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अनगार
सुखक संवेदनसे जिन्होंने अतीन्द्रिय आत्मिक सुखको प्राप्त करलिया है ऐसे मुनिवर नव ग्रैवेयकसे लेकर सर्वार्थ सिद्धितककै कल्पातीत देवसम्बन्धि लोकोत्तर आहमिन्द्र. पदको भी छोड देते हैं। उस धर्मकी महिमाका वर्णन कौन कर सकता है ? कोई नहीं कर सकता।।
भावार्थ- चरम शरीरपदकी प्राप्ति होसके ऐसे ,मुण्यविशेषका बंध करनेके उन्मुख हो जानेपर भी पुनः शुद्धोपयोगके निमित्तसे उसका बंध न करके उपशमश्रेणिसे उतर कर क्षपकणिका आरोहण कर जीवन्मुक्त होकर परमोत्कृष्ट मुक्तावस्थाको प्राप्त करते हैं। इस प्रकार वे महामुनि जो अहमिन्द्र पदका भी परित्याग कर देते हैं सो सब उस धर्मका ही माहात्म्य है।
1 अहमिन्द्रोंका स्वरूप आगममें इस प्रकार कहा है'अहमिन्द्रोस्मि नेन्द्रोन्यी मत्तोस्तीत्यत्तिकत्वनाः ।
अहमिन्द्राख्यया ख्वातिं गतास्ते हि सुरीसमाः ।। मेरे सिवाय और इन्द्र कौन है ? मैं ही तो इन्द्र हूं। इस प्रकार अपनेको इन्द्र उद्घोषित करनेवाले देव- कल्पातीत देव अहमिन्द्र नामसे प्रख्यात हैं। इनमें -
नासूया परनिन्दा वा नात्मश्लाघा न मत्सरः ।
* केवलं सुखसाद्भूता दीव्यन्त्यते दिवौकसः ।। न तो अस्या है और न मत्सरता ही है, एवं न ये परकी निन्दा करते और न अपनी प्रशंसा ही करते हैं। । केवल परम विभूतिके साथ सुखका अनुभव करते रहते हैं।
-गुणोंमें दोष प्रकट करना ।
अध्याय
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