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व्याम्नि स्वैरं चरन्तः प्रिययुवतिपरिस्पन्दसान्द्रप्रमोदाः। दीव्यन्तो दिव्यदेशेष्वविहतमणिमाद्यद्भुतोत्सृप्तिदृप्ता, निष्कान्ताविभ्रमं धिग्भ्रमणमिति सुरान् गत्यहंयून् क्षिपान्त ॥४४॥
अनगार
धर्मके प्रतापसे जीव विद्याओंके स्वामित्व विद्याधरपनको प्राप्त कर प्रिय तरुणियोंकी श्रृंगाररचनाका अत्यंत आनंद लेते हुए ध्वजाओं मालाओं घंटरियांओं घंटाओं आदिके शब्दों तथा झरोखों खिडकियों और मनोहर सुगन्धि आदि श्रेष्ठ विभवसे अत्यंत शोभायमान विमानोंके द्वारा आकाशमें इच्छानुसार विहार करते,
और अणिमा महिमा लघिमा गरिमा इशित्व वशित्व प्राकाम्य कामरूपित्व इन आठ गुणोंके अद्भुत -विस्मय करादेनेवाले उद्गमसे गर्वको प्राप्त कर अस्खलित रूपसे दिव्य देशों-नन्दन वन कुलपर्वत गङ्गादि नदियों तथा समुद्रादिकोंपर क्रीडा करते और मानुषोत्तर पर्वतके बाहर भी जा सकनेके कारण अपने गमनका गर्व रखनेवाले देवोंका भी“ जिसमें भू-विकारादिका विभ्रम-विलास नहीं पाया जाता उस भ्रमणको धिक्कार है" इस तरह तिरस्कार कर देते हैं। .. आहारक शरीरकी संपत्ति भी पुण्योदयसे ही प्राप्त होती है, यह दिखाते हैं
. प्राप्याहारकदेहेन सर्वज्ञं निश्चितश्रुताः ।
योगिनो धर्ममाहात्म्यान्नन्दन्त्यानन्दमेदुराः॥४५॥ चारित्रविशेषके द्वारा पूर्वमें संचित किये हुए आहारक शरीरनामा नामर्कमरूपी पुण्यविशेषके माहात्म्यसे
बध्याय
१ क्योंकि देवियोंके नेत्र निनिमेष होते हैं । विद्याधरियोंकी तरह उनके नेत्रोंकी टिमकार नहीं लगती ।