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## First Understanding: Description of Earth-bodied Beings [27]
**Earth-bodied beings are those who are pierced by piercing, broken by breaking, and are dull.** They exist only in the reflected region of the universe, not everywhere. The two "chakar" mentioned in the original text indicate the many subtle and dull distinctions.
**Subtle Earth-bodied beings are of two types:**
1. **Sufficient:** Those who have fulfilled their sufficiencies.
2. **Insufficient:** Those who have not fulfilled their sufficiencies or are not going to fulfill them.
To understand the nature of sufficient and insufficient, it is necessary to understand sufficiencies.
**Sufficiency is the power of the soul to take in food and other karmic particles and transform them into body and other forms.** This power is obtained through the accumulation of karmic particles. Upon reaching their place of origin, beings first take in certain karmic particles and continue to take in others, transforming them into body, senses, breath, speech, and mind. The power to transform karmic particles into these forms is called sufficiency.
**There are six types of sufficiencies:**
1. **Food Sufficiency:** The power by which a being takes in food and transforms it into essence and waste (spread portion).
2. **Body Sufficiency:** The power by which a being transforms food into essence, blood, flesh, fat, bone, marrow, and semen, the seven bodily elements.
3. **Sense Sufficiency:** The power by which a being takes in karmic particles suitable for the senses from the seven bodily elements and transforms them into senses.
4. **Breath Sufficiency:** The power by which a being takes in karmic particles suitable for breathing and transforms them into inhalation and exhalation.
5. **Speech Sufficiency:** The power by which a being takes in karmic particles suitable for speech and transforms them into speech.
6. **Mind Sufficiency:** The power by which a being takes in karmic particles suitable for the mind and transforms them into mind.
**1. Sufficiency is a special power of the soul to take in food and other karmic particles and transform them.** - Malayagiri Vatti
________________ प्रथम प्रतिपत्ति : पृथ्वीकाय का वर्णन [27 हों, छेदने से छिदते हों, भेदने से भिदते हों, बे बादर पृथ्वीकायिक जीव हैं / ये लोक के प्रतिनियत क्षेत्र में ही होते हैं, सर्वत्र नहीं। मूल में आये हुए 'दोनों चकार सूक्ष्म और बादर के स्वगत अनेक भेद-प्रभेद के सूचक हैं।' सूक्ष्म पृथिवीकायिक के भेद-सूक्ष्म पृथ्विकायिक जीवों के सम्बन्ध में बताया गया है कि वे दो प्रकार के हैं—यथा 1. पर्याप्तक और 2 अपर्याप्तक / पर्याप्तक-जिन जीवों ने अपनी पर्याप्तियां पूरी कर ली हों वे पर्याप्तक हैं। अपर्याप्तक-जिन जीवों ने अपनी पर्याप्तियां पूरी नहीं की हैं या पूरी करने वाले नहीं हैं वे अपर्याप्तक हैं। पर्याप्तक और अपर्याप्तक के स्वरूप को समझने के लिए पर्याप्तियों को समझना आवश्यक है। पर्याप्ति का स्वरूप इस प्रकार हैपर्याप्ति का स्वरूप आहारादि के पुद्गलों को ग्रहण कर उन्हें शरीरादि रूप में परिणत करने की आत्मा की शक्ति को पर्याप्ति कहते हैं।' यह शक्ति पुद्गलों के उपचय से प्राप्त होती है। जीव अपने उत्पत्तिस्थान पर पहुंचकर प्रथम समय में जिन पुद्गलों को ग्रहण करता है और इसके बाद भी जिन पुद्गलों को ग्रहण करता है उनको शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन के रूप में परिवर्तित करता है। पुद्गलों को इन रूपों में परिणत करने की शक्ति को ही पर्याप्ति कहा जाता है। पर्याप्तियाँ छह प्रकार की हैं-१. आहारपर्याप्ति, 2. शरीरपर्याप्ति, 3. इन्द्रियपर्याप्ति, 4. श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति, 5. भाषापर्याप्ति और 6. मनःपर्याप्ति / 1. आहारपर्याप्ति—जिस शक्ति से जीव प्राहार को ग्रहण कर उसे रस और खल (प्रसार भाग) में परिणत करता है, उसे पाहारपर्याप्ति कहते हैं। 2. शरीरपर्याप्ति-जिस शक्ति से जीव रस रूप में परिणत प्राहार को रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और वीर्य रूप सात धातुओं में परिणत करता है, वह शरीरपर्याप्ति है। 3. इन्द्रियपर्याप्ति-जिस शक्ति से जीव सप्त धातुओं से इन्द्रिय योग्य पुद्गलों को ग्रहण कर उन्हें इन्द्रिय रूप में परिणत करता है, वह इन्द्रियपर्याप्ति है / 4. श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति-जिस शक्ति से जीव श्वासोच्छ्वास योग्य पुद्गलों को ग्रहण करके श्वास और उच्छ्वास में परिणत करता है, वह श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति है। 5. भाषापर्याप्ति-जिस शक्ति से जीव भाषावर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करके भाषा रूप में बदलता है, वह भाषापर्याप्ति है। 6. मनःपर्याप्ति-जिस शक्ति से जीव मनोवर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण कर उन्हें मन के रूप में बदलता है, वह मन:पर्याप्ति है। 1. पर्याप्तिामाहारादिपुदगलग्रहणपरिणमनहेतुरात्मनः शक्तिविशेषः। -मलयगिरि वत्ति / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org