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126) The explanation of the state of being and the difference between them, as presented in the form of questions and answers in the Jiva-Jiva-Abhigamsutra, is established by the text. Only the explanation of the countless and infinite time found in it is necessary. / The countless time is described in two ways - by time and by space. / The countless ascending and descending periods of time are called countless time. / The countless space-based countless time is the time taken for the countless space-regions to become empty when one region is removed from each of the countless space-regions at every moment. Infinite time is also described in terms of time and space. The infinite time is the time of the infinite ascending and descending periods. / This is from the perspective of time-measurement. From the perspective of space-measurement, infinite time is the time taken for the infinite-infinite space-regions to become empty when one region is removed from each of them at every moment. This infinite time, when described by the movement of matter, is the countless matter-movement-shaped time. The number of these matter-movements is equal to the number of moments in the countless parts of the pravalika. The term "vegetative time" mentioned in the text refers to infinite time, and the term "earth-body" refers to countless time. / 213. The least numerous are the sakayikas, then the tejaskaayikas are countless times more numerous, then the prithvikaayikas are more numerous, then the apkaayikas are more numerous, then the vayukaayikas are more numerous, and then the vanaspatikaayikas are infinitely numerous. /
________________ 126) [जीवाजीवाभिगमसूत्र प्रश्न और उत्तर के रूप में जो कायस्थिति और अन्तर बताया है, वह पाठसिद्ध ही है। केवल उसमें पाये हए असंख्येयकाल और अनन्तकाल का स्पष्टीकरण आवश्यक है / असंख्येयकाल-असंख्येयकाल का निरूपण दो प्रकार से किया गया है-काल और क्षेत्र से / असंख्यात उत्सर्पिणी और असंख्यात अवसर्पिणी प्रमाण काल को असंख्येय काल कहते हैं / असंख्यात लोक-प्रमाण आकाशखण्डों में से प्रतिसमय एक-एक प्रदेश का अपहार करने पर जितने समय में वे आकाशखण्ड निर्लेपित (खाली) हो जाएं, उस समय को क्षेत्रापेक्षया असंख्येय काल कहते हैं। अनन्तकाल--यह निरूपण भी काल और क्षेत्र से किया गया है। अनन्त उत्सर्पिणीअवसर्पिणी प्रमाण काल अनन्तकाल है / यह कालमार्गणा की दृष्टि से है। क्षेत्रमार्गणा की दृष्टि से अनन्तानन्त लोकालोकाकाशखण्डों में से प्रतिसमय एक-एक प्रदेश का अपहार करने पर जितने काल में वे निर्लेप हो जायें, उस काल को अनन्तकाल समझना चाहिये। इसी अनन्तकाल को पुद्गलपरावर्त द्वारा कहा जाये तो असंख्येय पुद्गलपरावर्तरूप काल अनन्तकाल है। इन पुद्गलपरावर्तों की संख्या उतनी है, जितनी प्रावलिका के असंख्येय भाग में समयों की संख्या है। प्रस्तुत पाठ में अन्तरद्वार में बताये हुए वनस्पतिकाल से तात्पर्य है अनन्तकाल और पृथ्वीकाय से तात्पर्य है---असंख्येयकाल / अल्पबहुत्वद्वार 213. अप्पाबहुयं-सव्वत्थोवा तसकाइया, तेउक्काइया असंखेज्जगुणा, पुढविकाइया विसेसाहिया, आउकाइया विसेसाहिया, वाउक्काइया विसेसाहिया, वणस्सइकाइया अणंतगुणा / एवं अपज्जत्तगावि पज्जत्तगावि। एएसि णं भंते ! पुढविकाइयाणं पज्जत्तगाण अपज्जतगाण य कयरे कयरोहितो प्रप्पा वा एवं जाव विसेसाहिया? गोयमा ! सव्वस्थोवा पूढविकाइया अपज्जत्तगा, पुढविकाइया पज्जत्तगा संखेज्जगुणा। एएसि णं आउकाइयाणं०? सम्वत्थोवा आउक्काइया अपज्जत्तगा,पज्जत्तगा संखेज्जगुणा जाव वणस्सइकाइयादि / सम्वत्थोवा तसकाइया पज्जत्तगा, तसकाइया मपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा / एएसिणं भंते ! पुढविकाइयाणं जाव तसकाइयाणं पज्जत्तग-अपज्जत्तगाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? सम्वत्थोवा तसकाइया पज्जत्तगा, तसकाइया अपज्जत्तगा प्रसंखेज्जगुणा, तेउकाइया अपज्जत्ता असंखेज्जगुणा, पुढविक्काइया आउक्काइया वाउकाइया अपज्जत्तगा विसेसाहिया, तेउक्काइया पज्जत्तगा संखेज्जगुणा, पुढवि-प्राउ-याउ-पज्जसगा विसेसाहिया, वणस्सइकाइया अपज्जत्तगा अर्णतगुणा, सकाइया अपज्जत्तगा विसेसाहिया वणस्सइकाइया पज्जत्तगा संखेज्जगुणा, सकाइया पज्जत्तगा विसेसाहिया। 213. अल्पबहुत्व-सबसे थोड़े सकायिक, उनसे तेजस्कायिक असंख्येयगुण, उनसे पृथ्वीकायिक विशेषाधिक, उनसे अपकायिक विशेषाधिक, उनसे वायुकायिक विशेषाधिक, उनसे वनस्पतिकायिक अनन्तगण / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org