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## All beings are classified into four categories: **1. Chakkhuvansaani (Those with eyes):** * **Lowest:** An interval of an antarmuhurta (a very short time). * **Highest:** A distance of a thousand oceans. **2. Achakkhuvansaani (Those without eyes):** * **Two types:** * **Anaiyae (Without knowledge):** Lowest is an interval of an antarmuhurta. Highest is a distance of a thousand oceans. * **Apjjavasaie (With knowledge):** Lowest is an interval of an antarmuhurta. Highest is a distance of a thousand oceans. **3. Avidhi-dassaani (Those with knowledge of the path):** * **Lowest:** An interval of one time period. * **Highest:** A distance of two oceans. **4. Keval-dassaani (Those with perfect knowledge):** * **Lowest:** An interval of one time period. * **Highest:** A distance of two oceans.
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________________ सर्वजीवाभिगम [189 वेद में नहीं / अतः जन्मान्तर में भी सातत्य रूप से गमन की अपेक्षा एकसमयता घटित नहीं होती है। नपुसकवेद की जघन्यस्थिति एक समय की है। स्त्रीवेद के अनुसार युक्ति कहनी चाहिए / उत्कर्ष से वनस्पतिकाल पर्यन्त कायस्थिति है / अवेदक दो प्रकार के हैं—सादि-अपर्यवसित (क्षीणवेद वाले ) और सादि-सपर्यवसित (उपशान्तवेद वाले)। सादि-सपर्यवसित अवेदक की कायस्थिति जघन्य से एक समय है, क्योंकि द्वितीय समय में भरकर देवगति में पुरुषवेद सम्भव है। उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त की कायस्थिति है। तदनन्तर मरकर पुरुषवेद वाला हो जाता है या श्रेणी से गिरता हुआ जिस वेद से श्रेणी पर चढ़ा, उस वेद का उदय हो जाने से वह सवेदक हो जाता है। ___ अन्तरद्वार-स्त्रीवेद का अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहर्त है। क्योंकि वेद का उपशम होने पर पुनः अन्तर्मुहूर्त काल में वेद का उदय हो सकता है। अथवा स्त्रीपर्याय से निकलकर पुरुषवेद या नपुसकवेद में अन्तर्मुहुर्त रहकर पुनः स्त्रीपर्याय में पाया जा सकता है / उत्कर्ष से अन्तर वनस्पतिकाल है। पुरुषवेद का अन्तर जघन्य एक समय है / क्योंकि उपशमश्रेणी में पुरुषवेद का उपशम होने पर एक समय के अनन्तर मरकर पुरुषत्व रूप में उत्पन्न होना सम्भव है। उत्कर्ष से वनस्पतिकाल अन्तर है। __ नपुसकवेद का अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त है। युक्ति स्त्रीवेद में कथित अन्तर की तरह जानना चाहिए / उत्कर्ष से साधिक सागरोपमशतपृथक्त्व का अन्तर है। इसके बाद संसारी जीव अवश्य नपुसक रूप में उत्पन्न होता है। अवेदक में सादि-अपर्यवसित का अन्तर नहीं होता, अपर्यवसित होने से। सादि-सपर्यवसित अवेदक का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि अंतर्मुहूर्त के बाद पुनः श्रेणी का प्रारम्भ सम्भव है। उत्कर्ष से अनन्तकाल / यह अनन्तकाल कालमार्गणा से अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी रूप है तथा क्षेत्रमार्गणा से देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्त है / इतने काल के पश्चात् जिसने पहले श्रेणी की है वह पुनः श्रेणी का प्रारम्भ कर अल्पबहुत्वद्वार--सबसे थोड़े पुरुषवेदक हैं, क्योंकि देव-मनुष्य-तिर्यंचगति में वे अल्प ही हैं। उनसे स्त्रीवेदक संख्यातगुण हैं। क्योंकि तिर्यंचगति में स्त्रियां पुरुषों से तिगुनी हैं, मनुष्यगति में सत्ताईस गुणी हैं और देवगति में बत्तीस गुणी हैं। उनसे अवेदक अनन्तगुण हैं, क्योंकि सिद्ध अनन्त हैं / उनसे नपुंसकवेदक अनन्तगुण हैं, क्योंकि वनस्पतिजीव सिद्धों से अनन्तगुण हैं। 246. अहवा चउम्विहा सव्वजोवा पण्णता, तं जहा-चक्खुदंसणी अचक्खुदसणी अवधिदसणी केवलदसणी। चक्खुवंसणी णं भंते! * ? जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं सागरोवमसहस्सं साइरेगं / अचक्खुदसणी दुविहे पण्णत्ते-अणाइए वा अपज्जवसिए, अणाइए वा सपज्जवसिए। ओहिदसणी जहन्नेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं दो छावहिसागरोपमाणं साइरेगाओ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003482
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages736
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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