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[22] "Bhanta! Where do the jivas go after they leave their bodies? Where are they reborn? Are they reborn as Nairyikas, Tiryachas, Manushyas, or Devas?" "Gautama! They are not reborn as Nairyikas, they are reborn as Tiryachas, they are reborn as Manushyas, they are not reborn as Devas." "Bhanta! Are they reborn as Ekendriya or Panchendriya?" "Gautama! They are reborn as Ekendriya, up to Panchendriya Tiryachas, but excluding those Tiryachas with an infinite lifespan, they are reborn as both sufficient and insufficient Tiryachas. Excluding those Manushyas who are Akarmabhumis, Antaradhovas, and have an infinite lifespan, they are reborn as both sufficient and insufficient Manushyas." [23] "Bhanta! How many speeds do the jivas travel at, and how many speeds do they come back at?" "Gautama! They are of two speeds and two progressions. Ayushman Shraman! They are said to be of every body and countless lokaakasha pradesha." This is the description of the subtle Prithvikaayika.
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________________ प्रथम प्रतिपत्ति: पृथ्वीकाय का वर्णन] [22] ते णं भंते ! जीवा अणंतरं उव्वट्टित्ता कहिं गच्छंति ?कहिं उववज्जंति ? कि नेरइएसु उववज्जंति, तिरिक्खजोणिएसु उववज्जति, मणुस्सेसु उववज्जति, देवेसु उववज्जंति ? गोयमा ! नो नेरइएसु उववजंति, तिरिक्खनोणिएसु उववज्जंति, मणुस्सेसु उववज्जंति, गो देवेसु उववज्जति / कि एगिदिएसु उववज्जंति जाव पंचिदिएस उबवज्जंति ? गोयमा! एगिदिएस उववज्जति जाव पंचिदियतिरिक्खजोणिएसु उववज्जंति, असंखेज्जवासाउयवज्जेस पज्जतापज्जत्तएसु उववज्जति / मणुस्सेसु अकम्मभूभग-अंतरदोवग-असंखेज्जवासाउयवज्जेसु पज्जत्तापज्जत्तेसु उववज्जति। [22] भगवन् ! वे जीव वहां से निकलकर अगले भव में कहाँ जाते हैं ? कहां उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नैरयिकों में, तिर्यञ्चों में, मनुष्यों में और देवों में उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! नरयिकों में उत्पन्न नहीं होते, तिर्यचों में उत्पन्न होते हैं, मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं, देवों में उत्पन्न नहीं होते। भंते ! क्या वे एकेन्द्रियों में यावत् पंचेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! वे एकेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं, यावत् पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकों में उत्पन्न होते हैं, लेकिन असंख्यात वर्षायु वाले तिर्यंचों को छोड़कर शेष पर्याप्त अपर्याप्त तिर्यंचों में उत्पन्न होते हैं। ____ अकर्मभूमि वाले, अन्तरद्वोप वाले तथा असंख्यात-वर्षायु वाले मनुष्यों को छोड़कर शेष पर्याप्त-अपर्याप्त मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं। [23] ते णं मंते ! जीवा कतिगतिका कतिआगतिका पण्णत्ता ? गोयमा ! दुगतिका दुआगतिका परित्ता असंखेज्जा पण्णत्ता समणाउसो! __ से तं सुहुमपुढविक्काइया / [23] भगवन् ! वे जीव कितनी गति में जाने वाले और कितनी गति से आने वाले हैं ? गौतम ! वे जीव दो गति वाले और दो प्रगति वाले हैं / हे अायुष्मन् श्रमण ! वे जीव प्रत्येक शरीर वाले और असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण कहे गये हैं। यह सूक्ष्म पृथ्वीकायिक का वर्णन हुमा / / विवेचन–प्रस्तुत सूत्र में सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों के सम्बन्ध में 23 द्वारों के द्वारा विशेष जानकारी भगवान् श्री गौतम के प्रश्नों और देवाधिदेव प्रभु श्री महावीर के उत्तर के रूप में दी गई है। यहाँ मूल सूत्र में 'भंते !' पद के द्वारा श्री गौतमस्वामी ने प्रभु महावीर को सम्बोधन किया है / 'भंते !' का अर्थ सामान्यतया 'भगवन्' होता है / टीकाकार ने भदन्त अर्थात् परम कल्याणयोगिन् ! अर्थ किया है / सचमुच भगवान् महावीर परम सत्यार्थ का प्रकाश करने के कारण परम कल्याणयोगी हैं। यहाँ सहज जिज्ञासा होती है कि भगवान् गौतम भी मातृकापद श्रवण करते ही प्रकृष्ट श्रुतज्ञानावरण के क्षयोपशम से चौदह पूर्वो के ज्ञाता हो गये थे / चौदह पूर्वधारियों से कोई भी प्रज्ञापनीय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003482
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages736
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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