत्तरवैक्रियशरीर वाली वे स्वर्ण के नूपुरादि प्राभूषणों की ध्वनि से युक्त हैं तथा स्वर्ण की बजती किकिणियों वाले वस्त्रों को तथा उद्भट वेश को पहनी हुई हैं, चन्द्र के समान उनका मुखमण्डल है, Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112] [जीवाजीवाभिगमसूत्र चन्द्र के समान विलास वाली हैं, अर्धचन्द्र के समान भाल बाली हैं, वे शृगार की साक्षात् मूर्ति हैं और सुन्दर परिधान वाली हैं, वे सुन्दर यावत् दर्शनीय, प्रसन्नता पैदा करने वाली और सौन्दर्य की प्रतीक हैं। उनमें जो अविकुर्वित शरीर वाली हैं वे आभूषणों और वस्त्रों से रहित स्वाभाविक-सहज सौन्दर्य वाली हैं। सौधर्म-ईशान को छोड़कर शेष कल्पों में देव ही हैं, वहां देवियां नहीं हैं। अतः अच्युतकल्प पर्यन्त देवों की विभूषा का वर्णन उक्त रीति के अनुसार ही करना चाहिए। प्रैवेयकदेवों की विभूषा कैसी है ? इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है कि गौतम ! वे देव आभरण और वस्त्रों की विभूषा से रहित हैं, स्वाभाविक विभूषा से सम्पन्न हैं। वहां देवियां नहीं हैं। इसी प्रकार अनुत्तरविमान के देवों की विभूषा का कथन भी कर लेना चाहिए। भगवन् ! सौधर्म-ईशान कल्प में देव कैसे कामभोगों का अनुभव करते हुए विचरते हैं ? गौतम ! इष्ट शब्द, इष्ट रूप यावत इष्ट स्पर्श जन्य सुखों का अनुभव करते हैं / ग्रेवेयकदेवों तक उक्त रीति से कहना चाहिए / अनुत्तरविमान के देव अनुत्तर शब्द यावत् अनुत्तर स्पर्श जन्य सुख का अनुभव करते हैं। सब वैमानिक देवों की स्थिति कहनी चाहिए तथा देवभव से च्यवकर कहां उत्पन्न होते हैंयह उद्वर्तनाद्वार कहना चाहिए। विवेचन--उक्त सूत्र में स्थिति और उद्वर्तना का निर्देशमात्र किया गया है / अतएव संक्षेप में उसकी स्पष्टता करना यहां आवश्यक है / स्थिति इस प्रकार है कल्पादि के नाम जघन्यस्थिति उत्कृष्टस्थिति | सौधर्मकल्प ईशानकल्प M सनत्कुमारकल्प माहेन्द्रकल्प ory ब्रह्मलोककल्प लान्तककल्प महाशुक्रकल्प सहस्रारकल्प प्रानतकल्प प्राणतकल्प प्रारणकल्प अच्युनकल्प 1 पल्योपम १पल्यो.से कुछ अधिक 2 सागरोपम 2 सागरोपम से अधिक 7 सागरोपम 10 सागरोपम 14 सागरोपम 17 सागरोपम 18 सागरोपम 19 सागरोपम 20 सागरोपम 21 सागरोपम 2 सागरोपम 2 सागरोपम से कुछ अधिक 7 सागरोपम 7 सागरोपम से अधिक 10 सागरोपम 14 सागरोपम 17 सागरोपम 18 सागरोपम 19 सागरोपम 20 सागरोपम 21 सागरोपम 22 सागरोपम Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवधिक्षेत्र प्रमाण] [113 देवों के नाम जघन्यस्थिति उस्कृष्टस्थिति प्रथम ग्रैवेयक द्वितीय ग्रेवेयक तृतीय अवेयक चतुर्थ |वेयक पंचम ग्रैबेयक षष्ठ प्रैवेयक सप्तम ग्रेवेयक अष्टम ग्रैवेयक नवम ग्रेवेयक विजय अनुत्तर विमान वेजयंत अनुत्तर विमान जयंत अनुत्तर विमान अपराजित अनुत्तर विमान सर्वार्थसिद्ध अनुत्तर विमान 22 सागरोपम 23 सागरोपम 24 सागरोपम 25 सागरोपम 26 सागरोपम 27 सागरोपम 28 सागरोपम 29 सागरोपम 30 सागरोपम 31 सागरोपम 31 सागरोपम 31 सागरोपम 31 सागरोपम अजघन्योत्कर्ष 23 सागरोपम 24 सागरोपम 25 सागरोपम 26 सागरोपम 27 सागरोपम 28 सागरोपम 29 सागरोपम 30 सागरोपम 31 सागरोपम 32 सागरोपम 32 सागरोपम 32 सागरोपम 32 सागरोपम 33 सागरोपम उद्वर्तनाद्वार-सौधर्म देवलोक के देव बादर पर्याप्त पृथ्वीकाय अप्काय और वनस्पतिकाय में, संख्यात वर्ष की आयु वाले पर्याप्त गर्भज तियंच पंचेन्द्रिय और गर्भज मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं / ईशानदेव भी इन्हीं में उत्पन्न होते हैं। सनत्कुमार से लेकर सहस्रार पर्यन्त के देव संख्यात वर्ष की पायुवाले पर्याप्त गर्भज तिर्यंच और मनुष्यों में ही उत्पन्न होते हैं, ये एकेन्द्रियों में उत्पन्न नहीं होते। आनत से लगाकर अनुत्तरोपपातिक देव तिर्यंच पंचेन्द्रियों में भी उत्पन्न नहीं होते, केवल संख्यात वर्ष की आयु वाले गर्भज मनुष्यों में ही उत्पन्न होते हैं / 205. सोहम्मीसाणेसु भंते ! कप्पेसु सव्वपाणा सयभूया जाव सत्ता पुढविकाइयत्ताए। देवत्ताए देवित्ताए आसणसयण जाव भंडोवगरणत्ताए उववण्णपुव्वा ? हंता, गोयमा ! असई अदुवा अणंतखुत्तो / सेसेसु कप्पेसु एवं चेव नवरं नो चेव णं देवित्ताए जाव गेवेज्जगा / अणुत्तरोववाइएसुवि एवं गो चेव णं देवत्ताए देवित्ताए / सेत्तं देवा। 205. भगवन् ! सौधर्म-ईशानकल्पों में सब प्राणी, सब भूत, सब जीव और सब सत्व पृथिवीकाय के रूप में, देव के रूप में, देवी के रूप में, प्रासन-शयन यावत् भण्डोपकरण के रूप में पूर्व में उत्पन्न हो चुके हैं क्या? 1. ,'जाव वणस्सइकाइयत्ताए" पाठ कई प्रतियों में है, परन्तु वृत्तिकार ने उसे उचित नहीं माना है। क्योंकि वहां तेजस्काय संभव ही नहीं है। Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114] [जीवाजीवाभिगमसूत्र हाँ, गौतम! अनेकवार अथवा अनन्तबार उत्पन्न हो चुके हैं। शेष कल्पों में ऐसा ही कहना चाहिए, किन्तु देवी के रूप में उत्पन्न होना नहीं कहना चाहिए (क्योंकि सौधर्म-ईशान से प्रागे के विमानों में देवियां नहीं होती) 1 ग्रैवेयक विमानों तक ऐसा कहना चाहिए / अनुत्तरोपपातिक दिमानों में पूर्ववत् कहना चाहिये, किन्तु देव और देवीरूप में नहीं कहना चाहिए। यहां देवों का कथन पूर्ण हुआ। विवेचन-यहां प्रश्न किया गया है कि सौधर्म देवलोक के बत्तीस लाख विमानों में से प्रत्येक में क्या सब प्राणी, भूत, जीव और सत्व पृथ्वी रूप में, देव, देवी और भंडोपकरण के रूप में पहले उत्पन्न हो चुके हैं ? (द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय को प्राण में सम्मिलित किया है, वनस्पति को भूत में, पंचेन्द्रियों को जीव में और शेष पृथ्वी-अप-तेज-वायु को सत्व में शामिल किया गया है। उत्तर में कहा गया है- अनेकबार अथवा अनन्तबार उत्पन्न हो चुके हैं। सांव्यवहारिक राशि के अन्तर्गत जीव प्रायः सर्वस्थानों में अनन्तबार उत्पन्न हुए हैं / यहाँ पर अनेक प्रतियों में “पुढविकाइयत्ताए जाव वणस्स इकाइयत्ताए" पाठ उपलब्ध होता है। परन्तु वृत्तिकार के अनुसार यह संगत नहीं है / क्योंकि वहां तेजस्काय का अभाव है / वृत्तिकार के अनुसार "पृथ्वीकाइयतया देवतया देवीतया" इतना ही उल्लेख संगत है / आसन, शयन यावत् भण्डोपकरण आदि पृथ्वीकायिक जीव में सम्मिलित हैं। सौधर्म-ईशानकल्प तक ही देवियां हैं, अतएव अागे के विमानों में देवीरूप से उत्पन्न होना नहीं कहना चाहिए / वेयक विमानों तक तो देवीरूप में उत्पन्न होने का निषेध किया गया है / अनुत्तरविमानों में देवीरूप और देवरूप दोनों का निषेध है / देवियां तो वहां होती ही नहीं / देवों का निषेध इसलिए किया गया है कि विजयादि चार विमानों में तो उत्कर्ष से दो बार, सर्वार्थसिद्ध विमान में केवल एक ही बार जीव जा सकता है, अनन्तबार नहीं / अनन्तबार न जाने की दृष्टि से ही निषेध समझना चाहिए / यहां देवों का वर्णन समाप्त होता है / सामान्यतया भवस्थिति आदि का वर्णन 206. नेरइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिती पण्णता? गोयमा ! जहन्नेणं दसवाससहस्साई उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई, एवं सम्वेसि पुच्छा। तिरिक्खजोणियाणं जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं तिण्णि पलिनोवमाइं एवं मणुस्साणवि / देवाणं जहा रइयाणं / देव-गेरइयाणं जा चेव ठिती सा चेव संचिट्ठणा / तिरिक्खजोणियस्स जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो। मणुस्से णं भंते ! मणुस्सेति कालओ केवच्चिर होइ ? गोयमा ! जहण्णणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं तिन्नि पलिग्रोवमाई पुवकोडि पुहुत्तमन्भहियाई। रइयमणुस्सदेवाणं अंतरं जहनेणं अंतोमुत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो। तिरिक्खजोणियस्स अंतरं जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं सागरोपमसयपुहत्तसाइरेगं / 1. प्राणा द्वित्रिचतुः प्रोक्ताः भूताश्च तरवः स्मृताः / जीवा: पंचेन्द्रिया ज्ञेयाः शेषाः सत्वा उदीरिता / / Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामान्यतया भवस्थिति आदि का वर्णन] [115 एएसि णं भंते ! रइयाणं जाव देवाणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सम्वत्थोवा मणुस्सा, णेरइया असंखेज्जगुणा, देवा असंखेज्जगुणा, तिरिया अणंतगुणा / सेत्तं चउव्यिहा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता। 206. भगवन् ! नैरयिकों की स्थिति कितनी है ? गौतम ! जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की है। इस प्रकार सबके लिए प्रश्न कर लेना चाहिए / तिर्यंचयोनिक की जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की है। मनुष्यों को भी यही है। देवों की स्थिति नैरयिकों के समान जाननी चाहिए। देव और नारक की जो स्थिति है, वही उनको संचिट्टणा है अर्थात् कास्थिति है / (उसी. उसो भव में उत्पन्न होने के काल को कायस्थिति कहते हैं / ) तिर्यंच की कायस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट बनस्पतिकाल है। भंते ! मनुष्य, मनुष्य के रूप में कितने काल तक रह सकता है ? गोतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम तक रह सकता है। नैरयिक, मनुष्य और देवों का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है। तियंचयोनियों का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट कुछ अधिक दो सौ से नौ सो सागरोपम का होता है। भगवन् ! इन नैरयिकों यावत् देवों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े मनुष्य हैं, उनसे नैरयिक असंख्यगुण हैं, उनसे देव असंख्यगुण हैं और उनसे तिर्यंच अनन्तगुण हैं। इस प्रकार चार प्रकार के संसारसमापनक जीवों का वर्णन पूरा होता है। विवेचन-देवों के वर्णन के पश्चात् नारक, तिर्यच, मनुष्य और देवों की समुच्चय रूप से स्थिति, संचिट्ठना (कायस्थिति), अन्तर और अल्पबहुत्व का कथन प्रस्तुत सूत्र में किया गया है / नारकों की जघन्यस्थिति दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की है / जघन्यस्थिति रत्नप्रभा नरक के प्रथम प्रस्तर की अपेक्षा से और उत्कृष्टस्थिति सप्तम नरकपृथ्वी की अपेक्षा से समझनी चाहिए / तिर्यग्योनिकों की जघन्यस्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की है। यह देवकुरु आदि की अपेक्षा से है। मनष्यों की भी जघन्य अन्तमहतं और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की स्थिति है। देवों को जघन्य दस हजार वर्ष-भवनपति और व्यन्तर देवों की अपेक्षा से और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम विजयादि विमान की अपेक्षा से कही गई है / यह भवस्थिति बताई है / संचिट्ठणा का अर्थ कायस्थिति है / अर्थात् कोई जीव उसी-उसी भव में जितने काल तक रह सकता है / नारकों और देवों की भवस्थिति ही उनकी कायस्थिति है / क्योंकि यह नियम है कि देव मरकर अनन्तर भव में देव नहीं होता है, नारक भी मरकर अनन्तर भव में नारक नहीं होता।' 1. "नो नेरइएसु उववज्जइ”, “नो देव देवेसु उववज्जइ" इति वचनात् / Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 116] [जीवाजीवाभिगमसूत्र इसलिए कहा गया है कि देवों और नारकों को जो भवस्थिति है, वही उनकी संचिट्ठणा (कायस्थिति) तिर्यग्योनिकों की संचिगुणा जघन्य अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि तदनन्तर मरकर वे मनुष्यादि में उत्पन्न हो सकते हैं / उत्कृष्ट से उनकी संचिट्ठणा अनन्तकाल है, क्योंकि वनस्पति में अनन्तकाल तक जन्ममरण हो सकता है। अनन्तकाल का अर्थ यहां वनस्पतिकाल से है। बनस्पतिकाल का प्रमाण इस प्रकार है-काल से अनन्त उत्सपिणियां--प्रवसपिणियां प्रमाण, क्षेत्र से अनन्त लोक और असंख्यात पुद्गलपरावर्त प्रमाण / ये पुद्गलपरावर्त आवलिका के असंख्यातवें भाग में जितने समय हैं, उतने समझने चाहिए। मनुष्य की संचिट्ठणा जघन्य से अन्तर्मुहूर्त / तदनन्तर मरकर तिर्यग् आदि में उत्पन्न हो सकता है / उत्कृष्ट संचिट्ठणा पृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम है / महाविदेह आदि में सात मनुष्यभव (पूर्वकोटि प्रायु के) और पाठवां भव देवकुरु आदि में उत्पन्न होने की अपेक्षा से समझना चाहिए / अन्तरद्वार-कोई जीव एक भव से मरकर फिर जितने काल के बाद उसी भव में प्राता हैवह अन्तर कहलाता है। नैरयिक का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है / नरक से निकलकर अन्तमुहूर्त पर्यन्त तिर्यंच या मनुष्य भव में रहकर पुनः नारक बनने की अपेक्षा से है। कोई जीव नरक से निकलकर गर्भज मनुष्य के रूप में उत्पन्न हुआ, सब पर्याप्तियों से पूर्ण हुया और विशिष्ट संज्ञान से युक्त होकर वैक्रियलब्धिमान होता हुआ राज्यादि का अभिलाषी, परचक्री का उपद्रव जानकर अपनी शक्ति के प्रभाव से चतुरंगिणी सेना विकुक्ति कर संग्राम करता हुआ महारौद्रध्यान ध्याता हुआ गर्भ में ही मरकर नरक में उत्पन्न होता है—इस अपेक्षा से मनुष्यभव में पैदा होकर जघन्य अन्तर्मुहूर्त में वह नारक जीव फिर नरक में उत्पन्न होता है / नरक से निकलकर तन्दुलमत्स्य के रूप में उत्पन्न होकर महारौद्रध्यान वाला बनकर अन्तमुहर्त जीकर फिर नरक में पैदा होता है-इस अपेक्षा से तिर्यक्भव करके पुनः नारक उत्पन्न होने का जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त समझना चाहिए / उत्कृष्ट अन्तर वनस्पति में अनन्तकाल जन्म-मरण के पश्चात् नरक में उत्पन्न होने पर घटित होता है। तिर्यग्योनिकों का जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है। कोई तिर्यंच मरकर मनुष्यभव में अन्तर्मुहूर्त रहकर फिर तिर्यच रूप में उत्पन्न हया, इस अपेक्षा से है। उत्कृष्ट अन्तर सागरोपमशतपृथक्त्व से कुछ अधिक है। दो सौ सागरोपम से नौ सौ सागरोपम तक निरन्तर देव, नारक और मनुष्य भव में भ्रमण करते रहने पर घटित होता है। मनुष्य का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट प्रन्तर वनस्पतिकाल है। मनुष्यभव से निकलकर अन्तमुहूर्त काल तक तिर्यग्भव में रहकर फिर मनुष्य बनने पर जघन्य अन्तर घटित होता है / उत्कृष्ट अन्तर वनस्पतिकाल स्पष्ट ही है / देवों का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है / कोई जीव देवभव से च्यवकर गर्भज मनुष्य के रूप में पैदा हमा, सब पर्याप्तियों से पूर्ण हा। विशिष्ट संज्ञान वाला हमा। तथाविध श्रमण या श्रमणोपासक के पास धार्मिक आर्यवचनों को सुनकर धर्मध्यान ध्याता हुआ गर्भ में ही भरकर देवों में उत्पन्न हुआ, इस अपेक्षा से जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त काल घटित होता है। उत्कृष्ट अन्तर वनस्पतिकाल का Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामान्यतया भवस्थिति आदि का वर्णन] [ 117 है, जो वनस्पतिकाय में अनन्तकाल तक जन्म-मरण करते रहने के बाद देव बनने पर घटित होता है। अल्पबहुत्वद्वार अल्पबहुत्व विवक्षा में सबसे थोड़े मनुष्य हैं। क्योंकि वे श्रेणी के असंख्येयभागवर्ती आकाशप्रदेशों की राशिप्रमाण हैं। उनसे नैरयिक असंख्येयगुण हैं, क्योंकि वे अंगुलमात्र क्षेत्र की प्रदेश राशि के प्रथम वर्गमूल को द्वितीय वर्गमूल से गुणित करने पर जितनी प्रदेशराशि होती है उतने प्रमाण वाली श्रेणिबों में जितने आकाशप्रदेश होते हैं, उतने प्रमाण में नैरयिक हैं / नैरयिकों से देव असंख्येयगुण हैं, क्योंकि महादण्डक में व्यन्तर और ज्योतिष्क देव नारकियों से असंख्यात गुण कहे गये हैं। देवों से तिर्यच अनन्तगुण हैं, क्योंकि वनस्पति के जीव अनन्तानन्त कहे गये हैं। इस प्रकार चार प्रकार के संसारसमापन्नक जीवों की प्रतिपत्ति का कथन सम्पूर्ण हुमा / // तृतीय प्रतिपत्ति समाप्त / / Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चतिधारया चतुर्थ प्रतिपत्ति 207. तत्थ जंजे ते एवमाहंसु-पंचविहा संसारसमावण्णगा जीया, ते एवमाहंसु, तं जहाएगिदिया, बेइंदिया, तेइंदिया, चरिदिया, पंचिदिया। से कि तं एगिदिया ? एगिदिया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-पज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य / एवं जाव पंचिदिया दुविहा–पज्जत्तगा य अपज्जत्तगाय। एगिदियस्स णं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णता ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उपकोसेणं बावीसं वाससहस्साई। बेइंदियस्स० जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं बारस संवच्छराणि / एवं तेइंदियस्स एगणपण्णं राईदियाणं, चरिदियस्स छम्मासा, पंचिदियस्स जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं। अपज्जत्तएगिदियस्स णं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणवि अंतोमुहत्तं / एवं सव्वेसि / पज्जगिदियाणं णं जाव पंचिंदियाणं पुच्छा ? जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साई अंतोमुहुत्तूणाई। एवं उक्कोसियावि ठिई अंतोमुहुतूणा सम्बेसि पज्जत्ताणं कायवा। 207. जो प्राचार्यादि ऐसा प्रतिपादन करते हैं कि संसारसमापन्नक जीव पांच प्रकार के हैं, वे उनके भेद इस प्रकार कहते हैं, यथा-एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, और पंचेन्द्रिय / भगवन् ! एकेन्द्रिय जीवों के कितने प्रकार हैं ? गौतम ! एकेन्द्रिय जीव दो प्रकार के हैंपर्याप्त एकेन्द्रिय और अपर्याप्त एकेन्द्रिय / इस प्रकार पंचेन्द्रिय पर्यन्त सबके दो-दो भेद कहने चाहिये-पर्याप्त और अपर्याप्त / __ भगवन् ! एकेन्द्रिय जीवों की कितने काल की स्थिति कही गई है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट बावीस हजार वर्ष की / द्वीन्द्रिय की जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट बारह वर्ष की, श्रीन्द्रिय की 49 उननचास रात-दिन की, चतुरिन्द्रिय की छह मास की और पंचेन्द्रिय की जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की स्थिति है। भगवन् ! अपर्याप्त एकेन्द्रिय की कितनी स्थिति है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त की स्थिति है / इसी प्रकार सब अपर्याप्तों की स्थिति कहनी चाहिए। - भगवन् ! पर्याप्त एकेन्द्रिय यावत् पर्याप्त पंचेन्द्रिय जीवों की कितनी स्थिति है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम बावीस हजार वर्ष की स्थिति है / इसी प्रकार सब पर्याप्तों को उत्कृष्ट स्थिति उनकी कुलस्थिति से अन्तर्मुहूर्त कम कहनी चाहिए / Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चविधाख्या चतुर्य प्रतिपत्ति] [119 208. एगिदिए गं भंते ! एगिदिएत्ति कालओ केवच्चिर होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो। बेइंदिए गं भंते ! बेइंदिएत्ति कालओ केवच्चिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं संखेनं कालं जाव चरिदिए संखेज्जं कालं। पंचिदिए णं भंते ! पंचिंविएत्ति कालओ केवच्चिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं सागरोवमसहस्सं सातिरेगे। एगिदिए णं अपज्जत्तए णं भंते ! कालओ केवच्चिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणवि अंतोमुहत्तं जाव पंचिदियअपज्जत्तए / पज्जत्तगएगिदिए णं भंते ! कालमो केवच्चिर होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतीमुहत्तं उक्कोसेणं संखिज्जाइं वाससहस्साई। एवं बेइंदिएवि, णरि संखेज्जाई वासाइं। तेइंदिए णं भंते० संखेज्जा राइंदिया। चउरिदिए णं० संखेज्जा मासा / पज्जत्तपंचिदिए सागरोवमसयपुहुत्तं सातिरेगं / एगिदियस्स णं भंते ! केवइयं कालं अंतरं होई ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं दो सागरोवमसहस्साई संखेज्जवासमभहियाई। बेइंदियस्स गं अंतरं कालओ केवच्चिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो। एवं तेइंदियस्स चउरिदियस्स पंचेंदियस्स / अपज्जत्तगाणं एवं चेव / पज्जत्तगाण वि एवं चेव। 208. भगवन् ! एकेन्द्रिय, एकेन्द्रियरूप में कितने काल तक रहता है ? गौतम ! जघन्य अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल पर्यन्त रहता है / भगवन् ! द्वीन्द्रिय, द्वीन्द्रियरूप में कितने काल तक रहता है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यातकाल तक रहता है / यावत् चतुरिन्द्रिय भी संख्यात काल तक रहता है / __ भगवन् ! पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियरूप में कितने काल तक रहता है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट कुछ अधिक हजार सागरोपम तक रहता है / भगवन् ! अपर्याप्त एकेन्द्रिय उसी रूप में कितने समय तक रहता है ? गौतम ! जघन्य से अन्तमहर्त और उत्कृष्ट से भी अन्तमहर्त तक रहता है। इसी प्रकार अपर्याप्त पंचेन्द्रिय तक कहना चाहिए। भगवन् ! पर्याप्त एकेन्द्रिय उसी रूप में कितने समय तक रहता है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यात हजार वर्ष तक रहता है। इसी प्रकार द्वीन्द्रिय का कथन करना चाहिए, विशेषता यह है कि यहां संख्यात वर्ष कहना चाहिए। भगवन् ! श्रीन्द्रिय की पृच्छा ? संख्यात रात-दिन तक रहता है। चतुरिन्द्रय संख्यात मास तक रहता है / पर्याप्त पंचेन्द्रिय साधिकसागरोपमशतपृथक्त्व तक रहता है / ___ भगवन् ! एकेन्द्रिय का अन्तर कितना कहा गया है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट दो हजार सागरोपम और संख्यात वर्ष अधिक का अन्तर है। द्वीन्द्रिय का अन्तर कितना है ? sain Education International Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120] [जीवाजीवाभिगमसूत्र गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है। इसी प्रकार श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय का तथा अपर्याप्तक और पर्याप्तक का भी अन्तर इसी प्रकार कहना चाहिए। विवेचन-भवस्थिति सम्बन्धी सूत्र तो स्पष्ट ही है / कायस्थिति तथा अन्तरद्वार की स्पष्टता इस प्रकार है एकेन्द्रिय की कायस्थिति जघन्य अन्तमुहर्त है, तदनन्तर मरकर द्वीन्द्रियादि में उत्पन्न हो सकते हैं / उत्कृष्ट अनन्तकाल अर्थात् वनस्पतिकाल है। वनस्पति एकेन्द्रिय होने से एकेन्द्रियपद में उसका भी ग्रहण है। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय सूत्रों में उत्कृष्ट कायस्थिति संख्येयकाल अर्थात् संख्येयहजार वर्ष है, क्योंकि “विगलि दियाणं वाससहस्सासंखेज्जा" ऐसा कहा गया है। पंचेन्द्रिय सूत्र में कायस्थिति हजार सागरोपम से कुछ अधिक है-इतने काल तक नैरयिक, तिर्यक, मनुष्य और देव भव में पंचेन्द्रिय रूप से बना रह सकता है। एकेन्द्रियादि अपर्याप्तक सूत्रों में जघन्य और उत्कृष्ट कायस्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण ही है, क्योंकि अपर्याप्तलब्धि का कालप्रमाण इतना ही है। एकेन्द्रिय-पर्याप्त सूत्र में उत्कृट कायस्थिति संख्येय हजार वर्ष है / एकेन्द्रियों में पृथ्वीकाय की उत्कृष्ट भवस्थिति बावीस हजार वर्ष है, अप्काय की सात हजार वर्ष, तेजस्काय की तीन अहोरात्र, वायुकाय की तीन हजार वर्ष, वनस्पतिकाय की दस हजार वर्ष की भवस्थिति है, अत: निरन्तर कतिपय पर्याप्त भवों को जोड़ने पर संख्येय हजार वर्ष ही घटित होते हैं / द्वीन्द्रिय पर्याप्त में उत्कृष्ट संख्येय वर्ष की कायस्थिति है। क्योंकि द्वीन्द्रिय की उत्कृष्ट भवस्थिति बारह वर्ष की है / सब भवों में उत्कृष्ट स्थिति तो होती नहीं, अतः कतिपय निरन्तर पर्याप्त भवों के जोड़ने से संख्येय वर्ष ही प्राप्त होते हैं, सौ वर्ष या हजार वर्ष नहीं। त्रीन्द्रिय-पर्याप्त सत्र में संख्येय अहोरात्र की कायस्थिति है, क्योंकि उनकी भवस्थिति उत्कृष्ट उनपचास दिन की है / कतिपय निरन्तर पर्याप्त भवों की संकलना करने से संख्येय अहोरात्र ही प्राप्त होते हैं। चतुरिन्द्रिय-पर्याप्त सूत्र में संख्येय मास की उत्कृष्ट कायस्थिति है, क्योंकि उनकी भवस्थिति उत्कर्ष से छह मास है / अतः कतिपय निरन्तर पर्याप्त भवों की संकलना से संख्येय मास हो प्राप्त होते हैं। पंचेन्द्रिय-पर्याप्त सूत्र में सातिरेक सागरोपम शतपृथक्त्व की कायस्थिति है / नैरयिक-तिर्यंच-मनुष्य-देवभवों में पंचेन्द्रिय-पर्याप्त के रूप में इतने काल तक रह सकता है। __ अन्तरद्वार-एकेन्द्रियों का अन्तरकाल जघन्य अन्तमुहर्त है; एकेन्द्रिय से निकलकर द्वीन्द्रियादि में अन्तर्मुहूर्त काल रहकर पुनः एकेन्द्रिय में उत्पन्न होने की अपेक्षा से है / उत्कृष्ट अन्तर संख्येयवर्ष अधिक दो हजार सागरोपम है। जितनी सकाय की कायस्थिति है, उतना ही एकेन्द्रिय का अन्नर है / त्रसकाय की काय स्थिति संख्येय वर्ष अधिक दो हजार सागरोपम की कही गई है।' 1. "तसकाइए णं भंते ! तसकाएत्ति कालमो केवच्चिरं होई ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं दो सागरोवमसहस्साई संखेज्जवासमभहियाई।" : Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचविधात्या चतुर्थ प्रतिपत्ति] [121 द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय सूत्र में जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट सर्वत्र वनस्पतिकाल है / जो द्वीन्द्रिय से निकलकर अनन्तकाल तक वनस्पति में रहने के बाद फिर द्वीन्द्रियादि में उत्पन्न होने की अपेक्षा से समझना चाहिए। जिस प्रकार अन्तर विषयक पांच औधिक सूत्र कहे हैं उसी प्रकार पर्याप्त विषय में अपर्याप्त विषय में भी कह लेने चाहिए। अल्पबहुत्व द्वार 209. एएसि गं भंते ! एगिदियाणं बेइंदियाणं तेइंदियाणं चरिदियाणं पाँचवियाणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा ! सव्वत्योवा पंचिदिया, चउरिदिया विसेसाहिया, तेइंदिया विसेसाहिया, बेइंदिया विसेसाहिया, एगिदिया अणंतगुणा। एवं अपज्जत्तगाणं सम्वत्थोवा पंचिदिया अपज्जत्तगा, चरिदिया अपज्जत्तगा विसेसाहिया, तेइंदिया अपज्जतगा विसेसाहिया, बेइंदिया अपज्जत्तगा विसेसाहिया, एगिदिया अपज्जत्तगा अणंतगुणा, सइंदिया अपज्जत्तगा विसेसाहिया। सम्वत्थोवा चरिदिया पज्जत्तगा, पंचिदिया पज्जत्तगा विसेसाहिया, बेइंदिया पज्जत्तगा विसेसाहिया, तेइंदिया पज्जत्तगा विसेसाहिया, एगिदिया पज्जत्तगा अणंतगुणा, सइंदिया पज्जत्तगा विसेसाहिया। एतेसि णं भंते ! सइंदियाणं पज्जत्तग-अपज्जत्तगाणं कयरे कयरेहित्तो अप्पा वा०? गोयमा ! सव्वत्थोवा सइंदिया अपज्जत्तगा, सइंदियपज्जत्तगा संखेज्जगुणा / एवं एगिदियावि / एएसि णं भंते ! बेइंदियाणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं अप्पाबहुं ? गोयमा ! सम्वत्थोवा बेइंदिया पज्जत्तगा अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा / एवं तेइंदिया चरिदिया पंचिदिया वि। एतेसि णं भंते ! एगिदियाणं, बेइंदियाणं, तेइंदियाणं चारदियाणं पंचिदियाण य पज्जत्तगाण य अपज्जत्तगाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा चरिदिया पज्जत्तगा, पंचिदिया पज्जत्तगा विसेसाहिया, बेइंदिया पज्जत्तगा विसेसाहिया, तेइंदिया पज्जत्तगा विसेसाहिया, पंचिदिया अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा, चरिदिया अपज्जत्ता विसेसाहिया, तेइंदिया अपज्जत्तगा विसेसाहिया, बेइंदिया अपज्जत्तगा विसेसाहिया, एगिदिया अपज्जतगा अणंतगुणा, सइंदिया अपज्जलगा विसेसाहिया, एगिदिया पज्जत्ता संखेज्जगुणा, सइंदियपज्जत्ता विसेसाहिया, सइंदिया विसेसाहिया / सेत्तं पंचविहा संसारसमावण्णगजीवा / / 209. भगवन् इन एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रियों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े पंचेन्द्रिय हैं, उनसे चतुरिन्द्रिय विशेषाधिक हैं, उनसे श्रीन्द्रिय विशेषाधिक हैं, उनसे द्वीन्द्रिय विशेषाधिक हैं और उनसे एकेन्द्रिय अनन्तगुण हैं। Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122] [ जीवाजीवाभिगमसूत्र इसी प्रकार अपर्याप्तक एकेन्द्रियादि में सबसे थोड़े पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, उनसे चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त विशेषाधिक, उनसे श्रीन्द्रिय अपर्याप्त विशेषाधिक, उनसे द्वीन्द्रिय अपर्याप्त विशेषाधिक और उनसे एकेन्द्रिय अपर्याप्त अनन्तगुण हैं / उनसे सेन्द्रिय अपर्याप्त विशेषाधिक हैं। इसी प्रकार पर्याप्तक एकेन्द्रियादि में सबसे थोड़े चतुरिन्द्रिय पर्याप्तक, उनसे पंचेन्द्रिय पर्याप्तक विशेषाधिक, उनसे द्वीन्द्रिय पर्याप्तक विशेषाधिक, उनसे श्रीन्द्रिय पर्याप्तक विशेषाधिक, उनसे एकेन्द्रिय पर्याप्तक अनन्तगुण हैं / उनसे सेन्द्रिय पर्याप्तक विशेषाधिक हैं। भगवन् ! इन सेन्द्रिय पर्याप्त-अपर्याप्त में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम! सबसे थोड़े से न्द्रिय अपर्याप्त, उनसे सेन्द्रिय पर्याप्त संख्येयगुण हैं। इसी प्रकार एकेन्द्रिय पर्याप्त-अपर्याप्त का अल्पबहुत्व जानना चाहिए। भगवन् ! इन द्वीन्द्रिय पर्याप्त-अपर्याप्त में कौन किससे अल्प यावत् विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े द्वीन्द्रिय पर्याप्त, उनसे द्वीन्द्रिय अपर्याप्त असंख्येयगुण हैं / इसी प्रकार श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रियों का अल्पबहुत्व जानना चाहिए। ___ भगवन् ! इन एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्तों में कौन किससे अल्प, बहु, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े चतुरिन्द्रिय पर्याप्त, उनसे पंचेन्द्रिय पर्याप्त विशेषाधिक, उनसे द्वीन्द्रिय पर्याप्त विशेषाधिक, उनसे त्रीन्द्रिय पर्याप्त विशेषाधिक, उनसे पंचेन्द्रिय अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त विशेषाधिक, उनसे त्रीन्द्रिय अपर्याप्त विशेषाधिक, उनसे द्वीन्द्रिय अपर्याप्त विशेषाधिक, उनसे एकेन्द्रिय अपर्याप्त अनन्तगुण, उनसे सेन्द्रिय अपर्याप्त विशेषाधिक, उनसे एकेन्द्रिय पर्याप्त संख्येयगुण, उनसे सेन्द्रिय पर्याप्त विशेषाधिक, उनसे सेन्द्रिय विशेषाधिक / इस प्रकार पांच प्रकार के संसारसमापन्नक जीवों का वर्णन पूरा हुआ। विवेचन-(१) पहले एकेन्द्रिय यावत् पंचेन्द्रियों का सामान्यरूप से अल्पबहुत्व बताते हुए कहा गया है--सबसे थोड़े पंचेन्द्रिय हैं, क्योंकि ये पंचेन्द्रियजीव संख्यात योजन कोटी-कोटी प्रमाण विष्कंभसूची से प्रमित प्रतर के असंख्यातवें भाग में रही हई असंख्य श्रेणियों के प्राकाश-प्रदेशों के बराबर हैं। उनसे चतुरिन्द्रिय जीव विशेषाधिक हैं, क्योंकि ये प्रभूत संख्येययोजन कोटीकोटिप्रमाण विष्कभसूची के प्रतर के असंख्यातवें भाग में रही हुई श्रेणियों के आकाश-प्रदेशराशि के बराबर हैं। उनसे श्रीन्द्रिय विशेषाधिक हैं, क्योंकि ये प्रभूततर संख्येय कोटीकोटीप्रमाण विष्कंभसची के प्रतर के असंख्येयभागगत श्रेणियों की आकाशरा शिप्रमाण हैं। उनसे द्वीन्द्रिय विशेषाधिक हैं, क्योंकि ये प्रभूततम संख्येय कोटीकोटीप्रमाण विष्कम्भसूची के प्रतरासंख्येयभागगत श्रेणियों के आकाश-प्रदेश-राशि के बराबर हैं / उनसे एकेन्द्रिय अनन्तगुण हैं, क्योंकि वनस्पतिकाय अनन्तानन्त हैं। (2) अपर्याप्तों का अल्पबहुत्व--सबसे थोड़े पंचेन्द्रिय अपर्याप्त हैं, क्योंकि ये एक प्रतर में अंगूल के असंख्यातवें भागप्रमाण जितने खण्ड होते हैं, उतने प्रमाण में हैं। उनसे चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त विशेषाधिक हैं, क्योंकि ये प्रभूत अंगुलासंख्येय-भागखण्डप्रमाण हैं। उनसे त्रीन्द्रिय अपर्याप्त विशेषाधिक हैं, क्योंकि ये प्रभूततर प्रतरांगुलासंख्येयभागखण्डप्रमाण हैं। उनसे द्वीन्द्रिय अपर्याप्त विशेषाधिक हैं, Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचविधाख्या चतुर्थ प्रतिपत्ति] [123 क्योंकि ये प्रभूततम प्रतरांगुलासंख्येयभागखण्डप्रमाण हैं / उनसे एकेन्द्रिय अपर्याप्त अनन्तगुण हैं, क्योंकि बनस्पतिकाय में अपर्याप्त जीव सदा अनन्तानन्त प्राप्त होते हैं। (3) पर्याप्तों का अल्पबहुत्व-सबसे थोड़े चतुरिन्द्रिय पर्याप्त हैं / क्योंकि चतुरिन्द्रिय जीव अल्पायु वाले होने से प्रभूतकाल तक नहीं रहते हैं, अतः पृच्छा के समय वे थोड़े हैं / थोड़े होते हुए भी वे प्रतर में अंगुलासंख्येयभागखण्डप्रमाण हैं / उनसे द्वीन्द्रिय पर्याप्त विशेषाधिक हैं, क्योंकि ये प्रभूततर अंगुलासंख्येयभागखण्डप्रमाण हैं। उनसे त्रीन्द्रिय विशेषाधिक हैं, क्योंकि स्वभाव से ही वे प्रभूततर अंगुलासंख्येयभागखण्डप्रमाण हैं। उनके एकेन्द्रिय पर्याप्त अनन्तगुण हैं। क्योंकि वनस्पतिकाय में पर्याप्त जीव अनन्त हैं। (4) पर्याप्तापर्याप्तों का समुक्ति अल्पबहत्व-सबसे थोड़े एकेन्द्रिय अपर्याप्त, पर्याप्त उनसे संख्येयगुण / एकेन्द्रियों में सूक्ष्मजीव बहुत हैं क्योंकि वे सर्वलोकव्यापी हैं / सूक्ष्मों में अपर्याप्त थोड़े हैं और पर्याप्त संख्येयगुण हैं। द्वीन्द्रिय सूत्र में सबसे थोड़े द्वीन्द्रिय पर्याप्त, क्योंकि वे प्रतर में अंगुल के संख्यातवें भागप्रमाणखण्डों के बराबर हैं। उनसे अपर्याप्त असंख्येयगुण हैं, क्योंकि ये प्रतरगत अंगुलसंख्येयभागखण्ड प्रमाण हैं। इसी प्रकार त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रियों में पर्याप्तअपर्याप्त को लेकर अल्पबहुत्व समझना चाहिए। (5) एकेन्द्रियादि पांचों के पर्याप्त-अपर्याप्त का समुदित अल्पबहत्व-यह पूर्वोक्त तृतीय और द्वितीय अल्पबहुत्व की भावनानुसार ही समझ लेना चाहिए / मूलपाठ के अर्थ में यह क्रमशः स्पष्टरूप से निर्दिष्ट कर दिया है। इस प्रकार पांच प्रकार के संसारसमापन्नक जीवों का प्रतिपादन करने वाली चतुर्थ प्रतिपत्ति पूर्ण होती है। Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षतिधाख्या पंचम प्रतिपत्ति 210. तत्थ णं जेते एवमाहंसु छठिवहा संसारसमावण्णगा जीवा, ते एवमाहंसु, तं जहापुढविकाइया, आउक्काइया, तेउक्काइया, वाउकाइया वणस्सइकाइया, तसकाइया / से किं तं पुढविकाइया? पुढविकाइया दुविहा पण्णता तं जहा-सुहुमपुढविकाइया, बायरपुढविकाइया / सुहुमपुढविकाइया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-पज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य। एवं बायरपुढविकाइयावि / एवं चउक्कएणं भेएणं आउतेउवाउवणस्सइकाइयाणं चउक्का णेयव्या। से कि तं तसकाइया? तसकाइया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा--पज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य / 210. जो आचार्य ऐसा प्रतिपादन करते हैं कि संसारसमापनक जीव छह प्रकार के हैं, उनका कथन इस प्रकार है-१. पृथ्वीकायिक, 2. अप्कायिक, 3. तेजस्कायिक, 4. वायुकायिक, 5. वनस्पतिकायिक और 6. त्रसकायिक / भगवन् ! पृथ्वीकायिकों का क्या स्वरूप है ? गौतम ! पृथ्वीकायिक दो प्रकार के हैंसूक्ष्मपृथ्वीकायिक और बादरपृथ्वीकायिक / सूक्ष्मपृथ्वीकायिक दो प्रकार के हैं—पर्याप्तक और अपर्याप्तक / इसी प्रकार बादरपथ्वीकायिक के भी दो भेद (प्रकार हैं पर्याप्तक और अपर्याप्त इसी प्रकार अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय के चार-चार भेद कहने चाहिए / भगवन् ! सकायिक का स्वरूप क्या है ? गौतम ! सकायिक दो प्रकार के हैं-पर्याप्तक और अपर्याप्तक / 211. पुढविकाइयस्स णं भंते ! केवइयं कालं ठिई पणत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साइं। एवं सव्वेसि ठिई यध्वा / तसकाइयस्स जहन्नहेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं / अपज्जत्तगाणं सवेसि जहन्नेण वि उक्कोसेणवि अंतोमुहुत्तं / पज्जत्तगाणं सव्वेसि उक्कोसिया ठिई अंतोमुहुत्तऊणा कायव्वा / / 211. भगवन् ! पृथ्वीकायिकों की कितने काल की स्थिति कही गई है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट बावीस हजार वर्ष / इसी प्रकार सबकी स्थिति कहनी चाहिए। त्रसकायिकों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की है / सब अपर्याप्तकों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है / सब पर्याप्तकों की उत्कृष्ट स्थिति कुल स्थिति में से अन्तमुहूर्त कम करके कहनी चाहिए। 212. पुढविकाइए णं भंते ! पुढधिकाइएत्ति कालमो केवच्चिर होइ ? गोयमा ! जहानेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं जाव असंखेज्जा लोया / एवं जाव प्राउ-तेउ-वाउक्काइयाणं, वणस्सइकाइयाणं अणंतं कालं जाव आवलियाए असंखेज्जइभागो। Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षडविधाख्या पंचम प्रतिपत्ति तसकाइए णं भंते ! तसकाइएत्ति कालमो केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहणणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं दो सागरोवमसहस्साई संखेज्जवासमन्भहियाई। अपज्जत्तगाणं छण्हवि जहणणधि उक्कोसेणवि अंतोमुहुतं / पज्जतगाणं वाससहस्सा संखा पुढविदगाणिलतरुणपज्जता / तेऊ राइदिसंखा तस सागरसयपुत्ताई // 1 // [ पज्जत्तगाणवि सव्वेसि एवं / ] पुढविकाइयस्स णं भंते ! केवइयं कालं अंतर होइ ? गोयमा जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं वणप्फइकाले। एवं प्राउ-तेउ-वाउकाइयाणं वणस्सइकालो। तसकाइयाणवि। वणस्सइकाइयस्स पुढविकाइयकालो। एवं अपज्जत्तगाणवि वणस्सइकालो, वणस्सईणं पुढविकालो। पज्जत्तगाणवि एवं चेव वणस्सइकालो, पज्जत्तवणस्सईणं पुढविकालो। 212. भगवन् ! पृथ्वीकाय, पृथ्वीकाय के रूप में कितने काल तक रह सकता है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट असंख्येय काल यावत् असंख्येय लोकप्रमाण आकाशखण्डों का निर्लेपनाकाल / इसी प्रकार यावत् अप्काय, तेजस्काय और वायुकाय की संचिट्ठणा जाननी चाहिए / वनस्पतिकाय की संचिटणा अनन्तकाल है यावत् प्रावलिका के असंख्यातवें भाग में जितने समय हैं, उतने पुद्गलपरावर्तकाल तक। ___ असकाय की कायस्थिति (संचिटणा) जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यातवर्ष अधिक दो हजार सागरोपम है। छहों अपर्याप्तों की कायस्थिति जघन्य भी अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त है। पर्याप्तों में प्रथ्वीकाय की उत्कृष्ट कायस्थिति संख्यात हजार वर्ष है। यही अप्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय पर्याप्तों की है / तेजस्काय पर्याप्तक की कायस्थिति संख्यात रातदिन की है, त्रसकाय पर्याप्त को कायस्थिति साधिक सागरोपमशतपृथक्त्व है। __ भगवन् ! पृथ्वीकाय का अन्तर कितना है ? गौतम! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से वनस्पतिकाल है / इसी प्रकार अप्काय, तेजस्काय और वायुकाय का अन्तर वनस्पतिकाल है / असकायिकों का अन्तर भी वनस्पतिकाल है। वनस्पतिकाय का अन्तर पृथ्वीकायिक कालप्रमाण (असंख्येय काल) है। इसी प्रकार अपर्याप्तकों का अन्तरकाल वनस्पतिकाल है / अपर्याप्त वनस्पति का अन्तर पृथ्वीकाल है / पर्याप्तकों का अन्तर वनस्पतिकाल है / पर्याप्त वनस्पति का अन्तर पृथ्वीकाल है / विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में पृथ्वीकायिक यावत् त्रसकाय की कायस्थिति ( संचिटणा) और अन्तर का निरूपण किया गया है / संचिट्ठणा या कायस्थिति का अर्थ है कि वह जीव उस रूप में लगातार जितने समय तक रह सकता है और अन्तर का अर्थ है कि वह जीव उस रूप से निकलकर फिर जितने समय के बाद फिर उस रूप में आता है। प्रस्तुत सूत्र में इन दो द्वारों का निरूपण है / Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 126) [जीवाजीवाभिगमसूत्र प्रश्न और उत्तर के रूप में जो कायस्थिति और अन्तर बताया है, वह पाठसिद्ध ही है। केवल उसमें पाये हए असंख्येयकाल और अनन्तकाल का स्पष्टीकरण आवश्यक है / असंख्येयकाल-असंख्येयकाल का निरूपण दो प्रकार से किया गया है-काल और क्षेत्र से / असंख्यात उत्सर्पिणी और असंख्यात अवसर्पिणी प्रमाण काल को असंख्येय काल कहते हैं / असंख्यात लोक-प्रमाण आकाशखण्डों में से प्रतिसमय एक-एक प्रदेश का अपहार करने पर जितने समय में वे आकाशखण्ड निर्लेपित (खाली) हो जाएं, उस समय को क्षेत्रापेक्षया असंख्येय काल कहते हैं। अनन्तकाल--यह निरूपण भी काल और क्षेत्र से किया गया है। अनन्त उत्सर्पिणीअवसर्पिणी प्रमाण काल अनन्तकाल है / यह कालमार्गणा की दृष्टि से है। क्षेत्रमार्गणा की दृष्टि से अनन्तानन्त लोकालोकाकाशखण्डों में से प्रतिसमय एक-एक प्रदेश का अपहार करने पर जितने काल में वे निर्लेप हो जायें, उस काल को अनन्तकाल समझना चाहिये। इसी अनन्तकाल को पुद्गलपरावर्त द्वारा कहा जाये तो असंख्येय पुद्गलपरावर्तरूप काल अनन्तकाल है। इन पुद्गलपरावर्तों की संख्या उतनी है, जितनी प्रावलिका के असंख्येय भाग में समयों की संख्या है। प्रस्तुत पाठ में अन्तरद्वार में बताये हुए वनस्पतिकाल से तात्पर्य है अनन्तकाल और पृथ्वीकाय से तात्पर्य है---असंख्येयकाल / अल्पबहुत्वद्वार 213. अप्पाबहुयं-सव्वत्थोवा तसकाइया, तेउक्काइया असंखेज्जगुणा, पुढविकाइया विसेसाहिया, आउकाइया विसेसाहिया, वाउक्काइया विसेसाहिया, वणस्सइकाइया अणंतगुणा / एवं अपज्जत्तगावि पज्जत्तगावि। एएसि णं भंते ! पुढविकाइयाणं पज्जत्तगाण अपज्जतगाण य कयरे कयरोहितो प्रप्पा वा एवं जाव विसेसाहिया? गोयमा ! सव्वस्थोवा पूढविकाइया अपज्जत्तगा, पुढविकाइया पज्जत्तगा संखेज्जगुणा। एएसि णं आउकाइयाणं०? सम्वत्थोवा आउक्काइया अपज्जत्तगा,पज्जत्तगा संखेज्जगुणा जाव वणस्सइकाइयादि / सम्वत्थोवा तसकाइया पज्जत्तगा, तसकाइया मपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा / एएसिणं भंते ! पुढविकाइयाणं जाव तसकाइयाणं पज्जत्तग-अपज्जत्तगाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? सम्वत्थोवा तसकाइया पज्जत्तगा, तसकाइया अपज्जत्तगा प्रसंखेज्जगुणा, तेउकाइया अपज्जत्ता असंखेज्जगुणा, पुढविक्काइया आउक्काइया वाउकाइया अपज्जत्तगा विसेसाहिया, तेउक्काइया पज्जत्तगा संखेज्जगुणा, पुढवि-प्राउ-याउ-पज्जसगा विसेसाहिया, वणस्सइकाइया अपज्जत्तगा अर्णतगुणा, सकाइया अपज्जत्तगा विसेसाहिया वणस्सइकाइया पज्जत्तगा संखेज्जगुणा, सकाइया पज्जत्तगा विसेसाहिया। 213. अल्पबहुत्व-सबसे थोड़े सकायिक, उनसे तेजस्कायिक असंख्येयगुण, उनसे पृथ्वीकायिक विशेषाधिक, उनसे अपकायिक विशेषाधिक, उनसे वायुकायिक विशेषाधिक, उनसे वनस्पतिकायिक अनन्तगण / Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षड्विधाख्या पंचम प्रतिपत्ति] [127 अपर्याप्त पृथ्वीकायादि का अल्पबहुत्व भी उक्त प्रकार से है / पर्याप्त पृथ्वीकायादि का अल्पबहुत्व भी उक्त प्रकार ही है। भगवन् ! पृथ्वीकाय के पर्याप्तों और अपर्याप्तों में कौन किससे अल्प, बहुत, सम या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े पृथ्वीकायिक अपर्याप्त, उनसे पृथ्वीकायिक पर्याप्त संख्यातगुण / इसी तरह सबसे थोड़े अप्कायिक अपर्याप्तक, अपकायिक पर्याप्तक संख्यातगुण / इसी प्रकार वनस्पतिकायिक पर्यन्त कहना चाहिए / असकायिकों में सबसे थोड़े पर्याप्त त्रसकायिक, उनसे अपर्याप्त त्रसकायिक असंख्येयगुण हैं। भगवन् ! इन पृथ्वीकायिकों यावत् त्रसकायिकों के पर्याप्तों और अपर्याप्तों में समुदित रूप में कौन किससे अल्प, बहुत, सम या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े सकायिक पर्याप्तक, उनसे सकायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे तेजस्कायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण, पृथ्वीकायिक, अपकायिक, वायुकायिक अपर्याप्त विशेषाधिक, उनसे तेजस्कायिक पर्याप्त संख्येयगुण, उनसे पृथ्वी-अप-वायुकाय पर्याप्तक विशेषाधिक, उनसे वनस्पतिकायिक अपर्याप्त अनन्तगुण, उनसे सकायिक अपर्याप्तक विशेषाधिक, उनसे वनस्पतिकायिक पर्याप्तक संख्येयगुण, उनसे सकायिक पर्याप्तक विशेषाधिक हैं। विवेचन-प्रथम अल्पबहुत्व में सामान्य से छह काय का कथन है। उसमें सबसे थोड़े त्रसका यिक हैं, क्योंकि द्वीन्द्रियादि त्रसकाय अन्य कायों की अपेक्षा अल्प हैं। उनसे तेजस्कायिक असंख्येयगुण हैं, क्योंकि वे असंख्येय लोकाकाशप्रदेशप्रमाण हैं। उनसे पृथ्वीकायिक विशेषाधिक हैं. क्योंकि वे प्रभूतासंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाण है, उनसे अपकायिक विशेषाधिक हैं, क्योंकि वे प्रभूततरासंख्येयभाग लोकाकाशप्रदेश-राशि-प्रमाण हैं। उनसे वायुकायिक विशेषाधिक हैं, क्योंकि वे प्रभूततमासंख्येयलोकाकाशप्रदेश-राशि के बराबर हैं। उनसे वनस्पतिकायिक अनन्तगुण हैं, क्योंकि वे अनन्त लोकाकाशप्रदेश-राशि तुल्य हैं। द्वितीय अल्पबहुत्व उनके अपर्याप्त को लेकर कहा गया है। वह उक्त क्रमानुसार ही है। इनके पर्याप्तकों का अल्पबहुत्व भी उक्त क्रमानुसार ही जानना चाहिए। तृतीय अल्पबहुत्व पृथ्वीकायादि के अलग-अलग पर्याप्तों-अपर्याप्तों को लेकर कहा गया है। इसमें सबसे थोड़े पृथ्वीकायिक अपर्याप्त हैं, उनसे पर्याप्त संख्येयगुण हैं। पृथ्वीकायिकों में सूक्ष्मजीव बहुत हैं, क्योंकि वे सकल लोकव्यापी हैं, उनमें पर्याप्त संख्येयगुण हैं / इसी तरह अपकाय, तेजस्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय के सूत्र समझने चाहिए / त्रसकायिकों में सबसे थोड़े पर्याप्त त्रसकायिक हैं और अपर्याप्तक त्रसकायिक असंख्येयगुण हैं, क्योंकि पर्याप्त सकायिक प्रतर के अंगुल के संख्येयभागखण्डप्रमाण हैं। ___चौथे अल्पबहुत्व में पृथ्वीकायादिकों का पर्याप्त-अपर्याप्तरूप से समुदित अल्पबहुत्व बताया गया है। वह इस प्रकार है-सबसे थोड़े सकायिक पर्याप्त, उनसे त्रसकायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण हैं, कारण पहले कहा जा चुका है। उनसे तेजस्कायिक अपर्याप्त असंख्येय गुण हैं, क्योंकि वे असंख्येय Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128] [जीवाजीवाभिगमसूत्र लोकाकाशप्रदेशप्रमाण हैं। उनसे पृथ्वी, अप, वायु के अपर्याप्तक क्रम से विशेषाधिक हैं, क्योंकि वे प्रभूत-प्रभूततर-प्रभूततम असंख्येय लोकाकाशप्रदेश-राशिप्रमाण हैं / उनसे तेजस्कायिक पर्याप्त संख्येयगुण हैं, क्योंकि सूक्ष्मों में अपर्याप्तों से पर्याप्त संख्येयगुण हैं / उनसे पृथ्वी, अप, वायु के पर्याप्त जीव क्रम से विशेषाधिक हैं। उनसे वनस्पतिकायिक अपर्याप्त अनन्तगुण हैं, क्योंकि वे अनन्त लोकाकाशप्रदेश-राशिप्रमाण हैं। उनसे वनस्पतिकायिक पर्याप्त संख्येयगुण हैं, क्योंकि सूक्ष्मों में अपर्याप्तकों से पर्याप्त संख्येयगुण हैं / सूक्ष्म जीव सर्व बहु हैं, उनकी अपेक्षा से यह अल्पबहुत्व है। 214. सुहुमस्स णं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णता ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणवि अंतोमुहुतं / एवं जाव सुहमणिनीयस्स / एवं अपज्जत्तगाणवि पज्जत्तगाणवि जहण्णेणवि उक्कोसेणवि अंतोमुहुत्तं / / 214. भगवन् ! सूक्ष्म जीवों की स्थिति कितनी है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से भी अन्तर्मुहूर्त / इसी प्रकार सूक्ष्मनिगोदपर्यन्त कहना चाहिए / इस प्रकार सूक्ष्मों के पर्याप्त और अपर्याप्तकों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण ही है। विवेचन--प्रस्तुत सूत्र में सूक्ष्म-सामान्य की स्थिति बताई गई है। सूक्ष्म जीव दो प्रकार के हैं-निगोदरूप और अनिगोदरूप / दोनों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है / जघन्य अन्तर्मुहूर्त से उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त विशेषाधिक समझना चाहिए, अन्यथा उत्कृष्ट कहने का कोई अर्थ नहीं रह जाता है / इस प्रकार सूक्ष्मपृथ्वीकाय, सूक्ष्म अप्काय, सूक्ष्म तेजस्काय, सूक्ष्म वायुकाय, सूक्ष्म वनस्पतिकाय और सूक्ष्म निगोद सम्बन्धी छह सूत्र कहने चाहिए। यहाँ यह शंका की जा सकती है कि सूक्ष्म वनस्पति निगोद ही है; सूक्ष्म वनस्पति से उसका भी बोध हो जाता है, तो फिर अलग से निगोदसत्र क्यों कहा गया है ? इसका सा सूक्ष्म वनस्पति तो जीव रूप है और सूक्ष्म निगोद अनन्त जीवों के आधारभूत शरीर रूप है / अतएव भिन्न सूत्र की सार्थकता है / कहा गया है- “यह सारा लोक सूक्ष्म निगोदों से अंजनचूर्ण से पूर्ण समुद्गक (पेटी) की तरह सब ओर से ठसाठस भरा हुआ है। निगोदों से परिपूर्ण इस लोक में असंख्येय निगोद वृत्ताकार और बृहत्प्रमाण होने से "गोलक' कहे जाते हैं / निगोद का अर्थ है अनन्तजीवों का एक शरीर / ऐसे असंख्येय गोलक हैं और एक-एक गोलक में असंख्येय निगोद हैं और एक-एक निगोद में अनन्त जीव हैं। एक निगोद में जो अनन्त जीव हैं उनका असंख्यातवां भाग प्रतिसमय उसमें से निकलता है और दूसरा असंख्यातवां भाग वहां उत्पन्न होता है। प्रत्येक समय यह उद्वर्तन और उत्पत्ति चलती रहती है। जैसे एक निगोद में यह उद्वर्तन और उपपात का क्रम चलता रहता है, वैसे ही सर्वलोकव्यापी निगोदों में यह उद्वर्तन और उपपात क्रिया प्रतिसमय चलती रहती है। अतएव सब निगोदों और निगोद जीवों की स्थिति अन्तर्मुहूर्त मात्र कही है / अतः सब निगोद प्रतिसमय उद्वर्तन एवं उपपात द्वारा अन्तर्मुहूर्त मात्र समय में परिवर्तित हो जाते हैं, लेकिन वे शून्य नहीं होते। केवल पुराने Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खड्विधाख्या पंचम प्रतिपति] [129 निकलते हैं और नये उत्पन्न होते हैं।' __ इसी प्रकार सात सूत्र अपर्याप्त सूक्ष्मों के और सात सूत्र पर्याप्त सूक्ष्मों के कहने चाहिए / सवंत्र जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त मात्र ही है। 215. सुहमे णं भंते ! सुहमति कालमो केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं असंखेज्जकालं जाव असंखेज्जा लोया। सम्वेसि पुढविकालो जाव सुहमणिमओयस्स पुढविकालो। अपज्जत्तगाणं सदेसि जहष्णेणवि उक्कोसेणवि अंतोमुहुत्तं; एवं पज्जतगाणवि सम्वेसि जहण्णेवि उक्कोसेणवि अंतोमुहत्तं / 215. भगवन् ! सूक्ष्म, सूक्ष्मरूप में कितने काल तक रहता है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट असंख्यातकाल तक रहता है। यह असंख्यातकाल असंख्येय उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी रूप है तथा असंख्येय लोककाश के प्रदेशों के अपहारकाल के तुल्य है / इसी तरह सूक्ष्म पृथ्वी काय अप्काय तेजस्काय वायुकाय वनस्पतिकाय की संचिट्ठणा का काल पृथ्वीकाल अर्थात् असंख्येयकाल है यावत् सूक्ष्म-निगोद की कायस्थिति भी पृथ्वीकाल है। सब अपर्याप्त सूक्ष्मों की काय स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त प्रमाण हो है। 216. सुहमस्स णं भंते ! केवइयं कालं अंतरं होइ ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं; कालो असंखेज्जायो उस्सप्पिणी-ओसप्पिणीओ, खेत्तनो अंगुलस्स असंखेज्जइभागो। सुहुमवणस्सइकाइयस्स सुहमणिगोदस्सवि जाव असंखेज्जइ भागो। पुढविकाइयादीणं वणस्सइकालो। एवं अपज्जत्तगाणं पज्जत्तगाणवि / 216. भगवन् ! सूक्ष्म, सूक्ष्म से निकलने के बाद फिर कितने समय में सूक्ष्मरूप से पैदा होता है ? यह अन्तराल कितना है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से असंख्येयकाल है / यह असंख्येय काल असंख्यात उत्सर्पिणी-प्रवपिणी काल रूप है तथा क्षेत्र से अंगुलासंख्येय भाग क्षेत्र में जितने आकाशप्रदेश हैं उन्हें प्रति समय एक-एक का अपहार करने पर जितने काल में वे निलेप हो जायें, वह काल असंख्येयकाल समझना चाहिए / (सूक्ष्म पृथ्वीकाय यावत् सूक्ष्म वायुकायिकों का अन्तर उत्कर्ष से वनस्पतिकाल-अनन्तकाल है, वनस्पति में जन्म लेने की अपेक्षा से।) सूक्ष्म वनस्पतिकायिक और सूक्ष्म-निगोद का अन्तर असंख्येय काल (पृथ्वीकाल) है / सूक्ष्म अपर्याप्तों और सूक्ष्म पर्याप्तों का अन्तर औषिकसूत्र के समान है। 1. गोला य असंखेज्जा, असंखनिगोदो य गोलो भणियो। एक्किक्कमि निगोए अणंत जीवा मुणेयवा // // एगो असंखभागो वट्टइ उव्वट्टणोववायम्मि / एग णिगोदे णिच्चं एवं सेसेसु वि स एव // 2 // अंतोमुहत्तमेत्तं ठिई निगोयाण जंति णिविद्रा।। पल्लटंति निगोया तम्हा अंतोमुहृत्तेणं // 3 // -वृत्ति Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 130] [जीवाजीवाभिगमसूत्र 217. एवं अप्पबहुगं-सव्वत्थोवा सुहुमतेउकाइया, सुहुमपुढविकाइया विसेसाहिया, सुहुमाउबाउ विसेसाहिया, सुहमणिपोया असंखज्जगुणा, सुहुमवणस्सइकाइया प्रणतगुणा, सुहुमा विसेसाहिया / एवं अपज्जत्तगाणं, पज्जत्तगाणं एवं चेव / एएसि गं भंते ! सुहमाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा०? सव्वत्थोवा सुहुमा अपज्जत्तगा, संखेज्जगुणा पज्जतगा। एवं जाव सुहमणिगोया। एएसि णं भंते ! सुहमाणं सुहमपुढविकाइयाणं जाव सुहमणिओयाण य पजत्तापज्जत्ताणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा० / गोयमा ! सव्वत्थोवा सुहुमतेउकाइया अपज्जत्तगा, सुहमपुढविकाइया अपज्जलगा विसेसाहिया, सुहमश्राउकाइया अपज्जत्ता विसेसाहिया, सुहुमवाउकाइया अपज्जत्ता विसेसाहिया, सुहुमतेउक्काइया पज्जत्तगा संखेज्जगुणा, सुहुमपुढवि-आउ-वाउपज्जत्तगा विसेसाहिया, सुहमणिनोया अपज्जत्तगा असंखेज्ड जगणा, सहमणिओया पज्जत्तगा संखज्जगणा, सहमवणस्सहकाइया अपज्जतगा अणंतगुणा, सुहमा अपज्जत्ता विसेसाहिया, सुहुमवणस्सइकाइया पज्जत्तगा संखेज्जगुणा, सुहमा पज्जत्ता विसेसाहिया। 217. अल्पबहुत्वद्वार इस प्रकार है-सबसे थोड़े सूक्ष्म तेजस्कायिक, सूक्ष्म पृथ्वीकायिक विशेषाधिक, सूक्ष्म अप्कायिक, सूक्ष्म वायुकायिक क्रमशः विशेषाधिक, सूक्ष्म-निगोद असंख्येय गुण, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अनन्तगुण और सूक्ष्म विशेषाधिक हैं। सूक्ष्म अपर्याप्तों और सूक्ष्म पर्याप्तों का अल्पबहुत्व भी इसी क्रम से है। भगवन् ! सूक्ष्म पर्याप्तों और सूक्ष्म अपर्याप्तों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम! सबसे थोड़े सूक्ष्म अपर्याप्तक हैं, सूक्ष्म पर्याप्तक उनसे संख्येयगुण हैं / इसी प्रकार सूक्ष्म-निगोद पर्यन्त कहना चाहिए। भगवन् ! सूक्ष्मों में सूक्ष्मपृथ्वीकायिक यावत् सूक्ष्म-निगोदों में पर्याप्तों और अपर्याप्तों में समुदित अल्पबहुत्व का क्रम क्या है ? गौतम ! सबसे थोड़े सूक्ष्म तेजस्काय अपर्याप्तक, उनसे सूक्ष्म पृथ्वीकायिक अपर्याप्त विशेषाधिक, उनसे सूक्ष्म अप्कायिक अपर्याप्त विशेषाधिक, उनसे सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्त विशेषाधिक, उनसे सूक्ष्म तेजस्कायिक पर्याप्त संखेयगुण, उनसे सूक्ष्म पृथ्वी-अप-वायुकायिक पर्याप्त क्रमशः विशेषाधिक, उनसे सूक्ष्मनिगोद अपर्याप्तक असंखेय गुण, उनसे सूक्ष्मनिगोद पर्याप्तक संखेयगुण, उनसे सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्तक अनन्तगुण, उनसे सूक्ष्म अपर्याप्त विशेषाधिक, उनसे सूक्ष्म वनस्पति पर्याप्तक संखेयगुण, उनसे सूक्ष्म पर्याप्त विशेषाधिक हैं। बादर जीव निरूपण 218. बायरस्स णं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णता? गोयमा! जहन्नणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। एवं बायरतसकाइयस्सवि / बायरपुढविकाइयस्स बावीसं वास सहस्साई, वायरमाउस्स सत्त वाससहस्सं, बायर Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षविधाख्या पंचम प्रतिपत्ति] [131 तेउस्स तिपिणराईदिया, बायरवाउस्स तिष्णि वाससहस्साई, बायरवणस्सइकाइयस्स दसवाससहस्साई। एवं पत्तेयसरीरवायरस्सवि। णिप्रोदस्स जहन्ने गवि उक्कोसेणवि अंतोमुत्तं / एवं बायरणिगोदस्सवि, अपज्जत्तगाणं सम्वेसि अंतोमुहत्तं, पज्जत्तगाणं उक्कोसिया ठिई अंतोमुहुत्तूणा कायव्वा सव्वेसि / 218. भगवन् ! बादर की स्थिति कितनी कही गई है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की स्थिति है। बादर त्रसकाय की भी यही स्थिति है / बादर पृथ्वीकाय की बावीस हजार वर्ष की, बादर अपकायिकों की सात हजार वर्ष की, बादर तेजस्काय की तीन अहोरात्र की, बादर वायुकाय की तीन हजार वर्ष की और बादर वनस्पति की दस हजार वर्ष की उत्कृष्ट स्थिति है। इसी तरहप्रत्येकशरीर बादर की भी यही स्थिति है। निगोद की जघन्य से भी और उत्कृष्ट से भी अन्तर्मुहूर्त की ही स्थिति है। बादर निगोद की भी यही स्थिति है / सब अपर्याप्त बादरों की स्थिति अन्तर्मुहूर्त है और सब पर्याप्तों की उत्कृष्ट स्थिति उनकी कुल स्थिति में से अन्तर्मुहूर्त कम करके कहना चाहिए। बादर को कायस्थिति 219. बायरे णं भंते ! बायरेत्ति कालमो केचिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं असंखेज्जं काल-असंखेज्जाओ उस्सप्पिणी-ओसप्पिजीमो कालओ, खेत्तओ अंगुलस्स असंखेज्जइभागो। बायरपुढविकाइय-प्राउ-तेउ-बाउ० पत्तयसरीरबादरवणस्सइकाइयस्स बायर णिओदस्स (बादरवणस्सइस्स जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कासेणं असंखेज्ज कालं, असंखेज्जाओ उस्सप्पिणी-ओसप्पिणीनो कालओ, खेत्तनो अंगुलस्स असंखेज्जइभागो। पत्तेगसरीरबादरवणस्सइकाइयस्स बायरणिमोदस्स पुढवीव / बायरणियोदस्स पं जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं प्रणतं कालं--प्रणता उस्सप्पिणी-योसप्पिणीओ कालो खेत्तओ अड्डाइज्जा पोग्गलपरियट्टा।) एतेसि जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं सत्तरसागरोवम कोडाकोडीओ। संखातीयाओ समाओ अंगुल भागे तहा असंखज्जा। प्रोहे य बायर तरु-अणुबंधो सेसनो वोच्छं // 1 // उस्सप्पिणि-ओसप्पिणी अड्ढाइय पोग्गलाण परियट्ठा। बेउदधिसहस्सा खलु साधिया होति तसकाए // 2 // अंतोमुत्तकालो होइ अपज्जत्तगाण सम्वेसि / पज्जत्तबायरस्स य बायरतसकाइयस्सावि // 3 // एतेसि ठिई सागरोवम सयपुहत्तसाइरेगं / तेउस्स संख राइंदिया दुविहणिओदे मुहत्तमद्धं तु। सेसाणं संखेज्जा वाससहस्सा य सम्वेसि // 4 // Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 132] [जीवाजीवाभिगमसूत्र 219. भगवन् ! बादर जीव, बादर के रूप में कितने काल तक रहता है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से असंख्यातकाल / यह असंख्यातकाल असंख्यात उत्सर्पिणीअवसपिणियों के बराबर है तथा क्षेत्र से अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्र के आकाशप्रदेशों का प्रतिसमय एक-एक के मान से अपहार करने पर जितने समय में वे निर्लेप हो जाएं, उतने काल के बराबर हैं / बादर पृथ्वीकायिक, बादर अपकायिक, बादर तेजस्कायिक, बादर वायुका यिक, प्रत्येकशरीर बादर वनस्पतिकायिक और बादर निगोद की जघन्य कायस्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से सत्तर कोडाकोडी सागरोपम की है। बादर वनस्पति की कायस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट असंख्येयकाल है, जो कालमार्गणा से असंख्येय उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी तुल्य है और क्षेत्रमार्गणा से अंगुलासंख्येयभाग के प्राकाशप्रदेशों का प्रतिसमय एक-एक के मान से अपहार करने पर लगने वाले काल के बराबर है / सामान्य निगोद की कायस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल है / वह अनन्तकाल कालमार्गणा से अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी प्रमाण है और क्षेत्रमार्गणा से ढाई पुद्गलपरावर्त तुल्य है। बादर सकायसूत्र में जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्येयवर्ष अधिक दो हजार सागरोपम की कायस्थिति कहनी चाहिए। बादर अपर्याप्तों की कायस्थिति के दसों सूत्रों में जघन्य और उत्कृष्ट से सर्वत्र अन्तर्मुहूर्त कहना चाहिये। बादर पर्याप्त के प्रोधिकसूत्र में कायस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक सागरोपम शतपृथक्त्व है। (इसके बाद अवश्य बादर रहते हुए भी पर्याप्तलब्धि नहीं रहती।) बादर पृथ्वीकायिक पर्याप्तसूत्र में जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यात हजार वर्ष कहने चाहिए। (इसके बाद बादरत्व होते हुए भी पर्याप्तलब्धि नहीं रहती।) इसी प्रकार अप्कायसूत्रों में भी कहना चाहिए / तेजस्कायसूत्र में जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट संख्यात अहोरात्र कहने चाहिए। वायुकायिक, सामान्य बादरवनस्पति, प्रत्येक बादर वनस्पतिकाय के सूत्र बादर पर्याप्त पृथ्वीकायवत् (जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट संख्यात हजार वर्ष) कहने चाहिए / सामान्य निगोद-पर्याप्तसूत्र में जघन्य, उत्कर्ष से अन्तमुहर्त ; बादर सकायपर्याप्तसूत्र में जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक सागरोपम शतपृथक्त्व कहना चाहिए। (इतनी स्थिति चारों गतियों में भ्रमण करने से घटित होती है)। अन्तरद्वार 220. अंतरं बायरस्स, बायरवणस्सइस्स, णिओदस्स, बादरणिओवस्स एतेसि चउण्हवि पुढविकालो जाव असंखज्जा लोया, सेसाणं वणस्सइकालो। एवं पज्जत्तगाणं अपज्जत्तगाणवि अंतरं। आहे य बायरतरु अोधनिगोदे बायरणिओए य / कालमसंखेज अंतरं सेसाण वणस्सइकालो // 1 // 220. औधिक बादर, बादर वनस्पति, निगोद और बादर निगोद, इन चारों का अन्तर पृथ्वीकाल है, अर्थात् असंख्यातकाल है। यह असंख्यातकाल असंख्येय उत्सर्पिणी-अवपि णी के बराबर है (कालमार्गणा से) तथा क्षेत्रमार्गणा से असंख्येय लोकाकाश के प्रदेशों का प्रतिसमय एक-एक 1. सूत्रोक्त गाथाएं संक्षिप्त होने से उनके भावों को टीकानुसार स्पष्ट किया गया है। Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षड्विधासया पंचम प्रतिपत्ति] [133 के मान से अपहार करने पर जितने समय में वे निलिप्त हो जायें, उतना कालप्रमाण जानना चाहिए / (सूक्ष्म की जो कायस्थिति है, वही बादर का अन्तर जाना चाहिए।) शेष बादर पृथ्वीकायिक, बादर अपकायिक, बादर तेजस्कायिक, बादर वायुकायिक, प्रत्येक बादर वनस्पतिकायिक और बादर त्रसकायिक-इन छहों का अन्तर वनस्पतिकाल जानना चाहिए। - इसी तरह अपर्याप्तक और पर्याप्तक संबंधी दस-दस सूत्र भी ऊपर की तरह कहने चाहिए। यही बात गाथा में कही गई है-प्रोधिक, बादर वनस्पति, सामान्य निगोद और वादर निगोद का अंतर संख्येयकाल है और शेष का अन्तर वनस्पतिकाल-प्रमाण है। अल्पबहुत्वद्वार 221. (अ) (1) अप्पाबहुयं-सव्वत्थोवा बायरतसकाइया, बायरतेउक्काइया असंखेज्जगुणा, पत्तेयसरीरबादरवणस्सइकाइया प्रसंखेज्जगुणा, बायरनिगोया असंखेज्जगुणा, बायरपुढविकाइया असंखेज्जगुणा, बायराउ-वाउ असंखेज्जगुणा, बायरवणस्सइकाइया प्रणंतगुणा, बायरा विसेसाहिया / (2) एवं अपज्जत्तगाणवि / (3) पज्जत्तगाणं सम्वत्थोवा बायरतेउक्काइया, बायरतसकाइया असंखेज्गुणा, पत्तेयसरीरबायरा असंखेज्जगुणा, सेसा तहेव जाव बादरा विसेसाहिया। (4) एतेसि णं भंते ! बायराणं पज्जत्तापज्जत्ताणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? सव्वत्थोवा बायरा पज्जत्ता, बायरा अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा एवं सव्वे जाव बायरतसकाइया / (5) एएसिणं भंते ! बायराणं बायरपुढविकाइयाणं जाव बायरतसकाइयाण य पज्जतापज्जत्ताणं कयरे कयरेहितो अप्पा० ? सव्वत्थोवा बायरतेउक्काइया पज्जत्तगा, बायरतसकाइया अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा, बायरतसकाइया अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा, पत्तैयसरीरबायरवणस्सइकाइया पज्जत्तगा असंखेज्जगुणा, बायरणिओया पज्जत्तगा असंखेज्जगुणा, पुढवि-पाउ-वाउ-पज्जत्तगा असंखेज्जगुणा, बायरतेउ अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा, पत्तेयसरीरवायरवणस्सइ अपज्जत्ता असंखेज्जगुण, बायरा णिमोदा अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा, बायरपुढवि-पाउ-वाउ अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा, बायरवणस्सइ अपज्जत्तगा प्रणंतगुणा, बादरपज्जत्तगा विसेसाहिया, बायरवणस्सइ अपज्जत्तगा असंखगुणा, बायरा अपज्जत्तगा विसेसाहिया, बायरा पज्जत्ता विसेसाहिया / 221. (अ) (1) प्रथम औधिक अल्पबहुत्व सबसे थोड़े बादर असकाय, उनसे बादर तेजस्काय असंख्येयगुण, उनसे प्रत्येकशरीर बादर वनस्पतिकाय असंख्येयगुण, उनसे बादर निगोद असंखेयगुण, उनसे बादर पृथ्वीकाय असंखेयगुण, उनसे बादर अपकाय, बादर वायुकाय क्रमशः असंखेयगुण, उनसे बादर वनस्पतिकायिक अनन्त गुण, उनसे बादर विशेषाधिक / Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 134] [जीवाजीवाभिगमसूत्र (2) अपर्याप्त बादरों का अल्पबहुत्व प्रौघिकसूत्र के अनुसार हो जानना चाहिए-जैसे सबसे थोड़े बादर त्रसकायिक अपर्याप्त, उनसे बादर तेजस्कायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण इत्यादि औधिक क्रम। (3) पर्याप्त बादरों का अल्पबहुत्व--- सबसे थोड़े बादर तेजस्कायिक पर्याप्त, उनसे बादर त्रसकायिक पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर प्रत्येकशरीर वनस्पतिकायिक पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर निगोद पर्याप्तक असंख्येयगुण, उनसे बादर पृथ्वीकायिक पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर अप्कायिक पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर वायुकाय पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त अनन्तगुण, उनसे बादर पर्याप्तक विशेषाधिक। (4) प्रत्येक के बादर पर्याप्त-अपर्याप्तों का अल्पबहुत्व (सब जगह) पर्याप्त बादर थोडे हैं और बादर अपर्याप्तक असंख्येयगुण हैं, क्योंकि एक बादर पर्याप्त की निश्रा में असंख्येय बादर अपर्याप्त उत्पन्न होते हैं। (सब सूत्रों का कथन बादर सकायिकों की तरह है / ) (5) सबका समुदित अल्पबहुत्व भगवन् ! बादरों में बादर पृथ्वीकाय यावत् बादर सकाय के पर्याप्तों और अपर्याप्तों में कौन किससे अल्प यावत् विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े बादर तेजस्कायिक पर्याप्तक, उनसे बादर त्रसकायिक पर्याप्तक असंख्येयगुण, उनसे बादर असकायिक अपर्याप्त असंख्यातगुण, उनसे प्रत्येकशरीर बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त असंखेयगुण, उनसे बादर निगोद पर्याप्तक असंखेयगुण, उनसे पृथ्वी-अप-वायुकाय पर्याप्तक क्रमशः असंख्यातगुण, उनसे बादर तेजस्काय अपर्याप्तक असंख्यगण, उनसे प्रत्येकशरीर बादर वनस्पति अपर्याप्त असंखेयगुण, उनसे बादरनिगोद अपर्याप्तक असंखेयगुण, उनसे बादर पृथ्वी-अपवायुकाय अपर्याप्तक असंखेयगुण, उनसे बादर वनस्पति पर्याप्तक अनन्तगुण, उनसे बादर पर्याप्तक विशेषाधिक, उनसे बादर वनस्पति अपर्याप्त असंख्यगुण, उनसे बादर अपर्याप्त विशेषाधिक, उनसे बादर पर्याप्त विशेषाधिक हैं। विवेचन-सर्वप्रथम षटकाय का प्रोधिक अल्पबहत्व बताया है। वह इस प्रकार है-सबसे थोड़े बादर त्रसकायिक हैं, क्योंकि द्वीन्द्रिय आदि ही बादर त्रस हैं और वे शेष कायों की अपेक्षा अल्प हैं / उनसे बादर तेजस्कायिक असंख्येयगुण हैं, क्योंकि वे असंख्येय लोकाकाशप्रदेशप्रमाण हैं। उनसे प्रत्येकशरीर बादर वनस्पतिकायिक असंख्येयगुण हैं, क्योंकि इनके स्थान असंख्येयगुण हैं / ' बादर 1. तथा चोक्तं प्रज्ञापनायां द्वितीय स्थानाख्ये पदे-अंतोमणुस्सखेते अढाइज्जेसु दीवसमुद्देसु निवाघाएण पन्न रससु कम्मभूमिसु, वाघाएणं पंचसु महाविदेहेसु एत्थ णं बायरतेउकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता, तथा जत्थेव बायरतेउक्काइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पण्णता तत्थेव अपज्जत्ताणं बायरतेउकाइयाणं ठाणा पण्णत्ता। Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षड्विधाख्या पंचम प्रतिपत्ति] [135 तेज तो मनुष्यक्षेत्र में ही है, जबकि बादर वनस्पतिकाय तीनों लोकों में है। अतः क्षेत्र के असंख्येयगुण ने से बादर तेजस्कायिकों से प्रत्येकशरीर बादर वनस्पतिकायिक असंख्येयगुण हैं। उनसे बादरनिगोद असंख्येयगुण है, क्योंकि अत्यन्त सूक्ष्म अवगाहना होने से तथा प्रायः जल में सर्वत्र होने से-- पनक, सेवाल आदि जल में अवश्यंभावी है, अतः असंख्येयगुण घटित होते हैं। बादर निगोद से बादर पृथ्वीकायिक असंख्येयगुण हैं, क्योंकि वे आठों पृथ्वियों, सब विमानों, सब भवनों और पर्वतादि में हैं। उनसे बादर अपकायिक असंख्येयगुण हैं, क्योंकि समुद्रों में जल की प्रचुरता है / उनसे बादर वायुकायिक असंख्येयगुण हैं, क्योंकि पोलारों में भी वायु संभव है। उनसे बादर वनस्पतिकायिक अनन्तगण हैं, क्योंकि प्रत्येक बादर निगोद में अनन्त जीव हैं। उनसे सामान्य बादर विशेषाधिक हैं, क्योंकि बादर त्रसकायिक आदि का भी उनमें समावेश होता है। (2) दूसरा अल्पबहुत्व इन षट्कायों के अपर्याप्तकों के सम्बन्ध में है। सबसे थोड़े बादर त्रसकायिक अपर्याप्त (युक्ति पहले बता दी है), उनसे बादर तेजस्कायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण हैं, क्योंकि वे असंख्येय लोकाकाशप्रमाण हैं। इस तरह प्रागुक्तकम से ही अल्पबहुत्व समझ लेना चाहिए। (3) तीसरा अल्पबहत्व षटकायों के पर्याप्तों से सम्बन्धित है। सबसे थोड़े बादर तेजस्कायिक हैं, क्योंकि ये प्रावलिका के समयों के वर्ग को कुछ समय न्यून पावलिका समयों से गुणित करने पर जितने समय होते हैं, उनके बराबर हैं। उनसे बादर असकायिक पर्याप्त असंख्येयगुण हैं, क्योंकि वे प्रतर में अंगुल के संख्येयभागमात्र जितने खण्ड होते हैं, उनके बराबर हैं, उनसे प्रत्येकशरीरी वनस्पतिकायिक पर्याप्त असंख्येयगुण हैं, क्योंकि वे प्रतर में अंगुल के असंख्येयभागमात्र जितने खण्ड होते हैं, उनके तुल्य हैं। उनसे बादरनिगोद पर्याप्तक असंख्येयगुण हैं, क्योंकि वे अत्यन्त सूक्ष्म अवगाहना वाले तथा जलाशयों में सर्वत्र होते हैं। उनसे बादर पृथ्वाकायिक पयाप्त असख्येय गुण है, क्योकि क्योंकि अतिप्रभूत संख्येय प्रतरांगुलासंख्येयभाग-खण्डप्रमाण है। उनसे बादर अप्कायिक पर्याप्त असंख्येयगुण हैं, क्योंकि वे अतिप्रभूततरासंख्येयप्रतरांगुलासंख्येयभागप्रमाण हैं। उनसे बादर वायुकायिक पर्याप्त असंख्येय गुण हैं, क्योंकि धनीकृत लोक के असंख्येय प्रतरों के संख्यातवें भागवर्ती क्षेत्र के आकाशप्रदेशों के बराबर हैं। उनसे बादर वनस्पति पर्याप्त अनन्तगुण हैं, क्योंकि प्रति बादरनिगोद में अनन्तजीव हैं। उनसे सामान्य बादर पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, क्योंकि बादर तेजस्कायिक आदि सब पर्याप्तों का इनमें समावेश है। (4) चौथा अल्पबहत्व इनके प्रत्येक के पर्याप्तों और अपर्याप्तों को लेकर कहा गया है। सर्वत्र पर्याप्तों से अपर्याप्त असंख्येयगुण कहना चाहिए / बादर पृथ्वीकाय से लेकर बादर त्रसकाय तक सर्वत्र 1. कहिं णं भंते ! बादरवणस्सइकाउयाणं पज्जत्तमाणं ठाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! सट्टाणेणं सत्तसु घणोदहीसु सत्तसु घणोदधिवलएसु, अहोलोए पायालेसु, भवणपत्थडेसु उड्ढलोए कप्पेसु विमाणावलियासु विमाणपत्थडेसु तिरियलोए अगडेसु तलाएसु नदीसु दहेसु वावीसु पुक्खरिणी गुजालियासु सरेसु सरपंतियासु उज्झरेसु चिल्ललेसु पल्ललेसु वप्पिणेसु दीवेसु समुद्देसु सव्वेसु चेव जलासएसु जलट्ठाणेसु एत्थ णं बायरवणस्सइकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पणत्ता। तथा जत्थेव बायरवणस्सइकाइयाण पज्जत्तमाणं ठाणा पण्णत्ता तत्थेव बायरवणस्सइकाइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता। -प्रज्ञापना स्थानपद Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 136] [जीवाजीवाभिगमसूत्र अपर्याप्तों से पर्याप्त असंख्येयगुण हैं, क्योंकि एक बादरपर्याप्त की निश्रा में असंख्येय बादर-अपर्याप्त पैदा होते हैं।' (5) पांचवां अल्पबहुत्व छह कायों के पर्याप्त और अपर्याप्तों का समुदित रूप से कहा गया है / वह निम्न है सबसे थोड़े बादर तेजस्कायिक पर्याप्त, उनसे बादर त्रसकायिक पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर प्रत्येकवनस्पतिकायिक पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर निगोद पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर पृथ्वीकायिक पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर अप्कायिक पर्याप्त असंख्येयगुण,उनसे बादर वायुकायिक पर्याप्त असंख्येयगुण / (उक्त पदों की युक्ति पूर्ववत् जाननी चाहिए।) ___ उनसे बादर तेजस्कायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण हैं, क्योंकि बादर वायुकायिक पर्याप्त असंख्येयलोकाकाशप्रदेश के प्राकाशप्रदेशों के तुल्य हैं, किन्तु बादर तेजस्कायिक अपर्याप्त असंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाण हैं। असंख्यात के असंख्यात भेद होने से यह असंख्यात पूर्व के असंख्यात से असंख्येयगुण जानना चाहिए। बादर तेजस्कायिक अपर्याप्त से प्रत्येक बादर वनस्पतिकायिक, बादर निगोद, बादर पृथ्वीकायिक, बादर अपकायिक, बादर वायुकायिक अपर्याप्त यथोत्तर असंख्येयगुण कहने चाहिए / बादर वायुकायिक अपर्याप्तों से बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त अनन्तगुण हैं, क्योंकि एक-एक बादर निगोद में अनन्त जीव हैं। उनसे सामान्य बादर पर्याप्त विशेषाधिक हैं, क्योंकि बादर तेजस्कायिक आदि पर्याप्तों का उनमें प्रक्षेप होता है / उनसे बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण हैं, क्योंकि एक-एक पर्याप्त बादर बनस्पतिकायिक निगोद की निश्रा में असंख्येय अपर्याप्त बादर वनस्पतिकायिक निगोद उत्पन्न होते हैं। उनसे सामान्य बादर अपर्याप्त विशेषाधिक हैं, क्योंकि उनमें बादर तेजस्कायिक आदि अपर्याप्तों का प्रक्षेप है। उनसे पर्याप्त-अपर्याप्त विशेषण रहित सामान्य बादर विशेषाधिक हैं, क्योंकि इनमें सब बादर पर्याप्त-अपर्याप्तों का समावेश हो जाता है। इस प्रकार वादर को लेकर पांच अल्पबहुत्व कहे हैं / सूक्ष्म-बादरों के समुदित अल्पबहुत्व 221 (आ) (1) एएसि णं भंते ! सुहुमाणं सुहमपुढविकाइयाणं जाव सुहमणिगोयाणं बायराणं बादरपुढविकाइयाणं जाव बादरतसकाइयाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा० ? ___गोयमा ! सव्वत्थोवा बायरतसकाइया, बायरतेउक्काइया असंखेज्जगुणा, पत्तेयसरीरबायरवणस्सइकाइया असंखेज्जगुणा तहेव जाव बायरवाउकाइया असंखेज्जगुणा, सुहुमतेउक्काइया असंखज्जगुणा, सुहमपुढविकाइया विसेसाहिया, सुहम पाउ० सुहम वाउ० विसेसाहिया, सुहमनिगोया असंखेज्जगुणा, बायरवणस्सइकाइया अणंतगुणा, बायरा विसेसाहिया, सुहुमवणस्सकाइया असंखेज्जगुणा, सुहुमा विसेसाहिया। 1. "पज्जत्तगनिस्साए अपज्जत्तगा बक्कमंति, जत्थ एगो तत्थ णियमा असंखेज्जा" इति वचनात् / Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पइविधाख्या पंचम प्रतिपत्तिा [137 (2-3) एवं अपज्जत्तगावि पज्जतगावि, णवरि सम्वत्थोवा बायरतेउक्काइया पज्जत्ता, बायरतसकाइया पज्जत्ता असंखेज्जगुणा, पत्तेयसरीरबादरवणस्सइकाइया पज्जत्ता असंखेज्जगुणा, सेसं तहेव जाव सुहुभपज्जत्ता यिसेसाहिया। (4) एएसि णं भंते ! सुहुमाणं बादराण य पज्जत्ताणं अपज्जत्ताण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा.? गोयमा ! सम्वत्थोवा बायरा पज्जत्ता, बायरा अपज्जत्ता असंखेज्जगुणा, सम्वत्थोवा सुहमा अपज्जत्ता, सुहमपज्जत्ता संखेज्जगुणा / एवं सुहमपुढवि बायरपुढवि जाव सुहमणिगोदा बायरनिगोया, नवरं पत्तेयसरीरवणस्सइकाइया सम्वत्थोवा पज्जत्ता अपज्जत्ता, असंखेज्जगुणा / एवं बायरतसकाइयावि। (5) सवेसि पज्जत्तापज्जत्तगाणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला या विसेसाहिया वा? गोयमा ! सम्वत्थोवा बायरतेउक्काइया पज्जत्ता, बायरतसकाइया पज्जत्तगा असंखेज्जगुणा, ते चेव अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा, पत्तेयसरीरबायरवणस्सइ अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा, बायरणिओया पज्जत्ता असंखज्ज०, बायरपुढवि. असंख०, प्राउ-बाउ पज्जत्ता असंखेज्जगणा, बायरतेउकाइया अपज्जत्ता असंखे०, पत्तेयसरीर० असंखे०, बायरणिगोयपज्जत्ता असं०, बायरपुढवि० आउ-बाउकाइया अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा, सुहुमतेउक्काइया अपज्जत्तगा असं०, सुहुमपुढवि० आउ-वाउअपज्जत्ता विसेसाहिया, सुहुमतेउकाइयपज्जत्तगा संखेज्जगुणा, सुहमपुढवि-आउ-वाउपज्जत्तगा विसेसांहिया, सहमणिगोया अपज्जत्तगा असंखेज्जमुणा, सहमणिगोया पज्जत्तगा असंखेज्जगुणा, बायरवणस्सइकाइया पज्जत्तगा अणंतगुणा, बायरा पज्जत्तगा बिसेसाहिया, बायरवणस्सइ अपज्जत्ता असंखज्जगुणा, बायरा अपज्जत्ता विसेसाहिया, बायरा विसेसाहिया, सहमवणस्सहकाइया अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा, सुहमा अपज्जत्ता विसेसाहिया, सुहुमवणस्सइकाइया पज्जता संखेज्जगुणा, सुहमा पज्जत्तगा विसेसाहिया, सुहुमा विसेसाहिया। 221. स्पष्टता के लिए और पुनरावृत्ति को टालने के लिए प्रस्तुत पाठ का अर्थ विवेचनयुक्त दिया जाता है / प्रस्तुत पाठ में सूक्ष्मों और बादरों के समुदित पांच अल्पबहुत्व कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं (1) प्रथम अल्पबहुत्व-भगवन् ! सूक्ष्मों में सूक्ष्म पृथ्वीकायिक यावत् सूक्ष्म निगोदों में तथा बादरों में-बादर पृथ्वीकायिक यावत् बादर सकायिकों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े बादर सकायिक हैं, उनसे बादर तेजस्कायिक असंख्येयगुण हैं, उनसे प्रत्येकशरीर बादर वनस्पतिकायिक असंख्येयगण हैं, उनसे बादर निगोद असंख्येयगण उनसे बादर पृथ्वीकाय असंख्येयगुण हैं, उनसे बादर अपकाय, बादर वायुकाय क्रमशः असंख्येयगुण हैं, उन बादर वायुकाय से सूक्ष्म तेजस्काय असंख्येयगुण हैं, उनसे सूक्ष्म पृथ्वीकाय विशेषाधिक हैं, उनसे सूक्ष्म अप्काय, सूक्ष्म वायुकाय विशेषाधिक हैं,उनसे सूक्ष्मनिगोद असंख्यातगुण हैं, उन सूक्ष्मनिगोद से बादरवनस्पति Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 135] [जीवाजीवाभिगमसूत्र कायिक अनन्तगुण हैं, उनसे बादर विशेषाधिक हैं, उनसे सूक्ष्म वनस्पतिकायिक असंख्येयगुण हैं, उनसे (सामान्य) सूक्ष्म विशेषाधिक हैं / (2) द्वितीय अल्पबहुत्व इनके ही अपर्याप्तकों को लेकर है / वह इस प्रकार है सबसे थोड़े बादर त्रसकायिक अपर्याप्त, उनसे बादर तेजस्कायिक अपर्याप्त असंख्येय गुण, उनसे बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादरनिगोद अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर पृथ्वीकायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर अपकायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर वायुकायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे सूक्ष्म तेजस्कायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे सूक्ष्म पृथ्वीकायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे सूक्ष्म अपकायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे सूक्ष्मनिगोद अपर्याप्त असंख्येय गुण, उनसे बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्त अनन्तगुण, उनसे सामान्य बादर अपर्याप्त विशेषाधिक, उनसे सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे सामान्य सूक्ष्म अपर्याप्त विशेषाधिक हैं। (3) तीसरा अल्पबहुत्व इनके ही पर्याप्तकों को लेकर कहा गया है / वह इस प्रकार है सबसे थोड़े बादर तेजस्कायिक पर्याप्त, उनसे बादर त्रसकायिक पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर प्रत्येक वनस्पतिकायिक पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादरनिगोद पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर पृथ्वीका यिक पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर अप्कायिक पर्याप्त असंख्येय गुण, उनसे बादर वायुकायिक पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे सूक्ष्म तेजस्कायिक पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे सूक्ष्म पृथ्वीकायिक पर्याप्त असंख्येय गुण, उनसे सूक्ष्म अप्कायिक पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे सूक्ष्मनिगोद पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त अनन्तगुण, उनसे सामान्य बादर पर्याप्त विशेषाधिक, उनसे सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे सामान्य सक्षम पर्याप्त विशेषाधिक हैं। (4) चौथा अल्पबहुत्व इन प्रत्येक के पर्याप्त और अपर्याप्तों के सम्बन्ध में है। वह इस प्रकार है सबसे थोड़े बादर पर्याप्त हैं, क्योंकि ये परिमित क्षेत्रवर्ती हैं। उनसे बादर अपर्याप्त असंख्येयगुण हैं, क्योंकि प्रत्येक बादर पर्याप्त की निश्रा में असंख्येय बादर अपर्याप्त उत्पन्न होते हैं / उनसे सूक्ष्म अपर्याप्त असंख्येयगुण हैं, क्योंकि वे सर्वलोकव्यापी होने से उनका क्षेत्र असंख्येयगुण है / उनसे सूक्ष्म पर्याप्त संख्येयगुण हैं, क्योंकि चिरकाल-स्थायी होने से ये सदैव संख्येयगुण प्राप्त होते हैं। __ सब संख्या में यहां सात सूत्र हैं--१. सामान्य से सूक्ष्म-बादर पर्याप्त-अपर्याप्त विषयक, 2. सूक्ष्म-बादर पृथ्वीकायिक पर्याप्तापर्याप्तविषयक, 3. सूक्ष्म-बादर अप्कायिक पर्याप्तापर्याप्त विषयक, 4. सूक्ष्म-बादर तेजस्कायिक पर्याप्तापर्याप्त विषयक, 5. सूक्ष्म-बादर वायुकायिक पर्याप्तापर्याप्त विषयक, 6. सूक्ष्म-बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्तापर्याप्त विषयक और 7. सूक्ष्म-बादर निगोद पर्याप्तापर्याप्त विषयक। Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षड्विधाख्या पंचम प्रतिपत्ति] [139 सूक्ष्मों में अपर्याप्त थोड़े और पर्याप्त संख्येयगुण हैं और बादरों में पर्याप्त थोड़े और अपर्याप्त असंख्यातगुण हैं। (5) पांचवां अल्पबहुत्व इन सबका समुदित रूप में कहा गया है / वह इस प्रकार है सबसे थोड़े बादर तेजस्कायिक पर्याप्त, उनसे बादर त्रसकायिक पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर त्रसकायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे प्रत्येक शरीर बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादरनिगोद पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर पृथ्वीकायिक पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर अप्कायिक पर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर वायुकायिक पर्याप्त असंख्येय गुण, उनसे बादर तेजस्कायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे प्रत्येकशरीर बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादरनिगोद अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर पृथ्वीकायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर अप्कायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे बादर वायुकायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण, कायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे सूक्ष्म पृथ्वीकायिक अपर्याप्त विशेषाधिक, उनसे सूक्ष्म अप्कायिक अपर्याप्त विशेषाधिक, उनसे सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्त विशेषाधिक, उनसे सूक्ष्म तेजस्कायिक अपर्याप्त संख्येयगुण, उनसे सूक्ष्म पृथ्वीकायिक अपर्याप्त विशेषाधिक, उनसे सूक्ष्म अप्कायिक अपर्याप्त विशेषाधिक, उनसे सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्त विशेषाधिक, उनसे सूक्ष्मनिगोद अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे सूक्ष्म निगोद पर्याप्त संख्येयगुण / (ये बादर पर्याप्त तेजस्काय से लेकर पर्याप्त निगोद तक के जीव यद्यपि अन्यत्र समान रूप से असंख्येय लोकाकाश के प्रदेश प्रमाण कहे हैं, तथापि असंख्यात के असंख्यात भेद होने से यहां जो कहीं असंख्येयगुण, संख्येयगुण और विशेषाधिक कहे हैं, उनमें कोई विरोध नहीं समझना चाहिए।) उन पर्याप्त सूक्ष्म निगोदों से बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्त अनन्तगुण हैं / उनसे सामान्य बादर पर्याप्त विशेषाधिक हैं, उनसे बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण हैं,उनसे सामान्य बादर अपर्याप्त विशेषाधिक हैं, उनसे सामान्यतः बादर विशेषाधिक हैं, उनसे सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्त असंख्येयगुण हैं, उनसे सामान्य सूक्ष्म अपर्याप्त विशेषाधिक हैं, उनसे सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्त संख्येयगुण हैं, उनसे सामान्य सूक्ष्म पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, उनसे सामान्य पर्याप्त-अपर्याप्त विशेषण रहित सूक्ष्म विशेषाधिक हैं। निगोद को वक्तव्यता - 222. कतिविहा गं भंते ! णिपोया पण्णता ? गोयमा ! दुविहा णिपोया पण्णत्ता, तं जहा-णिओया य णिनोदजीवा य / णिओया णं भंते ! कतिविहा पण्णता? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-सुहमणिओदा य बादरणिओदा य / सुहमणिपोया णं भंते ! कतिविहा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा--पज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य / बायरणिओयावि दुविहा पण्णत्ता, तं जहा–पज्जत्ता य अपज्जत्ता य / णिोदजीवा णं भंते ! कतिविहा पण्णता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-सुहमणिगोदजीवा य बादरणिगोयजीवा य। सुहमणिगोदजीवा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-पज्जत्तगा य अपज्जतगा य / बायरणिगोदजीवा दुविहा पण्णता, तं जहा—पज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य / Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140] [जीवाजीवाभिगमसूत्र 222. भगवन् ! निगोद कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! निगोद दो प्रकार के हैं—निगोद और निगोदजीव ! भगवन् ! निगोद कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! दो प्रकार के हैं- सूक्ष्मनिगोद और बादरनिगोद / भगवन् ! सूक्ष्मनिगोद कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! दो प्रकार के हैं पर्याप्तक और अपर्याप्तक / बादर निगोद भी दो प्रकार के हैं-पर्याप्तक और अपर्याप्तक / भगवन् ! निगोदजीव कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! दो प्रकार के हैं--सूक्ष्म निगोदजीव और बादर-निगोदजीव / सूक्ष्म निगोदजीव दो प्रकार के हैं--पर्याप्तक और अपर्याप्तक / बादरनिगोदजीव भी दो प्रकार के है-पर्याप्तक और अपर्याप्तक / विवेचन--निगोद जैन सिद्धान्त का पारिभाषिक शब्द है, जिसका अर्थ है अनन्त जीवों का प्राधार अथवा आश्रय। वैसे सामान्यतया निगोद सूक्ष्म और साधारण वनस्पति रूप है, तथापि इसकी अलग-सी पहचान है। इसलिए इसके दो प्रकार कहे गये हैं --निगोद और निगोदजीव / निगोद अनन्त जीवों का अाधारभूत शरीर है और निगोदजीव एक ही औदारिकशरीर में रहे हुए भिन्न-भिन्न तैजस-कार्मणशरीर वाले अनन्त जीवात्मक है।' पागम में कहा है-यह सारा लोक सूक्ष्मनिगोदों से अंजनचूर्ण से परिपूर्ण समुद्गक की तरह ठसाठस भरा हुआ है। निगोदों से परिपूर्ण इस लोक में असंख्येय निगोद वृत्ताकार और बृहत्प्रमाण होने से “गोलक" कहे जाते हैं / ऐसे असंख्येय गोले हैं और एक-एक गोले में असंख्येय निगोद हैं और एक-एक निगोद में अनन्त जीव हैं। निगोद और निगोदजीव दोनों दो-दो प्रकार के हैं--सूक्ष्मनिगोद और बादरनिगोद / सूक्ष्मनिगोद सारे लोक में रहे हुए हैं और बादरनिगोद मूल, कंद आदि रूप हैं। ये दोनों सूक्ष्म और बादर निगोदजीव दो-दो प्रकार के हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त / 223. णिगोदा गं भंते ! दव्वट्ठयाए कि संखेज्जा असंखेज्जा अणंता? गोयमा! गो संखेज्जा, असंखेज्जा, णो अणंता / एवं पज्जत्तगावि अपज्जत्तगावि / ___ सुहमणिगोदा णं भंते ! दव्वद्र्याए कि संखेज्जा असंखेज्जा प्रणता ? गोयमा ! णो संखेज्जा, असंखेजा, णो श्रणंता / एवं पज्जतगावि अपज्जत्तगावि / एवं बायरावि पज्जत्तगावि अपज्जत्तगावि णो संखेज्जा, असंखज्जा, णो अणंता / णिमोदजीवा णं भंते ! दवट्ठयाए कि संखेज्जा, असंखज्जा, अणता? गोयमा ! नो संखेज्जा, नो असंखेज्जा, अगंता। एवं पज्जत्तगावि अपज्जत्तगावि / एवं सुहमणिगोदजीवावि पज्जत्तगावि अपज्जत्तगावि / बायरणिगोदजीवावि पज्जत्तगावि अपज्जत्तगावि / / णिगोदा णं भंते ! पदेसट्टयाए कि संखेज्जा पुच्छा ? गोयमा ! नो संखेज्जा, नो असंखेज्जा, अणंता। एवं पज्जतगावि अपज्जत्तगावि / एवं सुहमणिगोदावि पज्जत्तगावि अपज्जत्तगावि / पएसट्ठयाए सव्वे अणंता / एवं बायरनिगोदावि पज्जतगावि अपज्जत्तगावि / पएसटुयाए सम्वे अणता। 1. तत्र निगोदा जीवाश्रयविशेषा, निगोदजीवा विभिन्न तेजसकार्मणाजीवा एव / Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षविधाख्या पंचम प्रतिपत्ति] [11 एवं णिोदजीवा नवविहावि पएसट्टयाए सव्वे अणंता / 223. भगवन् ! निगोद द्रव्य की अपेक्षा क्या संख्यात हैं, असंख्यात हैं या अनन्त हैं ? गौतम ! संख्यात नहीं हैं, असंख्यात हैं, अनन्त नहीं हैं। इसी प्रकार इनके पर्याप्त और अपर्याप्त सूत्र भी कहने चाहिए। भगवन् ! सूक्ष्मनिगोद द्रव्य की अपेक्षा संख्यात हैं, असंख्यात हैं या अनन्त हैं ? गौतम ! संख्यात नहीं, असंख्यात हैं, अनन्त नहीं। इसी तरह पर्याप्त विषयक सूत्र तथा अपर्याप्त विषयक सूत्र भी कहने चाहिए। इसी प्रकार बादरनिगोद के विषय में भी कहना चाहिए। उनके पर्याप्त विषयक सूत्र तथा अपर्याप्त विषयक सूत्र भो इसी तरह कहने चाहिए / भगवन् ! निगोदजीव द्रव्य की अपेक्षा संख्यात हैं, असंख्यात हैं या अनन्त हैं ? गौतम ! संख्यात नहीं, असंख्यात नहीं, अनन्त हैं। इसी तरह इसके पर्याप्तसूत्र भी जानने चाहिए / इसी प्रकार सक्ष्मनिगोदजीव, इनके पर्याप्त और अपर्याप्तसत्र तथा बादर उनके पर्याप्त और अपर्याप्तसूत्र भी कहने चाहिए। (ये द्रव्य की अपेक्षा से 9 निगोद के तथा 9 निगोदजीव के कुल अठारह सूत्र हुए।) भगवन् ! प्रदेश की अपेक्षा निगोद संख्यात हैं, असंख्यात हैं या अनन्त हैं ? गौतम ! संख्यात नहीं, असंख्यात नहीं, किन्तु अनन्त हैं। इसी प्रकार पर्याप्तसूत्र और अपर्याप्तसूत्र भी कहने चाहिए। इसी प्रकार सूक्ष्मनिगोद और उनके पर्याप्त तथा अपर्याप्त सूत्र कहने चाहिए / ये सब प्रदेश की अपेक्षा अनन्त हैं। इसी प्रकार बादरनिगोद के और उनके पर्याप्त तथा अपर्याप्त सूत्र कहने चाहिए। ये सब प्रदेश की अपेक्षा अनन्त हैं। इसी प्रकार निगोदजीवों के प्रदेशों की अपेक्षा से नो ही सूत्रों में अनन्त कहना चाहिए। विवेचन--प्रस्तुत सूत्र में निगोद और निगोदजीवों की संख्या के विषय में जिज्ञासा और उत्तर है। जिज्ञासा प्रकट की गई है कि निगोद संख्यात हैं, असंख्यात हैं या अनन्त हैं? इन प्रश्नों के उत्तर दो अपेक्षाओं से हैं--द्रव्य की अपेक्षा और प्रदेश की अपेक्षा से / द्रव्य की अपेक्षा से निगोद संख्येय नही हैं, क्योंकि अंगुलासंख्येयभाग अवगाहना वाले निगोद सारे लोक में व्याप्त हैं। वे असंख्यात हैं, क्योंकि असंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाण हैं। वे अनन्त नहीं हैं, क्योंकि केवलज्ञानियों ने उन्हें अनन्त नहीं जाना है / सामान्यनिगोद, अपर्याप्त सामान्यनिगोद और पर्याप्त सामान्य निगोद संबंधी तीन सूत्र इसी तरह जानने चाहिए / इसी प्रकार सूक्ष्मनिगोद के तीन सूत्र और बादरनिगोद के भी तीन सूत्र---कुल नौ सूत्र कहे गये हैं। निगोदजीव द्रव्य की अपेक्षा से संख्यात नहीं हैं, असंख्यात नहीं हैं किन्तु अनन्त हैं / प्रतिनिगोद में अनन्तजीव होने से निगोदजीव द्रव्यापेक्षया अनन्त हैं। इसी तरह इनके अपर्याप्तसूत्र और पर्याप्तसूत्र में भी अनन्त कहना चाहिए। Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 142] [जीवाजीवाभिगमसूत्र इसी प्रकार सूक्ष्मनिगोदजीव और उनके अपर्याप्त और पर्याप्त विषयक तीनों सूत्रों में भी अनन्त कहना चाहिए। इसी प्रकार बादरनिगोदजीव और उनके अपर्याप्त और पर्याप्त विषयक तीन सूत्रों में भी अनन्त कहने चाहिए / उक्त वर्णन द्रव्य की अपेक्षा से हुआ। प्रदेशों की अपेक्षा से निगोद और निगोदजीवों के सामान्य तथा अपर्याप्त और पर्याप्त तथा सूक्ष्म और बादर सब अठारह ही सूत्रों में अनन्त कहना चाहिए। क्योंकि प्रत्येक निगोद में अनन्त प्रदेश होते हैं / ये अठारह सूत्र इस प्रकार कहे हैं निगोद के 9 तथा निगोदजीवों के 9, कुल 18 हुए / निगोद के 9 सूत्र-निगोदसामान्य, निगोद-अपर्याप्त, निगोद-पर्याप्त ; सूक्ष्मनिगोदसामान्य, सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त, सूक्ष्मनिगोद पर्याप्त; बादरनिगोदसामान्य, बादरनिगोद अपर्याप्त और बादरनिगोद पर्याप्त / निगोदजीव के 9 सूत्र-निगोदजीवसामान्य, निगोदजीव अपर्याप्तक और निगोदजीव पर्याप्तक। सूक्ष्मनिगोदजीव सामान्य और इनके पर्याप्त और अपर्याप्त / बादरनिगोदजीव और इनके अपर्याप्त और पर्याप्त / कुल अठारह सूत्र प्रदेशापेक्षया हैं। निगोदों का अल्पबहुत्व 224. (प्र) एएसि णं भंते ! णिगोदाणं सुहमाणं बायराणं पज्जत्तयाणं अपज्जत्तगाणं दव्वट्ठयाए पएसट्ठयाए दव्वपएसठ्ठयाए कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा ! सव्वत्थोवा बायरणिगोदा पज्जत्तगा दवठ्ठयाए, बादरनिगोदा अपज्जत्तगा दव्बठ्ठयाए असंखेज्जगुणा, सुहमनिगोदा अपज्जत्तगा दव्वट्ठयाए असंखेज्जगुणा, सुहुमनिगोदा पज्जत्तगा दम्वद्र्याए संखेज्जगुणा, एवं पएसठ्ठयाएवि। दव्वपएसठ्ठयाए-सम्वत्थोवा बायरणिगोदा पज्जत्ता दब्बठ्ठयाए जाव सुहमणिनोदा पज्जत्ता दन्बठ्ठयाए संखेज्जगुणा / सुहमणिगोदेहित्तो पज्जतएहितो दन्वट्ठयाए बायरनिगोदा पज्जत्ता पएसठ्ठया अणंतगुणा, बायरणिओदा अपज्जत्ता पएसठ्ठयाए असंखेज्जगुणा जाव सुहमणिपोया पज्जत्ता पएसट्टयाए संखेज्जगुणा। एवं णिगोदजीवावि / णवरि संकमए जाव सुहमणिओयजीवेहितो पज्जत्तएहितो दवट्टयाए बायरणिओदजीवा पज्जत्ता पदेसट्टयाए असंखेज्जगुणा, सेसं तहेव जाव सुहमणिओदजीवा पज्जत्ता पएसट्ठयाए संखेज्जगुणा / 224 (अ) भगवन् ! इन सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त और अपर्याप्त निगोदों में द्रव्य की अपेक्षा, प्रदेश की अपेक्षा तथा द्रव्य-प्रदेश की अपेक्षा से कौन किससे कम, बहत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! द्रव्य की अपेक्षा से--सबसे थोड़े बादरनिगोद (मूल-कन्दादिगत) पर्याप्तक हैं (क्योंकि ये Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बड़विधाख्या पंचम प्रतिपत्ति] [143 प्रतिनियत क्षेत्रवर्ती हैं।) उनसे बादरनिगोद अपर्याप्तक असंख्येयगुण हैं (क्योंकि प्रत्येक बादरनिगोद की निश्रा में असंख्येय अपर्याप्त बादरनिगोद उत्पन्न होते हैं / ) उनसे सूक्ष्मनिगोद अपर्याप्तक असंख्येयगुण हैं, (क्योंकि लोकव्यापी होने से क्षेत्र असंख्येयगुण है / ), उनसे सूक्ष्मनिगोद पर्याप्त संख्येयगुण हैं (क्योंकि सूक्ष्मों में अपर्याप्तों से पर्याप्त संख्येयगुण हैं।) प्रदेश की अपेक्षा से ऊपर कहा हुअा क्रम ही जानना चाहिए। यथा-सबसे थोड़े बादरनिगोद पर्याप्त, उनसे बादरनिगोद अपर्याप्त असंख्यातगुण, उनसे सूक्ष्मनिगोद अपर्याप्त असंख्येयगुण और उनसे सूक्ष्मनिगोद पर्याप्त संख्येयगुण हैं। द्रव्य-प्रदेश की अपेक्षा से सबसे थोड़े बादरनिगोद पर्याप्त द्रव्यापेक्षया, उनसे बादर निगोद अपर्याप्त असंख्येयगुण द्रव्यापेक्षया, उनसे सूक्ष्मनिगोद अपर्याप्त असंख्येयगुण द्रव्यापेक्षया, उनसे सूक्ष्मनिगोद पर्याप्त संख्येयगुण द्रव्यापेक्षया, उनसे बादरनिगोद पर्याप्त अनन्तगुण प्रदेशापेक्षया, उनसे बादरनिगोद अपर्याप्त असंख्येयगुण प्रदेशापेक्षया, उनसे सूक्ष्मनिगोद अपर्याप्त असंख्येयगुण प्रदेशापेक्षया, उनसे सूक्ष्म निगोद पर्याप्त संख्येय गुण प्रदेशापेक्षया। निगोदजीवों का अल्पबहत्व-द्रव्य की अपेक्षा--सबसे थोड़े बादरनिगोदजीव पर्याप्त, उनसे बादरनिगोदजीव अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे सूक्ष्म निगोदजीव अपर्याप्तक असंख्येयगुण, उनसे सूक्ष्मनिगोदजीव पर्याप्तक संख्येयगुण हैं। प्रदेशापेक्षया-सबसे थोड़े बादरनिगोदजीव पर्याप्तक, उनसे बादरनिगोदजीव अपर्याप्तक असंख्येयगुण, उनसे सूक्ष्म निगोदजीव अपर्याप्तक असंख्ययगुण, उनके सूक्ष्म निगोदजीव पर्याप्तक संख्येयगुण / द्रव्य-प्रदेशापेक्षया--सबसे थोड़े बादरनिमोदजीव पर्याप्त द्रव्यापेक्षया, उनसे बादरनिगोदजीव अपर्याप्त असंख्यातगुण द्रव्यापेक्षया, उनसे सूक्ष्मनिगोदजीव अपर्याप्त असंख्यगुण द्रव्यापेक्षया, उनसे सूक्ष्मनिगोदजीव पर्याप्त संख्येयगुण द्रव्यापेक्षया, उनसे बादरनिगोदजीव पर्याप्त असंख्येयगुण प्रदेशापेक्षया, उनसे बादरनिगोदजीव अपर्याप्त असंख्येयगुण प्रदेशापेक्षया, उनसे सूक्ष्मनिगोदजीव अपर्याप्त असंख्येयगुण प्रदेशापेक्षया, उनसे सूक्ष्मनिगोदजीव पर्याप्त संख्येयगुण प्रदेशापेक्षया / 224. (आ) एएसि पं भंते ! णिगोवाणं सुहमाणं बायराणं पज्जत्ताणं अपज्जत्ताणं णिओयजीवाणं सुहमाणं बायराणं पज्जत्तगाणं अपज्जत्तगाणं दवट्ठयाए, पएसट्टयाए दवपएसट्टयाए कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा बायरणिओदा पज्जता दवट्टयाए, बायरणिगोदा अपज्जत्ता दवट्टयाए असंखेज्जगुणा, सुहमणिगोदा अपज्जता दवट्ठयाए असंखेज्जगुणा, सुहमणिगोदा पज्जत्ता दव्वट्ठयाए संखेज्जगुणा / सुहमणिगोदेहितो पज्जत्तेहितो बायरणियोदजीवा पज्जत्ता दवट्ठयाए अणंतगुणा, बायरणिओदजीवा अपज्जत्ता दवट्ठयाए असंखेज्जगुणा, सुहमणिोदजीवा अपज्जत्ता दवट्ठयाए असंखेज्जगुणा, सुहमणिनोदजीवा पज्जत्ता दवट्ठयाए संखेज्जगुणा। पएसट्टयाए सम्वत्थोवा बायरणिगोदजीवा पज्जत्ता, पएसट्टयाए बायरणिगोदा अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा, सुहमणिनोयजीवा अपज्जत्तगा पएसट्टयाए असंखेज्जगुणा, सुहमणिओयजीवा पज्जत्ता Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 144] [जीवाजीथाभिगमसूत्र पएसट्टयाए संखेज्जगुणा, सुहमणिोदजीवेहितो पएसट्ठयाए बायरणिगोदा पज्जता पदेसट्टयाए अणंतगुणा, बायरणिओया अपज्जत्ता पएसट्टयाए असंखेज्जगुणा जाव सुहमणिोदा पज्जत्ता पएसट्टयाए संखेज्जगुणा। दव्वटु-पएसट्टयाए-सव्वत्थोवा बायरणिपोया पज्जत्ता दवट्ठयाए, बायरणिओदा अपज्जत्ता दबट्ठयाए असंखेज्जगुणा जाव सुहमणिगोदा पज्जत्ता दवट्ठयाए संखेज्जगुणा, सुहमणिगोदेहितो दन्वट्ठयाए बायरणिगोदजीवा पज्जत्ता दवट्ठयाए अणंतगुणा, सेसा तहेव जाव सुहमणिओदजीवा पज्जत्तगा दवट्ठयाए संखेज्जगुणा. सुहमणिनोदजीवेहितो पज्जत्तएहितो दवट्ठयाए बायरणिओयजीवा पज्जत्ता पदेसट्टयाए असंखेज्जगुणा, सेसा तहेव जाव सुहमणिोदा पज्जत्ता पएसट्टयाए संखेज्जगुणा / से तं छव्धिहा संसारसमावण्णगा। 224. (मा) भगवन् ! इन सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त और अपर्याप्त निगोदों में और सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त और अपर्याप्त निगोदजीवों में द्रव्यापेक्षया, प्रदेशापेक्षया और द्रव्य-प्रदेशापेक्षया कौन किससे कम, अधिक, तुल्य और विशेषाधिक हैं ? ___ गौतम ! सब से कम बादरनिगोद पर्याप्त द्रव्यापेक्षया, उनसे बादरनिगोद अपर्याप्त असंख्येयगुण द्रव्यापेक्षया, उनसे सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त असंख्येयगुण द्रव्यापेक्षया, उनसे सूक्ष्मनिगोद पर्याप्त संख्येयगुण द्रव्यापेक्षया, उनसे बादरनिगोद जीव पर्याप्त अनन्तगुण द्रव्यापेक्षया, उनसे बादरनिगोद जीव अपर्याप्त संख्येय गुण द्रव्यापेक्षया, उनसे सूक्ष्मनिगोदजीव अपर्याप्त असंख्येयगण द्रव्यापेक्षया, उनसे सूक्ष्मनिगोद जीव पर्याप्त संख्येयगुण द्रव्यापेक्षया। प्रदेशों की अपेक्षा-सबसे थोड़े बादरनिगोदजीव पर्याप्तक, उनसे बादरनिगोद अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे सूक्ष्मनिगोदजीव अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे सूक्ष्मनिगोदजीव पर्याप्त संख्येयगुण, उनसे बादरनिगोद पर्याप्त अनन्तगुण, उनसे बादरनिगोद अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे सूक्ष्मनिगोद अपर्याप्त असंख्येयगुण, उनसे सूक्ष्म निगोद पर्याप्त संख्येयगुण / / द्रव्यार्थ-प्रदेशार्थ को अपेक्षा-सबसे थोड़े बादरनिगोद पर्याप्त द्रव्यार्थतया, उनसे बादरनिगोद अपर्याप्त असंख्येयगुण द्रव्यार्थतया, उनसे सूक्ष्मनिगोद अपर्याप्त असंख्येयगुण द्रव्यार्थतया, उनसे सूक्ष्म निगोद पर्याप्त संख्येयगुण द्रव्यार्थतया, उनसे बादरनिगोदजीव पर्याप्त अनन्तगुण द्रव्यार्थतया, उनसे बादरनिगोदजीव अपर्याप्त असंख्येयगुण द्रव्यार्थतया, उनसे सूक्ष्मनिगोदजीव अपर्याप्त असंख्येयगुण द्रव्यार्थतया, उनसे सूक्ष्मनिगोदजीव पर्याप्त संख्येयगुण द्रव्यार्थतया, उनसे बादरनिगोदजीव पर्याप्त असंख्येयगुण प्रदेशार्थतया, उनसे बादरनिगोदजीव अपर्याप्त असंख्येयगुण प्रदेशार्थतया, उनसे सूक्ष्मनिगोदजोव अपर्याप्त असंख्येय गुण प्रदेशार्थतया, उनसे सूक्ष्म निगोदजीव पर्याप्त संख्येयगुण प्रदेशार्थतया, उनसे बादरनिगोद पर्याप्त अनंतगुण प्रदेशार्थतया, उनसे बादरनिगोद अपर्याप्त असंख्येयगुण प्रदेशार्थतया, उनसे सूक्ष्मनिगोद अपर्याप्त असंख्येयगुण प्रदेशार्थतया, उनसे सूक्ष्मनिगोद पर्याप्त संख्येयगुण प्रदेशार्थतया। उक्त रीति से निगोद और निगोदजीवों का सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त और अपर्याप्त का अल्पबहुत्व द्रव्यापेक्षया, प्रदेशापेक्षया और द्रव्य-प्रदेशापेक्षया बताया गया है। इस प्रकार छह प्रकार के संसारसमापनकों की पंचम प्रतिपत्ति पूर्ण हुई। Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तविधाख्या षष्ठ प्रतिपत्ति 225. तत्थ णं जेते एवमाहंसु--'सत्तविहा संसारसमावण्णगा जीवा' ते एवमाहंसु, तं जहानेरइया तिरिक्खा तिरिक्खजोणिणीमो मणुस्सा मणुस्सीओ देवा देवीओ। नेरइयस्स ठिई जहणणं दसवाससहस्साई, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं। तिरिक्खजोणियस्स जहणणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं तिणि पलिग्रोवमाइं, एवं तिरिक्खजोणिणोएवि, मणुस्साणवि, मणस्सीवि / देवाणं ठिई जहा रइयाणं, देवीणं जहण्णेणं दसवाससहस्साइं, उक्कोसेण पणपन्नपलिओवमाई। नेरइय-देव-देवीणं जाचेव ठिई साचेव संचिटणा / तिरिक्खनोणियाणं जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं अणंतकालं, तिरिक्खजोणिणोणं जहन्नेण अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाई पुव्वकोडिपुहुत्तमम्भहियाई / एवं मणुस्सस्स मणुस्सीएवि / णेरइयस्स अंतरं जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं वणस्सइकालो। एवं सव्वाणं तिरिक्खजोणियवज्जाणं / तिरिक्खजोणियाणं जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं सागरोवमसयपुहुत्तं सातिरेगं / अप्पाबहुयं-सव्वत्थोवाओ मणुस्सीमो, मणुस्सा असंखेज्जगुणा, नेरइया असंखेज्जगुणा, तिरिक्खजोगिणीओ असंखेज्जगुणाओ, देवा असंखेज्जगुणा, देवीओ संखेज्जगुणाओ, तिरिक्खजोणिया अणंतगुणा। सेत्तं सत्तविहा संसारसमावण्णगा जीवा / 225. जो ऐसा कहते हैं कि संसारसमापनकजीव सात प्रकार के हैं, उनके अनुसार वे सात प्रकार ये हैं -नैरयिक, तिर्यच, तिरश्चो (तिर्यस्त्री ), मनुष्य, मानुषी, देव और देवी। नैरयिक को स्थिति जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की है / तिर्यक्योनिक को जघन्य अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट तीन पल्योपम है / तिर्यस्त्री , मनुष्य और मनुष्यस्त्री को भी यही स्थिति है। देवों की स्थिति नैरयिक की तरह जानना चाहिये और देवियों की स्थिति जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट पचपन पल्योपम है। नैरयिक और देवों की तथा देवियों की जो भवस्थिति है, वही उनकी संचिट्ठणा (कायस्थिति) है। तिर्यंचों की जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट अनन्तकाल है। तिर्यस्त्रियों की संचिट्ठणा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम है। इसी प्रकार मनुष्यों और मनुष्यस्त्रियों को भी संचिट्ठणा जाननी चाहिए / Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 146] [जीवाजीवाभिगमसूत्र __ नैरयिकों का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल (अनन्तकाल) है। तिर्यक्योनिकों को छोड़कर सबका अन्तर उक्त प्रमाण ही कहना चाहिए / तिर्यक्योनिकों का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक सागरोपमशतपृथक्त्व है। अल्पबहुत्व—सबसे थोड़ी मानुषी स्त्रियां, उनसे मनुष्य असंख्यातगुण, उनसे नरयिक असंख्येयगुण, उनसे तिर्य स्त्रियां असंख्येयगुण, उनसे देव असंख्येयगुण, उनसे देवियां संख्यातगुण और उनसे तिर्यक्योनिक अनन्तगुण हैं। यह सप्तविधि संसारसमापनक प्रतिपत्ति समाप्त हुई। विवेचन-सप्तविधप्रतिपत्ति के अनुसार संसारसमापनक जीव सात प्रकार के हैं-नैरयिक, तिर्यक्योनिक, तिर्यस्त्रियां, मनुष्य, मानुषी स्त्रियां, देव और देवियां / इन सातों की स्थिति, संचिट्ठणा, अन्तर और अल्पबहुत्व इस सूत्र में प्रतिपादित है। स्थिति-नैरयिक की स्थिति जघन्य दसहजार वर्ष और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की है। तियंक्योनिक, तिर्यक्योनिकस्त्रियां, मनुष्य और मनुष्यस्त्रियां, इनकी जघन्यस्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीन पल्योपम है / देवों की स्थिति जघन्य दसहजार वर्ष और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम है। देवियों की स्थिति जघन्य दसहजार वर्ष और उत्कृष्ट पचपन पल्योपम की है / यह स्थिति अपरिगृहिता ईशानदेवियों की अपेक्षा से है संचिटणा नैरयिकों की, देवों की और देवियों की जो भवस्थिति है, वहीं उनकी संचिट्ठणाकायस्थिति जाननी चाहिए / क्योंकि नैरयिक और देव मरकर अनन्तरभव में नैरयिक या देव नहीं होते / तिर्यक्योनिकों की संचिट्ठणा जघन्य अन्तर्मुहूर्त ( इतने समय बाद अन्यत्र उत्पन्न होना संभव है) और उत्कृष्ट अनन्तकाल है / वह अनन्तकाल अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणीप्रमाण (कालमार्गणा की अपेक्षा से) है तथा क्षेत्रमार्गणा की अपेक्षा असंख्येय लोकाकाशप्रदेशों को प्रतिसमय एक-एक के अपहार करने पर जितने समय में वे खाली हों उतनाकाल समझना चाहिए तथा असंख्येयपुद्गलपरावर्तप्रमाण वह अनन्तकाल है। प्रावलिका के असंख्येयभाग में जितने समय हैं उतने वे पुद्गलपरावर्त जानना चाहिए। तिर्यंचस्त्रियों की संचिटणा (कायस्थिति) जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम है। निरन्तर पूर्वकोटि आयुष्यवाले सात भव और आठवें भव में देवकुरु आदि में उत्पन्न होने की अपेक्षा से है। मनुष्य और मनुष्यस्त्री सम्बन्धी कायस्थिति भी यही समझनी चाहिए / ___ अन्तर-नैरयिक का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त है। यह नरक से निकल कर तिर्यग् या मनुष्य गर्भ में अशुभ अध्यवसाय से मरकर नरक में उत्पन्न होने की अपेक्षा से समझना चाहिए। उत्कर्ष से अनन्तकाल है। यह अनन्तकाल वनस्पतिकाल समझना चाहिए। नरक से निकलकर अनन्तकाल वनस्पति में रहकर फिर नरक में उत्पन्न होने की अपेक्षा है। ___ तिर्यक्योनिक का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहर्त है और उत्कर्ष से साधिक सागरोपमशतपृथक्त्व (दो सौ से लेकर नौ सौ सागरोपम) है / तिर्यक्योनिकी, मनुष्य, मानुषी तथा देव, देवी सूत्र में जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल का अन्तर है।। Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तविधाख्या षष्ठ प्रतिपत्ति] [147 अल्पबहुत्व-सबसे थोड़ी मनुष्यस्त्रियां हैं, क्योंकि वे कतिपय कोटिकोटिप्रमाण हैं। उनसे मनुष्य असंख्येयगुण हैं, क्योंकि सम्मूछिम मनुष्य श्रेणी के असंख्येयप्रदेशराशिप्रमाण हैं / उनसे तिर्यंचस्त्रिया असंख्येयगुण हैं, क्योंकि महादण्डक में जलचर तिर्यक्योनिकियों से वान-व्यन्तर-ज्योतिष्क देव भी संख्येयगुण कहे गये हैं। उनसे देवियां असंख्येयगुण हैं, क्योंकि वे देवों से बत्तीस गुणी हैं। उनसे तिर्यंच अनन्तगुण हैं, क्योंकि वनस्पतिजीव अनन्त हैं / ' 00 // इति षष्ठ प्रतिपत्ति // 1. "बत्तीसगुणा बत्तीसरूव-अहियायो होंति देवाणं देवीमो" इति वचनात् / Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टविधाख्या सप्तम प्रतिपत्ति 226. तत्य णं जेते एवमाहंसु-'अटुविहा संसारसमावण्णगा जीवा' ते एवमाहंसुपढमसमयनेरइया, अपढमसमयनेरइया, पढमसमयतिरिक्खजोणिया, अपढमसमयतिरिक्खजोणिया, पढमसमयमणुस्सा, अपढमसमयमणुस्सा, पढमसमयदेवा, अपढमसमयदेवा / पढमसमयनेर इयस्स णं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं एक्कं समय, उक्कोसेणं एक्कं समयं / अपढमसमयनेरइयस्स जहन्नेणं दसवाससहस्साई समय-उणाई उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं समय-उणाई। पढमसमयतिरिक्खजोणियस्स जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं एक्कं समयं / अपढमसमयतिरिक्खजोणियस्स जहन्नेणं खुड्डागं भवग्गहणं समय-उणं, उक्कोसेणं तिण्णिपलिओवमाइं समय-उणाई। एवं मणुस्साणवि जहा तिरिक्खजोणियाणं / देवाणं जहा परइयाणं ठिई। णेरइय-देवाणं जा चेव ठिई सा चेव संचिट्ठणा दुविहाणवि / पढमसमयतिरिक्खजोणिए णं भंते / पढमसमयतिरिक्खजोणिएत्ति कालमो केवचिरं होई ? गोयमा ! जहन्नेणं एक्कं समयं उक्कोसेणवि एक्कं समयं / अपढमसमयतिरिक्खजोणियस्स जहन्नेणं खुड्डागं भवग्गहणं समय-ऊण, उक्कोसेणं वणस्सइकालो।। पढमसमयमणुस्साणं जहन्नेणं उक्कोसेण य एक्कं समयं / अपढमसमयमणुस्साणं जहन्नेणं खुड्डागं भवग्गहणं समय-ऊणं, उक्कोसेणं तिन्नि पलिग्रोवमाई पुवकोडिपुहुत्तमभहियाई समय-ऊणाई। 226. जो प्राचार्यादि ऐसा कहते हैं कि संसारसमापन्नक जीव आठ प्रकार के हैं, उनके अनुसार ये पाठ प्रकार इस तरह हैं—१. प्रथमसमयनैरयिक, 2 अप्रथमसमयनैरयिक, 3. प्रथमसमयतिर्यगयोनिक, 4. अप्रथमसमयतिर्यग्यो निक, 5. प्रथमसमयमनुष्य, 6. अप्रथमसमयमनुष्य, 7. प्रथमसमयदेव और 8. अप्रथमसमयदेव / स्थिति-भगवन् ! प्रथमसमयनै रयिक की स्थिति कितनी है ? गौतम ! जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट से भी एक समय / अप्रथमसमयनैरयिक की जघन्य स्थिति एक समय कम दस हजार वर्ष और उत्कर्ष से एक समय कम तेतीस सागरोपम की है। Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टविधाख्या सप्तम प्रतिपत्ति] [149 प्रथमसमयतिर्यग्योनिक की स्थिति जघन्य एक समय और उत्कृष्ट भी एक समय है। अप्रथमसमयतिर्यग्योनिक की जघन्य स्थिति एक समय कम क्षुल्लकभवग्रहण' है और उत्कृष्ट स्थिति एक समय कम तीन पल्योपम है / इसी प्रकार मनुष्यों की स्थिति तिर्यग्योनिकों के समान और देवों की स्थिति ने रयिकों के समान कहनी चाहिए। _नैरयिक और देवों की जो स्थिति है, वही दोनों प्रकार के (प्रथमसमय-अप्रथमसमय) नैरयिकों और देवों को कायस्थिति (संचिट्ठणा) है। भगवन् ! प्रथमसमयतिर्यग्योनिक उसी रूप में कितने समय तक रह सकता है ? गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कर्ष से भी एक समय तक रह सकता है। अप्रथमसमयतिर्यग्योनिक जघन्य से एक समय कम क्षुल्लक भव और उत्कृष्ट से वनस्पतिकाल तक रह सकता है। प्रथमसमयमनुष्य जघन्य और उत्कृष्ट से एक समय तक और अप्रथमसमयमनुष्य जघन्य से एक समय कम क्षुल्लकभवग्रहण पर्यन्त और उत्कर्ष से एक समय कम पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम तक रह सकता है। 227. अंतरं- पढमसमयणेरइयस्स जहन्नेणं दसवाससहस्साइं अंतोमुत्तमम्भहियाई, उक्कोसेणं वणस्सइकालो / अपढमसमयणेरइयस्स जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं वणस्सइकालो। पढमसमयतिरिक्खजोणिए जहण्णेणं दो खुड्डागभवग्गहणाई समय-उणाई, उक्कोसेणं वणस्सइकालो / अपढमसमयतिरिक्खजोणियस्स जहणणं खुड्डागभवग्गहणं समयाहियं उक्कोसेणं सागरोबमसयप्रहत्तं सातिरेगं / पढमसमयमणुस्सस्स जहण्णेणं दो खुड्डाई भवग्गहणाई समय-ऊणाई, उक्कोसेणं वणस्सइकालो। अपढमसमयमणुस्सस्स जहण्णेणं खुड्डागं भवग्गहणं समयाहियं, उक्कोसेणं वणस्सइकालो। देवाणं जहा णेरइयाणं जहणेणं दसवाससहस्साई अंतोमुत्तमब्भहियाई, उक्कोसेणं वणस्सइकालो। अपढमसमयदेवाणं जहणणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं वणस्सइकालो। अप्पाबहुयं-एतेसि णं भंते ! पढमसमयणेरइयाणं जाव पढमसमयदेवाण य कयरे कयरहितो अप्पा वा बहुया वा० ? गोयमा ! सव्वत्थोवा पढमसमयमणुस्सा, पढमसमयणेरइया प्रसंखेज्जगुणा, पढमसमयदेवा असंखेज्जगुणा, पढमसमयतिरिक्खजोणिया असंखेज्जगुणा, अपढमसमयनेरइयाणं जाव अपढमसमयदेवाणं एवं चेव अप्पाबहुयं, णरि अपडमसमयतिरिक्खजोणिया अणंतगुणा / एतेसि पढमसमयनेरइयाणं अपढमसमयणेरइयाण य कयरे कयरेहितो अप्पा० ? सव्वत्थोवा पढमसमयणरइया, अपतमसमयनरइया असखज्जगणा। एवं सम्वे / 1. 256 पावलिकाओं का क्षुल्लकभव होता है / Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेर 150] [जीवाजीवाभिगमसूत्र पढमसमयणेरइयाणं जाव अपढमसमयदेवाण य कयरे कयरहितो अप्पा वा ? सव्वत्थोवा पढमसमयमणुस्सा, अपढमसमयमणुस्सा असंखेज्जगुणा, पढमसमयणेरइया असंखेज्जगुणा, पढमसमयदेवा असंखेज्जगुणा, पढमसमयतिरिक्खजोणिया असंखेज्जगुणा, अपढमसमयनेरइया असंखेज्जगुणा, अपढमसमयदेवा असंखेज्जगुणा, अपढमसमयतिरिक्खजोणिया अणंतगुणा / सारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता। अट्टविहपडिवत्ती समत्ता। 227. अन्तरद्वार-प्रथमसमयनैरयिक का जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष है, उत्कृष्ट अन्तर वनस्पतिकाल है / अप्रथमसमयनैरयिक का जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है। प्रथमसमयतिर्यक्योनिक का जघन्य अन्तर एक समय कम दो क्षुल्लकभवग्रहण और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है। अप्रथमसमयतिर्यक्योनिक का जघन्य अन्तर समयाधिक एक क्षुल्लकभवग्रहण है और उत्कृष्ट सागरोपमशतपृथक्त्व से कुछ अधिक है। प्रथमसमयमनुष्य का जघन्य अन्तर एक समय कम दो क्षुल्लकभव है, उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है। अप्रथमसमयमनुष्य का अन्तर जघन्य समयाधिक क्षुल्लकभव है और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है। देवों के सम्बन्ध में नैरयिकों की तरह कहना चाहिए। जैसे कि प्रथमसमयदेव का जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल है। अप्रथमसमयदेव का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है। अल्पबहुत्वद्वार-भगवन् ! प्रथमसमयनैरयिकों यावत् प्रथमसमयदेवों में कौन किससे कम, अधिक, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े प्रथमसमयमनुष्य, उनसे प्रथमसमयनैरयिक असंख्येयगुण, उनसे प्रथमसमयदेव असंख्येयगुण, उनसे प्रथमसमयतिर्यक्योनिक असंख्येयगुण / अप्रथमसमयनैरयिकों यावत् अप्रथमसमयदेवों का अल्पबहुत्व उक्त क्रम से ही है, किन्तु अप्रथमसमयतिर्यक्योनिक अनन्तगुण कहने चाहिए। भगवन् ! प्रथमसमयनैरयिकों और अप्रथमसमयनैरयिकों में कौन किससे अल्पादि हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े प्रथमसमयनै रयिक, उनसे अप्रथमसमयनैरयिक असंख्येयगुण हैं / इसी प्रकार तिर्यक्योनिक, मनुष्य और देवों के प्रथमसमय और अप्रथमसमयों का अल्पबहुत्व कहना चाहिए। भगवन् ! प्रथमसमयनैरयिकों यावत् अप्रथमसमयदेवों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? __ गौतम ! सबसे थोड़े प्रथमसमयमनुष्य, उनसे अप्रथमसमयमनुष्य असंख्येयगुण, उनसे प्रथमसमयनैरयिक असंख्येयगुण, उनसे प्रथमसमयदेव असंख्येयगुण, उनसे प्रथमसमयतिर्यक्योनिक असंख्येय Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टविधाख्या सप्तम प्रतिपत्ति] [151 गुण, उनसे अप्रथमसमयनैरयिक असंख्येयगुण, उनसे अप्रथमसमयदेव असंख्येयगुण, उनसे अप्रथमसमय तिर्यक्योनिक अनन्तगुण। इस प्रकार आठ तरह के संसारसमापन्नक जीवों का वर्णन हुआ / अष्टविधप्रतिपत्ति नामक सातवी प्रतिपत्ति पूर्ण हुई। विवेचन-इस सप्तमप्रतिपत्ति में आठ प्रकार के संसारसमापन्नक जीवों का कथन है / नारक, तिर्यग्योनिक, मनुष्य और देव-इन चार के प्रथमसमय और अप्रथमसमय के रूप में दो-दो भेद किये गये हैं, इस प्रकार पाठ भेदों में सम्पूर्ण संसारसमापन्नक जीवों का समावेश किया है। जो अपने जन्म के प्रथमसमय में वर्तमान हैं, वे प्रथमसमयनारक आदि हैं। प्रथमसमय को छोड़कर शेष सब समयों में जो वर्तमान हैं, वे अप्रथमसमयनारक आदि हैं। इन आठों भेदों को लेकर स्थिति, संचिट्ठणा, अन्तर और अल्पबहुत्व का विचार किया गया है। प्रथमसमयनैरयिक को जघन्य और उत्कृष्ट भवस्थिति एक समय की है, क्योंकि द्वितीय आदि समयों में वह प्रथमसमय वाला नहीं रहता। अप्रथमसमयनैरयिक की जघन्यस्थिति एक समय कम दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट एकसमय कम तेतीस सागरोपम की है। तिर्यग्योनिकों में प्रथमसमय वालों की जघन्य उत्कर्ष स्थिति एक समय की और अप्रथमसमय वालों की जघन्य स्थिति एक समय कम क्षुल्लकभव और उत्कर्ष से एकसमय कम तीन पल्योपम है। इसी प्रकार मनुष्यों के विषय में सियंचों के समान और देवों के सम्बन्ध में नारकों के समान भवस्थिति जाननी चाहिए। ___ संचिढणा--देवों और नारकों की जो भवस्थिति है, वही उनकी कायस्थिति (संचिटणा) है, क्योंकि देव और नारक मरकर पुनः देव और नारक नहीं होते। प्रथमसमयतिर्यग्योनिकों की जघन्य संचिट्ठणा एकसमय की है और उत्कृष्ट से भी एक समय की है। क्योंकि तदनन्तर वह प्रथमसमय विशेषण वाला नहीं रहता / अप्रथमसमयतिर्यग्योनिक की जघन्य संचिट्ठणा एक समय कम क्षुल्लकभवग्रहण है, क्योंकि प्रथमसमय में वह अप्रथमसमय विशेषण वाला नहीं है, अत: वह प्रथमसमय कम करके कहा गया है। उत्कृष्ट से वनस्पतिकाल अर्थात् अनन्तकाल कहना चाहिए, जिसका स्पष्टीकरण पूर्व में कालमार्गणा और क्षेत्रमार्गणा से किया गया है। प्रथमसमयमनुष्यों की जघन्य, उत्कृष्ट संचिट्ठणा एकसमय की है और अप्रथमसमयमनुष्यों की जघन्य एकसमय कम क्षुल्लक भवग्रहण और उत्कृष्ट से पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम में एक समय कम संचिट्ठणा है / पूर्वकोटि आयुष्क वाले लगातार सात भव और आठवें भव में देवकुरु आदि में उत्पन्न होने की अपेक्षा से उक्त संचिठ्ठणाकाल जानना चाहिए। अन्तरद्वार-प्रथमसमयनरथिक का अन्तर जघन्य से अन्तमुहर्त अधिक दसहजार वर्ष है। यह दसहजार वर्ष की स्थिति वाले नैरयिक के नरक से निकलकर अन्तर्मुहुर्त कालपर्यन्त अन्यत्र रहकर फिर नरक में उत्पन्न होने की अपेक्षा से है / उत्कर्ष से अनन्तकाल है, जो नरक से निकलने के पश्चात् वनस्पति में अनन्तकाल तक उत्पन्न होने के पश्चात् पुनः नरक में उत्पन्न होने की अपेक्षा से है। अप्रथमसमयनरयिक का जघन्य अन्तर समयाधिक अन्तमुहर्त है। यह नरक से निकल कर तिर्यक्गर्भ में या मनुष्यगर्भ में अन्तर्मुहूर्त काल तक रहकर पुन: नरक में उत्पन्न होने की अपेक्षा से Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 152] [ जीवाजीवाभिगमसूत्र है। प्रथमसमय अधिक होने से समयाधिकता कही गई है। कहीं पर केवल अन्तर्मुहूर्त ही कहा गया है; इस कथन में प्रथम समय को भी अन्तर्मुहूर्त में हो सम्मिलित कर लिया गया है, अतः पृथक् नहों कहा गया है / उत्कर्ष से अन्तर वनस्पतिकाल है। प्रथमसमय तिर्यकयोनिक में जघन्य अन्तर एकसमय कम दो क्षल्लकभवग्रहण है। ये क्षुल्लक मनुष्य-भव ग्रहण के व्यवधान से पुनः तिर्यंचों में उत्पन्न होने की अपेक्षा से हैं। एकभव तो प्रथमसमय कम तिर्यक्-क्षुल्लकभव और दूसरा सम्पूर्ण मनुष्य का क्षुल्लकभवग्रहण है। उत्कर्ष से वनस्पतिकाल है। उसके व्यतीत होने पर मनुष्यभव व्यवधान से पुनः प्रथमसमयतिर्यंच के रूप में उत्पन्न होने की अपेक्षा है। अप्रथमसमयतिर्यग्योनिक का जघन्य अन्तर समयाधिक क्षुल्लकभवग्रहण है। यह तिर्यक्योनिक-क्षुल्लकभवग्रहण के चरम समय को अधिकृत अप्रथमसमय मानकर उसमें मरने के बाद मनुष्य का क्षुल्लकभवग्रहण और फिर तिर्यंच में उत्पन्न होने के प्रथम समय व्यतीत हो जाने की अपेक्षा जानना चाहिए / उत्कर्ष से साधिक सागरोपमशतपृथक्त्व है। देवादि भवों में इतने काल तक भ्रमण के पश्चात् पुनः तिर्यंच में उत्पन्न होने की अपेक्षा से है। __ मनुष्यों की वक्तव्यता तिर्यक्-वक्तव्यता के अनुसार ही है। केवल वहां व्यवधान तिर्यक्भव का कहना चाहिए। देवों का कथन नैरयिकों के समान ही है। अल्पबहुत्व प्रथम अल्पबहुत्व प्रथमसमयनरयिकों यावत् प्रथमसमयदेवों को लेकर कहा गया है / जो इस प्रकार है सबसे थोड़े प्रथमसमयमनुष्य हैं। ये श्रेणी के असंख्येययभाग में रहे हुए प्राकाश-प्रदेशतुल्य हैं। उनसे प्रथमसमयनैरयिक असंख्येयगुण हैं, क्योंकि एक समय में ये अतिप्रभूत उत्पन्न हो सकते हैं। उनसे प्रथमसमयदेव असंख्येय गुण हैं-व्यन्तर ज्योतिष्कदेव एकसमय में प्रतिप्रभूततर उत्पन्न हो सकते हैं। उनसे प्रथमसमयतिर्यंच असंख्येयगुण हैं। यहां नरकादि तीन गतियों से आकर तिर्यंच के प्रथमसमय में वर्तमान हैं, वे ही प्रथमसमयतिर्यंच हैं, शेष नहीं / अतः यद्यपि प्रतिनिगोद का असंख्येयभाग सदा विग्रहगति के प्रथमसमयवर्ती होता है, तो भी निगोदों के भी तिर्यकत्व होने से वे प्रथमसमयतिर्यंच नहीं हैं / वे इनसे संख्येयगुण ही हैं। दूसरा अल्पबहुत्व अप्रथमसमयनैरयिकों यावत् अप्रथमसमयदेवों को लेकर कहा गया है। वह इस प्रकार है सबसे थोड़े अप्रथमसमयमनुष्य हैं, क्योंकि ये श्रेणी के असंख्येयभागप्रमाण है / उनसे अप्रथमसमयनै रयिक असंख्येयगुण हैं, क्योंकि ये अंगुलमात्र क्षेत्र की प्रदेशराशि के प्रथमवर्गमूल में द्वितीयवर्गमूल का गुणा करने पर जितनी प्रदेशराशि होती है, उतनी श्रेणियों में जितने आकाशप्रदेश हैं, उनके बराबर वे हैं। उनसे अप्रथमसमयदेव असंख्येयगुण हैं, क्योंकि व्यन्तर ज्योतिष्कदेव भी अतिप्रभूत हैं / उनसे अप्रथमसमय तिर्यंच अनन्तगुण हैं, क्योंकि वनस्पतिकाय अनन्त हैं। तीसरा अल्पबहुत्व प्रत्येक नरथिकादिकों में प्रथमसमय और अप्रथमसमय को लेकर है। वह इस प्रकार है---सबसे थोड़े प्रथमसमयनैरयिक हैं, क्योंकि एकसमय में संख्यातीत उत्पन्न होने पर भी Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टविधाख्या सप्तम प्रतिपत्ति] [153 स्तोक ही हैं / उनसे अप्रथमसमयनै रयिक असंख्येयगुण हैं, क्योंकि यह चिरकाल-स्थायी होने से अन्यअन्य बहुत समयों में अतिप्रभूत उत्पन्न होते हैं। इस तरह तिर्यकयोनिक, मनुष्य और देवों में भी कहना चाहिए। विशेषता यह है कि तिर्यक्योनिकों में अप्रथमसमयतिर्यग्योनिक अनन्तगुण कहने चाहिए, क्योंकि वनस्पतिजीव अनन्त हैं। चौथा अल्पबहुत्व प्रथमसमय और अप्रथमसमय नारकादि का समुदितरूप में कहा गया है। सबसे थोड़े प्रथमसमयमनुष्य हैं, क्योंकि एक समय में संख्यातीत उत्पन्न होने पर भी स्तोक ही हैं / उनसे अप्रथमसमयमनुष्य असंख्येयगुण हैं, क्योंकि चिरकालस्थायी होने से वे अतिप्रभूत उपलब्ध होते हैं / उनसे प्रथमसमयनैरयिक असंख्येयगुण हैं, एक समय में अतिप्रभूत उत्पन्न होने से। उनसे प्रथमसमयदेव असंख्येयगुण हैं व्यन्तर ज्योतिष्कों में प्रभूत उत्पन्न होने से / उनसे प्रथमसमयतिर्यग्योनिक असंख्येयगुण है, क्योंकि नारकादि तीनों गतियों से आकर जीवों की उत्पत्ति होती रहती है। उनसे अप्रथमसमयनैरयिक असंख्येयगण हैं, क्योंकि वे अंगलमात्रक्षेत्रप्रदेश वर्गमूल में द्वितीय वर्गमूल का गुणा करने पर जो प्रदेशराशि होती है, उतनी श्रेणियों में जितनी प्रदेशराशि है, उसके तुल्य हैं। उनसे अप्रथमसमयतिर्यग्योनिक अनन्तगुण हैं, क्योंकि वनस्पतिजीव अनन्त हैं। इस प्रकार अष्टविधसंसारसमापन्नकजीवों का कथन करने वाली सप्तम प्रतिप // इति सप्तम प्रतिपत्ति // Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवविधारया अष्टम प्रतिपत्ति 228. तत्थ णं जेते एवमाहंसु-'णवविहा संसारसमावण्णमा जीवा' ते एवमाहंसु-पुढविक्काइया, आउक्काइया, तेउक्काइया, वाउक्काइया, वणस्सइकाइया, बेइंदिया, तेइंदिया, चरिदिया, पंचिदिया। ठिई सब्वेसि भाणियव्वा / ____ पुढवीक्काइयाणं संचिट्ठणा पुढबिकालो जाव वाउक्काइयाणं / वणस्सइकाइयाणं वणस्सइ कालो। बेइंदिया तेइंदिया चरिदिया संखेज्ज कालं / पंचिदियाण सागरोवमसहस्सं साइरेगं / अंतरं सव्वेसि अणंतकालं / वणस्सइकाइयाणं असंखेज्जकालं। अप्पाबहुगं सम्वत्थोवा पंचिदिया, चउरिदिया विसेसाहिया, तेइंदिया विसेसाहिया, बेइंदिया विसेसाहिया, तेउक्काइया असंखेज्जगुणा, पुढविकाइया पाउकाइया वाउकाइया विसेसाहिया, वणस्सइकाइया अणंतगुणा। सेत्तं णवविधा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता। गवविहपडिवत्ति समत्ता। 228. जो नौ प्रकार के संसारसमापन्नक जीवों का कथन करते हैं, वे ऐसा कहते हैं-- 1. पृथ्वीकायिक, 2. अप्कायिक, 3. तेजस्कायिक, 4. वायुकायिक, 5. वनस्पतिकायिक, 6. द्वीन्द्रिय, 7. श्रीन्द्रिय, 8, चतुरिन्द्रिय और 9. पंचेन्द्रिय / सबकी स्थिति कहनी चाहिए। पृथ्वीकायिकों की संचिट्ठणा पृथ्वीकाल है, इसी तरह वायुकाय पर्यन्त कहना चाहिए। वनस्पतिकाय की संचिट्ठणा अनन्तकाल (वनस्पतिकाल) है। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय की संचिट्ठणा संख्येय काल है और पंचेन्द्रियों की संचिट्ठणा साधिक हजार सागरोपम है। ___ सबका अन्तर अनन्तकाल है। केवल वनस्पतिकायिकों का अन्तर असंख्येय काल है / अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े पंचेन्द्रिय हैं, उनसे चतुरिन्द्रिय विशेषाधिक हैं, उनसे त्रीन्द्रिय विशेषाधिक हैं, उनसे द्वीन्द्रिय विशेषाधिक हैं, उनसे तेजस्कायिक असंख्येयगुण हैं, उनसे पृथ्वीकायिक, अपकायिक, वायुकायिक क्रमशः विशेषाधिक हैं और उनसे वनस्पतिकायिक अनन्तगुण हैं / इस तरह नवविध संसारसमापन्नकों का कथन पूरा हुआ। नवविध प्रतिपत्ति नामक अष्टमी प्रतिपत्ति पूर्ण हुई। Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवविधाल्या अष्टम प्रतिपत्ति [ 155 विवेचन-जो नौ प्रकार के ससारसमापनकों का प्रतिपादन करते हैं, उनके मन्तव्य के अनुसार वे नौ प्रकार हैं-१. पृथ्वीकायिक, 2. अपकायिक, 3. तेजस्कायिक, 4. वायुकायिक, 5. वनस्पतिकायिक, 6. द्वोन्द्रिय, 7. श्रीन्द्रिय, 8. चतुरिन्द्रिय और 9. पंचेन्द्रिय / स्थिति- इनकी स्थिति इस प्रकार है-सबकी जघन्यस्थिति अन्तर्मुहुर्त है और उत्कृष्टस्थिति में पृथ्वीकाय की बावीस हजार वर्ष, अप्काय की सात हजार वर्ष, तेजस्काय की तीन अहोरात्र, वायुकायिक को तीन हजार वर्ष, वनस्पतिकायिकों की दस हजार वर्ष, द्वीन्द्रिय की बारह वर्ष, त्रीन्द्रिय की 49 दिन, चतुरिन्द्रिय की छह मास और पंचेन्द्रिय को तेतीस सागरोपम है। संचिठ्ठणा-इन सबकी जघन्य संचिट्ठणा (कायस्थिति) अन्तर्मुहूर्त है / उत्कर्ष से पृथ्वीकाय को असंख्येयकाल (जिसमें असंख्येय उत्सपिणियां अवसपिणियां कालमार्गणा से समाविष्ट हैं तथा क्षेत्रमार्गणा से असंख्येय लोकाकाशों के प्रदेशों के अपहारकालप्रमाण काल समाविष्ट है।) इसी तरह अप्कायिकों, तेजस्कायिकों और वायुकायिकों की भी यही संचिट्ठणा कहनी चाहिए / वनस्पतिकाय को संचिठ्ठणा अनन्तकाल है / इस अनन्तकाल में अनन्त उत्सपिणियां अवपिणियां समाविष्ट हैं तथा क्षेत्र से अनन्तलोकों के आकाशप्रदेशों का अपहारकाल तथा असंख्येयपुद्गलपरावर्त समाविष्ट हैं। पुद्गलपरावर्तों का प्रमाण आवलिका के असंख्येयभागवर्ती समयों के बराबर है / द्वीन्द्रिय की संचिट्ठणा संख्येयकाल है। श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय की संचिठ्ठणा भी संख्येयकाल है। पंचेन्द्रिय की संचिट्ठणा साधिक हजार सागरोपम है। अन्तरद्वार-पृथ्वीकायिक का जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कर्ष से अनन्तकाल है / अनन्तकाल का प्रमाण पूर्ववत् जानना चाहिए / पृथ्वीकाय से निकलकर बनस्पति में अनन्तकाल रहने के पश्चात पुनः पुथ्वीकाय में उत्पन्न होने की अपेक्षा से है। इसी प्रकार अपकाय. तेजस्व द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रय और पंचेन्द्रियों का भी अन्तर जानना चाहिए / वनस्पतिकाय का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कर्ष से असंख्येयकाल है। यह असंख्येयकाल असंख्यात उत्सर्पिणीअवसर्पिणी रूप आदि पूर्ववत् जानना चाहिए। अल्पबहुत्वद्वार--सबसे थोड़े पंचेन्द्रिय हैं। क्योंकि ये संख्येय योजन कोटी-कोटी प्रमाण विष्कभसूची से प्रतरासंख्येय भागवर्ती असंख्येय श्रेणीगत आकाशप्रदेशराशि के बराबर हैं / उनसे चतुरिन्द्रिय विशेषाधिक हैं, क्योंकि इनकी विष्कंभसूची प्रभूत संख्येययोजन कोटाकोटी प्रमाण है। उनसे त्रीन्द्रिय विशेषाधिक हैं, क्योंकि इनकी विष्कंभसूची प्रभूततर संख्येययोजन कोटाकोटी प्रमाण है / उनसे द्वीन्द्रिय विशेषाधिक हैं, क्योंकि इनकी विष्कंभसूची प्रभूततम संख्येययोजन कोटाकोटी प्रमाण है। उनसे तेजस्कायिक असंख्येयगुण हैं, क्योंकि ये असंख्येय लोकाकाशप्रदेश प्रमाण हैं। उनसे पृथ्वीकायिक विशेषाधिक हैं, क्योंकि ये प्रभूतासंख्येय लोकाकाशप्रदेश प्रमाण हैं / उनसे अप्कायिक विशेषाधिक हैं, क्योंकि प्रभूततरासंख्येय लोकाकाशप्रदेश प्रमाण हैं। उनसे वायुकायिक विशेषाधिक हैं, क्योंकि ये प्रभूततमासंख्येय लोकाकाशप्रदेश प्रमाण हैं। उनसे बनस्पतिकायिक अनन्तगुण हैं, क्योंकि ये अनन्त लोकाकाशप्रदेश प्रमाण हैं / // इति नवविधप्रतिपत्तिरूपा अष्टमी प्रतिपत्ति // Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशविधाख्या नवम प्रतिपत्ति 229. तत्थ णं जेते एवमाहंसु 'दसविहा संसारसमावण्णगा जीवा' ते एक्माहंसु, तं जहा-- 1. पढमसमयएगिदिया 2. अपढमसमयएगिदिया 3. पढमसमयबेइंदिया 4. अपढमसमयबेइंदिया 5. पढमसमयतेहंदिया 6. अपढमसमयतेइंदिया 7. पढमसमयचउरिदिया . अपढमसमयचरिदिया 9. पढमसमयपचिदिया। 10. अपढमसमयचिदिया। पढमसमयएगिदियस्स णं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णता? गोयमा ! जहण्णेणं एक्क समयं, उक्कोसेणवि एक्कं समयं / अपढमसमयएगिदियस्स जहण्णेणं खुड्डागं भवग्गहणं समय-ऊणं, उक्कोसेणं बावीसंवाससहस्साई समय-ऊणाई। एवं सव्वेसि पढमसमयिकाणं जहणणं एवको समायो, उक्कोसेणं एक्को समओ। अपढमसमयिकाणं जहण्णणं खुड्डागं भवग्गहणं समय-ऊणं, उक्कोसेणं जा जस्स ठिई सा समय-ऊणा जाव पंचिदियाणं तेत्तीसं सागरोवमाइं समय-ऊणाई। संचिट्ठणा पढमसमइयस्स जहण्णणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं एक्कं समयं / अपढमसमयिकाणं जहण्णणं खुड्डागं भवग्गहणं समय-ऊणं, उक्कोसेणं एगिदियाणं वणस्सइकालो। बेइंदिय-तेइंदिय-चरिदियाणं संखेज्जकालं / पंचेंदियाणं सागरोवमसहस्सं सातिरेगं / 229. जो आचार्यादि दस प्रकार के संसारसमापनक जीवों का प्रतिपादन करते हैं, वे उन जीवों के दस प्रकार इस तरह कहते हैं१. प्रथमसमयएकेन्द्रिय 2. अप्रथमसमयएकेन्द्रिय 3. प्रथमसमयद्वीन्द्रिय 4. अप्रथमसमयद्वीन्द्रिय 5. प्रथमसमयत्रीन्द्रिय 6. अप्रथमसमय त्रीन्द्रिय 7. प्रथमसमयचतुरिन्द्रिय 8. अप्रथमसमयचतुरिन्द्रिय 9. प्रथमसमयपंचेन्द्रिय 10. अप्रथमसमयपंचेन्द्रिय / भगवन् ! प्रथमसमयएकेन्द्रिय की स्थिति कितनी है ? गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट भी एक समय है। अप्रथमसमयएकेन्द्रिय की जघन्य एक समय कम क्षुल्लक-भवग्रहण और उत्कर्ष से एक समय कम बावीस हजार वर्ष / इस प्रकार सब प्रथमसमयिकों की जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से भी एक समय की स्थिति कहनी चाहिए। अप्रथमसमय वालों की स्थिति जघन्य से एक समय कम क्षुल्लकभव और उत्कर्ष से जिसकी जो स्थिति कही गई है, उसमें एक समय कम करके कथन करना चाहिए यावत् पंचेन्द्रिय की एकसमय कम तेतीस सागरोपम की स्थिति है। Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशविधाख्या नवम प्रतिपत्ति [157 प्रथमसमयवालों की संचिटणा (कायस्थिति) जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से भी एक समय है / अप्रथमसमयवालों की जघन्य से एक समय कम क्षुल्लकभवग्रहण और उत्कर्ष से एकेन्द्रियों की वनस्पतिकाल और द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रियों की संखेयकाल एवं पंचेन्द्रियों की साधिक हजार सागरोपम पर्यन्त संचिट्ठणा (कायस्थिति) है। 230. पढमसमयएगिबियाणं केवइयं अंतर होइ ? गोयमा ! जहण्णेणं दो खुड्डागभवग्गहणाई समय-ऊणाई, उक्कोसेणं वणस्सइकालो। अपढमसमयएगिदियाणं अंतरं जहण्णेणं खुड्डागभवग्गहणं समयाहियं, उक्कोसेणं दो सागरोवमसहस्साइं संखेज्जवासमन्भहियाई। _सेसाणं सब्वेसि पढमसमयिकाणं अंतरं जहणणं दो खुड्डाइं भवग्गहणाई समय-ऊणाई, उक्कोसेणं वणस्सइकालो / अपढमसमयिकाणं सेसाणं जहण्णणं खड्डागं भवग्गहणं समयाहियं उक्कोसेणं वणस्सइकालो। पढमसमयाणं सब्वेसि सम्वत्थोवा पढमसमयपंचेंदिया, पढमसमयचरिदिया विसेसाहिया, पढमसमयतेइंदिया विसेसाहिसा, पढमसमयबेइंदिया विसेसाहिया, पढमसमयएगिदिया विसेसाहिया। एवं अपढमसमयिकाविणारं अपढमसमयएगिदिया अणंतगुणा। दोण्हं अप्पवयं-सव्यस्थोवा पढमसमयएगिदिया, अपढमसमयएगिदिया अणंतगुणा / सेसाणं सम्वत्थोवा पढमसमयिका, अपढमसमयिका असंखेज्जगुणा / एएसि णं भंते ! पढमसमयएगिदियाणं अपढमसमयएगिदियाणं जाव अपढमसमयचिदियाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा, बहुमावा, तुल्ला वा, विसेसाहिया वा? गोयमा ! सम्वत्थोवा पलमसमयचिदिया, पढमसमयचरिदिया विसेसाहिया, पढमसमयतेईदिया विसेसाहिया एवं हेट्ठामुहा जाव पढमसमयएगिदिया विसेसाहिया, अपढमसमयपंचिदिया असंखेज्जगुणा, अपढमसमयचरिदिया विसेसाहिया जाव अपढमसमयएगिदिया अणंतगुणा / सेत्तं वसविहा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता। सेत्तं संसारसमावण्णगजीवाभिगमे। 230. भगवन् ! प्रथमसमयएकेन्द्रियों का अन्तर कितना होता है ? गौतम ! जघन्य से समय कम दो क्षुल्लकभवग्रहण और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है / अप्रथमसमयएकेन्द्रिय का जघन्य अन्तर एकसमय अधिक एक क्षुल्लकभव है और उत्कर्ष से संख्यात वर्ष अधिक दो हजार सागरोपम है। शेष सब प्रथमसमयिकों का अन्तर जघन्य से एक समय कम दो क्षुल्लकभवग्रहण है और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल है / शेष अप्रथमसमयिकों का जघन्य अन्तर समयाधिक एक क्षुल्लकभवग्रहण है और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल है। सब प्रथमसमयिकों में सबसे थोड़े प्रथमसमय पंचेन्द्रिय हैं, उनसे प्रथमसमयचतुरिन्द्रिय विशेषाधिक हैं, उनसे प्रथमसमयत्रीन्द्रिय विशेषाधिक हैं, उनसे प्रथमसमयद्वीन्द्रिय विशेषाधिक हैं और उनसे प्रथमसमयएकेन्द्रिय विशेषाधिक हैं। इसी प्रकार अप्रथमसमयिकों का अल्पबहुत्व भी जानना चाहिए। विशेषता यह है कि अप्रथमसमयएकेन्द्रिय अनन्तगुण हैं। Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 158 जीवाजीवाभिगमसत्र दोनों का अल्पबहुत्व-सबसे थोड़े प्रथमसमयएकेन्द्रिय, उनसे अप्रथमसमयएकेन्द्रिय अनन्तगुण हैं। शेष में सबसे थोड़े प्रथमसमय वाले हैं और अप्रथमसमय वाले असंख्येयगुण हैं / भगवन् ! इन प्रथमसमयएकेन्द्रिय, अप्रथमसमयएकेन्द्रिय यावत् अप्रथमसमयपंचेन्द्रियों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े प्रथमसमयपंचेन्द्रिय, उनसे प्रथमसमय चतुरिन्द्रिय विशेषाधिक, उनसे प्रथमसमयत्रीन्द्रिय विशेषाधिक, उनसे प्रथमसमयद्वीन्द्रिय विशेषाधिक, उनसे प्रथमसमयएकेन्द्रिय विशेषाधिक, उनसे अप्रथमसमयपंचेन्द्रिय असंख्येयगुण, उनसे अप्रथमसमयचतुरिन्द्रिय विशेषाधिक, उनसे अप्रथमसमयत्रीन्द्रिय विशेषाधिक, उनसे अप्रथमसमयद्वीन्द्रिय विशेषाधिक, उनसे अप्रथमसमय एकेन्द्रिय अनन्तगुण हैं। इस प्रकार दस प्रकार के संसारसमापन्नक जीवों का कथन पूर्ण हुअा। इस प्रकार संसारसमापन्नकजीवाभिगम का वर्णन पूरा हुआ। विवेचन--प्रस्तुत प्रतिपत्ति में संसारसमापन्नक जीवों के दस भेद कहे गये हैं, जो एकेन्द्रिय से लगाकर पंचेन्द्रियों के प्रथमसमय और अप्रथमसमय रूप में दो-दो भेद करने पर प्राप्त होते हैं / प्रथमसमयएकेन्द्रिय वे हैं जो एकेन्द्रियत्व के प्रथमसमय में वर्तमान हैं, शेष एकेन्द्रिय अप्रथमसमयएकेन्द्रिय हैं / इसी तरह द्वीन्द्रियादि के सम्बन्ध में भी जानना चाहिए / उक्त दसों की स्थिति, संचिट्ठणा, अन्तर और अल्पबहुत्व इस प्रतिपत्ति में प्रतिपादित है। स्थिति-प्रथमसमयएकेन्द्रिय की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति एक समय की है, क्योंकि दूसरे समयों में वह प्रथमसमय वाला नहीं रहता / इसी प्रकार प्रथमसमय वाले द्वीन्द्रियों आदि के विषय में भी समझ लेना चाहिए / अप्रथमसमयएकेन्द्रिय की स्थिति जघन्य से एक समय कम क्षुल्लकभव (256 श्रावलिका-प्रमाण) है। एकसमय कम कहने का तात्पर्य यह है कि प्रथमसमय में वह अप्रथमसमय वाला नहीं है / उत्कर्ष में एक समय कम बावीस हजार वर्ष की स्थिति है। अप्रथमसमयद्वीन्द्रिय में जघन्यस्थिति समयकम क्षुल्लकभवग्रहण और उत्कृष्ट समयकम बारह वर्ष, अप्रथमसमयत्रीन्द्रियों की जघन्यस्थिति समय कम क्षुल्लकभव और उत्कृष्ट समयकम 49 अहोरात्र है / अप्रथमसमयचतुरिन्द्रिय को जघन्य स्थिति समयोन क्षुल्लकभव और उत्कृष्ट समयोन छहमास है / अप्रथमसमयपंचेन्द्रियों की जघन्य स्थिति समयोन क्षुल्लकभव और उत्कृष्ट समयोन तेतीस सागरोपम है। सर्वत्र समयोनता प्रथमसमय से हीन समझना चाहिए। संचिट्ठणा (कायस्थिति)--प्रथमसमयएकेन्द्रिय उसी रूप में एक समय तक रहता है। इसके बाद वह प्रथमसमय वाला नहीं रहता। इसी तरह प्रथमसमयद्वीन्द्रियादि के विषय में भी समझना चाहिए / अप्रथमसमयएकेन्द्रिय जघन्य से एक समय कम क्षुल्लकभवग्रहण तक रहता है। फिर अन्यत्र कहीं उत्पन्न हो सकता है / उत्कर्ष से अनन्तकाल तक रहता है। अनन्तकाल का स्पष्टीकरण पूर्ववत् अनन्त अवसर्पिणी-उत्सर्पिणीकाल पर्यन्त आदि जानना चाहिए। अप्रथमसमयद्वीन्द्रिय जघन्य समयोन क्षुल्लकभव, उत्कर्ष से संख्येयकाल तक रहता है, फिर अवश्य अन्यत्र उत्पन्न होता है। इसी तरह अप्रथमसमयत्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय के लिए भी समझना चाहिए। Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशविधाख्या नवम प्रतिपत्ति] [159 अप्रथमसमयपंचेन्द्रिय जघन्य से समयोन क्षुल्लकभव और उत्कर्ष से साधिक हजार सागरोपम तक रहता है, क्योंकि देवादिभवों में लगातार परिभ्रमण करते हुए उत्कर्ष से इतने काल तक ही पंचेन्द्रिय के रूप में रह सकता है। ___ अन्तरद्वार-प्रथमसमयएकेन्द्रिय का अन्तर जघन्य से समयोन दो क्षुल्लकभव है / वे क्षुल्लकभव द्वीन्द्रियादि भवग्रहण के व्यवधान से पुनः एकेन्द्रिय में उत्पन्न होने की अपेक्षा से हैं / जैसे कि एक भव तो प्रथमसमय कम एकेन्द्रिय का क्षुल्लकभव और दूसरा भव द्वोन्द्रियादि का सम्पूर्ण क्षुल्लकभव, इस तरह समयोन दो क्षुल्लकभव जानने चाहिए / उत्कर्ष से वनस्पतिकाल-अनन्तकाल है, जिसका स्पष्टीकरण पूर्व में बताया जा चुका है। इतने काल तक वह अप्रथमसमय है , प्रथमसमय नहीं। क्योंकि द्वीन्द्रियादि में क्षुल्लकभव के रूप में रहकर फिर एकेन्द्रिय रूप में उत्पन्न होने पर प्रथमसमय में प्रथमसमयएकेन्द्रिय कहा जाता है। अतः उत्कृष्ट अन्तर वनस्पतिकाल कहा गया है। अप्रथमसमयएकेन्द्रिय का जघन्य अन्तर समयाधिक क्षुल्लकभवग्रहण है / उस एकेन्द्रियभवगत चरमसमय को अधिक अप्रथमसमय मानकर उसमें मरकर द्वीन्द्रियादिक्षल्लकभवग्रहण का व्यवधान होने पर फिर एकेन्द्रिय रूप में उत्पन्न होने का प्रथमसमय बीत जाने पर प्राप्त होता है / इतने काल का अप्रथमसमयएकेन्द्रिय का अन्तर प्राप्त होता है। उत्कर्ष से संख्येयवर्ष अधिक दो हजार सागरोपम का अन्तर हो सकता है / द्वीन्द्रियादि भवभ्रमण लगातार इतने काल तक ही सम्भव है। प्रथमसमयद्वीन्द्रिय का जघन्य अन्तर समयोन दो क्षुल्लकभवग्रहण है। एक तो प्रथमसमयहीन द्वीन्द्रिय का क्षुल्लकभव और दूसरा सम्पूर्ण एकेन्द्रिय-त्रीन्द्रियादि का कोई भी क्षुल्लकभवग्रहण है / इसी प्रकार प्रथमसमयत्रीन्द्रिय, प्रथमसमयचतरिन्द्रिय और प्रथमसमयपंचेन्द्रियों का अन्तर भी जानना चाहिए। ___अप्रथमसमयद्वीन्द्रिय का जघन्य अन्तर समयाधिक क्षुल्लकभवग्रहण है। वह अन्यत्र क्षुल्लक / भव पर्यन्त रहकर पुनः द्वीन्द्रिय के रूप में उत्पन्न होने का प्रथमसमय बीत जाने पर प्राप्त होता है / उत्कर्ष से अनन्तकाल का अन्तर है / यह अनन्तकाल पूर्वकत् अनन्त उत्सर्पिणी-प्रवसर्पिणियों का होता है प्रादि कथन करना चाहिए। द्वीन्द्रियभव से निकल कर इतने काल तक वनस्पति में रहकर पुन: द्वीन्द्रिय रूप में उत्पन्न होने से प्रथमसमय बीत जाने के पश्चात यह अन्तर प्राप्त होता अप्रथमसमय त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय का जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर समझना चाहिए। अल्पबहुत्वद्वार-पहला अल्पबहुत्व प्रथमसमयिकों को लेकर कहा गया है। वह इस प्रकार है सबसे थोड़े प्रथमसमयपंचेन्द्रिय हैं, क्योंकि वे एक समय में थोड़े ही उत्पन्न होते हैं। उनसे प्रथमसमयचतुरिन्द्रिय विशेषाधिक हैं, क्योंकि वे एकसमय में प्रभूत उत्पन्न होते हैं / उनसे प्रथमसमयश्रीन्द्रिय विशेषाधिक हैं, क्योंकि वे एकसमय में प्रभूततर उत्पन्न होते हैं। उनसे प्रथमसमयद्वीन्द्रिय विशेषाधिक हैं, क्योंकि वे एक समय में प्रभूततम उत्पन्न होते हैं / उनसे प्रथमसमयएकेन्द्रिय विशेषाधिक हैं / यहां जो द्वीन्द्रियादि से निकलकर एकेन्द्रिय रूप में उत्पन्न होते हैं और प्रथमसमय में वर्तमान हैं वे ही प्रथमसमयएकेन्द्रिय जानना चाहिए, अन्य नहीं / वे प्रथमसमयद्वीन्द्रियों से विशेषाधिक ही हैं, असंख्येय या अनन्तगुण नहीं। Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 160] [जीवाजीवाभिगमसूत्र दूसरा अल्पबहुत्व अप्रथमसमयिकों का लेकर कहा गया है / वह इस प्रकार है सबसे थोड़े अप्रथमसमयपंचेन्द्रिय, उनसे अप्रथमसमयचतुरिन्द्रिय विशेषाधिक, उनसे अप्रथमसमयत्रीन्द्रिय विशेषाधिक, उनसे अप्रथमसमयद्वीन्द्रिय विशेषाधिक, उनसे अप्रथमसमयएकेन्द्रिय अनन्तगुण हैं। तीसरा अल्पबहुत्व प्रत्येक एकेन्द्रियादि में प्रथमसमय वालों और अप्रथमसमय वालों की अपेक्षा से है / वह इस प्रकार है सबसे थोड़े प्रथमसमयएकेन्द्रिय हैं, क्योंकि द्वीन्द्रियादि से आकर एक समय में थोड़े ही उत्पन्न होते हैं / उनसे अप्रथमसमयएकेन्द्रिय अनन्तगुण हैं, क्योंकि वनस्पतिकाल अनन्त है / द्वीन्द्रियों में सबसे थोड़े प्रथमसमयद्वीन्द्रिय हैं, उनसे अप्रथमसमयद्वीन्द्रिय असंख्येयगुण हैं, क्योंकि द्वीन्द्रिय सब संख्या से भी असंख्यात ही हैं / इसी प्रकार त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, और पंचेन्द्रियों में भी प्रथमसमय वाले कम हैं और अप्रथमसमय वाले असं चौथा अल्पबहुत्व उक्त दस भेदों की अपेक्षा से कहा गया है / वह इस प्रकार है सबसे थोड़े प्रथमसमयपंचेन्द्रिय, उनसे प्रथमसमयचतुरिन्द्रिय विशेषाधिक, उनसे प्रथमसमयश्रीन्द्रिय विशेषाधिक, उनसे प्रथमसमयद्वीन्द्रिय विशेषाधिक, उनसे प्रथमसमयएकेन्द्रिय विशेषाधिक, उनसे अप्रथमसमयपंचेन्द्रिय असंख्येयगुण, उनसे अप्रथमसमयचतुरिन्द्रिय विशेषाधिक, उनसे अप्रथमसमयत्रीन्द्रिय विशेषाधिक, उनसे अप्रथमसमयद्वीन्द्रिय विशेषाधिक, उनसे अप्रथमसमयएकेन्द्रिय अनन्तगुण हैं। युक्ति स्पष्ट ही है। इस प्रकार दसविधि प्रतिपत्ति पूर्ण हुई। उसके पूर्ण होने से संसारसमापनक जीवाभिगम भी पूर्ण हुआ। 00 Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वजीताभिगम सर्वजीव-द्विविधवक्तव्यता संसारसमापन्नक जीवों की दस प्रकार की प्रतिपत्तियों का प्रतिपादन करने के पश्चात् अब सर्वजोवाभिगम का कथन किया जा रहा है। इस सवंजोवाभिगम में संसारसमापन्नक और असंसारसमापन्नक-दोनों को लेकर प्रतिपादन किया गया है। 231. से कि तं सव्वजीवाभिगमे ? सव्वजीवेसु णं इमाओ णव पडिवत्तीओ एवमाहिति / एगे एवमाहंसु-दुविहा सव्वजोवा पण्णत्ता जाव दसविहा सव्वजोवा पण्णत्ता। तत्य णं जे ते एवमाहंसु-दुविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, ते एवमाहंसु, तं जहा--सिद्धा य असिद्धा य / सिद्ध गं भंते ! सिद्धत्ति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! साइ-अपज्जवसिए। असिद्ध णं भंते ! असिद्धत्ति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! असिद्धे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा–प्रणाइए वा अपज्जवसिए, प्रणाइए वा सपज्जवसिए। सिद्धस्स णं भंते ! केवइकालं अंतरं होइ? गोयमा ! साइयस्स अपज्जवसियस्स णत्थि अंतरं / असिद्ध णं भंते ! केवइयं अंतर होइ ? गोयमा ! प्रणाइयस्स अपज्जवसियस्स पत्थि अंतरं / अणाइयस्स सपज्जवसियस्स पत्थि . अंतरं। एएसि णं भंते ! सिद्धाणं असिद्धाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा० ? गोयमा ! सव्वत्थोवा सिद्धा, असिद्धा अणंतगुणा / 231. भगवन् ! सर्वजीवाभिगम क्या है ? गौतम ! सर्वजीवाभिगम में नौ प्रतिपत्तियां कही हैं। उनमें कोई ऐसा कहते हैं कि सब जोव दो प्रकार के हैं यावत् दस प्रकार के हैं / जो दो प्रकार के सब जीव कहते हैं, वे ऐसा कहते हैं, यथा~सिद्ध और प्रसिद्ध / भगवन् ! सिद्ध, सिद्ध के रूप में कितने समय तक रह सकता है ? गौतम ! सिद्ध सादिअपर्यवसित है, (अतः सदाकाल सिद्धरूप में रहता है।) Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 162] [जीवाजीवाभिगमसूत्र भगवन् ! असिद्ध, प्रसिद्ध के रूप में कितने समय तक रहता है ? गौतम ! प्रसिद्ध जीव दो प्रकार के हैं अनादि-अपर्यवसित और अनादि-सपर्यवसित / (अनादि-अपर्यवसित प्रसिद्ध सदाकाल प्रसिद्ध रहता है और अनादि-सपर्यवसित मुक्ति-प्राप्ति के पहले तक असिद्धरूप में रहता है।) भगवन् ! सिद्ध का अन्तर कितना है ? गौतम ! सादि-अपर्यवसित का अन्तर नहीं होता है / भगवन् ! असिद्ध का अंतर कितना होता है ? गौतम ! अनादि-अपर्यवसित प्रसिद्ध का अंतर नहीं होता है। अनादि-सपर्यवसित का भी अंतर नहीं होता है। भगवन् ! इन सिद्धों और प्रसिद्धों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े सिद्ध, उनसे प्रसिद्ध अनन्तगुण हैं। विवेचन-जैसे संसारसमापनक जीवों के विषयों में नौ प्रकार की प्रतिपत्तियां कही गई हैं, वैसे ही सर्वजीव के विषय में भी नौ प्रतिपत्तियां कही गई हैं। सर्वजीव में संसारी और मुक्त, दोनों प्रकार के जीवों का समावेश होता है / प्रतएव इन कही जाने वाली नौ प्रतिपत्तियों में सब जीवों का समावेश होता है। वे नौ प्रतिपत्तियां इस प्रकार हैं (1) कोई कहते हैं कि सब जीव दो प्रकार के हैं, यथा-सिद्ध और प्रसिद्ध / (2) कोई कहते हैं कि सब जीव तीन प्रकार के हैं, यथा-सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि / (3) कोई कहते हैं कि सब जीव चार प्रकार के हैं, यथा-मनयोगी, वचनयोगी, काययोगी और अयोगी। (4) कोई कहते हैं कि सब जीव पांच प्रकार के हैं, यथा-नरयिक, तिर्यंच, मनुष्य, देव और सिद्ध / (5) कोई कहते हैं कि सब जीव छह प्रकार के हैं औदारिकशरीरी, वैक्रियशरीरी, पाहारकशरीरी, तेजसशरीरी, कार्मणशरीरी और अशरीरी। (6) कोई कहते हैं कि सब जीव सात प्रकार के हैं, यथा--पृथ्वीकायिक, अपकायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, त्रसकायिक और प्रकायिक / (7) कोई कहते हैं सब जीव आठ प्रकार के हैं, यथा--मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी,. मनःपर्ययज्ञानी, केवलज्ञानी, मति-अज्ञानी, श्रुत-अज्ञानी और विभंगज्ञानी। (8) कोई कहते हैं कि सब जीव नौ प्रकार के हैं, यथा---एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रय, नैरयिक, तिर्यंच, मनुष्य, देव और सिद्ध / (9) कोई कहते हैं कि सब जीव दस प्रकार के हैं, यथा-पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय और अतीन्द्रिय / उक्त नौ प्रतिपत्तियों में से प्रत्येक में और भी विवक्षा से अन्य भेद भी किये गये हैं, जो यथास्थान कहे जायेंगे। जो ऐसा प्रतिपादन करते हैं कि सब जीव दो प्रकार के हैं, उनका मन्तव्य है कि सब जीवों का समावेश सिद्ध और प्रसिद्ध इन दो भेदों में हो जाता है / जिन्होंने आठ प्रकार के बंधे हुए कर्मों को Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वजीवाभिगम] [163 भस्मीकृत कर दिया है, वे सिद्ध हैं।' अर्थात् जो कर्मबंधनों से सर्वथा मुक्त हो चुके हैं, वे सिद्ध हैं। जो संसार के एवं कर्म के बन्धनों से मुक्त नहीं हुए हैं, वे प्रसिद्ध हैं। सिद्ध सदा काल निजस्वरूप में रमण करते रहते हैं, अतः उनकी कालमर्यादारूप भवस्थिति नहीं कही गई है। उनकी कायस्थिति अर्थात् सिद्धत्व के रूप में उनकी स्थिति सदा काल रहती है। सिद्ध सादि-अपर्यवसित हैं / अर्थात् संसार से मुक्ति के समय सिद्धत्व की आदि है और सिद्धत्व की कभी च्युति न होने से अपर्यवसित हैं। असिद्ध दो प्रकार के हैं---अनादि-अपर्यवसित और अनादि-सपर्यवसित / जो अभव्य होने से या तथाविध सामग्री के प्रभाव से कभी सिद्ध नहीं होगा, वह अनादि-अपर्यवसित प्रसिद्ध है / जो सिद्धि को प्राप्त करेगा वह अनादि-सपर्यवसित है, अर्थात् अनादि संसार का अन्त करने वाला है। जब तक वह मुक्ति नहीं प्राप्त कर लेता, तब तक प्रसिद्ध, प्रसिद्ध के रूप में रहता है। ___ सिद्ध सिद्धत्व से च्युत होकर फिर सिद्ध नहीं बनते, अतएव उनमें अन्तर नहीं है। वे सादि और अपर्यवसित हैं, अतः अन्तर नहीं है / प्रसिद्धों में जो अनादि-अपर्यवसित हैं, उनका प्रसिद्धत्व कभी छूटेगा ही नहीं, अतः अन्तर नहीं है। जो अनादि-सपर्यवसित हैं, उनका भी अन्तर नहीं है, क्योंकि मुक्ति से पुनः प्राना नहीं होता / अल्पबहुत्वद्वार में सिद्ध थोड़े हैं और प्रसिद्ध अनन्तगुण हैं, क्योंकि निगोदजीव अतिप्रभूत हैं। ___ 232. अहवा दुविहा सव्वजोवा पण्णत्ता, तं जहा-सइंदिया चेव अणिदिया चेव / सइंदिए णं भंते ! सइंदिएत्ति कालो केचिरं होइ ? गोयमा ! सइंदिए दुविहे पण्णत्ते,--अणाइए वा अपज्जवसिए, अणाइए वा सपज्जवसिए / अणिदिए साइए वा अपज्जवसिए, दोण्हवि अंतरं स्थि / सव्यत्योवा अणिदिया, सइंदिया अणंतगुणा / अहवा दुविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा--सकाइया चेव अकाइया चेव / एवं चेव / एवं सजोगी चेव अजोगी चेव तहेव, (एवं सलेस्सा चेव अलेस्सा चेव, ससरोरा चेव प्रसरोरा चेव / ) संचिठ्ठणं अंतरं अप्पाबहुयं जहा सइंदियाणं। ___ अहवा दुविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा-सवेदगा चेव अवेदगा चेव / सवेदए णं भंते ! सवेदएत्ति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! सवेदए तिविहे पण्णते, तं जहा-अणाइए अपज्जवसिए, अणाइए सपज्जवसिए, साइए सपज्जवसिए / तत्थ णं जेसे साइए सपज्जवसिए से जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं अणंतकालं जाव खेतओ अवड्ढं पोग्गलपरियट्ट देसूणं / अवेयए णं भंते ! अवेयएत्ति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! अवेयए दुविहे पण्णत्ते, तं जहा--साईए वा अपज्जवसिए, साइए वा सपज्ज. वसिए। तत्य णं जेसे साइए सपज्जवसिए से जहणणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं अंतोमुत्तं / सवेयगस्स णं भंते ! केवइयं कालं अंतरं होइ ? अणादियस्स अपज्जवसियस्स पत्थि अंतरं। अणादियस्स सपज्जवसियस्स नस्थि अंतरं / सादियस्स सपज्जवसियस्स जहण्णणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं अंतोमुहत्तं / 1 सितं बद्धमष्टप्रकारं कर्म ध्मातं-भस्मीकृतं यैस्ते सिद्धा: / -वृति: Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 164] [जीवाजीवाभिगमसूत्र प्रवेयगस्स णं भंते ! केवइयं कालं अंतरं होइ ? साइयस्स अपज्जवसियस्स णत्थि अंतरं, साइयस्स सपज्जवसियस्स जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं अणंतकालं जाव अवड्ढे पोग्गलपरियट्ट देसूणं। अप्पाबहुगं-सव्वत्थोवा अवेयगा, सवेयगा अणंतगुणा / एवं सकसाई चेव अकसाई चेव जहा सवेयगे तहेव भाणियव्वे / अहवा दुविहा सव्यजीवा-सलेसा य अलेसा य जहा असिद्धा सिद्धा। सव्वत्थोवा अलेसा, सलेसा अणंतगुणा / 232. अथवा सब जीव दो प्रकार के हैं, यथा--सेन्द्रिय और अनिन्द्रिय / भगवन् ! सेन्द्रिय, सेन्द्रिय के रूप में काल से कितने समय तक रहता है ? गौतम ! सेन्द्रिय जीव दो प्रकार के हैं—अनादि-अपर्यवसित और अनादि-सपर्यवसित / अनिन्द्रिय में सादि-अपर्यवसित / दोनों में अन्तर नहीं है। सेन्द्रिय की वक्तव्यता असिद्ध की तरह और अनिन्द्रिय को वक्तव्यता सिद्ध की तरह कहनी चाहिए / अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े अनिन्द्रिय हैं और सेन्द्रिय अनन्तगुण हैं। अथवा दो प्रकार के सर्व जीव हैं—सकायिक और अकायिक / इसी तरह सयोगी और अयोगी (सलेश्य और अलेश्य, सशरीर और अशरीर) / इनकी संचिट्ठणा, अन्तर और अल्पबहुत्व सेन्द्रिय की तरह जानना चाहिए। अथवा सब जीव दो प्रकार के हैं सवेदक और अवेदक / भगवन् ! सवेदक कितने समय तक सवेदक रहता है ? गौतम ! सवेदक तीन प्रकार के हैं, यथा-अनादि-अपर्यवसित, अनादि-सपर्यवसित और सादि-सपर्यवसित / इनमें जो सादि-सपर्यवसित है, वह जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से अनन्तकाल तक रहता है यावत् वह अनन्तकाल क्षेत्र से देशोन अपार्द्ध पुद्गलपरावर्त है। भगवन् ! अवेदक, अवेदक रूप में कितने काल तक रहता है ? गौतम ! अवेदक दो प्रकार के कहे गये हैं----सादि-अपर्यवसित और सादि-सपर्यवसित / इनमें जो सादि-सपर्यवसित है, वह जघन्य से एकसमय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक रहता है। भगवन् ! सवेदक का अन्तर कितने काल का है ? गौतम! अनादि-अपर्यवसित का अन्तर नहीं होता / अनादि-सपर्यवसित का भी अन्तर नहीं होता। सादि-सपर्यवसित का अन्तर जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त है। भगवन् ! अवेदक का अन्तर कितना है ? गौतम ! सादि-अपर्यवसित का अन्तर नहीं होता, सादि-सपर्यवसित का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल है यावत् देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्त / अल्पबहुत्व-सबसे थोड़े अवेदक हैं, उनसे सवेदक अनन्तगुण हैं। इसी प्रकार सकषायिक का भी कथन वैसा करना चाहिए जैसा सवेदक का किया है / __अथवा दो प्रकार के सब जीव हैं-सलेश्य और अलेश्य / जैसा प्रसिद्धों और सिद्धों का कथन किया, वैसा इनका भी कथन करना चाहिए यावत् सबसे थोड़े अलेश्य हैं, उनसे सलेश्य अनन्तगुण हैं। Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वजीवाभिगम] [165 विवेचन--प्रस्तुत सूत्र में सर्वजीवाभिगम की द्विविध प्रतिपत्ति का अन्य-अन्य अपेक्षानों से प्ररूपण किया गया है। पूर्वसूत्र में सिद्धत्व और प्रसिद्धत्व को लेकर दो भेद किये थे। इस सूत्र में सेन्द्रिय-अनिन्द्रिय, सकायिक-अकायिक, सयोगी-अयोगी, सलेश्य-अलेश्य, सवेदक-अवेदक और सकषाय-अकषाय को लेकर सर्वजीवाभिगम का द्वैविध्य बताया है। टीकाकार के अनुसार सयोगी-योगी के अनन्तर ही सलेश्य-अलेश्य और सशरीर-अशरीर का कथन है, जबकि मूलपाठ में सलेश्य-अलेश्य के विषय में अन्त में अलग सूत्र दिया गया है / ___ सर्वजीवों के इन दो-दो भेदों में उपाधि और अनोपाधिकृत भेद हैं। कर्मजन्य-उपाधि के कारण सेन्द्रिय, सकायिक, सयोगी, सलेश्य, सवेदक और सकषायिक संसारी जीव कहे गये हैं। जबकि कर्मजन्य उपाधि से रहित होने के कारण अनिन्द्रिय, अकायिक, अयोगी, अलेश्य और अकषायिक सिद्ध जीव कहे गये हैं। सेन्द्रिय की कायस्थिति और अन्तर प्रसिद्ध की वक्तव्यता के अनुसार और अनिन्द्रिय की वक्तव्यता सिद्ध की वक्तव्यता के अनुसार कहनी चाहिए। वह इस प्रकार है---- भगवन् ! सेन्द्रिय के रूप में कितने काल तक रहता है ? गौतम ! सेन्द्रिय दो प्रकार के हैं--- अनादि-अपर्यवसित और अनादि-सपर्यवसित / प्रनिन्द्रिय, प्रनिन्द्रिय के रूप में कितने समय तक रहता है ? गौतम ! वह सादि-अपर्यवसित है। भगवन् ! सेन्द्रिय का काल से कितना अन्तर है ? गौतम ! अनादि-अपर्य वसित का अन्तर नहीं है; अनादि-सपर्यवसित का भी अन्तर नहीं है / अनिन्द्रिय का अन्तर कितना है ? गौतम ! सादि-अपर्यवसित का अन्तर नहीं है ? अल्पबहुत्व में अनिन्द्रिय थोड़े हैं और सेन्द्रिय अनन्तगुण हैं, क्योंकि सेन्द्रिय वनस्पतिजीव अनन्त हैं। इसीतरह की वक्तव्यता सकायिक-प्रकायिक, सयोगी-योगी, सलेश्य-अलेश्य और सशरीरअशरीर जीवों के विषय में भी कहनी चाहिए / अर्थात् इनको संचिट्ठणा (कायस्थिति), अन्तर और अल्पबहुत्व सेन्द्रिय-अनिन्द्रिय की तरह ही है। सवेदक-अवेदक और सकषायिक-अकषायिक के सम्बन्ध में विशेषता होने से पृथक् निरूपण है। वह इस प्रकार है सवेदक की कायस्थिति बताते हए कहा गया है कि सवेदक तीन प्रकार के हैं -1. अनादिअपर्यवसित. 2. अनादि-सपर्यवसित और 3. सादि-सपर्यवसित / उनमें अनादि-अपर्यवसित सवेदक या तो अभव्य जीव हैं या तथाविध सामग्री के अभाव से मुक्ति में न जाने वाले जीव हैं / क्योंकि कई भव्य जीव भो सिद्ध नहीं होते / ' अनादि-सपर्यवसित सवेदक वह भव्य जीव है, जो मुक्तिगामी है और जिसने पहले उपशमश्रेणी प्राप्त नहीं की है / सादि-सपर्यवसित सवेदक वह है जो भव्य मुक्तिगामी है और जिसने पहले उपशमश्रेणी प्राप्त की है / इनमें उपशमश्रेणी को प्राप्त कर वेदोपशम के उत्तरकाल में अवेदकत्व का अनुभव कर . श्रेणी समाप्ति पर भवक्षय से अपान्तराल में मरण होने से अथवा उपशमश्रेणी से गिरने पर पुनः 1. "भवावि ण सिझंति केइ / ' इति वचनात् / Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जीवाजीवाभिगमसूत्र वेदोदय हो जाने से सवेदक हो गया जोव सादि-सपर्यवसित सवेदक है। इस सादि-सपर्यवसित सवेदक को कायस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त है / क्योंकि श्रेणी की समाप्ति पर सवेदक हो जाने के अन्तर्मुहूर्त बाद पुनः श्रेणी पर चढ़कर अवेदक हो सकता है। यहां शंका हो सकती है कि क्या एक जन्म में दो बार उपशमश्रेणी पर चढ़ा जा सकता है ? समाधान करते हुए कहा गया है कि दो बार उपशमश्रेणी हो सकती है, किन्तु एक जन्म में उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणो ये दोनों श्रेणियां नहीं हो सकती हैं।' ___ सादि-सपर्यवसित सवेदक की उत्कृष्ट कायस्थिति अनन्तकाल है / यह अनन्तकाल, कालमार्गणा की अपेक्षा से अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी रूप है तथा क्षेत्रमार्गणा से देशोन अपार्द्धपुद्गलपरावर्त है / इतने काल के बाद पूर्वप्रतिपन्न उपशमश्रेणी वाला जीव अासन्नमुक्ति वाला होकर श्रेणी को प्राप्त कर अवेदक हो सकता है। अनादि-अपर्यवसित और अनादि-सपर्यवसित को संचिटणा नहीं है। अवेदक के सम्बन्ध में प्रश्न किये जाने पर कहा गया है कि अवेदक दो प्रकार के हैं-- सादि-अपर्यवसित (समयानन्तर) क्षीणवेद वाले और सादि-सपर्यवसित उपशान्तवेद वाले / जो सादि-सपर्यवसित अवेदक हैं उनकी संचिट्ठणा जघन्य एक समय, उपशमश्रेणी को प्राप्त कर वेदोपशमन के एक समय बाद मरण होने पर पुनः सवेदक होने की अपेक्षा से / उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त, क्योंकि उपशमश्रेणी का काल इतना ही है / इसके बाद पतन होने से नियमतः सवेदक होता है। अनादि-अपर्यवसित सवेदक का अन्तर नहीं है, क्योंकि अपर्यवसित होने से उस भाव का कभी त्याग नहीं होता / अनादि-सपर्यवसित सवेदक का भी अन्तर नहीं होता, क्योंकि अनादिसपर्यवसित अपान्तराल में उपशमश्रेणी न करके भावी क्षीणवेदी होता है / क्षीणवेदी के पुन: सवेदक होने की सम्भावना नहीं है, क्योंकि उसमें प्रतिपात नहीं होता। सादि-सपर्यवसित सवेदक का अन्तर जघन्य एक समय है, क्योंकि दूसरी बार उपशमश्रेणीप्रतिपन्न का वेदोपशमन के अनन्तर समय में किसी का मरण सम्भव है / उत्कर्ष से अन्तमुहूर्त है, क्योंकि दूसरी बार उपशमश्रेणीप्रतिपन्न का वेदोपशमन होने पर श्रेणी का अन्तर्मुहूर्त काल समाप्त होने पर पुनः सवेदकत्व संभव है। अवेदकसूत्र में सादि-अपर्यवसित अवेदक का अन्तर नहीं है, क्योंकि क्षीणवेद वाला जीव पुनः सवेदक नहीं होता / सादि-सपर्यवसित अवेदक का अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि उपशमश्रेणी की समाप्ति पर सवेदक होने पर पुनः अन्तर्मुहूर्त में दूसरी बार उपशमश्रेणी पर चढ़कर अवेदकत्व स्थिति हो सकती है। उत्कर्ष से अन्तर अनन्तकाल है। वह अनन्तकाल अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी रूप है तथा क्षेत्र से अपार्धपुद्गलपरावर्त है, क्योंकि एक बार उपशमश्रेणी त कर वहां अवेदक होकर श्रेणी समाप्ति पर पुनः सवेदक होने की स्थिति में इतने काल के अनन्तर पुनः श्रेणी को प्राप्त कर अवेदक हो सकता है / इनका अल्पबहुत्व पूर्ववत् जानना चाहिये, अर्थात् अवेदक थोड़े और सवेदक अनन्तगुण हैं, वनस्पतिजीवों की अनन्तता की अपेक्षा से। 1. तथा चाह मूलटीकाकार:- "नकस्मिन् जन्मनि उपशमश्रेणिः क्षपकश्रेणिश्च जायते, उपशमश्रेणिद्वयं तु भवत्येव / " Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वजीवाभिगम] सकषायिक और अकषायिक जीवों के विषय में यही सवेदक और अवेदक की वक्तव्यता कहनी चाहिए। 233. अहवा दुविहा सव्वजीवा पण्णत्ता--णाणी चेव अण्णाणी चेव / गाणी णं भंते ! कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! णाणी विहे पण्णते-साईए वा अपज्जवसिए साईए वा सपज्जवसिए। तस्थ णं जेसे साईए सपज्जवसिए से जहण्णणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं छावट्टिसागरोवमाइं साइरेगाई। अण्णाणी जहा सवेदया। __णाणिस्स अंतरं जहणणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं अणंतं कालं अवड पोग्गलपरियट्ट देसूणं / अण्णाणियस्स दोण्हवि आइल्लाणं णथि अंतरं, साइयस्स सपज्जवसियस्स जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं छावसिागरोवमाई साइरेगाई। अप्पाबहुयं--सव्वस्थोवा पाणी, अण्णाणी अणंतगुणा। अहवा दुविहा सव्वजीया पण्णत्ता-सागारोवउत्ता य अणागारोवउत्ताय / संचिट्ठणा अंतरं य जहण्णेणं उक्कोसेणवि अंतोमुहुत्तं। अप्पाबहुयं-सव्वत्थोवा प्रणागारोवउत्ता, सागारोवउत्ता संखेज्जगुणा। 233. अथवा सब जीव दो प्रकार के हैं~-ज्ञानी और अज्ञानी। भगवन् ! ज्ञानी, ज्ञानीरूप में कितने काल तक रहता है ? गौतम ! ज्ञानी दो प्रकार के हैं-सादि-अपर्यवसित और सादि-सपर्यवसित / इनमें जो सादिसपर्यवसित हैं वे जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक छियासठ सागरोपम तक रह सकते हैं / अज्ञानी के लिए वही वक्तव्यता है जो पूर्वोक्त सवेदक की है। ज्ञानी का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल, जो देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्त रूप है / प्रादि के दो अज्ञानी- अनादि-अपर्यवसित और अनादि-सपर्यवसित अज्ञानी का अन्तर नहीं है। सादि-सपर्यवसित अज्ञानी का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक छियासठ सागरोपम है। अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े ज्ञानी, उनसे अज्ञानी अनन्तगुण हैं। अथवा दो प्रकार के सब जीव हैं-साकार-उपयोग वाले और अनाकार-उपयोग वाले। इनकी संचिटणा और अन्तर जघन्य और उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त है। अल्पबहुत्व में अनाकार-उपयोग वाले थोड़े हैं, उनसे साकार-उपयोग वाले संख्येयगुण हैं। विवेचन-ज्ञानी और अज्ञानी की अपेक्षा से सब जीवों का द्वैविध्य इस सूत्र में कहा गया है। ज्ञानी से यहां सम्यग्ज्ञानी अर्थ अभिप्रेत है और अज्ञानी से मिथ्याज्ञानी अर्थ समझना चाहिए / ज्ञानी दो प्रकार के हैं--सादि-अपर्यवसित और सादि-सपर्यवसित / केवली सादि-अपर्यवसित हैं, क्योंकि केवलज्ञान सादि-अनन्त है / मतिज्ञानी आदि सादि-सपर्यवसित हैं, क्योंकि मतिज्ञान आदि छाद्मस्थिक ने से सादि-सान्त हैं। इनमें जो सादि-सपर्यवसित ज्ञानी है, वह जघन्य से अन्तमूहर्त काल तक और उत्कृष्ट से छियासठ सागरोपम तक रहता। सम्यक्त्व की जधन्यस्थिति अन्तर्मुहूर्त है इस अपेक्षा से' सम्यक्त्वधारी ज्ञानी की जघन्यस्थिति अन्तर्मुहुर्त बतायी है। सम्यग्दर्शन का उत्कृष्ट काल छियासठ 1. “सम्यग्दृष्टेनिं मिथ्यादृष्टेविपर्यासः" इति वचनात् / Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 168] [जीवाजोवाभिगमसूत्र सागरोपम से कुछ अधिक है, अतः ज्ञानी की उत्कृष्ट संचिट्ठणा छियासठ सागरोपम से कुछ अधिक बताई है। यह स्थिति सम्यक्त्व से गिरे बिना विजयादि में जाने की अपेक्षा से है। जैसा कि भाष्य में कहा है कि दो बार विजयादि विमान में अथवा तीन बार अच्युत देवलोक में जाने से छियासठ सागरोपम काल और मनुष्य के भवों का काल साधिक में गिनने से उक्त स्थिति बनती है।' अज्ञानी की संचिगुणा बताते हुए कहा गया है कि अज्ञानी तीन प्रकार के हैं ..अनादि-अपर्यवसित, अनादि-सपर्यवसित और सादि-सपर्यवसित / अनादि-अपर्यवसित अज्ञानी वह है जो कभी मोक्ष में नहीं जायेगा। अनादि-सपर्यवसित अज्ञानी वह है जो अनादि-मिथ्यादृष्टि सम्यक्त्व पाकर और उससे अप्रतिपतित होकर क्षपकश्रेणी को प्राप्त करेगा। सादि-सपर्यवसित अज्ञानी वह है जो सम्यग्दृष्टि बनकर मिथ्यादृष्टि बन गया हो / ऐसा अज्ञानी जघन्य से अन्तर्मुहूर्तकाल उसमें रहकर फिर सम्यग्दृष्टि बन सकता है, इस अपेक्षा से उसकी संचिट्ठणा जघन्य अन्तर्मुहूर्त कही है और उत्कर्ष से अनन्तकाल है, जो अनन्त उत्सपिणी और अवसर्पिणो रूप है तथा क्षेत्र से देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्त है। अन्तरद्वार-सादि-अपर्यवसित ज्ञानी का अन्तर नहीं होता, क्योंकि अपर्यवसित होने से वह कभी उस रूप का त्याग नहीं करता / सादि-सपर्यवसित ज्ञानी का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त है / इतने काल तक मिथ्यादर्शन में रहकर फिर ज्ञानी हो सकता है। उत्कर्ष से अनन्तकाल (अनन्त उत्सर्पिणीअवपिणो रूप) है, जो क्षेत्र से देशोन अपार्धपदगलपरावर्त रूप है। क्योंकि सम्यग्दष्टि, सम्यक्त्व से गिरकर इतने काल तक मिथ्यात्व का अनुभव करके अवश्य ही फिर सम्यक्त्व पाता है। अज्ञानी का अन्तर बताते हुए कहा है कि अनादि-अपर्यवसित अज्ञानी का अन्तर नहीं है, क्योंकि वह अपर्यवसित होने से उस भाव का त्याग नहीं करता। अनादि-सपर्यवसित अज्ञानी का भी अन्तर नहीं है, क्योंकि केवलज्ञान प्राप्त करने पर वह जाता नहीं है। सादि-सपर्यवसित अज्ञानी का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि जघन्य सम्यग्दर्शन का काल इतना ही है। उत्कर्ष से साधिक छियासठ सागरोपम का अन्तर है, क्योंकि सम्यग्दर्शन से गिरने के बाद इतने काल तक अज्ञानी रह सकता है। अल्पबहुत्व सूत्र स्पष्ट ही है। ज्ञानियों से अज्ञानी अनन्तगुण हैं। अज्ञानी वनस्पतिजीव अनन्त हैं। अथवा सब जीवों के दो भेद उपयोग को लेकर किये गये हैं। दो प्रकार के उपयोग हैंसाकार-उपयोग और अनाकार-उपयोग। उपयोग की द्विरूपता के कारण सब जीव भी दो प्रकार के हैं-साकार-उपयोग वाले और अनाकार-उपयोग बाले / इन दोनों की संचिट्ठणा और अन्तर जघन्य और उत्कृष्ट दोनों अपेक्षा से अन्तर्मुहूर्त है। यहां टीकाकार लिखते हैं कि सत्रगति विचित्र होने से यहां सब जीवों से तात्पर्य छदमस्थ ही लेने चाहिए, केवली नहीं / क्योंकि केवलियों का साकार-अनाकार उपयोग एकसामयिक होने से कायस्थिति और अन्तरद्वार में एकसामयिक भी कहा जाना चाहिए, जो नहीं कहा गया है। वह “अन्तर्मुहूर्त" ही कहा गया है, जो छद्मस्थों में होता है। 1. दो वारे विजयाइस् गयस्स तिन्निऽअच्चुए अहव ताई। ___ अइरेगं नरभवियं नाणा जीवाण सव्वद्धा / / -भाष्यमाथा Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वजीवाभिगम] [169 . अल्पबहुत्वद्वार में सबसे थोड़े अनाकार-उपयोग वाले हैं, क्योंकि अनाकार-उपयोग का काल अल्प होने से पृच्छा के समय वे अल्प ही प्राप्त होते हैं। साकार-उपयोग वाले उनसे संख्येयगुण हैं, क्योंकि अनाकार-उपयोग के काल से साकार-उपयोग का काल संख्येयगुण है। 234. अहवा दुविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा-पाहारगा चेव अणाहारगा चेव / आहारए णं भंते ! जाव केवचिरं होइ ? गोयमा ! प्राहारए दुविहे पण्णत्ते, तं जहाछउमत्थाहारए य केवलिआहारए य / छउमत्थआहारए णं जाव केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहणणं खुड्डागं भवग्गहणं दुसमयऊणं उक्कोसेणं असंखेज्जकालं जाव कालओ० खेत्तओ अंगुलस्स असंखेज्जइभागं / केवलिआहारए णं जाय केवचिरं होइ ? गोयमा! जहन्लेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं. देसूणा पुवकोडी। ___अणाहारए णं भंते ! केवचिरं होइ ? गोयमा! अणाहारए दुविहे पण्णत्ते, तं जहाछउमत्थअणाहारए य केवलिअणाहारए य / छउमस्थअणाहारए णं जाव केवचिरं होइ ? गोयमा! जहण्णेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं दो समया। केवलिप्रणाहारए दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-सिद्धकेवलिअणाहारए य भवत्थकेवलिप्रणाहारए य। सिद्ध केवलिअणाहारए णं भंते ! कालमो केचिरं होइ ? साइए अपज्जवसिए / भवत्थकेवलिअणाहाराए णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? भवत्थकेवलिअणाहाराए दुविहे पण्णत्ते, सजोगिभवत्थकेवलिअणाहारए य अजोगिभवत्थकेवलिप्रणाहारए य / सजोगिभवत्थकेवलिप्रणाहारए णं भंते ! कालओ केवचिरं होइ ? अजहण्णमणुक्कोसेणं तिणि समया / अजोगीभवत्यकेवली ? जहणणं अंतोमुहत्तं उफ्कोसेणं अंतोमुहुत्त। छउमत्थामाहारगस्स केवइयं कालं अंतरं ? गोयमा! जहण्णणं एक्कं समयं उक्कोसेणं दो समया। केवलिआहारगस्स अंतरं अजहण्णमणुक्कोसेणं तिण्णि समया / छउमत्यप्रणाहारगस्स अंतरं जहन्नेणं खुड्डागभवग्गहणं दुसमयऊणं उक्कोसेणं असंखेज्जकालं जाव अंगुलस्य असंखेज्जइभागं / सिद्ध केवलिअणाहारगस्स साइयस्स अपज्जवसियस्स पत्थि अंतरं / / सजोगिभवत्थकेवलिअणाहारगस्स जहण्णेणं अंतोमुलुत्तं उक्कोसेण वि। अजोगिभवत्यकेलिअणाहारगस्स पत्थि अंतरं। एएसि णं भंते ! पाहारगाणं अणाहारगाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा० गोयमा ! सम्वत्थोवा अणाहारगा, पाहारगा असंखेज्जगुणा। 234. अथवा सर्व जीव दो प्रकार के हैं आहारक और अनाहारक। भगवन् ! आहारक, आहारक के रूप में कितने समय तक रहता है ? गौतम ! पाहारक दो प्रकार के हैं छद्मस्थ आहारक और केवलि-आहारक / भगवन् ! छद्मस्थ-पाहारक, आहारक के रूप में कितने काल तक रहता है ? Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 170 [जीवाजीवाभिगमसूत्र गौतम ! जघन्य दो समय कम क्षुल्लकभव और उत्कृष्ट से असंख्येय काल तक यावत् क्षेत्र की अपेक्षा अंगल का असंख्यातवां भाग। केवलि-पाहारक यावत् काल से कितने समय तक रहता है ? गौतम ! जघन्य से अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट से देशोन पूर्वकोटि / भगवन् ! अनाहारक यावत् काल से कितने समय तक रहता है ? गौतम ! अनाहारक दो प्रकार के हैं-छद्मस्थ-अनाहारक और केवलि-अनाहारक / भगवन् ! छद्मस्थ-अनाहारक उसी रूप में कितने काल तक रहता है ? गौतम ! जघन्य से एक समय, उत्कृष्ट दो समय तक / केवलि-अनाहारक दो प्रकार के हैं-- सिद्धकेवलि-अनाहारक और भवस्थकेवलि-अनाहारक / भगवन् ! सिद्धकेवलि-अनाहारक उसी रूप में कितने समय तक रहता है ? गौतम ! वह सादि-अपर्यवसित है। भगवन् ! भवस्थकेवलि-अनाहारक कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! दो प्रकार के हैं-सयोगिभवस्थकेवलि-अनाहारक और अयोगि-भवस्थकेवलिअनाहारक। भगवन् ! सयोगिभवस्थकेवलि-अनाहारक उसी रूप में कितने समय तक रहता है ? जघन्य उत्कृष्ट रहित तीन समय तक। अयोगिभवस्थकेवलि-अनाहारक जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से भी अन्तर्मुहूर्त / भगवन् ! छद्मस्थ-पाहारक का अन्तर कितना कहा गया है ? गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट दो समय / केवलि-ग्राहारक का अन्तर जघन्यउत्कृष्ट रहित तीन समय / अनाहारक का अंतर जघन्य दो समय कम क्षुल्लकभवग्रहण और उत्कर्ष से असंख्यात काल यावत् अंगुल का असंख्यातभाग / सिद्धकेवलि-अनाहारक सादि-अपर्यवसित है अतः अन्तर नहीं है। सयोगिभवस्थकेवलिअनाहारक का जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट से भी यही है।। अयोगिभवस्थकेवलि-अनाहारक का अन्तर नहीं है। भगवन् ! इन आहारकों और अनाहारकों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े अनाहारक हैं, उनसे आहारक असंख्येयगुण हैं। __विवेचन-आहारक और अनाहारक को लेकर प्रस्तुत सूत्र में सर्व जीवों के दो प्रकार बताये हैं / विग्रहगतिसमापन्न, केवलिसमुद्घात वाले केवली, अयोगी केवली और सिद्धये ही अनाहारक हैं, शेष जीव आहारक हैं।' 1. विग्गहराइमावन्ना केवलिणो समूहया अजोगी या / सिद्धा य प्रणाहारा, सेसा पाहारगा जीवा // . Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वजीवाभिगम [171 कायस्थिति-पाहारक जीव दो प्रकार के हैं छद्मस्थ-याहारक और केवलि-ग्राहारक / छद्मस्थ-पाहारक की जघन्य काय स्थिति दो समय कम क्षुल्लकभवग्रहण है / यह विग्रहगति से आकर क्षुल्लकभव में उत्पन्न होने की अपेक्षा से है। . लोकनिष्कुट आदि में उत्पन्न होने की स्थिति में चार समय की या पांच समय की भी विग्रहगति होती है, परन्तु बाहुल्य से तीन समय को विग्रहगति होती है। उसो को लेकर यह सूत्र कहा गया है। अन्य पूर्वाचार्यों ने भी यही कहा है। जैसा कि तत्त्वार्थसूत्र में "एक द्वौ वा अनाहारकाः" कहा है / ' तीन समय की विग्रहगति में से दो समय अनाहारकत्व के हैं। उन दो समयों को छोड़कर शेष क्षुल्लकभव तक जघन्य रूप से पाहारक रह सकता है। उत्कर्ष से असंख्यातकाल तक आहारक रह सकता है / यह असंख्येयकाल कालमार्गणा से असंख्येय उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी प्रमाण है और क्षेत्रमार्गणा की अपेक्षा अंगुलासंख्येय भाग है / अर्थात् अंगुलमात्र के असंख्येयभाग में जितने आकाशप्रदेश हैं, उनका प्रतिसमय एक-एक अपहार करने पर जितने काल में वे निर्लेप होते हैं, उतनी उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी रूप हैं / इतने काल तक जीव अविग्रह रूप से उत्पन्न हो सकता है और अविग्रह से उत्पत्ति में सतत आहारकत्व होता है। केवली-पाहारक की जघन्य कायस्थिति अन्तर्मुहूर्त है। यह अन्तकृतकेवली की अपेक्षा से है। उत्कर्ष से देशोनपूर्वकोटि है। यह पूर्वकोटि प्रायु वाले को नौ वर्ष की वय में केवलज्ञान उत्पन्न होने को अपेक्षा से है। अनाहारक दो प्रकार के हैं-छद्मस्थ-अनाहारक और केवली-अनाहारक / छद्मस्थअनाहारक जघन्य से एक समय तक अनाहारक रह सकता है। यह दो समय की विग्रहगति की अपेक्षा से है / उत्कर्ष से दो समय अनाहारक रह सकता है / यह तीन समय की विग्रहगति की अपेक्षा से है / चूर्णिकार ने कहा है कि यद्यपि भगवती में चार समय तक अनाहारकत्व कहा है, तथापि वह कादाचित्क होने से यहां उसे स्वीकार न कर बाहुल्य को प्रधानता दी गई है। बाहुल्य से दो समय तक अनाहारक रह सकता है।' केवलो-अनाहारक दो प्रकार के हैं भवस्थकेवलो-अनाहारक और सिद्धकेवली-अनाहारक / सिद्धकेवली-अनाहारक सादि-अपर्यवसित हैं। सिद्धों के सादि-अपर्यवसित होने से उनका अनाहारकत्व भी सादि-अपर्यवसित है। ___ भवस्थकेवली-अनाहारक दो प्रकार के हैं -सयोगिभवस्थकेवली-अनाहारक और अयोगिभवस्थकेवली-अनाहारक / अयोगिभवस्थकेवली-अनाहारक जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से भी अन्तर्मुहूर्त तक अनाहारक रह सकता है / अयोगित्व शैलेशी-अवस्था में होता है। उसमें नियम से वह अनाहारक ही होता है, क्योंकि प्रौदारिककाययोग उस समय नहीं रहता। शैलेशो-अवस्था का कालमान जघन्य से भी अन्तर्मुहूर्त है और उत्कर्ष से भी अन्तर्मुहूर्त ही है। परन्तु जघन्यपद से उत्कृष्टपद अधिक जानना चाहिए, अन्यथा उभयपद देने की आवश्यकता नहीं थी। 1. "एक द्वौ वा अनाहारका:-" तत्त्वार्थ. अ.२, सू. 31 2. यद्यपि भगवत्यां चतुःसामयिकोऽनाहारकः उक्तस्तथापि नांगीक्रियते, कदाचित्कोऽसो भावो येन, बाहुल्यमेवाङ्गी क्रियते; बाहुल्याच्च समयद्वयमेवेति / -वृतिः Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 173 जीवाजीवाभिगमसूत्र सयोगिभवस्थकेवली-अनाहारक जघन्य और उत्कर्ष के भेद बिना तीन समय तक रह सकता है। यह अष्ट-सामयिक केवलीसमुद्घात को अवस्था में तीसरे, चौथे और पांचवें समय में केवल कामणकाययोग हो होता है / अतः उन तीन समयों में वह नियम से अनाहारक होता है।' __ अन्तरद्वार-छद्मस्थ-आहारक का अन्तर जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से दो समय है / जितना काल जघन्य और उत्कर्ष से छद्मस्थ-अनाहरक का है, उतना ही काल छदमस्थ-पाहारक का अन्तरकाल है / वह काल जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से दो समय अनाहारकत्व का है / अतः छद्मस्थ-पाहारकत्व का अन्तर जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से दो समय कहा है। केवलो-आहारक का अन्तर अजधन्योत्कर्ष से तीन समय का है। केवली-आहारक सयोगीभवस्थकेवली होता है। उसका अनाहारकत्व तीन समय का ही है जो पहले बताया जा चुका है। केवली-पाहारक का अन्तर यही तीन समय का है। __छद्मस्थ-अनाहारक का अन्तर जघन्य से दो समय कम क्षुल्लकभव है और उत्कर्ष से असंख्येयकाल यावत् अंगुल का असंख्येय भाग है। इसकी स्पष्टता पहले की जा चुकी है। जितना छद्मस्थ का पाहारककाल है, उतना ही छद्मस्थ-अनाहारक का अन्तर है। सिद्धकेवली-अनाहारक सादि-अपर्यवसित होने से अंतर नहीं है / सयोगिभवस्थकेवलि-अनाहरक का अन्तर जघन्य से भी अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट से भी अन्तर्मुहूर्त है। क्योंकि केवलि-समुद्घात करने के अनन्तर अन्तर्मुहूर्त में ही शैलेशी-अवस्था हो जाती है / यहां भी जघन्यपद से उत्कृष्टपद विशेषाधिक समझना चाहिए। अयोगीभवस्थकेवली-अनाहारक का अन्तर नहीं है। क्योंकि अयोगी-अवस्था में सब अनाहारक ही होते हैं / सिद्धों में भी सादि-अपर्यवसित होने से अनाहारक का अन्तर नहीं है। ___ अल्पबहुत्वद्वार-सबसे थोड़े अनाहारक हैं, क्योंकि सिद्ध, विग्रहगतिसमापन्नक, समुद्घातगतकेवली और अयोगीकेवली ही अनाहारक हैं / उनसे आहारक असंख्येयगुण हैं। ___ यहाँ शंका हो सकती है कि सिद्धों से वनस्पतिजीव अनन्तगुण हैं और वे प्रायः आहारक हैं तो अनन्तगुण क्यों नहीं कहा गया है ? समाधान यह है कि प्रतिनिगोद का असंख्येयभाग प्रतिसमय सदा विग्रहगति में होता है और विग्रहगति में जीव अनाहारक होते हैं। इसलिए आहारक असंख्येयगुण ही घटित होते हैं, अनन्तगुण नहीं। यहां वृत्ति में क्षुल्लक भव के विषय में जानकारी दी गई है। वह उपयोगी होने से यहां भी दी जा रही है। क्षुल्लकभव-क्षुल्लक का अर्थ लघु या स्तोक है। सबसे छोटे भव (लघु आयु का संवेदनकाल) का ग्रहण क्षुल्लकभवग्रहण है। प्रावलिकाओं के मान से वह दो सौ छप्पन पावलिका का होता है / एक श्वासोच्छ्वास में कुछ अधिक सत्रह क्षुल्लकभव होते हैं। एक मुहूर्त में पैंसठ हजार पांच सौ 1. कार्मणशरीरयोगी चतुर्थके पंचमे तृतीये च। समयत्रयेऽपि तस्माद् भवत्यनाहारको नियम त् // -~-वृत्ति : Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वजोवाभिगम] [173 छत्तीस (65536) क्षुल्लकभव होते हैं / ' एक मुहूर्त में तीन हजार सात सौ तिहत्तर (3773) पानप्राण (श्वासोच्छ्वास) होते हैं।' त्रैराशिक से एक उच्छ्वास में सत्रह क्षुल्लकभव प्राप्त होते हैं। पैंसठ हजार पांच सौ छत्तीस में तीन हजार सात सौ तिहत्तर का भाग देने से एक उच्छ्वास में भवों की संख्या प्राप्त होती है। उक्त भाग देने से 17 भव और 1394 शेष बचता है, जिसकी प्रावलिकाएं कुछ अधिक 94 होती हैं। यदि हम एक पानप्राण में प्रावलिकाओं की संख्या जानना चाहते हैं तो 256 में 17 का गुणा करके उसमें ऊपर की 94 प्रावलिकाएं मिलानी चाहिए, तो 4446 श्रावलिकाएं होती हैं। यदि एक मुहूर्त में प्रावलिकाओं की संख्या जानना चाहते हैं तो इन 4446 एक श्वासोच्छवास की प्रावलिकाओं को एक मुहूर्त के श्वासोच्छ्वास 3773 से गुणा करने से 1,67,74,758 प्रावलिका होती हैं / इसमें साधिक की 2458 प्रावलिकाएं मिलाने से 1,67,77,216 आवलिकाएं एक मुहूर्त में होती हैं। अथवा मुहूर्त के 65536 क्षुल्लकभवों को एक भव की 256 श्रावलिकाओं से गुणा करने . पर एक मुहूर्त में प्रावलिकाओं की संख्या ज्ञात हो जाती है। इसलिए जो कहा जाता है कि एक उच्छ्वास-निःश्वास में संख्येय प्रावलिकाएं हैं, सो समीचीन ही है / 235. अहवा दुविहा सव्वजोवा पण्णता, तं जहा सभासगा य अभासगा य / सभासए णं भंते ! सभासएत्ति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा! जहण्णेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं अंतोमुत्तं / अभासए णं भंते ! 0? गोयमा! अभासए दुविहे पण्णत्ते-साइए वा अपज्जवसिए, साइए वा सपज्जवसिए / तत्थ णं जेसे साइए सपज्जवसिए से जहण्णणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं अणंतकालं-अणंता उस्सप्पिणी-ओसप्पिणीप्रो वणस्सइकालो / भासगस्स णं भंते ! केवइकालं अंतरं होइ ? गोयमा! जहणणं अंतोमुहत्त उक्कोसेणं प्रणंतकालं वणस्सइकालो / अभासगस्स साइयस्स अपज्जवसियस्स गस्थि अंतरं। साइय-सपज्जवसियस्स जहण्णेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं अंतोमुहुत्त / अप्पाबहुयं-सव्वत्थोवा भासगा, अभासगा अणंतगुणा / अहवा दुविहा सध्वजीवा ससरीरी य असरीरी य / असरोरी जहा सिद्धा / ससरीरी जहा असिद्धा। थोवा असरीरी, ससरीरी अणंतगुणा।। 235. अथवा सर्व जीव दो प्रकार के हैं-सभाषक और अभाषक / भगवन् ! सभाषक, सभाषक के रूप में कितने काल तक रहता है ? गौतम ! जघन्य से एक समय, उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त / 1. पन्नद्विसहस्साइं पंचेव सया हवंति छत्तीसा। खुड्डामभवग्महणा हवंति अंतोमुहुत्तम्मि / / 2. तिनि सहस्सा सत्त य सयाइ तेवत्तरि च ऊसासा / एस मुहत्तो भणियो, सबेहि अणंतणाणीहिं / / 3. एगा कोडी सत्तट्ठि लक्ख सत्ततरी सहस्सा य / दोयसया सोलहिया आवलिया मुहुत्तम्मि / Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 174) [जीवाजीवाभिगमसूत्र भंते ! प्रभाषक, प्रभाषक रूप में कितने समय रहता है ? गौतम ! प्रभाषक दो प्रकार पर्यवसित और सादि-सपर्यवसित / इनमें जो सादि-सपर्यवसित प्रभाषक हैं, वह जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट में अनन्त काल तक अर्थात् अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणीकाल तक अर्थात् बनस्पतिकाल तक / भगवन् ! भाषक का अन्तर कितना है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से अनन्तकाल अर्थात् वनस्पतिकाल / सादि-अपर्यवसित प्रभाषक का अन्तर नहीं हैं। सादि-सपर्यवसित का अन्तर जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है / अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े भाषक हैं, अभाषक उनसे अनन्तगुण हैं। अथवा सब जीव दो प्रकार के हैं--सशरीरी और अशरीरी। अशरीरी की संचिगुणा आदि सिद्धों की तरह तथा सशरीरी की प्रसिद्धों की तरह कहना चाहिए यावत् अशरीरी थोड़े हैं और सशरीरी अनन्तगुण हैं। विवेचन–प्रस्तुत सूत्र में भाषक और प्रभाषक की अपेक्षा से सब जीवों के दो भेद कहे गये हैं / जो बोल रहा है वह भाषक है और अन्य प्रभाषक हैं।' भाषक, भाषक के रूप में जघन्य एक समय रहता है। भाषा द्रव्य के ग्रहण समय में ही मरण हो जाने से या अन्य किसी कारण से भाषा-व्यापार से उपरत हो जाने से एक समय कहा गया है। उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त तक रहता है। इतने काल तक ही भाषा द्रव्य का निरन्तर ग्रहण और निसर्ग होता है / इसके बाद तथाविध जीवस्वभाव से वह अवश्य प्रभाषक हो जाता है / प्रभाषक दो प्रकार के हैं-सादि-अपर्यवसित और सादि-सपर्यवसित / सादि-अपर्यवसित सिद्ध हैं और सादि-सपर्यवसित पृथ्वीकाय आदि हैं। जो सादि-सपर्यवसित हैं, वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक अभाषक रहता है, इसके बाद पुनः भाषक हो जाता है। अथवा पृथ्वी आदि भव की जघन्य स्थिति इतने ही काल की है / उत्कर्ष से प्रभाषक, अभाषक रूप में वनस्पतिकाल पर्यन्त रहता है। वह वनस्पतिकाल अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी रूप है तथा क्षेत्रमार्गणा से अनन्त लोकाकाश के प्रदेशों का प्रतिसमय एक-एक के मान से अपहार करने पर उनके निर्लेप होने में जितना काल लगता है, उतना काल है; यह काल असंख्येय पुद्गलपरार्वत रूप है / इन पुद्गलपरावतों का प्रमाण ग्रावलिका के असंख्येयभागवर्ती समयों के बराबर है। वनस्पति में इतने काल तक अभाषक रूप में रह सकता है। अन्तरद्वार-भाषक का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त है और उत्कर्ष से अनन्तकाल-वनस्पतिकाल है। प्रभाषक रहने का जो काल है, वही भाषक का अन्तर है। सादि-अपर्यवसित अभाषक का अन्तर नहीं है। क्योंकि वह अपर्यवसित है / सादि-सपर्य वसित का अन्तर जघन्य एक समय और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि भाषक का काल ही प्रभाषक का अन्तर है / भाषक का काल जघन्य एक समय और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त ही है / अल्पबहुत्वसूत्र स्पष्ट ही है। 1. भाषमाणा भाषका इतरेऽभाषकाः। -वृत्ति Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वजीवाभिगम] [175 सशरीरी और अशरीरी की वक्तव्यता सिद्ध और प्रसिद्धवत् जाननी चाहिए। 236. अथवा दुविहा सव्वजीवा पण्णता, तं जहा-चरिमा चेव प्रचरिमा चेव / चरिमे णं भंते ! चरिमेत्ति कालमो केवचिरं होइ ? गोयमा ! चरिमे अणाइए सपज्जवसिए। अचरिमे दुविहे पण्णत्ते-अणाइए वा अपज्जवसिए, साइए वा अपज्जवसिए / दोण्हंपि णस्थि अंतरं / अप्पाबहुयं-सव्वत्थोवा अचरिमा, चरिमा अणंतगुणा / (सेत्तं दुविहा सव्वजीवा पण्णत्ता।) 236. अथवा सर्व जीव दो प्रकार के हैं-चरम और अचरम / भगवन् ! चरम, चरमरूप में कितने काल तक रहता है ? गौतम ! चरम अनादि-सपर्यवसित है। अचरम दो प्रकार के हैं.--अनादि-अपर्यवसित और सादि-अपर्यवसित / दोनों का अन्तर नहीं है। अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े अचरम हैं, उनसे चरम अनन्तगुण हैं। (यह सर्व जीवों की दो भेदरूप प्रतिपत्ति पूरी हुई।) विवेचन-चरम और अचरम के रूप में सर्व जीवों के दो भेद इस सूत्र में वर्णित हैं / चरम भव वाले भव्य विशेष जो सिद्ध होंगे, वे चरम कहलाते हैं। इनसे विपरीत अचरम कहलाते हैं। ये अचरम हैं अभव्य और सिद्ध / कायस्थितिसूत्र में चरम अनादि-सपर्यवसित हैं अन्यथा वह चरम नहीं कहा जा सकता। अचरमसूत्र में अचरम दो प्रकार के हैं-अनादि-अपर्यवसित और सादि-अपर्यवसित / अनादि-अपर्यवसित-अचरम अभव्य जीव है और सादि-अपर्यवसित-अचरम सिद्ध हैं। अन्तरद्वार में दोनों का अन्तर नहीं है। अनादि-सपर्यवसित-चरम का अन्तर नहीं है, क्योंकि चरमत्व के जाने पर पुनः चरमत्व सम्भव नहीं है। अचरम चाहे अनादि-अपर्यवसित हो, चाहे सादिअपर्यवसित हो, उसका अन्तर नहीं है, क्योंकि इनका चरमत्व होता ही नहीं। अल्पबहुत्वसूत्र में सबसे थोड़े अचरम हैं, क्योंकि अभव्य और सिद्ध ही अचरम हैं। उनसे चरम अनन्तगुण हैं। सामान्य भव की अपेक्षा से यह कथन समझना चाहिए, अन्यथा अनन्तगुण नहीं घट सकता / जैसा कि मूल टीकाकार ने कहा है -"चरम-अनन्तगुण हैं / सामान्य भव्यों की अपेक्षा से यह समझना चाहिए। सूत्रों का विषय-विभाग दुर्लक्ष्य है।" इस प्रकार सर्व जीव सम्बन्धी विविध प्रतिपत्ति पूरी हई। इसमें कही गई द्विविध वक्तव्यता को संग्रहीत करनेवाली गाथा इस प्रकार है सिद्धसइंदियकाए जोए वेए कसायलेसा य / नाणुवओगाहारा भाससरीरी य चरमो य / / इसका अर्थ स्पष्ट हो है। 1. "चरमा अनन्तगुणाः, समान्यभन्यापेक्षमेतदिति भावनीयं, दुर्लक्ष्यः सूत्राणां विषयविभागः।" Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 176] [जीवाजीवाभिगमसूत्र सर्वजीव-विविध-वक्तव्यता 237. तत्थ णं जेते एवमाहंसु तिविहा सध्वजीवा पण्णत्ता, ते एवमाहंसु तं जहा-सम्मदिट्ठी, मिच्छादिट्ठी, सम्मामिच्छादिट्ठी। ___ सम्मविट्ठी णं भंते ! कालमो केवचिरं होइ ? गोयमा ! सम्मदिट्ठी दुविहे पण्णत्ते, तं जहासाइए वा अपज्जवसिए, साइए वा सपज्जवसिए। तत्थ जेते साइए सपज्जवसिए, से जहन्नेणं अंतो. मुहुत्तं उक्कोसेणं छावळिं सागरोवमाइं साइरेगाई। मिच्छादिट्ठी तिविहे-साइए वा सपज्जवसिए, अणाइए वा अपज्जवसिए, प्रणाइए वा सपज्जयासिए। तत्थ जेते साइए-सपज्जवसिए से जहण्णणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं अणंतकालं जाव अवड्ढं पोग्गलपरियट्ट देसूणं / सम्मामिच्छाविट्ठी जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणवि अंतोमुहत्तं / सम्मदिद्धिस्स अंतरं साइयस्स अपज्जवसियस्स णत्थि अंतरं / साइयस्स सपज्जवसियस्स जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसणं अणंतकालं जाय अवड्ढं पोग्गलपरियट्टा मिच्छादिद्धिस्स अणाइयस्स अपज्जवसियल्स पत्थि अंतरं, अणाइयस्स सपज्जवसिपस्स पत्थि अंतरं, साइयस्स सपज्जवसियस्स जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसणं छावदि सागरोषमाइं साइरेगाई। सम्मामिच्छादिट्रिस्स अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं अणंतं कालं जाव अवड्ढं पोग्गलपरियट देसूर्ण। अप्पाबहुयं-सव्वत्थोवा सम्मामिच्छादिट्ठी, सम्मदिट्ठी अणंतगुणा, मिच्छादिट्ठी अणंतगुणा। 237. जो ऐसा कहते हैं कि सर्व जीव तीन प्रकार के हैं, उनका मंतव्य इस प्रकार है-यथा सम्यग्दृष्टि, मिध्यादृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि / भगवन् ! सम्यग्दृष्टि काल से सम्यग्दृष्टि कब तक रह सकता है ? गौतम ! सम्यग्दृष्टि दो प्रकार के हैं—सादि-अपर्यवसित और सादि-सपर्यवसित। जो सादिसपर्यवसित सम्यग्दृष्टि हैं, वे जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से साधिक छियासठ सागरोपम तक रह सकते हैं। मिथ्यादष्टि तीन प्रकार के हैं. सादि-सपर्यवसित, अनादि-अपर्यवसित और अनादि-सपर्यवसित / इनमें जो सादि-सपर्यवसित हैं वे जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से अनन्तकाल तक जो यावत् देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्त रूप है, मिथ्यादृष्टि रूप से रह सकते हैं। सम्यग्मिथ्यादृष्टि (मिश्रदृष्टि) जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से भी अन्तर्मुहूर्त तक रह सकता है। सम्यग्दृष्टि के अन्तरद्वार में सादि-अपर्यवसित का अंतर नहीं है, सादि-सपर्यवसित का जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल है, जो यावत् अपार्धपुद्गलपरावर्त रूप है। अनादि-अपर्यवसित मिथ्यादृष्टि का अन्तर नहीं है, अनादि-सपर्यवसित मिथ्यादृष्टि का भी अन्तर नहीं है, सादि-सपर्यवसित का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक छियासठ सागरोपम है। Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्व जीवाभिगम] [177 सम्यग्मिथ्यादृष्टि का जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल है, जो देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्त रूप है / अल्पबहुत्वद्वार में सबसे थोड़े सम्यग्मिथ्यादृष्टि हैं, उनसे सम्यग्दृष्टि अनन्तगुण हैं और उनसे मिथ्यादृष्टि अनन्तगुण हैं। विवेचन सर्व जोव तीन प्रकार के हैं-- सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि / इनका स्वरूप पहले बताया जा चुका है। यहां इनकी कायस्थिति (संचिट्ठणा), अन्तर और अल्पबहुत्व को लेकर विवेचना की गई है। कायस्थिति-सम्यग्दृष्टि दो प्रकार के हैं—सादि-अपर्यवसित (क्षायिक सम्यग्दृष्टि) और सादि-सपर्यवसित (क्षायोपशमिक आदि सम्यग्दर्शनी)। इनमें जो सादि-सपर्यवसित सम्यग्दृष्टि हैं, उनकी संचिटणा (कायस्थिति) जघन्य से अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि विचित्र कर्मपरिणाम होने से इतने काल के पश्चात् कोई जीव मिथ्यात्व में चला जा सकता है। उत्कर्ष से छियासठ सागरोपम तक वह रह सकता है / इसके बाद नियम से क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन नहीं रहता। मिथ्यादष्टि तीन प्रकार के हैं--अनादि-अपर्यवसित, अनादि-सपर्यवसित और सादि-सपर्यवसित। इनमें जो सादि-सपर्यवसित है वह जघन्य से अन्तर्मुहर्त तक रहता है। इतने काल के बाद कोई जीव पुन: सम्यग्दर्शन पा सकता है। उत्कर्ष से अनन्तकाल तक रह सकता है। यह अनन्तकाल कालमार्गणा से अनन्त उत्सर्पिणी-अवपिणी रूप है और क्षेत्रमार्गणा से देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्त है, क्योंकि जिसने पहले एक बार भी सम्यक्त्व पा लिया हो, वह इतने काल के बाद पुनः अवश्य सम्यग्दर्शन पा लेता है / पूर्व सम्यक्त्व के प्रभाव से उसने संसार को परित्त कर लिया होता है / सम्यग्मिथ्यादृष्टि उस रूप में जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से भी अन्तर्मुहूर्त काल तक रहता है, क्योंकि स्वभावतः मिश्रदृष्टि का इतना ही कालप्रमाण है। केवल जघन्य से उत्कृष्ट पद अधिक है। अन्तरद्वार-सादि-अपर्यवसित सम्यग्दष्टि का अन्तर नहीं है, क्योंकि वह अपर्यवसित है। सादि-सपर्यवसित सम्यग्दृष्टि का अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि सम्यक्त्व से गिरकर कोई जीव अन्तर्मुहूर्त काल में पुनः सम्यक्त्व पा लेता है। उत्कर्ष से उसका अन्तर अनन्तकाल अर्थात अपार्धपुद्गलपरावर्त है / अनादि-अपर्यवसित मिथ्यादृष्टि का अन्तर नहीं है, क्योंकि उसका मिथ्यात्व छूटता ही नहीं है। अनादि-सपर्यवसित मिथ्यात्व का भी अन्तर नहीं है, क्योंकि छूटकर पुनः होने पर अनादित्व नहीं रहता। सादि-सपर्यवसित मिथ्यादृष्टि का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक छियासठ सागरोपम है, क्योंकि सम्यग्दर्शन का काल ही मिथ्यादर्शन का प्राय: अन्तर है / सम्यग्दर्शन का जधन्य और उत्कर्ष काल इतना ही है। सम्यरिमथ्यादृष्टि का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि सम्यग्मिथ्यादर्शन से गिरकर कोई अन्तर्मुहूर्त में फिर सम्यग्मिथ्यादर्शन पा लेता है। उत्कर्ष से देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्त का Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 178] [ जीवाजीवाभिगमसूत्र अन्तर है / यदि सम्यग्मिध्यादर्शन से गिरकर फिर सम्यग्मिथ्यादर्शन का लाभ हो तो नियम से इतने काल के बाद होता ही है, अन्यथा मुक्ति होती है / ___अल्पमहत्वद्वार--सबसे थोड़े सम्यग्मिथ्यादृष्टि हैं, क्योंकि तद्योग्य परिणाम थोड़े काल तक रहते हैं और पृच्छा के समय वे अल्प ही प्राप्त होते हैं / उनसे सम्यग्दृष्टि अनन्तगुण हैं, क्योंकि सिद्ध जीव भी सम्यग्दृष्टि हैं और वे अनन्त हैं / उनसे मिथ्यादृष्टि अनन्तगुण हैं, क्योंकि वनस्पतिजीव सिद्धों से भी अन्ततगुण हैं और वे मिथ्यादृष्टि हैं। 238. अहवा तिविहा सव्वजीवा पण्णत्ता-परित्ता अपरित्ता नोपरित्ता-नोअपरिता। परिते णं भंते ! कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! परिते दुविहे पण्णत्ते कायपरित्तेय संसारपरिते य / कायपरिते णं भंते ! कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं अन्तोमुहत्तं उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं जाव असंखेज्जा लोगा। संसारपरित्ते णं भंते ! संसारपरितेत्ति कालमो केवचिरं होइ ? जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं अणंतं कालं जाव प्रवड्ड पोग्गलपरिय देसूर्ण / अपरित्ते णं भंते ? अपरित्ते दुविहे पण्णत्ते-कायअपरित्ते य संसारअपरिते य / कायअपरित्ते णं जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं अणंतं कालं-वणस्सइकालो। संसारापरित्ते दुविहे पण्णत्ते- अणाइए वा अपज्जवसिए, अणाइए वा सपज्जवसिए / णोपरित्ते-णोअपरित्ते साइए अपज्जवसिए। कायपरित्तस्स जहन्नेणं अंतरं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो। संसारपरित्तस्स पत्थि अंतरं / कायपरित्तस्स जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं असंखिज्ज कालं पुढविकालो। संसारापरित्तस्स प्रणाइयस्स अपज्जवसियस्स णत्थि अंतरं / अणाइयस्स सपज्जवसियस्स नत्थि अंतरं। णोपरित्त-नोअपरित्तस्सविणस्थि अंतरं। अप्पाबहुयं-सव्वत्थोवा परित्ता, गोपरिता-नोअपरित्ता प्रणतगुणा, अपरित्ता अणंतगुणा। 238. अथवा सर्व जीव तीन प्रकार के हैं—परित्त, अपरित्त और नोपरित्त-नोअपरित्त / भगवन् ! परित्त, परित्त के रूप में कितने काल तक रहता है ? गौतम! परित्त दो प्रकार के हैं--कायपरित्त और संसारपरित्त। भगवन् ! कायपरित्त, कायपरित्त के रूप में कितने काल तक रहता है ? गौतम ! जघन्य से अन्तमुहूर्त और उत्कर्ष से असंख्येय काल तक यावत् असंख्येय लोक / भंते ! संसारपरित, संसारपरित्त के रूप में कितने काल तक रहता है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से अनन्तकाल जो यावत् देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्तरूप है। भगवन् ! अपरित्त, अपरित्त के रूप में कितने काल तक रहता है ? गौतम ! अपरित्त दो प्रकार के हैं--काय-अपरित्त और संसार-अपरित्त / भगवन् ! काय-अपरित्त, काय-अपरित्त के रूप में कितने काल रहता है ? गौतम ! जघन्य से अंतर्मुहूर्त और उत्कर्ष से अनन्तकाल अर्थात् वनस्पतिकाल तक रहता है / Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्व जीवाभिगम] 179 संसार-प्रपरित्त दो प्रकार के हैं-अनादि-अपर्यवसित और अनादि-सपर्यवसित / नोपरित्त-नोअपरित सादि-अपर्यवसित है / कायपरित्त का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर वनस्पतिकाल है। संसारपरित्त का अन्तर नहीं है। काय-अपरित्त का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्येयकाल अर्थात् पृथ्वीकाल है। अनादि-अपर्यवसित संसारापरित्त का अंतर नहीं है / अनादि-सपर्यवसित संसारापरित्त का अन्तर नहीं है। अनादि-सपर्यवसित संसारापरित्त का भी अन्तर नहीं है। नोपरित्त-नोअपरित्त का भी अन्तर नहीं है। अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े परित्त हैं, नोपरित्त-नोअपरित्त अनन्तगुण हैं और अपरित्त अनन्तगुण हैं। विवेचन--अन्य विवक्षा से सर्व संसारी जीव तीन प्रकार के हैं—परित्त, अपरित्त और नोपरित्त-नोअपरित्त / परित्त का सामान्यतया अर्थ है सीमित / जिन्होंने संसार को तथा साधारण वनस्पतिकाय को सीमित कर दिया है, वे जीव परित्त कहलाते हैं। इससे विपरीत अपरित्त हैं तथा सिद्धजोव नोपरित्त-नोअपरित्त हैं / इन तीनों प्रकार के जीवों की कायस्थिति, अन्तर और अल्पबहुत्व का विचार इस सूत्र में किया गया है / कायस्थिति--परित्त दो प्रकार के हैं--कायपरित्त और संसारपरित्त / कायपरित्त अर्थात् प्रत्येकशरीर / संसारपरित्त अर्थात् जिसका संसार-परिभ्रमणकाल अपार्धपुद्गलपरावर्त के अन्दरअन्दर है। परित्त जघन्य से अन्तमुहर्त तक कायपरित्त रह स क कायपरित्त रह सकता है। वह साधारणवनस्पति से परित्तों में अन्तर्मुहूर्त काल तक रहकर पुनः साधारण में चले जाने की अपेक्षा से है। उत्कर्ष से असंख्येयकाल तक रह सकता है। यह असंख्येयकाल असंख्येय उत्सपिणी-अवसपिणी रूप है तथा क्षेत्र से असंख्येय लोकों के आकाशप्रदेशों का प्रतिसमय एक-एक के मान से अपहार करने पर जितने समय में वे निर्लेप हो जायें, उतने समय तक का है। अथवा यों कह सकते हैं कि पृथ्वी काय आदि प्रत्येकशरीरी का जितना संचिट्ठणकाल है, उतने काल तक रह सकता है। इसके पश्चात् नियम से साधारण रूप में पैदा होता है। संसारपरित्त जघन्य से अन्तर्मुहूर्त तक उसी रूप में रह सकता है / इसके बाद कोई अन्तकृत्केवली होकर मोक्ष में जा सकता है। उत्कर्ष से अनन्तकाल तक उसी रूप में रह सकता है। वह अनन्तकाल कालमार्गणा से अनन्त उत्सपिणी-अवपिणी रूप होता है और क्षेत्र से अपार्धपूदगलपरावर्त होता है / इसके बाद नियम से वह सिद्धि प्राप्त करता है। अन्यथा संसारपरित्तत्व का कोई मतलब नहीं रहता। अपरित्त दो प्रकार के हैं--काय-अपरित्त और संसार-अपरित्त / काय-अपरित्त साधारणवनस्पति जीव हैं और संसार-अपरित्त कृष्णपाक्षिक जीव हैं। काय-अपरित्त जघन्य से अन्तर्मुहूर्त उसी रूप में रह सकता है, तदनन्तर किसी भी प्रत्येकशरोरी में जा सकता है / उत्कर्ष से वह अनन्तकाल तक उसी रूप में रह सकता है / यह अनन्तकाल वनस्पतिकाल है, जिसका स्पष्टीकरण पहले कालमार्गणा और क्षेत्रमार्गणा से किया जा चुका है। ___ संसार-अपरित्त दो प्रकार के हैं-अनादि-अपर्यवसित, जो कभी मोक्ष में नहीं जायेगा और अनादि-सपर्यवसित (भव्य विशेष)। Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10] [जीवाजीवाभिगमसूत्र नोपरित्त-नोअपरित्त सिद्ध जीव है। वह सादि-अपर्यवसित है, क्योंकि वहां से प्रतिपात नहीं होता। अन्तरद्वार-काय-परित्त का अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त है। साधारणों में अन्तर्मुहूर्त तक रहकर पुनः प्रत्येकशरीरी में पाया जा सकता है। उत्कर्ष से अनन्तकाल पूर्वोक्त वनस्पतिकाल समझना चाहिए / उतने काल तक साधारण रूप में रह सकता है। संसार-परित्त का अन्तर नहीं है। क्योंकि संसार-परित्तत्व से छूटने पर पुनः संसार-परित्तत्व नहीं होता तथा मुक्त का प्रतिपात नहीं होता। काय-अपरित्त का अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त है। प्रत्येक-शरीरों में अन्तर्मुहूर्त तक रहकर पुनः काय-अपरित्तों में पाना संभव है। उत्कर्ष से असंख्येयकाल का अन्तर है। यह असंख्येयकाल पृथ्वी काल है। इसका स्पष्टीकरण कालमार्गणा और क्षेत्रमार्गणा से पहले किया जा चुका है / पृथ्वी आदि प्रत्येकशरीरी भवों में भ्रमणकाल उत्कर्ष से इतना ही है। ___ संसार-अपरित्तों में जो अनादि-अपर्यवसित हैं, उनका अन्तर नहीं होता अपर्यवसित होने से और अनादि-सपर्यवसित का भी अन्तर नहीं होता, क्योंकि संसार-अपरित्तत्व के जाने पर पुनः संसारअपरित्तत्व संभव नहीं है। नोपरित्त-नोअपरित्त का भी अन्तर नहीं है, क्योंकि वे सादि-अपर्यवसित होते हैं। अल्पबहुत्वद्वार--सबसे थोड़े परित्त हैं, क्योंकि कार्य-परित्त और संसार-परित्त जीव थोड़े हैं / उनसे नोपरित्त-नोअपरित्त अनन्तगुण हैं, क्योंकि सिद्ध जीव अनन्त हैं। उनसे अपरित्त अनन्तगुण हैं, क्योंकि कृष्णपाक्षिक अतिप्रभूत हैं। 239. अहवा तिविहा सन्दजीवा पण्णत्ता, तं जहा—पज्जत्तगा, अपज्जत्तगा, नोपज्जत्तगानोअपज्जत्तगा। पज्जत्तगे गं भंते ! * ? जहष्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं सागरोवमसयपुहुत्तं साइरेगं / अपज्जत्तो णं भंते०? जहन्नेणं अंतोमुहत्त, उक्कोसेणं अंतोमुत्तं / नोपज्जत्त-नोअपज्जत्तए साइए अपज्जवसिए। ___ पज्जत्तगस्स अंतरं जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं अंतोमुहत्तं / अपज्जत्तगस्स जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं सागरोवमसयपुहुत्तं साइरेगं / तइयस्स पत्थि अंतरं। __ अप्पाबहुयं सव्वत्थोवा नोपज्जत्तग-नोअपज्जत्तगा, अपज्जत्तगा अणंतगुणा, पज्जत्तगा संखिज्जगुणा। ___ 239. अथवा सब जीव तीन तरह के हैं-पर्याप्तक, अपर्याप्तक और नोपर्याप्तकनोअपर्याप्तक / भगवन् ! पर्याप्तक, पर्याप्तक रूप में कितने समय तक रहता है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से साधिक सागरोपमशतपृथक्त्व ( दो सौ से नौ सौ सागरोपम) तक रह सकता है। ___भगवन् ! अपर्याप्तक, अपर्याप्तक के रूप में कितने समय तक रह सकता है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कर्ष से भी अन्तर्मुहूर्त तक रह सकता है। Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्व जीवाभिगम] [11 नोपर्याप्तक-नोअपर्याप्तक सादि-अपर्यवसित है। भगवन् ! पर्याप्तक का अन्तर कितना है ? गौतम ! जघन्य अन्तमुहूर्त और उत्कर्ष से भी अन्तर्मुहूर्त है / अपर्याप्तक का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक सागरोपशत-पृथक्त्व है / तृतीय नोपर्याप्तक-नोअपर्याप्तक का अन्तर नहीं है। अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े नोपर्याप्तक-नोअपर्याप्तक हैं, उनसे अपर्याप्तक अनन्तगुण हैं, उनसे पर्याप्तक संख्येयगुण हैं / विवेचन–पर्याप्तक को कायस्थिति जघन्य अन्तमुहर्त है / जो अपर्याप्तकों से पर्याप्तक में उत्पन्न होकर वहां अन्तर्मुहूर्त रहकर फिर अपर्याप्त में उत्पन्न होने की अपेक्षा से है। उत्कृष्ट कायस्थिति दो सौ से लेकर नौ सौ सागरोपम से कुछ अधिक है। इसके बाद नियम से अपर्याप्तक रूप में जन्म होता है। यह कथन लब्धि की अपेक्षा से है, अतः अपान्तराल में उपपात अपर्याप्तकत्व के होने पर भी कोई दोष नहीं है / अपर्याप्त की काय स्थिति जघन्य और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है, क्योंकि अपर्याप्तलब्धि का इतना ही काल है / जघन्य से उत्कृष्ट पद अधिक है। नोपर्याप्तकनोअपर्याप्तक सिद्ध हैं। वे सादि-अपर्यवसित हैं, अतः सदाकाल उसी रूप में रहते हैं। पर्याप्तक का अन्तर जघन्य और उत्कृष्ट से अन्तर्मुहर्त है। क्योंकि अपर्याप्तकाल ही पर्याप्तक का अन्तर है / अपर्याप्तकाल जघन्य से और उत्कर्ष से भी अन्तर्मुहूर्त ही है। अपर्याप्तक का जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर साधिक सागरोपम-शतपृथक्त्व है। पर्याप्तक काल ही अपर्याप्तक अन्तर है और पर्याप्तकाल जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से साधिक सागरोपशमतपृथक्त्व ही है। नोपर्याप्त-नोअपर्याप्त का अन्तर नहीं है, क्योंकि वे सिद्ध हैं और वे अपर्यवसित हैं। अल्पबहुत्वद्वार में सबसे थोड़े नोपर्याप्तक-नोअपर्याप्तक हैं, क्योंकि सिद्ध जीव शेष जीवों की अपेक्षा अल्प हैं। उनसे अपर्याप्तक अनन्तगुण हैं, क्योंकि निगोदजीवों में अपर्याप्तक अनन्तानन्त सदैव लभ्यमान हैं। उनसे पर्याप्तक संख्येयगुण हैं, क्योंकि सूक्ष्मों में अोघ से अपर्याप्तकों से पर्याप्तक संख्येयगुण हैं। 240. अहवा तिविहा सध्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा-सुहमा बायरा नोसुहम-नोबायरा / सुहमे णं भंते ! सुह मेत्ति कालमो केवचिरं होइ ? जहणणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं असंखिज्जकालं पुढविकालो / बायरा जहण्णणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं असंखिज्जकालं असंखिज्जाओ उस्सप्पिणी-प्रोसप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ अंगुलस्स असंखेज्जइभागो। नोसुहम-नोबायरे साइए अपज्जवसिए। सुहुमस्स अंतरं बायरकालो / बायरस्स अंतरं सुहुमकालो / तइयस्स नोसुहुम-नोबायरस्स अंतरं णस्थि / अप्पाबहुयं-सव्वत्थोवा नोसुहम-नोबायरा, बायरा अणंतगुणा, सुहमा असंखेज्जगुणा / 240. अथवा सर्व जीव तीन प्रकार के हैं--सूक्ष्म, बादर और नोसूक्ष्म-नोबादर / भगवन् ! सूक्ष्म, सूक्ष्म के रूप में कितने समय तक रहता है / गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 182] [जीवाजीवाभिगमसूत्र और उत्कर्ष से असंख्येयकाल अर्थात् पृथ्वीकाल तक रहता है / बादर, बादर के रूप में जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट असंख्येयकाल तक रहता है / यह असंख्येयकाल असंख्येय उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी रूप है कालमार्गणा से / क्षेत्रमार्गणा से अंगुल का असंख्येयभाग है। नोसूक्ष्म-नोबादर सादि-अपर्यवसित हैं / सूक्ष्म का अन्तर बादरकाल है और बादर का अन्तर सूक्ष्मकाल है। तीसरे नोसूक्ष्म-नोबादर का अन्तर नहीं है / अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े नोसूक्ष्म-नोबादर हैं, उनसे बादर अनन्तगुण हैं और उनसे सूक्ष्म असंख्येयगुण हैं। विवेचन--सूक्ष्म और बादर को लेकर तीन प्रकार के सर्व जीव कहे हैं—सूक्ष्म, बादर और नोसूक्ष्म-नोबादर / इन तीनों की कायस्थिति, अन्तर तथा अल्पबहुत्व इस सूत्र में बताया है। ___ कायस्थिति सूक्ष्म की कायस्थिति जघन्य से अन्तर्मुहूर्त है। उसके बाद पुनः बादरों में उत्पत्ति हो सकती है। उत्कर्ष से कायस्थिति असंख्येयकाल है। यह असंख्येयकाल असंख्येय उत्सर्पिणीअवसर्पिणो रूप है कालमार्गणा से, क्षेत्रमार्गणा से असंख्येय लोकाकाश के प्रदेशों के प्रति-समय एक-एक के अपहारमान से निर्लेप होने के काल के बराबर है / यही पृथ्वीकाल कहा जाता है। बादर की कायस्थिति जघन्य से अन्तर्मुहूर्त है। इसके बाद कोई जीव पुनः सूक्ष्मों में चला जाता है। उत्कर्ष से असंख्येयकाल है / यह असंख्येयकाल असंख्येय उत्सपिणी-अवसर्पिणी रूप हैं कालमार्गणा से, क्षेत्रमार्गणा से अंगुलासंख्येयभाग है। अर्थात् अंगुलमात्र क्षेत्र के असंख्येयभागवर्ती आकाश-प्रदेशों के प्रतिसमय एक-एक के मान से अपहार किये जाने पर निर्लेप होने के काल के बराबर है। इतने समय के बाद संसारी जीव सूक्ष्मों में नियमतः उत्पन्न होता है। नोसूक्ष्म-नोबादर सिद्ध जीव हैं, सादि-अपर्यवसित होने से सदा उसी रूप में बने रहते हैं / अन्तरद्वार-सूक्ष्म का अन्तर जघन्य से अन्तमुहूर्त और उत्कर्ष से असंख्येयकाल है। यह असंख्येयकाल अंगुलासंख्येयभाग है / बादरकाल इतना ही है। बादर का अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से असंख्येयकाल है। यह असंख्येयकाल क्षेत्र से असंख्येय लोकप्रमाण है / सूक्ष्मकाल इतना नोसूक्ष्म-नोबादर का अन्तर नहीं है, क्योंकि वह सादि-अपर्यवसित है / अपर्यवसित होने से अन्तर नहीं होता / ___ अल्पबहुत्वद्वार--सबसे थोड़े नोसूक्ष्म-नोबादर हैं, क्योंकि सिद्धजीव अन्य जीवों की अपेक्षा अल्प हैं / उनसे बादर अनन्तगुण हैं, क्योंकि बादरनिगोद जीव सिद्धों से भी अनन्तगुण हैं, उनसे सूक्ष्म असंख्येयगुण हैं क्योंकि बादरनिगोदों से सूक्ष्मनिगोद असंख्यातगुण हैं। 241. अहवा तिविहा सव्वजीवा पण्णता, तं जहा–सण्णी, असण्णी, नोसण्णी-नोअसणी। सण्णी णं भंते ! कालमो केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं सागरोदमसयपुहत्तं साइरेगं / असण्णी जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं वणस्सइकालो / नोसण्णीनोअसण्णी साहए.अपज्जवसिए। ___सण्णिस्स अंतरं जहण्णणं अंतोमुहत्त, उक्कोसेणं बणस्सइकालो। असण्णिस्स अंतरं जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं सागरोवमसयपुहत्तं साइरेगं, तइयस्स पत्थि अंतरं / Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्व जीवाभिगम] [183 अप्पाबहुयं-सव्वस्थोवा सपणी, नोसण्णी-नोअसण्णी अणंतगणा, असण्णी अणंतगणा। 241. अथवा सर्व जीव तीन प्रकार के हैं--संजी, असंजी, नोसंजी-तोगसंज्ञी। भगवन् ! संज्ञी, संज्ञी रूप में कितने समय तक रहता है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से सागरोपमशतपृथक्त्व से कुछ अधिक समय तक रहता है / असंज्ञो जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल / नोसंजी-नोअसंज्ञी सादि-अपर्यवसित है, अतः सदाकाल रहता है। संज्ञी का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है / असंज्ञी का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक सागरोपमशतपृथक्त्व है / नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी का अन्तर नहीं है। अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े संज्ञी हैं, उनसे नोसंजी-नोप्रसंज्ञी अनन्तगुण हैं और उनसे असंज्ञी अनन्तगुण हैं। विवेचन-संज्ञी, असंज्ञी को विवक्षा से जीवों का वैविध्य इस सूत्र में बताकर उनकी संचिट्ठणा, अन्तर और अल्पबहुत्व का कथन किया गया है / कायस्थिति (संचिटणा)-संज्ञी जघन्य से अन्तर्मुहूर्त तक उसी रूप में रह सकता है। इसके बाद पुनः कोई असंजियों में जा सकता है। उत्कर्ष से साधिक दो सौ सागरोपम से नौ सौ सागरोपम तक रह सकता है / इसके बाद संसारी जीव अवश्य प्रसंज्ञी में उत्पन्न होता है। असंज्ञी की कायस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त है। इसके बाद वह पुनः संज्ञियों में उत्पन्न हो सकता है। उत्कर्ष से अनन्तकाल तक असंज्ञियों में रह सकता है। यह अनन्तकाल वनस्पतिकाल है। कालमार्गणा से अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी रूप है तथा क्षेत्रमार्गणा से अनन्तलोक तथा असंख्येय पुद्गलपरावर्त रूप है / उन पुद्गलपरावर्तों का प्रमाण पावलिका के असंख्येयभागवर्ती समयों के बराबर है। नोसंजी-नोअसंज्ञी जीव सिद्ध हैं। वे सादि-अपर्यवसित हैं / अपर्यवसित होने से सदा उसी रूप में रहते हैं। अन्तरद्वार-संज्ञी का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त है और उत्कर्ष से अनन्तकाल है, जो वनस्पतिकाल तुल्य है / असंज्ञी का अवस्थानकाल जघन्य और उत्कर्ष से इतना ही है। ___ असंज्ञी का अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से साधिक सागरोपमशतपृथक्त्व है, क्योंकि संज्ञी का अवस्थानकाल जघन्य-उत्कर्ष से इतना ही है / ___ नोसंजी-नोअसंज्ञी का अन्तर नहीं है, क्योंकि वे सादि-अपर्यवसित हैं। अपर्यवसित होने से अन्तर नहीं होता। अल्पबहुत्वद्वार-सबसे थोड़े संज्ञी हैं, क्योंकि देव, नारक और गर्भव्युत्क्रान्तिक तिर्यंच और मनुष्य ही संज्ञी हैं / उनसे नोसंज्ञी-नोप्रसंज्ञी अनन्तगुण हैं, क्योंकि वनस्पति को छोड़कर शेष जीवों से सिद्ध अनन्तगुण हैं, उनसे असंज्ञी अनन्तगुण हैं, क्योंकि वनस्पतिजीव सिद्धों से अनन्तगुण हैं / Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 184] [जीवाजीवाभिगमसूत्र 242. अहवा सम्बजीया तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-भवसिद्धिया प्रभवसिद्धिया, नोभवसिद्धिया-नोअभवसिद्धिया। प्रणाइया सपज्जवसिया भवसिद्धिया, अणाइया अपज्जवसिया प्रभवसिद्धिया, साइयअपज्जवसिया नोभवसिद्धिया-नोअभवसिद्धिया / तिण्हपि नत्थि अंतरं / अप्पाबहयं-सव्वत्थोवा अभवसिद्धिया, गोभवसिद्धिया-णोअभवसिद्धिया अणंतगुणा, भवसिद्धिया अणंतगुणा। 242. अथवा सर्व जीव तीन प्रकार के हैं-भवसिद्धिक, अभवसिद्धिक और नोभवसिद्धिकनोग्रभवसिद्धिक। __ भवसिद्धिक जीव अनादि-सपर्यवसित हैं / अभवसिद्धिक अनादि अपर्यवसित हैं और उभयप्रतिषेधरूप सिद्ध जीव सादि-अपर्यवासित हैं। अत: तीनों का अन्तर नहीं है। अल्पवहुत्व में सबसे थोड़े अभवसिद्धिक हैं, उभयप्रतिषेधरूप सिद्ध उनसे अनन्तगुण हैं और भवसिद्धिक उनसे अनन्तगुण हैं। विवेचन- भव्य-अभव्य को लेकर सर्वजीवों का त्रैविध्य यहां बताया है। जिनकी सिद्धि होने वाली है वे भव्य हैं, जिनकी सिद्धि कभी नहीं होगी, वे अभव्य हैं और जो भव्यत्व और अभव्यत्व के विशेषण से रहित हैं, वे सिद्धजीव नोभव्य-नोअभव्य है। भवसिद्धिक जीव अनादि-सपर्यवसित हैं, अन्यथा वे भवसिद्धिक नहीं हो सकते / प्रभवसिद्धिक अनादि-अपर्यवसित हैं, अन्यथा वे अभवसिद्धिक नहीं हो सकते / नोभवसिद्धिक-नोप्रभवसिद्धिक सादि-अपर्यवसित हैं, क्योंकि सिद्धों का प्रतिपात नहीं होता। अतएव इनकी अवधि न होने से कायस्थिति सम्बन्धी प्रश्न नहीं है तथा इन तीनों का अन्तर भी नहीं घटता है, क्योंकि भवसिद्धिकत्व जाने पर पुन: भवसिद्धिकत्व असंभव है / अभवसिद्धिक का भी अन्तर नहीं है, क्योंकि वह अपर्यवसित होने से कभी नहीं छूटता / सिद्ध भी सादि-अपर्यवसित होने से अन्तर नहीं है। अल्पबहुत्वद्वार में सबसे थोड़े अभव्य हैं, क्योंकि वे जघन्य युक्तानन्तक के तुल्य है। उभयप्रतिषेधरूप सिद्ध उनसे अनन्तगुण हैं, क्योंकि अभव्यों से सिद्ध अनन्तगुण हैं और उनसे भवसिद्धिक अनन्तगुण हैं, क्योंकि भव्य जीव सिद्धों से भी अनन्तगुण हैं। 243. अहवा तिविहा सध्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा-- तसा, थावरा, नोतसा-नोथावरा। तसे गं भंते ! कालमो केचिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं दो सागरोवमसहस्साइं साइरेगाई / थावरस्स संचिटणा वणस्सइकालो / णोतसा-नोयावरा साइ. अपज्जवसिया। सस्स अंतरं वणस्सइकालो / थावरस्स अंतरं दो सागरोवमसहस्साइं साइरेगाइं / णोतसथावरस्स पत्थि अंतरं / अप्पाबहयं सम्वत्थोवा तसा, नोतसा-नोथावरा अणंतगुणा, थावरा अणंतगुणा। से तं तिविधा सब्दजीवा पण्णत्ता / 243. अथवा सर्व जीव तीन प्रकार के हैं-त्रस, स्थावर और नोत्रस-नोस्थावर / भगवन् ! स, त्रस के रूप में कितने काल तक रहता है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वजीवाभिगम] [155 और उत्कृष्ट साधिक दो हजार सागरोपम तक रह सकता है। स्थावर, स्थावर के रूप में वनस्पतिकाल पर्यन्त रह सकता है। नोत्रस-नोस्थावर सादि-अपर्यवसित हैं। अस का अन्तर वनस्पतिकाल है और स्थावर का अन्तर साधिक दो हजार सागरोपम है। नोत्रस-नोस्थावर का अन्तर नहीं है। अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े स हैं, उनसे नोत्रस-नोस्थावर (सिद्ध) अनन्तगुण हैं और उनसे स्थावर अनन्तगुण हैं। यह सर्व जीवों की विविध प्रतिपत्ति पूर्ण हुई। ( यह सूत्र वृत्ति में नहीं है। भवसिद्धिकादि सूत्र के बाद “से तं तिविहा सव्वजीवा पण्णत्ता" कहकर समाप्ति की गई है।) सर्वजीव-चतुविध-वक्तव्यता 244. तत्थ णं जेते एवमाहंसु चम्विहा सवजीवा पण्णत्ता, ते एवमाहंसु, तं जहामणजोगी, वइजोगी, कायजोगी, प्रजोगी। ___ मणजोगी गं भंते ! * ? जहन्नेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं अंतोमुहत्तं / एवं वइजोगीवि / कायजोगी जहन्नेणं अंतोमुहुत उक्कोसेणं वणस्सइकालो / अजोगी साइए अपज्जवसिए। मणजोगिस्स अंतरं जहणणं अंतोमुहुत्त उक्कोसेणं वणस्सइकालो / एवं वइजोगिस्सवि / कायजोगिस्स जहन्नेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं अंतोमहत्त / अयोगिस्स पत्थि अंतरं। अप्पाबयंसव्वत्थोवा मणजोगी, वइजोगी असंखेज्जगुणा, अजोगी अणंतगुणा, कायजोगी अणंतगुणा / 244. जो ऐसा कहते हैं कि सर्व जीव चार प्रकार के हैं, उनके कथनानुसार वे चार प्रकार ये हैं-मनोयोगी, वचनयोगी, काययोगी और अयोगी। भगवन् ! मनोयोगी, मनोयोगी रूप में कितने समय तक रहता है ? गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक रहता है / वचनयोगी भी इतना ही रहता है। काययोगी जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से वनस्पतिकाल तक रहता है / अयोगी सादि-अपर्यवसित है। मनोयोगी का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है। वचनयोगी का भी अन्तर इतना ही है / काययोगी का जघन्य अन्तर एक समय का है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अयोगी का अन्तर नहीं है। अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े मनोयोगी, उनसे वचनयोगी असंख्यातगुण, उनसे अयोगी अनन्तगुण और उनसे काययोगी अनन्तगुण हैं / विवेचन-योग-अयोग की अपेक्षा से यहां सर्व जीवों के चार भेद कहे गये हैं—मनोयोगी, वचनयोगी, काययोगी और अयोगी। इन चारों की संचिट्ठणा, अन्तर और अल्पबहुत्व प्रस्तुत सूत्र में कहा गया है। संचिटणा--मनोयोगी जघन्य से एक समय तक मनोयोगी रह सकता है। उसके बाद द्वितीय समय में मरण हो जाने से या मनन से उपरत हो जाने की अपेक्षा से एक समय कहा गया है। जैसाकि Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 186] [जीवाजीवाभिगमसूत्र पहले भाषक के विषय में कहा गया है। विशिष्ट मनोयोग्य पुद्गल-ग्रहण की अपेक्षा यह समझना चाहिए। उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त तक मनोयोगी रह सकता है / तथारूप जीवस्वभाव से इसके बाद वह नियम से उपरत हो जाता है / वचनयोगी से यहां मनोयोगरहित केवल वाग्योगवान द्वीन्द्रियादि अभिप्रेत हैं / वे जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त तक रह सकते हैं। यह भी विशिष्ट वाग्द्रव्यग्रहण की अपेक्षा से ही समझना चाहिए। काययोगी से यहां तात्पर्य वाग्योग-मनोयोग से विकल एकेन्द्रियादि ही अभिप्रेत हैं। वे जघन्य से अन्तर्मुहूर्त उसी रूप में रहते हैं / द्वीन्द्रियादि से निकल कर पृथ्वी आदि में अन्तर्मुहूर्त रहकर फिर द्वीन्द्रियों में गमन हो सकता है। उत्कर्ष से वनस्पतिकाल तक उस रूप में रहा जा सकता है / अयोगी सिद्ध हैं / वे सादि-अपर्यवसित हैं, अतः वे सदा उसी रूप में रहते हैं / अन्तरद्वार—मनोयोगी का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त है। इसके बाद पुनः विशिष्ट मनोयोग्य पुद्गलों का ग्रहण संभव है / उत्कर्ष से वनस्पतिकाल है। इतने काल तक वनस्पति में रहकर पुनः मनोयोगियों में प्रागमन संभव है। इसी तरह वाग्योगो का जघन्य और उत्कर्ष अन्तर भी जान लेना चाहिए। काययोगी का जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अंतर अन्तर्मुहूर्त कहा है। यह कथन औदारिककाययोग की अपेक्षा से कहा गया है। क्योंकि दो समय वाली अपान्तरालगति में एक समय का अन्तर है। उत्कर्ष से अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है / यह कथन परिपूर्ण औदारिकशरीरपर्याप्ति की परिसमाप्ति को अपेक्षा से है। वहां विग्रह समय लेकर औदारिकशरीरपर्याप्ति की समाप्ति तक अन्तर्मुहूर्त का अन्तर है / अतः उत्कर्ष से अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा गया है। वृत्तिकार ने इस कथन के समर्थन में चूर्णिकार के कथन को उद्धृत किया है / साथ ही वृत्तिकार ने कहा है कि ये सूत्र विचित्र अभिप्राय से कहे गये होने से दुर्लक्ष्य हैं, अतएव सम्यक् सम्प्रदाय से इन्हें समझा जाना चाहिए / वह सम्यक् सम्प्रदाय इसी रूप में है, अतएव वह युक्तिसंगत है / सूत्राभिप्राय को समझे बिना अनुपपत्ति की उद्भावना नहीं करनी चाहिए / केवल सूत्रों को संगति करने में यत्न करना चाहिए।' अल्पबहुत्वद्वार--सबसे थोड़े मनोयोगी हैं, क्योंकि देव, नारक, गर्भज तिर्यक् पंचेन्द्रिय और मनुष्य ही मनोयोगी हैं / उनसे वचनयोगी असंख्येयगुण हैं, क्योंकि द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय वाग्योगी हैं। उनसे अयोगी अनन्तगुण हैं, क्योंकि सिद्ध अनन्त हैं। उनसे काययोगी अनन्तगुण हैं, क्योंकि सिद्धों से वनस्पति जीव अनन्तगुण हैं। 245. अहवा चउम्विहा सव्वजीवा पण्णता, तं जहा–इथिवेयगा पुरिसवेयगा नपुंसकवेयगा अबेयगा। इथिवेयगा गं भंते ! इथिवेयएत्ति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा! (एगेण आएसेणं०) 1. न चैतत् स्वमनीषिका विजम्भितं, यत प्राह चणिकृत-"कायजोगिस्स जह एक्कं समयं, कहं ? एकसामयिक विग्रहमतस्य, उक्कोसं अंतोमुहुत्तं, विग्रहसमयादारभ्य औदारिकशरीरपर्याप्तकस्य यावदेवं अन्तमुहूर्तम् दृष्टव्यम् / सूत्राणि ह्यमूनि विचित्राभिप्रायतया दुर्लक्ष्याणीति सम्यकसम्प्रदायादवसातव्यानि / सम्प्रदायश्च यथोक्तस्वरूपमिति न काचिदनुपपत्तिः / न च सूत्राभिप्रायमज्ञात्वा अनुपपत्तिरूपाभावनीया। Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वजीवाभिगम] [17 पलियसयं दसुत्तरं अट्ठारस चोद्दस पलियपुहत्तं समओ जहणणं / पुरिसवेयस्स जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं सागरोवमसयपुहुत्तं साइरेगं / नपुंसगवेयस्स जहन्नेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं प्रणतं कालं वणस्सइकालो। अवेयए दुविहे पण्णत्ते, साइए वा अपज्जवसिए, साइए वा सपज्जवसिए। से जहन्नेणं एक्क समयं उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं / इस्थिवेयस्स अंतरं जहणणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं बणस्सइकालो। पुरिसवेयस्स जहन्नेणं एग समयं उक्कोसेणं वणस्सइकालो। नसगवेयस्स जहण्णेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं सागरोषमसयपुहुत्तं साइरेगं / अवेयगो जह हेट्ठा। अप्पाबहुयं-सव्वत्थोवा पुरिसवेदगा, इत्थिवेदगा संखेज्जगुणा, अवेदगा अर्णतगुणा, नपुंसकवेदगा अणंतगुणा। 245. अथवा सर्व जीव चार प्रकार के हैं-स्त्रीवेदक, पुरुषवेदक, नपुसकवेदक और अवेदक। भगवन् ! स्त्रीवेदक, स्त्रीवेदक रूप में कितने समय तक रह सकता है ? गौतम ! विभिन्न अपेक्षा से (पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक) एक सौ दस, एक सौ, अठारह, चौदह पल्योपम तक तथा पल्योपमपृथक्त्व रह सकता है / जघन्य से एक समय तक रह सकता है। पुरुषवेदक, पुरुषवेदक के रूप में जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक सागरोपमशतपृथक्त्व तक रह सकता है। नपुंसकवेदक जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अनन्तकाल तक रह सकता है / अवेदक दो प्रकार के हैं-सादि-अपर्यवसित और सादि-सपर्यवसित / सादि-सपर्यवसित अवेदक जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक रह सकता है। स्त्रीवेदक का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है। पुरुषवेद का अन्तर जघन्य एक समय और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है / नपुसकवेद का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक सागरोपमशतपृथक्त्व है। अवेदक का जैसा पहले कहा गया है, अन्तर नहीं अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े पुरुषवेदक, उनसे स्त्रीवेदक संख्येयगुण, उनसे अवेदक अनन्तगुण और उनसे नपुंसकवेदक अनन्तगुण हैं। विवेचन-वेद की अपेक्षा से सर्व जीवों के चार प्रकार बताये हैं-स्त्रीवेदक, पुरुषवेदक, नपुसकवेदक और अवेदक / इनकी संचिट्ठणा, अन्तर और अल्पबहुत्व यहां प्रतिपादित है। संचिटणा-स्त्रीवेदक. स्त्रीवेदक के रूप में कितना रह सकता है? इस प्रश्न में उत्तर में पांच अपेक्षाओं से पांच तरह का काला पक्षाओं से पांच तरह का कालमान बताया गया है। यह विषय विस्तार से त्रिविध प्रतिपत्ति में पहले कहा जा चुका है, फिर भी संक्षेप में यहां दे रहे हैं। स्त्रीवेद की कायस्थिति एक अपेक्षा से जघन्य एक समय और उत्कृष्ट 110 पल्योपम की है। कोई स्त्री उपशमश्रेणी में वेदत्रय के उपशमन से अवेदकता का अनुभव करती हुई पुनः उस श्रेणी से पतित होती हुई कम-से-कम एक समय तक स्त्रीवेद के उदय को भोगती है। द्वितीय समय में वह मरकर देवों में उत्पन्न हो जाती है, वहां उसको पुरुषवेद प्राप्त हो जाता है / अतः उसके स्त्रीवेद का काल एक समय का घटित होता है। Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18.] [जीवाजीवाभिगमसूत्र कोई जीव पूर्वकोटि की आयुवाली मनुष्य या तिर्यंच स्त्री के रूप में पांच या छह भवों तक उत्पन्न हो, फिर वह ईशानकल्प में पचपन पल्योपम प्रमाण की आयुवाली अपरिगहीला देवी की पर्याय में उत्पन्न होवे, वहाँ से पुनः पूर्वकोटि अायुवाली मनुष्य या तिर्यच स्त्री के रूप में उत्पन्न होकर दूसरी बार ईशान देवलोक में पचपन पल्योपम की आयुवाली अपरिगृहीता देवी में उत्पन्न हो, इस तरह पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक 110 पल्योपम तक वह जीव स्त्रीपर्याय में लगातार रह सकता है। दूसरी अपेक्षा से पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक सौ पल्योपम की कायस्थिति स्त्रीवेद की इस प्रकार घटित होती है-कोई पूर्वकोटि प्रायुवाली स्त्री पांच छह बार तिर्यंच या मनुष्य स्त्री के भवों में उत्पन्न होकर सौधर्म देवलोक की 50 पल्योपम की उत्कृष्ट स्थिति वाली अपरिगृहीता देवी के रूप में उत्पन्न होकर पनः मनुष्य-तिर्यंच में उत्पन्न होकर दुबारा 50 पल्योपम की प्राय वाली अपरिगृहीता देवी के रूप में उत्पन्न हो / इस तरह पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक सौ पल्योपम की स्त्रीवेद की कायस्थिति होती है। तीसरी अपेक्षा से पूर्व विशेषणों वाली स्त्री ईशान देवलोक में उत्कृष्ट स्थितिवाली परिगृहीता देवी के रूप में नो पल्योपम तक रहकर मनुष्य या तिर्यंच में उसी तरह रहकर दुबारा ईशान देवलोक में नौ पल्योपय की स्थितिवाली परिगृहीता देवी बने, इस अपेक्षा से पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक 18 पल्योपम की स्थिति बनती है। चौथी अपेक्षा से पूर्वोक्त विशेषण वाली स्त्री सौधर्म देवलोक की सात पल्योपम की उत्कृष्ट स्थिति वाली परिगृहीता देवी के रूप में रहकर, मनुष्य या तिर्यंच का पूर्ववत् भव करके दुबारा सौधर्म देवलोक में उत्कृष्ट सात पल्योपम की स्थितिवाली परिगृहीता देवी बने, इस अपेक्षा से पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक 14 पल्योपम की कायस्थिति होती है / पांचवी अपेक्षा से स्त्रीवेद की कायस्थिति पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक एक पल्योपम की है / वह इस प्रकार है-कोई जीव पूर्वकोटि की प्रायूवाली तियंच या मनुष्य स्त्रियों में सात भव तक उत्पन्न होकर आठवें भव में देवकुरु आदिकों की तीन पल्योपम की स्थिति वाली स्त्रियों में उत्पन्न हो और वहां से मरकर सौधर्म देवलोक में जघन्यस्थिति वाली देवी के रूप में उत्पन्न हो, ऐसी स्थिति में पूर्वकोटिपृथक्त्वाधिक पल्योपमपृथक्त्व की कायस्थिति घटित होती है। पुरुषवेद की कायस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक सागरोपमशतपृथक्त्व है। स्त्रोवेद आदि से निकलकर अन्तर्मुहूर्त काल पुरुषवेद में रहकर पुनः स्त्रोवेद को प्राप्त करने की अपेक्षा से जघन्यकायस्थिति बनती है। देव, मनुष्य और तिर्यंच भवों में भ्रमण करने से पुरुषवेद की कायस्थिति उत्कृष्ट से साधिक सागरोपमशतपृथक्त्व होती है / इतने समय बाद पुरुषवेद का रूपान्तर होता ही है / यहां शंका की जा सकती है कि जैसे स्त्रीवेद, नपुसकवेद की जघन्य कायस्थिति एक समय की कही है। (उपशमश्रेणी में वेदोपशमन के पश्चात् एक समय तक स्त्रीवेद या नपुसकवेद के अनुभवन को लेकर) वैसे पुरुषवेद को एक समय की कायस्थिति जघन्यरूप से क्यों नहीं कही गई है। समाधान में कहा गया है कि उपशमश्रेणी में जो मरता है, वह पुरुषवेद में ही उत्पन्न होता है, अन्य Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वजीवाभिगम [189 वेद में नहीं / अतः जन्मान्तर में भी सातत्य रूप से गमन की अपेक्षा एकसमयता घटित नहीं होती है। नपुसकवेद की जघन्यस्थिति एक समय की है। स्त्रीवेद के अनुसार युक्ति कहनी चाहिए / उत्कर्ष से वनस्पतिकाल पर्यन्त कायस्थिति है / अवेदक दो प्रकार के हैं—सादि-अपर्यवसित (क्षीणवेद वाले ) और सादि-सपर्यवसित (उपशान्तवेद वाले)। सादि-सपर्यवसित अवेदक की कायस्थिति जघन्य से एक समय है, क्योंकि द्वितीय समय में भरकर देवगति में पुरुषवेद सम्भव है। उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त की कायस्थिति है। तदनन्तर मरकर पुरुषवेद वाला हो जाता है या श्रेणी से गिरता हुआ जिस वेद से श्रेणी पर चढ़ा, उस वेद का उदय हो जाने से वह सवेदक हो जाता है। ___ अन्तरद्वार-स्त्रीवेद का अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहर्त है। क्योंकि वेद का उपशम होने पर पुनः अन्तर्मुहूर्त काल में वेद का उदय हो सकता है। अथवा स्त्रीपर्याय से निकलकर पुरुषवेद या नपुसकवेद में अन्तर्मुहुर्त रहकर पुनः स्त्रीपर्याय में पाया जा सकता है / उत्कर्ष से अन्तर वनस्पतिकाल है। पुरुषवेद का अन्तर जघन्य एक समय है / क्योंकि उपशमश्रेणी में पुरुषवेद का उपशम होने पर एक समय के अनन्तर मरकर पुरुषत्व रूप में उत्पन्न होना सम्भव है। उत्कर्ष से वनस्पतिकाल अन्तर है। __ नपुसकवेद का अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त है। युक्ति स्त्रीवेद में कथित अन्तर की तरह जानना चाहिए / उत्कर्ष से साधिक सागरोपमशतपृथक्त्व का अन्तर है। इसके बाद संसारी जीव अवश्य नपुसक रूप में उत्पन्न होता है। अवेदक में सादि-अपर्यवसित का अन्तर नहीं होता, अपर्यवसित होने से। सादि-सपर्यवसित अवेदक का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि अंतर्मुहूर्त के बाद पुनः श्रेणी का प्रारम्भ सम्भव है। उत्कर्ष से अनन्तकाल / यह अनन्तकाल कालमार्गणा से अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी रूप है तथा क्षेत्रमार्गणा से देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्त है / इतने काल के पश्चात् जिसने पहले श्रेणी की है वह पुनः श्रेणी का प्रारम्भ कर अल्पबहुत्वद्वार--सबसे थोड़े पुरुषवेदक हैं, क्योंकि देव-मनुष्य-तिर्यंचगति में वे अल्प ही हैं। उनसे स्त्रीवेदक संख्यातगुण हैं। क्योंकि तिर्यंचगति में स्त्रियां पुरुषों से तिगुनी हैं, मनुष्यगति में सत्ताईस गुणी हैं और देवगति में बत्तीस गुणी हैं। उनसे अवेदक अनन्तगुण हैं, क्योंकि सिद्ध अनन्त हैं / उनसे नपुंसकवेदक अनन्तगुण हैं, क्योंकि वनस्पतिजीव सिद्धों से अनन्तगुण हैं। 246. अहवा चउम्विहा सव्वजोवा पण्णता, तं जहा-चक्खुदंसणी अचक्खुदसणी अवधिदसणी केवलदसणी। चक्खुवंसणी णं भंते! * ? जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं सागरोवमसहस्सं साइरेगं / अचक्खुदसणी दुविहे पण्णत्ते-अणाइए वा अपज्जवसिए, अणाइए वा सपज्जवसिए। ओहिदसणी जहन्नेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं दो छावहिसागरोपमाणं साइरेगाओ। Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 190 जीवाजीवामिगमसूत्र केवलदसणी साइए अपज्जवसिए / ___ चक्खुदंसणिस्स अंतरं जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं वणस्सहकालो। अचक्खुदंसणिस्स दुविहस्स नत्थि अंतरं / प्रोहिदंसणिस्स जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो। केवलसणिस्स पत्थि अंतरं। .अप्पाबहुयं-सव्वत्थोवा प्रोहिदसणी, चक्खुदंसणी असंखेज्जगुणा, केवलदसणी प्रणंतगुणा, अचक्षुदंसणी अणंतगुणा। 246. अथवा सर्व जीव चार प्रकार के हैं-चक्षुर्दर्शनी, अचक्षुर्दर्शनी, अवधिदर्शनी और केवलदर्शनी। भगवन् ! चक्षुर्दर्शनी काल से लगातार कितने समय तक चक्षुर्दर्शनी रह सकता है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक एक हजार सागरोपम तक रह सकता है। अचक्षुर्दर्शनी दो प्रकार के हैं-अनादि-अपर्यवसित और अनादि-सपर्यवसित। अवधिदर्शनी लगातार जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से साधिक दो छियासठ सागरोपम तक रह सकता है। केवलदर्शनी सादि-अपर्यवसित है। चक्षुर्दर्शनी का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है। दोनों प्रकार के अचक्षदर्शनी का अन्तर नहीं है / अवधिदर्शनी का जघन्य अन्तर अन्तमुहर्त और उत्कर्ष वनस्पतिकाल है। केवलदर्शनी का अन्तर नहीं है। अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े अवधिदर्शनी, उनसे चक्षुर्दर्शनी असंख्येयगुण हैं, उनसे केवलदर्शनी अनन्तगुण हैं और उनसे अचक्षुर्दर्शनी भी अनन्तगुण हैं / विवेचन--दर्शन को लेकर सब जीवों का चातुर्विघ्य इस सूत्र में बताकर उनकी कायस्थिति, अन्तर और अल्पबहुत्व प्रतिपादित किया गया है। ___ कायस्थिति-चक्षुर्दर्शनी, चक्षुर्दर्शनीरूप में जघन्य से अन्तर्मुहूर्त तक रह सकता है। अचक्षुदर्शनी से निकलकर चक्षुर्दर्शनी में अन्तर्मुहूर्त काल तक रहकर पुनः प्रचक्षुर्दर्शनी में जा सकता है। उत्कर्ष से साधिक एक हजार सागरोपम तक रह सकता है। अचक्षुर्दर्शनी दो प्रकार के हैं--अनादि-अपर्यवसित जो कभी सिद्धि प्राप्त नहीं करेगा और अनादि-सपर्यवसित भव्य जीव जो सिद्धि प्राप्त करेगा। अनादि और अपर्यवसित की कालमर्यादा नहीं है। अवधिदर्शनी उसी रूप में जघन्य से एक समय तक रहता है। अवधिदर्शन प्राप्त करने के पश्चात् कोई एक समय में ही मरण को प्राप्त हो जाय अथवा मिथ्यात्व में जाने से या दुष्ट अध्यवसाय के कारण अवधि से प्रतिपात हो सकता है। उत्कर्ष से साधिक दो छियासठ (66+66) सागरोपम तक रह सकता है / इसकी युक्ति इस प्रकार है Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वजीवाभिगम] [ 191 कोई विभंगज्ञानी तिर्यंच या मनुष्य नीचे सप्तम पृथ्वी में उत्पन्न हुआ / वहां तेतीस सागरोपम तक रहा / उद्वर्तनाकाल नजदीक आने पर सम्यक्त्व को पाकर पुनः उसे छोड़ देता है और विभंगज्ञान सहित पूर्वकोटि आयु वाले तिर्यंच में उत्पन्न हुआ और वहां से पुनः विभंगसहित ही अधःसप्तमी पृथ्वी में उत्पन्न हया और तेतीस सागरोपम तक स्थित रहा / उदवर्तनाकाल में थोड़ी देर सम्यक्त्व पाकर उसे छोड़ देता है और विभंग सहित पुनः पूर्वकोटि आयु वाले तिर्यंच में उत्पन्न होता है। इस प्रकार दो बार सप्तम पृथ्वी में उत्पन्न होने तथा दो बार तिर्यंच में उत्पन्न होने से साधिक 66 सागरोपम काल होता है / विग्रह में विभंग का प्रतिषेध होने से अविग्रह रूप से उत्पन्न होना कहना चाहिए।' उक्त कथन में जो बीच-बीच में थोड़ी देर के लिए सम्यक्त्व होने की बात कही गई है, वह इसलिए कि विभंगज्ञान देशोन तेतीस सागरोपम पूर्वकोटि अधिक तक ही उत्कर्ष से रह सकता है। अतएव बीच में सम्यक्त्व का थोड़ी देर के लिए होना कहा गया है। उक्त रीति से साधिक एक 66 सागरोपम तक रहने के बाद वह विभंगज्ञानी अपतित विभंग की स्थिति में ही मनुष्यत्व पाकर सम्यक्त्व पूर्वक संयम की आराधना करके विजयादि विमानों में दो बार उत्पन्न हो तो दूसरे 66 सागरोपम तक वह अवधिदर्शनी रहा / अवधिदर्शन तो अवधिज्ञान और विभंगज्ञान में तुल्य ही होता है। इस अपेक्षा से अवधिदर्शनी दो छियासठ सागरोपम तक उस रूप में रह सकता है। केवलदर्शनी सादि-अपर्यवसित है, अतः कालमर्यादा नहीं है। अन्तरद्वार-चक्षुर्दर्शनी का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त है। इतने काल का अचक्षुर्दर्शन का व्यवधान होकर पुनः चक्षुर्दर्शनी हो सकता है / उत्कर्ष से अन्तर वनस्पतिकाल है / अनादि-अपर्यवसित अचक्षुर्दर्शन का अन्तर नहीं है / अनादि-सपर्यवसित का भी अंतर नहीं है। अचक्षुर्दर्शनित्व के चले जाने पर फिर अचक्षुर्दर्शनित्व नहीं होता; जिसके घातिकर्म क्षीण हो गये हों, उसका प्रतिपात नहीं होता। अवधिदर्शनी का जघन्य अन्तर एक समय का है। प्रतिपात के अनन्तर समय में ही पुनः उसका लाभ हो सकता है। कहीं-कहीं अन्तर्मुहूर्त ऐसा पाठ है / इतने व्यवधान के बाद पुनः उसकी प्राप्ति हो सकती है / उक्त पाठ निर्मूल नहीं है, क्योंकि मूल टीकाकार ने भी मतान्तर के रूप में उसका उल्लेख किया है / उत्कर्ष से अवधिदर्शनी का अन्तर वनस्पतिकाल है। इतने व्यवधान के बाद पुनः अवश्य अवधिदर्शन होता है / अनादि मिध्यादृष्टि को भी होने में कोई विरोध नहीं है / ज्ञान तो सम्यक्त्व सहित ही होता है, किन्तु दर्शन, सम्यक्त्वसहित ही हो ऐसा नहीं है। केवलदर्शनी सादि-अपर्यवसित होने से अन्तर नहीं है। अल्पबहुत्वद्वार—अवधिदर्शनी सबसे थोड़े हैं, क्योंकि वह देव, नारक और कतिपय गर्भज तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्य को ही होता है। उनसे चक्षुर्दर्शनी असंख्येयगुण हैं, क्योंकि सम्मूछिम तिर्यक् पंचेन्द्रिय और चतुरिन्द्रियों को भी वह होता है। उनसे केवलदर्शनी अनन्तगुण हैं, क्योंकि सिद्ध अनन्त हैं / उनसे अचक्षुर्दर्शनी अनन्तगुण हैं, क्योंकि एकेन्द्रियों के भी अचक्षुर्दर्शन होता है। 1. विभंगणाणी पंचेंदिय तिरिक्खजोणिया मणुया य पाहारगा, नो अनाहारगा। 2. "विभंगणाणी जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई देसूणाए पुन्चकोडिए अब्भहियाइं त्ति"। Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 192] [जीवाजोवाभिगमसूत्र 247. अहवा चउब्धिहा सव्वजीवा पणत्ता, तं जहा–संजया असंजया संजयासंजया नोसंजया-नोअसंजया-नोसंजयासंजया। संजए णं भंते! * ? जहन्नणं एक्कं समयं उक्कोसेणं देसूणा पुष्यकोडी। असंजया जहा अण्णाणी / संजयासंजए जहन्नणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं देसूणा पुश्वकोडी / नोसंजय-नोअसंजय यासंजए साइए अपज्जवसिए। संजयस्स संजयासंजयस्स दोण्हवि अंतरं जहण्णणं अंतोमहत्तं उक्कोसेणं प्रवड्ढं पोग्गलपरियट देसूणं / असंजयस्स आदि दुबे णत्थि अंतरं। साइयस्स सपज्जवसियस्स जहन्नणं एक्कं समयं उक्कोसेणं देसूणा पुग्यकोडी / चउत्थगस्स णस्थि अंतरं / अप्पाबहुयं-सम्वत्थोवा संजया, संजयासंजया असंखेज्जगुणा, णोसंजय-णोअसंजय-णोसंजयासंजया अणंतगुणा, प्रसंजया अणंतगुणा। सेत्तं चम्विहा सव्वजीवा पण्णत्ता / 247. अथवा सर्व जीव चार प्रकार के हैं-संयत, असंयत, संयतासंयत और नोसंयतनोअसंयत-नोसंयतासंयत / भगवन् ! संयत, संयतरूप में कितने काल तक रहता है ? गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि तक रहता है। असंयत का कथन अज्ञानी की तरह कहना / संयतासंयत जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि / नोसंयतनोप्रसंयत-नोसंयतासंयत सादि-अपर्यवसित है। ___ संयत और संयतासंयत का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्त है / असंयतों के तीन प्रकारों में से आदि के दो प्रकारों में अन्तर नहीं है / सादि-सपर्यवसित असंयत का अन्तर जघन्य एक समय और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि है। चौथे नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत का अन्तर नहीं है। ___अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े संयत हैं, उनसे संयतासंयत असंख्येयगुण हैं, उनसे नोसंयत-नोअसंयतनोसंयतासंयत अनन्तगुण हैं और उनसे असंयत अनन्तगुण हैं। इस प्रकार सर्व जीवों की चतुर्विध प्रतिपत्ति पूरी हुई। विवेचन-संयत, असंयत को लेकर सर्व जीवों के चार प्रकार इस सूत्र में बताकर उनकी कायस्थिति, अन्तर तथा अल्पबहुत्व का विचार किया गया है। सर्व जीव चार प्रकार के हैं-१. संयत, 2. असंयत, 3. संयतासंयत और 4. नोसंयतनोप्रसंयत-नोसंयतासंयत / कायस्थिति संयत, संयत के रूप में जघन्य एक समय तक रह सकता है। सर्वविरति परिणाम के अनन्तर समय में किसी का मरण भी हो सकता है, इस अपेक्षा से जघन्य एक समय कहा गया है / उत्कर्ष से देशोन पूर्वकोटि तक रह सकता है। असंयत तीन प्रकार के हैं—अनादि-अपर्यवसित, अनादि-सपर्यवसित और सादि-सपर्यवसित / अनादि-अपर्यवसित असंयत वह है जो कभी संयम नहीं लेगा। अनादि-सपर्यवसित असंयत वह है जो Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वजीवाभिगम] [193 संयम लेगा और उसी प्राप्त संयम से सिद्धि प्राप्त करेगा। सादि-सपर्यवसित असंयत वह है, जो सर्वविरति या देशविरति से परिभ्रष्ट हया है। प्रादि दो की अनादि और प्रपर्यवसित होने से कालमर्यादा नहीं है, सादि-सपर्यवसित असंयत जघन्य से अन्तर्मुहूर्त तक रहता है / इसके बाद पुनः कोई संयत हो सकता है / उत्कर्ष से अनन्तकाल तक जो अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी रूप (कालमार्गणा से) है और क्षेत्रमार्गणा से देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्त रूप है। संयतासंयत की कायस्थिति जघन्य से अन्तर्मुहूर्त है। संयतासंयतत्व की प्राप्ति बहुत सारे भंगों से होती है, फिर भी उसका जघन्य से अन्तमुहर्त तो है ही ! उत्कर्ष से देशोन पूर्वकोटि है / बालकाल में उसका अभाव होने से देशोनता जाननी चाहिए। नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत सिद्ध हैं। वे सादि-अपर्यवसित हैं। सदा उस रूप में रहते हैं। अन्तरद्वार--संयत का अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त है। इतने काल के असंयतत्व से पुनः कोई संयतत्व में आ सकता है / उत्कर्ष से अन्तर अनन्तकाल है, जो क्षेत्र से देशोन पुद्गलपरावर्त रूप है / जिसने पहले संयम पाया है, वह इतने काल के व्यवधान के बाद नियम से संयम लाभ करता है / अनादि-अपर्यवसित असंयत का अन्तर नहीं है / अनादि-सपर्यवसित असंयत का भी अन्तर नहीं है। सादि-सपर्यवसित असंयत का अन्तर जघन्य एक समय और उत्कर्ष से देशोन पूर्वकोटि है। असंयतत्व का व्यवधान रूप संयतकाल और संयतासंयतकाल उत्कर्ष से इतना ही है / संयतासंयत का अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त है। क्योंकि उससे गिरकर कोई पुनः इतने काल में संयतासंयत हो सकता है / उत्कर्ष से संयत की तरह कहना चाहिए / नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत सिद्ध हैं। वे सादि-अपर्यवसित होने से अन्तर नहीं है / अपर्यवसित होने से सदा उस रूप में रहते हैं। ____ अल्पबहुत्वद्वार-सबसे थोड़े संयत हैं, क्योंकि वे संख्येय कोटि-कोटि प्रमाण हैं। उनसे संयतासंयत असंख्येयगुण हैं, क्योंकि असंख्येय तिर्यंच देशविरति वाले हैं। उनसे त्रितयप्रतिषेध रूप सिद्ध अनन्तगुण हैं और उनसे असंयत अनन्तगुण हैं, क्योंकि सिद्धों से वनस्पतिजीव अनन्तगुण हैं। सर्वजीव-पञ्चविध-वक्तव्यता 248. तत्थ जेते एवमाहंसु पंचविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, ते एवमाहंसु, तं जहा-कोहकसाई माणकसाई मायाकसाई लोभकसाई अकसाई। __ कोहकसाई माणकसाई मायाकसाई गं जहन्नगं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं अंतोमुहत्तं / लोभकसाई जहन्नणं एक्कं समयं उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं / अकसाई दुविहे जहा हेट्ठा। कोहकसाई-माणकसाई मायाकसाई गं अंतरं जहन्नणं एक्कं समयं उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं / लोहकसाइस्स अंतरं जहन्नणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं / अकसाई तहा जहा हेट्ठा / अप्पाबहुयं-अकसाइणो सम्वत्थोवा, माणकसाई तहा अणंतगुणा / कोहे माया लोभे विसेसहिया मुणेयव्वा / Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जीवाजीवाभिगमसूत्र 248. जो ऐसा कहते हैं कि पांच प्रकार के सर्व जीव हैं, उनके अनुसार वे पांच भेद इस प्रकार हैं--क्रोधकषायी, मानकषायी, मायाकषायी, लोभकषायी और अकषायी। क्रोधकषायी, मानकषायी, मायाकषायी जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से भी अन्तर्मुहूर्त तक उस रूप में रहते हैं। लोभकषायी जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक उस रूप में रह सकता है। अकषायी दो प्रकार के हैं (जैसा कि पहले कहा है) सादि-अपर्यवसिन और सादि-सपर्यवसित / सादि-सपर्यवसित जघन्य एक समय, उत्कर्ष से अन्तमुहूर्त तक उस रूप में रह सकता है / क्रोधकषायी, मानकषायी और मायाकषायी का अन्तर जघन्य एक समय और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त है / लोभकषायी का अंतर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से अंतर्मुहूर्त है / अकषायी के विषय में जैसा पहले कहा गया है, वैसा ही समझना। अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े अकषायी हैं, उनसे मानकषायी अनन्तगुण हैं, उनसे क्रोधकषायी, मायाकषायी और लोभकषायी क्रमशः विशेषाधिक जानना चाहिए। विवेचन-कषाय-अकषाय की विवक्षा से सर्व जीवों के पांच प्रकार इस तरह हैं---क्रोधकषायी, मानकषायी, मायाकषायी, लोभकषायी और अकषायी / इनकी कायस्थिति, अन्तर और अल्पबहुत्व इस प्रकार है कायस्थिति-क्रोधकषायी, मानकषायी और मायाकषायो की काय स्थिति जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से भी अन्तर्मुहूर्त है। क्योंकि कहा गया है कि क्रोधादि का उपयोगकाल अन्तर्मुहूर्त है।' लोभकषायी जघन्य से एक समय तक उस रूप में रहता है / यह कथन उपशमश्रेणी से गिरते समय लोभकषाय के उदय होने के प्रथम समय के अनन्तर समय में मरण हो जाने की अपेक्षा से है / मरण के समय किसी के क्रोधादि का उदय सम्भव है। क्रम से गिरना मरणाभाव की स्थिति में होता है, मरण में नहीं / उत्कर्ष से अन्तमुहूर्त की कायस्थिति है / ___ अकषायी दो प्रकार के हैं- सादि-अपर्यवसित (केवली) और सादि-सपर्यवसित (उपशान्तकषाय) / सादि-सपर्यवसित अकषायी की कायस्थिति जघन्य से एक समय है, द्वितीय समय में मरण होने से क्रोधादि का उदय होने से सकषायत्व की प्राप्ति हो सकती है। उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि उपशान्तमोहगुणस्थान का काल इतना ही है / अन्य प्राचार्यों का कथन है कि जघन्य से भी अन्तर्मुहूर्त ही कहना चाहिए, क्योंकि ऐसा वृद्धप्रवाद है कि लोभोपशम के लिए प्रवृत्त का अन्तर्मुहूर्त से पहले मरण नहीं होता / यह कथन सूत्रकार के अभिप्राय से भी युक्त लगता है, क्योंकि उन्होंने आगे चलकर लोभकषायी को कायस्थिति जघन्य और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त कही है। अन्तरद्वार-क्रोधकषायी का अन्तर जघन्य एक समय है, क्योंकि उपशमसमय के अनन्तर मरण होने से पुन: किसी के उसका उदय हो सकता है, उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त है। इसी तरह मानकषायी और मायाकषायी का भी अन्तर कहना चाहिए। लोभकषायी का जघन्य से भी और उत्कर्ष से भी अन्तर्मुहूर्त का अन्तर है, केवल जघन्य से उत्कृष्ट बृहत्तर है। 1. क्रोधायुपयोगकालो अन्तर्मुहूर्त मितिवचनात् / Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वजीवाभिगम [195 सादि-अपर्यवसित अकषायी का अन्तर नहीं है / सादि-सपर्यवसित अकषायी का अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त है। इतने काल के बाद पुनः श्रेणीलाभ हो सकता है। उत्कर्ष से अनन्तकाल है, जो क्षेत्र से देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्त है। पूर्व-अनुभूत अकषायित्व की इतने काल में पुनः नियम से प्राप्ति होती ही है। अल्पबहुत्वद्वार—सबसे थोड़े अकषायी, क्योंकि सिद्ध ही अकषायी हैं। उनसे मानकषायी अनन्तगुण हैं, क्योंकि निगोद-जीव सिद्धों से अनन्तगुण हैं। उनसे क्रोधकषायी विशेषाधिक हैं, क्योंकि क्रोधकषाय का उदय चिरकालस्थायी है, उनसे मायाकषायी विशेषाधिक हैं और उनसे लोभकषायी विशेषाधिक हैं, क्योंकि माया और लोभ का उदय चिरतरकाल स्थायी है। 249. अहवा पंचविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा–णेरड्या तिरिक्खजोणिया मणुस्सा देवा सिद्धा / संचिट्ठणंतराणि जह हेट्ठा भणियाणि / अप्पाबहुयं सम्वत्थोवा मणुस्सा, रइया असंखेज्जगुणा, देवा असंखेज्जगुणा, सिद्धा अणंतगुणा, तिरिया अणंतगुणा / . सेत्तं पंचविहा सव्वजीवा पण्णत्ता। 249. अथवा सब जीव पांच प्रकार के हैं-नैरयिक, तिर्यक्योनिक, मनुष्य, देव और सिद्ध / संचिट्ठणा और अन्तर पूर्ववत् कहना चाहिए। अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े मनुष्य, उनसे नैरयिक असंख्येयगुण, उनसे देव असंख्येयगुण, उनसे सिद्ध अनन्तगुण और उनसे तिर्यग्योनिक अनन्तगुण हैं / इनकी कायस्थिति, अन्तर और अल्पबहुत्व पहले कहा जा चुका है। इस तरह पंचविध सर्वजीवप्रतिपत्ति पूर्ण हुई / सर्वजीव-षड्विध-वक्तव्यता 250. तत्थ णं जेते एवमाहंसु छब्विहा सव्यजीवा पण्णत्ता, ते एवमाहंसु, तं जहा- आभिणिबोहियणाणी सुयणाणी ओहिणाणी मणपज्जवणाणी केवलणाणी अण्णाणी। प्राभिणिबोहियणाणी णं भंते ! प्राभिणिबोहियणाणित्ति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं छाढि सागरोवमाइं साइरेगाई, एवं सुयणाणीवि / ओहिणाणी णं भंते! * ? जहन्नेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं छाढि सागरोवमाई साइरेगाई। मणपज्जवणाणी णं भंते! * ? जहन्नेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं देसूणा पुन्यकोडी। केवलणाणी णं भंते०!? साइए अपज्जवसिए। अण्णाणिणो तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-अणाइए वा अपज्जवसिए, अणाइए वा सपज्जवसिए, साइए वा सपज्जवसिए / तत्थ साइए सपज्जवसिए जहन्नेणं अंतो० उक्को० अणंतकालं अवड्ढे पुग्गलपरियटै देसूणं / / ___ अंतरं आभिणिबोहियणाणिस्स जह• अंतो०, उक्को० अणंतं कालं अवड्ड पुग्गलपरियझे देसूर्ण। एवं सुयणाणिस्स प्रोहिणाणिस्स मणपज्जवणाणिस्स अंतरं। केवलणाणिणो पत्थि अंतरं / अण्णाणिस्स साइयपज्जवसियस्स जह० अंतो०, उक्को० छावटि सागरोवमाई साइरेगाई / Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 196] [ जीवाजीवाभिगमसूत्र अप्पाबहुयं-सव्वत्थोवा मणपज्जवणाणिणो, ओहिणाणिणो असंखेज्जगणा, आभिणिबोहियणाणिणो सुयणाणिणो विसेसाहिया सट्टाणे दोवि तुल्ला, केवलणाणिणो अणंतगुणा, अण्णाणिणो अणंतगुणा / अहवा छव्विहा सध्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा.-एगिदिया बेंदिया तेंदिया चरिदिया पंचेंदिया अणिदिया / संचिट्ठणा तहा हेट्ठा / ___अप्पाबयं-सव्वत्थोवा पंचेंदिया, चरिबिया विसेसाहिया, तेइंदिया विसेसाहिया, बेइंदिया विसेसाहिया, अणिदिया अणंतगुणा, एगिदिया अणंतगुणा / 250. जो ऐसा कहते हैं कि सब जीव छह प्रकार के हैं, उनका प्रतिपादन ऐसा है-सब जीव छह प्रकार के हैं, यथा--आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्यायज्ञानी, केवलज्ञानी और अज्ञानी। भगवन् ! आभिनिबोधिकज्ञानी, आभिनिबोधिकज्ञानी के रूप में कितने समय तक लगातार रह सकता है ? गौतम ! जघन्य से अन्तमुहर्त और उत्कृष्ट से साधिक छियासठ सागरोपम तक रह सकता है। इसी प्रकार श्रुतज्ञानी के लिये भी समझना चाहिए। अवधिज्ञानी उसी रूप में कितने समय तक लगातार रह सकता है ? गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कर्ष से साधिक छियासठ सागरोपम तक रह सकता है / भगवन् ! मनःपर्यायज्ञानी उसी रूप में कितने समय तक रह सकता है ? गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कर्ष से देशोन पूर्वकोटि तक रह सकता है / . भगवन् ! केवलज्ञानी उसी रूप में कितने समय तक रहता है ? गौतम ! केवलज्ञानी सादिअपर्यवसित है। __ अज्ञानी तीन तरह के हैं- 1. अनादि-अपर्यवसित, 2. अनादि-सपर्यवसित और 3. सादिसपर्यवसित / इनमें जो सादि-सपर्यवसित है, वह जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से अनन्तकाल तक जो देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्त रूप है। आभिनिबोधिकज्ञानी का अन्तर जघन्य अंतर्मुहूर्त और उत्कर्ष से अनन्तकाल, जो देशोन अपार्धपुदगलपरावर्त रूप है। इसी प्रकार श्रतज्ञानी. अवधिज्ञानी और मनःपर्यायज्ञानी का अन्तर कहना चाहिए / केवलज्ञानी का अन्तर नहीं है। ___सादि-सपर्यवसित अज्ञानी का अन्तर जघन्य अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक छियासठ सागरोपम है। __ अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े मन:पर्यायज्ञानी हैं, उनसे अवधिज्ञानी असंख्येयगुण हैं, उनसे आभिनिबोधिकज्ञानी और श्रुतज्ञानो विशेषाधिक हैं और दोनों स्वस्थान में तुल्य हैं / उनसे केवलज्ञानी अनन्तगुण हैं और उनसे अज्ञानी अनन्तगुण हैं / / अथवा सर्व जीव छह प्रकार के हैं-एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय और अनिन्द्रिय / इनकी काय स्थिति और अन्तर पूर्वकथनानुसार कहना चाहिए। Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वजीवाभिगम] [197 अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े पंचेन्द्रिय, उनसे चतुरिन्द्रिय विशेषाधिक, उनसे त्रीन्द्रिय विशेषाधिक, उनसे द्वीन्द्रिय विशेषाधिक, उनसे अनिन्द्रिय अनन्तगुण और उनसे एकेन्द्रिय अनन्त विवेचन--ज्ञानी और अज्ञानी को अपेक्षा से सर्व जीव के छह भेद इस प्रकार बताये हैं१. आभिनिबोधिक ज्ञानी (मतिज्ञानी), 2. श्रुतज्ञानी, 3. अवधिज्ञानी, 4. मनःपर्यायज्ञानी, 5. केवलज्ञानी, 6. अज्ञानी / इनकी संचिट्ठणा, अन्तर और अल्पबहुत्व इस सूत्र में वर्णित है / वह इस प्रकार है संचिद्रणा (कायस्थिति)—प्राभिनिबोधिकज्ञानी जघन्य से अन्तमुहर्त तक लगातार उस रूप में रह सकता है / क्योंकि जघन्य से सम्यक्त्वकाल इतना ही है। उत्कर्ष से साधिक छियासठ सागरोपम तक रह सकता है / यह विजयादि में दो बार जाने की अपेक्षा समझना चाहिये / श्रुतज्ञानी की काय स्थिति भी इतनी ही है, क्योंकि आभिनिबोधिकज्ञान और श्रुतज्ञान दोनों अविनाभूत हैं। कहा गया है कि जहां प्राभिनिबोधिकज्ञान है वहां श्रुतज्ञान है और जहां श्रुतज्ञान है वहां आभिनिबोधिकज्ञान है। ये दोनों अन्योन्य-अनुगत हैं।' अवधिज्ञानी की कास्थिति जघन्य से एक समय है / यह एकसमयता या तो अवधिज्ञान होने के अनन्तर समय में मरण हो जाने से अथवा प्रतिपात से मिथ्यात्व में जाने से ( विभंगपरिणत होने से ) जाननी चाहिए / उत्कर्ष से साधिक छियासठ सागरोपम को है, जो मतिज्ञानी की तरह जाननी चाहिए। मनःपर्यायज्ञानी की कायस्थिति जघन्य एक समय है, क्योंकि द्वितीय समय में मरण होने से प्रतिपात हो सकता है। उत्कर्ष से देशोन पूर्वकोटि है / क्योंकि चारित्रकाल उत्कर्ष से भी इतना ही है / केवलज्ञानी सादि-अपर्यवसित है / अतः उस भाव का कभी त्याग नहीं होता। अज्ञानी तीन प्रकार के हैं अनादि-अपर्यवसित, अनादि-सपर्यवसित और सादि-सपर्यवसित / इनमें जो सादि-सपर्यवसित है, उसकी कायस्थिति जघन्य से अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि उसके बाद कोई सम्यक्त्व पाकर पुनः ज्ञानी हो सकता है / उत्कर्ष से अनन्तकाल है जो देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्त रूप है, क्योंकि ज्ञानित्व से परिभ्रष्ट होने के बाद इतने काल के अन्तर से अवश्य पुनः ज्ञानी बनता ही है / अन्तरद्वार--आभिनिबोधिक ज्ञानी का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। परिभ्रष्ट होने के इतने काल के बाद पूनः वह प्राभिनिबोधिकज्ञानी हो सकता है। उत्कर्ष से अन्तर देशोन अपार्धपूद परावर्त काल है / इसी प्रकार श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी और मनःपर्यायज्ञानी का अन्तर भी जानना चाहिए / केवलज्ञानी का अन्तर नहीं है, क्योंकि वह सादि-अपर्यवसित है। अनादि-अपयंवसित प्रज्ञानी का तथा अनादि-सपर्यवसित अज्ञानी का अन्तर नहीं है, क्योंकि अपर्यवसित और अनादि होने से / सादि-सपर्यवसित का जघन्य अन्तर अंतर्मुहूर्त है / क्योंकि इतने काल में वह पुनः ज्ञानी से अज्ञानी हो सकता है / उत्कर्ष से अन्तर साधिक छियासठ सागरोपम है। ना 1. 'जत्थ आभिणिबोहियनाणं तत्थ सुयणाणं, जत्थ सुयणाणं तत्थ आभिणिबहियनाणं, दोवि एयाई अण्णोपण मणुगयाई' इति वचनात् / Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 198] [जीवाजोवाभिगमसूत्र ___ अल्पबहुत्वद्वार-- सबसे थोड़े मनःपर्यायज्ञानी हैं, क्योंकि मनःपर्यायज्ञान केवल विशिष्ट चारित्रवालों को ही होता है। उनसे अवधिज्ञानी असंख्यातगुण हैं, क्योंकि देवों और नारकों को भी अवधिज्ञान होता है। उनसे आभिनिबोधिकज्ञानी और श्रुतज्ञानी दोनों विशेषाधिक हैं तथा ये स्वस्थान में परस्पर तुल्य हैं। उनसे केवलज्ञानी अनन्तगुण हैं, क्योंकि केवलज्ञानी सिद्ध अनन्त हैं / उनसे अज्ञानी अनन्त हैं, क्योंकि अज्ञानी वनस्पतिकायिक जीव सिद्धों से भी अनन्तगुण हैं। अथवा इन्द्रिय और अनिन्द्रिय की विवक्षा से सर्व जीव छह प्रकार के कहे गये हैं—एकेन्द्रिय यावत पंचेन्द्रिय और अनिन्द्रिय / अनिन्द्रिय सिद्ध हैं। इनकी काय स्थिति, अंतर और अल्पबहुत्व पूर्व में कहा जा चुका है। 251. अहवा छन्विहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा-पोरालियसरीरी वेउब्वियसरीरी आहारगसरीरी तेयगसरोरी कम्मगसरीरी असरीरी / ओरालियसरीरी णं भंते ! कालो केवचिरं होइ ? जहन्नेणं खुडागं भवग्गहणं दुसमयऊणं उक्कोसेणं असंखिज्ज कालं जाध अंगुलस्स असंखेज्जइभागं / वेउब्वियसरीरी जहन्नेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं तेत्तीस सागरोवमा अंतोमहत्तमभहियाई / आहारगसरीरी जहन्नेणं अंतो० उक्को अंतोमुहत्तं / तेयगसरीरी दुविहे पण्णत्त-प्रणाइए वा अपज्जवसिए, अणाइए वा सपज्जवसिए। एवं कम्मगसरीरीवि / प्रसरोरी साइए-अपज्जवसिए। अंतरं पोरालियसरीरस्स जहन्नेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं अंतोमुहत्तमभहियाई / वेउब्वियसरीरस्स जह० अंतो० उक्को० अणंसकालं वणस्सइकालो। आहारगस्स सरीरस्स जह० अंतो० उक्को० अणंतकालं जाव प्रवड्ड पोग्गलपरियटें देसूणं / तेयगसरीरस्स कम्मसरीरस्स य दोहवि गस्थि अंतरं। अप्पाबहुयं-सव्वत्थोवा पाहारगसरोरी, वेउध्वियसरीरी असंखेज्जगुणा, ओरालियसरीरी असंखेज्जगुणा, असरीरी अणंतगुणा, तेयाकम्मसरीरी दोवि तुल्ला अणंतगुणा / सेतं छव्यिहा सव्वजीवा पण्णत्ता। 251. अथवा सर्व जीव छह प्रकार के हैं-औदारिकशरीरी, वैक्रियशरीरी, आहारकशरीरी, तेजसशरीरी, कार्मणशरीरी और अशरीरी। भगवन् ! औदारिकशरीरी लगातार कितने समय तक रह सकता है ? गौतम ! जघन्य से दो समय कम क्षुल्लकभवग्रहण और उत्कर्ष से असंख्येयकाल तक / यह असंख्येयकाल अंगुल के असंख्यातवें भाग के प्राकाशप्रदेशों के अपहारकाल के तुल्य है। वैक्रियशरीरी जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागरोपम तक रह सकता है। आहारकशरीरी जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से भी अन्तर्मुहूर्त तक ही रह सकता है / तेजसशरीरी दो प्रकार के हैं-अनादि-अपर्यवसित और अनादि-सपर्यवसित / इसी तरह कार्मणशरीरी भी दो प्रकार के हैं। अशरीरी सादि-अपर्यवसित हैं। 1. 'तं संजयस्स सव्वप्पमायरहियस्स विविधरिद्धिमतो' इति वचनात् / Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वजीवाभिगम] [199 औदारिकशरीर का अन्तर जघन्य एक समय और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागरोपम है / वैक्रियशरीर का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल है, जो वनस्पतिकालतुल्य है / आहारकशरीर का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल है, जो देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्त रूप है / तेजस-कार्मण-शरीरी का अन्तर नहीं है / ___अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े आहारकशरीरी, वैक्रियशरीरी उनसे असंख्यातगुण, उनसे प्रौदारिकशरीरी असंख्यातगुण हैं, उनसे अशरीरी अनन्तगुण हैं और उनसे तेजस-कार्मणशरीरी अनन्तगुण हैं और ये स्वस्थान में दोनों तुल्य हैं। इस प्रकार षड्विध सर्वजीवप्रतिपत्ति पूर्ण हुई। विवेचन-शरीर-अशरीर को लेकर सर्व जीव छह प्रकार के हैं—औदारिकशरीरी, वैक्रियशरीरी, आहारकशरीरी, तेजसशरीरी, कार्मणशरीरी और अशरीरी। इनकी कायस्थिति, अन्तर और अल्पबहुत्व इस प्रकार है ___ कायस्थिति-औदारिकशरीर उस रूप में लगातार जघन्य से दो समय कम क्षुल्लकभव तक रह सकता है। विग्रहगति में आदि के दो समय में कार्मणशरीरी होने से दो समय कम कहा है। उत्कर्ष से असंख्येयकाल तक रह सकता है। इतने काल तक अविग्रह से उत्पाद सम्भव है। यह असंख्येयकाल अंगुल के असंख्यातवें भागवर्ती आकाश-प्रदेशों को प्रतिसमय एक-एक के मान से अपहार करने पर जितने समय में वे निर्लेप हो जायें, उतने काल के बराबर हैं। वैक्रियशरीरी जघन्य से एक समय तक उसी रूप में रहता है। विकुर्वणा के अनन्तर समय में ही किसी का मरण सम्भव है। उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागरोपम तक रहता है / कोई चारित्रसम्पन्न संयति वैक्रियशरीर करके अन्तर्मुहूर्त जीकर स्थितिक्षय से अविग्रह द्वारा अनुत्तरविमानों में उत्पन्न हो सकता है, इस अपेक्षा से जानना चाहिए। आहारकशरीरी जघन्य से और उत्कर्ष से भी अन्तर्मुहूर्त तक ही उस रूप में रह सकता है / तेजसशरीरी और कार्मणशरीरी दो-दो प्रकार के हैं-अनादि-अपर्यवसित (ये कभी मुक्त नहीं होगा) और अनादि-सपर्यवसित (मुक्तिगामी)। ये दोनों अनादि और अपर्यवसित होने से कालमर्यादा रहित हैं। अशरीरी सादि-अपर्यवसित हैं. अतः सदा उस रूप में रहते हैं। ___ अन्तरद्वार-औदारिकशरीरी का अन्तर जघन्य से एक समय है / वह दो समयवाली अपान्तराल गति में होता है, प्रथम समय में कार्मणशरीरी होने से। उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागरोपम है / यह उत्कृष्ट वैक्रियकाल है। वैक्रियशरीरी का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहुर्त है। एक बार वैक्रिय करने के बाद इतने व्यवधान पर दुबारा वैक्रिय किया जा सकता है। मानव और देवों में ऐसा होता है। उत्कर्ष से वनस्पतिकाल का अन्तर स्पष्ट ही है। आहारकशरीरी का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। एक बार करने के बाद इतने व्यवधान से पुनः किया जा सकता है। उत्कर्ष से अनन्तकाल, जो देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्त रूप है। तेजसकार्मणशरीर का अन्तर नहीं है। Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200] [ जीवाजीदाभिगमसूत्र ___ अल्पबहुत्वद्वार--सबसे थोड़े अाहारकशरीरी हैं, क्योंकि ये अधिक से अधिक दो हजार से नौ हजार तक ही होते हैं। उनसे वैक्रियशरीरी असंख्येयगुण हैं, क्योंकि देव, नारक, गर्भज तिर्यंच पंचेन्द्रिय, मनुष्य और वायुकाय वैक्रियशरीरी हैं। उनसे औदारिकशरीरी असंख्येयगुण हैं / निगोदों में अनन्तजीवों का एक ही प्रौदारिकशरीर होने से असंख्यगुणत्व ही घटित होता है, अनन्तगुण नहीं / जैसा कि मूल टीकाकार ने कहा-औदारिकशरीरियों से अशरीरी अनन्तगुण हैं, सिद्धों के अनन्त होने से, औदारिकशरीरी शरीर की अपेक्षा असंख्येय हैं।' औदारिकशरीरियों से अशरीरी अनन्तगुण हैं, क्योंकि सिद्ध अनन्त हैं। उनसे तेजस-कार्मणशरीरी अनन्तगुण हैं, क्योंकि निगोदों में तेजस-कार्मणशरीर प्रत्येक जीव के अलग-अलग हैं और वे अनन्तगुण हैं / तेजस और कार्मणशरीर परस्पर अविनाभावी हैं और परस्पर तुल्य हैं। इस प्रकार षड्विध सर्वजीवप्रतिपत्ति पूर्ण हुई। सर्वजीव-सप्तविध-वक्तव्यता 252. तत्थ णं जेते एवमाहंसु सत्तविहा सव्वजीवा पण्णत्ता ते एवमाहंसु, तं जहा-पुढविकाइया आउकाइया तेउकाइया वाउकाइया वणस्सइकाइया तसकाइया अकाइया। संचिट्ठणंतरा जहा हेट्ठा। अप्पाबहुयं- सव्वत्थोवा तसकाइया, तेउकाइया असंखेज्जगुणा, पुढविकाइया विसेसाहिया, आउकाइया विसेसाहिया, वाउकाइया विसेसाहिया, सिद्धा (अकाइया) अणंतगुणा, वणस्सइकाइया अणंतगुणा। 252. जो ऐसा कहते हैं कि सब जीव सात प्रकार के हैं, वे ऐसा प्रतिपादन करते हैं, यथापृथ्वोकायिक, अपकायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, त्रसकायिक और प्रकायिक / इनकी संचिट्ठणा और अंतर पहले कहे जा चुके हैं। अल्पबहुत्व इस प्रकार है-सबसे थोड़े त्रसकायिक, उनसे तेजस्कायिक असंख्यातगण, उनसे पृथ्वीकायिक विशेषाधिक, उनसे अप्कायिक विशेषाधिक, उनसे वायुकायिक विशेषाधिक, उनसे प्रकायिक अनन्तगुण और उनसे वनस्पतिकायिक अनन्तगुण हैं / इनका स्पष्टीकरण पहले किया जा चुका है। 253. अहवा सत्तविहा सव्वजीवा पण्णता, तं जहा–कण्हलेस्सा नोललेस्सा काउलेस्सा तेउलेस्सा पम्हलेस्सा सुक्कलेस्सा अलेस्सा। कण्हलेस्से णं भंते ! कण्हलेसेत्ति कालरो केचिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं अंतोमुत्तमभहियाई। णोललेस्से णं जहण्णेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसणं दससागरोबमाई पलिओवमस्स असंखेज्जइभागमभहियाई। काउलेस्से णं जह• अंतो० उक्को. तिणि सागरोवमाइं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागमभहियाई। तेउलेस्से णं जह० अंतो० उक्कोदोणि 1. प्राह च मुलटीकाकार:--प्रौदारिवाशरीरिभ्योऽशरीरा अनन्तगुणा: सिद्धानामनन्तत्वात्, औदारिकशरीरिणां च शरीरापेक्षयाऽसंख्येयत्वादिति / Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वजीवाभिगम [201 सागरोवमाई पलिओवमस्स असंखेज्जइभागमभहियाई / पम्हलेस्से गं जह. अंतो० उक्को० दस सागरोवमाइं अंतोमुहत्तमम्महियाई / सुक्कलेस्से णं भंते !? जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई अंतोमुत्तमम्महियाई / अलेस्से णं भंते !.? साइए अपज्जवसिए। ___ कण्हलेसस्स णं भंते ! अंतरं कालओ केचिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतो० उक्को. तेत्तीसं सागरोवमाइं अंतोमुत्तमम्माहियाई / एवं नीललेसस्सवि, काउलेसस्सवि / तेउलेसस्स णं भंते ! अंतरं कालओ० ? जहन्नेणं अंतो० उक्को० वणस्सइकालो। एवं पम्हलेसस्सवि सुक्कलेसस्सवि, दोण्हवि एवमंतरं / प्रलेसस्स णं भंते ! अंतरं कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा! साइयस्स अपज्जवसियस्स णस्थि अंतरं। एएसि गं भंते ! जीवाणं कण्हलेसाणं नीललेसाणं काउलेसाणं तेउलेसाणं पम्हलेसाणं सुक्कलेसाणं अलेसाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा ? गोयमा ! सम्वत्थोवा सुक्कलेस्सा, पम्हलेस्सा संखेज्जगणा, तेउलेस्सा संखेज्जगुण, अलेस्सा प्रणंतगुणा, काउलेस्सा अणंतगुणा, नीललेस्सा विसेसाहिया, कण्हलेस्सा विसेसाहिया। सेत्तं सत्तविहा सव्वजीवा पण्णत्ता। 253. अथवा सर्व जीव सात प्रकार के कहे गये हैं—कृष्णलेश्या वाले, नीललेश्या वाले, कापोतलेश्या वाले, तेजोलेश्या वाले, पद्मलेश्या वाले, शुक्ललेश्या वाले और अलेश्य / भगवन् ! कृष्णलेश्या वाला, कृष्णलेश्या वाले के रूप में काल से कितने समय तक रह सकता है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागरोपम तक रह सकता है। भगवन् ! नीललेश्या वाला उस रूप में कितने समय तक रह सकता है, गौतम ! जघन्य अन्तम हर्त और उत्कर्ष से पल्योपम का असंख्येयभाग अधिक दस सागरोपम तक रह सकता है। कापोतलेश्या वाला जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से पल्योपमासंख्येयभाग अधिक तीन सागरोपम रहता है / तेजोलेश्या वाला जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से पल्योपमासंख्येयभाग अधिक तीन सागरोपम तक रह सकता है / पद्मलेश्या वाला जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से पल्योपमासंख्येयभाग अधिक दस सागरोपम तक रहता है। शुक्ललेश्या वाला जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागरोपम तक रह सकता है। अलेश्य जीव सादि-अपयंवसित है, अतः सदा उसी रूप में रहते हैं। भगवन् ! कृष्णलेश्या का अन्तर कितना है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त अधिक तेतीस सागरोपम का है। इसीतरह नीललेश्या, कापोतलेश्या का भी जानना चाहिए / तेजोलेश्या का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है / इसीप्रकार पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या-दोनों का यही अन्तर है / भगवन् ! अलेश्य का अन्तर कितना है ? गौतम ! अलेश्य जीव सादि-अपर्यवसित होने से अन्तर नहीं है। भगवन् ! इन कृष्णलेश्या वाले, नीललेश्या वाले यावत् शुक्ललेश्या वाले और अलेश्यों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जीवालीवाभिगमसूत्र ___ गौतम ! सबसे थोड़े शुक्ललेश्या वाले, उनसे पद्मलेश्या वाले संख्यातगुण, उनसे तेजोलेश्या वाले संख्यातगण, उनसे भलेश्य अनंतगण, उनसे कापोतलेश्या बाले अनंतगण, उनसे नीलले तिलेश्या बाले अनंतगुण, उनसे नीललेश्या वाले विशेषाधिक, उनसे कृष्णलेश्या वाले विशेषाधिक हैं। विवेचन--प्रस्तुत सूत्र में छह लेश्या वाले और एक अलेश्य यों सर्व जीव के सात प्रकार बताये हैं ! उनकी कायस्थिति, अन्तर और अल्पबहुत्व का स्पष्टीकरण इस प्रकार है कायस्थिति-कृष्णलेश्या लगातार जघन्य से अन्तर्मुहुर्त रहती है, क्योंकि तियंच-मनुष्यों में कृष्णलेश्या अन्तर्मुहूर्त तक रहती है। उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागरोपम तक रहती है। देव और नारक पाश्चात्यभवगत चरम अन्तर्मुहूर्त और अग्रेतनभवगत अवस्थित प्रथम अन्तर्मुहूर्त तक अवस्थित लेश्या वाले होते हैं। अधःसप्तमपृथ्वी के नारक कृष्णलेश्या वाले हैं और तेतीस सागरोपम की स्थिति वाले हैं। उनके पाश्चात्यभव का अन्तर्मुहूर्त और अग्रेतनभव का एक अन्तर्मुहूर्त यों दो अन्तर्मुहूर्त होते हैं। लेकिन अन्तर्मुहूर्त के असंख्येय भेद होने से उनका एक ही अन्तर्मुहूर्त में समावेश हो जाता है / इस अपेक्षा से अन्तमुहूर्त अधिक तेतीस सागरोपम की उत्कृष्ट कायस्थिति कृष्णलेश्या की घटित होती है। नीललेश्या की जघन्य कायस्थिति एक अन्तर्मुहूर्त है, युक्ति पूर्ववत् है / उत्कर्ष से पल्योपम का असंख्येयभाग अधिक दस सागरोपम की है। यह धूमप्रभापृथ्वी के प्रथम प्रस्तर के नैरयिक, जो नीललेश्या वाले हैं, और इतनी स्थिति वाले हैं, उनकी अपेक्षा से है। पाश्चात्य और अग्रेतन भव के क्रमशः चरम और आदिम अन्तर्मुहूर्त पल्योपम के असंख्येयभाग में समाविष्ट हो जाते हैं, अतएव अलग से नहीं कहे हैं। कापोतलेश्या की कायस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त है। युक्ति पूर्ववत् है। उत्कर्ष से पल्योपमासंख्येयभाग अधिक तीन सागरोपम की है। यह बालुकप्रभा के प्रथम प्रस्तर के नारकों की अपेक्षा से है। वे कपोतलेश्या वाले और इतनी स्थिति बाले हैं। तेजोलेश्या की कायस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त है। युक्ति पूर्ववत् है। उत्कर्ष से पल्योपमासंख्येयभाग अधिक दो सागरोपम है / यह ईशानदेवों की अपेक्षा से है। पद्मलेश्या की कायस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त है। युक्ति पूर्ववत् है। उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त अधिक दस सागरोपम है / यह ब्रह्मलोकदेवों की अपेक्षा से है। शुक्ललेश्या की कायस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त / युक्ति पूर्ववत् है / उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागरोपम है। यह अनुत्तरदेवों की अपेक्षा से है / वे शुक्ललेश्या वाले और इतनी स्थिति वाले हैं। अन्तरद्वार-कृष्णलेश्या का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहर्त है, क्योंकि तिर्यंच मनुष्यों की लेश्या का परिवर्तन अन्तर्मुहूर्त में हो जाता है। उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागरोपम है, क्योंकि शुक्ललेश्या का उत्कृष्टकाल कृष्णलेश्या के अन्तर का उत्कृष्टकाल है। इसी प्रकार नीललेश्या और कापोतलेश्या का भी जघन्य और उत्कर्ष अन्तर जानना चाहिए। तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या का जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कर्ष अन्तर वनस्पतिकाल है / अलेश्यों का अन्तर नहीं है, क्योंकि वे अपर्यवसित हैं। Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सजीवाभिगम [203 अल्पबहुत्यद्वार-सबसे थोड़े शुक्ललेश्या वाले हैं, क्योंकि लान्तक आदि देव, पर्याप्त गर्भज कतिपय पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्यों में ही शुक्ललेश्या होती है। उनसे पद्मलेश्या वाले संख्येयगुण हैं, क्योंकि सनत्कुमार, माहेन्द्र और ब्रह्मलोक में सब देव और प्रभूत पर्याप्त गर्भज तिर्यंच और मनुष्यों में पद्मलेश्या होती है। यहां शंका हो सकती है कि लान्तक आदि देवों से सनत्कुमारादि कल्पत्रय के देव असंख्यातगुण हैं, तो शुक्ललेश्या से पद्मलेश्या वाले असंख्यातगुण होने चाहिए, संख्येयगुण क्यों कहा? समाधान दिया गया है कि जवन्यपद में भी असंख्यात सनत्कुमारादि कल्पत्रय के देवों की अपेक्षा से असंख्येयगुण पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में शुक्ललेश्या होती है / अत: पद्मलेश्या वाले शुक्ललेश्या वालों से संख्यातगुण ही प्राप्त होते हैं / उनसे तेजोलेश्या वाले संख्येयगुण हैं, क्योंकि उनसे संख्येयगुण तिर्यक् पंचेन्द्रियों, मनुष्यों और भवनपति व्यन्तर ज्योतिष्क तथा सौधर्म-ईशान देवलोक के देवों में तेजोलेश्या पायी जाती है। उनसे अलेश्य अनन्तगुण हैं, क्योंकि सिद्ध अनन्त हैं। उनसे कापोतलेश्या वाले अनन्तगुण हैं, क्योंकि सिद्धों से अनन्तगुण वनस्पतिकायिकों में कापोतलेश्या का सदभाव है। उनसे नीललेश्या वाले विशेषाधिक हैं। उनसे कृष्णलेश्या वाले विशेषाधिक हैं, क्योंकि क्लिष्टतर अध्यवसाय वाले प्रभूत होते हैं। यह सप्तविध सर्वजीवप्रतिपत्ति पूर्ण हुई। सर्वजीव-अष्टविध-वक्तव्यता 254. तत्य गं जेते एवमाहंसु अट्टविहा सव्वजीवा पण्णता ते एवमाहंसु, तं जहाआमिनियोहियणाणी सुयणाणी ओहिणाणी मणपज्जवणाणी केवलणाणी मइअण्णाणी सुयमण्णाणी विभंगणाणी। ____ आभिणिबोहियणाणी णं भंते ! प्राभिणिबोहियणाणित्ति कालो केवचिरं होइ ? गोयमा ! 20 अंतो० उक्को छावदिसागरोबमाई साइरेगाई। एवं सूयणाणीविरोहिणाणी णं भंते! .?जह० एपकं समयं उक्को० छावद्धिसागरोवमाइं साइरेगाई। मणपज्जवणाणी णं भंते ! 0? जह• एक्कं समयं उक्को० देसूणा पुवकोडी / केवलणाणी णं भंते ! ? साइए अपज्जवसिए / मइअण्णाणी णं भंते ! 0? मइअण्णाणी तिविहे पण्णते, तं जहा-प्रणाइए वा अपज्जवसिए, अणाइए का सपज्जवसिए, साइए वा सपज्जवसिए / तत्थ णं जेसे साइए सपज्जवसिए से जह० अंतो. उक्को० अणतं कालं जाव अवड्व पोग्गलपरियटें देसूर्ण / सुयअण्णाणी एवं चेव / विभंगणाणी गं झते ! 0? जहण्णेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई देसूणाए पुब्धकोडिए अमहियाई / आमिणिबोहियणाणिस्त णं भंते ! अंतरं कालमो केवचिरं होइ ? जह० अंतो०, उक्को० अणंतं कालं जाव अब पोग्गलपरियट्ट देसूणं / एवं सुयणाणिस्सवि / प्रोहिणाणिस्सवि, मणपज्जवणाहिस्सवि। केवलणाणिस्त णं भंते ! अंतरं? साइयस्स अपज्जवसियस्स पत्थि अंतरं। मह-अण्णाणिस्स णं भंते ! अंतरं०? अणाइयस्स अपज्जवसियस्स णस्थि अंतरं। प्रणाइयस्स सपज्जवसियस्स गत्थि अंसरं / साइयस्स सपज्जवसियस्स जहण्णणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं छावलि सागरोषमाइं साइरेगाई। एवं सुव-अण्णाणिस्सवि / विभंगणाणिस्स गं भंते ! अंतरं० ? जह० अंतो०, उक्कोसेणं वणस्सइकालो। __ एएसि जं भंते ! आभिणिबोहियणाणीणं सुयणाणीणं ओहि मण० केवल० मइअण्णाणीणं सुगमगावीणं विभंगमाजीणं कबरे ? गोयमा ! सम्वत्थोवा जीवा मणपज्जवणाणी, ओहिणाणी प्रतज्जगुणा, आमिणिबोहिवणाणी सुयणाणी असंखेज्जगुणा, आभिणिजोहियणाणी सुयणाणी एए Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 204] [जीवाजीवाभिगमसूत्र दोवि तुल्ला विसेसाहिया, विभंगणाणी असंखेज्जगुंणा, केवलणाणिणो अणंतगुणा, मइअण्णाणी सुयनप्रणाणी य दोवि तुल्ला अणंतमुणा / 254. जो ऐसा कहते हैं कि आठ प्रकार के सर्व जीव हैं, उनका मन्तव्य है कि सब जीव प्राभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्यायज्ञानी, केवलज्ञानी, मति-अज्ञानी, श्रुत-अज्ञानी और विभंगज्ञानी के भेद से आठ प्रकार के हैं। भगवन् ! अाभिनिबोधिकज्ञानी भाभिनिबोधिकज्ञानी के रूप में कितने समय तक रहता है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से साधिक छियासठ सागरोपम तक रहता है। श्रुतज्ञानी भी इतना ही रहता है। अवधिज्ञानी जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट साधिक छियासठ सागरोपम तक रहता है / मनःपर्यायज्ञानी जघन्य एक समय, उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि तक रहता है। केवलज्ञानी सादि-अपर्यवसित होने से सदा उस रूप में रहता है। मति-अज्ञानी तीन प्रकार के हैं.-१. अनादि-अपर्यवसित, 2. अनादि-सपर्यवसित और 3. सादि-सपर्यवसित / इनमें जो सादि-सपर्यवसित है वह जघन्य अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल, जो देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्त रूप तक रहता है / श्रुत-अज्ञानी भी इतने ही समय तक रहता है। विभंगज्ञानी जघन्य एक समय और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागरोपम तक रहता है / आभिनिबोधिकज्ञानी का अन्तर जघन्य अंतमुहूर्त और उत्कर्ष से अनन्तकाल, जो देशोन पुद्गलपरावर्त रूप है। इसी प्रकार श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी और मनःपर्यायज्ञानी का अंतर भी जानना चाहिए। केवलज्ञानी का अन्तर नहीं है, क्योंकि वह सादि-अपर्यवसित है। मति-अज्ञानियों में जो अनादि-अपर्यवसित हैं, उनका अन्तर नहीं है। जो अनादि-सपर्यवसित हैं, उनका अन्तर नहीं है। जो सादि-सपर्यवसित हैं, उनका अन्तर जघन्य अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट साधिक छियासठ सागरोपम है। इसी प्रकार श्रुत-अज्ञानी का अन्तर भी जानना चाहिए / विभंगशानी का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है। भगवन् ! इन आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्यायज्ञानी, केवलज्ञानी, मति-अज्ञानी, श्रुत-अज्ञानी और विभंगज्ञानी में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े मनःपर्यायज्ञानी हैं। उनसे अवधिज्ञानी असंख्येयगुण हैं, उनसे मतिज्ञानी श्रुतज्ञानी विशेषाधिक हैं और स्वस्थान में तुल्य हैं, उनसे विभंगज्ञानी असंख्येयगुण हैं, उनसे केवलज्ञानी अनन्तगुण हैं और उनसे मति-अज्ञानी श्रुत-अज्ञानी अनन्तगुण हैं और स्वस्थान में तुल्य हैं / विवेचन-इसका विवेचन सर्व जीव की छठी प्रतिपत्ति में किया जा चुका है। अतएव जिज्ञासु वहां देख सकते हैं। 255. अहवा अविहा सम्वजीया पण्णता, तं जहा–णेरइया तिरिक्खजोणिया तिरिक्तजोणिणोओ मणुस्सा मणुस्सीओ देवा देवीओ सिद्धा। णेरइए णं भंते ! रइएत्ति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा! जहणेणं वसवाससहस्साई, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोयमाई। तिरिक्खजोणिए णं भंते ! 0? जह• अंतो० उक्कोसेणं वणस्सइ. Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वजीवाभिगम (205 कालो। तिरिषखजोणिणी णं भंते ! 0? जह• अंतो० उक्को तिणि पलिमोवमाई पुज्यकोडिपुटुत्तम महियाइं। एवं मणसे मणूसी। वे जहा नेरइए। देवी गं भंते ! 0? जहणणं बस वाससहस्साई उक्को० पणपन्न पलिपोवमाई। सिद्ध णं भंते ! सिद्धेत्ति० ? गोयमा साइए अपज्जवसिए। गैरइयस्स णं भंते ! अंतरं कालओ केवचिरं होइ ? जह० अंतो०, उक्को० वणस्सइकालो। तिरिक्खजोणियस्स णं भंते ! अंतरं कालओ०? जह० अंतोमुहुत्तं, उक्को० सागरोवमसयपुहृतं साइरेगं / तिरिक्खजोणिणी गं भंते ? गोयमा! जह० अंतो०, उक्को० वणस्सइकालो। एवं मणुस्सवि मणुस्सीएवि / देवस्सवि देवीएवि / सिद्धस्स णं भंते! ? साइयस्स अपज्जवसिए णस्थि अंतरं। एएसि णं भंते ! णेरइयाणं तिरिक्खजोणियाणं तिरिक्खजोणिणीणं मणूसाणं मणूसीणं वेवाणं सिद्धाणं य कयरे० ? गोयमा सव्वत्थोषा मणुस्सोमो, मणूसा असंखेज्जगुणा, नेरइया असंखेज्जगुणा, तिरिक्खजोणिणीनो असंखेज्जगुणाओ, देवा संखेज्जगुणा, देवीमो संखेज्जगुणामो, सिद्धा अणंतगुणा, तिरिक्खजोणिया अणंतगुणा / सेत्तं प्रदविहा सम्वजीवा पण्णता। 255. अथवा सब जीव आठ प्रकार के कहे गये हैं, जैसे कि-नैरयिक, तिर्यग्योनिक, तिर्यग्योनिकी, मनुष्य, मनुष्यनी, देव, देवी और सिद्ध / भगवन् ! नैरयिक, नैरयिक रूप में कितने काल तक रहता है ? गौतम ! जघन्य से दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम तक रहता है। तिर्यग्योनिक जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से अनन्तकाल तक रहता है। तिर्यग्योनिकी जघन्य अन्तर्मुहर्त और उत्कर्ष से पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम तक रहती है। इसी तरह मनुष्य और मानुषी स्त्री के सम्बन्ध में भी जानना चाहिए / देवों का कथन नैरयिक के समान है। देवी जघन्य से दस हजार वर्ष और उत्कर्ष से पचपन पल्योपम तक रहती है। सिद्ध सादि-अपर्यवसित होने से सदा उस रूप में रहते हैं। भगवन् ! नैरयिक का अन्तर कितना है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल है। तिर्य ग्योनिक का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से साधिक सागरोपमशतपृथक्त्व है / तिर्यग्योनिकी का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल है। इसी प्रकार मनुष्य का, मानुषी स्त्री का, देव का और देवी का भी अन्तर कहना चाहिए / सिद्ध सादि-अपर्यवसित होने से अन्तर नहीं है। भगवन् ! इन नैरयिकों, तिर्यग्योनिकों, तिर्यग्योनिनियों, मनुष्यों, मानुषीस्त्रियों, देवों, देवियों और सिद्धों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़ी मानुषी स्त्रियां, उनसे मनुष्य असंख्येयगुण, उनसे नैरयिक असंख्येयगुण, उनसे तिर्यग्योनिक स्त्रियां असंख्यातगुणी, उनसे देव संख्येयगुण, उनसे देवियां संख्येय गुण, उनसे सिद्ध अनन्तगुण, उनसे तिर्यग्योनिक अनन्तगुण हैं। विवेचन-इनका विवेचन संसारसमापन्नक जीवों की सप्तविध प्रतिपत्ति नामक छठी प्रतिपत्ति में देखना चाहिए / यह अष्टविध सर्वजीवप्रतिपत्ति पूर्ण हुई। Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 206 / / जीवाजोवानिगमन सर्वजीव-नवविध-वक्तव्यता 256. तत्य गं जेते एवमाहंमु णवविधा सम्वजीवा पण्णत्ता ते एवमाहंसु तं जहाएगिविया बॅविया तेंदिया चरिदिया गेरइया पंचेंदियतिरिक्खजोणिया मणूसा देवा सिद्धा। एगिदिए गं भंते ! एगिदिएत्ति कालमो केवचिरं होइ ? गोयमा! जहणणं अंतोमहत्तं उक्कोणं गणस्सइकालो। दिए णं भंते !.? जहण्णणं अंतीमुहत्तं उक्कोसेणं संखेज्जं कालं / एवं तेइंदिएवि, चरिदिएवि / रइए णं भंते ! ? जहण्णणं बस वाससहस्साई, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं। पंचेंदियतिरिक्खजोणिए णं भंते ! 0? जह० अंतो०, उक्कोसणं तिणि पलिप्रोकमाई पुग्वकोडिपुहुत्तमम्भहियाई। एवं मणूसेवि / देवा जहा रइया। सिद्धे गंभंते! .?साइए अपज्जवसिए। एगिदियस्स गं भंते ! अंतरं कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! जह० अंतो०, उक्को० दो सागरोवमसहस्साई संखेज्जवासमभहियाई। बेंविधस्स मंते ! अंतरं कालो केवचिरं होई ? गोयमा ! जह. अंतो, उक्को० वणस्सइकालो। एवं तेंवियस्सवि चरिवियस्सवि णेरइयस्सवि पंचेंदियतिरिक्खजोणियस्सवि मणूसस्सवि देवस्सवि सन्वेसि एवं अंतरं भाणियव्वं / सिद्धस्स णं भंते ! अंतरं कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! साइयस्स अपज्जवसियस्स णथि अंतरं / एएसि णं भंते ! एगेंदियाणं बंदियाणं तेंदियाणं चरिदियाणं गैरइयाणं पर्चेदियतिरिक्खजोणियाणं मणुसाणं देवाणं सिद्धाण य कयरे कयरेहितो०? गोयमा ! सम्वत्थोवा मणुस्सा, गेरझ्या असंखेज्जगुगा, देवा असंखेज्जगुणा, पंचेंदियातिरिक्खजोणिया असंखेज्जगुणा, धरिदिया विसेसाहिया, तेंदिया बिसेसाहिया, बेंदिया विसेसाहिया, सिद्धा अणंतगुणा, एगिविया अणंतगुणा / 256. जो ऐसा कहते हैं कि सर्व जीव नौ प्रकार के हैं, वे नौ प्रकार इस तरह बताते हैंएकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, नैरयिक, पंचेन्द्रियतिर्यग्योनिक, मनुष्य, देव और सिद्ध / भगवन् ! एकेन्द्रिय, एकेन्द्रियरूप में कितने काल तक रहता है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल तक रहता है। द्वीन्द्रिय जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्येयकाल तक रहता है। श्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय भी इसी प्रकार कहने चाहिए। भगवन् ! नैरयिक, नैरयिक के रूप में कितने काल तक रहता है ? गौतम ! जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कर्ष से तेतीस सागरोपम तक रहता है। पंचेन्द्रियतिर्यंच जघन्य अन्तमुहर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम तक रहता है / इसी प्रकार मनुष्य के लिए भी कहना चाहिए / देवों का कथन नैरयिक के समान है / सिद्ध सादि-अपर्यवसित होने के सदा उसी रूप में रहते हैं। भगवन् ! एकेन्द्रिय का अन्तर कितना है ? गौतम ! जघन्य से अन्तमुहर्त और उत्कर्ष से संख्येय वर्ष अधिक दो हजार सागरोपम है / द्वीन्द्रिय का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल है। इसी प्रकार श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, नैरयिक, पंचेन्द्रिय तिर्यच, मनुष्य और देव-सबका इतना ही अन्तर है / सिद्ध सादि-अपर्यवसित होने से उनका अन्तर नहीं होता है / Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [207 .. भगवन् ! इन एकेन्द्रियों, द्वीन्द्रियों, श्रीन्द्रियों, चतुरिन्द्रियों, नैरयिकों, तिर्यंचों, मनुष्यों, देवों और सिद्धों में कौन किससे कम, अधिक, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े मनुष्य हैं, उनसे नैरयिक असंख्येयगुण हैं, उनसे देव असंख्येयगुण हैं, उनसे पंचेन्द्रिय तिर्यंच असंख्येयगुण हैं, उनसे चतुरिन्द्रिय विशेषाधिक हैं, उनसे श्रीन्द्रिय विशेषाधिक हैं, उनसे द्वीन्द्रिय विशेषाधिक हैं और उनसे सिद्ध अनन्तगुण हैं और उनसे एकेन्द्रिय अनन्तगुण हैं / विवेचन-सूत्रार्थ स्पष्ट ही है / इनकी भावना और युक्ति पूर्व में स्थान-स्थान पर स्पष्ट की जा चुकी है। 257. अहवा गवविहा सयजीवा पण्णत्ता तं जहा--पढमसमयणेरइया अपढमसमयणेरइया पढमसमयतिरिक्खजोणिया अपढमसमयतिरिक्खजोणिया पढमसमयमणुस्सा अपढमसमयमणुस्सा पढमसमयदेवा अपढमसमयदेवा सिद्धा य / पढमसमयणेरइया णं भंते ! कालमो०? गोयमा! एक्कं समयं / अपढमसमयणेरइएणं भंते ! o? जहण्णेणं वस वाससहस्साई समय-उणाई, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं समय-उणाई। पढमसमयतिरिक्खजोणियस्स गं भंते ! . ? एक्कं समयं / अपढमसमयतिरिक्खजोणियस्स गं भंते ! * ? जहण्णणं खुड्डागं भवग्महणं समयऊणं, उक्कोसेमं वणस्सइकालो। पढमसमयमणसे णं भंते ! .? एक्कं समयं / अपढमसमयमणूसे णं भंते ! * ? जहण्णेणं खुड्डागं भवग्गहणं समयऊणं, उक्कोसेणं तिणि पलिनोवमाई पुग्यकोडिपुहुत्तमम्भहियाई। देने जहा मेहए। सिद्ध मं भंते ! सिद्धेत्ति कालमो केवचिरं होई ? गोयमा ! साइए अपनवसिए। पढमसमयणेरइयस्स णं भंते ! अंतरं कालमो केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहणणं दस वाससहस्साइं अंतोमुत्तममहियाई, उक्कोसेणं वणस्सइकालो। अपडमसमयमेरझ्यस्स णं भंते ! अंतरं 0? जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं वणस्सइकालो। पढमसमयतिरिक्खजोनियस्स णं भंते ! अंतरं कालमो. ? जहण्गेणं दो खुड्डागाइं भवगहणाई समय-ऊणाई, उक्कोसेणं वणस्सइकालो। अपतमसमयतिरिक्खजोणियस्स णं भंते ! अंतरं कालओ * ? जहणणं खुड्डाणं भवग्गहणं समयाहियं, उक्कोसेणं सागरोवमसयपुहुत्तं साइरेगं / पढमसमयमणूसस्स जहा पढमसमयतिरिक्खजोणियस्स / अपढमसमयमणूसस्स णं भंते ! * ? जहण्णेणं खुड्डागं भवग्गहणं, समयाहियं, उक्कोसेणं वणस्सइकालो। पढमसमयदेवस्स जहा पढमसमयरइयस्स / अपढमसमयदेवस्स जहा अपडसमयणेरड्यस्स / सिखस्स णं भंते ! * ? साइयस्स अपज्जवसियस्स गयि अंतरं। Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 208] [जीवाजीवाभिगमसूत्र एएसि णं भंते ! पढमसमयणेरइयाणं पढमसमयतिरिक्खजोणियाणं पढमसमयमणूसाणं पढमसमयदेवाण य कयरे ? गोयमा ! सव्वत्थोवा पढमसमयमणुस्सा, पढमसमयणेरइया असंखेज्जगुणा, पढमसमयदेवा असंखेज्जगुणा, पढमसमयतिरिक्खजोणिया असंखेज्जगुणा। एएसि णं भंते ! अपढमसमयनेरइयाणं अपढमसमयतिरिक्खजोणियाणं अपढमसमयमणूसाणं अपढमसमयदेवाण य कयरे ? गोयमा ! सव्वत्योवा अपढमसमयमणूसा, अपढमसमयनेरइया असंखेज्जगुणा, अपढमसमयदेवा असंखेज्जगुणा, अपढमसमयतिरिक्खजोणिया अणंतगुणा। एएसि णं भंते ! पढमसमयनेरइयाणं प्रपढमसमयनेरइयाण य कयरे * ? गोयमा ! सव्वत्थोवा पढमसमयनेरइया, अपढमसमयनेरइया असंखेज्जगुणा / एएसि णं भंते ! पढमसमयतिरिक्खजोणियाणं अपढमसमयतिरिक्खजोणियाणं कयरे ? गोयमा ! सम्वत्थोवा पढमसमयतिरिक्खजोणिया, अपढमसमयतिरिक्खजोणिया अणंतगुणा। मणुयदेव-अप्पाबहुयं जहा नेरइयाणं / एएसि णं भंते ! पढमसमयनेरइयाणं पढमसमयतिरिक्खजोणियाणं पढमसमयमणूसाणं पढमसमयदेवाणं अपढमसमयनेरइयाणं अपढमसमयतिरिक्खजोणियाणं अपढमसमयमणूसाणं अपढमसमयदेवाणं सिद्धाण य कयरे कयरेहितो अप्पा० ? गोयमा ! सव्वत्थोवा पढमसमयमणूसा, अपढमसमयमणूसा असंखेज्जगुणा, पढमसमयनेरइया असंखेज्जगुणा, पढमसमयदेवा असंखेज्जगुणा, पढमसमयतिरिक्खजोणिया असंखेज्जगुणा, अपढमसमयनेरइया असंखेज्जगुणा, अपढमसमयदेवा असंखेज्जगुणा, सिद्धा अणंतगुणा, अपढमसमयतिरिक्खजोणिया अणंतगुणा / सेत्तं नवविहा सव्वजीवा पण्णत्ता। 257. अथवा सर्व जीव नौ प्रकार के हैं 1. प्रथमसमयनैरयिक, 2. अप्रथमसमयनरयिक, 3. प्रथमसमयतिर्यग्योनिक, 4. अप्रथमसमयतिर्यग्योनिक, 5. प्रथमसमयमनुष्य, 6. अप्रथमसमयमनुष्य, 7. प्रथमसमयदेव, 8. अप्रथमसमयदेव और 9. सिद्ध। भगवन् ! प्रथमसमयनैरयिक, प्रथमसमयनैरयिक के रूप में कितने समय रहता है ? गौतम ! एक समय / अप्रथमसमयनैरयिक जघन्य एक समय कम दस हजार वर्ष और उत्कर्ष से एक समय कम तेतीस सागरोपम तक रहता है। प्रथमसमयतिर्यग्योनिक एक समय तक और अप्रथमसमयतिर्यग्योनिक जघन्य एक समय कम क्षुल्लकभवग्रहण तक और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल तक / प्रथमसमयमनुष्य एक समय और अप्रथमसमयमनुष्य जघन्य समय कम क्षुल्लकभवग्रहण और उत्कर्ष से पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम तक रहता है / देव का कथन नैरयिक के समान है। Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वजीवाभिगम [209 भगवन् ! सिद्ध, सिद्ध रूप में कितने समय रहता है ? गौतम ! सिद्ध सादि-अपर्यवसित है। सदा उसी रूप में रहता है। भगवन् ! प्रथमसमयनै रयिक का अन्तर कितना है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल है / अप्रथमसमयनै रयिक का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल है। प्रथमसमयतिर्यग्योनिक का अन्तर जघन्य समय कम दो क्षुल्लकभवग्रहण और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल है। अप्रथमसमयतिर्यग्योनिक का अन्तर जघन्य समयाधिक क्षुल्लकभवग्रहण है और उत्कर्ष से साधिक सागरोपमशतपृथक्त्व है / प्रथमसमयमनुष्य का अन्तर प्रथमसमयतिर्यंच के समान है। अप्रथमसमयमनुष्य का अन्तर समयाधिक क्षुल्लकभवग्रहण है और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल है। प्रथमसमयदेव का अन्तर प्रथमसमयनैरयिक के समान है। अप्रथमसमयदेव का अन्तर अप्रथमसमयनैरयिक के समान है। सिद्ध सादि-अपर्यवसित होने से अन्तर नहीं है / भगवन् ! इन प्रथमसमयनै रयिक, प्रथमसमयतिर्यग्योनिक, प्रथमसमयमनुष्य और प्रथमसमयदेवों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े प्रथमसमयमनुष्य, उनसे प्रथमसमयनै रयिक असंख्यगुण, उनसे प्रथमसमयदेव असंख्यातगुण, उनसे प्रथमसमय तिर्यग्योनिक असंख्यातगुण हैं। भगवन् ! इन अप्रथमसमयनैरयिक, अप्रथमसमयतिर्यग्योनिक, अप्रथमसमयमनुष्य और अप्रथमसमयदेवों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े अप्रथमसमयमनुष्य हैं, उनसे अप्रथमसमयनैरयिक असंख्येयगुण हैं, उनसे अप्रथमसमयदेव असंख्येयगुण हैं और उनसे अप्रथमसमयतिर्यंच अनन्तगुण हैं / भगवन् ! इन प्रथमसमयनैरयिकों और अप्रथमसमयनैरयिकों में कौन किससे अल्प यावत् विशेषाधिक हैं ? गौतम! सबसे थोड़े प्रथमसमयनै रयिक हैं और उनसे अप्रथमसमयनैरयिक असंख्यातगुण हैं / भगवन् ! इन प्रथमसमयतिर्यंचों और अप्रथमसमयतिर्यंचों में कौन किससे अल्प यावत् विशेषाधिक हैं ? गौतम ! प्रथमसमयतिर्यंच सबसे थोड़े और अप्रथमसमयतिर्यच अनन्तगुण हैं / मनुष्य और देवों का अल्पबहुत्व नैरयिकों की तरह कहना चाहिए। भगवन् ! इन प्रथमसमयनैरयिक, प्रथमसमयतिय च, प्रथमसमयमनुष्य, प्रथमसमयदेव, अप्रथमसमयनैरयिक, अप्रथमसमयतिर्यंच, अप्रथमसमयमनुष्य, अप्रथमसमयदेव और सिद्धों में कौन किससे अल्प यावत् विशेषाधिक हैं ? Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 210] [जीवाजीवाभिगमसूत्र गौतम ! सबसे थोड़े प्रथमसमयमनुष्य, उनसे अप्रथमसमयमनुष्य असंख्यातगुण, उनसे प्रथमसमयनैरयिक असंख्यातगुण, उनसे प्रथमसमयदेव असंख्यातगुण, उनसे प्रथमसमयतिय च असंख्यातगुण, उनसे अप्रथमसमयनैरयिक असंख्यातगुण, उनसे अप्रथमसमयदेव असंख्यातगुण, उनसे सिद्ध अनन्तगुण और उनसे अप्रथमसमयतिर्य ग्योनिक अनन्तगुण हैं। इस प्रकार सर्वजीवों की नवविधप्रतिपत्ति पूर्ण हुई। विवेचन-इनकी युक्ति और भावना पूर्व में प्रतिपादित की जा चुकी है। सर्वजीव नवविधप्रतिपत्ति पूर्ण / सर्वजीव-दसविध-वक्तव्यता 258. तत्थ णं जेते एवमाहंसु दस विहा सव्वजीवा पण्णत्ता ते एवमाहंसु, तं जहा उकाइया तेउकाइया वाउकाइया वणस्सइकाइया बंदिया तेंदिया चारिदिया पंचेंदिया अणिदिया। पुढविकाइया णं भंते ! पुढविकाइएत्ति कालओ केचिरं होइ ? गोयमा ! जह• अंतो०, उक्को० असंखेज्जं कालं-असंखेज्जाओ उस्सप्पिणीओ ओप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ असंखेज्जा लोया। एवं आउ-तेउ-वाउकाइए। षणस्सइकाइए णं भंते ! * ? गोयमा ! जह० अंतो०, उक्को०, वणस्सइकालो। बॅदिए णं भंते! 0? जह० अंतो०, उक्कोसेणं संखेज्जं कालं / एवं तेइंदिएथि, चरिदिएवि। पंचिदिए णं भंते ! 0? गोयमा ! जह० अंतो०, उक्कोसेणं सागरोवमसहस्सं साइरेगे। अणिदिए ण भंते ! 0? साइए अपज्जवसिए / पुढविकाइयस्स णं भंते ! अंतरं कालो केवचिरं होइ ? गोयमा ! जह० अंतो०, उक्को. वणस्सइकालो। एवं आउकाइयस्स तेउकाइयस्स वाउकाइयस्स / वणस्सइकाइयस्स णं भंते ! अंतरं कालओ०? जा चेव पुढविकाइयस्स संचिटणा, विय-तियचरिदिया-पंचेंदियाणं एएसि चउण्हपि अंतरं जह० अंतो०, उक्को० वणस्सइकालो। अणिदियस्स णं भंते ! अंतरं कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा! साइयस्स अपज्जवसियस्स णस्थि अंतरं। एएसि णं भंते ! पुढविकाइयाणं पाउ-तेउ-बाउ-वण-उदियाणं तेंदियाणं रिदियाणं पंचेंदियार्ण अणिदियाण य कयरे कयरेहितो? गोयमा ! सम्वत्थोवा पंचेंदिया, चरिदिया विसेसाहिया, तेंदिया विसेसाहिया, बॅदिया विसेसाहिया, तेउकाइया असंखेज्जगुणा, पुढविकाइया विसेसाहिया, आउकाइया विसेसाहिया, धाउकाइया विसेसाहिया, अणिदिया अणंतगुणा, वणस्सइकाइया अणंतगुणा / 258. जो ऐसा कहते हैं कि सर्व जीव दस प्रकार के हैं, वे इस प्रकार प्रतिपादन करते हैं, यथा-पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय और अनिन्द्रिय / Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वजीवाभिगम] [211 भगवन् ! पृथ्वीकायिक, पृथ्वीकायिक के रूप में कितने समय तक रहते हैं ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से असंख्यातकाल तक,जो असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी रूप (कालमार्गणा) से है और क्षेत्रमार्गणा से असंख्येय लोकाकाशप्रदेशों के निर्लेपकाल के तुल्य है। इसी प्रकार अपकायिक, तेजस्कायिक और वायुकायिक की संचिट्ठणा जाननी चाहिए। भगवन् ! वनस्पतिकायिक की संचिट्ठणा कितनी है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है। भगवन् ! द्वीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय रूप में कितने समय तक रह सकता है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यातकाल तक रह सकता है। इसी प्रकार त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय की भी संचिट्ठणा जाननी चाहिए। भगवन् ! पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय रूप में कितने समय तक रहता है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष साधिक एक हजार सागरोपम तक रह सकता है। भगवन् ! अनिन्द्रिय, अनिन्द्रिय रूप में कितने समय तक रहता है ? गौतम ! वह सादि-अपर्यवसित होने ने सदा उसी रूप में रहता है / भगवन् ! पृथ्वीकायिक का अन्तर कितना है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है। इसी प्रकार अप्कायिक, तेजस्कायिक और व र वायुकायिक का भी अन्तर जानना चाहिए। वनस्पतिकायिकों का अन्तर वही है जो पृथ्वीकायिक की संचिट्ठणा है, अर्थात् जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से असंख्येय काल है / इसी प्रकार द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय इन चारों का अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है / अनिन्द्रिय सादि-अपर्यवसित होने से उसका अन्तर नहीं है। __ भगवन् ! इन पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय और अनिन्द्रियों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े पंचेन्द्रिय हैं, उनसे चतुरिन्द्रिय विशेषाधिक हैं, उनसे त्रीन्द्रिय विशेषाधिक हैं, उनसे द्वीन्द्रिय विशेषाधिक हैं, उनसे तेजस्कायिक असंख्यगुण हैं, उनसे पृथ्वीकायिक विशेषाधिक हैं, उनसे अप्कायिक विशेषाधिक हैं, उनसे वायुकायिक विशेषाधिक हैं, उनसे अनिन्द्रिय अनन्तगुण हैं और उनसे बनस्पतिकायिक अनन्तगुण हैं। विवेचन--इन सबकी युक्ति और भावना पूर्व में स्थान-स्थान पर कही गई है। अतः पुनरावृत्ति नहीं की जा रही है। जिज्ञासुजन यथास्थान पर देखें। 259. अहवा दसविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तं जहा-१. पढमसमयनेरइया, 2. अपढमसमयनेरइया, 3. पढमसमयतिरिक्खजोणिया, 4. अपढमसमयतिरिक्खजोणिया, 5. पढमसमयमणूसा, 6. अपढमसमयमणूसा, 7. पढमसमयदेवा, 8. अपढमसमयदेवा, 9. पढमसमयसिद्धा 10. अपढमसम सिद्धा। पढमसमयनेरइए जं भंते ! पढमसमयनेरढएत्ति कालओ केवचिरं होह? गोयमा! एक्कं समयं। Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 212] [जीवाजीवाभिगमसूत्र अपढमसमयनेरइए णं भंते ! * ? जहण्णेणं दस वाससहस्साई समय-उणाई, उक्कोसेणं तेत्तीस सागरोवमाइं समय-ऊणाई। पढमसमयतिरिक्खजोणिए णं भंते ! 0? गोयमा ! एक्कं समयं / अपढमसमयतिरिक्खजोणिए णं भंते ! 0? गोयमा! जहणणं खुड्डागं भवागहणं समयऊणं, उक्कोसेणं वणस्सइकालो। पढमसमयमणुस्से णं भंते ! * ? एक्कं समयं / अपढमसमयमणुस्से० ? जहण्णेणं खुड्डागं भवग्गहणं समयऊणं, उक्कोसेणं तिणिपलिओवमाइं पुवकोडिपुहुत्तमम्महियाई / देवे जहा रइए / पढमसमयसिद्ध णं भंते ! * ? एक्कं समयं / अपढमसमयसिद्धे णं भंते ! o? साइए अपज्जवसिए। पढमसमयनेरइयस्स णं भंते ! अंतरं कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहणेणं दस वास. सहस्साई अंतोमुत्तमब्भहियाई, उक्कोसेणं वणस्सइकालो। अपढमसमयनेरइयस्स णं भंते ! * ? जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं वणस्सइकालो। पढमसमयतिरिक्खजोणियस्स अंतर केचिरं होइ ? गोयमा ! जहण्णणं दो खुड्डागभवग्गहणाई समयऊणाई, उक्कोसेणं वणस्सइकालो। अपढमसमयतिरिक्खजोणियस्स णं भंते ! 0? जहण्णेणं खुड्डागभवग्गहणं समयाहियं, उक्कोसेणं सामरोवमसयपुहुत्तं साइरेगं / पढमसमयमणूसस्स णं भंते ! * ? जहण्णेणं दो खुड्डागभवग्गहणाई समयऊणाई, उक्कोसेणं वणस्सइकालो। अपढमसमयमणूसस्स णं भंते ! अंतरं० ? जहणणं खुड्डागभवम्गहणं समयाहियं, उक्कोसेणं वणस्सइकालो। देवस्स णं अंतरं जहा णेरइयस्स / पढमसमयसिद्धस्स णं भंते ! 0? अंतरं त्थि / अपढमसमयसिद्धस्स णं भंते ! अंतरं कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! साइयस्स अपज्जव. सियस्स पत्थि अंतरं। एएसि णं भंते! पढमसमयणरइयाणं पढमसमयतिरिक्खजोणियाणं पढमसमयमणूसाणं पढमसमयदेवाणं पढमसमयसिद्धाण य कयरे कयरेहितो अप्पा० ? गोयमा! सव्वत्थोवा पढमसमयसिद्धा, पढमसमयमणूसा असंखेज्जगुणा, पढमसमयनेरइया असंखेज्जगुणा, पढमसमयदेवा असंखेज्जगुणा, पढमसमयतिरिक्खजोणिया असंखेज्जगुणा। एएसि णं भंते ! अपढमसमयनेरइयाणं जाव अपढमसमयसिद्धाण य कयरे. ? गोयमा ! सम्वत्थोबा अपढमसमयमणूसा, अपढमसमयनेरइया असंखेज्जगुणा, अपढमसमयदेवा असंखेज्जगुणा, अपढमसमयसिद्धा अणंतगुणा, अपढमसमयतिरिक्खजोणिया अणंतगुणा। एएसि णं भंते ! पढमसमयनेरइयाणं अपढमसमयनेरइयाण य कयरे० ? गोयमा ! सम्बत्योवा पढमसमयनेरइया, अपढमसमयनेरइया असंखेज्जगुणा / Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वजीवाभिगम] एएसि णं भंते ! पढमसमयतिरिक्खजोणियाणं अपढमसमयतिरिक्खजोणियाण य कयरे ? गोयमा ! सम्वत्थोबा पढमसमयतिरिक्खजोणिया, अपढमसमयतिरिक्खजोणिया अणंतगुणा। एएसि णं भंते ! पढमसमयमणसाणं अपढमसमयमणूसाण य कयरे०? गोयमा ! सम्वत्थोवा पढमसमयमणूसा, अपढमसमयमणूसा असंखज्जगुणा / जहा मणूसा तहा देवावि / एएसि गं भंते ! पढमसमयसिद्धाणं अपढमसमयसिद्धाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा पढमसमसिद्धा, अपढमसमयसिद्धा अणंतगुणा। एएसि णं भंते ! पढमसमयनेरइयाणं अपढमसमयनेरइयाणं पढमसमयतिरिक्खजोणियाणं अपढमसमयतिरिक्खजोणियाणं पढमसमयमणसाणं अपढमसमयमणसाणं पढमसमयदेवाणं अपढमसमयदेवाणं पढमसमयसिद्धाणं अपढमसमयसिद्धाणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहियावा? गोयमा ! सम्वत्थोवा पढमसमयसिद्धा, पढमसमयमणूसा असंखेज्जगुणा, अपढमसमयमणूसा असंखेज्जगुणा, पढमसमयनेरइया असंखेज्जगुणा, पढमसमयदेवा असंखज्जगुणा, पढमसमयतिरिक्खजोणिया असंखेज्जगुणा, अपढमसमयनेरइया असंखेज्जगुणा, अपढमसमयदेवा असंखेज्जगुणा, अपढमसमयसिद्धा अणंतगुणा, अपढमसमयतिरिक्खजोणिया अणंतगुणा / सेत्तं वसविहा सम्धजीवा पण्णत्ता / सेत्तं सध्धजीवाभिगमे / इसि जीवाजीवाभिगमसुत्तं सम्मत्तं / (सूत्रे ग्रन्थाप्रम् 4750 // ) 259. अथवा सर्व जीव दस प्रकार के हैं, यथा--- 1. प्रथमसमयनै रयिक, 2. अप्रथमसमयनै रयिक, 3. प्रथमसमयतिर्यग्योनिक 4. अप्रथमसमयतिर्यग्योनिक, 5. प्रथमसमयमनुष्य, 6. अप्रथमसमयमनुष्य, 7. प्रथमसमयदेव, 8. अप्रथमसमयदेव, 9. प्रथमसमय सिद्ध, 10. अप्रथमसमयसिद्ध / भगवन् ! प्रथमसमयनैरयिक, प्रथमसमयनै रयिक के रूप में कितने समय तक रहता है ? गौतम! एक समय तक / भगवन् ! अप्रथमसमयनैरयिक उसी रूप में कितने समय तक रहता है ? गौतम ! एक समय कम दस हजार वर्ष तक और उत्कृष्ट एक समय कम तेतीस सागरोपम तक रहता है। भगवन् ! प्रथमसमयतिर्यग्योनिक उसी रूप में कितने समय तक रहता है ? गौतम ! एक समय तक / अप्रथमसमय तिर्यग्योनिक जघन्य से एक समय कम क्षुल्लकभवग्रहण तक और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल तक रहता है / भगवन् ! प्रथमसमयमनुष्य उस रूप में कितने काल तक रहता है ? गौतम ! एक समय तक / Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 214] (जीवाजीवाभिगमसूत्र अप्रथमसमयमनुष्य जघन्य से एक समय कम क्षुल्लकभवग्रहण और उत्कर्ष से पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम तक रहता है। देव का कथन नैरयिक की तरह है। भगवन् ! प्रथमसमयसिद्ध उस रूप में कितने समय रहता है ? गौतम ! एक समय तक / अप्रथमसमयसिद्ध सादि-अपर्यवसित होने से सदाकाल रहता है / भगवन् ! प्रथमसमयनैरयिक का अन्तर कितना है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल है। अप्रथमसमयनैरयिक का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है। भगवन् ! प्रथमसमयतिर्यग्योनिक का अन्तर कितना है ? गौतम ! जघन्य एक समय कम दो क्षुल्लकभवग्रहण है, उत्कर्ष से वनस्पतिकाल है। अप्रथमसमयतिर्यग्योनिक का अन्तर जघन्य समयाधिक क्षुल्लकभवग्रहण है और उत्कर्ष से साधिक सागरोपमशतपृथक्त्व है। भगवन् ! प्रथमसमयमनुष्य का अन्तर कितना है ? गौतम ! जघन्य एक समय कम दो क्षुल्लकभवग्रहण है और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल है। अप्रथमसमयमनुष्य का अन्तर जघन्य समयाधिक क्षुल्लकभव और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल है / देव का अन्तर नैरयिक की तरह कहना चाहिए / भगवन् ! प्रथमसमयसिद्ध का अन्तर कितना है ? प्रथमसमय सिद्ध का अन्तर नहीं है। भगवन् ! अप्रथमसमयसिद्ध का अन्तर कितना है ? अप्रथमसमयसिद्ध सादि-अपर्यवसित होने से अन्तर नहीं है। भगवन् ! प्रथमसमयनैरयिक, प्रथमसमयतिर्यग्योनिक, प्रथमसमयमनुष्य, प्रथमसमयदेव और प्रथमसमयसिद्धों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े प्रथमसमयसिद्ध, उनसे प्रथमसमयमनुष्य असंख्येयगुण, उनसे प्रथमसमयनरयिक असंख्येयगुण, उनसे प्रथमसमयदेव असंख्यातगुण और उनसे प्रथमसमयतिर्यग्योनिक असंख्येयगुण हैं। भगवन् ! इन अप्रथमसमयनैरयिक यावत् अप्रथमसमय सिद्धों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े अप्रथमसमयमनुष्य, उनसे अप्रथमसमयनै रयिक असंख्येयगुण, उनसे अप्रथमसमयदेव असंख्येयगुण, उनसे अप्रथमसमयसिद्ध अनन्तगुण और उनसे अप्रथमसमयतिर्यग्योनिक अनन्तगुण हैं। भगवन् ! इन प्रथमसमयनैरयिकों और अप्रथमसमयनैरयिकों में कौन किससे अल्प यावत् विशेषाधिक हैं। Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वजीवाभिगम] [215 गौतम ! सबसे थोड़े प्रथमसमयनरयिक हैं, उनसे असंख्यातगुण अप्रथमसमयनरयिक हैं। भगवन् ! इन प्रथमसमयतिर्यग्योनिकों और अप्रथमसमयतिर्यग्योनिकों में कौन किससे अल्पादि हैं ? ___ गौतम ! सबसे थोड़े प्रथमसमयतिर्यग्योनिक हैं और उनसे अप्रथमसमयतिर्यग्योनिक अनन्तगुण हैं। भगवन् ! इन प्रथमसमयमनुष्यों और अप्रथमसमयमनुष्यों में कौन किससे अल्पादि हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े प्रथमसमयमनुष्य हैं, उनसे अप्रथमसमयमनुष्य असंख्यातगुण हैं / जैसा मनुष्यों के लिए कहा है, वैसा देवों के लिए भी कहना चाहिए / भगवन् ! इन प्रथमसमयसिद्धों और अप्रथमसमय सिद्धों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े प्रथमसमयसिद्ध हैं, उनसे अप्रथमसभयसिद्ध अनन्तगुण हैं। भगवन् ! इन प्रथमसमयनैरयिक, अप्रथमसमयनैरयिक, प्रथमसमयतिर्यग्योनिक, अप्रथमसमयतिर्यग्योनिक, प्रथमसमयमनुष्य, अप्रथमसमयमनुष्य, प्रथमसमयदेव, अप्रथमसमयदेव, प्रथमसमयसिद्ध और अप्रथमसमयसिद्ध, इनमें कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े प्रथमसमयसिद्ध हैं, उनसे प्रथमसमयमनुष्य असंख्यातगुण हैं, उनसे अप्रथमसमयमनुष्य असंख्यातगुण हैं, उनसे प्रथमसमयनैरयिक असंख्यातगुण हैं, उनसे प्रथमसमयदेव असंख्यातगुण हैं, उनसे प्रथमसमयतिर्यंच असंख्यातगुण हैं, उनसे अप्रथमसमयनैरयिक असंख्यातगुण हैं, उनसे अप्रथमसमयदेव असंख्यातगुण हैं, उनसे अप्रथमसमयसिद्ध अनन्तगुण हैं, उनसे अप्रथमसमय तिर्यंच अनन्तगुण हैं। इस तरह दसविध सर्वजीव-प्रतिपत्ति का और सर्वजीवाभिगम का वर्णन समाप्त हुआ। // जीवाजीवाभिगमसूत्र समाप्त / (सूत्र ग्रन्थानम् 4750) // Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनध्यायकाल [स्व० आचार्यप्रवर श्री प्रात्मारामजी म० द्वारा सम्पादित नन्दीसूत्र से उद्धृत] स्वाध्याय के लिए पागमों में जो समय बताया गया है, उसी समय शास्त्रों का स्वाध्याय करना चाहिए। अनध्यायकाल में स्वाध्याय वर्जित है। मनुस्मृति आदि स्मृतियों में भी अनध्यायकाल का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। वैदिक लोग भी वेद के अनध्यायों का उल्लेख करते हैं / इसी प्रकार अन्य आर्ष ग्रन्थों का भी अनध्याय माना जाता है। जैनागम भी सर्वज्ञोक्त, देवाधिष्ठित तथा स्वरविद्या संयुक्त होने के कारण, इनका भी आगमों में अनध्यायकाल वर्णित किया गया है, जैसे कि दसविधे अंतलिखिते असज्झाए पण्णत्ते, तं जहा-उक्कावाते, दिसिदाधे, गज्जिते, निग्घाते, जुवते, जक्खालित्ते, धूमिता, महिता, रयउग्घाते। दसविहे ओरालिते असज्झातिते, तं जहा-अट्ठी, मंसं, सोणित्ते, असुतिसामंते, सुसाणसामंते, चंदोवराते, सूरोवराते, पडने, रायवुग्गहे , उवस्सयस्स अंतो ओरालिए सरीरगे। -स्थानाङ्गसूत्र, स्थान 10 नो कप्पति निग्गंथाण वा, निगथीण वा चउहि महापाडिवएहिं सज्झायं करित्तए, तं जहाआसाढपाडिवए, इंदमहापाडिवए, कत्तिपाडिवए, सुगिम्हपाडिवए / नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा, चउहि संझाहिं सज्झायं करेत्तए, तं जहा-पडिमाते, पच्छिमाते, मज्झण्हे, अड्ढरत्ते / कप्पइ निग्गंथाणं वा निग्गथीण वा, चाउकालं सज्झायं करेत्तए, तं जहा-पुव्वण्हे, अवरण्हे, पप्रोसे, पच्चूसे / -स्थानाङ्ग सूत्र, स्थान 4, उद्देश 2 उपरोक्त सूत्रपाठ के अनुसार, दस आकाश से सम्बन्धित, दस औदारिक शरीर से सम्बन्धित, चार महाप्रतिपदा, चार महाप्रतिपदा की पूर्णिमा और चार सन्ध्या इस प्रकार बत्तीस अनध्याय माने गये हैं / जिनका संक्षेप में निम्न प्रकार से वर्णन है, जैसे प्राकाश सम्बन्धी दस अनध्याय 1. उल्कापात-तारापतन-यदि महत् तारापतन हुआ है तो एक प्रहर पर्यन्त शास्त्रस्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 2. दिग्दाह-जब तक दिशा रक्तवर्ण की हो अर्थात् ऐसा मालम पड़े कि दिशा में आग-सी लगी है, तब भी स्वाध्याय नहीं करना चाहिए / Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनध्यायकाल] ३-४.-गजित-विद्युत्-गर्जन और विद्युत प्रायः ऋतु स्वभाव से ही होता है / अतः आर्द्रा से स्वाति नक्षत्र पर्यन्त अनध्याय नहीं माना जाता। ____5. निर्धात-बिना बादल के आकाश में व्यन्तरादिकृत घोर गर्जन होने पर या बादलों सहित प्राकाश में कड़कने पर दो प्रहर तक अस्वाध्यायकाल है / 6. यूपक--शुक्ल पक्ष में प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया को सन्ध्या की प्रभा और चन्द्रप्रभा के मिलने को यूपक कहा जाता है / इन दिनों प्रहर रात्रि पर्यन्त स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 7. यक्षादीप्त-कभी किसी दिशा में बिजली चमकने जैसा, थोड़े थोड़े समय पीछे जो प्रकाश होता है वह यक्षादीप्त कहलाता है। अतः अाकाश में जब तक यक्षाकार दीखत तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 8. धूमिका कृष्ण-कार्तिक से लेकर माघ तक का समय मेघों का गर्भमास होता है / इसमें धूम्र वर्ण की सूक्ष्म जलरूप धुध पड़ती है / वह धूमिका-कृष्ण कहलाती है। जब तक यह धुध पड़ती रहे, तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 9. मिहिकाश्वेत-शीतकाल में श्वेत वर्ण की सूक्ष्म जलरूप धुन्ध मिहिका कहलाती है। जब तक यह गिरती रहे, तब तक अस्वाध्याय काल है। 10. रज उद्घात–वायु के कारण आकाश में चारों ओर धूलि छा जाती है। जब तक यह धूलि फैली रहती है , स्वाध्याय नहीं करना चाहिए / उपरोक्त दस कारण आकाश सम्बन्धी अस्वाध्याय के हैं। औदारिक सम्बन्धी दस अनध्याय 11-12-13. हड्डी मांस और रुधिर-पंचेद्रिय तिर्यंच की हड्डी, मांस और रुधिर यदि सामने दिखाई दें, तो जब तक वहाँ से यह वस्तुएं उठाई न जाएँ जब तक अस्वाध्याय है / वृत्तिकार आस पास के 60 हाथ तक इन वस्तुओं के होने पर अस्वाध्याय मानते हैं। इसी प्रकार मनुष्य सम्बन्धी अस्थि मांस और रुधिर का भी अनध्याय माना जाता है / विशेषता इतनी है कि इनका अस्वाध्याय सो हाथ तक तथा एक दिन रात का होता है। स्त्री के मासिक धर्म का प्रस्वाध्याय तीन दिन तक / बालक एवं बालिका के जन्म का अस्वाध्याय क्रमश: सात एवं पाठ दिन पर्यन्त का माना जाता है / 14. अशुचि-मल-मूत्र सामने दिखाई देने तक अस्वाध्याय है। 15. श्मशान-श्मशानभूमि के चारों ओर सौ-सौ हाथ पर्यन्त अस्वाध्याय माना जाता है / 16. चन्द्रग्रहण-चन्द्रग्रहण होने पर जघन्य आठ, मध्यम बारह और उत्कृष्ट सोलह प्रहर पर्यन्त स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 17. सूर्यग्रहण-सूर्यग्रहण होने पर भी क्रमशः पाठ, बारह और सोलह प्रहर पर्यन्त अस्वाध्यायकाल माना गया है। Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अनध्यायकाल 18. पतन-किसी बड़े मान्य राजा अथवा राष्ट्र पुरुष का निधन होने पर जब तक उसका दाहसंस्कार न हो तब तक स्वाध्याय न करना चाहिए। अथवा जब तक दूसरा अधिकारी सत्तारूढ न हो तब तक शनैः शनैः स्वाध्याय करना चाहिए। 19. राजव्युद्ग्रह-समीपस्थ राजाओं में परस्पर युद्ध होने पर जब तक शान्ति न हो जाए, तब तक उसके पश्चात् भी एक दिन-रात्रि स्वाध्याय नहीं करें। 20. औदारिक शरीर-उपाश्रय के भीतर पंचेन्द्रिय जीव का वध हो जाने पर जब तक कलेवर पड़ा रहे, तब तक तथा 100 हाथ तक यदि निर्जीव कलेवर पड़ा हो तो स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। अस्वाध्याय के उपरोक्त 10 कारण प्रौदारिक शरीर सम्बन्धी कहे गये हैं। 21-28 चार महोत्सव और चार महाप्रतिपदा- आषाढपूर्णिमा, पाश्विन-पूर्णिमा, कार्तिकपूर्णिमा और चैत्र-पूर्णिमा ये चार महोत्सव हैं। इन पूणिमाओं के पश्चात् आने वाली प्रतिपदा को महाप्रतिपदा कहते हैं / इसमें स्वाध्याय करने का निषेध है। 29-32. प्रातः सायं मध्याह्न और अर्धरात्रि-प्रातः सूर्य उगने से एक घड़ी पहिले तथा एक घड़ी पीछे / सूर्यास्त होने से एक घड़ी पहिले तथा एक घड़ी पीछे / मध्याह्न अर्थात् दोपहर में एक घड़ी आगे और एक घड़ी पीछे एवं अर्धरात्रि में भी एक घड़ी आगे तथा एक घड़ी पीछे स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आगमप्रकाशन-समिति, ब्यावर अर्थसहयोगी सदस्यों की शुभ नामावली महास्तम्भ संरक्षक 1. श्री सेठ मोहनमलजी चोरड़िया , मद्रास श्री बिरदीचंदजी प्रकाशचंदजी तलेसरा, पाली 2. श्री गुलाबचन्दजी मांगीलालजी सुराणा, 2. श्री ज्ञानराजजी केवलचन्दजी मूथा, पाली सिकन्दराबाद 3. श्री प्रेमराजजी जतन राजजी मेहता, मेड़ता सिटी 3. श्री पुखराजजी शिशोदिया, ब्यावर 4. श्री श० जड़ावमलजी माणकचन्दजी बेताला, 4. श्री सायरमलजी जेठमलजी चोरडिया, बैंगलोर बागलकोट 5. श्री प्रेमराजजी भंवरलालजी श्रीश्रीमाल, दुर्ग 5. श्री हीरालालजी पन्नालालजी चौपड़ा, ब्यावर 6. श्री एस. किशनचन्दजी चोरडिया, मद्रास श्री मोहनलालजी नेमीचन्दजी ललवाणी, 7. श्री कंवरलालजी बैताला. गोहाटी चांगाटोला 8. श्री सेठ खींवराजजी चोरड़िया मद्रास 7. श्री दीपचंदजी चन्दनमलजी चोरड़िया, मद्रास 9. श्री गुमानमलजी चोरडिया, मद्रास 8. श्री पन्नालालजी भागचन्दजी बोथरा, चांगा१०. श्री एस. बादलचन्दजी चोरडिया, मद्रास ___टीला 11. श्री जे. दुलीचन्दजी चोरड़िया, मद्रास 9. श्रीमती सिरेकुवर बाई धर्मपत्नी स्व. श्री सुगन१२. श्री. एस. रतनचन्दजी चोरड़िया, मद्रास चन्दजी झामड़, मदुरान्तकम् 13. श्री जे. अन्नराजजी चोरडिया, मद्रास 10. श्री बस्तीमलजी मोहनलालजी बोहरा 14. श्री एस. सायरचन्दजी चोरडिया, मद्रास (K. G. F.) जाड़न 15. श्री आर. शान्तिलालजी उत्तमचन्दजी 11. श्री थानचन्दजी मेहता, जोधपुर चोरड़िया, मद्रास 12. श्री भैरुदानजी लाभचन्दजी सराणा, नागौर 16. श्री सिरेमलजी हीराचन्दजी चोरडिया, मद्रास 13. श्री खूबचन्दजी गादिया, ब्यावर 17. श्री जे. हुक्मीचन्दजी चोरडिया, मद्रास 14. श्री मिश्रीलालजी धनराजजी विनायकिया स्तम्भ सदस्य ब्यावर 1. श्री अगरचन्दजी फतेचन्दजी पारख, जोधपुर 15. श्री इन्द्रचन्दजी बैद, राजनांदगांव 2. श्री जसराजजी गणेशमलजी संचेती, जोधपुर 16. श्री रावतमलजी भीकमचन्दजी पगारिया, 3. श्री तिलोकचंदजी, सागरमलजी संचेती, मद्रास बालाघाट 4. श्री पूसालालजी किस्तूरचंदजी सुराणा, कटंगी 17. श्री गणेशमलजी धर्मीचन्दजी कांकरिया, टंगला 5. श्री आर. प्रसन्नचन्दजी चोरडिया, मद्रास 18. श्री सुगनचन्दजी बोकड़िया, इन्दौर . 6. श्री दीपचन्दजी चोरडिया, मद्रास 19. श्री हरकचन्दजी सागरमलजी बेताला, इन्दौर 7. श्री मूलचन्दजी चोरड़िया, कटंगी 20. श्री रघुनाथमलजी लिखमीचन्दजी लोढ़ा, 8. श्री वर्द्धमान इण्डस्ट्रीज, कानपुर चांगाटोला 9. श्री मांगीलालजी मिश्रीलालजी संचेती, दुर्ग 21. श्री सिद्धकरणजी शिखरचन्दजी बैद, चांगाटोला Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सदस्य-नामावली 22. श्री सागरमलजी नोरतमलजी पींचा, मद्रास 8. श्री फूलचन्दजी गौतमचन्दजी कांठेड, पाली 23. श्री मोहनराजजी मुकनचन्दजी बालिया, 9. श्री के. पुखराजजी बाफणा, मद्रास अहमदाबाद 10. श्री रूपराजजी जोधराजजी मूथा, दिल्ली 24. श्री केशरीमलजी जंवरीलालजी तलेसरा, पाली 11. श्री मोहनलालजी मंगलचंदजी पगारिया, रायपुर 25. श्री रतनचन्दजी उत्तमचन्दजी मोदी, ब्यावर 12. श्री नथमलजी मोहनलालजी लणिया, चण्डावल 26. श्री धर्मीचन्दजी भागचन्दजी बोहरा, झूठा 13. श्री भंवरलालजी गौतमचन्दजी पगारिया, 27. श्री छोगमलजी हेमराजजी लोढ़ा डोंडीलोहारा कुशालपुरा 28. श्री गुणचंदजी दलीचंदजी कटारिया, बेल्लारी 14. श्री उत्तमचंदजी मांगीलालजी. जोधपर 29. श्री मूलचन्दजी सुजानमलजी संचेती, जोधपुर 15. श्री मूलचन्दजी पारख, जोधपुर 30. श्री सी० अमरचन्दजी बोथरा, मद्रास 16. श्री सुमेरमलजी मेड़तिया, जोधपुर 31. श्री भंवरलालजी मूलचंदजी सुराणा, मद्रास 17. श्री गणेशमलजी नेमीचन्दजी टांटिया, जोधपुर 32. श्री बादलचंदजी जुगराजजी मेहता, इन्दौर 18. श्री उदयराजजी पुखराजजी संचेती, जोधपुर 33. श्री लालचंदजी मोहनलालजी कोठारी, गोठन 19. श्री बादरमलजी पुखराजजी बंट, कानपुर 34. श्री हीरालालजी पन्नालालजी चौपड़ा, अजमेर 20. श्रीमती सुन्दरबाई गोठी w/o श्री ताराचंदजी 35. श्री मोहनलालजी पारसमलजी पगारिया, गोठी, जोधपुर बैंगलोर 21. श्री रायचन्दजी मोहनलालजी, जोधपुर 36. श्री भंवरीमलजी चोरडिया, मद्रास 22. श्री घेवरचन्दजी रूपराजजी, जोधपुर 37. श्री भंवरलालजी गोठी, मद्रास 23. श्री भंवरलालजी माणकचंदजी सुराणा, मद्रास 38. श्री जालमचंदजी रिखबचंदजी बाफना, आगरा 24. श्री जंवरीलालजी अमरचन्दजी कोठारी, ब्यावर 39. श्री घेवरचंदजी पुखराजजी भुरट, गोहाटी 25. श्री माणकचन्दजी किशनलालजी, मेड़ता 40. श्री जबरचन्दजी गेलड़ा, मद्रास 26. श्री मोहनलालजी गुलाबचन्दजी चतर, ब्यावर 41. श्री जड़ावमलजी सुगनचन्दजी, मद्रास 27. श्री जसराजजी जंवरीलालजी धारीवाल, जोधपुर 28. श्री मोहनलालजी चम्पालालजी गोठी, जोधपुर 42. श्री पुखराजजी विजयराजजी, मद्रास 29. श्री नेमीचंदजी डाकलिया मेहता, जोधपुर 43. श्री चेनमलजी सुराणा ट्रस्ट, मद्रास 30. श्री ताराचंदजी केवलचंदजी कर्णावट, जोधपुर 44. श्री लूणकरणजी रिखबचंदजी लोढ़ा, मद्रास 45. श्री सूरजमलजी सज्जनराजजी महेता, कोप्पल 31. श्री आसूमल एण्ड के०, जोधपुर सहयोगी सदस्य 32. श्री पुखराजजी लोढा, जोधपुर 33. श्रीमती सुगनीबाई w/o श्री मिश्रीलालजी 1. श्री देवकरणजी श्रीचन्दजी डोसा, मेड़तासिटी ___ सांड, जोधपुर 2. श्रीमती छगनीबाई विनायकिया. ब्यावर 34. श्री बच्छराजी सुराणा, जोधपुर 3. श्री पूनमचन्दजी नाहटा, जोधपुर / 35. श्री हरकचन्दजी मेहता, जोधपुर 4. श्री भंवरलालजी विजयराजजी कांकरिया, 36. श्री देवराजजी लाभचंदजी मेड़तिया, जोधपुर विल्लीपुरम् 37. श्री कनकराजजी मदनराजजी गोलिया, 5. श्री भंवरलालजी चौपड़ा, ब्यावर जोधपुर 6. श्री विजयराजजी रतनलालजी चतर, ब्यावर 38. श्री घेवरचन्दजी पारसमलजी टांटिया, जोधपुर 7. श्री बी. गजराजजी बोकडिया, सेलम 39. श्री मांगीलालजी चोरडिया, कुचेरा Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदस्य-नामावली] 40. श्री सरदारमलजी सुराणा, भिलाई 69. श्री हीरालालजी हस्तीमलजी देशलहरा, भिलाई 41. श्री प्रोकचंदजी हेमराजजी सोनी, दुर्ग 70. श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावकसंघ, 42. श्री सूरजकरणजी सुराणा, मद्रास दल्ली-राजहरा 43. श्री घीसूलालजी लालचंदजी पारख, दुर्ग 71. श्री चम्पालालजी बुद्धराजजी बाफणा, ब्यावर 44. श्री पुखराजजी बोहरा, (जैन ट्रान्सपोर्ट कं.) 72. श्री गंगारामजी इन्द्रचंदजी बोहरा, कुचेरा जोधपुर 73. श्री फतेहराजजी नेमीचंदजी कर्णावट, कलकत्ता 45. श्री चम्पालालजी सकलेचा, जालना 74. श्री बालचंदजी थानचन्दजी भरट, 46. श्री प्रेमराजजी मीठालालजी कामदार, कलकत्ता बैंगलोर 75. श्री सम्पतराजजी कटारिया, जोधपुर 47. श्री भंवरलालजी मुथा एण्ड सन्स, जयपुर 76. श्री जंवरीलालजी शांतिलालजी सुराणा, 48. श्री लालचंदजी मोतीलालजी गादिया, बैंगलोर बोलारम 49. श्री भंवरलालजी नवरत्नमलजी सांखला, 77. श्री कानमलजी कोठारी, दादिया मेटूपालियम 78. श्री पन्नालालजी मोतीलालजी सुराणा, पाली 50. श्री पुखराजजी छल्लाणी, करणगुल्ली 79. श्री माणकचंदजी रतनलालजी मुणोत, टंगला 51. श्री प्रासकरणजी जसराजजी पारख, दुर्ग 80. श्री चिम्मनसिंहजी मोहनसिंहजी लोढा, ब्यावर 52. श्री गणेशमलजी हेमराजजी सोनी, भिलाई 81. श्री रिद्धकरणजी रावतमलजी भुरट, गौहाटी 53. श्री अमृतराजजी जसवन्तराजजी मेहता, 82. श्री पारसमलजी महावीरचंदजी बाफना, गोठ मेड़तासिटी 53. श्री फकीरचंदजी कमलचंदजी श्रीश्रीमाल, 54. श्री घेवरचंदजी किशोरमलजी पारख, जोधपुर कुचेरा 55. श्री मांगीलालजी रेखचंदजी पारख, जोधपुर 84. श्री मांगीलालजी मदनलालजी चोरड़िया, भैरूंद 56. श्री मुन्नीलालजी मूलचंदजी गुलेच्छा, जोधपुर 85. श्री सोहनलालजी लूणकरणजी सुराणा, कुचेरा 57. श्री रतनलालजी लखपतराजजी, जोधपुर 86. श्री घीसूलालजी, पारसमलजी, जंवरीलालजी 58. श्री जीवराजजी पारसमलजी कोठारी, मेड़ता कोठारी, गोठन सिटी 87. श्री सरदारमलजी एण्ड कम्पनी, जोधपुर 59. श्री भंवरलालजी रिखबचंदजी नाहटा, नागौर 88. श्री चम्पालालजी हीरालालजी बागरेचा, 60. श्री मांगीलालजी प्रकाशचन्दजी रूणवाल, मैसूर जोधपुर 61. श्री पुखराजजी बोहरा, पीपलिया कलां 86. श्री धुखराजजी कटारिया, जोधपुर 62. श्री हरकचंदजी जुगराजजी बाफना, बैंगलोर 90, श्री इन्द्रचन्दजी मुकनचन्दजी, इन्दौर 63. श्री चन्दनमलजी प्रेमचंदजो मोदी, भिलाई। 91. श्री भंवरलालजी बाफणा, इन्दौर 64. श्री भीवराजजी बाघमार, कुचेरा 92. श्री जेठमलजी मोदी, इन्दौर 65. श्री तिलोकचंदजी प्रेमप्रकाशजी, अजमेर 93. श्री बालचन्दजी अमरचन्दजी मोदी, ब्यावर 66. श्री विजयलालजी प्रेमचंदजी गुलेच्छा, 94. श्री कुन्दनमलजी पारसमलजी भंडारी, बैंगलौर राजनांदगाँव 65. श्रीमती कमलाकंवर ललवाणी धर्मपत्नी श्री 67. श्री रावतमलजी छाजेड़, भिलाई स्व. पारसमलजी ललवाणी, गोठन 68. श्री भंवरलालजी डूंगरमलजी कांकरिया, 96. श्री प्रखेचंदजी लूणकरणजी भण्डारी, कलकत्ता भिलाई 97. श्री सुगनचन्दजी संचेती, राजनांदगांव Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सदस्य नामावली 98. श्री प्रकाशचंदजी जैन, नागौर 116. श्रीमती रामकुंवरबाई धर्मपत्नी श्री चांदमलजी 99. श्री कुशालचंदजी रिखबचन्दजी सुराणा, लोढा, बम्बई बोलारम 117. श्री मांगीलालजी उत्तमचंदजी बाफणा, बैंगलोर 100. श्री लक्ष्मीचंदजी अशोककुमारजी श्रीश्रीमाल, 118. श्री सांचालालजी बाफणा, औरंगाबाद कुचेरा 119. श्री भीखमचन्दजी माणकचन्दजी खाबिया, 101. श्री गूदड़मलजी चम्पालालजी, गोठन (कुडालोर) मद्रास 102. श्री तेजराजजी कोठारी, मांगलियावास 120. श्रीमती अनोपकुंवर धर्मपत्नी श्री चम्पालालजी 103. सम्पतराजजी चोरडिया, मद्रास ___संघवी, कुचेरा 104. श्री अमरचंदजी छाजेड़, पादु बड़ी 121. श्री सोहनलालजी सोजतिया, थांवला 105. श्री जुगराजजी धनराजजी बरमेचा, मद्रास 122. श्री चम्पालालजी भण्डारी, कलकत्ता 106. श्री पुखराजजी नाहरमलजी ललवाणी, मद्रास 123. श्री भीखमचन्दजी गणेशमलजी चौधरी. 107. श्रीमती कंचनदेवी व निर्मलादेवी, मद्रास घलिया 108. श्री दुलेराजजी भंवरलालजी कोठारी, 124. श्री पुखराजजी किशनलालजी तातेड़, कुशालपुरा सिकन्दराबाद 109. श्री भंवरलालजी मांगीलालजी बेताला, डेह 125. श्री मिश्रीलालजी सज्जनलालजी कटारिया 110. श्री जीवराजजी भंवरलालजी चोरडिया, सिकन्दराबाद भैरू दा 126. श्री बर्द्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ, 111. श्री मांगीलालजी शांतिलालजी रूणवाल, बगड़ीनगर हरसोलाव 127. श्री पुखराजजी पारसमलजी ललवाणी, 112. श्री चांदमलजी धनराजजी मोदी, अजमेर बिलाड़ा 113. श्री रामप्रसन्न ज्ञानप्रसार केन्द्र, चन्द्रपुर 128. श्री टी. पारसमलजी चोरडिया, मद्रास 114. श्री भूरमलजी दुलीचंदजो बोकड़िया, मेड़ता 129. श्री मोतीलालजी पासूलालजी बोहरा सिटी एण्ड कं., बैंगलोर 115. श्री मोहनलालजी धारीवाल, पाली 130. श्री सम्पतराजजी सुराणा, मनमाड़ CD Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रागमप्रकाशन समिति, ब्यावर द्वारा अद्यावधि प्रकाशित आगम-सा नाम __ अनुवादक-सम्पादक आचारांगसूत्र [दो भाग] श्रीचन्द सुराना 'सरस' उपासकदशांगसूत्र डॉ. छगनलाल शास्त्री (एम.ए., पी-एच. डी. ज्ञाताधर्मकथांगसूत्र पं. शोभाचन्द्र भारिल्ल अन्तकृद्दशांगसूत्र साध्वी दिव्यप्रभा (एम.ए., पी-एच.डी.) अनुत्तरोववाइयसूत्र साध्वी मुक्तिप्रभा (एम.ए., पी-एच.डी.), स्थानांगसूत्र पं. हीरालाल शास्त्री समवायांगसूत्र पं. हीरालाल शास्त्री सूत्रकृतांगसूत्र श्रीचन्द सुराना 'सरस' विपाकसूत्र अनु. पं. रोशनलाल शास्त्री सम्पा.पं. शोभाचन्द्र भारिल्ल नन्दीसूत्र अनु. साध्वी उमरावकुंवर 'अर्चना' सम्पा. कमला जैन 'जीजी' एम. ए. प्रौपपातिकसूत्र डॉ. छगनलाल शास्त्री व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [चार भाग] श्री अमरमुनि राजप्रश्नीयसूत्र वाणीभूषण रतनमुनि, सं. देवकुमार जैन प्रज्ञापनासूत्र [तीन भाग] जैनभूषण ज्ञानमुनि प्रश्नव्याकरणसूत्र अनु. मुनि प्रवीणऋषि सम्पा. पं. शोभाचन्द्र भारिल्ल उत्तराध्ययनसूत्र श्री राजेन्द्रमुनि शास्त्री निरयावलिकासूत्र श्री देवकुमार जैन दशवकालिकसूत्र महासती पुष्पवती आवश्यकसूत्र महासती सुप्रभा जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र डॉ. छगनलाल शास्त्री अनुयोगद्वारसूत्र उपाध्याय श्री केवलमुनि, सं. देवकुमार जैन सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्र सम्पा. मुनि श्री कन्हैयालालजी 'कमल' जीवाजीवाभिगमसूत्र [प्र. भाग] श्री राजेन्द्रमुनि निशीथसूत्र मुनिश्री कन्हैयालालजी 'कमल', श्री तिलोकमुनि जीवाजीवाभिगमसूत्र [द्वि. भा.] त्रीणिछेदसूत्राणि विशेष जानकारी के लिये सम्पर्कसूत्र श्री आगम प्रकाशन समिति श्री ब्रज-मधुकर स्मृति भवन, पीपलिया बाजार, ब्यावर-३०५९०१ in Education International For Private & Personal use only