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The Jiva's approach to the world is based on the principle of "Avantaar Jaatibhed" (differentiation of species), which leads to a flow of births in various species. There are seven lakh species of Dwindriya (two-sense) beings, each with its own unique form of existence. This is the description of Dwindriya beings.
The description of Triindriya (three-sense) beings begins from verse 29. What are Triindriya beings? Triindriya beings are said to be of many types, such as: Aupayik, Rohini, Hastshishonda, and others similar to them. These are broadly classified into two types: Paryapt (sufficient) and Aparyapt (insufficient).
Similarly, all the descriptions given for Dwindriya beings should be applied to Triindriya beings. The unique characteristic of Triindriya beings is that their lifespan is three kos (a unit of distance), they have three senses, and their lifespan ranges from a single moment to fifty nights and days.
All the descriptions given for Dwindriya beings should be applied to Triindriya beings, including those that are described as having two movements, two forward movements, each with a body, and countless others. This is the description of Triindriya beings.
**Explanation:**
Triindriya beings are those who possess three senses: touch, taste, and smell. They are classified into many types. The Prajnapanasutra lists their classifications as follows: Aupayik, Rohini, Kanthu (caterpillar), Pipilika (ant), Uddeshak, Uddehika (termite), Utkalik, Utpad, Utkat, Trinaahar (grass-eating), Kasthahar (wood-eating), Maluk, Patraahar (leaf-eating), Trina Vrintik, Patra Vrintik, Pushpa Vrintik, Phal Vrintik, Beej Vrintik, Tenduran Majjik, Trapushbhijik, Kapas Sthibhijak, Hillik, Jhillik, Jhigir (shrimp), Kigirit, Bahuk, Laghuk, Subhag, Sauvastik, Shukavritt, Indrakaayik, Indragop (silk worm), Urulunchk, Kusthalvahak, Yuka (louse), Halahal, Pishuk (flea or bedbug), Shatpadika (centipede), Gomhi (earwig), and Hastshishonda.
Some of these types of Triindriya beings are well-known. The rest should be understood based on specific regions or traditions. These Triindriya beings are classified into two types: Paryapt (sufficient) and Aparyapt (insufficient). All the descriptions given earlier apply to them.
________________ [जीवाजीकाभिगमसूत्र अवान्तर जातिभेद होने से अनेक जातिकुल के योनि प्रवाह होते हैं / द्वीन्द्रियों के सात लाख जातिकुल कोटिरूप योनियां हैं। यह द्वीन्द्रियों का वर्णन हुआ। त्रीन्द्रियों का वर्णन 29. से कि तं तेइंदिया? तेइंदिया अणेगविहा पण्णत्ता, संजहा-- ओवइया, रोहिणीया, हस्थिसोंडा, जे यावण्णे तहप्पगारा। ते समासओ दुविहा पण्णता, तंजहापज्जत्ता य अपज्जसा य / तहेव जहा बेइंबियाणं णवरं सरीरोगाहणा उक्कोसेणं तिनि गाउयाई, तिन्नि इंदिया, ठिई जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं एगणपण्णराइंदिया, सेसं तहेव दुगतिआ, दुआगतिया, परित्ता असंखेज्जा पण्णता, से तं तेइंदिया। [29] त्रीन्द्रिय जीव कौन हैं ? त्रीन्द्रिय जीव अनेक प्रकार के कहे गये हैं, यथाप्रोपयिक, रोहिणीक, यावत् हस्तिशीण्ड और अन्य भी इसी प्रकार के श्रीन्द्रिय जीव / ये संक्षेप से दो प्रकार के हैं -पर्याप्त और अपर्याप्त / इसी तरह वह सब कथन करना चाहिए जो द्वीन्द्रियों के लिए कहा गया है। विशेषता यह है कि श्रीन्द्रिय जीवों की उत्कृष्ट, शरीरावगाहना तीन कोस की है, उनके तीन इन्द्रियां हैं, जघन्य अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्ट उनपचास रात-दिन की स्थिति है / और सब वैसे ही कहना चाहिए यावत् वे दो गतिवाले, दो प्रागतिवाले, प्रत्येकशरीरी और असंख्यात कहे गये हैं / यह त्रीन्द्रियों का कथन हुआ। विवेचन–स्पर्शन, रसन और घ्राण-ये तीन इन्द्रियाँ जिन जीवों को होती हैं वे त्रीन्द्रिय जीव हैं। उनके कई प्रकार हैं / प्रज्ञापनासूत्र में उनके भेद इस प्रकार गिनाये गये हैं औपयिक, रोहिणीक, कंथु (कथा), पिपीलिका (चींटी), उद्देशक, उद्देहिका, (उदई-दीमक), उत्कलिक, उत्पाद, उत्कट, तृणाहार, काष्ठाहार (धुन), मालुक, पत्राहार, तृणवृन्तिक, पत्रवृन्तिक, पुष्पवृन्तिक, फलवृन्तिक, बीजवृन्तिक, तेंदुरणमज्जिक, त्रपुषभिजिक, कापस स्थिभिजक, हिल्लिक, झिल्लिक, झिगिर (झींगूर), किगिरिट, बाहुक, लघुक, सुभग, सौवस्तिक, शुकवृत्त, इन्द्रकायिक, इन्द्रगोपक (इन्द्रगोप-रेशमी कीड़ा), उरुलंचक, कुस्थलवाहक, यूका (जू), हालाहल, पिशुक (पिस्सू या खटमल), शतपादिका (गजाई), गोम्ही (कानखजूरा) और हस्तिशौण्ड / उक्त श्रीन्द्रिय जीवों के प्रकारों में कुछ तो प्रसिद्ध हैं ही। शेष देशविशेष या सम्प्रदाय से जानने चाहिए। ये त्रीन्द्रिय जीव पर्याप्त-अपर्याप्त के भेद से दो प्रकार के हैं इत्यादि सब कथन पूर्वोक्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org